हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के जन्म दिवस पर विशेष

आज एक मूल्यवान हस्ती का जन्मदिवस है। आज के दिन पूर्वोत्तरी ईरान में स्थित प्रकाशमयी रौज़े की ओर मन लगे हुए हैं और पवित्र नगर मश्हद में सदाचारियों के वंश से एक आध्यात्मिक हस्ती के दरबार में अतिथि हैं। यह वह स्थान है जहां पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पौत्र हज़रत अली इब्ने मूसा रज़ा अलैहिस्सलाम का रौज़ा है। हज़ार वर्ष से अधिक समय से यह पवित्र स्थल उन भटके हुए लोगों के लिए शांति का स्थान है जो आत्मा की शुद्धता व मन की शांति की खोज में हैं और वे इस महान हस्ती के रौज़े में ईश्वर से लोक परलोक की भलाई की प्रार्थना करते हैं। हम भी इन श्रद्धालुओं की भीड़ में शामिल होकर पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों पर सलाम व दुरूद भेजते हैं और ईश्वर से सत्य के मार्ग पर क़दम के जमे रहने की प्रार्थना करते हैं।
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम 148 हिजरी क़मरी में मदीना नगर में पैदा हुए और अपने पिता इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की शहादत के पश्चात 35 वर्ष की आयु में उन्होंने मुसलमानों के मार्गदर्शन अर्थात इमामत का ईश्वरीय दायित्व संभाला और बीस वर्षों तक इस दायित्व को निभाते रहे किन्तु भाग्य ने कुछ इस प्रकार करवट ली कि उन्हें तत्कालीन अब्बासी शासक मामून के दबाव में पवित्र नगर मदीना से मर्व नगर जाना पड़ा जहां उन्होंने अपनी आयु के अंतिम तीन वर्ष गुज़ारे और इसी भूभाग में शहीद हुए। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने चाहे मदीना हो या मर्व में कुछ वर्षों के आवास का समय हो, लोगों के बीच धार्मिक पहचान व चेतना के स्तंभों को सुदृढ़ किया और समाज की आवश्यकता व क्षमता के अनुसार पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की शिक्षाओं व ईश्वरीय संदेश वहि की सही व्याख्या प्रचलित की। यद्यपि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की मदीना से मर्व यात्रा अब्बासी शासकों के उनके विरुद्ध षड्यंत्र व द्वेष का परिणाम थी किन्तु इस यात्रा की, लोगों के बीच पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों की स्थिति सुदृढ़ होने के अतिरिक्त और भी विभूतियां थीं क्योंकि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम जिस स्थान पर पहुंचते वहां कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती थी।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने इस विभूति भरी यात्रा के दौरान पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों की महान स्थिति से संबंधित पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के विख्यात कथन को लोगों के सामने बयान किया। यह मूल्यवान कथन इस वास्तविकता का वर्णन करता है कि पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों पर एकेश्वरवाद सहित अन्य आस्था संबंधि विचारों को सुदृढ़ करने और इसी प्रकार मुसलमानों के राजनैतिक व सामाजिक मामलों में दृष्टिकोण अपनाने का महत्वपूर्ण दायित्व है। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने अपनी पवित्र आयु के दौरान धार्मिक शिक्षाओं के विस्तार का बहुत प्रयास किया। विशेष कर इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के काल में धर्मों व विभिन्न मतों के बीच शास्त्रार्थ का काफ़ी चलन था और उन्होंने इन्हीं शास्त्रार्थों के माध्यम से सही धार्मिक शिक्षाओं को लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया।
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ईश्वरीय संदेश वहि के प्रतीक, क़ुरआन को धर्म की पहचान के मूल स्रोत के रूप में पेश करते थे। इमाम रज़ा अलैहिस्साम ने विभिन्न शैलियों द्वारा मुसलमानों को पवित्र क़ुरआन के उच्च स्थान को पहचनवाया है। पवित्र क़ुरआन के महत्व का उल्लेख करने के लिए इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की एक शैली यह थी कि आप बहुत से अवसरों पर चाहे वह शास्त्रार्थ हो या दूसरी बहसें हों, पवित्र क़ुरआन की आयतों को तर्क के रूप में पेश करते थे। इसी प्रकार इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम पवित्र क़ुरआन पढ़ने और उसकी आयतों में चिंतन मनन पर बहुत बल देते थे। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने क़ुरआन के महत्व के संबंध में कहा है कि क़ुरआन, ईश्वर का कथन है, उससे आगे न बढ़ो और उसके निर्देशों का उल्लंघन न करो और क़ुरआन को छोड़ कहीं और से मार्गदर्शन मत ढूंढो अन्यथा पथभ्रष्ट हो जाओगे।
प्रश्न, ज्ञान की उच्च चोटियों तक पहुंचने व प्रगति की सीढ़ी का पहला पाएदान है। पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजन चिंतन मनन व धार्मिक प्रश्नों को बहुत महत्व देते और अज्ञानता की कड़े शब्दों में निंदा करते थे। इस संदर्भ में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम, पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के एक कथन को उद्धरित करते हैं। पैग़म्बरे इस्लाम फ़रमाते हैः ज्ञान, एक ख़ज़ाना है जिसकी कुंजी प्रश्न करना है अतः पूछो! कि प्रश्न पूछने वाले और उत्तर देने वाले को आध्यात्मिक पारितोषिक मिलता है।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम भी प्रश्न करने वालों का बड़े खुले मन से स्वागत करते और शास्त्रार्थ के निमंत्रण को स्वीकार करते थे। इस्लाम की जीवनदायी संस्कृति के विस्तार में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के शास्त्रार्थों का बहुत बड़ा योगदान है। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के शास्त्रार्थों की एक विशेषता यह भी थी कि शास्त्रार्थों में आपका मुख्य उद्देश्य दूसरों का मार्गदर्शन होता न कि सामने वाले पर अपनी वरीयता सिद्ध करता। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं यदि लोगों को हमारी बातों का सौंदर्य बोध हो जाए तो निःसंदेह वे हमारा अनुसरण करेंगे।
कितनी बार ऐसा होता था कि वैज्ञानिक व आत्मबोध से भरी इन वार्ताओं के कारण बहुत सी शत्रुताएं, मित्रता में बदल जाया करती थीं। शास्त्रार्थों में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का एक उद्देश्य विभिन्न मतों के शास्त्रार्थियों के संदेहों को दूर करना भी था। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम उस समय के सांस्कृतिक स्तर व संबोधक के वैचारिक स्तर के अनुसार बात करते थे। कभी ऐसा भी होता था कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम विभिन्न धर्मों के विचारकों के साथ शास्त्रार्थों में संयुक्त बिन्दुओं का उल्लेख करते या फिर उन्हें उनकी पसंद के अनुसार तर्कपूर्ण बातों से समझाते थे। जैसे जब इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ईसाइयों से शास्त्रार्थ करते थे तो बाइबल से या जब यहूदियों से बहस करते तो तौरैत की आयतों को उद्धरित करते थे।
नीशापूर के फ़ज़्ल इब्ने शाज़ान, इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का एक कथन प्रस्तुत करते हैं कि यदि यह पूछा जाए कि धर्म का सबसे पहला आदेश क्या है? तो इसके उत्तर में कहा जाएगा कि पहला अनिवार्य काम ईश्वर, उसके पैग़म्बरों व पैग़म्बरे इस्लाम के वंश से बारह इमामों पर आस्था है। यदि यह प्रश्न किया जाए कि ईश्वर ने इसे क्यों अनिवार्य किया है तो इसका उत्तर यह है कि ईश्वर और उसके पैग़म्बरों पर ईमान की आवश्यकता के कई तर्क हैं जिनमें से एक यह है कि यदि लोग ईश्वर के अस्तित्व पर ईमान नहीं लाएंगे और उसके अस्तित्व को नहीं मानेंगे तो वे अत्याचार, अपराध व दूसरे बुरे कर्मों से दूर नहीं होंगे। जो चीज़ पसंद आएगी उसकी ओर, किसी को अपने ऊपर निरीक्षक समझे बिना बढ़ेंगे। यदि लोगों की यही सोच हो जाए तो मानव समाज का सर्वनाश हो जाएगा और हर व्यक्ति एक दूसरे पर अत्याचार द्वारा वर्चस्व जमाने का प्रयास करेगा।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम मन की बुराइयों को रोकने में ईश्वर पर आस्था की भूमिका को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं कि व्यक्ति एकांत में कभी पाप करता है। इस स्थिति में कोई भी मानव क़ानून उसे ऐसा करने से नहीं रोक सकता, केवल ईश्वर पर आस्था ही व्यक्ति व समाज को एकांत में व खुल्लम खुल्ला ऐसा करने से रोक सकती है। यदि ईश्वर पर ईमान और उसका भय न होगा तो कोई भी व्यक्ति एकांत में पाप करने से नहीं चूकेगा।
जनसेवा, ईश्वर पर दृढ़ आस्था रखने वालों व परिपूर्ण व्यक्तियों की सबसे महत्वपूर्ण निशानियों में से है। पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के परिजनों के आचरण व कथनों में, सहायता, ईश्वर के मार्ग में ख़र्च करने, वंचितों व अत्याचारियों के समर्थन तथा निर्धनों की आवश्यकतओं की पूर्ति जैसे शब्दों में इसका स्पष्ट उदाहरण मिलता है। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की दृष्टि में वंचितों व निर्धनों की सेवा के बहुत मूल्यवान लाभ हैं। आप फ़रमाते हैं कि धरती पर ईश्वर के कुछ ऐसे बंदे हैं जो वंचितों की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं और जनसेवा में किसी भी प्रयास से पीछे नहीं हटते। ये लोग प्रलय के दिन के कष्ट से सुरक्षित रहेंगे। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम आगे फ़रमाते हैं कि जो भी किसी मोमिन को प्रसन्न करेगा तो ईश्वर प्रलय के दिन उसके मन को प्रसन्न करेगा। इतिहास साक्षी है कि सभी ईश्वरीय पैग़म्बर, लोगों से प्रेम व जनसेवा करते थे। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम केवल ईमान वालों की सेवा व उनके साथ भलाई की अनुशंसा नहीं करते बल्कि पवित्र क़ुरआन के अनुसार इस बिन्दु पर बल देते थे सेवा द्वारा शत्रु को मित्र में बदलो। उन्होंने लोगों को इस्लाम की ओर आकर्षित करने की पैग़म्बरे इस्लाम इस शैली को अपनाया था।
पैग़म्बरे इस्लाम व उनके पवित्र परिजनों के आचरण पर थोड़ा सा ध्यान देने से समाज में उनकी लोकप्रियता व सफलता के रहस्य को समझा जा सकता है। वे पवित्र क़ुरआन के सूरए फ़ुस्सेलत की इन आयतों का व्यवहारिक उदाहरण थे जिनमें ईश्वर कहता है कि भलाई व बुराई कदापि बराबर नहीं हो सकते, दुर्व्यवहार को भलाई से दूर करो इस स्थिति में तुम उसे सबसे अच्छा मित्र पाओगे जो तुम्हारा शत्रु है।
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के वैचारिक व सांस्कृतिक प्रयासों में यह भी था कि आप इस्लामी जगत में धार्मिक नेतृत्व व शासन के विषय की व्याख्या करते थे। नेतृत्व ऐसा विषय है जिसका महत्व केवल इस्लामी समाज में हीं नहीं बल्कि सभी समाजों में विशेष महत्व है और इसे एक सामाजिक आवश्यकता समझा जाता है। इस संबंध में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि नेतृत्व समाज की स्थिरता का आधार है। इस नेतृत्व की छत्रछाया में जनसंपत्ति का सही उपयोग किया जा सकता है, शत्रु से लड़ा जा सकता है, पीड़ितों के सिर से अत्याचारियों के अत्याचार को दूर किया जा सकता है।
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम इस्लामी समाज के नेता की विशेषताओं का इन शब्दों में उल्लेख करते हैं। उसे ईमानदार व आध्यात्मिक व धार्मिक मूल्यों का संरक्षक तथा भरोसे योग्य अभिभावक होना चाहिए। क्योंकि यदि इस्लामी जगत के शासक में ये गुण नहीं होंगे तो धर्म बाक़ी नहीं बचेगा। धार्मिक व ईश्वरीय आदेश व परंपरा बदल जाएगी। धर्म में बाहर की बातें अधिक शामिल हो जाएंगी और ऐसी स्थिति में अधर्मी टूट पड़ेंगे और मुसलमानों के सामने धर्म की बातें अस्पष्ट हो जाएंगी।