इमाम अली और यहूदी
एक बार अमीरूल मोमेनीन (अ .स.) का इख़्तेलाफ़ एक यहूदी से हो गया जिसके पास आपकी ज़िरह थी , उसने क़ाज़ी से फै़सला कराने पर इसरार किया।
आप यहूदी के साथ क़ाज़ूी शरीह के पास आए तो उसने आपसे गवाह तलब किये ।
आपने क़म्बर और इमाम हुसैन (अ.स) को पेश किया , काज़ी शरीह ने क़म्बर की गवाही क़ुबूल कर ली और इमाम हसन (अ 0) की गवाही फ़रज़न्द होने की बिना पर रद कर दी ।
आपने फ़रमाया के रसूले अकरम (स 0) ने उन्हें सरदारे जवानाने जन्नत क़रार दिया है और तुम उनकी गवाही को रद कर रहे हो ? काज़ी ने अपना फैसला यहूदी के हक़ मे दिया।
लेकिन इसके बावजूद इमाम ने फ़ैसले का ख़याल करते हुए ज़िरह यहूदी को दे दी।
उस यहूदी ने वाक़ेए को निहायत दरजए हैरत से देखा और फिर कलमए शहादतैन पढ़ कर मुसलमान हो गया।
आपने ज़िरह के साथ उसे घोड़ा भी दे दिया और 900 दिरहम वज़ीफ़ा मुक़र्रर कर दिया।
वह मुस्तक़िल आपकी खि़दमत में हाज़िर रहा यहां तक के सिफ़्फ़ीन में दरजए शहादत पर फ़ाएज़ हो गया।
इस वाक़ेए से अन्दाज़ा होता है के इमाम अलैहिस्सलाम का किरदार क्या था।