किन चीज़ो पर खुम्स वाजिब है।

 ख़ुम्स के अहकाम

 

1760. ख़ुम्स सात चीज़ों पर वाजिब हैः-

 

1. कारोबार (या रोज़गार) का मुनाफ़ा।

2. मअदिनी कानें।

3. गड़ा हुआ ख़ज़ाना।

4. हलाल माल जो हराम माल में मख़लूत हो जाए।

5. ग़ोताख़ोरी से हासिल होने वाले समुन्द्री मोती और मूंगे।

6. जंग में मिलने वाला माले ग़नीमत।

7. मश्हूर क़ौल की बिना पर वह ज़मीन जो ज़िम्मी काफ़िर किसी मुसलमान से ख़रीदे।

ज़ैल में इनके अहकाम तफ़्सील से बयान किये जायेंगे।

 

1.कारोबार का मुनाफ़ा

1761. जब इंसान तिजारत, सन्अत व हिर्फ़त या दूसरे काम धंदों से रुपया पैसा कमाए, मिसाल के तौर पर अगर कोई अजीर बन कर किसी मुतवफ़्फ़ी की नमाज़ें पढ़े और रोज़ा रखे और इस तरह कुछ रुपया कमाए लिहाज़ा अगर वह कमाई ख़ुद उसके और उसके अहलो अयाल के साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो तो ज़रूरी है कि ज़ायद कमाई का ख़ुम्स यानी पांचवां हिस्सा उस तरीक़े के मुताबिक दे जिसकी तफ़्सील बाद में बयान होगी।

1762. अगर किसी को कमाई किये बग़ैर कोई आमदनी हो जाए मसलन कोई शख़्स उसे बतौरे तोहफ़ा कोई चीज़ दे और वह उसके साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो तो ज़रूरी है कि उस का ख़ुम्स दे। 1763. औरत को जो महर मिलता है और शौहर, बीवी को तलाक़े ख़ुलअ देने के एवज़ जो माल हासिल करता है उन पर ख़ुम्स नहीं है, और इसी तरह जो मीरास इंसान को मिले उस का भी मीरास के मोअतबर क़वाइद की रू से यही हुक्म है। और अगर उस मुसलमान को जो शीअह है किसी और ज़रीए से मसलन पदरी रिश्तेदार की तरफ़ से मीरास मिले तो उस माल को फ़वायद में शुमार किया जायेगा और ज़रूरी है कि उसका ख़ुम्स दे। इसी तरह अगर उसे बाप और बेटे के अलावा किसी और तरफ़ से मीरास मिले कि जिस का ख़ुद उसे गुमान तक न हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि वह मीरास अगर उसके साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो तो उसका ख़ुम्स दे।

1764. अगर किसी शख़्स को कोई मीरास मिले और उसे मालूम हो कि जिस शख़्स से उसे यह मीरास मिली है उसने उस का ख़ुम्स नहीं दिया था तो ज़रूरी है कि वारिस उस का ख़ुम्स दे। इसी तरह अगर खुद उस माल पर ख़ुम्स वाजिब न हो और वारिस को इल्म हो कि जिस शख़्स से उसे वह माल विरसे में मिला है उस शख़्स के ज़िम्मे ख़ुम्स वाजिबुल अदा था तो ज़रूरी है कि उस के माल में ख़ुम्स अदा करे। लेकिन दोनों सूरतों में जिस शख़्स से माल विरसे में मिला हो अगर वह ख़ुम्स देने का मोअतक़िद न हो या यह कि वह ख़ुम्स देता ही न हो तो ज़रूरी नहीं कि वारिस वह ख़ुम्स अदा करे जो उस शख़्स पर वाजिब था।

1765. अगर किसी शख़्स ने किफ़ायत शिआरी के सबब साल भर के अख़राजात के बाद कुछ रक़म पस अन्दाज़ की हो तो ज़रूरी है कि उस बचत का ख़ुम्स दे।

1766. जिस शख़्स के तमाम अख़राजात कोई दूसरा शख़्स बर्दाश्त करता हो तो ज़रूरी है कि जितना माल उसके हाथ आए उस का ख़ुम्स दे।

1767. अगर कोई शख़्स अपनी जायदाद कुछ ख़ास अफ़राद मसलन अपनी औलाद के लिए वक़्फ़ कर दे और वह लोग उस जायदाद में खेती बाड़ी और शजरकारी करें और उस से मुनाफ़ा कमायें और वह कमाई उनके साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो तो ज़रूरी है कि उस कमाई का ख़ुम्स दें। नीज़ यह कि अगर वह किसी और तरीक़े से उस जायदाद से नफ़्अ हासिल करें मसलन उसे किराये या ठीके पर दे दें तो ज़रूरी है कि नफ़्अ की जो मिक़्दार उनके साल भर के अख़राजात में ज़्यादा हो उस का ख़ुम्स दें।

1768. जो माल किसी फ़क़ीर नें वाजिब या मुस्तहब सदक़े के तौर पर हासिल किया हो वह उस के साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो या जो माल उसे दिया गया है उस से उसने नफ़्अ कमाया हो मसलन उसने एक ऐसे दरख़्त से जो उसे दिया गया हो मेवा हासिल किया हो और वह उसके साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो तो ज़रूरी है कि उसका ख़ुम्स दे। लेकिन जो माल उसे बतौर ख़ुम्स या ज़कात दिया गया हो और वह उसके साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो तो ज़रूरी नहीं कि उस का ख़ुम्स दे।

1769. अगर कोई शख़्स ऐसी रक़म से कोई चीज़ ख़रीदे जिसका ख़ुम्स न दिया गया हो यानी बेचने वाले से कहे कि, मैं यह चीज़ उस रक़म से ख़रीद रहा हूं, अगर बेचने वाला शीआ इस्ना अशरी हो तो ज़ाहिर यह है कि कुल माल के मुतअल्लिक़ मुआमला दुरुस्त है और ख़ुम्स का तअल्लुक़ उस चीज़ से हो जाता है जो उसने उस रक़म से ख़रीदी है और (इस मुआमले में) हाकिमे शर्अ की इजाज़त और दस्तखत की ज़रूरत नहीं है।

1770. अगर कोई शख़्स कोई चीज़ ख़रीदे और मुआमला तय करने के बाद उसकी क़ीमत उस रक़म से अदा करे जिसका ख़ुम्स न दिया गया हो तो जो मुआमला उसने किया है वह सहीह है और जो रक़म उसने फ़रोशिन्दा को दी है उस के ख़ुम्स के लिए वह ख़ुम्स के मुस्तहक़्क़ीन का मक़रुज़ है।

1771. अगर कोई शीआ इस्ना अशरी मुसलमान कोई ऐसा माल ख़रीदे जिसका ख़ुम्स न दिया गया हो तो उसका ख़ुम्स बेचने वाले की ज़िम्मेदारी है और खरीदार के लिए कुछ नहीं।

1772. अगर कोई शख़्स किसी शीआ इस्ना अशरी मुसलमान को कोई ऐसी चीज़ बतौर अतीया दे जिसका ख़ुम्स न दिया गया हो तो उसके ख़ुम्स की अदायगी की ज़िम्मेदारी अतीया देने वाले पर है और (जिस शख़्स को अतीया दिया गया हो) उसके ज़िम्मे कुछ नहीं।

1773. अगर इंसान को किसी काफ़िर से या ऐसे शख़्स से जो ख़ुम्स देने पर एतिक़ाद न रखता हो कोई मिले तो उस माल का ख़ुम्स देना वाजिब नहीं है।

1774. ताजिर, दुकानदार, कारीगर और इस क़िस्म के दूसरे लोगों के लिए ज़रूरी है कि उस वक़्त से जब उन्होंने कारोबार शुरू किया हो, एक साल गुज़र जाए तो जो कुछ उनके साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो उसका ख़ुम्स दें। और जो शख़्स किसी काम धन्दे से कमाई न करता हो अगर उसे इत्तिफ़ाक़न कोई नफ़्अ हासिल हो जाए तो जब उसे यह नफ़्अ मिले उस वक़्त से एक साल गुज़रने के बाद जितनी मिक़्दार उसके साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो ज़रूरी है कि उसका ख़ुम्स दे।

1775. साल के दौरान जिस वक़्त भी किसी शख़्स को मुनाफ़ा मिले वह उस का ख़ुम्स दे सकता है और उसके लिए यह भी जाइज़ है कि साल के ख़त्म होने तक उसकी अदायगी को मुवख़्ख़र कर दे और अगर वह ख़ुम्स अदा करने के लिए शम्सी साल (रोमन कैलेण्डर) इख़्तियार केर तो कोई हरज नहीं।

1776. अगर कोई ताजिर या दुकानदार ख़ुम्स देने के लिए साल की मुद्दत मुअय्यन करे और उसे मुनाफ़ा हासिल हो लेकिन वह साल के दौरान मर जाए तो ज़रूरी है कि उसकी मौत के अख़राजात उस मुनाफ़ा में मिन्हा कर के बाक़ी मांदा का ख़ुम्स दिया जाए।

1777. अगर किसी शख़्स के बग़रज़े तिजारत खरीदे हुए माल की क़ीमत बढ़ जाए और वह उसे न बेचे और साल के दौरान उसकी क़ीमत गिर जाए तो जितनी मिक़्दार तक क़ीमत बढ़ी हो उस का ख़ुम्स वाजिब नहीं है।

1778. अगर किसी शख़्स के बग़रज़े तिजारत ख़रीदे हुए माल की क़ीमत बढ़ जाए और वह इस उम्मीद पर कि अभी इस की क़ीमत और बढ़ेगी उस माल को साल के ख़ातिमे के बाद तक फ़रोख़्त न करे और फिर उसकी क़ीमत गिर जाए तो जिस मिक़्दार तक क़ीमत बढ़ी हो उस का ख़ुम्स देना वाजिब है। 1779. किसी शख़्स ने माले तिजारत के अलावा कोई माल ख़रीद कर या उसी की तरह किसी तरीक़े से हासिल किया हो जिसका ख़ुम्स वह अदा कर चुका हो तो अगर उस की क़ीमत बढ़ जाए और वह उसे बेच दे तो ज़रूरी है कि जिस क़दर उस चीज़ की क़ीमत बढ़ी है उस का ख़ुम्स दे। इसी तरह मसलन अगर कोई दरख़्त ख़रीदे और उसमें फल लगें या (भेड़ ख़रीदे और वह) भेड़ मोटी हो जाए तो अगर उन चीज़ों की निगाह दाश्त से उसका मक़सद नफ़्अ कमाना था तो ज़रूरी है कि उनकी क़ीमत में जो इज़ाफ़ा हुआ हो उस का खुम्स दे बल्कि अगर उसका मक़्सद नफ़्अ कमाना न भी रहा हो तब भी ज़रूरी है कि उन का ख़ुम्स दे।

1780. अगर कोई शख़्स इस ख़्याल से बाग़ (में पौदे) लगाए कि क़ीमत बढ़ जाने पर उन्हें बेच देगा तो ज़रूरी है कि फ़लों की और दरख़्तों की नशवोनुमा और बाग़ की बढ़ी हुई क़ीमत का ख़ुम्स दे लेकिन अगर उसका इरादा यह रहा हो कि उन दरख़्तों के फल बेच कर उनसे नफ़्अ कमाएगा तो फ़क़त फलों का ख़ुम्स देना ज़रूरी है।

1781. अगर कोई शख़्स बेदमुश्क और चुनार वग़ैरा के दरख़्त लगाए तो ज़रूरी है कि हर साल उनके बढ़ने का ख़ुम्स दे और इसी तरह अगर मसलन उन दरख़्तों की उन शाख़ों से नफ़्अ कमाए जो उमूमन हर साल काटी जाती हैं और तन्हा उन शाख़ों की कीमत या दूसरे फ़ाइदों को मिला कर उसकी आमदनी उसके साल भर के अख़राजात से बढ़ जाए तो ज़रूरी है कि हर साल के ख़ातिमे पर उस ज़ाइद रक़म का ख़ुम्स दे।

1782. अगर किसी शख़्स की आमदनी की मुतअद्दिद ज़राए हों मसलन जायदाद का किराया आता हो और ख़रीदो फ़रोख़्त भी करता हो और उन तमाम ज़राए तिजारत की आमदनी और अख़राजात और तमाम रक़म का हिसाब किताब यकजा हो तो ज़रूरी है कि साल के ख़ातिमे पर जो कुछ उसके अख़राजात से ज़ाइद हो उसका ख़ुम्स अदा करे। और अगर एक ज़रीए से नफ़्अ कमाए और दूसरे ज़रीए से नुक़्सान उठाए तो वह एक ज़रीए के नुक़्सान का दूसरे ज़रीए के नुक़्सान से तदारुक कर सकता है। लेकिन अगर उसके दो मुख़्तिलिफ़ पेशे हों मसलन तिजारत और ज़िराअत करता हो तो उस सूरत में एहतियाते वाजिब की बिना पर वह एक पेशे के नुक़्सान का तदारुक दूसरे पेशे के नफ़्अ से नहीं कर सकता।

1783. इंसान जो अख़राजात फ़ाइदा हासिल करने के लिए मसलन दलाली और बार बरदारी के सिलसिले में ख़र्च करे तो उन्हें मुनाफ़ा में से मिन्हा कर सकता है और उतनी मिक़्दार का खुम्स अदा करना लाज़िम नहीं।

1784. कारोबार के मुनाफ़े से कोई शख़्स साल भर में जो कुछ खोराक, लिबास, घर के साज़ो सामान, मकान की खरीदारी, बेटे की शादी, बेटी के जहेज़ और ज़ियारत वग़ैरा पर खर्च करे उस पर ख़ुम्स नहीं है बशर्ते की ऐसे अख़राजात उसकी हैसियत से ज़्यादा न हों और उसने फ़ुज़ूल ख़र्ची भी न की हो।

1785. जो माल इंसान मन्नत और कफ़्फ़ारे पर ख़र्च करे वह सालाना अख़राजात का हिस्सा है। इसी तरह वह माल भी उसके सालाना अख़राजात का हिस्सा है जो वह किसी को तोहफ़े या इन्आम के तौर पर दे बशर्ते कि उसकी हैसियत से ज़्यादा न हो।

1786. अगर इंसान अपनी लड़की की शादी के वक़्त तमाम जहेज़ इकट्ठा तैयार न कर सकता हो तो वह उसे कई सालों में थोड़ा थोड़ा कर के जमअ कर सकता है चुनांचे अगर जहेज़ तैयार न करना उसकी शान के ख़िलाफ़ हो और वह साल के दौरान उसी साल के मुनाफ़े से कुछ जहेज़ ख़रीदे जो उसकी हैसियत से बढ़ कर न हो तो उस पर ख़ुम्स देना लाज़िम नहीं है और अगर वह जहेज़ उसकी हैसियत से बढ़ कर हो या एक साल के मुनाफ़े से दूसरे साल तैयार किया गया हो तो उसका ख़ुम्स देना ज़रूरी है।

1787. जो माल किसी शख़्स ने ज़ियारते बैतुल्लाह (हज) और दूसरी ज़ियारत के सफ़र पर ख़र्च किया हो उस साल के अख़राजात में शुमार होता है जिस साल में ख़र्च किया जाए तो जो कुछ वह दूसरे साल में ख़र्च करे उसका ख़ुम्स देना ज़रूरी है।

1788. जो शख़्स किसी पेशे या तिजारत वग़ैरा से मुनाफ़ा हासिल करे अगर उसके पास कोई और माल भी हो जिस पर ख़ुम्स वाजिब न हो तो वह अपने साल भर के अख़राजात का हिस्सा फ़क़त अपने मुनाफ़े को मद्दे नज़र रखते हुए कर सकता है।

1789. जो सामान किसी शख़्स ने साल भर इस्तेमाल करने के लिए अपने मुनाफ़े से ख़रीदा हो अगर साल के आख़िर में उस से कुछ बच जाए तो ज़रूरी है कि उसका ख़ुम्स दे और अगर ख़ुम्स उस की क़ीमत की सूरत में देना चाहे और जब वह सामान ख़रीदा था उसके मुक़ाबिले में उसकी क़ीमत बढ़ गई हो तो ज़रूरी है कि साल के ख़ातिमे पर जो क़ीमत हो उसका हिसाब लगाए।

1790. कोई शख़्स ख़ुम्स देने से पहले अपने मुनाफ़े में से घरेलू इस्तेमाल के लिए सामान ख़रीदे अगर उसकी ज़रूरत मुनाफ़ा हासिल होने वाले साल के बाद ख़त्म हो जाए तो ज़रूरी नहीं की उसका ख़ुम्स दे और अगर दौराने साल उसकी ज़रूरत ख़त्म हो जाए तो भी यही हुक्म है। लेकिन अगर वह सामान उन चीज़ों में से हो जो उमूमन आइन्दा सालों में इस्तेमाल के लिए रखी जाती हो जैसे सर्दी और गर्मी के कपड़े तो उन पर ख़ुम्स नहीं होता। इस सूरत के अलावा जिस वक़्त भी उस सामान की ज़रूरत ख़त्म हो जाए एहतियाते वाजिब यह है कि उसका ख़ुम्स दे और यही सूरत ज़नाना ज़ेवरात की है जबकि औरत का उन्हें बतौरे ज़ीनत इस्तेमाल करने का ज़माना गुज़र जाए।

1791. अगर किसी शख़्स को साल के शूरू में मुनाफ़ा न हो और वह अपने सरमाए से ख़र्च उठाए और साल के ख़त्म होने से पहले उसे मुनाफ़ा हो जाए तो उसने जो कुछ सरमाए में से ख़र्च किया है उसे मुनाफ़ा से मिन्हा कर सकता है।

1792. अगर किसी शख़्स को किसी साल में मुनाफ़ा न हो तो वह उस साल के अख़राजात को आइन्दा साल के मुनाफ़े से मिन्हा नहीं कर सकता।

1793. अगर सरमाए का कुछ हिस्सा तिजारत वग़ैरा में डूब जाए तो जिस क़दर सरमाया डूबा हो इंसान उतनी मिक़्दार उस साल के मुनाफ़े से मिन्हा कर सकता है।

1794. अगर किसी शख़्स के माल में से सरमाए के अलावा कोई और चीज़ ज़ाए हो जाए तो उस चीज़ को मुनाफ़े में से मुहैया नहीं कर सकता लेकिन अगर उसे उसी साल में उस चीज़ की ज़रूरत पड़ जाए तो वह उस साल के दौरान अपने मुनाफ़े से मुहैया कर सकता है।

1795. अगर किसी शख़्स को सारा साल कोई मुनाफ़ा न हो और वह अपने अख़राजात क़र्ज़ लेकर पूरे करे तो वह आइन्दा सालों के मुनाफ़े से क़र्ज़ की रक़म मिन्हा नहीं कर सकता लेकिन अगर साल के शूरू में अपने अख़राजात पूरे करने के लिए क़र्ज़ ले और साल ख़त्म होने से पहले मुनाफ़ा कमाए तो अपने क़र्ज़े की रक़म उस मुनाफ़े में मिन्हा कर सकता है। और इसी तरह पहली सूरत में वह उस क़र्ज़ को उस साल के मुनाफ़े से अदा कर सकता है और मुनाफ़ा की उस मिक़्दार से ख़ुम्स का कोई तअल्लुक़ नहीं।

1796. अगर कोई शख़्स माल बढ़ाने की ग़रज़ से या ऐसी इमलाक ख़रीदने के लिए जिसकी उसे ज़रूरत न हो क़र्ज़ ले तो वह उस साल के मुनाफ़ा से उस क़र्ज़ को अदा नहीं कर सकता। हां जो माल बतौरे क़र्ज़ लिया हो या जो चीज़ उस क़र्ज़ से ख़रीदी हो अगर वह तलफ़ हो जाए तो उस सूरत में वह अपना क़र्ज़ उस साल के मुनाफ़ा से अदा कर सकता है।

1797. इंसान हर उस चीज़ का जिस पर ख़ुम्स वाजिब हो चुका हो उसी चीज़ की शक्ल में ख़ुम्स दे सकता है और अगर चाहे तो जितना ख़ुम्स उस पर वाजिब हो उसकी क़ीमत के बराबर रक़म भी दे सकता है लेकिन अगर किसी दूसरी जिंस की सूरत में जिस पर ख़ुम्स वाजिब न हो देना चाहे तो महल्ले इश्काल है बजुज़ इस के कि ऐसा करना हाकिमे शर्अ की इजाज़त से हो।

1798. जिस शख़्स के माल पर ख़ुम्स वाजिबुल अदा हो और साल गुज़र गया हो लेकिन उसने ख़ुम्स न दिया हो और ख़ुम्स देने का इरादा भी न रखता हो वह उस माल में तसर्रुफ़ नहीं कर सकता बल्कि एहतियाते वाजिब की बिना पर अगर ख़ुम्स देने का इरादा रखता हो तब भी वह तसर्रुफ़ नहीं कर सकता।

1799. जिस शख़्स को ख़ुम्स अदा करना हो वह यह नहीं कर सकता कि उस ख़ुम्स को अपने ज़िम्मे ले यानी अपने आप को ख़ुम्स के मुस्तहक़्क़ीन का मक़रूज़ तसव्वुर करे और सारा माल इस्तेमाल करता रहे और अगर इस्तेमाल करे और वह माल तलफ़ हो जाए तो ज़रूरी है कि उसका ख़ुम्स दे।

1800. जिस शख़्स को ख़ुम्स अदा करना हो अगर वह हाकिमे शर्अ से मुफ़ाहिमत कर के ख़ुम्स को अपने ज़िम्मे ले ले तो सारा माल इस्तेमाल कर सकता है और मुफ़ाहिमत के बाद उस साल से जो मुनाफ़ा उसे हासिल हो वह उसका अपना माल है।

1801. जो शख़्स कारोबार में किसी दूसरे के साथ शरीक हो अगर वह अपने मुनाफ़े पर ख़ुम्स दे दे और उसका हिस्सेदार ख़ुम्स न दे और आइन्दा साल वह हिस्सेदार उस माल को जिसका ख़ुम्स उस ने नहीं दिया साझे में सरमाए के तौर पर पेश करे तो वह शख़्स (जिसने ख़ुम्स अदा कर दिया हो) अगर शिआ इस्ना अशरी मुसलमान हो तो उस माल को इस्तेमाल में ला सकता है।

1802. अगर नाबालिग़ बच्चे के पास कोई सरमाया हो और उस से मुनाफ़ा हासिल हो तो अक़्वा की बिना पर उसका ख़ुम्स देना होगा और उसके वली पर वाजिब है कि उसका ख़ुम्स दे और अगर वली ख़ुम्स न दे तो बालिग़ होने के बाद वाजिब है कि वह ख़ुद ख़ुम्स अदा दे।

1803. जिस शख़्स को किसी दूसरे शख़्स से कोई माल मिले और उसे शक हो कि (माल देने वाले) दूसरे शख़्स ने उसका ख़ुम्स दिया है या नहीं तो वह (माल हासिल करने वाला शख़्स) उस माल में तसर्रुफ़ कर सकता है। बल्कि अगर यक़ीन भी हो कि उस दूसरे शख़्स ने ख़ुम्स नहीं दिया तब भी अगर वह शीआ इस्ना अशरी मुसलमान हो तो उस माल में तसर्रुफ़ कर सकता है।

1804. अगर कोई शख़्स कारोबार के मुनाफ़ा से साल के दौरान ऐसी जायदाद ख़रीदे जो उसकी साल भर की ज़रूरीयात और अख़राजात में शुमार हो तो उस पर वाजिब है कि साल के ख़ातिमें पर उसका ख़ुम्स दे और अगर ख़ुम्स न दे और उस जायदाद की क़ीमत बढ़ जाए तो लाज़िम है कि उसकी मौजूदा क़ीमत पर ख़ुम्स दे और जायदाद के अलावा क़ालीन वग़ैरा के लिए भी यही हुक्म है।

1805. जिस शख़्स ने शुरू से (यअनी जब से उस पर ख़ुम्स की अदायगी वाजिब हुई हो) ख़ुम्स न दिया हो मिसाल के तौर पर अगर वह कोई जायदाद ख़रीदे और उसकी क़ीमत बढ़ जाए और अगर उसने यह जायदाद इस इरादे से न ख़रीदी हो कि उसकी क़ीमत बढ़ जायेगी तो बेच देगा। मसलन खेती बाड़ी के लिए ज़मीन ख़रीदी हो और उसकी क़ीमत उस रक़म से अदा की हो जिस पर ख़ुम्स न दिया हो तो ज़रूरी है कि क़ीमते ख़रीद पर ख़ुम्स दे और अगर मसलन बेचने वाले को वह रक़म दी है जिस पर ख़ुम्स न दिया हो और उसे कहा हो कि मैं यह जायदाद उस रक़म से ख़रीदता हूं तो ज़रूरी है कि उस जायदाद की मौजूदा क़ीमत पर ख़ुम्स दे।

1806. जिस शख़्स ने शुरू से (यअनी जब से उस पर ख़ुम्स की अदायगी वाजिब हुई ) ख़ुम्स न दिया हो अगर उसने कारोबार के मुनाफ़ा से कोई ऐसी चीज़ ख़रीदी हो जिसकी उसको ज़रूरत न हो और उसे मुनाफ़ा कमाए एक साल गुज़र गया हो तो ज़रूरी है कि उसका ख़ुम्स दे और अगर उसने घर का साज़ो सामान और ज़रूरत की चीज़ें अपनी हैसियत के मुताबिक़ ख़रीदी हों और जानता हो कि उसने यह चीज़ें उस साल के दौरान उस मुनाफ़े से ख़रीदी हैं जिस साल में उसे मुनाफ़ा हुआ है तो उन पर ख़ुम्स देना लाज़िमी नहीं लेकिन अगर उसे यह मअलूम हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि हाकिमे शर्अ से मुफ़ाहिमत करे।

 

2. कानें

1807. सोने, चाँदी, सीसे, तांबे, लोहे (जैसी धातों की कानें, नीज़ पिट्रौलियम, कोयले, फ़ीरोज़े, अक़ीक़, फ़िटकिरी या नमक की कानें और (इसी तरह की) दूसरी कानें अन्फ़ाल के ज़ुमरे में आती हैं यअनी यह इमामे अस्र (अ0) की मिल्कियत है। लेकिन अगर कोई शख़्स उनमें से कोई चीज़ निकाले जब कि शर्अन कोई हरज न हो तो वह उसे अपनी मिल्कियत क़रार दे सकता है और अगर वह चीज़ निसाब के मुताबिक़ हो तो ज़रूरी है कि उसका ख़ुम्स दे।

1808. कान से निकली हुई चीज़ का निसाब 15 मिस्क़ाल मुरव्वजा सिक्केदार सोना है। यअनी अगर कान से निकली हुई किसी चीज़ की क़ीमत 15 मिस्क़ाल सिक्कादार सोने तक पहुंच जाए तो ज़रूरी है कि उस पर जो अख़्राजात आये हों उन्हें मिन्हा कर के जो बाक़ी बचे उसका ख़ुम्स दे।

1809. जिस शख़्स ने कान से मुनाफ़ा कमाया हो और जो चीज़ कान से निकाली हो अगर उसकी क़ीमत 15 मिस्क़ाल सिक्कादार सोने तक न पहुँचे तो उस पर ख़ुम्स तब वाजिब होगा जब सिर्फ़ यह मुनाफ़ा या उस के दूसरे मुनाफ़े ही उस मुनाफ़े को मिलाकर उसके साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो जायें।

1810. जिप्सम, चूना, चिक्नी मिट्टी और सुर्ख़ मिट्टी पर एहतियाते लाज़िम की बिना पर मअदिनी चीज़ों के हुक्म का इत्लाक़ होता है लिहाज़ा अगर यह चीज़ें हद्दे निसाब तक पहुंच जायें तो साल भर के अख़राजात निकालने से पहले उन का खुम्स देना ज़रूरी है।

1811. जो शख़्स कान से कोई चीज़ निकाले तो ज़रूरी है कि उसका ख़ुम्स दे ख़्वाह वह कान ज़मीन के ऊपर हो या ज़ेरे ज़मीन और ख़्वाह ऐसी ज़मीन हो जो किसी की मिल्कियत हो या ऐसी ज़मीन में हो जिसका कोई मालिक न हो।

1812. अगर किसी शख़्स को यह मअलूम हो कि जो चीज़ उस ने कान से निकाली है उसकी क़ीमत 15 मिस्क़ाल सिक्कादार सोने के बराबर है या नहीं तो एहतियाते लाज़िम यह है कि अगर मुम्किन हो तो वज़न कर के या किसी और तरीक़े से उस की क़ीमत मअलूम करे।

1813. अगर कई अफ़्राद मिल कर कान से कोई चीज़ निकालें और उसकी क़ीमत 15 मिस्क़ाल सिक्कादार सोने तक पहुंच जाए लेकिन उन में से हर एक का हिस्सा उस मिक़्दार से कम हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि ख़ुम्स दे।

1814. अगर कोई शख़्स उस मअदिनी चीज़ को जो ज़ेरे ज़मीन दूसरे की मिल्कियत में हो उसकी इजाज़त के बग़ैर उसकी ज़मीन खौद कर निकाले तो मश्हूर क़ौल यह है कि जो चीज़ दूसरे की ज़मीन से निकाली जाए वह उसी मालिक की है लेकिन यह बात इश्काल से ख़ाली नहीं और बेहतर यह है कि बाहम मुआमला तय करे और अगर आपस में समझोता न हो सके तो हाकिमें शर्अ की तरफ़ रुजूउ करे ताकि वह उस तनाज़ों का फ़ैसला करे।

 

3. गड़ा हुआ दफ़ीना

1815. दफ़ीना वह माल है जो ज़मीन या दरख़्त या पहाड़ या दीवार में गड़ा हुआ हो और कोई उसे वहां से निकाले और उसकी सूरत यह हो कि उसे दफ़ीना कहा जा सके।

1816. अगर इंसान को किसी ऐसी ज़मीन से दफ़ीना मिले जो किसी की मिल्कियत न हो तो वह उसे अपने क़ब्ज़े में ले सकता है यअनी अपनी मिल्कियत में ले सकता है लेकिन उसका ख़ुम्स देना ज़रूरी है।

1817. दफ़ीने का निसाब 105 मिस्क़ाल सिक्कादार चांदी और 15 मिस्क़ाल सिक्कादार सोना है। यअनी जो चीज़ दफ़ीने से मिले अगर उसकी क़ीमत उन दोनों में से किसी एक के भी बराबर हो तो उसका ख़ुम्स देना वाजिब है।

1818. अगर किसी शख़्स को ऐसी ज़मीन से दफ़ीना मिले जो उसने किसी से ख़रीदी हो और उसे मअलूम हो कि यह उन लोगों का माल नहीं है जो इससे पहले इस ज़मीन के मालिक थे और वह यह न जानता हो कि मालिक मुसलमान है या ज़िम्मी है और वह खुद या उसके वारिस ज़िन्दा हैं तो वह उस दफ़ीने को अपने क़ब्ज़े में ले सकता है लेकिन उसका ख़ुम्स देना ज़रूरी है। और अगर उसे एहतिमाल हो कि यह साबिक़ा मालिक का माल है जब कि ज़मीन और इसी तरह दफ़ीना या वह जगह ज़िम्नन ज़मीन में शामिल होने की बिना पर उसका हक़ हो तो ज़रूरी है कि उसे इत्तिलाअ दे और अगर यह मअलूम हो कि उस का माल नहीं तो उस शख़्स को इत्तिलाअ दे जो उस से पहले भी उस ज़मीन का मालिक था और उस पर उन सा हक़ था और इसी तरतीब से उन तमाम लोगों को इत्तिलाअ दे जो ख़ुद उससे पहले उस ज़मीन के मालिक रहे हों और उस पर उन का हक़ हो और अगर पता चले कि वह उनमें से किसी का भी माल नहीं है तो फिर वह उसे अपने क़ब्ज़े में ले सकता है लेकिन उस का ख़ुम्स देना ज़रूरी है।

1819. अगर किसी शख़्स को ऐसे कई बर्तनों से माल मिले जो एक जगह दफ़्न हों और उस माल की मज्मूई क़ीमत 105 मिस्क़ाल चांदी या 15 मिस्क़ाल सोने के बराबर हो तो ज़रूरी है कि उस माल का ख़ुम्स दे लेकिन अगर मुख़्तलिफ़ मक़ामात से दफ़ीने मिलें तो उन में से जिस दफ़ीने की क़ीमत मज़कूरा मिक़्दार तक पहुंच जाए उस पर ख़ुम्स वाजिब है और जिस दफ़ीने की क़ीमत उस मिक़्दार तक न पहुंचे उस पर ख़ुम्स वाजिब नहीं है।

1820. जब दो अश्ख़ास को ऐसा दफ़ीना मिले जिसकी क़ीमत 105 मिस्क़ाल चांदी या 15 मिस्क़ाल सोने तक पहुंचती हो लेकिन उनमें से हर एक का हिस्सा उतना न बनता हो तो उस पर ख़ुम्स अदा करना ज़रूरी नहीं है।

1821. अगर कोई शख़्स जानवर ख़रीदे और उसके पेट से कोई माल मिले तो अगर उसे एहतिमाल हो कि यह माल बेचने वाले या पहले मालिक का है और वह जानवर पर और जो कुछ उसके पेट से बरआमद हुआ है उस पर हक़ रखता है तो ज़रूरी है कि इत्तिलाअ दे और अगर मअलूम हो कि वह माल उनमें से किसी एक का भी नहीं है तो एहतियाते लाज़िम यह है कि उस का ख़ुम्स दे अगरचे वह माल दफ़ीने के निसाब के बराबर न हो और यह हुक्म मछली और उसकी मानिन्द दूसरे ऐसे जानवरों के लिए भी है जिनकी कोई शख़्स किसी मख़्सूस जगह में अफ़ज़ाइश व पर्वरिश करे और उनकी ग़िज़ा का इन्तिज़ाम करे। और अगर समुन्दर या दरिया से उसे पकड़े तो किसी को उसकी इत्तिलाअ देना लाज़िमी नहीं।

 

4. वह हलाल माल जो हराम माल में मख़्लूत हो जाए

1822. अगर हलाल माल हराम माल के साथ इस तरह मिल जाए कि इंसान उन्हें एक दूसरे से अलग न कर सके और हराम माल के मालिक और उस माल की मिक़्दार का भी इल्म न हो और यह भी इल्म न हो कि हराम माल की मिक़्दार ख़ुम्स से कम है या ज़्यादा तो तमाम माल का ख़ुम्स क़ुर्बते मुत्लक़ा की नीयत से ऐसे शख़्स को दे जो ख़ुम्स का और माले मज्हूलुल मालिक का मुस्तहक़ है और ख़ुम्स देने के बाद बाक़ी माल उस शख़्स पर हलाल है।

1823. अगर हलाल माल हराम माल से मिल जाए और इंसान हराम की मिक़्दार - - ख़्वाह वह खुम्स से कम हो या ज़्यादा - - जानता हो लेकिन उसके मालिक को न जानता हो तो ज़रूरी है कि उतनी मिक़्दार उस माल के मालिक की तरफ़ से सदक़ा कर दे और एहतियाते वाजिब यह है कि हाकिमे शर्अ से भी इजाज़त ले।

1824. अगर हलाल माल हराम माल से मिल जाए और इंसान को हराम की मिक़्दार का इल्म न हो लेकिन उस माल के मालिक को पहचानता हो और दोनों एक दूसरे को राज़ी न कर सकें तो ज़रूरी है कि जितनी मिक़्दार के बारे में यक़ीन हो कि दूसरे का माल है वह उसे दे दे। बल्कि अगर वह माल उसकी अपनी ग़लती से मख़्लूत हुए हों तो एहतियात की बिना पर जिस माल के बारे में उसे एहतिमाल हो कि यह दूसरे का है उसे इस माल से ज़्यादा देना ज़रूरी है।

1825. अगर कोई शख़्स हराम से मख़्लूत हलाल माल का ख़ुम्स दे दे और बाद में उसे पता चले कि हराम की मिक़्दार ख़ुम्स से ज़्यादा थी तो ज़रूरी है कि जितनी मिक़्दार के बारे में इल्म हो कि ख़ुम्स से ज़्यादा थी उसे उसके मालिक की तरफ़ से सदक़ा कर दे।

1826. अगर कोई शख़्स हराम से मख़्लूत हलाल माल का ख़ुम्स दे या ऐसा माल जिस के मालिक को न पहचानता हो मालिक के मालिक की तरफ़ से सदक़ा कर दे और बाद में उस का मालिक मिल जाए तो अगर वह राज़ी न हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर उसके माल के बराबर उसे देना ज़रूरी है।

1827. अगर हलाल माल हराम माल से मिल जाए और हराम की मिक़्दार माअलूम हो और इंसान जानता हो कि उसका मालिक चन्द लोगों में से ही कोई है लेकिन यह न जानता हो कि वह कौन है तो उन सब को इत्तिलाअ दे चुनांचे उन में से कोई एक कहे कि यह मेरा माल है और दूसरे कहें कि हमारा माल नहीं या उस माल के बारे में लाइल्मी का इज़हार करें तो उसी पहले शख़्स को वह माल दे दे और अगर दो या दो से ज़्यादा आदमी कहें कि यह हमारा माल है और सुल्ह या इस तरह किसी तरीक़े से वह मुआमला हल न हो तो ज़रूरी है कि तनाज़ो के हल के लिए हाकिमे शर्अ से रुजूउ करें और अगर वह सब लाइल्मी का इज़्हार करें और बाहम सुल्ह भी न करें तो ज़ाहिर यह है कि उस माल के मालिक का तअय्युन क़ुरआ के ज़रीए होगा और एहतियात यह है कि हाकिमे शर्अ या उस का वकील क़ुरआ अन्दाज़ी की निगरानी करे।

 

5. ग़व्वासी से हासिल किये हुए मोती

1828. अगर ग़व्वसी के ज़रीए यअनी समुन्दर में ग़ोता लगा कर या दूसरे मोती निकालें जायें तो ख़्वाह ऐसी चीज़ों में से हो जो उगती है या मअदिनीयात में से हों अगर उसकी क़ीमत 18 चने सोने के बराबर हो जाए तो ज़रूरी है कि उसका ख़ुम्स दिया जाए ख़्वाह उन्हें एक दफ़्आ में समुन्दर से निकाला गया हो या एक से ज़्यादा दफ़्आ में बशर्ते की पहली दफ़्आ और दूसरी दफ़्आ ग़ोता लगाने में ज़्यादा फ़ासिला न हो मसलन यह कि दो मौसमों में ग़व्वासी की हो। बसूरते दीगर हर एक दफ़्आ में 18 चने सोने की क़ीमत के बराबर न हो तो उसका ख़ुम्स देना वाजिब नहीं है। और इसी तरह ग़व्वासी में शरीक तमाम ग़ोता ख़ोरों में से हर एक का हिस्सा 18 चने सोने की क़ीमत के बराबर न हो तो उन पर ख़ुम्स देना वाजिब नहीं है।

1829. अगर समुन्दर में ग़ोता लगाए बग़ैर दूसरे ज़राए से मोती निकाले जायें तो एहतियात की बिना पर उन पर ख़ुम्स वाजिब है लेकिन अगर कोई शख़्स समुन्दर के पानी की सत्ह या समुन्दर के किनारे से मोती हासिल करे तो उन का ख़ुम्स उसे उस सूरत में देना ज़रूरी है जब जो मोती उसे दस्तयाब हुए हों वह तन्हा या उसके कारोबार के दूसरे मुनाफ़े से मिलाकर उसके साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो।

1830. मछलियों और उन दूसरे (आबी) जानवरों का ख़ुम्स जिन्हे इंसान समुन्दर में ग़ोता लगाए बग़ैर हासिल करता है उस सूरत में वाजिब होता है जब उन चीज़ों से हासिल कर्दा मुनाफ़ा तन्हा या कारोबार के दूसरे मुनाफ़े से मिलाकर उसके साल भर के अख़राजात से ज़्यादा हो।

1831. अगर इंसान कोई चीज़ निकालने का इरादा किये बग़ैर समुन्दर में ग़ोता लगाए और इत्तिफ़ाक़ से कोई मोती उसके हाथ लग जाए और वह उसे अपनी मिल्कियत में लेने का इरादा करे तो उस का ख़ुम्स देना ज़रूरी है बल्कि एहतियाते वाजिब यह है कि हर हाल में उसका ख़ुम्स दे।

1832. अगर इंसान समुन्दर में ग़ोता लगाए और कोई जानवर निकाल लाए और उसके पेट में से उसे कोई मोती मिले तो अगर वह जानवर सीपी की मानिन्द हो जिसके पेट में उमूमन मोती होते हैं और वह निसाब तक पहुंच जाए तो ज़रूरी है कि उसका ख़ुम्स दे और अगर वह कोई ऐसा जानवर हो जिसने इत्तिफ़ाक़न मोती निगल लिया हो तो एहतियाते लाज़िम यह है कि अगरचे वह हद्दे निसाब तक न पहुंचे तब भी उसका ख़ुम्स दे।

1833. अगर कोई शख़्स बड़े दरियाओं मसलन दज्ला और फ़ुरात में ग़ोता लगाए और मोती निकाल लाए तो अगर उस दरिया में मोती पैदा होते हों तो ज़रूरी है कि (जो मोती निकाले) उनका ख़ुम्स दे।

1834. अगर कोई शख़्स पानी में ग़ोता लगाए और कुछ अंबर निकाल लाए और उसकी क़ीमत 18 चने सोने या उससे ज़्यादा हो तो ज़रूरी है कि उस का ख़ुम्स दे बल्कि अगर पानी की सत्ह या समुन्दर के किनारे से भी हासिल करे तो उसका भी यही हुक्म है।

1835. जिस शख़्स का पेशा ग़ोता ख़ोरी हो या कान कनी हो अगर वह उन का ख़ुम्स अदा कर दे और फिर उसके साल भर के अख़राजात से कुछ बच जाए तो उसके लिए यह लाज़िम नहीं कि दोबारा ख़ुम्स अदा करे।

1836. अगर बच्चा कोई मअदिनी चीज़ निकाले या उसे कोई दफ़ीना मिल जाए या समुन्दर में ग़ोता लगाकर मोती निकाल लाए तो बच्चे का वली उसका ख़ुम्स दे और अगर वली ख़ुम्स अदा न करे तो ज़रूरी है कि बच्चा बालिग़ होने के बाद ख़ुम्स अदा करे और इसी तरह अगर उस के पास हराम माल में हलाल माल मिला हुआ हो तो ज़रूरी है कि उसका वली उस माल को पाक करे।

 

6. माले ग़नीमत

1837. अगर मुसलमान इमाम (अ0) के हुक्म से कुफ़्फ़ार से जंग करे और जो चीज़ जंग में उनके हाथ लगे उन्हें ग़नीमत कहा जाता है और उस माल की हिफ़ाज़त या उसकी नक़्लो हम्ल वग़ैरा के मसारिफ़ मिन्हा कर ने के बाद और जो रक़म इमाम (अ0) अपनी मसलेहत के मुताबिक़ ख़र्च करें और जो माल ख़ास इमाम (अ0) का हक़ है उसे अलायहदा करने के बाद बाक़ीमांदा पर ख़ुम्स अदा किया जाए। माले ग़नीमत पर ख़ुम्स साबित होने में अन्फ़ाल से हो वह तमाम मुसलमानों की मुशतर्का मिल्कियत है अगरचे जंग इमाम (अ0) की इजाज़त से न हो।

1838. अगर मुसलमान काफ़िरों से इमाम (अ0) की इजाज़त के बग़ैर जंग करे और उन से माले ग़नीमत हासिल हो तो जो ग़नीमत हासिल हो वह इमाम (अ0) की मिल्कियत है और जंग करने वालों का उसमें कोई हक़ नहीं।

1839. जो कुछ काफ़िरों के हाथ में है अगर उसका मालिक मोहतरमुल माल यअनी मुसलमान या काफ़िरे ज़िम्मी हो तो उस पर ग़नीमत के अहकाम जारी नहीं होंगे।

1840. काफ़िरे हर्बी का माल चुराना और उस जैसा कोई काम करना अगर ख़ियानत और नक़्ज़े अम्न में शुमार हो तो हराम है और इस तरह जो चीज़ें उन से हासिल की जायें एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि उन्हें लौटा दी जाए।

1841. मश्हूर यह है कि नासिबी का माल मोमिन अपने लिए ले सकता है अलबत्ता उस का ख़ुम्स दे लेकिन यह हुक्म इश्काल से ख़ाली नहीं है।

 

7. वह ज़मीन जो ज़िम्मी काफ़िर किसी मुसलमान से ख़रीदे

1842. अगर काफ़िरे ज़िम्मी किसी मुसलमान से ज़मीन ख़रीदे तो मश्हूर क़ौल की बिना पर उस का खुम्स उसी ज़मीन से या अपने किसी दूसरे माल से दे लेकिन ख़ुम्स के आम क़वायद के मुताबिक़ उस सूरत में ख़ुम्स के वाजिब होने में इश्काल है।