खुम्स को कहाँ खर्च करे

1843. ज़रूरी है कि ख़ुम्स दो हिस्सों में तक़्सीम किया जाए। उसका एक हिस्सा सादात का हक़ है और ज़रूरी है कि किसी फ़क़ीर सैय्यद या यतीम सैय्यद या ऐसे सैय्यद को दिया जाए जो सफ़र में नाचार हो गया हो और दूसरा हिस्सा इमाम (अ0) का है जो ज़रूरी है कि मौजूदा ज़माने में जामिइश शराइत मुज्तहिद को दिया जाए या ऐसे कामों पर जिस की वह मुज्तहिद इजाज़त दे ख़र्च किया जाए और एहतियाते लाज़िम यह है कि वह मर्जअ अअलम उमूमी मसलेहतों से आगाह हो।

1844. जिस यतीम सैय्यद को ख़ुम्स दिया जाए ज़रूरी है कि वह फ़क़ीर भी हो लेकिन जो सैय्यद सफ़र में नाचार हो जाए वह ख़्वाह अपने वतन में फ़क़ीर न भी हो उसे ख़ुम्स दिया जा सकता है।

1845. जो सैय्यद सफ़र में नाचार हो गया हो अगर उसका सफ़र गुनाह का सफ़र हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि उसे ख़ुम्स न दिया जाए।

1846. जो सैय्यद आदिल न हो उसे ख़ुस्म दिया जा सकता है लेकिन जो सैय्यद इसना अशरी न हो ज़रूरी है कि उसे ख़ुम्स न दिया जाए।

1847. जो सैय्यद गुनाह का काम करता हो अगर उसे ख़ुम्स देने से गुनाह करने में उसकी मदद होती हो तो उसे ख़ुम्स न दिया जाए और अहव्त यह है कि उस सैय्यद को भी ख़ुम्स न दिया जाए जो शराब पीता हो या नमाज़ न पढ़ता हो या अलानिया गुनाह करता हो गो ख़ुम्स देने से उसे गुनाह करने में मदद न मिलती हो।

1848. जो शख़्स कहे कि मैं सैय्यद हूं उसे उस वक़्त तक ख़ुम्स न दिया जाए जब तक दो आदिल अश्ख़ास उसके सैय्यद होने की तसदीक़ न कर दें या लोगों में उसका सैय्यद होने इतना मशहूर हो कि इंसान को यक़ीन और इत्मीनान हो जाए कि वह सैय्यद है।

1849. कोई शख़्स अपने शहर में सैय्यद मशहूर हो और उसके सैय्यद न होने के बारे में जो बातें की जाती हों इंसान को उन पर यक़ीन या इत्मीनान न हो तो उसे ख़ुम्स दिया जा सकता है।

1850. अगर किसी की बीवी सैयिदानी हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि शौहर उसे इस मक़्सद के लिए ख़ुस्म न दे कि वह उसे अपने ज़ाती इस्तेमाल में ले आए लेकिन अगर दूसरे लोगों की कफ़ालत उस औरत पर वाजिब हो और वह उन अख़राजात की अदायगी से क़ासिर हो तो इंसान के लिए जाइज़ है कि अपनी बीवी को ख़ुस्म दे ताकि ज़ेरे कफ़ालत लोगों पर ख़र्च करे। और उस औरत को इस ग़रज़ से ख़ुस्म देने के बारे में भी यही हुक्म है जबकि वह (यह रक़म) अपने ग़ैर वाजिब अख़राजात पर सर्फ़ करे (यअनी इस मक़्सद के लिए उसे ख़ुस्म नहीं देना चाहिये)।

1851. अगर इंसान पर किसी सैय्यद के या ऐसी सैयिदानी के अख़राजात वाजिब हों जो उसकी बीवी न हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर वह उस सैय्यद या सैयिदानी के खोराक और पोशाक को अखराजात और बाक़ी वाजिब अखराजात अपने ख़ुम्स से अदा नहीं कर सकता। हां अगर वह उस सैय्यद या सैयिदानी को ख़ुम्स की कुछ रक़म इस मक़सद से दे कि वह वाजिब अखराजात के अलावा उसे दूसरी ज़रूरीयात पर खर्च करे तो कोई हरज नहीं।

1852. अगर किसी फ़क़ीर सैय्यद के अखराजात किसी दूसरे शख़्स पर वाजिब हों और वह शख़्स उस सैय्यद के अखराजात बर्दाश्त न कर सकता हो या इसतिताअत रखता हो लेकिन न देता हो तो उस सैय्यद को ख़ुम्स दिया जा सकता है।

1853. एहतियाते वाजिब यह है कि किसी एक फ़क़ीर सैय्यद को उसके एक साल के अख़राजात से ज़्यादा ख़ुम्स न दिया जाए।

1854. अगर किसी शख़्स के शहर में कोई मुस्तहक़ सैय्यद न हो और उसे यक़ीन या इत्मीनान हो कि कोई ऐसा सैय्यद बाद में भी नहीं मिलेगा या जब तक कोई मुस्तहक़ सैय्यद मिले ख़ुम्स की हिफ़ाज़त करना मुम्किन न हो तो ज़रूरी है कि ख़ुम्स दूसरे शहर में ले जाए और मुस्तहक़ को पहुंचा दे और ख़ुम्स दूसरे शहर ले जाने के अख़राजात ख़ुम्स में से ले सकता है। और अगर ख़ुम्स तलफ़ हो जाए तो अगर उस शख़्स ने उस की निगहदाश्त में कोताही बरती हो तो ज़रूरी है कि उस का एवज़ दे और अगर कोताही न बरती हो तो उस पर कुछ भी वाजिब नहीं है।

1855. जब किसी शख़्स के अपने शहर में ख़ुम्स का मुस्तहक़ शख़्स मौजूद न हो तो अगरचे उसे यक़ीन या इत्मीनान हो कि बाद में मिल जायेगा और ख़ुम्स के मुस्तहक़ शख़्स के मिलने तक ख़ुम्स की निगहदाश्त भी मुम्किन हो तब भी वह ख़ुम्स दूसरे शहर ले जा सकता है और अगर वह ख़ुम्स की निगहदाश्त में कोताही न बरते और वह तलफ़ हो जाए तो उसके लिए कोई चीज़ देना ज़रूरी नहीं लेकिन वह ख़ुम्स के दूसरी जगह ले जाने के अख़राजात ख़ुम्स में से नहीं ले सकता।

1856. अगर किसी शख़्स के अपने शहर में ख़ुम्स का मुस्तहक़ मिल जाए तब भी वह ख़ुम्स दूसरे शहर ले जाकर मुस्तहक़ को पहुंचा सकता है अलबत्ता ख़ुम्स का एक शहर से दूसरे शहर ले जाना इस क़द्र ताख़ीर का मूजिब न हो कि ख़ुम्स पहुंचाने में सुस्ती शुमार हो लेकिन ज़रूरी है कि उसे ले जाने के अख़राजात ख़ुद अदा करे और इस सूरत में अगर ख़ुम्स ज़ाए हो जाए तो अगरचे उस ने उसकी निगहदाश्त में कोताही न बरती हो वह उसका ज़िम्मेदार है।

1857. अगर कोई शख़्स हाकिमे शर्अ के हुक्म से ख़ुम्स दूसरे शहर ले जाए और वह तलफ़ हो जाए तो उसके लिए दोबारा ख़ुम्स देना लाज़िम नहीं और इसी तरह अगर वह ख़ुम्स हाकिमे शर्अ के वकील को दे दे जो ख़ुम्स की वसूली पर मामूर हो और वह वकील ख़ुम्स को एक शहर से दूसरे शहर ले जाए तो उसके लिए भी यही हुक्म है।

1858. यह जाइज़ नहीं कि किसी चीज़ की क़ीमत उस की अस्ल क़ीमत से ज़्यादा लगा कर उसे बतौरे ख़ुम्स दिया जाए और जैसा कि मस्अला 1797 में बताया गया है कि किसी दूसरी जिन्स की शक्ल में ख़ुम्स अदा करना मासिवा सोने और चाँदी के सिक्कों और उन्हीं जैसी दूसरी चीज़ों के हर सूरत में महल्ले इश्काल है।

1859. जिस शख़्स को मुस्तहक़ शख़्स से कुछ लेना हो और चाहता हो कि अपना क़र्ज़ा ख़ुम्स की रक़म से मिन्हा कर ले तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि या तो हाकिमे शर्अ से इजाज़त ले या ख़ुम्स उस शख़्स को दे दे और बाद में मुस्तहक़ शख़्स उसे वह माल क़र्ज़े की अदायगी के तौर पर लौटा दे और वह यह भी कर सकता है कि ख़ुम्स के मुस्तहक़ शख़्स की इजाज़त से उसका वकील बन कर ख़ुद उसकी तरफ़ से ख़ुम्स ले ले और उससे अपना क़र्ज़ा चुका ले।

1860. मालिक, ख़ुम्स के मुस्तहक़ शख़्स से यह शर्त नहीं कर सकता कि वह ख़ुम्स लेने के बाद उसे वापस लौटा दे। लेकिन अगर मुस्तहक़ शख़्स ख़ुम्स लेने के बाद उसे वापस देने पर राज़ी हो जाए तो इस में कोई हरज नहीं है। मसलन जिस शख़्स के ज़िम्मे ख़ुम्स की ज़्यादा रक़म वाजिबुल अदा हो और वह फ़क़ीर हो गया हो और चाहता हो कि ख़ुम्स के मुस्तहक़ लोगों का मक़रूज़ न रहे तो अगर ख़ुम्स का मुस्तहक़ शख़्स राज़ी हो जाए कि उससे ख़ुम्स ले कर फिर उसको बख़्श दे तो इस में कोई हरज नहीं है।