हज के अह्काम
- में प्रकाशित
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- लेखक:
- हज़रत आयतुल्लाह सैय्यद अली सीसतानी साहब
- स्रोत:
- तोज़ीहुल मसाइल
2044. बैतुल्लाह की ज़ियारत करने और उन अअमाल को बजा लाने का नाम हज है जिनके वहां बजा लाने का हुक्म दिया गया है और उसकी अदायगी हर उस शख़्स के लिए जो मुन्दारिजा ज़ैल शराइत पूरी करता हो तमाम उम्र में एक दफ़्आ वाजिब हैः-
अव्वल – इंसान बालिग़ हो।
दोम – आक़िल और आज़ाद हो।
सोम – हज पर जाने की वजह से कोई ऐसा नाजाइज़ काम करने पर मजबूर न हो जिसका तर्क करना हज करने से ज़्यादा अहम हो या कोई ऐसा वाजिब तर्क न होता हो जो हज से ज़्यादा अहम हो।
चाहरूम – इस्तिताअत रखता हो और साहबे इस्तिताअत होना चन्द चीज़ों पर मुन्हसिर हैः-
1. इंसान रास्ते का ख़र्च और इसी तरह अगर ज़रूरत हो तो सवारी रखता हो या इतना माल रखता हो जिससे उन चीज़ों को मुहैया कर सके।
2. इतनी सेहत और ताक़त हो कि ज़्यादा मशक़्क़त के बग़ैर मक्का ए मुकर्रिमा जा कर हज कर सकता हो।
3. मक्का ए मुकर्रिमा जाने के लिए रास्ते में कोई रुकावट न हो और अगर रास्ता बन्द हो या इंसान को डर हो कि रास्ते में उसकी जान या आबरू चली जायेगी या उसका माल छीन लिया जायेगा तो उस पर हज वाजिब नहीं है लेकिन अगर वह दूसरे रास्ते से जा सकता हो तो अगरचे वह रास्ता ज़्यादा तवील हो ज़रूरी है कि उस रास्ते से जाए बजुज़ इसके कि वह रास्ता इस क़दर दूर और ग़ैर मअरूफ़ हो कि लोग कहें कि हज का रास्ता बन्द है।
4. उसके पास इतना वक़्त हो कि मक्का ए मुकर्रमा पहुंच कर हज के अअमाल बजा ला सके।
5. जिन लोगों के अखराजात उस पर वाजिब हों मसलन बीवी, बच्चे और जिन लोगों के अखराजात बर्दाश्त करना लोग उसके लिए ज़रूरी समझते हों उनके अखराजात उसके पास मौजूद हों।
6. हज से वापसी के बाद वह मआश के लिए कोई हुनर या खेती या जायदाद रखता हो या फिर कोई दूसरा ज़रीआ ए आमदनी रखता हो यअनी इस तरह न हो कि हज के अखराजात की वजह से वापसी पर मजबूर हो जाए और तंगी तुर्शी में ज़िन्दगी गुज़ारे।
2045. जिस शख़्स की ज़रूरत अपने ज़ाती मकान के बग़ैर पूरी न हो सके उस पर हज उस वक़्त वाजिब है जब उसके पास मकान के लिए भी रक़म हो।
2046. जो औरत मक्का ए मुकर्रमा जा सकती हो अगर वापसी के बाद उसके पास उसका अपना कोई माल न हो और मिसाल के तौर पर उसका शौहर भी फ़क़ीर हो और उसे ख़र्च न देता हो और वह औरत उसरत में ज़िन्दगी गुज़ारने पर मजबूर हो जाए तो उस पर हज वाजिब नहीं।
2047. अगर किसी शख़्स के पास हज के लिए ज़ादे राह और सवारी न हो और दूसरा उसे कहे कि तुम हज पर जाओ मैं तुम्हारा सफ़र खर्च दूंगा और तुम्हारे सफ़रे हज के दौरान तुम्हारे अहलो अयाल को भी खर्च देता रहूंगा तो अगर उसे इत्मीनान हो जाए कि वह शख़्स उसे ख़र्च देगा तो उस पर हज वाजिब हो जाता है।
2048. अगर किसी शख़्स को मक्का ए मुकर्रमा जाने और वापस आने का खर्च दे दिया जाए कि वह हज कर ले तो अगरचे वह मक़रूज़ भी हो और वापसी पर ग़ुज़र बसर करने के लिए माल भी न रखता हो उस पर हज वाजिब हो जाता है लेकिन अगर इस तरह हो कि हज के सफ़र का ज़माना उसके कारोबार और काम का ज़माना हो कि अगर हज पर चला जाए तो अपना क़र्ज़ मुक़र्रर वक़्त पर अदा न कर सकता हो या अपनी गुज़र बसर के अखराजात साल के बाक़ी दिनों में मुहैया न कर सकता हो तो उस पर हज वाजिब नहीं है।
2049. अगर किसी को मक्का ए मुकर्रमा तक जाने और जाने के अखराजात नीज़ जितनी मुद्दत वहां जाने और आने में लगे उस मुद्दत के लिए उसके अहलो अयाल के अखराजात दे दिये जायें और उससे कहा जाए कि हज पर जाओ लेकिन यह सब मसारिफ़ उसकी मिल्कियत में न दिये जायें तो उस सूरत में जबकि उसे इत्मीनान हो कि दिए हुए अख़राजात का उससे फिर मुतालबा नहीं किया जायेगा उस पर हज वाजिब हो जाता है।
2050. अगर किसी शख़्स को इतना माल दे दिया जाए जो हज के लिए काफ़ी हो और यह शर्त लगाई जाए कि जिस शख़्स ने माल दिया है माल लेने वाला मक्का ए मुकर्रमा के रास्ते में उसकी खिदमत करेगा तो जिसे माल दिया जाये उस पर हज वाजिब नहीं होता।
2051. अगर किसी शख़्स को इतना माल दिया जाए कि उस पर हज वाजिब हो जाए और वह हज करे तो अगरचे बाद में वह खुद भी (कहीं से) माल हासिल कर ले दूसरा हज उस पर वाजिब नहीं है।
2052. अगर कोई शख़्स बग़रज़े तिजारत मिसाल के तौर पर जद्दा जाए और इतना माल कमाए कि अगर वहां से मक्का जाना चाहे तो इस्तिताअत रखने की वजह से ज़रूरी है कि हज करे और अगर वह हज कर ले तो ख्वाह वह बाद में इतनी दौलत कमा ले कि खुद अपने वतन से भी मक्का ए मुकर्रमा जा सकता हो तब भी उस पर दूसरा हज वाजिब नहीं है।
2053. अगर कोई इस शर्त पर अजीर बने कि वह खुद एक दूसरे शख़्स की तरफ़ से हज करेगा तो अगर वह खुद हज को न जा सके और चाहे कि किसी दूसरे को अपनी जगह भेज दे तो ज़रूरी है कि जिसने उसे अजीर बनाया है उसे इजाज़त ले।
2054. अगर कोई साहबे इस्तिताअत हो कर हज को न जाए और फिर फ़क़ीर हो जाए तो ज़रूरी है कि ख़्वाह उसे ज़हमत ही क्यों न उठानी पड़े बाद में हज करे और अगर वह किसी भी तरह हज को न जा सकता हो और कोई उसे हज करने के लिए अजीर बनाए तो ज़रूरी है कि मक्का ए मुकर्रमा में रहे और फिर अपना हज बजा लाए लेकिन अगर अजीर बने और उजरत नक़्द ले ले और जिस शख़्स ने उसे अजीर बनाया हो वह इस बात पर राज़ी हो कि उस की तरफ़ से हज दूसरे साल बजा लाया जाए जबकि वह इत्मीनान न रखता हो तो ज़रूरी है कि अजीर पहले साल खुद अपना हज करे और उस शख़्स का हज जिसने उसको अजीर बनाया था दूसरे साल के लिए उठा रखे।
2055. जिस साल कोई शख़्स साहबे इस्तिताअत हुआ हो अगर उसी साल मक्का ए मुकर्रमा चला जाए और मुक़र्ररा वक़्त पर अरफ़ात और मश्अरूल हराम में न पहुंच सके और बाद में सालों में साहबे इस्तिताअत न हो तो उस पर हज वाजिब नहीं है सिवाय इसके कि चंद साल पहले से साहबे इस्तिताअत रहा हो और हज पर न गया हो तो उस सूरत में ख़्वाह ज़हमत ही क्यों न उठानी पड़े उसे हज करना ज़रूरी है।
2056. अगर कोई शख़्स साहबे इस्तिताअत होते हुए हज न करे और बाद में बुढ़ापे, बीमारी या कमज़ोरी की वजह से हज न कर सके और इस बात से ना उम्मीद हो जाए कि बाद में खुद हज कर सकेगा तो ज़रूरी है कि किसी दूसरे को अपनी तरफ़ से हज के लिए भेज दे बल्कि अगर ना उम्मीद न भी हुआ हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि एक अजीर मुक़र्रर करे और अगर बाद में इस क़ाबिल हो जाए तो खुद भी हज करे और अगर उसके पास किसी साल पहली दफ़्आ इतना माल हो जाए जो हज के लिए काफ़ी हो और बुढ़ापे या बीमारी या कमज़ोरी की वजह से हज न कर सके और ताक़त (व सेहत) हासिल करने से ना उम्मीद हो तब भी यही हुक्म है और इन तमाम सूरतों में एहतियाते मुस्तहब यह है कि जिसकी तरफ़ से हज के लिए जा रहा हो अगर वह मर्द हो तो ऐसे शख़्स को नायाब बनाए जिसका हज पर जाने का पहला मौक़ा हो (यअनी इससे पहले हज करने न गया हो)
2057. जो शख़्स हज करने के लिए किसी दूसरे की तरफ़ से अजीर हो ज़रूरी है कि उसकी तरफ़ से तवाफ़ुन्निसा भी करे और अगर न करे तो अजीर पर उसकी बीवी हराम हो जायेगी।
2058. अगर कोई शख़्स तवाफ़ुन्निसा सहीह तौर पर न बजा लाए या उसको बजा लाना भूल जाए और चन्द रोज़ बाद उसे याद आए और रास्ते से वापस होकर बजा लाए तो सहीह है लेकिन अगर वापस होना उसके लिए बाइसे मशक़्क़त हो तो तवाफ़ुन्निसा की बजा आवरी के लिए किसी को नायब बना सकता है।