वहाबियत का जन्म कब हुआ?
वहाबियत का जन्म कई दूसरे फ़िरक़ों की तरह उसकी बुनियाद रखने वाले लोगों के सिध्दांतो और उनके विचारों के अनुसार हुआ, इसलिए पहले बुनियाद रखने वाले को जानें और उसके विचारों से परिचित हों। इस फ़िरक़े का नाम मोहम्मद इब्ने अब्दुल वहाब से जुड़ा हुआ है, जो नज्द का रहने वाला है और 1115 हिजरी में उयैना नामक शहर में जन्म लिया, इसके पिता उस शहर के जज थे, उसे बचपन से तफ़सीर, अक़ाएद और हदीस की किताबें पढ़ने में बहुत दिलचस्पी थी, और हम्बली फ़िक़्ह को अपने पिता जो बड़े हम्बली उलेमा में से थे उनसे पढ़ा, इसको बचपन से ही नज्द के कुछ धार्मिक प्रोग्राम को सही नहीं समझता था। वह एक बार अल्लाह के घर यानी काबा हज के इरादे से गया, हज पूरा करके वह मदीना गया, और वहाँ पैग़म्बरे इस्लाम की क़ब्र से तवस्सुल करने वालों को देख कर तवस्सुल का इंकार कर दिया, फिर वह नज्द वापिस आ गया, कुछ दिन बाद वह बसरा गया और कुछ समय रहने के बाद वहाँ की परंपराओं को ग़लत कहना शुरू कर दिया, जिसके कारण बसरा के लोगों ने इसे शहर से बाहर निकाल दिया। 1139 हिजरी में उसके बाप ने उयैना को छोड़ हुरैमला बसने आ गया और यह भी अपने बाप के साथ आ गया, इसने अपने बाप ही से कुछ किताब पढ़ कर नज्द के लोगों के अक़ाएद को ग़लत ठहराना शुरू कर दिया, जिसके कारण उसके और उसके बाप के बीच अनबन हो गई, और इसी प्रकार उसके और नज्द वालों के बीच भी कई सालों तक बहस बाज़ी और अनबन चलती रही। 1153 हिजरी में उसका बाप मर गया, उसके बाद उसने अपने अक़ाएद खुलेआम बयान करना और लोगों के कुछ अक़ाएद को ग़लत ठहराना शुरू कर दिया, हुरैमला के कुछ लोगों ने उसकी पैरवी करना शुरू कर दी जिस से वह मशहूर होने लगा, वह दोबारा उयैना वापिस चला गया, उस समय वहाँ का वाली और हाकिम उस्मान इब्ने मोहम्मद था, उसने इसके अक़ाएद को पसंद करते हुए सम्मानित किया और उसकी मदद करने का वादा किया, इसने भी लोगों की मदद की उम्मीद जताई। जब इन सब की ख़बर एहसा के अमीर तक पहुँची, उस ने उस्मान को ख़त लिख कर आपत्ति जताई, अंत में उस्मान ने मोहम्मद इब्ने अब्दुल वहाब से माफ़ी माँगते हुए शहर से बाहर निकाल दिया, वहाँ से 1160 में निकाले जाने के बाद वह नज्द के एक अय्यह नामक शहर की ओर जाता है, उस समय अय्यह का हाकिम आले सऊद का पूर्वज मोहम्मद इब्ने मसऊद था, वह इब्ने वहाब से मिलने गया और उसे सम्मान देते हुए मदद का वादा किया, इब्ने वहाब ने भी उसे सभी शहरों पर हुकूमत फैलने की बशारत दी, इसी प्रकार दोनों के बीच संबंध शुरू हुए, मोहम्मद इब्ने मसऊद की समर्थन से वह अपने अक़ाएद और विचारों पर डटा रहा, और जो भी मुसलमान उसके विचारों को स्वीकार नहीं करता उसे काफ़िर कहा जा रहा था, और उसकी जान माल और सम्मान कुछ भी सुरक्षित नहीं था। वहाबी नज्द और उसके बाहर यमन, सऊदी, और सीरिया और इराक़ के पड़ोस के इलाक़ों में जो जंग कर रहे थे वह इसी इब्ने वहाब के विचारों से प्रेरित हो कर थी, जिस शहर को बर्बाद करते वह उनका हो जाता वहाँ की औरतों बच्चों बूढ़ों किसी को नहीं छोड़ते थे, जो उनके विचारों और अक़ाएद से सहमत होता उस से वह बैअत करवाते और जो मना करता उसकी मार देते और उसके घर को लूट लेते, और इनके इसी घिनौनी करतूत के कारण फ़ुसूल नामक शहर के 300 मर्द मौत के घाट उतार दिए गए और उनके घर को भी लूट लिया गया। और फिर ऐसे ज़हरीले विचार जिस से नफ़रत और दूरी के अलावा कुछ नहीं दिखता उसकी बुनियाद रखने वाले का अंत 1206 हिजरी में हुआ, लेकिन वह अपने विचारों के काफ़ी समर्थक जुटा चुका था, उन्होंने उसी रास्ते पर चलना जारी रखा, जैसे 1216 हिजरी में सऊद के गवर्नर ने 20 हज़ार की फ़ौज बना कर कर्बला पर हमला किया, इन लोगों ने पवित्र शहर कर्बला में जितनी क्रूरता कर सकते थे कर डाली जिस की वजह से 5 हज़ार लोगों (कुछ ने 20 हज़ार भी लिखा है) को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया। (आईनए वहाबियत, आयतुल्लाह जाफ़र सुबहानी, पेज 24-29)
मोहम्मद इब्ने अबदुल वहाब ही कारण बना वहाबियत के विचारों और अक़ाएद को फैलाने में, और आज वहाबियत को अपनाने और फैलाने वाले सब इसी के विचारों को फैला रहे हैं। वहाबियों के अधिकतर विचार क़ुर्आन और पैग़म्बर की हदीस के विपरीत हैं, कुछ विचारों को आप लोगों के सामने लिखा जा रहा है।
- जो भी नबी या इमाम के द्वारा तवस्सुल (यानी नबी या इमाम को वसीला बना के अल्लाह से दुआ करना) करता हो न वह अल्लाह की तौहीद को मानता है और न ही वह मुसलमान है, जो भी तवस्सुल करे वह मुशरिक है। (तारीख़े अदयान जिल्द 3, पेज 1429)
यही कारण है कि वहाबी पैग़म्बर और इमामों की क़ब्रों की ज़ियारत को हराम बताते हुए कहते हैं कि जो भी पैग़मबर के वसीले से अल्लाह से दुआ करे वह ऐसा ही है जैसे बुतों के द्वारा अल्लाह से दुआ की हो, (माज़अल्लाह)। (तारीख़े अदयान जिल्द 3, पेज 1429)
- इसी प्रकार वहाबियों के कट्टर विचारों में से एक यह भी है कि पैग़म्बर और इमामों और अल्लाह के वलियों की क़ब्रों पर गुम्बद का बनाना हराम है, सबसे पहले इस बारे में इब्ने तैमिया ने हराम होने का फ़तवा दिया और साथ ही नबियों, इमामों और अल्लाह के वलियों की क़ब्रों को तोड़ना और ढ़हाना जाएज़ है। (आईनए वहाबियत, पेज 38)
- यही कारण है कि सऊदी अरब ने जब 1344 हिजरी में मक्का और मदीना पर क़ब्ज़ा किया, उसके तुरंत बाद पैग़म्बर के ख़ानदान और सहाबियों और भी इस्लाम की महान हस्तियों की क़ब्रों को ढ़हाने के बारे सोचने लगे। (आईनए वहाबियत, पेज 38) - वहाबियों के विचारों के अनुसार सदियों से मुसलमान इस्लामी क़ानून और सिध्दांत के विरोध अमल करते हैं, और इन्होंने अल्लाह के दीन में इस्लाम विरोधी बिदअत (नई नई चीज़ें जिनका इस्लाम से कोई लेना देना न हो) ईजाद कर दी है।
वहाबियों के विचारों के अनुसार कोई भी पैग़म्बर का नाम लेकर क़सम नहीं खा सकता। (तारीख़े अदयान, पेज 1430) क्योंकि क़सम खाना और अल्लाह के अलावा किसी दूसरे से किसी काम में मदद लेना क़ुर्आन का विरोध करना है, इसलिए कि अल्लाह ने क़ुर्आन में फ़रमाया अल्लाह के साथ किसी को मत पुकारो। (सूरए जिन, आयत 8)
- उनके विचारों के अनुसार किसी के जनाज़े में शामिल होना, या किसी मरने वाले पर रोना उसका ग़म मनाना हराम है, क्योंकि मरने वाला किसी प्रकार के दुनिया या आख़ेरत के काम में शामिल नहीं हो सकता। (तारीख़े अदयान, पेज 1430)
- वहाबियों किसी को अच्छे लक़ब (उपाधि)जिस से किसी को सम्मानित किया जाए उसके साथ नही पुकार सकते क्योंकि सम्मान केवल अल्लाह के लिए है।
- वहाबी हर फ़िरक़े और धर्म के साथ जंग को जाएज़ समझते हैं, उनके अनुसार सब वहाबी हो जाएं या टैक्स दें, यही कारण है कि अपने अलावा दूसके मुसलमानों को काफ़िर कहते हैं, उनका कहना है कि जो गुनाह करे वह काफ़िर है। (तारीख़े अदयान, पेज 1431)