अज़ान व इक़ामत
925. हर मर्द और औरत के लिये मुस्तहब है कि रोज़ाना की वाजिब नमाज़ों से पहले अज़ान और इक़ामत कहे और ऐसा करना दूसरी वाजिब या मुस्तहब नमाज़ों के लिये मशरूउ नहीं लेकिन ईदे फ़ित्र और ईदे क़ुर्बान से पहले जबकि नमाज़ बा जमाअत पढ़े तो मुस्तहब है कि तीन मर्तबा, अस सलात कहें।
926. मुस्तहब है कि बच्चे की पैदाइश के पहले दिन या नाफ़ उखड़ने से पहले उसके दायें कान में अज़ान और बायें कान में इक़ामत कही जाए।
927. अज़ान अट्ठारा जुम्लों पर मुशतमिल हैः-
अल्लाहो अक्बरो अल्लाहो अक्बरो अल्लाहो अक्बरो अल्लाहो अक्बरो,
अश्हदो अंल्ला इलाहा इल्लल्लाहो अश्हदो अंल्ला इलाहा इल्लल्लाहो,
अश्हदो अन्ना मोहम्मदर्रसूलुल्लाह अश्हदो अन्ना मोहम्मदर्रसूलुल्लाह,
हैया अलस्सलाते हैया अलस्सलाते,
हैया अलल फ़लाहे हैया अलल फ़लाहे,
हैया अला ख़ैरिल अमले हैया अला ख़ैरिल अमले,
अल्लाहो अक्बरो अल्लाहो अक्बरो,
लाइलाहा इल्लल्लाहो लाइलाहा इल्लल्लाहो।
और इक़ामत के सत्रा जुम्ले हैं यानी अज़ान की इब्तिदा से दो मर्तबा अल्लाहो अक्बरो और आख़िर में एक मर्तबा ला इलाहा इल्लल्लाहो कम हो जाता है और हैया अला ख़ैरिल अमले कहने के बाद दो दफ्आ क़द क़ामतिस्सलातो का इज़ाफ़ा कर देना ज़रूरी है।
928. अश्हदो अन्ना अलीयन वलीयुल्लाहे अज़ान और इक़ामत का जुज़्व नहीं है लेकिन अगर अश्हदो अन्ना मोहम्मदर्रसूलुल्लाहे के बाद क़ुर्बत की नीयत से कहा जाए तो अच्छा है।
अज़ान और इक़ामत का तर्जमा
अल्लाहो अक्बरो यानी खुदाए लआला इससे बुज़ुर्ग तर है कि उसकी तअरीफ़ की जाए। अश्हदो अंल्ला इलाहा इल्लल्लाह यानी मैं गवाही देता हूं कि यकता और बेमिस्ल अल्लाह के अलावा कोई और परस्तिश के क़ाबिल नहीं है।
अश्हदो अन्ना मोहम्मदर्रसूलुल्लाह यानी मैं गवाही देता हूं कि मोहम्मद इब्ने अब्दुल्लाह स्वल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम अल्लाह के पैग़म्बर और उसी की तरफ़ से भेजे हुए हैं।
अश्हदो अन्ना अलीयन अमीरल मोमिनीना वलीयुल्लाह यानी गवाही देता हूं कि हज़रत अली (अ0) मोमिनीन के अमीर और तमाम मख्लूक़ पर अल्लाह के वली हैं।
हैया अलस्सलाते यानी नमाज़ की तरफ़ जल्दी करो।
हैया अलल फ़लाहे यानी रूस्तगारी के लिये जल्दी करो।
हैया अला ख़ैरिल अमले यानी बेहतरीन काम (नमाज़) के लिये जल्दी करो।
कद़् क़ामतिस्सलाते य्अनी बित्तहक़ीक़ नमाज़ क़ाइम हो गई।
ला इलाहा इल्लल्लाहो यानी यकता और बे मिस्ल अल्लाह के अलावा कोई परस्तिश के क़ाबिल नहीं।
929. ज़रूरी है कि अज़ान और इक़ामत के जुम्लों के दरमियान ज़्यादा फ़ासिला न हो और अगर उनके दरमियान मअमूल से ज़्यादा फ़ासिला रखा जाए तो ज़रूरी है कि अज़ान और इक़ामत दोबारा शूरू से कही जायें।
930. अगर अज़ान या इक़ामत में आवाज़ को गले में इस तरह फेरे कि ग़िना हो जाए यानी अज़ान और इक़ामत इस तरह कहे जैसे लहवो लइब और खेलकूद की महफ़िलों में अवाज़ निकालने का दस्तूर है तो वह हराम है और अगर ग़िना न हो तो मकरूह है।
931. तमाम सूरतों में जब कि नमाज़ी दो नमाज़ों को तले ऊपर अदा करे अगर उसने पहली नमाज़ के लिये अज़ान कही तो बाद वाली नमाज़ के लिये अज़ान साक़ित है। ख़्वाह दो नमाज़ों का जमअ करना बेहतर हो या न हो मसलन अरफ़ा के दिन जो नवी ज़िलहिज्जा का दिन है ज़ोहर और अस्र की नमाज़ों का जमअ करना और ईदे क़ुर्बान की रात में मग़्रिब और इशा की नमाज़ों का जमअ करना उस शख़्स के लिये जो मश्अरूल हराम में हो। इन सूरतों में अज़ान का साक़ित होना इससे मशरूत है कि दो नमाज़ों के दरमियान बिल्कुल फ़ासिला न हो या बहुत कम फ़ासिला हो लेकिन नफ़ल और तअक़ीबात पढ़ने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता और एहतियाते वाजिब यह है कि इन सूरतों में अज़ान मशरूइयत की नीयत से कही जाए बल्कि आख़िरी दो सूरतों में अज़ान कहना मुनासिब नहीं है अगरचे मशरूइयत की नियत से न हो।
932. अगर नमाज़े जमाअत के लिये अज़ान और इक़ामत कही जा चुकी हो तो जो शख़्स उस जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ रहा हो उसके लिये ज़रूरी नहीं कि अपनी नमाज़ के लिये अज़ान और इक़ामत कहे।
933. अगर कोई शख़्स नमाज़ के लिये मस्जिद में जाए और देखे कि नमाज़े जमाअत ख़त्म हो चुकी है तो जब तक सफ़ें टूट न जायें और लोग मुन्तशिर न हो जायें वह नमाज़ के लिये अज़ान और इक़ामत न कहे। यानी उन दोनों का कहना मुस्तहबे ताकीदी नहीं बल्कि अगर अज़ान देना चाहता हो तो बेहतर यह है कि बहुत आहिस्ता कहे और अगर दूसरी नमाज़े जमाअत क़ाइम करना चाहता हो तो हरगिज़ अज़ान व इक़ामत न कहे।
934. ऐसी जगह जहां नमाज़े जमाअत अभी अभी ख़त्म हुई हो और सफ़ें न टूटी हों अगर कोई शख़्स वहां तन्हा या दूसरी जमाअत के साथ जो क़ाइम हो रही हो नमाज़ पढ़ना चाहे तो छः शर्तों के साथ अज़ान और इक़ामत उस पर से साक़ित हो जाती हैः-
1. नमाज़े जमाअत मस्जिद में हो – और अगर मस्जिद में न हो तो अज़ान और इक़ामत का साक़ित होना मालूम नहीं।
2. उस नमाज़ के लिये अज़ान और इक़ामत कही जा चुकी हो।
3. नमाज़े जमाअत बातिल न हो।
4. उस शख़्स की नमाज़ और नमाज़े जमाअत एक ही जगह पर हो। लिहाज़ा अगर नमाज़े जमाअत मस्जिद के अन्दर पढ़ी जाए और वह शख़्स मस्जिद की छत पर नमाज़ पढ़ना चाहे तो मुस्तहब है कि अज़ान और इक़ामत कहे।
5. नमाज़े जमाअत अदा हो। लेकिन इस बात की शर्त नहीं कि खुद उसकी नमाज़ भी अदा हो।
6. उस शख़्स की नमाज़ और नमाज़े जमाअत का वक़्त मुश्तरक हो मसलन दोनों नमाज़े ज़ोहर या दोनों नमाज़े अस्र पढ़ें या नमाज़े ज़ोहर जमाअत से पढ़ी जा रही है और वह शख़्स नमाज़े अस्र पढ़े और जमाअत की नमाज़, अस्र की नमाज़ हो और अगर जमाअत की नमाज़े अस्र हो और आख़िरी वक़्त में वह चाहे कि मग़्रिब की नमाज़ अदा पढ़े तो अज़ान और इक़ामत उस पर से साक़ित नहीं होगी।
935. जो शर्तें साबिक़ा मस्अले में बयान की गई हैं अगर कोई शख़्स उनमें से तीसरी शर्त के बारे में शक करे यानी उसे शक हो कि जमाअत की नमाज़ सहीह थी या नहीं तो उस पर से अज़ान और इक़ामत साक़ित नहीं है। लेकिन अगर दूसरी पांच शराइत में से किसी एक के बारे में शक करे तो बेहतर है कि रजाए मतलूवियत की नीयत से अज़ान और इक़ामत कहे।
936. अगर कोई शख़्स किसी दूसरे की अज़ान जो एलान या जमाअत की नमाज़ के लिये कही जाए, सुने तो मुस्तहब है कि उसका जो हिस्सा सुने खुद भी उसे आहिस्ता आहिस्ता दोहराए।
937. अगर किसी शख़्स ने किसी दूसरे की अज़ान और इक़ामत सुनी हो ख़्वाह उसने उन जुमलों को दोहराया हो या न दोहराया हो तो अगर अज़ान और इक़ामत और उस नमाज़ के दरमियान जो वह पढ़ना चाहता हो ज़्यादा फ़ासिला न हुआ हो तो वह अपनी नमाज़ के लिये अज़ान और इक़ामत कह सकता है।
938. अगर कोई मर्द औरत की अज़ान को लज़्ज़त के क़स्द से सुने तो उसकी अज़ान साक़ित नहीं होगी बल्कि अगर मर्द का इरादा लज़्ज़त हासिल करने का न हो तब भी उसकी अज़ान साक़ित होने में इश्काल है।
939. ज़रूरी है कि नमाज़े ज़माअत की अज़ान और इक़ामत मर्द कहे लेकिन औरतों की नमाज़े जमाअत में अगर औरत अज़ान और इक़ामत कह दे तो काफ़ी है।
940. ज़रूरी है कि इक़ामत अज़ान के बाद कही जाए अलावा अज़ीं इक़ामत में मोअतबर है कि खड़े होकर और हदस से पाक होकर वुज़ू या ग़ुस्ल या तयम्मुम कर के कही जाए।
941. अगर कोई शख़्स अज़ान और इक़ामत के जुमले बग़ैर तरतीब के कहे मसलन हैया अललफ़लाह का जुमला हैया अलस्सलाह से पहले कहे तो ज़रूरी है कि जहां से तरतीब बिगड़ी हो वहां से दोबारा कहे।
942. ज़रूरी है कि अज़ान और इक़ामत के दरमियान फ़ासिला न हो और अगर उनके दरमियान इतना फ़ासिला हो जाए कि जो अज़ान कही जा चुकी है उसे उस इक़ामत की अज़ान न शुमार किया जा सके तो मुस्तहब है कि दोबारा अज़ान कही जाए। अलावा अज़ीं अगर अज़ान और इक़ामत के और नमाज़ के दरमियान इतना फ़ासिला हो जाए कि अज़ान और इक़ामत उस नमाज़ की अज़ान और इक़ामत शुमार न हो तो मुस्तहब है कि उस नमाज़ के लिये दोबारा अज़ान और इक़ामत कही जाए।
943. ज़रूरी है कि अज़ान और इक़ामत सहीह अरबी में कही जायें। लिहाज़ा अगर कोई शख़्स उन्हें ग़लत अरबी में कहे या एक हर्फ़ की जगह कोई दूसरा हर्फ़ कहे या मसलन उनका तर्जमा उर्दू ज़बान में कहे तो सहीह नहीं है।
944. ज़रूरी है कि अज़ान और इक़ामत, नमाज़ का वक़्त दाखिल होने के बाद कही जाएं और अगर कोई शख़्स अमदन या भूल कर वक़्त से पहले कहे तो बातिल है मगर ऐसी सूरत में जबकि वसते नमाज़ में वक़्त दाख़िल हो तो उस नमाज़ पर सहीह हुक्म लगेगा कि जिसका मस्अला 752 में ज़िक्र हो चुका है।
945. अगर कोई शख़्स इक़ामत कहने से पहले शक करे कि अज़ान कही है या नहीं तो ज़रूरी है कि अज़ान कहे और अगर इक़ामत कहने में मशग़ूल हो जाए और शक करे कि अज़ान कही है या नहीं तो अज़ान कहना ज़रूरी नहीं।
946. अगर अज़ान और इक़ामत कहने के दौरान कोई जुमला कहने से पहले एक शख़्स शक करे कि उसने इससे पहले वाला जुमला कहा है या नहीं तो ज़रूरी है कि जिस जुमले की अदायगी के बारे में उसे शक हुआ हो उसे अदा करे लेकिन अगर उसे अज़ान या इक़ामत का कोई जुमला अदा करते हुए शक हो कि उसने उससे पहने वाला जुमला कहा है या नहीं तो उस जुमले को कहना ज़रूरी नहीं।
947. मुस्तहब है कि अज़ान कहते वक़्त इंसान क़िब्ले की तरफ़ मुंह कर के खड़ा हो और वुज़ू या ग़ुस्ल की हालत में हो और हाथों को कानो पर रखे और आवाज़ को बलन्द करे और ख़ींचे और अज़ान के जुमलों के दरमियान क़दरे फ़ासिला दे और जुमलों के दरमियान बातें न करे।
948. मुस्तहब है कि इक़ामत कहते वक़्त इंसान का बदन साक़िन हो और अज़ान के मुक़ाबिले में इक़ामत आहिस्ता कहे और उसके जुमलों को एक दूसरे से मिला न दे। लेकिन इक़ामत के दरमियान उतना फ़ासिला न दे जितना अज़ान के जुमलों के दरमियान देता है।
949. मुस्तहब है कि अज़ान और इक़ामत के दरमियान एक क़दम आगे बढ़े या थोड़ी देर के लिये बैठ जाए या सज्दा करे या अल्लाह का ज़िक्र करे या दुआ पढ़े या थोड़ी देर के लिये साकित हो जाए या कोई बात करे या दो रक्अत नमाज़ पढ़े लेकिन नमाज़े फ़ज्र की अज़ान और इक़ामत के दरमियान कलाम करना और नमाज़े मग़्रिब की अज़ान और इक़ामत के दरमियान नमाज़ पढ़ना (यानी दो रक्अत नमाज़ पढ़ना) मुस्तहब नहीं है।
950. मुस्तहब है कि जिस शख़्स को अज़ान देने पर मुक़र्रर किया जाए वह आदिल और वक़्त शनास हो, नीज़ यह कि बलन्द आहंग हो और ऊंची जगह पर अज़ान दे।