अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

नमाज़े जुमा के अहकाम

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740. जुमा की नमाज़ सुब्ह की नमाज़ की तरह दो रक्अत की है। इसमें और सुब्ह की नमाज़ में फ़र्क़ यह है कि इस नमाज़ से पहले दो ख़ुत्बे भी हैं। जुमा की नमाज़ वाजिबे तख़्ईरी है। इससे मुराद यह है कि जुमा के दिन मुकल्लफ़ को इख़्तियार है कि अगर नमाज़े जुमा के शराइत मौजूद हों तो जुमा की नमाज़ पढ़े या ज़ोहर की नमाज़ पढ़े। लिहाज़ा अगर इंसान जुमा की नमाज़ पढ़े तो वह ज़ोहर की नमाज़ की किफ़ायत करती है (यानी फिर ज़ोहर की नमाज़ पढ़ना ज़रूरी नहीं) ।


जुमा की नमाज़ वाजिब होने की चन्द शर्तें हैं-


(अव्वल) वक़्त का दाखिल होना जो कि ज़वाले आफ़्ताब है और उसका वक़्ते अव्वल ज़वाले उर्फ़ी है। पस जब भी उसे ताख़ीर हो जाए, उसका वक़्त ख़त्म हो जाता है और फिर ज़ोहर की नमाज़ अदा करनी चाहिये।


(दोम) नमाज़ पढ़ने वालों की तअदाद जो कि बमअ इमाम पांच अफ़्राद है और जब तक पांच मुसलमान इकट्ठे न हों जुमा की नमाज़ वाजिब नहीं होती।


(सोम) इमाम का जामेए शराइते इमामत होना – मसलन अदालत वग़ैरा जो कि इमामे जमाअत में मोअतबर हैं और नमाज़े जमाअत की बह्स में बताया जायेगा। अगर यह शर्त पूरी न हो तो जुमा की नमाज़ वाजिब नहीं होती।


जुमा की नमाज़ के सहीह होने की चन्द शर्तें हैं –


(अव्वल) बा जमाअत पढ़ा जाना। पस यह नमाज़ फ़ुरादा अदा करना सहीह नहीं और जब मुक़्तदी नमाज़ की दूसरी रक्अत के रूकू से पहले इमाम के साथ शामिल हो जाए तो उसकी नमाज़ सहीह है और वह उस नमाज़ पर एक रक्अत का इज़ाफ़ा करेगा और अगर वह रूकू में इमाम को पा ले (यानी नमाज़ में शामिल हो जाए) तो उसकी नमाज़ का सहीह होना मुश्किल है और एहतियाते तर्क नहीं होती (यानी उसे ज़ोहर की नमाज़ पढ़नी चाहिये)।


(दोम) नमाज़ से पहले दो ख़ुत्बे पढ़ना। पहले ख़ुत्बे में ख़तीब अल्लाह तअला की हम्द व सना बयान करे नीज़ नमाज़ियों को तक़्वा और परहेज़गारी की तल्क़ीन करे। फिर क़ुरआने मजीद का एक छोटा सूरा पढ़ कर (मिम्बर पर लम्हा दो लम्हा) बैठ जाए और फिर खड़ा हो और दोबारा अल्लाह तअला की हम्द व सना बजा लाए। फिर हज़रत रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम और आइम्मा ए ताहिरीन (अ0) पर दुरूद भेजे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि मोमिनीन और मोमिनात के लिये इस्तिग़्फ़ार (बख़्शिश की दुआ) करे। ज़रूरी है कि ख़ुत्बे नमाज़ से पहले पढ़े जायें। पस अगर नमाज़ दो ख़ुत्बों से पहले शूरू कर ली जाए तो सहीह नहीं होगी और ज़वाले आफ़्ताब से पहले ख़ुत्बे पढ़ने में इश्काल है और ज़रूरी है कि जो शख़्स ख़ुत्बे पढ़े वह ख़ुत्बे पढ़ने के वक़्त खड़ा हो। लिहाज़ा अगर वह बैठ कर ख़ुत्बे पढ़ेगा तो सहीह नहीं होगा और दो ख़ुत्बों के दरमियान बैठकर फ़ासिला देना लाज़िम और वाजिब है। और ज़रूरी है कि मुख़्तसर लम्हों के लिये बैठे। और यह भी ज़रूरी है कि इमामे जमाअत और ख़तीब यानी जो शख़्स ख़ुत्बे पढ़े – एक ही शख़्स हो, और अक़्वा यह है कि ख़ुत्बे में तहारत शर्त नहीं है अगरचे इश्तिरात (यानी शर्त होना) अहवत है। और एहतियात की बिना पर अल्लाह तअला की हम्द व सना इसी तरह पैग़म्बरे अकरम (स0) और अइम्मतुल मुसलिमीन पर अरबी ज़बान मे दुरूद भेजना मोअत्बर है और उससे ज़्यादा में अरबी मोअत्बर नहीं है। बल्कि अगर हाज़िरीन की अक्सरीयत अरबी न जानती हो तो एहतियाते लाज़िम यह है कि तक़्वा के बारे में वअज़ व नसीहत करते वक़्त जो ज़बान हाज़िरीन जानते हैं उसी तक़्वा की नसीहत करे।


(सोम) यह कि जुमा की दो नमाज़ों के दरमियान एक फ़र्सख़ से कम फ़ासिला न हो। पस जब जुमा की दूसरी नमाज़ एक फ़र्सख से कम फ़ासिले पर क़ाइम हो और दो नमाज़े वयक वक़्त पढ़ी जायें तो दोनों बातिल होंगी और अगर एक नमाज़ को दूसरी नमाज़ पर सबक़त हासिल हो ख़्वाह वह तक्बीरतुल एहराम की हद तक ही क्यों न हो तो वह (नमाज़ जिसे सबक़त हासिल हो) सहीह होगी और दूसरी बातिल होगी, लेकिन अगर नमाज़ के बाद पता चले कि एक फ़र्सख़ से कम फ़ासिले पर जुमा की एक और नमाज़ इससे पहले या इसके साथ साथ क़ाइम हुई थी तो ज़ोहर की नमाज़ वाजिब नहीं होगी और इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि इस बात का इल्म वक़्त में हो या वक़्त के बाद हो। और जुमा की नमाज़ का क़ाइम करना मज़्कूरा फ़ासिले के अन्दर जुमा की दूसरी नमाज़ का क़ाइम करने में उस वक़्त माने होता है जब वह नमाज़ खुद सहीह और जामेउश्शराइत हो वर्ना उसके माने होने में इश्कल है। और ज़्यादा एहतिमाल उसके माने न होने का है।


741. जब जुमा की एक ऐसी नमाज़ क़ाइम हो जो शराइत को पूरी करती हो और नमाज़ क़ाइम करने वाला इमामे वक़्त या उसका नायब हो तो उस सूरत में नमाज़े जुमा में हाज़िर होना वाजिब है। और उस सूरत के अलावा हाज़िर होना वाजिब नहीं है। पहली सूरत में हाज़िरी के वुजूब के लिये चन्द चीज़ें मोअतबर हैः-


(अव्वल) मुकल्लफ़ मर्द हो – और जुमा की नमाज़ में हाज़िर होना औरतों के लिये वाजिब नहीं है।


(दोम) आज़ाद होना – लिहाज़ा ग़ुलामों के लिये जुमा की नमाज़ में हाज़िर होना वाजिब नहीं है।


(सोम) मुक़ीम होना – लिहाज़ा मुसाफ़िर के लिये जुमा की नमाज़ में शामिल होना वाजिब नहीं है। उस मुसाफ़िर में जिसका फ़रीज़ा क़स्र हो और जिस मुसाफ़िर नें इमामत की क़स्द किया हो और उसका फ़रीज़ा पूरी नमाज़ पढ़ना हो कोई फ़र्क़ नहीं है।


(चहारुम) बीमार और अंधा न होना – लिहाज़ा बिमार और अंधे शख़्स पर जुमा की नमाज़ वाजिब नहीं है।


(पंजुम) बूढ़ा न होना – लिहाज़ा बूढ़ों पर यह नमाज़ वाजिब नहीं है।


(शशुम) यह कि ख़ुद इंसान के और उस जगह के दरमियान जहां जुमुअ की नमाज़ क़ाइम हो दो फ़र्सख़ से ज़्यादा फ़ासिला न हो और जो शख़्स दो फ़र्सख़ के सिरे पर हो उसके लिये हाज़िर होना वाजिब है और इसी तरह वह शख़्स जिसके लिये जुमा की नमाज़ में बारिश या सख़्त सर्दी की वजह से हाज़िर होना मुश्किल या दुश्वार हो तो हाज़िर होना वाजिब नहीं है।


742. चन्द अहकाम जिन का तअल्लुक़ जुमा की नमाज़ से है यह हैः-


(अव्वल) जिस शख़्स पर जुमा की नमाज़ साक़ित हो गई हो और उसका उस नमाज़ में हाज़िर होना वाजिब न हो उसके लिये जाइज़ है कि ज़ोहर की नमाज़ अव्वले वक़्त में अदा करने की जल्दी करे।


(दोम) इमाम को ख़ुत्बे के दौरान बातें करना मकरूह है लेकिन अगर बातों की वजह से ख़ुत्बा सुनने में रूकावट हो तो एहतियात की बिना पर बातें करना जाइज़ नहीं है। और जो तअदाद नमाज़े जुमा के वाजिब होने के लिये मोअतबर है उसमें और उससे ज़्यादा के दरमियान कोई फ़र्क़ नहीं है।


(सोम) एहतियात की बिना पर दोनों ख़ुत्बों का तवज्जोह से सुनना वाजिब है लेकिन जो लोग ख़ुत्बों के मअना न समझते हों उनके लिये तवज्जोह से सुना वाजिब नहीं है।


(चहारुम) जुमा के दिन की दूसरी अज़ान बिद्अत है और यह वही अज़ान है जिसे आम तौर पर तीसरी अज़ान कहा जाता है।


(पंजुम) ज़ाहिर यह है कि जब इमामे जुमा ख़ुत्बा पढ़ रहा हो तो हाज़िर होना वाजिब नहीं है।


(शशुम) जब जुमा की नमाज़ के लिये अज़ान दी जा रही हो तो खरीद व फ़रोख़्त उस सूरत में जबकि वह नमाज़ में माने हो हराम है और अगर ऐसा न हो तो फिर हराम नहीं है और अज़्हर यह है कि ख़रीद व फ़रोख़्त हराम होने की सूरत में भी मुआमला बातिल नहीं होता।


(हफ़्तुम) अगर किसी शख़्स पर जुमा की नमाज़ में हाज़िर होना वाजिब हो और वह उस नमाज़ को तर्क करे और ज़ोहर की नमाज़ बजा लाए तो अज़्हर यह है कि उसकी नमाज़ सहीह होगी।

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