हज
हज मुसलमानों का सब से बड़ा धार्मिक आयोजन है और पूरी दुनिया से मुसलमान अरबी कैलेन्डर के ज़िलहिज्जा महीने की विशेष तारीखों में मक्का नगर में जो वर्तमान सऊदी अरब नामक देश में स्थित है, विभिन्न स्थानों पर ठहरते और विशेष संस्कार करते हैं। हज हर उस व्यक्ति पर अपनी पूरी आयु में एक बार अनिवार्य होता है जो आर्थिक और शारीरिक दृष्टि से इसकी क्षमता रखता हो।
यह यात्रा वृतांत हज के संस्कारों को समझने में सहायक सिद्ध हो सकता है।
इस्लाम धर्म स्वीकार करने वाली श्रीमती ख़दीजा जिनका संबन्ध कनाडा से है अपने हज यात्रा वृतांत में लिखती हैं:
चिंतनमनन के लिए अद्वितीय अवसर प्रशस्त हो चुका है। यह वह अवसर है जो हो सकता है कि जीवन में केवल एक बार ही प्राप्त हो सके। ऐसी स्थिति में कि मेरा पूरा अस्तित्व,ईश्वर के घर के दर्शन और उसकी परिक्रमा से संबन्धित विचारों से भरा हुआ है, मैं अरफ़ात के मैदान में पहुंची हूं। अरफ़ात ऐसा चटियल मैदान है जहां रूचि और संबन्ध के सारे रंग फीके पड़ जाते हैं।
इस मैदान में कोई भी ऐसी भौतिक और उकसाने वाली वस्तु नहीं पाई जाती जो हमारे ध्यान को अपनी ओर आकृष्ट कर सके। मैं भी अन्य लाखों हाजियों की भांति, सफेद रंग का एहराम बांधे हुए सांसारिक मायामोह से दूर, अपने मन की गहराइयों से ईश्वर को पुरकार रही हूं।
मैं स्वयं से कहती हूं कि हज़रत आदम अलैहिस्सलम से लेकर हज़रत मुहम्मद (स) जैसे महापुरूष और उनके पवित्र परिजन इसी स्थान पर नतमस्तक हुए हैं।
इस स्थान पर सब महापुरूषों ने महान ईश्वर से उच्च स्थान की प्राप्ति के लिए प्रार्थानाएं की हैं। क्या मैं भी ईश्वर की क्षमा की पात्र बन सकती हूं?
यह कैनेडियन हज यात्री आगे लिखती हैः-
मैने इमाम मुहम्मद बाक़र अलैहिस्सलाम का एक कथन पढ़ा है जो इस प्रकार है। कोई भी ऐसा अच्छा या बुरा व्यक्ति नहीं है जो अरफ़ात और मशअर के पहाड़ों पर ठहरे मगर यह कि ईश्वर उसकी प्रार्थना को स्वीकार न करे। मानो मुझको एक नई शक्ति प्राप्त हुई है। मेरे असितत्व में आशा की किरण जाग उठी है और में गहरी भावना से ईश्वर के निकट मैं अपने पूरे अस्तित्व से अपनी ग़लतियों को स्वीकार करती हूं। सभी मुसलमानों के लिए मैं सम्मान की कामना करती हूं और ईश्वर से सहायता चाहती हूं।
जि़लहिज्जा महीने की नौ तारीख को प्रातः हज का कारवां, मक्के से निकलता है। सारे ही यात्री सफेद रंग के कपड़े पहने हुए हैं।
हम सब सुव्यवस्थित ढंग से आसमानी दुआ "लब्बैक अल्लाहुम्मा लब्बैक" कहते हुए अरफ़ात की ओर बढ़ते हैं।
यह आध्यात्मिक आवाज़, मक्के और उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में गूंजती है। लाखों हाजियों की उपस्थिति इस विषय को आवश्यक बनाती है कि लोग, गुटों में व्यवस्थित ढंग से आगे बढ़ें और स्वयं को नवीं जिलहिज्जा की दोपहर तक अरफ़ात के मैदान में पहुचाएं।
इस प्रकार यात्री एक बहती हुई नदी की भांति अरफ़ात में मनुष्यों के समुद्र से जा मिलते हैं।
वे एक एसे मरूस्थल की ओर बढ़ रहे हैं जो चारों ओर पर्वतों और घाटियों से घिरा है।
इस खुले मैदान में स्वच्छ आकाश, खुला क्षितिज तथा चमकता सूर्य वे दृश्य हैं जो दर्शकों को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं।
हाजी को अरफ़ात, मशअर और मिना तीन स्थानों पर रूकना पड़ता है। दूसरे शब्दों में हज के संस्कारों में से एक अरफ़ात में ठहरना है।
अरफ़ात नामक विस्तृत मैदान, मक्का नगर के उत्तर में स्थित है। यह विस्तृत मैदान, जबलुर्रहमा नामक पर्वतांचल में स्थित है।
मक्का नगर से अरफ़ात की दूरी 25 किलोमीटर है।
अरफ़ात वह पवित्र भूमि है जिसे ईश्वर ने अपने अतिथियों के अतिथि सत्कार के लिए विशेष किया है।
ईश्वर ने अपने घर के समस्त यात्रियों को यह निर्देश दिया है कि वे एक निर्धारित समय पर उस स्थान पर एकत्रित हों और प्रत्येक अपनी क्षमता के अनुसार उसकी दया एव कृपा के ठाठे मारते समुद्र से लाभान्वित हो। अरफ़ात, पहचान और चिंतन-मनन की भूमि है। यह चिंतन और उच्चता की भूमि है। अरफ़ात में ९ जि़लहिज्जा की दोपहर से सूर्यास्त तक ठहरा जाता है। यह कार्य बहुत ही भव्य एवं रोमांचक होता है।
यहां पर हाजी तंबुओं में रहते हैं और चिंतन-मनन एवं प्रार्थना में व्यस्त रहते हैं।
जीवन में पहचान और होशियारी, सफलता का रहस्य है। जिस प्रकार से मनुष्य को जीवन में अपने कर्तव्यों और दायित्वों के प्रति सचेत रहना चाहिए उसी प्रकार उसे उन ख़तरों से भी अवगत रहना चाहिए जो उसके मन तथा उसकी आत्मा को क्षति पहुंचा सकते हैं क्योंकि इस्लामी शिक्षाओं में होशियारी और दूरदर्शिता पर विशेष ध्यान दिया गया है। मनुष्य को अपने इर्दगिर्द घटने वाली घटनाओं और भविष्य में घटने वाली घटनाओं के प्रति सदा ही सचेत रहना चाहिए।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम के कथनानुसार उसपर ईश्वर की कृपा हो जो सोच-विचार करे और उसी के आधार पर मामलों को परखें।
अरफ़ात में हाजी को पहचान और दूरदर्शिता प्राप्त करने के लिए चिंतन-मनन करना चाहिए। उसे अपने बारे में और जीवन में उसने जो कुछ भी किया है उसके बारे में सोचना चाहिए।
अरफ़ात में प्रार्थना करते हुए उसे ईश्वरीय दूतों की प्रार्थनाओं को याद करना चाहिए। अरफ़ात में हर ओर से प्रार्थना की आवाज़ें सुनाई देती हैं।
वहां पर उपस्थित सारे ही लोग ईश्वर से प्रार्थना करते हैं और उससे क्षमायाचना करते हैं।
इस्लामी इतिहास के अनुसार अरफ़ात, प्रथम मनुष्य के रूप में हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के धरती पर उतरने का स्थल है।
उन्होंने अपनी उच्चता के लिए इसी स्थान से प्रयास आरंभ किया था।
यह हज़रत इब्राहीम, हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) की भूमि और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की आध्यात्मिक ढंग से की गई दुआओं का स्थल है।
कहा जाता है कि यदि अरफ़ात में मनुष्य की आत्मा और उसका हृदय परिवर्तित हो जाए और मशअर में ठहरकर वह अपनी इस स्थिति को परिपूर्णता के शिखर की ओर ले जाए तो फिर उसका हज ईश्वर के निकट स्वीकार्रय है। अरफ़ात मरूस्थल में प्रलय के दिन की याद ताज़ा होती है और अपने किये गए कार्मों को याद करके हाजी के भीतर विच्छेद की स्थिति उत्पन्न होती है जो उसके लिए सार्थक और लाभदायक है।
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) अपने अन्तिम हज के दौरान जब अरफ़ात से विदा हो रहे थे तो उन्होंने हज़रत बेलाल से कहा, हे बेलाल, लोगों से कहो कि वे शांत हो जाएं।
जब सब लोग शांत हो गए तो हज़रत मुहम्मद (स) ने कहा कि तुम्हारे ईश्वर ने तुमपर उपकार किया है तुम्हारे पूर्वजों को अपनी क्षमा में सम्मिलित किया है और फिर तुम्हारी बुराई को भी तुम्हारी अच्छाइयों की सिफ़ारिश से माफ़ कर दिया। अब आगे बढ़ो जबकि तुम सामान्यतः ईश्वर की कृपा और उसकी क्षमा में सम्मिलित हो चुके हो।