पहला हिस्सा
ख़ुदा शनासी व तौहीद
1.अल्लाह का वुजूद:
हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह इस पूरी कायनात का ख़ालिक़ है
,सिर्फ़ हमारे वुजूद में
,तमाम जानवरों में
,नबातात में
,आसमान के सितारों में
,ऊपर की दुनिया में ही नही बल्कि हर जगह पर तमाम मौजूदाते आलम की पेशानी पर उसकी अज़मत
,इल्म व क़ुदरत की निशानियाँ ज़ाहिर व आशकार हैं।
हमारा अक़ीदह है कि हम इस दुनिया के राज़ों के बारे में जितनी ज़्यादह फ़िक्र करेंगे उस ज़ाते पाक की अज़मत
,उसके इल्म और उसकी क़ुदरत के बारे में उतनी ही ज़्यादह जानकारी हासिल होगी। जैसे जैसे इँसान का इल्म तरक़्क़ी कर रहा है वैसे वैसे हर रोज़ उसके इल्म व हिकमत हम पर ज़ाहिर होते जा रहे हैं
,जिस से हमारी फ़िक्र में इज़ाफ़ा हो रहा है
,यह फ़िक्र उसकी ज़ाते पाक से हमारे इश्क़ में इज़ाफ़े का सरचश्मा बनेगी और हर लम्हे हमको उस मुक़द्दस ज़ात से करीब से करीबतर करती रहेगी और उसके नूरे जलालो जमाल में गर्क़ करेगी।
क़ुरआने करीम फ़रमाता है कि
“व फ़ी अलअर्ज़ि आयातुन लिल मुक़ीनीना * व फ़ी अनफ़ुसिकुम अफ़ला तुबसिरूना
”
यानी यक़ीन हासिल करने वालों के लिए ज़मीन में निशानियाँ मौजूद हैं और क्या तुम नही देखते कि ख़ुद तुम्हारे वुजूद में भी निशानियाँ पाई जाती हैं
? [1]
“
इन्ना फ़ी ख़ल्क़ि अस्समावाति व अलअर्ज़ि व इख़्तिलाफ़ि अल्लैलि व अन्नहारि लआयातिन लिउलिल अलबाबि *अल्लज़ीना यज़कुरूना अल्लाहा क़ियामन व क़ुउदन व अला जुनुबिहिम व यतफ़क्करूना फ़ी ख़ल्कि अस्समावाति व अलअर्ज़ि रब्बना मा ख़लक़ता हाज़ा बातिला
”[2]यानी बेशक ज़मीन व आसमान की ख़िलक़त में और दिन रात के आने जाने में साहिबाने अक़्ल के लिए निशानियाँ है। उन साहिबाने अक़्ल के लिए जो खड़े हुए
,बैठे हुए और करवँट से लेटे हुए अल्लाह का ज़िक्र करते हैं और ज़मीनों आसमान की ख़िलक़त के राज़ों के बारे में फ़िक्र करते हैं (और कहते हैं)ऐ पालने वाले तूने इन्हे बेहुदा ख़ल्क़ नही किया है।
2.सिफ़ाते जमाल व जलाल
हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह की ज़ाते पाक हर ऐब व नक़्स से पाक व मुनज़्ज़ह और तमाम कमालात से आरास्ता
,बल्कि कमाले मुतलक़ व मुतलक़े कमाल है दूसरे अलफ़ाज़ में यह कहा जा सकता है कि इस दुनिया में जितने भी कमालात व ज़ेबाई पाई जाती है उसका सर चश्मा वही ज़ाते पाक है।
“हुवा अल्लाहु अल्लज़ी ला इलाहा इल्ला हुवा अलमलिकु अलक़ुद्दूसु अस्सलामु अलमुमिनु अलमुहयमिनु अलअज़ीज़ु अलजब्बारु अलमुतकब्बिरु सुबहना अल्लाहि अम्मा युशरिकून हुवा अल्लाहु ख़ालिक़ु अलबारियु अलमुसव्विरु लहु अलअसमाउ अलहुस्ना युसब्बिहु लहु मा फ़ी अस्समावाति व अलअर्ज़ि व हुवा अलअज़ीज़ु अलहकीम
”[3]यानी वह अल्लाह वह है जिसके अलावा कोई माबूद नही है वही असली हाकिम व मालिक है
,वह हर ऐब से पाक व मुनज़्ज़ह
,वह किसी पर ज़ुल्म नही करता
,वह अमन देने वाला है
,वह हर चीज़ की मुराक़ेबत करने वाला है
,वह ऐसा कुदरत मन्द है जिसके लिए शिकस्त नही है
,वह अपने नाफ़िज़ इरादे से हर काम की इस्लाह करता है
,वह शाइस्ताए अज़मत है
,वह अपने शरीक से मुनज़्जह है। वह अल्लाह बेसाबक़ा ख़ालिक़ व बेनज़ीर मुसव्विर है उसके लिए नेक नाम(हर तरह के सिफ़ाते कमाल) है
,जो भी ज़मीनों व आसमानों में पाया जाता है उसकी तस्बाह करता है वह अज़ीज़ो हकीम है।
यह उसके कुछ सिफ़ाते जलाल व जमाल हैं।
3.उसकी ज़ाते पाक नामुतनाही (अपार
,असीम)है
हमारा अक़ीदह है कि उसका वुजूद नामुतनाही है अज़ नज़रे इल्म व क़ुदरत
,व अज़ नज़रे हयाते अबदीयत व अज़लीयत
,इसी वजह से ज़मान व मकान में नही आता क्योँकि जो भी ज़मान व मकान में होता है वह महदूद होता है। लेकिन इसके बावजूद वह वक़्त और हर जगब मौजूद रहता है क्योँ कि वह फ़ौक़े ज़मान व मकान है।
“व हुवा अल्लज़ी फ़ी अस्समाइ इलाहुन व फ़ी अलअर्ज़ि इलाहुन व हुवा अलहकीमु अलअलीमु
”[4]यानी (अल्लाह)वह है जो ज़मीन में भी माबूद है और आसमान में भी और वह अलीम व हकीम है।
“व हुवा मअकुम अयनमा कुन्तुम व अल्लाहु विमा तअमलूना बसीर
”[5]यानी तुम जहाँ भी हो वह तुम्हारे साथ है और जो भी तुम अन्जाम देते हो वह उसको देखता है।
हाँ वह हमसे हमारे से ज़्यादा नज़दीक है
,वह हमारी रूहो जान में है
,वह हर जगह मौजूद है लेकिन फ़िर भी उसके लिए मकान नही है।
“व नहनु अक़रबु इलैहि मिन हबलि अल वरीद
”[6]यानी हम उस से उसकी शह रगे गरदन से भी ज़्यादा क़रीब हैं।
“
हुवा अलअव्वलु व अलआख़िरु व ज़ाहिरु व बातिनु व हुवा बिकुल्लि शैइन अलीम
[7]यानी वह (अल्लाह)अव्वलो आख़िर व ज़ाहिरो बातिन है और हर चीज़ का जान ने वाला है।
हम जो क़ुरआन में पढ़ते हैं कि
“ज़ु अलअर्शि अलमजीद
”[8]वह साहिबे अर्श व अज़मत है। यहाँ पर अर्श से मुराद बुलन्द पा तख़्ते शाही नही है। और हम क़ुरआन की एक दूसरी आयत में जो यह पढ़ते हैं कि
“अर्रहमानु अला अलअर्शि इस्तवा
”यानी रहमान (अल्लाह)अर्श पर है इसका मतलब यह नही है कि अल्लाह एक ख़ास मकान में रहता है बल्कि इसका मतलब यह है कि पूरे जहान
,माद्दे और जहाने मा वराए तबीअत पर उसकी हाकमियत है। क्योँ कि अगर हम उसके लिए किसी खास मकान के क़ायल हो जायें तो इसका मतलब यह होगा कि हमने उसको महदूद कर दिया
,उसके लिए मख़लूक़ात के सिफ़ात साबित किये और उसको दूसरी तमाम चीज़ो की तरह मान लिया जबकि क़ुरआन ख़ुद फ़रमाता है कि
“लैसा कमिस्लिहि शैउन
”[9]यानी कोई चीज़ उसके मिस्ल नही है।
“
व लम यकुन लहु कुफ़ुवन अहद
”यानी उसके मानिन्द व मुशाबेह किसी चीज़ का वुजूद नही है।
4)न वह जिस्म रखता है और न ही दिखाई देता है
हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह आखोँ से हर गिज़ दिखाई नही देता
,क्योँ कि आख़ोँ से दिखाई देने का मतलब यह है कि वह एक जिस्म है जिसको मकान
,रंग
,शक्ल और सिम्त की ज़रूरत होती है
,यह तमाम सिफ़तें मख़लूक़ात की है
,और अल्लाह इस से बरतरो बाला है कि उसमें मख़लूक़ात की सिफ़तें पाई जायें।
इस बिना पर अल्लाह को देखने का अक़ीदा एक तरह के शिर्क में मुलव्विस होना है। क्योँ कि क़ुरआन फ़रमाता है कि
“ला तुदरिकुहु अलअबसारु व हुवा युदरिकु अलअबसारा व हुवा लतीफ़ु अलख़बीरु
” [10]यानी आँखें उसे नही देखता मगर वह सब आँखों को देखता है और वह बख़्श ने वाला और जान ने वाला है।
इसी वजह से जब बनी इस्राईल के बहाना बाज़ लोगों ने जनाबे मूसा अलैहिस्सलाम से अल्लाह को देखने का मुतालबा किया और कहा कि
“लन नुमिना लका हत्ता नरा अल्लाहा जहरतन
”[11]यानी हम आप पर उस वक़्त तक ईमान नही लायेंगे जब तक खुले आम अल्लाह को न देख लें। हज़रत मूसा (अ.)उनको कोहे तूर पर ले गये और जब अल्लाह की बारगाह में उनके मुतालबे को दोहराया तो उनको यह जवाब मिला कि
“लन तरानी व लाकिन उनज़ुर इला अलजबलि फ़इन्नि इस्तक़र्रा मकानहु फ़सौफ़ा तरानी फ़लम्मा तजल्ला रब्बुहु लिल जबलि जअलाहुदक्कन व ख़र्रा मूसा सइक़न फ़लम्मा अफ़ाक़ा क़ाला सुबहानका तुब्तु इलैका व अना अव्वलु अलमुमिनीनावल
”[12]यानी तुम मुझे हर गिज़ नही देख सकोगो लेकिन पहाड़ की तरफ़ निगाह करो अगर तुम अपनी हालत पर बाकी रहे तो मुझे देख पाओ गे और जब उनके रब ने पहाड़ पर जलवा किया तो उन्हें राख बना दिया और मूसा बेहोश हो कर ज़मीन पर गिर पड़े
,जब होश आया तो अर्ज़ किया कि पालने वाले तू इस बात से मुनज़्ज़ा है कि तुझे आँखोँ से देखा जा सके मैं तेरी तरफ़ वापस पलटता हूँ और मैं ईमान लाने वालों में से पहला मोमिन हूँ। इस वाक़िये से साबित हो जाता है कि ख़ुदा वन्दे मुतआल को हर नही देखा जा सकता।
हमारा अक़ीदह है कि जिन आयात व इस्लामी रिवायात में अल्लाह को देखने का तज़केरह हुआ है वहाँ पर दिल की आँखों से देखना मुराद है
,क्योँ कि कुरआन की आयते हमेशा एक दूसरी की तफ़्सीर करती हैं।
“अल क़ुरआनु युफ़स्सिरु बअज़ुहु बअज़न
”[13]
इस के अलावा हज़रत अली अलैहिस्सलाम से एक शख़्स ने सवाल किया कि
“या अमीरल मोमिनीना हल रअयता रब्बका
? ”यानी ऐ अमीनल मोमेनीन क्या आपने अपने रब को देखा है
?आपने फ़रमाया
“आ अबुदु मा ला अरा
”यानी क्या मैं उसकी इबादत करता हूँ जिसको नही देखा
?इसके बाद फ़रमाया
“ला तुदरिकुहु अलउयूनु बिमुशाहदति अलअयानि
,व लाकिन तुदरिकुहु अलक़लूबु बिहक़ाइक़ि अलईमानि
”
[14]उसको आँखें तो ज़ाहिरी तौर परनही देख सकती मगर दिल ईमान की ताक़त से उसको दर्क करता है।
हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह के लिए मख़लूक़ की सिफ़ात का क़ायल होना जैसे अल्लाह के लिए मकान
,जहत
,मुशाहिदह व जिस्मियत का अक़ीदह रखना अल्लाह की माअरफ़त से दूरी और शिर्क में आलूदह होने की वजह से है। वह तमाम मुकिनात और उनके सिफ़ात से बरतर है
,कोई भी चीज़ उसके मिस्ल नही हो सकती।
5)तौहीद
,तमाम इस्लामी तालीमात की रूहे है
हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह की माअरफ़त के मसाइल में मुहिमतरीन मस्ला माअरफ़ते तौहीद है। तौहीद दर वाक़ेअ उसूले दीन में से एक अस्ल ही नही बल्कि तमाम अक़ाइदे इस्लामी की रूह है। और यह बात सराहत के साथ कही जा सकती है कि इस्लाम के तमाम उसूल व फ़रूअ तौहीद से ही वुजूद में आते हैं। हर मंज़िल पर तौहीद की बाते हैं
,वहदते ज़ाते पाक
,तौहीदे सिफ़ात व अफ़आले ख़ुदा और दूसरी तफ़्सीर में वहदते दावते अंबिया
,वहदते दीन व आईने ईलाही
,वहदते क़िबलाव किताबे आसमानी
,तमाम इँसानों के लिए अहकाम व क़ानूने ईलाही की वहदत
,वहदते सफ़ूफ़े मुस्लेमीन और वहदते यौमुल मआद (क़ियामत)।
इसी वजह से क़ुरआने करीम ने तौहीद ईलाही से हर तरह के इनहेराफ़ और शिर्क की तरफ़ लगाव को ना बखशा जाने वाला गुनाह कहा है।
“इन्ना अल्लाहा ला यग़फ़िरू अन युशरका बिहि व यग़फ़िरु मा दूना ज़ालिका लिमन यशाउ व मन युशरिक बिल्लाह फ़क़द इफ़तरा इस्मन अज़ीमन
”[15]यानी अल्लाह शिर्क को हर गिज़ नही बख़शेगा
,(लेकिन अगर)इसके (शिर्क)के अलावा (दूसरे गुनाह हैं तो) जिसके गुनाह चाहेगा बख़्श देगा
,और जिसने किसी को अल्लाह का शरीक क़रार दिया उसने एक बहुत बड़ा गुनाह अँजाम दिया।
“
व लक़द उहिया इलैका इला अल्लज़ीना मिन क़बलिका लइन अशरकता लयहबितन्ना अमलुका वलतकूनन्ना मिन अलखासिरीना
”[16]यानी बातहक़ीक़ तुम पर और तुम से पहले पैग़म्बरों पर वही की गई कि अगर तुम ने शिर्क किया तो तुम्हारे तमाम आमाल हब्त(ख़त्म)कर दिये जायेंगे और तुम नुक़्सान उठाने वालों में से हो जाओ गे।
6)तौहीद की क़िस्में
हमारा अक़ीदह है कि तौहीद की बहुत सी क़िस्में हैं जिन में से यह चार बहुत अहम हैं।
तौहीद दर ज़ात
यानी उसकी ज़ात यकता व तन्हा है और कोई उसके मिस्ल नही है
तौहीद दर सिफ़ात
यानी उसके सिफ़ात इल्म
,क़ुदरत
,अज़लीयत
,अबदियत व .....तमाम उसकी ज़ात में जमा हैं और उसकी ऐने ज़ात हैं। उसके सिफ़ात मख़लूक़ात के सिफ़ात जैसे नही हैं क्योँ कि मख़लूक़ात के तमाम सिफ़ात भी एक दूसरे से जुदा और उनकी ज़ात भी सिफ़ात से जुदा होती है। अलबत्ता ऐनियते ज़ाते ख़ुदा वन्द बा सिफ़ात को समझ ने के लिए दिक़्क़त व ज़राफते फ़िकरी की जरूरत है।
तौहीद दर अफ़आल
हमारा अक़ीदह है कि इस आलमें हस्ति में जो अफ़आल
,हरकात व असरात पाये जाते हैं उन सब का सरचश्मा इरादए ईलाही व उसकी मशियत है।
“अल्लाहु ख़ालिकु कुल्लि शैइन व हुवा अला कुल्लि शैइन वकील
”[17]यानी हर चीज़ का ख़ालिक़ अल्लाह है और वही हर चीज़ का हाफ़िज़ व नाज़िर भी है।
“लहु मक़ालीदु अस्समावाति व अलअर्ज़ि
” [18]तमाम ज़मीन व आसमान की कुँजियाँ उसके दस्ते क़ुदरत में हैं।
“
ला मुअस्सिरु फ़ी अलवुजूदि इल्ला अल्लाहु
”इस जहाने हस्ति में अल्लाह की ज़ात के अलावा कोई असर अन्दाज़ नही है।
लेकिन इस बात का हर गिज़ यह मतलब नही है कि हम अपने आमाल में मजबूर है
,बल्कि इसके बर अक्स हम अपने इरादोँ व फ़ैसलों में आज़ाद हैं
“इन्ना हदैनाहु अस्सबीला इम्मा शाकिरन व इम्मा कफ़ूरन
” [19]हम ने (इँसान)की हिदायत कर दी है (उस को रास्ता दिखा दिया है)अब चाहे वह शुक्रिया अदा करे (यानी उसको क़बूल करे)या कुफ़्राने नेअमत करे (यीनू उसको क़बूल न करे)।
“व अन लैसा लिल इँसानि इल्ला मा सआ
” [20]यानी इँसान के लिए कुछ नही है मगर वह जिसके लिए उसने कोशिश की है। क़ुरआन की यह आयत सरीहन इस बात की तरफ़ इशारा कर रही है कि इँसान अपने इरादे में आज़ाद है
,लेकिन चूँकि अल्लाह ने इरादह की आज़ादी और हर काम को अँजाम देने की क़ुदरत हम को अता की है
,हमारे काम उसकी तरफ़ इसनाद पैदा करते हैं इसके बग़ैर कि अपने कामों के बारे में हमारी ज़िम्मेदारी कम हो- इस पर दिक़्क़त करनी चाहिए। हाँ उसने इरादह किया है कि हम अपने आमाल को आज़ादी के साथ अँजाम दें ताकि वह इस तरीक़े से वह हमारी आज़माइश करे और राहे तकामुल में आगे ले जाये
,क्योँ कि इँसानों का तकामुल तन्हा आज़ादीये इरादह और इख़्तियार के साथ अल्लाह की इताअत करने पर मुन्हसिर है
,क्योँ कि आमाले जबरी व बेइख़्तियारी न किसी के नेक होने की दलील है और न बद होने की।
असूलन अगर हम अपने आमाल में मजबूर होते तो आसमानी किताबों का नज़ूल
,अंबिया की बेसत
,दीनी तकालीफ़ व तालीमो तरबीयत और इसी तरह से अल्लाह की तरफ़ से मिलनी वाली सज़ा या जज़ा ख़ाली अज़ मफ़हूम रह जाती।
यह वह चीज़ हैं जिसको हमने मकतबे आइम्मा-ए-अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम से सीखा है उन्होँने हम से फ़रमाया है कि
“न जबरे मुतलक़ सही है न तफ़वाज़े मुतलक़ बल्कि इन दोनों के दरमियान एक चीज़ है
,ला जबरा व ला तफ़वीज़ा व लाकिन अमरा बैना अमरैन
”[21]
तौहीद दर इबादत
यानी इबादत सिर्फ़ अल्लाह से मख़सूस है और उसकी ज़ाते पाक के अलावा किसी माबूद का वुजूद नही है। तौहीद की यह क़िस्म सबसे अहम क़िस्म है और इस की अहमियत इस बात से आशकार हो जाती है कि अल्लाह की तरफ़ से आने वाले तमाम अंबिया ने इस पर ही ज़्यादा ज़ोर दिया है
“व मा उमिरू इल्ला लियअबुदू अल्लाहा मुख़लिसीना लहु अद्दीना हुनफ़आ..... व ज़ालिका दीनु अलक़य्यिमति
”[22]यानी पैग़म्बरों के इसके अलावा कोई हुक्म नही दिया गया कि तन्हा अल्लाह की इबादत करें
,और अपने दीन को उसके लिए खालिस बनाऐं और तौहीद में किसी को शरीक क़रार देने से दूर रहें .....और यही अल्लाह का मोहकम आईन है।
अख़लाक़ व इरफ़ान के तकामुल के मराहिल को तय करने से तौहीद और अमीक़तर हो जाती है और इँसान इस मँज़िल पर पहुँच जाता है कि फ़क़त अल्लाह से लौ लगाये रखता है
,हर जगह उसको चाहता है उसके अलावा किसी ग़ैर के बारे में नही सोचता और कोई चीज़ उसको अल्लाह से हटा कर अपनी तरफ़ मशग़ूल नही करती। कुल्ला मा शग़लका अनि अल्लाहि फ़हुवा सनमुका यानी जो चीज़ तुझ को अल्लाह से दूर कर अपने में उलझा ले वही तेरा बुत है।
हमारा अक़ीदह है कि तौहीद फ़क़त इन चार क़िस्मों पर ही मुन्हसिर नही है
,बल्कि-
तौहीद दर मालकियत यानी हर चीज़ अल्लाह की मिल्कियत है।
“लिल्लाहि मा फ़ी अस्समावाति व मा फ़ी अलअर्ज़ि
”[23]
तौहीद दर हाकमियत यानी क़ानून फ़क़त अल्लाह का क़ानून है।
“व मन लम यहकुम बिमा अनज़ला अल्लाहु फ़उलाइका हुमुल काफ़ीरूना
”[24]यानी जो अल्लाह के नाज़िल किये हुए (क़ानून के मुताबिक़) फ़ैसला नही करते काफ़िर हैं।
7)हमारा अक़ीदह है कि अस्ले तौहीदे अफ़आली इस हक़ीक़त की ताकीद करती है कि अल्लाह के पैग़म्बरों ने जो मोजज़ात दिखाए हैं वह अल्लाह के हुक्म से थे
,क्योँ कि क़ुरआने करीम हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के बारे में फ़रमाता है कि
“व तुबरिउ अलअकमहा व अलअबरसा बिइज़नि व इज़ तुख़रिजु अलमौता बिइज़नि
”[25]यानी तुम ने मादर ज़ाद अँधों और ला इलाज कोढ़ियों को मेरे हुक्म से सेहत दी!और मुर्दों को मेरे हुक्म से ज़िन्दा किया।
और जनाबे सुलेमान अलैहिस्सलाम के एक वज़ीर के बारे में फ़रमाया कि
“क़ाला अल्लज़ी इन्दहु इल्मुन मिन अलकिताबि अना आतिका बिहि क़बला अन यरतद्दा इलैका तरफ़ुका फ़लम्मा रआहु मुस्तक़िर्रन इन्दहु क़ाला हाज़ा मिन फ़ज़लि रब्बि
”
यानी जिस के पास (आसमानी )किताब का थोड़ा सा इल्म था उसने कहा कि इस से पहले कि आप की पलक झपके मैं उसे (तख़्ते बिलक़ीस)आप के पास ले आउँगा
,जब हज़रत सुलेमान ने उसको अपने पास ख़ड़ा पाया तो कहा यह मेरे परवरदिगार के फ़ज़्ल से है।
इस बिना पर जनाबे ईसा की तरफ़ अल्लाह के हुक्म से लाइलाज बीमारों को शिफ़ा (सेहत) देने और मुर्दों को ज़िन्दा करने की निसबत देना
,जिसको क़ुरआने करीम ने सराहत के साथ बयान किया है ऐने तौहीद है।
8)फ़रिशतगाने ख़ुदा
फ़रिश्तों के वुजूद पर हमारा अक़ीदह है कि और हम मानते हैं कि उन में से हर एक की एक ख़ास ज़िम्मेदारी है-
एक गिरोह पैगम्बरों पर वही ले जाने पर मामूर हैं।[
26]
एक गिरोह इँसानों के आमाल को हिफ़्ज़ करने पर[
27]
एक गिरोह रूहों को क़ब्ज़ करने पर[
28]
एक गिरोह इस्तेक़ामत के लिए मोमिनो की मदद करने पर[
29]
एक गिरोह जँग मे मोमिनों की मदद करने पर[
30]
एक गिरोह बाग़ी कौमों को सज़ा देने पर[
31]
और उनकी एक सबसे अहम ज़िम्मेदारी इस जहान के निज़ाम में है।
क्योँ कि यह सब ज़िम्मेदारियाँ अल्लाह के हुक्म और उसकी ताक़त से है लिहाज़ अस्ले तौहीदे अफ़आली व तौहीदे रबूबियत की मुतनाफ़ी नही हैं बल्कि उस पर ताकीद है।
ज़िमनन यहाँ से मस्ला-ए-शफ़ाअते पैग़म्बरान
,मासूमीन व फ़रिश्तेगान भी रौशन हो जाता है क्योँ कि यह अल्लाह के हुक्म से है लिहाज़ा ऐने तौहीद है।
“मा मिन शफ़ीइन इल्ला मिन बअदि इज़निहि
”[32]यानी कोई शफ़ाअत करने वाला नही है मगर अल्लाह के हुक्म से।
मस्ला ए शफ़ाअत और तवस्सुल के बारे में और ज़्यादा शरह (व्याख्या) नबूवते अंबिया की बहस में देँ गे।
9)इबादत सिर्फ़ अल्लाह से मख़सूस है।
हमारा अक़ीदह है कि इबादत बस अल्लाह की ज़ाते पाक के लिए है। (जिस तरह से इस बारे में तौहीदे अद्ल की बहस में इशारा किया गया है)इस बिना पर जो भी उसके अलावा किसी दूसरे की इबादत करता है वह मुशरिक है
,तमाम अंबिया की तबलीग़ भी इसी नुक्ते पर मरकूज़ थी
“उअबुदू अल्लाहा मा लकुम मिन इलाहिन ग़ैरुहु
”
[33]यानी अल्लाह की इबादत करो उसके अलावा तुम्हारा और कोई माबूद नही है। यह बात क़ुरआने करीम में पैग़म्बरों से मुताद्दिद मर्तबा नक़्ल हुई है। मज़ेदार बात यह है कि हम तमाम मुसलमान हमेशा अपनी नमाज़ों में सूरए हम्द की तिलावत करते हुए इस इस्लामी नारे को दोहराते रहते हैं
“इय्याका नअबुदु व इय्याका नस्तईनु
”यानी हम सिर्फ़ तेरी ही इबादत करते हैं और तुझ से ही मदद चाहते हैं।
यह बात ज़ाहिर है कि अल्लाह के इज़्न से पैग़म्बरों व फ़रिश्तों की शफ़ाअत का अक़ीदह जो कि क़ुरआने करीम की आयात में बयान हुआ है इबादत के मअना मे है।
पैग़म्बरों से इस तरह का तवस्सुल कि जिस में यह चाहा जाये कि परवर दिगार की बारगाह में तवस्सुल करने वाले की मुश्किल का हल तलब करें
,न तो इबादत शुमार होता है और न ही तौहीदे अफ़आली या तौहीदे इबादती के मुतनाफ़ी है। इस मस्ले की शरह नबूवत की बहस में बयान की जाएगी।
10)ज़ाते ख़ुदा की हक़ीक़त सबसे पौशीदा है
हमारा अक़ीदह है कि इसके बावुजूद कि यह दुनिया अल्लाह के वुजूद के आसार से भरी हुई है फ़िर भी उसकी ज़ात की हक़ीक़त किसी पर रौशन नही है और न ही कोई उसकी ज़ात की हक़ीक़त को समझ सकता है
,क्योँ कि उसकी ज़ात हर लिहाज़ से बेनिहायत और हमारी ज़ात हर लिहाज़ से महदूद है लिहाज़ा हम उस की ज़ात का इहाता नही कर सकते
“
अला इन्नहु बिकुल्लि शैइन मुहीतु
”[34]यानी जान लो कि उस का हर चीज़ पर इहाता है। या यह आयत कि
“व अल्लाहु मिन वराइहिम मुहीतु
”[35]यानी अल्लाह उन सब पर इहाता रखता है।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की एक मशहूर व माअरूफ़ हदीस में मिलता है कि
“मा अबदनाका हक़्क़ा इबादतिक व मा अरफ़नाका हक़्क़ा मअरिफ़तिक
”
[36]यानी न हम ने हक़्क़े इबादत अदा किया और न हक़्क़े माअरेफ़त लेकिन इसका मतलब यह नही है जिस तरह हम उसकी ज़ाते पाक के इल्मे तफ़्सीली से महरूम है इसी तरह इजमाली इल्म व माअरेफ़ते से भी महरूम हैं और बाबे मअरेफ़तु अल्लाह में सिर्फ़ उन अलफ़ाज़ पर क़िनाअत करते हैं जिनका हमारे लिए कोई मफ़हूम नही है। यह मारिफ़तु अल्लाह का वह बाब है जो हमारे नज़दीक क़ाबिले क़बूल नही है और न ही हम इसके मोतक़िद हैं। क्योँ कि क़ुरआन और दूसरी आसमानी किताबे अल्लाह की माअरेफ़त के लिए ही तो नाज़िल हुई है।
इस मोज़ू के लिए बहुत सी मिसाले बयान की जा सकती हैं जैसे हम रूह की हक़ीक़त से वाक़िफ़ नही हैं लेकिन रूह के वुजूद के बारे में हमें इजमाली इल्म है और हम उसके आसार का मुशाहेदा करते हैं।
इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि
“कुल्ला मा मय्यज़तमुहु बिअवहामिकुम फ़ी अदक़्क़ि मुआनीहि मख़लूक़ुन मसनूउन मिस्लुकुम मरदूदुन इलैकुम
”
[37]यानी तुम अपनी फ़िक्र व वहम में जिस चीज़ को भी उसके दक़ीक़तरीन मअना में तसव्वुर करोगे वह मख़लूक़ और तुम्हारे पैदा की हुई चीज़ है
,जो तुम्हारी ही मिस्ल है और वह तुम्हारी ही तरफ़ पलटा दी जायेगी।
अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने मअरिफ़तु अल्लाह की बारीक व दक़ीक़ राह को बहुत सादा व ज़ेबा तबीर के ज़रिये बयान फ़रमाया है
“लम युतलिइ अल्लाहु सुबहानहु अल उक़ूला अला तहदीदे सिफ़तिहि व लम यहजुबहा अमवाज़ा मअरिफ़तिहि
”[38]यानी अल्लाह ने अक़्लों को अपनी ज़ात की हक़ीक़त से आगाह नही किया है लेकिन इसके बावुजूद जरूरी माअरिफ़त से महरूम भी नही किया है।
11)न तर्क न तशबीह
हमारा अक़ीदह यह है कि जिस तरह से अल्लाह की पहचान और उसके सिफ़ात की मारेफ़त को तरक करना सही नही है उसी तरह उसकी ज़ात को दूसरी चीज़ों से तशबीह देना ग़लत और मुजिबे शिर्क है। यानी जिस तरह उसकी ज़ात को दूसरी मख़लूक़ से मुशाबेह नही माना जा सकता इसी तरह यह भी नही कहा जा सकता है कि हमारे पास उसके पहचान ने का कोई ज़रिया नही है और उसकी ज़ात असलन काबिले मारेफ़त नही है। हमें इस बात पर ग़ौर करना चाहिए क्योँ कि एक राहे इफ़रात है दूसरी तफरीत।
दूसरा हिस्सा
नबूवत
12)नबियों की बेसत का फलसफ़ा
हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह ने नोए बशर (इँसानों)की हिदायत के लिए और इँसानों को कमाले मतलूब व अबदी सआदत तक पहुँचाने के लिए पैग़म्बरों को भेजा है। क्योँ कि अगर ऐसा न करता तो इँसान को पैदा करने का मक़सद फ़ोत हो जाता
,इँसान गुमराही के दरिया मे ग़ोता ज़न रहता और इस तरह नक़्ज़े ग़रज़ लाज़िम आती।
“रसूलन मुबश्शेरीना व मुँज़िरीना लिअल्ला यकूना लिन्नासि अला अल्लाहि हुज्जतन बअदा रसुलि व काना अल्लाहु अज़ीज़न हकीमन
”[39]यानी अल्लाह ने खुश ख़बरी देने और डराने वाले पैग़म्बरों को भेज़ा ताकि इन पैग़म्बरो को भेज ने के बाद लोगो पर अल्लाह की हुज्जत बाकी न रहे (यानी वह लोगों को सआदत का रास्ता बतायें और इस तरह हुज्जत तमाम हो जाये)और अल्लाह अज़ीज़ व हकीम है।
हमारा अक़ीदह है कि तमाम पैग़म्बरो में से पाँच पैग़म्बर
“उलुल अज़्म
”
(यानी साहिबाने शरीअत
,किताब व आईने जदीद)थे। जिन को नाम इस तरह हैं
हज़रत नूह अलैहिस्सलाम
हज़रत इभ्राहीम अलैहिस्सलाम
हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम
हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम और
हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि अजमईन।
“
व इअज़ अख़ज़ना मिन अन्नबिय्यीना मीसाक़ाहुम व मिनका वमिन नूहि व इब्राहीमा व मूसा वईसा इब्नि मरयमा व अख़ज़ना मिन हुम मीसाक़न ग़लीज़न
”[40]यानी उस वक़्त को याद करो जब हमने पैग़म्बरों से मीसाक़ (अहदो पैमान) लिया (जैसे) आप से
,नूह से
,इब्राहीम से
,मूसा से और ईसा ईब्ने मरयम से और हम ने उन सब से पक्का अहद लिया (कि वह रिसालत के तमाम काम में और आसमानी किताब को आम करने में कोशिश करें)
“
फ़सबिर कमा सबरा उलुल अज़्मि मिन अर्रसुलि
” [41]यानी इस तरह सब्र करो जिस तरह उलुल अज़म पैग़म्बरों ने सब्र किया।
हमारा अक़ीदह है कि हज़रत मुहम्मद (स.)अल्लाह के आख़िरी रसूल हैं और उनकी शरिअत क़ियामत तक दुनिया के तमाम इँसानों के लिए है। यानी इस्लामी तालीमात
,अहकाम मआरिफ़ इतने जामे हैं कि क़ियामत तक इँसान की तमाम माद्दी व मअनवी ज़रूरतों को पूरा करते रहेंगे। लिहाज़ा अब जो भी नबूवत का दावा करे व बातिल व बे बुनियाद है।
“
व मा मुहम्मदुन अबा अहदिन मिन रिजालिकुम व लाकिन रसूलु अल्लाहि व ख़ातमि अन्नबिय्यीना व काना अल्लाहि बिकुल्लि शैइन अलीमन
”[42]यानी मुहम्मद(स.) तुम में से किसी मर्द के बाप नही है लेकिन वह अल्लाह के रसूल और सिलसिलए नबूवत को ख़त्म करने वाले हैं और अल्लाह हर चीज़ का जान ने वाला है।(यानी जो ज़रूरी था वह उन के इख़्तियार में दे दिया है)
13)आसमानी अदयान की पैरवी करने वालों के साथ ज़िन्दगी बसर करना।
वैसे तो इस ज़माने में फ़क़त इस्लाम ही अल्लाह का आईन हैं
,लेकिन हम इस बात के मोतक़िद हैं कि आसमानी अदयान की पैरवी करने वाले अफ़राद के साथ मेल जोल के साथ रहा जाये चाहे वह किसी इस्लामी मुल्क में रहते हों या ग़ैरे इस्लामी मुल्क में
,लेकिन अगर उन में से कोई इस्लाम या मुलसलमानों के मुक़ाबिले में आ जाये तो
“ला यनहा कुमु अल्लाहु अनि अल्लज़ीना लम युक़ातिलू कुम फ़ी अद्दीनि व लम युख़रिजु कुम मिन दियारि कुम अन तबर्रु हुम व तुक़सितू इलैहिम इन्ना अल्लाहा युहिब्बुल मुक़सितीना
”[43]यानी अल्लाह ने तुम को उन के साथ नेकी और अदालत की रिआयत करने से मना नही किया है
,जो दीन की वजह से तुम से न लड़ें और तुम को तुम्हारे वतन व घर से बाहर न निकालें
,क्योँ कि अल्लाह अदालत की रिआयत करने वालों को दोस्त रखता है।
हमारा अक़ीदह है कि इस्लाम की हक़ीक़त व तालीमात को मनतक़ी बहसों के ज़रिये तमाम दुनिया के लोगों के सामने बयान किया जा सकता है। और हमारा अक़ीदह है कि इस्लाम में इतनी ज़्यादा जज़्ज़ाबियत पाई जाती हैं कि अगर इस्लाम को सही तरह से लोगों के सामने बयान किया जाये तो इँसानों की एक बड़ी तादाद को अपनी तरफ़ मुतवज्जेह कर सकता है
,खास तौर पर इस ज़माने में जबकि बहुत से लोग इस्लाम के पैग़ाम को सुन ने के लिए आमादा है।
इसी बिना पर हमारा अक़ीदह यह है कि इस्लाम को लोगों पर ज़बर दस्ती न थोपा जाये
“ला इकरह फ़ी अद्दीन क़द तबय्यना अर्रुश्दु मिन अलग़ई।
”
यानी दीन को क़बूल करने में कोई जबर दस्ती नही है क्योँ कि अच्छा और बुरा रास्ता आशकार हो चुका है।
हमारा अक़ीदह है कि मुस्लमानों का इस्लाम के क़वानीन पर अमल करना इस्लाम की पहचान का एक ज़रिया बन सकता है लिहाज़ा ज़ोर ज़बरदस्ती की कोई ज़रूरत ही नही है।
14-अंबिया का अपनी पूरी ज़िन्दगी में मासूम होना
हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह के तमाम पैग़म्बर मासूम हैं यानी अपनी पूरी ज़िन्दगी में चाहे वह बेसत से पहले की ज़िन्दगी हो या बाद की गुनाह
,ख़ता व ग़लती से अल्लाह की तईद के ज़रिये महफ़ूज़ रहते हैं। क्योँ कि अगर वह किसी गुनाह या ग़लती को अँजाम दे गें तो उन पर से लोगों का एतेमाद ख़त्म हो जायेगा और इस हालत में न लोग उनको अपने और अल्लाह के दरमियान एक मुतमइन वसीले के तौर पर क़बूल नही कर सकते हैं और न ही उन को अपनी ज़िन्दगी के तमाम आमाल में पेशवा क़रार दे सकते हैं।
इसी बिना पर हमारा अक़ीदह यह है कि क़ुरआने करीम कि जिन आयात में ज़ाहिरी तौर पर नबियों की तरफ़ गुनाह की निस्बत दी गई है वह
“तरके औला
”
के क़बील से है। (तरके औला यानी दो अच्छे कामों में से एक ऐसे काम को चुन ना जिस में कम अच्छाई पाई जाती हो जबकि बेहतर यह था कि उस काम को चुना जाता जिस में ज़्यादा अच्छाई पाई जाती है।)या एक दूसरी ताबीर के तहत
“हसनातु अलअबरारि सय्यिआतु अलमुक़र्राबीन
”
[44]कभी कभी नेक लोगों के अच्छे काम भी मुक़र्रब लोगों के गुनाह शुमार होते हैं। क्योँ के हर इँसान से उस के मक़ाम के मुताबिक़ अमल की तवक़्क़ो की जाती है।
15-अँबिया अल्लाह के फ़रमाँ बरदार बन्दे हैं।
हमारा अक़ीदह है कि पैग़म्बरों और रसूलों का का सब से बड़ा इफ़्तेख़ार यह था कि वह अल्लाह के मुती व फ़रमाँ बरदार बन्दे रहे। इसी वजह से हम हर रोज़ अपनी नमाज़ों में पैग़म्बरे इसलाम के बारे में इस जुम्ले की तकरार करते है
“व अशहदु अन्ना मुहम्मदन अब्दुहु व रसूलुहु।
”यानी मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद (स.)अल्लाह के रसूल और उसके बन्दे हैं।
हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह के पैग़म्बरों में से न किसी ने भी उलूहिय्यत (अपने ख़ुदा होने)का दावा किया और न ही लोगों को अपनी इबादत कर ने के लिए कहा।
“मा काना लिबशरिन अन युतियहु अल्लाहु अलकिताबा व अलहुक्मा व अन्नबूव्वता सुम्मा यक़ूला लिन्नासि कूनू इबादन ली मिन दूनि अल्लाह
”।[
45]यानी यह किसी इँसान को ज़ेबा नही देता कि अल्लाह उसको आसमानी किताब
,हिकमत और नबूवत अता करे और वह लोगों से कहे कि अल्लाह को छोड़ कर मेरी इबादत करो।
यहाँ तक कि हज़रत ईसा (अ.)ने भी लोगों को अपनी इबादत के लिए नही कहा वह हमेशा अपने आप को अल्लाह का बन्दा और उस का रसूल कहते रहे।
“लन यस्तनकिफ़ा अलमसीहु अन यकूना अब्दन लिल्लाहि व ला अलमलाइकतु अलमुक़र्रबूना
”
[46]यानी न हज़रत ईसा (अ.)ने अल्लाह के बन्दे होने से इँकार किया और न ही उस के मुक़र्रब फ़रिश्ते उसके बन्दे होने से इँकार कर ते हैं।
ईसाईयों की आज की तारीख़ ख़ुद इस बात की गवाही दे रही है
“तसलीस
”
का मस्ला ( तीन ख़ुदाओं का अक़ीदह)पहली सदी ईसवी में नही पाया जाता था यह फ़िक्र बाद में पैदा हुई।
16-अँबिया के मोजज़ात व इल्मे ग़ैब
पैग़म्बरो का अल्लाह का बन्दा होना इस बात की नफ़ी नही करता कि वह अल्लाह के हुक्म से हाल
,ग़ुज़िश्ता और आइन्दा के पौशीदा अमूर से वाक़िफ़ न हो।
“आलिमु अलग़ैबि फ़ला युज़हिरु अला ग़ैबिहि अहदन इल्ला मन इरतज़ा मिन रसूलिन।
”
[47]यानी अल्लाह ग़ैब का जान ने वाला है और किसी को भी अपने ग़ैब का इल्म अता नही करता मगर उन रसूलों को जिन को उस ने चुन लिया है।
हम जानते हैं कि हज़रत ईसा (अ.)का एक मोजज़ा यह था कि वह लोगो को ग़ैब की बातों से आगाह कर ते थे।
“व उनब्बिउ कुम बिमा ताकुलूना व मा तद्दख़िरूना फ़ी बुयूति कुम।
”[48]मैं तुम को उन चीज़ों के बारे में बताता हूँ जो तुम खाते हो या अपने घरो में जमा करते हो।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.)ने भी तालीमे इलाही के ज़रिये बहुत सी पौशीदा बातों को बयान किया हैं
“ज़ालिका मिन अँबाइ अलग़ैबि नुहीहि इलैका
”[49]यानी यह ग़ैब की बाते हैं जिन की हम तुम्हारी तरफ़ वही करते हैं।
इस बिना पर अल्लाह के पैग़म्बरों का वही के ज़रिये और अल्लाह के इज़्न से ग़ैब की ख़बरे देना माने नही है। और यह जो कुरआने करीम की कुछ आयतों में पैग़म्बरे इस्लाम के इल्मे ग़ैब की नफ़ी हुई है जैसे
“व ला आलिमु अलग़ैबा व ला अक़ूलु लकुम इन्नी मलक
”
[50]यानी मुझे ग़ैब का इल्म नही और न ही मैं तुम से यह कहता हूँ कि मैं फ़रिश्ता हूँ। यहाँ पर इस इल्म से मुराद इल्मे ज़ाती और इल्मे इस्तक़लाली है न कि वह इल्म जो अल्लाह की तालीम के ज़रिये हासिल होता है। जैसा कि हम जानते हैं कि कुरआन की आयतें एक दूसरी की तफ़्सीर करती हैं।
हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह के नबियों ने तमाम मोजज़ात व मा फ़ौक़े बशर काम अल्लाह के हुक्म से अँजाम दिये हैं और पैग़म्बरो का अल्लाह के हुक्म से ऐसे कामों को अँजाम देना का अक़ीदह रखना शिर्क नही है। जैसा कि कुरआने करीम में भी ज़िक्र है कि हज़रत ईसा (अ.)ने अल्लाह के हुक्म से मुर्दों को ज़िन्दा किया और ला इलाज बीमारों को अल्लाह के हुक्म से शिफ़ा अता की
“व उबरिउ अलअकमहा व अलअबरसा व उहयि अलमौता बिइज़निल्लाह
”[51]
17-पैग़म्बरों के ज़रिये शफ़ाअत का मस्ला
हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह के तमाम पैग़म्बर और उन मे सब से अफ़ज़ल व आला पैग़म्बरे इस्लाम (स.)को शफ़ाअत का हक़ हासिल है और वह गुनाह गैरों के एक ख़ास गिरोह की शफ़ाअक करेंगे। लेकिन यह सब अल्लाह की इजाज़त और इज़्न से है।
“मा मिन शफ़िइन इल्ला मिन बअदि इज़्निहि
”
[52]यानी कोई शफ़ाअत करने वाला नही है मगर अल्लाह की इजाज़त के बाद।
“
मन ज़ा अल्लज़ी यशफ़उ इन्दहु इल्ला बिइज़्निहि
”[53]कौन है जो उसके इज़्न के बग़ैर शफ़अत करे।
कुरआने करीम की वह आयतें जिन में मुतलक़ा तौर पर शफ़ाअत की नफ़ी के इशारे मिलते हैं उन में शफ़ाअत से मराद शफ़ाअते इस्तक़लाली और शफ़अत बदूने इजाज़त मुराद है। या फिर उन लोगों के बारे में हैं जो शफ़अत की क़ाबलियत नही रखते जैसे
“मिन क़ब्लि अन यातिया यौमुन बैउन फ़ीहि व ला ख़ुल्लतुन वला शफ़ाअतुन
” [54]यानी अल्लाह की राह में ख़र्च करो इस से पहले कि वह दिन आ जाये जिस दिन न ख़रीद व फ़रोश होगी (ताकि कोई अपने लिए सआदत व निजात ख़रीद सके)न दोस्ती और न शफ़ाअत। बार बार कहा जा चुका है कि कुरआने करीम की आयतें एक दूसरे की तफ़्सीर कर ती हैं।
हमारा अक़ीदह है कि मस्ला-ए- शफ़ाअत लोगों को तरबीयत देने और उन को गुनाह के रास्ते से हटा कर सही राह पर लाने
,उन के अन्दर तक़वे व परहेज़गारी का शौक़ पैदा कर ने और उन के दिलों में उम्मीद पैदा करने का एक अहम वसीला है। क्योँ कि मस्ला-ए शफ़ाअत बे हिसाब किताब नही है शफ़ाअत फ़क़त उन लोगो के लिए है जो इस की लियाक़त रखते हैं। यानी शफ़ाअत उन लोगों के लिए है जिन्होने अपने गुनाहों की कसरत की बिना पर अपने राब्ते को शफ़ाअत करने वालों से कुल्ली तौर पर मुनक़तअ न किया हो।
इस बिना पर मस्ला-ए शफ़ाअत गुनाहगारों को क़दम क़दम पर तँबीह कर ता रहता है कि अपने आमाल को बिल कुल ख़राब न करो बल्कि नेक आमल के ज़रिये अपने अन्दर शफ़ाअत की लियाक़त पैदा करो।
18-मस्ला-ए-तवस्सुल
हमारा अक़ीदह है कि मस्ला- ए- तवस्सुल भी मस्ला-ए- शफ़ाअत की तरह है। मस्ला-ए
–तवस्सुल मानवी व माद्दी मुश्किल में घिरे इँसानों को यह हक़ देता है कि वह अल्लाह के वलीयों से तवस्सुल करें ताकि वह अल्लाह की इजाज़त से उन की मुश्किलों के हल को अल्लाह से तलब करें। यानी एक तरफ़ तो ख़ुद अल्लाह की बारगाह में दुआ करते हैं दूसरी तरफ़ अल्लाह के वलियों को वसीला क़रार दे।
“
व लव अन्ना हुम इज़ ज़लमू अनफ़ुसाहुम जाउका फ़स्तग़फ़रू अल्लाहा व अस्तग़फ़रा लहुम अर्रसूलु लवजदू अल्लाहा तव्वाबन रहीमन
”
[55]यानी अगर यह लोग उसी वक़्त तुम्हारे पास आ जाते जब इन्होंने अपने ऊपर ज़ुल्म किया था और अल्लाह से अपने गुनाहों की माफ़ी माँगते और रसूल भी उनके लिए तलबे मग़फ़ेरत करते तो अल्लाह को तौबा क़बूल करने वाला और रहम करने वाला पाते।
हम जनाबे यूसुफ़ के भाईयों की दास्तान में पढ़ते हैं कि उन्होंने अपने वालिद से तवस्सुल किया और कहा कि
“या अबाना इस्तग़फ़िर लना इन्ना कुन्ना ख़ातेईना
”यानी ऐ बाबा हमारे लिए अल्लाह से बख़शिश की दुआ करो क्योँ कि हम ख़ताकार थे। उन के बूढ़े वालिद हबज़रत याक़ूब (अ.)ने जो कि अल्लाह के पैग़म्बरे थे उनकी इस दरख़्वास्त को क़बूल किया और उनकी मदद का वादा करते हुए कहा कि
“सौफ़ा अस्तग़फ़िरु लकुम रब्बि
”
[56]मैं जल्दी ही तुम्हारे लिए अपने रब से मग़फ़ेरत की दुआ करूँगा। यह इस बात पर दलील है कि गुज़िश्ता उम्मतों में भी तवस्सुल का वुजूद था और आज भी है।
लेकिन इँसान को इस हद से आगे नही बढ़ना चाहिए औलिया-ए- ख़ुदा को इस अम्र में मुस्तक़िल और अल्लाह की इजाज़त से बेनियाज़ नही समझना चाहिए क्योँ कि यह कुफ़्रो शिर्क का सबब बनता है।
और न तवस्सुल को औलिया- ए- ख़ुदा की इबादत के तौर पर करना चाहिए क्योँ कि यह भी कुफ़्र और शिर्क है। क्योँ कि औलिया- ए- ख़ुदा अल्लाह की इजाज़त के बग़ैर नफ़े नुक़्सान के मालिक नही है।
“क़ुल ला अमलिकु नफ़्सी नफ़अन व ला ज़र्रन इल्ला मा शा अल्लाह
”[57]यानी इन से कह दो कि मैं अपनी ज़ात के लिए भी नफ़े नुख़्सान का मालिक नही हूँ मगर जो अल्लाह चाहे। इस्लाम के तमाम फ़िर्क़ों की अवाम के दरमियान मस्ला-ए- तवस्सुल के सिलसिले में इफ़रात व तफ़रीत पाई जाती है उन सब को हिदायत करनी चाहिए।
19-तमाम अँबिया की दावत के उसूल एक हैं।
हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह के तमाम अँबिया-ए- ईलाही का मक़सद एक था और वह था इँसान की सआदत जिसको हासिल करने के लिए अल्लाह और कियामत पर ईमान
,सही दीनी तालीम व तरबीयत और समाज में अख़लाक़ी उसूल को मज़बूती अता करना ज़रूरी था। इसी वजह से हमारे नज़डदीक तमाम अँबिया मोहतरम हैं और यह बात हम ने क़ुरआने करीम से सीखी है
“ला नुफ़र्रिक़ु बैना अहदिन मिन रुसुलिहि
”
[58]यानी हम अल्लाह के नबियों के दरमियान कोई फ़र्क़ नही कर ते।
ज़माने के गुज़रने के साथ साथ जहाँ इँसान में आला तालीम को हासिल करने की सलाहियत बढ़ती गई वहीँ अदयाने ईलाही तदरीजन कामिल तर और उनकी तालीमात अमीक़ तर होती गई यहाँ तक कि आख़िर में कामिलतरीन आईने ईलाही (इस्लाम)रू नुमा हुआ और इस के ज़हूर के बाद
“अल यौम अकमलतु लकुम दीना कुम व अतममतु अलैकुम नेअमती व रज़ीतु लकुम अल इस्लामा दीनन
”
यानी
“आज के दिन मैंने तुम्हारे दीन को कामिल कर दिया और तुम पर अपनी नेअमतों को पूरा किया और तुम्हारे लिए दीने इस्लाम को चुन लिया
”
का एलान कर दिया गया।
20-गुज़िश्ता अँबिया की ख़बरे
हमारा अक़ीदह है कि बहुत से अँबिया ने अपने बाद आने वाले नबियों के बारे में अपनी उम्मत को आगाह कर दिया था । इन में से हज़रत मूसा (अ.)और हज़रत ईसा (अ.)ने पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के बारे में बहुत सी रौशन निशानियाँ बयान कर दी थी जो आज भी उनकी बहुत सी किताबों में मौजूद है।
“अल्लज़ीना यत्तबिउना अर्रसूला अन्नबिया अलउम्मीया अल्लज़ी यजिदूनहु मकतूवन इन्दाहुम फ़ी अत्तवराति व अलइँजीलि .....उलाइका हुमुल मुफ़लिहून
”[59]यानी वह लोग जो अल्लाह के रसूल की पैरवी कर ते हैं उस रसूल की जिसने कहीँ दर्स नही पढ़ा (लेकिन आलिम व आगाह है)इस रसूल में तौरात व इँजील में बयान की गई निशानियों को पाते हैं....यह सब कामयाब हैं।
इसी वजह से तारीख़ में मिलता है कि पैग़म्बरे इस्लाम(स.)के ज़हूर से पहले यहूदियों का एक बहुत बड़ा गिरोह मदीने आ गया था और आप के ज़हूर का बे सब्री से मुन्तज़िर था। क्योँ कि उन्होंने अपनी किताबों में पढ़ा था कि वह इसी सर ज़मीन से ज़हूर करें गे। आप के ज़हूर के बाद उन में से कुछ लोग तो आप पर ईमान ले आये लेकिन जब कुछ लोगो ने अपने फ़ायदे को ख़तरे में महसूस किया तो आप की मुख़ालेफ़त में खड़े हो गये।
21-अँबिया और ज़िन्दगी के हर पहलू की इस्लाह
हमारा अक़ीदह है कि तमाम अदयाने ईलाही जो पैग़म्बरों पर नाज़िल हुए मखसूसन इस्लाम यह सिर्फ़ फ़रदी ज़िन्दगी या मानवी व अख़लाक़ी इस्लाह तक ही महदूद नही थे बल्कि इन का मक़सद इजतमई तौर पर इँसानी ज़िन्दगी के हर पहलू की इस्लाह कर के उन को कामयाबी अता करना था। यहाँ तक कि इंसान की रोज़ मर्रा की ज़िन्दगी में काम आने वाले बहुत से उलूम को भी लोगों ने अँबिया से ही सीखा है जिन में से कुछ के बारे में क़ुरआने करीम में भी इशारा मिलता है।
हमारा अक़ीदह है कि पैग़म्बराने ख़ुदा का सब से अहम हदफ़ इँसानी समाज मे अदालत को क़ाइम करना था।
“लक़द अरसलना रुसुलना बिलबय्यिनाति व अनज़लना मअहुम अलकिताबा व अलमीज़ाना लियक़ूमा अन्नासि बिलक़िस्ति।
”
[60]यानी हम ने अपने रसूलों को रौशन दलीलों के साथ भेजा और उन पर आसमानी किताब व मीज़ान (हक़ को बातिल से पहचानना और आदिलाना क़वानीन) नाज़िल किये ताकि लोगों के दरमियान अदालत क़ाइम करें।
22-क़ौमी व नस्ली बरतरी की नफ़ी
हमारा अक़ीदह है कि तमाम अँबिया-ए- इलाही मख़सूसन पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने किसी भी
“नस्ली
”
या
“क़ौमी
”
इम्तियाज़ को क़बूल नही किया। इन की नज़र में दुनिया के तमाम इँसान बराबर थे चाहे वह किसी भी ज़बान
,नस्ल या क़ौम से ताल्लुक़ रखते हों। क़ुरआन तमाम इंसानों को मुफ़ातब कर ते हुए कहता है कि
“या अय्युहा अन्नासु इन्ना ख़लक़ना कुम मिन ज़करिन व उनसा व जअलना कुम शुउबन व क़बाइला लितअरफ़ू इन्ना अकरमा कुम इन्दा अल्लाहि अतक़ा कुम
”यानी ऐ इँसानों हम ने तुम को एक मर्द और औरत से पैदा किया फिर हम ने तुम को क़बीलों में बाँट दिया ताकि तुम एक दूसरे को पहचानो (लेकिन यह बरतरी का पैमाना नही है) तुम में अल्लाह के नज़दीक वह मोहतरम है जो तक़वे में ज़्यादा है।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की एक बहुत मशहूर हदीस है जो आप ने हज के दौरान सर ज़मीने मिना पर ऊँट पर सवार हो कर लोगों की तरफ़ रुख़ कर के इरशाद फ़रमाई थी
“या अय्युहा अन्नासि अला इन्ना रब्बा कुम वाहिदिन व इन्ना अबा कुम वाहिदिन अला ला फ़ज़ला लिअर्बियिन अला अजमियिन
,व ला लिअजमियिन अला अर्बियिन
,व ला लिअसवदिन अला अहमरिन
,व ला लिअहमरिन अला असवदिन
,इल्ला बित्तक़वा
,अला हल बल्लग़तु
?क़ालू नअम ! क़ाला लियुबल्लिग़ अश्साहिदु अलग़ाइबा
”यानी ऐ लोगो जान लो कि तुम्हारा ख़ुदा एक है और तुम्हारे माँ बाप भी एक हैं
,ना अर्बों को अजमियों पर बरतरी हासिल है न अजमियों को अर्बों पर
,गोरों को कालों पर बरतरी है और न कालों को गोरों पर अगर किसी को किसी पर बरतरी है तो वह तक़वे के एतबार से है। फिर आप ने सवाल किया कि क्या मैं ने अल्लाह के हुक्म को पहुँचा दिया है
?सब ने कहा कि जी हाँ आप ने अल्लाह के हुक्म को पहुँचा दिया है। फिर आप ने फ़रमाया कि जो लोग यहाँ पर मौजूद है वह इस बात को उन लोगों तक भी पहुँचा दें जो यहाँ पर मौजूद नही है।
23-इस्लाम और इँसान की सरिश्त
हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह
,उसकी वहदानियत और अंबिया की तालीमात के उसूल पर ईमान का मफ़हूम अज़ लिहाज़े फ़ितरत इजमाली तौर पर हर इँसान के अन्दर पाया जाता हैं। बस पैग़म्बरों ने यह काम किया कि दिल की ज़मीन में मौजूद ईमान के इस बीज को वही के पानी से सीँचा और इस के चारों तरफ़ जो शिर्के व इँहेराफ़ की घास उग आई थी उस को उखाड़ कर बाहर फेंक दिया।
“
फ़ितरता अल्लाहि अल्लती फ़तर अन्नासा अलैहा ला तबदीला लिख़लक़ि अल्लाहि ज़ालिका अद्दीनु अलक़य्यिमु व लाकिन्ना अक्सरा अन्नासि ला यअलमूना।
”[61]यानी यह (अल्लाह का ख़ालिस आईन)वह सरिश्त है जिस पर अल्लाह ने तमाम इंसानों को पैदा किया है और अल्लाह की ख़िल्क़त में कोई तबदीली नही है। (और यह फ़ितरत हर इंसान में पाई जाती है)यह आईन मज़बूत है मगर अक्सर लोग इस बारे में नही जानते।
इसी वजह से इंसान हर ज़माने में दीन से वाबस्ता रहे हैं। दुनिया के बड़े तारीख दाँ हज़रात का अक़ीदह यह है कि दुनिया में ला दीनी बहुत कम रही है और यह कहीँ कहीँ पाई जाती थी। यहाँ तक कि वह क़ौमे जो कई कई साल तक दीन मुख़ालिफ तबलीग़ात का सामना करते हुए ज़ुल्म व जोर को बर्दाश्त करती रहीँ उन को जैसे ही आज़ादी मिली वह फ़ौरन दीन की तरफ़ पलट गईँ। लेकिन इस बात से इंकार नही किया जा सकता कि गुज़िश्ता ज़माने में बहुत सी क़ौमों की समाजी सतह का बहुत नीचा होना इस बात का सबब बना कि उनके दीनी अक़ाइद व आदाब व रसूम ख़ुराफ़ात से आलूदा हो गये और पैग़म्बराने ख़ुदा का सब से अहम काम इंसान के आईना-ए-फ़ितरत से ख़ुराफ़ात के इसी ज़ंग को साफ़ करना था।
तीसरा हिस्सा
क़ुरआन और दिगर आसमानी किताबें
24-आसमानी किताबों के नज़ूल का फलसफा
हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह ने आलमे इंसानियत की हिदायत के लिए बहुत सी आसमानी किताबें भेजी जैसे सुहुफ़े इब्राहीम
,सुहुफ़े नूह
,तौरात
,इँजील और इन में सबसे जामे क़ुरआने करीम है। अगर यह किताबे नाज़िल न होती तो इंसान अल्लाह की मारफ़त और इबादत में बहुत सी ग़लतियों का शिकार हो जाता और उसूले तक़वा
,अख़लाक़ व तरबीयत और समाजी क़ानून जैसी ज़रूरी चीज़ों से दूर ही रहता ।
यह आसमानी किताबें सरज़मीन दिल पर बाराने रहमत की तरह की बरसीं और दिल की ज़मीन में पड़े हुए अल्लाह की मारफ़त
,तक़वे
,अख़लाक़ और इल्म व हिकमत के बीज को नमू अता किया।
“
आमना अर्रसूलु बिमा उनज़िला इलैहि मिन रब्बिहि व अल मुमिनूना कुल्ला आमना बिल्लाहि व मलाइकतिहि व कुतुबिहि व रुसूलिहि
”
[62]यानी पैग़म्बर पर जो अल्लाह की तरफ़ से नाज़िल हुआ वह उस पर ईमान लाये और मोमेनीन भी अल्लाह
,उसके रसूल
,उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों पर ईमान लायें।
अफ़सोस है कि ज़माने के गुज़रने और जाहिल व नाअहल अफ़राद की दख़ालत की वजह से बहुत सी आसमानी किताबों में तहरीफ़ हुई और उन में बहुत सी ग़लत फ़िक्रें दाख़िल कर दी गई। लेकिन क़ुरआने करीम इस तहरीफ़ से महफ़ूज़ रहते हुए हर ज़माने में आफ़ताब की तरह चमकता हुआ दिलों को रौशन करता रहा है।
“
क़द जाआ कुम मिन अल्लाहि नूरुन व किताबुन मुबीन यहदी बिहि अल्लाहु मन इत्तबअ रिज़वानहु सुबुला अस्सलामि।
”
[63]यानी अल्लाह की तरफ़ से तुम्हारे पास नूर और रौशन किताब आ चुकी है अल्लाह इस की बरकत से उन लोगो को जो उसकी ख़ुशनूदी से पैरवी करते हैं सलामत(सआदत) रास्तों की हिदायत करता है।
25-क़ुरआन पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का सब से बड़ा मोजज़ा है।
हमारा अक़ादह है कि क़ुरआने करीम पैग़म्बरे इस्लाम (स.)का सब से बड़ा मोजज़ा है और यह फ़क़त फ़साहत व बलाग़त
,शीरीन बयान और मअनी के रसा होने के एतबार से ही नही बल्कि और मुख़्तलिफ़ जहतों से भी मोजज़ा है। और इन तमाम जिहात की शरह अक़ाइद व कलाम की किताबों में बयान कर दी गई है।
इसी वजह से हमारा अक़ीदह है कि दुनिया में कोई भी इसका जवाब नही ला सकता यहाँ तक कि लोग इसके एक सूरेह के मिस्ल कोई सूरह नही ला सकते। क़ुरआने करीम ने उन लोगों को जो इस के कलामे ख़ुदा होने के बारे में शक व तरद्दुद में थे कई मर्तबा इस के मुक़ाबले की दावत दी मगर वह इस के मुक़ाबले की हिम्मत पैदा न कर सके।
“क़ुल लइन इजतमअत अलइँसु व अलजिन्नु अला यातू बिमिस्लि हाज़ा अलक़ुरआनि ला यातूना बिमिस्लिहि व लव काना बअज़ु हुम लिबअज़िन ज़हीरन।
”[64]यानी कह दो कि अगर जिन्नात व इंसान मिल कर इस बात पर इत्त्फ़ाक़ करें कि क़ुरआन के मानिंद कोई किताब ले आयें तो भी इस की मिस्ल नही ला सकते चाहे वह आपस में इस काम में एक दूसरे की मदद ही क्योँ न करें।
“
व इन कुन्तुम फ़ी रैबिन मिन मा नज़्ज़लना अला अबदिना फ़ातू बिसूरतिन मिन मिस्लिहि व अदउ शुहदाअ कुम मिन दूनि अल्लाहि इन कुन्तुम सादिक़ीन
”[65]यानी जो हम ने अपने बन्दे (रसूल)पर नाज़िल किया है अगर तुम इस में शक करते हो तो कम से कम इस की मिस्ल एक सूरह ले आओ और इस काम पर अल्लाह के अलावा अपने गवाहों को बुला लो अगर तुम सच्चे हो।
हमारा अक़ीदह है कि जैसे जैसे ज़माना गुज़रता जा रहा है क़ुरआन के एजाज़ के नुकात पुराने होने के बजाये और ज़्यादा रौशन होते जा रहे हैं और इस की अज़मत तमाम दुनिया के लोगों पर ज़ाहिर व आशकार हो रही है।
इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने एक हदीस में फ़रमाया है कि
“इन्ना अल्लाहा तबारका व तआला लम यजअलहु लिज़मानिन दूना ज़मानिन व लिनासिन दूना नासिन फ़हुवा फ़ी कुल्लि ज़मानिन जदीदिन व इन्दा कुल्लि क़ौमिन ग़ुज़्ज़ इला यौमिल क़ियामति।
” [66]यानी अल्लाह ने क़ुरआने करीम को किसी ख़ास ज़माने या किसी ख़ास गिरोह से मख़सूस नही किया है इसी वजह से यह हर ज़माने में नया और क़ियामत तक हर क़ौम के लिए तरो ताज़ा रहेगा।
26-क़ुरआन में तहरीफ़ नही
हमारा अक़ीदह यह है कि आज जो क़ुरआन उम्मते मुस्लेमाँ के हाथों में है यह वही क़ुरआन है जो पैगम्बरे इस्लाम (स.)पर नाज़िल हुआ था। न इस में से कुछ कम हुआ है और न ही इस में कुछ बढ़ाया गया है।
पहले दिन से ही कातिबाने वही का एक बड़ा गिरोह आयतों के नाज़िल होने के बाद उन को लिखता था और मुसलमानों की ज़िम्मेदारी थी कि वह रात दिन इस को पढ़े और अपनी पँजगाना नमाज़ों में भी इस की तकरार करें । असहाब का एक बड़ा गिरोह आयाते क़ुरआन की आयतों को हिफ़्ज़ करता था
,हाफ़िज़ान व क़ारियाने क़ुरआन का इस्लामी समाज में हमेशा ही एक अहम मक़ाम रहा है और आज भी है। यह सब बातें इस बात का सबब बनी कि कुरआने करीम में कोई मामूली सी भी तहरीफ़ भी वाक़ेअ न हो सकी।
इस के अलावा अल्लाह ने रोज़े क़ियामत तक इस की हिफ़ाज़त की ज़मानत ली है लिहाज़ा अल्लाह की ज़मानत के बाद इस में तहरीफ़ नामुमकिन है।
“
इन्ना नहनु नज़्ज़लना अज़्ज़िकरा व इन्ना लहु लहाफ़िज़ूना।
”
[67]यानी हम ने ही क़ुरआन को नाज़िल किया है और हम ही इस की हिफ़ाज़त करते हैं।
तमाम उलमा-ए- इस्लाम चाहे वह सुन्नी हों या शिया इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि क़ुरआने करीम में कोई तहरीफ़ नही हुई है।दोनों तरफ़ के सिर्फ़ चन्द अफ़राद ही ऐसे हैं जिन्होंने क़ुरआने करीम में तहरीफ़ के वजूद को रिवायात के ज़रिये साबित कर ने की कोशिश की है। लेकिन दोनों गिरोह के जय्यद उलमा ने इस नज़रिये की तरदीद की है और तहरीफ़ से मुताल्लिक़ रिवायतों को जाली या फिर तहरीफ़े मअनवी से मुतल्लिक़ माना है। तहरीफ़े मअनवी यानी क़ुरआने करीम की आयतों की ग़लत तफ़्सीर।
वह कोताह फ़िक्र अफ़राद जो क़ुरआने करीम की तहरीफ़ के बारे में मुसिर हैं
,और शिया या सुन्नी गिरोह की तरफ़ तहरीफ़ की निस्बत देते हैं उनका नज़रिया दोनों मज़हबों के मशहूर व बुज़ुर्ग उलमा के नज़रियों के मुख़ालिफ़ है। यह लोग नादानी में क़ुरआने करीम पर वार करते हैं और ना रवाँ तअस्सुब की बिना पर इस अज़ीम आसमानी किताब के एतेबार को ही ज़ेरे सवाल ले आते हैं और अपने इस अमल के ज़रिये दुश्मन को तक़वियत पहुँचाते हैं।
क़ुरआने करीम की जम आवरी की तारीख़ को पढ़ ने से मालूम होता है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के ज़माने से ही मुस्लमानों ने क़ुरआने करीम की किताबत
,हिफ़्ज़
,तिलावत व हिफ़ाज़त के फ़ोक़ुल आद्दा इँतज़ामात किये थे। ख़ास तौर पर पहले दिन से ही कातिबाने वही का वुजूद हमारे लिए इस बात को रौशन कर देता है कि क़ुरआने करीम में तहरीफ़ ना मुमकिन है।
और यह भी कि इस मशहूर क़ुरआन के अलावा किसी दूसरे क़ुरआन का वुजूद नही पाया जाता। इसकी दलील बहुत रौशन है सब के लिए तहक़ीक़ का दरवाज़ा खुला हुआ है जिसका दिल चाहे तहक़ीक़ करे आज हमारे घरों में तमाम मसाजिद में और उमूमी किताब खानों में क़ुरआने करीम मौजूद है। यहाँ तक कि क़ुरआने करीम के कई सौ साल पहले लिख्खे गये ख़त्ती नुस्ख़े भी हमारे आजायब घरों मे मौजूद हैं जो इस बात की तस्दीक़ करते हैं कि यह वही क़ुरआन है जो आज तमाम इस्लामी मुमालिक में राइज हैं। आगर माज़ी में इन मसाइल पर तहक़ीक़ मुमकिन नही थी तो आज तो सब के लिए तहक़ीक़ का दरवाज़ा खुला हुआ है। एक मुख़्तसर सी तहक़ीक़ के बाद इस ना रवाँ निस्बत का बेबुनियाद होना ज़ाहिर हो जाये गा।
“
फ़बश्शिर इबादि * अल्लज़ीना यसतमिऊना अलक़ौलाफ़
यत्तबिऊना अहसनहु[
68]”यानी मेरे बन्दों को ख़ुशख़बरी दो
,उन बन्दो को जो बातों को सुन कर उन में नेक बातों की पैरवी करते हैं।
आज कल हमारे होज़ाते इल्मिया में उलूमे क़ुरआन एक वसी पैमाने पर पढ़ाया जा रहा है। और इन दुरूस में सब से अहम बहस अदमे तहरीफ़े क़ुरआने करीम है। [
69]
27-क़रआन व इँसान की माद्दी व मानवी ज़रूरतें।
वह तमाम चीज़ें जिन की इंसान को अपनी माद्दी व मानवी ज़िन्दगी में ज़रूरत है उन के उसूल कुरआने करीम में बयान कर दिये गये हैं। चाहे वह हुकूमत चलाने के क़वानीन हों या सियासी मसाइल
,दूसरे समाजों से राब्ते के मामलात हो या बा हम ज़िन्दगी बसर करने के उसूल
,जंग व सुलह के के मसाइल हों या क़ज़ावत व इक़्तेसाद के उसूल या इन के अलावा और कोई मामलात तमाम के क़वाइद कुल्लि को इस तरह बयान कर दिया गया है कि इन पर अमल पैरा होने से हमारी ज़िन्दगी की फ़ज़ा रौशन हो जाती है।
“व नज़्ज़ला अलैका अल किताबा तिबयानन लिकुल्लि शैइन व हुदन व रहमतन व बुशरा लिलमुस्लिमीना
”[70]यानी हमने इस किताब को आप पर नाज़िल किया जो तमाम चीज़ों को बयान करने वाली है और मुस्लमानों के लिए रहमत
,हिदायत और बशारत है।
इसी बिना पर हमारा अक़ीदह है कि
“इस्लाम
”“हुकूमत व सियासत से
”हर गिज़ जुदा नही है बल्कि मुस्लमानों को फ़रमान देता है कि ज़मामे हुकूमत को अपने हाथों में सँभालो और इस की मदद से इस्लाम की अरज़िशों को ज़िन्दा करे और इस्लामी समाज की इस तरह तरबियत हो कि आम लोग क़िस्त व अद्ल राह पर गामज़न हों यहाँ तक कि दोस्त व दुश्मन दोनों के बारे में अदालत से काम लें।
“या अय्युहा अल्लज़ीना आमनु कूनू क़व्वामीना बिलक़िस्ति शुहदाआ लिल्लाहि व लव अला अनफ़ुसिकुम अविल वालिदैनि व अल अक़राबीना।
”
[71]यानी ऐ ईमान लाने वालो अद्ल व इँसाफ़ के साथ क़ियाम करो और अल्लाह के लिए गवाही दो चाहे यह गवाही ख़ुद तुम्हारे या तुम्हारे वालदैन के या तुम्हारे अक़रबा के ही ख़िलाफ़ क्योँ न हो।
“व ला यजरि मन्ना कुम शनानु क़ौमिन अला अन ला तअदिलु एदिलु हुवा अक़रबु लित्तक़वा
”ख़बर दार किसी गिरोह की दुश्मनी तुम को इस बात पर आमादा न कर दे कि तुम इँसाफ़ को तर्क कर दो
,इंसाफ़ करो कि यही तक़वे से क़रीब तर है।
28-तिलावत
,तदब्बुर
,अमल
क़ुरआने करीम की तिलावत अफ़ज़ल तरीन इबादतों में से एक है और बहुत कम इबादते ऐसी हैं जो इसके पाये को पहुँचती हैं। क्यों कि यह इल्हाम बख़्श तिलावत क़ुरआने करीम में ग़ौर व फ़िक्र का सबब बनती है और ग़ौर व फ़िक्र नेक आमाल का सरचश्मा है।
क़ुरआने करीम पैग़म्बरे इस्लाम को मुख़डातब क़रार देते हुए फ़रमाता है कि
“क़ुम अललैला इल्ला क़लीला*निस्फ़हु अव उनक़ुस मिनहु क़लीला* अव ज़िद अलैहि व रत्तिल अल क़ुरआना तरतीला....
”[72]यानी रात को उठो मगर ज़रा कम
,आधी रात या इस से भी कुछ कम
,या कुछ ज़्यादा कर दो और क़ुरआन को ठहर ठहर कर ग़ौर के साथ पढ़ो।
और क़ुरआने करीम तमाम मुस्लमानों को ख़िताब करते हुए फ़रमाता है कि
“फ़इक़रउ मा तयस्सरा मिन अलक़ुरआनि
”
[73]यानी जिस क़द्र मुमकिन हो क़ुरआन पढ़ा करो।
लेकिन उसी तरह जिस तरह कहा गया
,क़ुरआन की तिलावत उस के मअना में ग़ौर व फ़िक्र का सबब बने और यह ग़ौर व फ़िक्र क़ुरआन के अहकामात पर अमल पैरा होने का सबब बने।
“अफ़ला यतदब्बरूना अलक़ुरआना अम अला क़ुलूबिन अक़फ़ालुहा
”[74]क्या यह लोग क़ुरआन में तदब्बुर नही करते या इन के दिलों पर ताले पड़े हुए हैं।
“
व लक़द यस्सरना अलक़ुरआना लिज़्ज़िकरि फ़हल मिन मद्दकिरिन[
75]”और हम ने क़ुरआन को नसीहत के लिए आसान कर दिया तो क्या कोई नसीहत हासिल करने वाला है।
“
व हाज़ा किताबुन अनज़लनाहु मुबारकुन फ़इत्तबिउहु
”
[76]यानी हम ने जो यह किताब नाज़िल की है बड़ी बरकत वाली है
,लिहाज़ा इस की पैरवी करो।
इस बिना पर जो लोग सिर्फ़ तिलावत व हिफ़्ज़ पर क़िनाअत करते हैं और क़ुरआन पर
“तदब्बुर
”
“अमल
”
नही करते अगरचे उन्होंने तीन रुकनों में से एक रुक्न को तो अंजाम दिया लेकिन दो अहम रुक्नों को छोड़ दिया जिस के सबब बहुत बड़ा नुक्सान बर्दाश्त करना पड़ा।
29-इनहेराफ़ी बहसे
हमारा मानना है कि मुस्लमानों को क़ुरआने करीम की आयात में तदब्बुर करने से रोकने के लिए हमेशा ही साज़िशें होती रही हैम इन साज़िशों के तहत कभी बनी उमय्यह व बनी अब्बास के दौरे हुकूमत में अल्लाह के कलाम के क़दीम या हादिस होने की बहसों को हवा दे कर मुस्लमानों को दो गिरोहों में तक़्सीम कर दिया गया
,जिस के सबब बहुत ज्यादा ख़ूँरेजिया वुजूद में आई। जबकि आज हम सब जानते हैं कि इन बहसों में नज़ाअ असलन मुनासिब नही है। क्योँ कि अगर अल्लाह के कलाम से हरूफ़
,नक़ूश
,किताबत व काग़ज़ मुराद है तो बेशक यह सब चीज़ें हादिस हैं और अगर इल्मे परवरदिगार में इसके मअना मुराद हैं तो ज़ाहिर है कि उसकी ज़ात की तरह यह भी क़दीम है। लेकिन सितमगर हुक्काम और ज़ालिम ख़लीफ़ाओं ने मुसलमानों को बरसों तक इस मस्ले में उलझाए रक्खा। और आज भी ऐसी ही साज़िशें हो रही है और इस के लिए दूसरे तरीक़े अपनाए जा रहे हैं ताकि मुस्लमानों को क़ुरआनी आयात पर तदब्बुर व अमल से रोका जा सके।
30-क़ुरआने करीम की तफ़्सीर के ज़वाबित
हमारा मानना है कि क़ुरआने करीम के अलफ़ाज़ को उनके लुग़वी व उर्फ़ी मअना में ही इस्तेमाल किया जाये
,जब तक आयत में अलफ़ाज़ के दूसरे मअना में इस्तेमाल होने का कोई अक़्ली या नक़्ली क़रीना मौजूद न हो। (लेकिन मशकूक क़रीनों का सहारा लेने से बचना चाहिए और क़ुरआने करीम की आयात की तफ़्सीर हद्स या गुमान की बिना पर नही करनी चाहिए।
जैसे क़ुरआने करीम फ़रमाता है कि
“व मन काना फ़ी हाज़िहि आमा फ़हुवा फ़ी अलआख़िरति आमा
”
[77]यानी जो इस दुनिया में नाबीना रहा वह आख़ेरत में भी नाबीना ही रहे गा।
हमें यक़ीन है कि यहाँ पर
“आमा
”
के लुग़वी मअना नाबीना मुराद नही हो सकते
,इस लिए कि बहुत से नेक लोग ज़ाहेरन नाबीना थे
,बल्कि यहाँ पर बातिनी कोर दिली व नाबीनाई ही मुराद है। यहाँ पर अक़्ली क़रीने का वुजूद इस तफ़्सीर का सबब है।
इसी तरह क़ुरआने करीम इस्लाम दुश्मन एक गिरोह के बारे में फ़रमा रहा है कि
“सुम्मुन बुकमुन उमयुन फ़हुम ला यअक़ीलूना
”[78]यानी वह बहरे
,गूँगे और अन्धे है
,इसी वजह से कोई बात नही समझ पाते।
यह बात रोज़े रौशन की तरह आशकार है कि वह ज़ाहिरी तौर पर अन्धे
,बहरे और गूँगे नही थे बल्कि यह उन के बातिनी सिफ़ात थे। (यह तफ़्सीर हम क़रीना-ए- हालिया के मोजूद होने की वजह से करते हैं।)
इसी बिना पर क़ुरआने करीम की वह आयते जो अल्लाह तआला के बारे में कहती हैं कि
“वल यदाहु मबसूसतानि
”[79]यानी अल्लाह के दोनों हाथ खुले हुए हैं। या
“व इस्नइ अलफ़ुलका बिआयुनिना
”
[80]यानी (ऐ नूह)हमारी आँखों के सामने किश्ती बनाओ।
इन आयात का मफ़हूम यह हर गिज़ नही है कि अल्लाह के आँख
,कान और हाथ पाये जाते है और वह एक जिस्म है। क्योँ कि हर जिस्म में अजज़ा पाये जाते हैं और उस को ज़मान
,मकान व जहत की ज़रूरत होती है और आख़िर कार वह फ़ना हो जाता है। अल्लाह इस से बरतर व बाला है कि उस में यह सिफ़तें पाई जायें। लिहाज़ा
“यदाहु
”
यानी हाथों से मुराद अल्लाह की वह क़ुदरते कामिला है जो पूरे जहान को ज़ेरे नुफ़ूज़ किये है
,और
“आयुन
”
यानी आँख़ों से मुराद उसका इल्म है हर चीज़ की निस्बत।
इस बिना पर हम ऊपर बयान की गई ताबीरात को चाहे वह अल्लाह की सिफ़ात के बारे में हों या ग़ैरे सिफ़ात के बारे में अक़्ली व नक़्ली क़रीनों के बग़ैर क़बूल नही करते । क्योँ कि तमाम दुनिया के सुख़नवरों की रविश इन्हीँ दो क़रीनों पर मुनहसिर रही है और क़ुरआने करीम ने इस रविश को क़बूल किया है।
“व मा अरसलना मिन रुसुलिन इल्ला बिलिसानि क़ौमिहि
”
[81]यानी हमने जिन क़ौमों में रसूलों को भेजा उन्हीँ क़ौमों की ज़बान अता कर के भेजा। लेकिन यह बात याद रहे कि यह क़रीने रौशन व यक़ीनी होने चाहिए
,जैसे ऊपर भी बयान किया जा चुका है।
31-तफ़्सीर बिर्राय के ख़तरात
हमारा अक़ीदह है कि क़ुरआने करीम के लिए सब से ख़तरनाक काम अपनी राय के मुताबिक़ तफ़्सीर करना है।इस्लामी रिवायात में जहाँ इस काम को गुनाहे कबीरा से ताबीर किया गया है वहीँ यह काम अल्लाह की बारगाह से दूरी का सबब भी बनता है। एकहदीस में बयान हुआ है कि अल्ला ने फ़रमाया कि
“मा आमना बी मन फ़स्सरा बिरायिहि कलामी
”[82]यानी जो मेरे कलाम की तफ़्सीर अपनी राय के मुताबिक़ करता है वह मुझ पर ईमान नही लाया। ज़ाहिर है कि अगर ईमान सच्चा हो तो इंसान कलामे ख़ुदा को उसी हालत में क़बूल करेगा जिस हालत में है न यह कि उस को अपनी राय के मुताबिक़ ढालेगा।
सही बुख़ारी
,तिरमिज़ी
,निसाई और सुनने दावूद जैसी मशहूर किताबों में भी पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की यह हदीस मौजूद है कि
“मन क़ाला फ़ी अलक़ुरआनि बिरायिहि अव बिमा ला यअलमु फ़लयतबव्वा मक़अदहु मिन अन्नारि
”[83]यानी जो कुरआन की तफ़्सीर अपनी राय से करे या ना जानते हुए भी क़ुरआन के बारे में कुछ कहे तो वह इस के लिए तैयार रहे कि उसका ठिकाना जहन्नम है।
तफ़्सीर बिर्राय यानी अपने शख़्सी या गिरोही अक़ीदह या नज़रिये के मुताबिक़ क़ुरआने करीम के मअना करना और उस अक़ीदह को कुरआने करीम से ततबीक़ देना
,जबकि उसके लिए कोई क़रीना या शाहिद मौजूद न हो। ऐसे अफ़राद दर वाक़े क़ुरआने करीम के ताबेअ नही हैं बल्कि वह चाहते हैं कि क़ुरआने करीम को अपना ताबे बनायें। अगर क़ुरआने करीम पर पूरा ईमान हो तो हर गिज़ ऐसा न करें।अगर क़ुरआने करीम में तफ़्सीर बिर्राय का बाब खुल जाये तो यक़ीन है कि कुल्ली तौर पर क़ुरआन का ऐतेबार खत्म हो जाये गा
,जिस का भी दिल चाहेगा वह अपनी पसंद से क़ुरआने करीम के मअना करेगा और अपरने बातिल अक़ीदों को क़ुरआने करीम से ततबीक़ देगा।
इस बिना पर तफ़्सीर बिर्राय यानी इल्में लुग़त
,अदबयाते अरब व अहले ज़बान के फ़हम ख़िलाफ़ क़ुरआने करीम की तफ़्सीर करना और अपने बातिल ख़यालात व गिरोही या शख़्सी खवाहिशात को क़ुरआन से तताबुक़ देना
,क़ुरआने करीम की मानवी तहरीफ़ का सबब है।
तफ़्सीर बिर्राय की बहुत सी क़िस्में हैं। उन में से एक क़िस्म यह है कि इंसान किसी मोज़ू जैसे
“शफ़ाअत
”“
तौहीद
”
“इमामत
”
वग़ैरह के लिए क़ुरआने करीम से सिर्फ़ उन आयतों का तो इँतेख़ाब कर ले जो उस की फ़िक्र से मेल खाती हों
,और उन आयतों को नज़र अन्दाज़ कर दे जो उस की फ़िक्र से हमाहँग न हो
,जब कि वह दूसरी आयात की तफ़्सीर भी कर सकती हों।
खुलासा यह कि जिस तरह क़ुरआने करीम के अलफ़ाज़ पर जमूद
,अक़्ली व नक़्ली मोतबर क़रीनों पर तवज्जोह न देना एक तरह का इनहेराफ़ है उसी तरह तफ़्सीर बिर्राय भी एक क़िस्म का इनहेराफ़ है और यह दोनों क़ुरआने करीम की अज़ीम तालीमात से दूरी का सबब है। इस बात पर तवज्जोह देना ज़रूरी है।
32-सुन्नत अल्लाह की किताब से निकली है।
हमारा अक़ीदह है कि कोई भी यह नही कह सकता है कि
“कफ़ाना किताबा अल्लाहि
”हमें अल्लाह की किताब काफ़ी है और अहादीस व सुन्नते नबवी (जो कि तफ़्सीर व क़ुरआने करीम के हक़ाइक़ को बयान करने
,क़ुरआने करीम के नासिख़- मँसूख़ व आमो ख़ास को समझने और उसूल व फुरू में इस्लामी तालीमात को जान ने का ज़रिया है।)की ज़रूरत नही है।
“इस इबारत का मतलब यह नही है कि तारीख़ मे ऐसा किसी ने नही कहा
,बल्कि मतलब यह है कि कोई भी सुन्नत के बग़ैर तन्हा किताब के ज़रिये इस्लाम को समझ ने का दावा नही कर सकता
”मुतरजिम।
क्योँ कि क़ुरआने करीम की आयात ने पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की सुन्नत को- चाहे वह लफ़्ज़ी हो या अमली - मुसलमानों के लिए हुज्जत क़रार दिया है और आप की सुन्नत को इस्लाम के समझ ने व अहकाम के इस्तँबात के लिए एक असली मनबा माना है।
“
मा अता कुम अर्रसूलु फ़ख़ुज़ुहु व मा नहा कुम अनहु फ़इन्तहू
”
[84]रसूल जो तुम्हें दे ले लो (यानी जिस बात का हुक्म दे उसे अन्जाम दो)और जिस बात से मना करे उस से परहेज़ करो।
“
व मा काना लिमुमिनिन व ला मुमिनतिन इज़ा क़ज़ा अल्लाहु व रसूलुहु अमरन अन यकूना लहुम अलख़ियरतु मिन अमरि हिम व मन यअसी अल्लाहा व रसूलहु फ़क़द ज़ल्ला ज़लालन मुबीनन।
”
[85]यानी किसी भी मोमिन मर्द या औरत को यह हक़ नही है कि जब किसी अम्र मे अल्लाह या उसका रसूल कोई फ़ैसला कर दें तो वह उस अम्र में अप ने इख़्तियार से काम करे और जो भी अल्लाह और उस के रसूल की नाफ़रमानी वह खिली हुई गुमराही में है।
जो सुन्नते पैग़म्बर(स.)की परवा नही करते दर हक़ीक़त उन्हों ने क़ुरआर्ने करीम को नज़र अँदाज़ कर दिया है। लेकिन सुन्नत के लिए ज़रूरी है कि वह मोतबर ज़राये से साबित हो
,ऐसा नही है कि जिसने हज़रत की सीरत के मुताल्लिक़ जो कह दिया सब क़बूल कर लिया जाये।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि
“व लक़द कुज़िबा अला रसूलि अल्लाहि सल्ला अल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम- हत्ता क़ामा ख़तीबन फ़क़ाला मन कजबा अलैया मुताम्मदन फ़ल यतबव्वा मक़अदहु मिन अन्नारि
”[86]यानी पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की ज़िन्दगी मे ही बहुत सी झूटी बातों को पैग़म्बर (स.)की तरफ़ निस्बत दी गई तो पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ख़ुत्बा देने के लिए खड़े हुए और फ़रमाया कि जो अमदन किसी झूटी बात को मेरी तरफ़ मनसूब करे
,वह जहन्नम में अपने ठिकाने के लिए भी आमादह रहे।
इस मफ़हूम से मलती जुलती एक हदीस सही बुख़ारी में भी।[
87]
33-सुन्नत आइम्मा-ए- अहले बैत (अलैहिम अस्सलाम)