हमारे अक़ीदे

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हमारे अक़ीदे लेखक:
: मौलाना सैय्यद क़मर ग़ाज़ी जैदी
कैटिगिरी: विभिन्न

हमारे अक़ीदे

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: आयतुल्लाह नासिर मकारिम शीराज़ी साहब
: मौलाना सैय्यद क़मर ग़ाज़ी जैदी
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हमारे अक़ीदे

हमारे अक़ीदे

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

हमारा अक़ीदह यह भी है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के फ़रमान के मुताबिक़ आइम्मा-ए- अहले बैत (अलैहम अस्सलाम)की अहादीस भी वाजिब उल इताअत हैं। क्योँ कि

क)मशहूर व मारूफ़ मुतावातिर हदीस जो अहले सुन्नत और शिया दोनों मज़हबें की अक्सर किताबों में बयान की गई है उस में भी इसी मअना की तस्रीह है। सही तरमिज़ी में पैग़म्बरे इस्लाम(स.)की यह हदीस मौजूद है कि आप ने फ़रमाया “या अय्युहा अन्नासु इन्नी क़द तरकतु फ़ी कुम मा इन अख़ज़तुम बिहि लन तज़िल्लू ,किताबा अल्लाहि व इतरती अहला बैती ”[88]

ख)आइम्मा-ए- अहले बैत अलैहिम अस्सलाम ने अपनी तमाम हदीसें पैग़म्बरे इस्लाम(स.)से नक़्ल की हैं। और फ़रमाया है कि जो कुछ हम बयान कर रहे हैं यह पैग़म्बर से हमारे बाप दादा के ज़रिये हम तक पहुँचा है।

हाँ पैग़म्बरे इस्लाम (स.)ने अपनी हयाते तौयबा में ही मसलमानों के मुस्तक़बिल व उन की मुश्किलात को अच्छी तरह महसूस कर लिया था लिहाज़ा उम्मत को उन के हल का तरीक़ा बताया और फ़रमाया कि क़ियामत तक पेश आने वाली तमाम मुश्किलात का हल क़ुरआने करीम व अहले बैत अलैहिम अस्सलाम की पैरवी है।

क्या इतनी अहम और क़वी उस सनद हदीस को नज़र अन्दाज़ किया जा सकता है ?

इसी बिना पर हमारा अक़ीदह है कि अगर क़ुरआने करीम व अहले बैत अलैहिम अस्साम के मसले पर तवज्जोह दी जाती तो आज मुसलमान अक़ाइद ,तफ़्सीर और फ़िक़्ह की बाज़ मुश्किलात से रू बरू न होते ।

चौथा हिस्सा

क़ियामत व मौत के बाद की ज़िन्दगी

34-मआद (क़ियामत)के बग़ैर ज़िन्दगी बेमफ़हूम है।

हमारा अक़ीदह है कि मरने के बाद एक दिन तमाम इंसान ज़िन्दा होगें और आमाल के हिसाब किताब के बाद नेक लोगों को जन्नत में व गुनाहगारों को दोज़ख़ में भेज दिया जायेगा और वह हमेशा वहीँ पर रहे गें। “अल्लाहु ला इलाहा इल्ला हुवा लयजमअन्नाकुम इला यौमिल क़ियामति ला रैबा फ़ीहि। ” [89]यानी अल्लाह के अलावा कोई माबूद नही है ,यक़ीनन क़ियामत के दिन जिस में कोई शक नही है तुम सब को जमा करे गा।

“ फ़अम्मा मन तग़ा * व आसरा अलहयाता अद्दुनिया * फ़इन्ना अलजहीमा हिया अलमावा * व अम्मा मन ख़ाफ़ा मक़ामा रब्बिहि व नहा अन्नफ़सा अन अलहवा * फ़इन्ना अलजन्नता हिया अलमावा। ” [90]यानी जिस ने सर कशी की और दुनिया की ज़िन्दगी को इख्तियार किया उसका ठिकाना जहन्नम है और जिस ने अपने रब के मक़ाम(अदालत)का खौफ़ पैदा किया और अपने नफ़्स को ख़वाहिशात से रोका उसका ठिकाना जन्नत है।

हमारा अक़ीदह है कि यह दुनिया एक पुल है जिस से गुज़र कर इंसान आखेरत में पहुँच जाता है। या दूसरे अलफ़ाज़ में दुनिया आख़ेरत के लिए बज़ारे तिजारत है ,या दुनिया आख़ेरत की खेती है।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम दुनिया के बारे में फ़रमाते हैं कि “इन्ना अद्दुनिया दारु सिदक़िन लिमन सदक़ाहा .........व दारु ग़िनयिन लिमन तज़व्वदा मिनहा ,व दारु मोएज़तिन लिमन इत्तअज़ा बिहा ,मस्जिदु अहिब्बाइ अल्लाहि व मुसल्ला मलाइकति अल्लाहि व महबितु वहयि अल्लाहि व मतजरु औलियाइ अल्लाहि ”[91]यानी दुनिया सच्चाई की जगह है उस के लिए जो दुनिया के साथ सच्ची रफ़्तार करे ,.....और बेनियाज़ी की जगह है उस के लिए जो इस से ज़ख़ीरा करे ,और आगाही व बेदारी की जगह है उस के लिए जो इस से नसीहत हासिल करे ,हुनिया दोस्ताने ख़ुदा के लिए मस्जिद ,मलाएका के लिए नमाज़ की जगह ,अल्लाह की वही के नाज़िल होने का मक़ाम और औलिया-ए- खुदा की तिजारत का मकान है।

35-मआद की दलीलें रौशन हैं।

हमारा अक़ीदह है कि मआद की दलीलें बहुत रौशन हैं क्यों कि-

क)इस दुनिया की ज़िन्दगी इस बात की तरफ़ इशारा करती है कि ऐसा नही हो सकता कि यह दुनिया जिस में इंसान चन्द दिनों के लिए आता है ,मुश्किलात के एक बहुत बड़े अम्बोह के दरमियान ज़िन्दगी बसर करता है और मर जाता है ,इंसान की ख़िलक़त का आख़री हदफ़ हो ,“अफ़ाहसिब तुम अन्ना मा ख़लक़ना कुम अबसन व अन्ना कुम इलैनाला तुरजाऊना ”[92]यानी क्या तुम यह गुमान करते हो कि हम ने तुम्हें किसी मक़सद के बग़ैर पैदा किया और तुम हमारे पास पलट कर नही आओ गे। यह इस बात की तरफ़ इशारा है कि अगर मआद का वुजूद न हो तो इस दुनिया की ज़िन्दगी बे मक़सद है।

ख)अल्लाह का अद्ल इस बात का तक़ाज़ा करता है कि नेक और बद लोग जो दुनिया में एक ही सफ़ में रहते हैं बल्कि अक्सर बदकार आगे निकल जाते हैं वह आपस में अलग हों और हर कोई अपने अपने आमाल की जज़ा या सज़ा पायें। “अम हसिबा अल्लज़ीना इजतरहू अस्सयिआति अन नजअला हुम कल्लज़ीना आमनु व अमलू अस्सालिहाति सवाअन महयाहुम व ममातु हुम साआ मा यहकुमूना ”[93]क्या बुराई इख़्तियार करने वालों ने यह ख़याल कर लिया है कि हम उन्हे ईमान लाने वालों और नेक अमल करने वालों के बराबर क़रार दें गे ,कि सब की मौत व हयात एक जैसी हो ,यह उन्होंने बहुत बुरा फ़ैसला किया है।

ग)अल्लाह की कभी ख़त्म न होने वाली रहमत इस बात का तक़ाज़ा करती है कि उसका फ़ैज़ और नेअमतें इंसान के मरने के बाद भी कतअ न हों बल्कि इस्तेदाद रखने वाले अफ़राद का तकामुल उसी तरह होता रहे। “कतबा अला नफ़सिहि अर्रहमता लयजमअन्ना कुम इला यौमिल क़ियामति लारौबा फ़ीहि ”[94]यानी अल्लाह ने अपने ऊपर रहमत को लाज़िम क़रार दे लिया है ,वह तुम सब को क़ियामत के दिन इकठ्ठा करेगा जिस में शक की कोई गुँजाइश नही है।

जो अफ़राद मआद के बारे में शक करते हैं क़ुरआने करीम उन से कहता है कि कैसे मुमकिन है कि तुम मुर्दों को ज़िन्दा करने के सिलसिले में अल्लाह की क़ुदरत में शक करते हो। जबकि तुम को पहली बार भी उस ने ही पैदा किया है ,बस जिस ने तुम्हें इब्तदा में ख़ाक से पैदा किया है वही तुम्हे दूसरी ज़िन्दगी भी अता करेगा। “अफ़ाअयियना बिलख़ल्क़ि अलअव्वलि ,बल हु फ़ी लबसिन मिन ख़ल्क़िन जदीदिन ” [95]यानी क्या हम पहली ख़िल्क़त से आजिज़ थे( कि क़ियामत की ख़िल्क़त पर क़ादिर न हों)हर गिज़ नही ,लेकिन वह (इन रौशन दलाइल के बावुजूद)नई ख़िल्क़त की तरफ़ से शुब्हे में पड़े हुए हैं। “व ज़रबा लना मसलन व नसिया ख़ल्क़हु क़ाला मन युहयु अलइज़ामा व हिया रमीम* क़ुल युहयिहा अल्लज़ी अव्वला मर्रतिन व हुवा बिक़ुल्लि ख़व्क़िन अलीम ” [96]वह हमारे सामने मिसालें पेश करता है ,अपनी ख़िल्क़त को भूल गया ,कहता है कि इन बोसीदह हड्डियों को कौन ज़िन्दा करेगा ,आप कह दिजीये इन को वही ज़िन्दा करेगा जिस ने इन्हें पहली मर्तबा ख़ल्क़ किया था और वह हर मख़लूक़ का बेहतर जान ने वाला है।

और इसके साथ साथ यह भी कि ज़मीनों आसमान की ख़िल्क़त ज़्यादा अहम है या इनसान का पैदा करना !बस जो इस वसूअ जहान को इसकी तमाम शगुफ़्तगी के साथ ख़ल्क़ करने पर क़ादिर है वह इंसान को मरने के बाद दुबारा ज़िन्दा करने पर भी क़ादिर है। “अवा लम यरव अन्ना अल्लाहा अल्लज़ी ख़लक़ा अस्स ,मावाति व अल अर्ज़ा व लम यअया बिख़ल्क़ि हिन्ना बिक़ादिरिन अला अन युहयि अलमौता बला इन्नहु अला कुल्लि शैइन क़दीर ” [97]यानी क्या वह नही जानते कि अल्लाह ने ज़मीन व आसमान को पैदा किया और वह उन को ख़ल्क़ करने में आजिज़ नही था ,बस वह मुर्दों को ज़िन्दा करने पर भी क़ादिर है बल्कि वह तो हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।

36-मआदे जिस्मानी

हमारा अक़ीदह है कि उस जहान(आख़ेरत)में सिर्फ़ इंसान की रूह ही नही बल्कि रूह व जिस्म दोनो उस पलटाये जायें गे। क्योँ कि इस जहान में जो कुछ भी अन्जाम दिया गया है इसी जिस्म और रूह के ज़रिये अंजाम दिया गया है। लिहाज़ा जज़ा या सज़ा में भी दोनो का ही हिस्सा होना चाहिए।

मआद से मरबूत क़ुरआने करीम की अक्सर आयात में मआदे जिस्मानी का ज़िक्र हुआ है। जैसे मआद पर ताज्जुब करने वाले मुख़ालेफ़ीन के जवाब में जो यह कहते थे कि इन बोसीदह हड्डियों को कौन जिन्दा करेगा ?क़ुरआने करीम फ़रमाता है कि “क़ुल युहयिहा अल्लज़ी अनशाअहा अव्वला मर्रतिन ”[98]यानी आप कह दीजिये कि इन्हें वही ज़िन्दा करेगा जिस ने इनको पहली बार ख़ल्क़ किया।

“ अयहसबु अलइंसानु अन लन नजमआ इज़ामहु * बला क़ादिरीना अला अन नुसव्विया बनानहु। ” [99]यानी क्या इंसान यह गुमान करता है कि हम उसकी (बोसीदह )हड्डियों को जमा(ज़िन्दा)नही करें गे ?हाँ हम तो यहाँ तक भी क़ादिर हैं कि उन की ऊँगलियोँ के (निशानात)को भी मुरत्तब करें( और उन को पहला हालत पर पलटा दें)।

यह और इन्हीँ की मिस्ल दूसरी आयते मआदे जिस्मानी के बारे में सराहत करती हैं।

वह आयतें जो यह बयान करती हैं कि तुम अपनी क़ब्रों से उठाये जाओ गे वह भी मआदे जिस्मानी को वज़ाहत से बयान करती हैं।

क़ुरआने करीम की मआद से मरबूत अक्सर आयात मआदे रूहानी व जिस्मानी की ही शरह बयान करती हैं।

37-मौत का बाद का अजीब आलम

हमारा अक़ीदह है कि वह चीज़े जो मौत के बाद उस जहान में क़ियामत ,जन्नत ,जहन्नम में रूनुमाँ होंगी हम इस महदूद दुनिया में उस से बाख़बर नही हो सकते चूँकि वह हमारी फ़िक्र से बहुत बलन्द चीज़ें हैं। “फ़ला तअलमु नफ़सुन मा उख़फ़िया लहुम मिन क़ुर्रति आयुनिन ” [100]किसी नफ़्स को मालूम नही है कि उस के लिए क्या क्या ख़ुन्की-ए- चश्म का सामान छुपा कर रक्खा गया है जो उन के आमाल की जज़ा है।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की एक मशहूर हदीस में इरशाद हुआ है कि “इन्ना अल्लाहा यक़ुलु आदद्तु लिइबादिया अस्सालिहीना मा ला ऐनुन राअत वला उज़नुन समिअत व ला ख़तरा अला क़ल्बि बशरिन। ”[101]यानी अल्लाह तआला फ़रमाता है कि मैनें अपने नेक बन्दों के लिए जो नेअमतें आमादह की हैं वह ऐसी हैं कि न किसी आँख नें ऐसी नेअमते देखी हैं न किसी कान ने उनके बारे में सुना है और न किसी दिल में उन का तसव्वुर पैदा हुआ है।

हक़ीक़त यह है कि हमारी मिसाल इस दुनिया में उस बच्चे की सी है जो अभी अपनी माँ के शिकम में है और पेट की महदूद फ़ज़ में ज़िन्दगी बसर कर रहा है। फ़र्ज़ करो कि अगर यह बच्चा जो अभी माँ के पेट में है अक़्ल व शऊर भी रखता हो तो बाहर की दुनिया में मौजूद चमकता हुए सूरज दमकते हुए चाँद ,फूलों के मनाज़िर ,हवाओं के हल्के हल्के झोंकों ,दरिया की मोजों की सदा जैसे मफ़ाहीम व हक़ाइक़ को दर्क नही कर सकता। बस यह दुनिया भी उस जहान के मुक़ाबिल माँ के पेट की तरह है। इस पर तवज्जोह करनी चाहिए।

38-मआद व आमाल नामें

हमारा अक़ीदह है कि क़ियामत के दिन हमारे आमाल नामे हमारे हाथों में सौंप दिये जायें गे। नेक लोगों के नामा-ए- आमाल उन के दाहिने हाथ में और गुनाहगारों के नामा-ए आमाल उनके बायें हाथ में दियो जायें गे। जहाँ नेक लोग अपने नामा-ए-आमाल को देख कर ख़ुश होंगे वहीँ गुनाहगार अफ़राद अपने नामा-ए-आमाल को देख कर रनजीदा हों गे। क़ुरआने करीम ने इस को इस तरह बयान फ़रमाया है। “फ़अम्मा मन उतिया किताबहु बियमिनिहि फ़यक़ूलु हाउमु इक़रऊ किताबियहु * इन्नी ज़ननतु अन्नी मुलाक़िन हिसाबियहु * फ़हुवा फ़ी ईशतिर राज़ियतिन* …..व अम्मा मन उतिया किताबहु बिशिमालिहि फ़

यक़ूलु या लयतनी लम ऊता किताबियहु। ” [102]यानी जिस को नामा-ए- आमाल दाहिने हाथ में दिया जायेगा वह(ख़ुशी से)सब से कहेगा कि (ऐ अहले महशर) ज़रा मेरा नामा-ए- आमाल तो पढ़ो ,मुझे यक़ीन था कि मेरे आमाल का हिसाब मुझे मिल ने वाला है ,फिर वह पसंदीदा जिन्दगी में होगा। लेकिन जिसका नामा-ए- आमाल बायें हाथ में दिया जाये गा वह कहेगा कि काश यह नामा-ए-आमाल मुझे ना दिया जाता।

लेकिन यह बात कि नामा-ए-आमाल की नौय्यत क्या होगी ?वह कैसे लिखे जायें गे कि किसी में उस से इंकार करने की जुर्रत न होगी ?यह सब हमारे लिए रौशन नही है। जैसा कि पहले भी इशारा किया जा चुका है कि मआद व क़ियामत में कुछ ऐसी ख़सूसियतें हैं कि जिन के जुज़यात को इस दुनिया में समझना मुश्किल या ग़ैर मुमकिन है। लेकिन कुल्ली तौर पर सब मालूम है और इस से इंकार नही किया जा सकता।

39-क़ियामत में शुहूद व गवाह

हमारा अक़ीदह है कि क़ियामत में इस के इलावा कि अल्लाह हमारे तमाम आमाल पर शाहिद है कुछ गवाह भी हमारे आमाल पर गवाही दें गे जैसे हमारे हाथ पैर ,हमारे बदन की खाल ,ज़मीन जिस पर हम ने ज़िन्दगी बसर करते हैं और इस के इलावा भी बहुत से हमारे आमाल पर गवाह हों गे।

“ अल यौमा नख़तिमु अला अफ़वाहि हिम व तुकल्लिमुना अयदिहि व तशहदु अरजुलु हुम बिमा कानू यकसिबूना ”[103]यानी इस दिन (रोज़े क़ियामत) हम उन के मुँह पर मोहर लगा दें गे और उन के हाथ हम से बाते करें गे। और उन के पैरों ने जो काम अन्जाम दिये हैं वह उन के बारे में गवाही दें गे।

“ व क़ालू लिजुलुदि हिम लिमा शहिद्तुम अलैना क़ालू अनतक़ना अल्लाहु अल्लज़ी अनतक़ा कुल्ला शैइन। ”[104]यानी वह लोग अपने बदन की खाल से कहें गे कि हमारे ख़िलाफ़ गवाही क्यों दी ?तो उनको जवाब मिले गा कि जो अल्लाह हर चीज़ में बोलने की सलाहिय्यत पैदा करता है उस ने ही हम को बोल ने ताक़त दी। (और हम को राज़ों के फ़ाश करने की जिम्मेदारी सौंपी)

“ यौमाइज़िन तुहद्दिसु अख़बारहा * बिअन्ना रब्बका अवहा लहा। ” [105]यानी उस दिन ज़मीन अपनी ख़बरें बयान करेगी इस लिए कि आप के परवर दिगार ने उस पर वही की है( कि इस ज़िम्मेदारी को अन्जाम दे)

40-सिरात व मिज़ान

हम क़ियामत में “सिरात ” व “मिज़ान ” के वुजूद के क़ाइल हैं। सिरात वह पुल है जो जहन्नम के ऊपर बनाया गया है और सब लोग उस के ऊपर से उबूर करें गे। हाँ जन्नत का रास्ता जहन्नम के ऊपर से ही है। “व इन मिन कुम इल्ला वारिदुहा काना अला रब्बिका हतमन मक़ज़ियन *सुम्मा नुनज्जि अल्लज़ीना इत्तक़व व नज़रु अज़्ज़लिमीना फ़ीहा जिसिय्यन ”[106]यानी और तुम सब (बदूने इस्तसना)जहन्नम में दाख़िल हों गे यह तुम्हारे रब का हतमी फ़ैसला है। इस के बाद हम मुत्तक़ी अफ़राद को निजात दे दें गे और ज़ालेमीन को जहन्नम में ही छोड़ दें गे।।

इस ख़तरनाक पुल से गुज़रना इंसान के आमाल पर मुनहसिर है ,जैसा कि हदीस में बयान हुआ है “मिन हु मन यमुर्रु मिसला अलबर्क़ि ,मिन हुम मन यमुर्रु मिस्ला अदवि अलफ़रसि ,व मिन हुम मन यमुर्रु हबवन ,व मिन हुम मन यमुर्रु मशयन ,व मिन हुम मन यमुर्रु मुताअल्लिक़न ,क़द ताख़ुज़ु अन्नारु मिनहु शैयन व ततरुकु शैयन। ” [107]यानी कुछ लोग पुले सिरात से बिजली की तेज़ी से गुज़र जायें गे ,कुछ तेज़ रफ़्तार घोड़े की तरह ,कुछ घुटनियों के बल ,कुछ पैदल चलने वालों की तरह ,कुछ लोग इस पर लटक कर गुज़रें गे ,आतिशे दोज़ख़ उन में से कुछ को ले लेगी और कुछ को छोड़ दे गी।

“ मीज़ान ” इसके तो नाम से ही इस के मअना ज़ाहिर है।यह इंसानों के आमाल को परख ने का एक वसीला है। हाँ उस दिन हमारे तमाम आमाल को तौला जाये गा और हर एक के वज़न व अरज़िश को आशकार किया जाये गा। “व नज़उ मवाज़ीना अलक़िस्ता लियौमि अलक़ियामति फ़ला तुज़लमु नफ़्सा शैयन व इन काना मिस्क़ाला हब्बतिन मिन ख़रदलिन आतैना बिहा व कफ़ा बिना हासिबीना। ” [108]यानी हम रोज़े क़ियामत इंसाफ़ की तराज़ू क़ाइम करें गे और किसी पर मामूली सा ज़ुल्म भी नही होगा ,यहाँ तक कि अगर राई के एक दाने के वज़न के बराबर भी किसी की (नेकी या बदी) हुई तो हम उस को भी हाज़िर करें गे और (उस को उस का बदला दें गे)और काफ़ी है कि हम हिसाब करने वाले हों गे।

“ फ़अम्मा मन सक़ुलत मवाज़ीनहु फ़हुवा फ़ी ईशातिन राज़ियतिन *व अम्मा मन ख़फ़्फ़त मवाज़ीनहु फ़उम्मुहु हावियतिन ”[109]यानी (उस दिन) जिस के आमाल का पलड़ा वज़नी होगा वह पसंदीदा ज़िन्दगी में होगा और जिस के आमाल का पलड़ा हल्का होगा उस का ठिकाना दोज़ख में होगा।

हाँ हमारा अक़ीदह यही है कि उस जहान में निजात व कामयाबी इंसान के आमाल पर मुन्हसिर हैं ,न कि उसकी आरज़ुओं व तसव्वुरात पर। हर इँसान अपने आमाल के तहत गिरवी है और तक़वे व परेहज़गारी के बिना कोई भी किसी मक़ाम पर नही पहुँच सकता। “कुल्लु नफ़्सिन बिमा कसबत रहिनतुन ” [110]यानी हर नफ़्स अपने आमाल में गिरवी है।

यह सिरात व मीज़ान के बारे में मुख़्तसर सी शरह(व्याख्या) थी ,जबकि इन के जुजयात के बारे में हमें इल्म नही है। जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं कि आख़ेरत एक ऐसा जहान है जो इस दुनिया से जिस में हम ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं बहुत बरतर है। इस माद्दी दुनिया में क़ैद अफ़राद के लिए उस जहान के मफ़हूमों को समझना मुश्किल व ग़ैर मुमकिन है।

41-क़ियामत और शफ़ाअत

हमारा अक़ीदह है कि क़ियामत के दिन पैग़म्बर ,आइम्मा-ए-मासूमीन और औलिया अल्लाह अल्लाह के इज़्न से कुछ गुनाहगारों की शफ़ाअत करें गे और वह अल्लाह की माफ़ी के मुस्तहक़ क़रार पायें गे। लेकिन याद रखना चाहिए कि यह शफ़ाअत फ़क़त उन लोगों के लिए है जिन्होंनें गुनाहों की ज़्यादती की वजह से अल्लाह और औलिया अल्लाह से अपने राब्ते को क़तअ न किया हो। लिहाज़ा शफ़ाअत बेक़ैदव बन्द नही है बल्कि यह हमारे आमाल व नियत से मरबूत है। “व ला यशफ़उना इल्ला लिमन इरतज़ा ” [111]यानी वह फ़क़त उन की शफ़ाअत करेंगे जिन की शफ़ाअत से अल्लाह राज़ी होगा।

जैसा कि पहले भी इशारा किया जा चुका है कि “शफ़ाअत ” इंसान की तरबीयत का एक तरीक़ा है और गुनाहगारों को गुनाहों से रोक ने व औलिया अल्लाह से राब्ते को क़तअ न होने देने का एक वसीला है। इस के ज़रिये इंसान को पैग़ाम दिया जाता है कि अगर गुनाहों में गिरफ़्तार हो गये हो तो फ़ौरन तौबा कर लो और आइन्दा गुनाह अंजाम न दो।

हमारा यक़ीन है कि “शफ़ाअते उज़मा ” का मंसब रसूले अकरम (स.) से मख़सूस हैं और आप के बाद दूसरे तमाम पैग़म्बर व आइम्मा-ए-मासूमीन हत्ता उलमा ,शोहदा ,मोमेनीने आरिफ़ व कामिल को हक़्क़े शफ़ाअत हासिल है। और इस से भी बढ़ कर यह कि क़ुरआने करीम व आमाले सालेह भी कुछ लोगों की शफ़ाअत करें गे।

इमामे सादिक़ अलैहिस्सलाम एक हदीस में फ़रमाते हैं कि “मा मिन अहदिन मिन अलअव्वलीना व अलआख़ीरीना इल्ला व हुवा यहताजु इला शफ़ाअति मुहम्मद (स.) यौमल क़ियामति। ” [112]यानी अव्वलीन और आख़ेरीन में से कोई ऐसा नही है जो रोज़े क़ियामत मुहम्मद (स.)की शफ़ाअत का मोहताज न हो।

कनज़ुल उम्माल में पैग़म्बरे अकरम (स.)की एक हदीस है जिस में आप ने फ़रमाया कि “अश्शुफ़ाआउ ख़मसतुन : ] “अलक़ुरआनु व अर्रहमु व अलअमानतु व नबिय्यु कुम व अहलु बैति नबिय्यि कुम। ”[113]रोज़े क़ियामत पाँच शफ़ीअ होंगे : क़ुरआने करीम ,सिलह रहम ,अमानत ,आप का नबी और आपके नबी के अहले बैत।

हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम एक हदीस में फ़रमाते हैं कि “इज़ काना यौमु अलक़ियामति बअसा अल्लाहु अलआलिमा व अलआबिदा ,फ़इज़ा वक़फ़ा बैना यदा अल्लाहि अज़्ज़ा व जल्ला क़ीला लिआबिदि इनतलिक़ इला अलजन्नति ,व क़ीला लिलआलिमि क़िफ़ तशफ़अ लिन्नासि बिहुस्नि तादीबिका लहुम। ” [114]यानी क़ियामत के दिन अल्लाह आबिद व आलिम को उठाये गा ,जब वह अल्लाह की बारगाह में खड़े होंगे तो आबिद से कहा जाये गा कि जन्नत में जाओ ! और आलिम से कहा जाये गा कि ठहरो ,तुम ने जो लोगों की सही तरबीयत की है उस की ख़ातिर तुम को यह हक़ है कि तुम लोगों की शफ़ाअत करो।

यह हदीस शफ़ाअत के फलसफ़े की तरफ़ एक लतीफ़ इशारा कर रही है।

42-आलमे बरज़ख

हमारा अक़ीदह है कि इस दुनिया और आख़ेरत के बीच एक और जहान है जिसे “बरज़ख़ ” कहते हैं।मरने के बाद हर इँसान की रूह क़ियामत तक इसी आलमे बरज़ख़ में रहती है। “ व मिन वराइहिम बरज़ख़ुन इला यौमि युबअसूना। [ 115]”और उन के पीछे (मौत के बाद)आलमे बरज़ख़ है जो क़ियामत के दिन तक जारी रहने वाला है

हमें उस जहान के जुज़यात के बारे में ज़्यादा इल्म नही है और न ही हम उस के बारे ज़्यादा जान ने की क़ूवत रखते हैं ,अलबत्ता यह जानते हैं कि उन नेक व सालेह अफ़राद की रूहें जिन के मर्तबे बलन्द है(जैसे शोहदा की रूहों)उस जहान में अल्लाह की नेअमतों से माला माल रहते हैं। “ व ला तहसाबन्ना अल्लज़ीना क़ुतिलू फ़ी सबीलि अल्लाहि अमवातन वल अहया इन्दा रब्बि हिम युरज़क़ूना। ” [116]जो लोग राहे ख़ुदा में शहीद हो गये उन के बारे में हर गिज़ यह ख़याल न करना कि वह मर गये हैं ,नही वह ज़िन्दा हैं और अपने रब की तरफ़ से रिज़्क़ पाते हैं।

और इसी तरह से ज़ालिम ,ताग़ूत और उन के हामियों की रूहें उस जहान में अज़ाब में मुबतला रहती हैं। जिस तरह क़ुरआने करीम ने फ़िरोन व आले फ़िरोन के बारे मेंबयान फ़रमाया है कि “अन्नारु युअरज़ूना अलैहा ग़ुदुव्वन व अशिय्यन व यौमा तक़ूमु अस्साअतु अदख़िलू आला फ़िरअवना अशद्दा अलअज़ाब। ” [117]यानी उन का अज़ाब (बरज़ख़ में)आग (जहन्नम)है जिस में उन को सुबह शाम जलाया जाता है और जिस दिन क़ियामत वाक़े होगी उस दिन (फ़रमान ) गिया जायेगा कि आले फ़िरोन को सख़्त तरीन आज़ाब में दाख़िल करो।

लेकिन वह तीसरा गिरोह जिन के गुनाह कम है न वह नेअमतें पाने वालो में हैं और न अज़ाब भुगत ने वालों में बल्कि वह लोग एक क़िस्म की नीँद में रहते हैं और रोज़े क़ियामत बेदार हों गे। “व यौमा त़कूमु अस्सअतु युक़सिमु अलमुजरिमूना मा लबिसू ग़ैरा साअतिन .........व क़ाला अल्लज़ीना ऊतुल इल्मा व अलईमाना लक़द लबिसतुम फ़ी किताबि अल्लाहि इला यौमि अलबअसि फ़हाज़ा यौमु अलबअसि व लकिन्ना कुम कुन्तुम ला तअलमूना। ” [118]यानी जिस दिन क़ियामत बरपा होगी उस दिन गुनाहगार लोग क़सम खा-खा कर कहेंगे कि वह आलमें बरज़ख़ मे एक घन्टे से ज़्यादा नही रुके........ ,और जिन लोगों को इल्म व ईमान दिया गया है वह गुनाहगारों को मुख़ातब करते हुए कहें गे कि तुम अल्लाह के हुक्म से क़ियामत तक (आलमे बरज़ख़ में)रहे हो ,और आज रोज़े क़ियामत है लेकिन तुम को इस का इल्म नही है।

इस्लामी रिवायात में भी इस का ज़िक्र मौजूद है जैसे पैग़म्बरे अकरम (स.)की हदीस है कि “अलक़बरु रोज़तु मिन रियाज़िन जन्नति अव हुफ़रतु मिनहुफ़रि अन्नीरानि। ”[119]कब्र या जन्नत के बाग़ों में से एक बाग़ है या फिर जहन्नम के गढ़ों में से एक गढ़ा।

43-माद्दी व मअनवी जज़ा

हमारा अक़ीदह है कि क़ियामत में मिलने वाली जज़ा में माद्दी और मानवी दोनों पहलु पाये जाते है ,और वह इस लिए कि मआद भी रूहानी और जिस्मानी है। क़ुरआने करीम की आयात और इस्लामी रिवायात में भी इस का ज़िक्र हुआ है। जैसा कि जन्नत को बाग़ों के बारे में मिलता है कि उन के दरख़्तों के नीचे से नहरे जारी हैं। “जन्नातिन तजरी मिन तहतिहा अलअनहारु ” [120]यानी जन्नत के बाग़ ऐसे हैं जिन के नीचे नहरे जारी हैं। या जन्नत के दरख़्तों के फ़लों व सायों के जावेदानी होने के बारे में क़ुरआने करीम फ़रमाता है कि “उकुलुहा दाइमुन व ज़िल्लुहा ”[121]यानी जन्नत के दरख़्तों के फल व साये दाइमी हैं। या साहिबाने ईमान के लिए फ़रमाया कि जन्नत में उनके लिए अच्छे हमसर होंगे। “व अज़वाजुन मुतह्हरतुन ”[122]यानी जन्नत में पाको पाकीज़ा हमसर होंगे। इसी तरह से और भी बहुत सी आयतें मौजूद है।

इसी तरह जहन्नम की जला डाल ने वाली आग और सख़्त सज़ा के बारे में भी बयान मिलता है ,जो उस जहान की माद्दी सज़ा या जज़ा को रौशन करता है।

लेकिन इस से मुहिम मानवी जज़ा है ,मारफ़ते अनवारे ईलाही व अल्लाह से रूह का तक़र्रुब और उसके जमालो जलाल के जलवों में पाई जाने वाली लज़्ज़त को बयान कर ने की सलाहियत किसी भी ज़बान में नही है।

क़ुरआने करीम की कुछ आयतों में जन्नत की माद्दी नेअमतों को बयान कर ने के बाद इस जुमले को इज़ाफ़ा किया गया है “व रिज़वानु मिन अल्लाहि अकबरु ,ज़ालिका हुवा अलफ़ौज़ु अलअज़ीम ”[123]यानी अल्लाह की रिज़ा और ख़ुशनूदी इन सब से बरतर है ,और सब से बड़ी कामयाबी भी यही है।

हाँ इस से बढ़ कर कोई लज़्ज़त नही है कि इंसान ख़ुद यह महसूस करे कि वह अपने मअबूद व महबूब की बारगाह में क़बूल हो गया है और उस ने अपने रब की रिज़ा हासिल कर ली है।

हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अली इब्नुल हुसैन अलैहिमा अस्सलाम फ़रमाते हैं कि “यक़ूलु (अल्लाह)तबारका व तआला रिज़ाया अन कुम व महब्बती लकुम ख़ैरु व आज़मु मिन मा अन्तुम फ़ीहि... ”[124]यानी अल्लाह तबारकु तआला उन से फ़रमाता है कि मेरा तुम से राज़ी होना और मेरा तुम से मुहब्बत करना इस से कहीँ बेहतर है जिन नेअमतों के दरमियान तुम ज़िन्दगी बसर कर रहे हो। वह सब इन बातों को सुनते हैं और तसदीक़ करते हैं।

हक़ीकतन इस से बढ़ कर और क्या लज़्ज़त हो सकती है कि अल्लाह इंसान को इस तरह ख़िताब फ़रमाये “या अय्यतुहा अन्नफ़सु अलमुतमइन्ना इरजई इला रब्बिकि राज़ियतन मरज़ियतन फ़उदखुली फ़ी इबादि व उदख़ुली जडन्नती ”[125]यानी ऐ नफ़्से मुतमइन्ना अपने रब की तरफ़ पलट आ इस हाल में कि तू उस से राजी और वह तुझ से राजी है बस मेरे बन्दों में दाख़िल हो कर मेरी जन्नत में दाख़िल हो जा।

पाँचवा हिस्सा

मस्ला-ए-इमामत

44-इमाम हमेशा मौजूद रहता है।

जिस तरह अल्लाह की हिकमत इस बात का तक़ाज़ा करती है कि इंसानों की हिदायत के लिए पैग़म्बरों को भेजा जाये इसी तरह उस की हिकमत यह भी तक़ाज़ा करती है कि पैग़म्बरों के बाद भी इंसान की हिदायत के लिए अल्लाह की तरफ़ से हर दौर में एक इमाम हो जो अल्लाह के दीन और पैग़म्बरों की शरीयत की तहरीफ़ से महफ़ूज़ रखे ,हर ज़माने की ज़रूरतों से आगाह करे और लोगों को अल्लाह के दीन और पैग़म्बरों के आईन की तरफ़ बुलाये। अगर ऐसा न हो तो इंसान की ख़िल्क़त का मक़सद जो कि तकामुल और सआदत है फ़ोत हो जाये गा ,इंसान की हिदायत के रास्ते बन्द हो जायें गे ,पैग़म्बरों की शरीयत रायगाँ चली जाये गी और इंसान चारो तरफ़ भटकता फ़िरे गा।

इसी वजह से हमारा अक़ीदह यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम के बाद हर ज़माने में एक इमाम मौजूद रहा है। “या अय्युहा अल्लज़ीना आमिनू इत्तक़ु अल्लाह व कूनू माअस्सादीक़ीन ”[126]यानी ऐ ईमान लाने वालो अल्लाह से डरो और सादेक़ीन के साथ हो जाओ।

यह आयत किसी एक ख़ास ज़माने से मख़सूस नही है और बग़ैर किसी शर्त के सादेक़ीन की पैरवी का हुक्म इस बात पर दलालत करता है कि हर ज़माने के लिए एक मासूम इमाम होता है जिसकी पैरवी ज़रूरी है। बहुत से सुन्नी शिया उलमा ने अपनी तफ़्सीरों में इस बात की तरफ़ इशारा भी किया है। [ 127]

45-हक़ीक़ते इमामत

इमामत तन्हा ज़ाहिरी तौर पर हुकूमत करने का मंसब नही है बल्कि यह एक बहुत बलन्दो बाला रूहानी व मअनवी मंसब है। हुकूमते इस्लामी की रहबरी के इलावा दीनो दुनिया के तमाम उमूर में लोगो की हिदायत करना भी इमाम की ज़िम्मेदारी में शामिल है। इमाम लोगों की रूही व फ़िक्री हिदायत करते हुए पैग़म्बरे इस्लाम(स.)की शरीयत को हर तरह की तहरीफ़ से बचाता है और पैग़म्बरे इस्लाम (स.)को जिन मक़ासिद के तहत मंबूस किया गया था उनको मुहक़्क़क़ करता है।

यह वह बलन्द मंसब है ,जो अल्लाह ने हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को नबूवत व रिसालत की मनाज़िल तय करने के बाद ,मुताद्दिद इम्तेहान ले कर अता किया और यह वह मंसब है जिस के लिए हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने दुआ की थी कि पालने वाले यह मंसब मेरी औलाद को भी अता करना और उन को इस दुआ का जवाब यह मिला कि यह मंसब ज़ालिमों और गुनाहगारों को नही मिल सकता। “व इज़ इबतला इब्राहीमा रब्बहु बिकलिमातिन फ़अतम्मा हुन्ना क़ाला इन्नी जाइलुका लिन्नासि इमामन क़ाला व मिन ज़ुर्रियति क़ाला ला यना 3लु अहदि अज़्ज़ालिमीना ”[128]यानी उस वक़्त को याद करो जब इब्राहीम के रब ने चन्द कलमात के ज़रिये उनका इम्तेहान लिया और जब उन्होंने वह इम्तेहान तमाम कर दिया तो उन से कहा गया कि हम ने तुम को लोगों का इमाम बना दिया ,जनाबे इब्राहीम ने अर्ज़ किया और मेरी औलाद ? (यानी मेरी औलाद को भी इमाम बनाना)अल्लाह ने फ़रमाया कि मेरा यह मंसब(इमामत) ज़ालिमों तक नही पहुँचता ( यानी आप की ज़ुर्रियत में से सिर्फ़ मासूमीन को हासिल हो गा।

ज़ाहिर है कि इतना अज़ीम मंसब सिर्फ़ ज़ाहिरी हुकूमत तक महदूद नही है ,और अगर इमामत की इस तरह तफ़्सीर न की जाये तो मज़कूरह आयत का कोई मफ़हूम ही बीक़ी नही रह जायेगा।

हमारा अक़ीदह है कि तमाम उलुल अज़्म पैग़म्बर मंसबे इमामत पर फ़ाइज़ थे। उन्होंने अपनी जिस रिसालत का इबलाग़ किया उस को अपने अमल के ज़रिये मुहक़्क़क़ किया ,वह लोगों के मानवी व माद्दी और ज़ाहिरी व बातिनी रहबर रहे। मख़सूसन पैग़म्बरे इस्लाम (स.) अपनी नबूवत के आग़ाज़ से ही इमामत के अज़ीम मंसब पर भी फ़ाइज़ थे लिहाज़ उन के कामों को सिर्फ़ अल्लाह के पैग़ाम को पहुँचाने तक ही महदूद नही किया जा सकता।

हमारा अक़ीदा है कि पैग़म्बर (स.)के बाद सिलसिला-ए- इमामत आप की मासूम नस्ल में बाक़ी रहा। मस्ल-ए- इमामत के सिलसिले में ऊपर जो वज़ाहत की गई उस से यह बात ज़ाहिर हो जाती है कि इस मंसाबे इमामत पर फ़ाइज़ होने के लिए शर्ते बहुत अहम हैं यानी असमत व इल्मो दानिश ,तमाम मआरिफ़े दीनी का इहाता ,हर ज़मान व मकान में इंसानों व उन की ज़रूरतों की शनाख़्त।

46-इमाम गुनाह व ख़ता से मासूम होता है

इमाम के लिए ज़रूरी है कि वह ख़ता व गुनाह से मासूम हो ,क्यों कि ग़ैरे मासूम न बतौरे कामिल मौरिदे एतेमाद बन सकता है और न ही उस से उसूले दीन व फ़रूए दीन को हासिल किया जा सकता है। इसी वजह से हमारा अक़ीदह है कि इमाम का “क़ौल ” “फ़ेअल ”व “तक़रीर ”हुज्जत है और दलीले शरई शुमार होते हैं। “तक़रीर ” से मुराद यह है कि इमाम के सामने कोई काम अंजाम दिया जाये और इमाम उस काम को देखने के बाद उस से मना न करे तो इमाम की यह ख़ामोशी इमाम की ताईद शुमार होती है।

47-इमाम शरियत का पासदार होता है।

हमारा अक़ीदह है कि इमाम अपने पास से कोई क़ानून या शरियत पेश नही करता बल्कि इमाम का काम पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की शरियत की हिफ़ाज़ ,दीन की तबलीग़ व तालीम और लोगों को इस की तरफ़ हिदायत करना है।

48-इमाम इस्लाम को सबसे ज़्यादा जानने वाला होता है।

हमारा अक़ीदह है कि इमाम इस्लाम के तमाम उसूल व फ़रूए ,अहकाम ,क़वानीन ,क़ुरआने करीम के मअना व तफ़्सीर का मुकम्मल तौर पर आलिम होता है ,और यह तमाम उलूम इमाम को अल्लाह की तरफ़ से हासिल होते हैं और पैग़म्बरे इस्लाम के वसीले से उन तक पहुँचते हैं।

हाँ ऐसा ही इल्म मुकम्मल तौर पर मौरिदे एतेमाद बन सकता है और इस के ज़रिये ही इस्लाम के हक़ाइक़ को समझा जा सकता है।

49-इमाम को मनसूस होना चाहिए

हमारा अक़ीदह है कि इमाम (पैगम्बरे इस्लाम स. का जानशीन)मनसूस होना चाहिए। यानी इमाम का ताय्युन पैग़म्बरे इस्लाम(स.)की नस व तस्रीह के ज़रिये हो और इसी तरह हर इमाम की नस व तस्रीह अपने बाद वाले इमाम के लिए हो। दूसरे अल्फ़ाज़ में इमाम का ताय्युन भी पैग़म्बर की तरह अल्लाह की तरफ़ से (पैग़म्बर के ज़रिये) होता है। जैसा कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की इमामत के सिलसिले में क़ुरआने करीम में बयान किया गया है। “इन्नी जाइलुका लिन्नासि इमामन ”यानी मैनें तुम को लोगों का इमाम बनाया।

इस के इलावा असमत और इल्म का वह बलन्द दर्जा (जो किसी ख़ता व ग़लती के बग़ैर तमाम अहकाम व तालीमात इलाही का इहाता किये हो)ऐसी चीज़ें हैं जिन से अल्लाह व उस के पैग़म्बर के इलावा कोई आगाह नही है।

इस बिना पर हम आइम्मा-ए-मासूमीन अलैहिम अस्सलाम की इमामत को लोगों के इंतेख़ाब के ज़रिये नही मानते।

50-आइम्मा पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के ज़रिये मुऐय्यन हुए है।

हमारा अक़ीदह है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.)ने अपने बाद के लिए इमामों को मुऐय्यन फ़रमाया है और एक मक़ाम पर बतौरे उमूम मोर्रफ़ी कराई है।

सही मुस्लिम मे रिवायत है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.)ने मक्के और मदीने के दरमियान “खुम ” नामी सरज़मीन पर तवक़्क़ुफ़ किया ,एक ख़ुत्बा बयान किया और उस के बाद फ़रमायाकि “मैं जल्द ही तुम लोगों के दरमियान से जाने वाला हूँ इन्नी तारिकुन फ़ीकुम अस्सक़लैन ,अव्वलुहुमा किताबल्लाहि फ़ीहि अलहुदा व अन्नूर ........व अहला बैती ,उज़क्किर कुम अल्लाहा फ़ी अहलि बैति ” [129]यानी मैं तुम लोगों के दरमियान दो गराँ क़द्र चीज़े छोड़ कर जा रहा हूँ इन में से एक अल्लाह की किताब है जिस में नूर और हिदायत है.....और दूसरे मेरे अहले बैत हैं मैं तुम को वसीयत करता हूँ कि ख़ुदारा मेरे अहले बैत को फ़रामोश न करना (इस जुम्ले को तीन बार तकरार किया)

यही मतलब सही तिरमिज़ी में भी बयान हुआ है और उसमें सराहत के ,साथ बयान किया गया है कि पैग़म्बरे इसलाम ने फ़रमाया कि अगर इन दोनों के दामन से वाबस्ता रहे तो हर गिज़ गुमराह नही होंगे। [ 130]यह हदीस सुनने दारमी ,ख़साइसे निसाई ,मुस्नदे अहमद व दिगर मशहूर किताबों में नक़्ल हुई है। इस हदीस में कोई तरदीद नही है और हदीसे तवातुर शुमार होती है कोई भी मुसलमान इस हदीस से इंकार नही कर सकता। रिवायात में मिलता है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने इस हदीस को सिर्फ़ एक बार ही नही बल्कि मुताद्दिद मर्तबा मुख़्तलिफ़ मौक़ों पर बयान फ़रमाया।

ज़ाहिर है कि पैग़म्बरे इस्लाम के तमाम अहले बैत तो क़ुरआन के साथ यह बलन्द व बाला मक़ाम हासिल नही कर सकते लिहाज़ा यह इशारा फ़क़त पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की ज़ुर्रियत से आइम्मा-ए-मासूमीन अलैहिमु अस्सलाम की तरफ़ ही है। (कुछ ज़ईफ़ व मशकूक हदीसों में अहला बैती की जगह सुन्नती इस्तेमाल हुआ है।)

हम एक दूसरी हदीस के ज़रिये जो सही बुख़ारी ,सही मुस्लिम ,सही तिरमिज़ी ,सही अबी दाऊद व मुसनदे हंबल जैसी मशहूर किताबों में नक़्ल हुई है इस्तेनाद करते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.)ने फ़रमाया कि “ला यज़ालु अद्दीनु क़ाइमन हत्ता तक़ूमा अस्साअता अव यकूनु अलैकुम इस्नता अशरा ख़लीफ़तन कुल्लुहुम मिन क़ुरैश ”[131]यानी दीने इस्लाम क़ियामत तक बाक़ी रहेगा यहाँ तक कि बारह ख़लीफ़ा तुम पर हुकूमत करेंगे और यह सब के सब क़ुरैश से होंगे।

हमारा अक़ीदह है कि इन रिवायतों के लिए उस अक़ीदेह के अलावा जो शिया इमामियह का बारह इमामों के बारे में पाया जाता है कोई दूसरी तफ़्सीर क़ाबिले क़बूल नही है। ग़ौर करो कि क्या इस के अलावा भी और कोई तफ़्सीर हो सकती है।

51-हज़रत अली अलैहिस्सलाम पैग़म्बरे इस्लाम(स.)के ज़रिये नस्ब हुए।

हमारा अक़ीदह है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.)ने बहुत से मौक़ों पर हज़रत अली अलैहिस्सलाम को (अल्लाह के हुक्म से)अपने जानशीन की शक्ल में पहचनवाया है। ख़ास तौर पर आखरी हज से लौटते वक़्त ग़दीरे ख़ुम में असहाब के अज़ीम मजमें में एक ख़ुत्बा बयान फ़रमाया जिसका मशहूर जुम्ला है कि “अय्युहा अन्नास अलस्तु औवला बिकुम मिन अनफ़ुसिकुम क़ालू बला ,क़ाला मन कुन्तु मौलाहु फ़अलीयुन मौलाहु ”[132]यानी ऐ लोगो क्या मैं तुम्हारे नफ़्सों पर तुम से ज़्यादा हक़्क़े तसर्रुफ़ नही रखता हूँ ?सबने एक जुट हो कर कहा हाँ आप हमारे नफ़्सों पर हम से ज़्यादा हक़ रखते हैं। पैग़म्बर (स.)ने फ़रमाया बस जिस जिस का मैं मौला हूँ उस उस के अली मौला हैं।

क्योँ कि हमारा मक़सद इस अक़ीदेह की दलीलें बयान करना या इस के बारे में बहस करना नही है इस लिए बस इतना कहते हैं कि न इस हदीस से सादगी के साथ गुज़रा जा सकता है और न ही यहाँ पर उस विलायत से दोस्ती व सीधी सादी मुहब्बत को मुराद लिया जा सकता है जिसको पैग़म्बरे इस्लाम (स.)ने इतने बड़े इंतज़ाम और तकीद के साथ बयान फ़रमाया हो।

क्या यह वही चीज़ नही है जिसको इब्ने असीर ने कामिल में लिखा है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.)ने इब्तदा-ए- कार में जब आयते “व अनज़िर अशीरतकल अक़रबीना ” (यानी अपने क़रीबी रिश्तेदारों को डराओ।) नाज़िल हुई तो अपने रिश्तेदारों को जमा किया और उनके सामने इस्लाम को पेश किया और इसके बाद फ़रमाया “अय्युकुम युवाज़िरुनी अला हाज़ल अम्रि अला अन यकूना अख़ी व वसीय्यी व ख़लीफ़ती फ़ी कुम ”यानी तुम में से कौन हौ जो इस काम में मेरी मदद करे ताकि वह तुम्हारे दरमियान मेरा भाई ,वसी व ख़लीफ़ा बने।

किसी ने भी पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के इस सवाल का जवाब नही दिया ,बस अली (अ)ही थे जिन्होंने कहा कि “अना या नबी अल्लाह अकूनु वज़ीरुका अलैहि ” यानी ऐ अल्लाह के नबी इस काम में मैं आपकी मदद करूँगा।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.)ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम की तरफ़ इशारा किया और फ़रमाया “इन्ना हज़ा अख़ी व वसिय्यी व ख़लीफ़ती फ़ा कुम ”[133]यानी यह नौ जवान (अली अ.) तुम्हारे दरमियान मेरा भाई ,मेरा वसी व मेरा ख़लीफ़ा है।

क्या यह वही मतलब नही है जिस के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम अपनी उम्र के आख़री हिस्से में चाहते थे कि इसकी दूबारा ताकीद करें ,और जैसा कि सही बुख़ारी में है कि आपने फ़रमाया “इतूनी अकतुबु लकुम किताबन लन तज़िल्लू बअदी अबदन ” [134]यानी कलम व काग़ज़ लाओ मैं तुम्हारे लिए कुछ लिख दूँ ताकि तुम मेरे बाद हर गिज़ गुमराह न हो सको। हदीस के आख़िर में बयान हुआ है कि कुछ लोगों ने इस काम में पैग़म्बर (स.)की मुख़ालेफ़त की यहाँ तक कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.)को तौहीन आमेज़ बातें कहीँ और आप जो लिखना चाहते थे वह आपको लिखने नही दिया गया।

हम इस बात की फिर तकरार करते हैं कि हमारा मक़सद मामूली से इस्तदलाल के साथ अक़ाइद को बयान करना है। न कि इस के बारे में पूरी बहस करना वरना यह दूसरी शक्ल इख़्तियार कर लेगी।

52-हर इमाम की अपने से बाद वाले इमाम के लिए ताकीद

हमारा अक़ीदह है कि बारह इमामों में से हर इमाम इमाम के लिए उन से पहले इमाम ने ताकीद फ़रमाई है। इन में से पहले इमाम हज़रत अली अलैहिस्सलाम उनके बाद उन के दोनों बेटे हज़रत इमाम हसने मुजतबा (अ.)व हज़रत इमाम हुसैन सैय्यदुश शौहदा (अ.)उनके बाद उन के बेटे हज़रत इमाम अली बिन हुसैन(अ.)उन के बाद उन के बेटे हज़रत इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.)उन के बाद उन के बेटे हज़रत इमाम जअफ़र सादिक़ (अ.)उन के बाद उन के बेटे हज़रत इमाम मूसा काज़िम (अ.)उन के बाद उन के बेटे हज़रत इमाम अली रिज़ा (अ.)उन के बाद उन के बेटे हज़रत इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.)उनके बाद उन के बेटे हज़रत अली नक़ी (अ.)उनके बाद उन के बेटे हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ.)उनके बाद उन के बेटे हज़रत महदी अलैहिस्सलाम हैं और उन के लिए हमारा अक़ीदह है कि वह ज़िन्दा हैं।

अलबत्ता हज़रत महदी (अज.)के वुजूद के -जो कि इस दुनिया को अद्ल व इंसाफ़ से भरेंगे जिस तरह यह ज़ुल्म व सितम से भर चुकी होगी- सिर्फ़ हम ही मोतक़िद नही हैं बल्कि उन पर तमाम मुस्लमानों का अक़ीदह है। कुछ सुन्नी उलमा ने महदी (अज)की रिवायतों के मुतावातिर होने के बारे में किताबें भी लिखी हैं। यहाँ तक कि कुछ साल पहले “राबिततुल आलमुल इस्लामी ” की तरफ़ से शाये होने वाले एक रिसाले में हज़रत महदी के वुजूद से मरबूत पूछे गये एक सवाल के जवाब में लिखा गया कि महदी (अज)का ज़हूर मुसल्लम है। और इसके लिए हज़रत महदी (अज)से मरबूत पैग़म्बर (स.)की हदीसों को बहुत सी मशहूर किताबों से नक़्ल किया।[ 135]कुछ लोग हज़रत महदी अलैहिस्सलाम के बारे में यह अक़ीदह रखते हैं कि वह आख़िरी ज़माने में पैदा होंगे।

लेकिन हमारा अक़ीदह है कि वह बीरहवें इमाम हैं और अभी तक ज़िन्दा हैं और जब अल्लाह चाहेगा वह उस के हुक्म से ज़मीन को ज़ुल्म व सितम से पाक करने व अदले इलाही की हुकूमत क़ाइम करने के लिए क़ियाम करेंगे।

53-हज़रत अली अलैहिस्सलाम तमाम सहाबा से अफ़ज़ल थे।

हमारा अक़ीदह है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम तमाम सहाबा से अफ़ज़ल थे और पैग़म्बरे इस्लाम के बाद उम्मते इस्लामी में उनको औलवियत हासिल थी। लेकिन इन सब के बावुजूद उन के बारे में हर तरह के ग़ुलू को हराम मानते हैं। हमारा अक़ीदह है कि जो हज़रत अली अलैहिस्सलाम की ख़ुदाई या इस से मुशाबेह किसी दूसरी चीज़ के क़ाइल हैं वह काफ़िर हैं और इस्लाम से ख़ारिज हैं और हम उन के अक़ीदे से बेज़ार हैं। अफ़सोस है कि उन का नाम शियों के नाम के साथ लिया जाता है जिस से बहुत से इस बारे में बहुत सी ग़लत फ़हमियाँ पैदा हो गई हैं। जबकि उलमा-ए-शिया इमामियह ने अपनी किताबों में इस गिरोह को ख़ारिज अज़ इस्लाम ऐलान किया है।

54-सहाबा अक़्ल व तारीख़ की दावरी में

हमारा अक़ीदह है कि पैग़म्बरे इस्लाम के असहाब में बहुत से लोग बड़े फ़िदाकार बुज़ुर्ग मर्तबा व बाशख़्सियत थे। क़ुरआने करीम व इस्लामी रिवायतों में उनकी फ़ज़ीलतो का ज़िक्र मौजूद हैं।लेकिन इस का मतलब यह नही है कि पैग़म्बर इस्लाम (स.)के तमाम साथियों को मासूम मान लिया जाये और उनके तमाम आमाल को सही तस्लीम कर लिया जाये। क्योँ कि क़ुरआने करीम ने बहुत सी आयतों में (जैसे सूरए बराअत की आयतें ,सूरए नूर व सूरए मुनाफ़ेक़ून की आयतें) मुनाफ़ेक़ीन के बारे में बाते की हैं जबकि यह मुनाफ़ेक़ीन ज़ाहेरन पैग़म्बर इस्लाम(स.)के असहाब ही शुमार होते थे जबकि क़ुरआने करीम ने उनकी बहुत मज़म्मत की है। कुछ असहाब ऐसे थे जिन्होने पैग़म्बरे इस्लाम के बाद मुस्लमानों के दरमियान जंग की आग को भड़काया ,इमामे वक़्त व ख़लीफ़ा से अपनी बैअत को तोड़ा और हज़ारों मुसलमानों का खून बहाया। क्या इन सब के बावुजूद भी हम सब सहाबा को हर तरह से पाक व मुनज़्जह मान सकते हैं ?

दूसरे अलफ़ाज़ में जंग करने वाले दोनों गिरोहों को किस तरह पाक मान जा सकता है(मसलन जंगे जमल व जंगे सिफ़्फ़ीन के दोनों गिरोहों को पाक नही माना जा सकता) क्योँ कि यह तज़ाद है और यह हमारे नज़दीक क़ाबिले क़बूल नही है। वह लोग जो इस की तौजीह में “इज्तेहाद ” को मोज़ू बनाते हैं और उस पर तकिया करते हुए कहते हैं कि दोनों गिरोहों में से एक हक़ पर था और दूसरा ग़लती पर लेकिन चूँकि दोनों ने अपने अपने इज्तेहाद से काम लिया लिहाज़ा अल्लाह के नज़दीक दोनो माज़ूर ही नही बल्कि सवाब के हक़दार हैं ,हम इस क़ौल को तसलीम नही करते।

इज्तेहाद को बहाना बना कर पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के जानशीन से बैअत तोड़ कर ,आतिशे जंग को भड़का कर बेगुनाहों का खून किस तरह बहाया जा सकता है। अगर इन तमाम ख़ूँरेज़ियों की इज्तेहाद के ज़रिये तौजीह की जा सकती है तो फ़िर कौनसा काम बचता है जिसकी तौजीह नही हो सकती।

हम वाज़ेह तौर पर कहते हैं कि हमारा अक़ीदह यह है कि तमाम इंसान यहाँ तक कि पैग़म्बरे इस्लाम (सल.)के असहाब भी अपने आमाल के तहत हैं और क़ुरआने करीम की कसौटी “इन्ना अकरमा कुम इन्दा अल्लाहि अतक़ा कुम ” [136](यानी तुम में अल्लाह के नज़दीक वह गरामी है जो तक़वे में ज़्यादा है।)उन पर भी सादिक़ आती है। लिहाज़ा हमें उनका मक़ाम उनके आमाल के मुताबिक़ तैय करना चाहिए और इस तरह हमें मंतक़ी तौर पर उन के बारे में कोई फ़ैसला करना चाहिए। लिहाज़ा हमें कहना चाहिए कि वह लोग जो पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के ज़माने में मुख़लिस असहाब की सफ़ में थे और पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के बाद भी इस्लाम की हिफ़ाज़त की कोशिश करते रहे और क़ुरआन के साथ किये गये अपने पैमान को वफ़ा करते रहे उन्हें अच्छा मान ना चाहिए और उनकी इज़्ज़त करनी चाहिए।

और वह लोग जो पैग़म्बरे इस्लाम(स.)के ज़माने में मुनाफ़ेक़ीन की सफ़ में थे और हमेशा ऐसे काम अंजाम देते थे जिन से पैग़म्बरे इस्लाम (स.)का दिल रंजीदा होता था। या जिन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम(स.)के बाद अपने रास्ते को बदल दिया और ऐसे काम अंजाम दिये जो इस्लाम और मुसलमानों के नुक़्सान दे साबित हुए ,ऐसे लोगों से मुहब्बत न की जाये। क़ुरआने करीम फ़रमाता है कि “ला तजिदु क़ौमन युमिनूना बिल्लाहि वअलयौमिल आख़िरि युआद्दूना मन हाद्दा अल्लाहा व रसूलहु व लव कानू आबाअहुम अव अबनाअहुम अव इख़वानहुम अव अशीरतहुम ऊलाइका कतबा फ़ी क़ुलूबिहिम अलईमाना ” [137]यानी तुम्हें कोई ऐसी क़ौम नही मिलेगी जो अल्लाह व आख़िरत पर ईमान लेआने के बाद अल्लाह व उसके रसूल की नाफ़रमानी करने वालों से मुब्बत करती हो ,चाहे वह (नाफ़रमानी करने वाले)उनके बाप दादा ,बेटे ,भाई या ख़ानदान वाले ही क्य़ोँ न हो ,यह वह लोग हैं जिनके दिलों में अल्लाह ने ईमान को लिख दिया है।

हाँ हमारा अक़ीदह यही है कि वह लोग जिन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम (स.)को उनकी ज़िन्दगी में या शहादत के बाद अज़ीयतें पहुँचाईँ है क़ाबिले तारीफ़ नही हैं।

लेकिन यह हर गिज़ नही भूलना चाहिए कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के कुछ आसहाब ने इस्लाम की तरक़्क़ी की राह में में बहुत क़ुरबानियाँ दी हैं और वह अल्लाह की तरफ़ से मदह के हक़ दार क़रार पायें हैं। इसी तरह वह लोग जो पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के बाद इस दुनिया में आयें या जो क़ियामत तक पैदा होगें अगर वह पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के सच्चे असहाब की राह पर चले तो वह भी लायक़े तारीफ़ हैं। क़ुरआने करीम फ़रमाता है कि “अस्साबिक़ूना अलअव्वलूना मीन अलमुहाजीरीना व अलअनसारि व अल्ल़ज़ीना अत्तबऊ हुम बिएहसानिन रज़िया अल्लाहु अनहुम व रज़ू अनहु ” [138]यानी मुहाजेरीन व अनसार में से पहली बार आगे बढ़ने वाले और वह लोग जिन्होंने उनकी नेकियों में उनकी पैरवी की अल्लाह उन से राज़ी हो गया और वह अल्लाह से राज़ी हो गये।

यह पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के असहाब के बारे में हमारे अक़ीदेह का निचौड़ है।

55-आइम्मा-ए-अहले बैत (अ.)का इल्म पैग़म्बर (स.)का इल्म है।

मुतावातिर रिवायात की बिना पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.)ने क़ुरआन व अहलेबैत अलैहिमुस् सलाम के बारे में हमें जो हुक्म दिया हैं कि इन दोंनों के दामन से वाबस्ता रहना ताकि हिदायत पर रहो इस की बिना पर और इस बिना पर कि हम आइम्मा-ए- अहले बैत अलैहिमुस् सलाम को मासूम मानते हैं और उनके तमाम आमाल व अहादीस हमारे लिए संद व हुज्जत हैं ,इसी तरह उनकी तक़रीर भी (यानी उनके सामने कोई काम अंजाम दिया गया हो और उन्होंने उस से मना न किया हो) क़ुरआने करीम व पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की सीरत के बाद हमारे लिए फ़िक़्ह का मंबा है।

और जब भी हम इस नुक्ते पर तवज्जोह करते हैं कि बहुत सी मोतेबर रिवायतों की बिना पर आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिमुस् सलाम ने फ़रमाया है कि हम जो कुछ बयान करते हैं सब कुछ पैग़म्बरे इस्लाम(स.)का बयान किया हुआ है जो हमारे बाप दादाओं के ज़रिये हम तक पहुँचा है। इस से यह बात ज़ाहिर हो जाती है कि इनकी रिवायतें पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की रिवायतें हैं। और हम सब जानते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.)से नक़्ल की गई मौरिदे ऐतेमाद व सिक़ा शख़्स की रिवायतें तमाम उलमा-ए- इस्लाम के नज़दीक क़ाबिले क़बूल हैं।

इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम ने जाबिर से फ़रमाया है कि “या जाबिरु इन्ना लव कुन्ना नुहद्दिसुकुम बिरायना व हुवा अना लकुन्ना मीनल हासीकीना ,व लाकिन्ना नुहद्दिसु कुम बिअहादीसा नकनिज़ुहा अन रसूलि अल्लाहि (स.) ”[139]यानी ऐ जाबिर अगर हम अपनी मर्ज़ी से हवा-ए- नफ़्स के तौर पर कोई हदीस तुम से बयान करें तो हलाक होने वालों में से हो जायेंगे। लेकिन हम तुम से वह हदीसें बयान करते हैं जो हम ने पैग़म्बरे इस्लाम (सल.)से ख़ज़ाने की तरह जमा की हैं।

इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम की एक हदीस में मिलता है कि किसी आप से सवाल किया आपने उसको उसके सवाल का जवाब अता किया वह इमाम से अपने नज़रिये को बदलने के लिए कहने लगा और आप से बहस करने लगा तो इमाम ने उस से फ़रमाया कि इन वातों को छोड़ “मा अजबतुका फ़ीहि मिन शैइन फ़हुवा अन रसूलिल्लाहि ”यानी मैने जो जवाब तुझ को दिया है इस में बहस की गुँजाइश नही है क्योँ कि यह रसूलुल्लाह(स.)का बयान फ़रमाया हुआ है। [ 140]

अहम व क़ाबिले तवज्जोह बात यह है कि हमारे पास हदीस की काफ़ी ,तहज़ीब ,इस्तबसार व मन ला यहज़ुरुहु अलफ़क़ीह बग़ैरह जैसी मोतबर किताबें मौजूद हैं। लेकिन इन किताबों के मोतबर होने का मतलब यह नही है कि जो रिवायतें इन में मौजूद हैं हम उन सब को क़बूल करते हैं। बल्कि इन रिवायतों को परखने के लिए हमारे पास इल्मे रिजाल की किताबें मौजूद है जिन में रावियों के तमाम हालात व सिलसिला-ए-सनद बयान किये गये हैं। हमारी नज़र में वही रिवायत क़ाबिले क़बूल है जिस की सनद में तमाम रावी क़ाबिले ऐतेमाद व सिक़ह हों। इस बिना पर अगर कोई रिवायत इन किताबों में भी हो और उसमें यह शर्तें न पाई जाती हों ते वह हमारे नज़दीक क़ाबिले क़बूल नही है।

इस के अलावा ऐसा भी मुमकिन है कि किसी रिवायत का सिलसिला-ए-सनद सही हो लेकिन हमारे बुज़ुर्ग उलमा व फ़क़ीहों ने शुरू से ही उस को नज़र अंदाज़ करते हुए उस से परहेज़ किया हो (शायद उस में कुछ और कमज़ोरियाँ देखी हों)हम ऐसी रिवायतों को “मोरज़ अन्हा ”कहते हैं और ऐसी रिवायतों का हमारे यहाँ कोई एतेबार नही है।

यहाँ से यह बात रौशन हो जाती है कि जो लोग हमारे अक़ीदों को सिर्फ़ इन किताबों में मौजूद किसी रिवायत या रिवायतों का सहारा ले कर समझने की कोशिश करते हैं ,इस बात की तहक़ीक़ किये बिना कि इस रिवायत की सनद सही है या ग़लत ,तो उनका यह तरीका-ए-कार ग़लत है।

दूसरे लफ़्ज़ों में इस्लाम के कुछ मशहूर फ़्रिक़ों में कुछ किताबें पाई जाती हैं जिनको सही के नाम से जाना जाता है ,जिनके लिखने वालों ने इन में बयान रिवायतों के सही होने की ज़मानत ली है और दूसरे लोग भी उनको सही ही समझते हैं। लेकिन हमारे यहाँ मोतबर किताबों का मतलब यह हर गिज़ नही है ,बल्कि यह वह किताबें है जिनके लिखने वाले मोरिदे एतेमाद व बरजस्ता शख़्सियत के मालिक थे ,लेकिन इन में बयान की गई रिवायात का सही होना इल्मे रिजाल की किताबों में मज़कूर रावियों के हालात की तहक़ीक़ पर मुनहसिर है।

ऊपर बयान की गई बात से हमारे अक़ाअइद के बारे में उठने वाले बहुत से सवालों के जवाब ख़ुद मिल गये होगें। क्योँ कि इस तरह की ग़फ़लत के सबब हमारे अक़ाइद को तशख़ीस देने में बहुत सी ग़लतियाँ की जाती हैं।

बहर हाल क़ुरआने करीम की आयात ,पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की रिवायात के बाद आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिमुस् सलाम की अहादीस हमारी नज़र में मोतबर है इस शर्त के साथ कि इन अहादीस का इमामों से सादिर होने मोतबर तरीक़ों से साबित हो।

छटा हिस्सा

मसाइले मुतफ़र्रिक़

इस किताब के गुज़िश्ता हिस्सों में जो बहसें की गई हैं ,वह उसूले दीन में हमारे अक़ीदों को रौशन करती है। हमारे अक़ीदों की कुछ और भी ख़ुसूसयात है जो हम इस हिस्से में बयान कर रहे हैं।

56-हुस्न व क़ुब्हे अक़ली का मसअला

हमारा अक़ीदह है कि इंसान की अक़्ल बहुत सी चीज़ों के हुस्न व क़ुब्ह (अच्छाई व बुराई )को समझती है। और यह उस ताक़त की बरकत से है जो अल्लाह ने इंसान को अच्छे और बुरे में तमीज़ करने के लिए अता की है। यहाँ तक की आसमानी शरीयत के नुज़ूल से पहले भी इंसान के लिए मसाइल का कुछ हिस्सा अक़्ल के ज़रिये रौशन था जैसे नेकी व अदालत की अच्छाई ,ज़ुल्म व सितम की बुराई ,अख़लाक़ी सिफ़ात जैसे सदाक़त ,अमानत ,शुजाअत ,सख़ावत और इन्हीं के मिस्ल दूसरी सिफ़तों की अच्छाईयाँ ,इसी तरह झूट ,ख़ियानत ,कंजूसी और इन्हीँ के मानिंद दूसरे ऐबों की बुराईयाँ वग़ैरह ऐसे मसाइल हैं जिन को इंसान की अक़्ल बहुत अच्छे तरीक़े से समझती है। अब रही यह बात कि अक़्ल तमाम चीज़ों के हुस्न व क़ुब्ह को समझने की सलाहियत नही रखती और इंसान की मालूमात महदूद है ,तो इस के लिए अल्लाह ने दीन ,आसमानी किताबों व पैग़म्बरों को भेजा ताकि वह इस काम को पूरा करें अक़्ल जिस चीज़ को दर्क करती है उसकी ताईद करे और अक़्ल जिन चीज़ों को समझने से आजिज़ है उनको रौशन करे।

अगर हम अक़्ल की ख़ुदमुखतारी को कुल्ली तौर पर मना करदें तो मस्ला-ए-तौहीद ,खुदा शनासी ,पैग़म्बरों की बेअसत व आसमानी अदयान का मफ़हूम की ख़त्म हो जाता है क्योँ कि अल्लाह के वुजूद और अम्बिया की दवत की हक़्क़ानियत का इसबात करना अक़्ल के ज़रिये ही मुमकिन है। ज़ाहिर है कि शरीअत के तमाम फ़रमान उसी वक़्त क़ाबिले क़बूल हैं जब यह दोनों मोजू (तौहीद व नबूवत)पहले अक़्ल के ज़रिये साबित हों जायें और इन दोनों मोज़ू को तनहा शरीअत के ज़रिये साबित करना नामुमकिन है।

57-अद्ले इलाही

इसी बिना पर हम अल्लाह के अद्ल के मोतक़िद हैं और कहते हैं कि यह मुहाल है कि अल्लाह अपने बन्दों पर ज़ुल्म करे ,किसी दलील के बग़ैर किसी को सज़ा दे या माफ़ कर दे ,अपने वादे को वफ़ा न करे ,किसी गुनाहगार व ख़ताकार इंसान को अपनी तरफ़ से मंसबे नबूवत मंसूब करे और अपने मोजज़ात उसके इख़्तियार में दे।

और यह भी मुहाल है कि उस ने अपने जिन बन्दों को राहे सआदत तैय करने के लिए ख़ल्क़ किया है ,उन को किसी राहनुमा या रहबर के बग़ैर छोड़ दे। क्योँ कि यह सब काम क़बीह (बुरे )हैं और अल्लाह के लिए बुरे काम अंजाम देना रवाँ नही हैं।

58-इंसान की आज़ादी

इसी बिना पर हमारा अक़ीदह यह है कि अल्लाह ने इंसान को आज़ाद पैदा किया है । इंसान अपने तमाम कामों को अपने इरादे व इख़्तेयार के साथ अंजाम देता हैं। अगर हम इंसान के कामों में जब्र के क़ाईल हो जायें तो बुरे लोगों को सज़ा देना उन पर ज़ुल्म ,और नेक लोग़ों को इनआम देना एक बेहूदा काम शुमार होगा और यह काम अल्लाह की ज़ात से मुहाल है।

हम अपनी बात को कम करते हैं और सिर्फ़ यह कहते हैं कि हुस्न व क़ुब्हे अक़ली को क़बूल करना और इंसान की अक़्ल को ख़ुद मुख़्तार मानना बहुत से हक़ाइक़ ,उसूले दीन व शरीअत ,नबूवते अम्बिया व आसमानी किताबों के क़बूल के लिए ज़रूरी है। लेकिन जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि इंसान की समझने की सलाहियत व मालूमात महदूद है लिहाज़ा सिर्फ़ अक़्ल के बल बूते पर उन तमाम हक़ाइक़ को समझना- जो उसकी सआदत व तकामुल से मरबूत हैं- मुमकिन नही है। इसी वजह से इंसान को तमाम हक़ाइक़ को समझने के लिए पैग़म्बरों व आसमानी किताबों की ज़रूरत है।

59-फ़िक़्ह का एक आधार अक़्ली दलील भी है

जो कुछ ऊपर बयान किया गया है उसकी बुनियाद पर हमारा अक़ीदह है कि दीने इस्लाम के असली मनाबे (आधारों)में से एक चीज़ अक़्ली दलील भी है। अक़्ली दलील से यहाँ पर यह मुराद है कि पहले अक़्ल किसी चीज़ को यक़ीनी तौर पर समझे फिर उसके बारे में फ़ैसला करे। मसलन फ़र्ज़ करो कि अगर किताब व सुन्नत में ज़ुल्म व ख़ियानत ,झूट ,क़त्ल ,माल को चुराने व दूसरों के हक़ को पामाल करने के हराम होने के बारे में कोई दलील मौजूद न होती तो हम अक़्ल के ज़रिये इन कामों को हराम क़रार देते और यक़ीन करते कि आलिम व हकीम अल्लाह ने इन चीज़ों को हमारे लिए हराम क़रार दिया है और वह इन कामों को अंजाम देने पर हरगिज़ राज़ी नही है और यह हमारे लिए अल्लाह की एक हुज्जत होती।

क़ुरआने करीम ऐसी आयतों से पुर है जिन में अक़्ल व अक़्ली दलीलों की अहमियत को बयान किया गया है। जैसे- क़ुरआने करीम राहे तौहीद को तैय कराने के लिए साहिबाने अक़्ल व फ़हम को ज़मीन व आसमान में मौजूद अल्लाह की आयतों पर ग़ौर करने की दावत देता है “इन्ना फ़ी ख़ल्क़ि अस्सलावाति व अलअर्ज़ी व इख़्तिलाफ़ि अल्लैलि व अन्नहारि लआयातिन लिउलिल अलबाबि ” [141]यानी ज़मीन व आसमान की ख़िल्क़त और दिन व रात के बदल ने में साहिबाने अक़्ल के लिए बहुत सी निशानियाँ हैं।

दूसरी तरफ़ क़ुरआने करीम आयाते इलाही को बयान करने का मक़सद इंसान के अक़्ल व फ़हम को बढ़ाना बता रहा है जैसे- “उनज़ुर कैफ़ा नुसर्रिफ़ु अलआयाति लअल्लाहुम यफ़क़हूना ” [142]यानी देखो हम आयात को किस तरह मुख़्तलिफ़ ताबीरों के साथ बयान करते हैं ताकि वह समझ जायें।

तीसरी तरफ़ क़ुरआने करीम तमाम इंसानों को नेकी व बदी में तमीज़ करने की दावत दे कर उन को ग़ौर व फ़िक्र की राह पर गामज़न कर रहा है। जैसे- “क़ुल हल यस्तवी अलआमा व अलबसीरो अफ़ला ततफ़क्करूना ” [143]यानी क्या अंधे व देखने वाले (नादान व दाना)बराबर हैं क्या तुम फ़िक्र नही करते ?

इसी तरह से क़ुरआने करीम ने सबसे बुरा उन नफ़्सों को कहा है जो न अपनी आँख ,कान व ज़बान से काम लेते और नही अक़्ल को काम में लाते। जैसे- “इन्ना शर्रा अद्दवाब्बि इन्दा अल्लाहि अस्सुम्मु अलबुकमु अल्लज़ीना ला याक़िलूना ” [144]यानी अल्लाह के नज़दीक बदतरीन लोग गूँगे बहरे और अक़्ल से काम न लेने वाले अफ़राद हैं।

और इसी तरह की बहुत सी आयतें हैं। लिहाज़ा इन सब के बावुजूद इस्लाम के उसूल व फ़रूअ को समझने में अक़्ल व फ़िक्र को नज़र अनदाज़ नही किया जा सकता।