60-अदले इलाही
जैसे कि पहले इशारा किया जा चुका है कि अल्लाह के आदिल होने के क़ाइल हैं और हमारा इस बात पर यक़ीन है कि अल्लाह अपने बन्दों पर किसी तरह का कोई ज़ुल्म नही करता है। क्यों कि ज़ुल्म एक बुरा काम है और अल्लाह तमाम बुरे कामों से पाक है।
“व ला यज़लिमु रब्बुका अहदन
”
[1]यानी तुम्हारा रब किसी पर ज़ुल्म नही करता।
अगर कोई इस दुनिया या आख़िरत में किसी मुसीबत में गिरफ़्तार होता है तो वह ख़ुद उसके आमाल का नतीजा होता है।
“फ़मा काना अल्लाहु लियज़्लिमा हुम व लाकिन कानू अनफ़ुसा हुम यज़लिमून
”
[2]यानी अल्लाह ने उन पर( वह गुज़िश्ता उम्मतें जो अल्लाह के अज़ाब में मुबतला हुईं) ज़ुल्म नही किया बल्कि उन्होंने ख़ुद अपने नफ़्सों पर ज़ुल्म किया।
अल्लाह सिर्फ़ इंसानों पर ही नही बल्कि इस दुनिया में मौजूद किसी भी चीज़ पर ज़ुल्म नही करता
“व मा अल्लाहु युरीदु ज़ुलमन लिलआलमीना
”
[3]यानी अल्लाह किसी भी मौजूद पर ज़ुल्म नही करना चाहता। यह तमाम अयतें हक्मे अक़्ल की ताईद करती है।
तकलीफ़े मा ला युताक़ की नफ़ी
हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह कभी भी इंसान को ऐसे काम का हुक्म नही देता जो उसकी सकत से बाहर हो
“ला युकल्लिफ़ु अल्लाहु नफ़्सन इल्ला वुसआहा
”
[4]
61-दर्द नाक हादसों का फ़लसफ़ा
हमारा अक़ीदह है कि वह दर्दनाक हादसे जो इस दुनिया में वाक़े होते हैं (जैसे ज़लज़ला
,आसमानी या ज़मीनी बलाऐं वग़ैरह)
वह कभी अल्लाह की तरफ़ से सज़ा के तौर पर होते हैं जैसे जनाबे लूत की क़ौम के बारे में ज़िक्र हुआ है
“फ़लम्मा जाआ अमरुना जअलना आलियाहा साफ़िलहा व अमतरना अलैहिम हिजारतन मिन सिज्जीलिन मनज़ूदिन
”[5]यानी जब हमारा हुक्म(अज़ाब के लिए) पहुँचा तो हम ने उनके शहरों को ऊपर नीचे कर दिया और उन पर पत्थरों की बारिश की।
मुल्के
“सबा
”
के नाशुक्रे लोगों के बारे में फ़रमाया कि
“फ़अरिज़ू फ़अरसलना अलैहिम सैला अलअरिमि
”यानी उन्होंने अल्लाह की इताअत से रूगरदानी की बस हमने उन को विरान करने वाले सैलाब में मुबतला कर दिया।
कभी यह हादसे इंसान को बेदार करने के लिए होते हैं ताकि वह राहे हक़ पर लौट आयें जैसे कि क़ुरआने करीम में इरशाद हुआ है ज़हर अलफ़सादु फ़ी अलबर्रि व अलबहरि बिमा कसबत अयदि अन्नासि लियुज़िक़ाहुम बअज़ा अल्लज़ी अमिलू लअल्लाहुम यरजिऊना
”
[6]यानी दरिया व ख़ुश्की में जो तबाही फैली वह उन कामों की वजह से थी जो लोगों ने अंजाम दिये
,अल्लाह यह चाहता है कि लोगों को उनके आमाल की सज़ा का एक छोटा सा हिस्सा चखाये शायद वह राहे हक़ की तरफ़ लौट आयें। बस दर्दनाक हादसों का यह हिस्सा दर असल अल्लाह का एक लुत्फ़ है।
कभी यह मुसीबतें ख़ुद इंसान के अपने कामों की नतीजा होती हैं।
“
इन्ना अल्लाहा ला युग़य्यिरु मा बिक़ौमिन हत्ता युग़य्यिरू मा बिअनफ़ुसिहिम
”[7]यानी अल्लाह किसी भी क़ौम की हालत को उस वक़्त तक नही बदलता जब तक वह ख़ुद अपनी हालत न बदलें।
“
मा असाबका मिन हसनतिन फ़मिन अल्लाहि व मा असाबका मिन सय्यिअतिन फ़मिन नफ़्सिका
”[8]जो अच्छाईया तुम को हासिल होती हैं वह अल्लाह की तरफ़ से है और जो बुराईयाँ व मुश्किलें तुम्हारे सामने आती हैं वह ख़ुद तुम्हारी तरफ़ से है।
62-दुनिया का निज़ाम बेहतरीन निज़ाम है।
हमारा अक़ीदह है कि इस दुनिया में जो निज़ाम मौजूद है वह बेहतरीन निज़ाम है और यही निज़ाम दुनिया पर हुक्म फ़रमा हो सकता है। इस निज़ाम में हर चीज़ एक हिसाब के तहत है और कोई भी चीज़ हक़
,अदालत व नेकी के ख़िलाफ़ नही है। अगर इंसानी समाज में कोई बुराई पाई जाती है तो वह ख़ुद इंसानों की तरफ़ से है।
हम इस बात की फिर तकरार कर दें कि हमारा अक़ीदह है कि इस्लामी जहान बीनी का असली पाया अद्ले इलाही है और अगर इसको मलहूज़े ख़ातिर न रखा जाये तो तौहीद
,नबूवत व मआद ख़तरे में पड़ सकते हैं।
हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि
“इन्ना असासा अद्दीनि अत्तौहीदु व अलअद्लु अम्मा अत्तौहीदु फ़अन ला तुजव्विज़ा अला रब्बिका मा जाज़ा अलैका
,व अम्मा अल अद्लु फ़अन ला तनसिब इला ख़ालिक़िका मा लामका अलैहि
”[9]यानी दीन की बुनियाद तौहीद व अदालत पर है
,तौहीद यह है कि जो चीज़ तुम्हारे लिए रवा है उन को उस के लिए रवा न रखो( यानी उस के मुमकिनुल वुजूद के तमाम सिफ़ात से मुनज़्ज़ह समझो) और अद्ल यह है कि उस अमल की अल्लाह की तरफ़ निसबत न दो जिस को अंजाम देने पर तुम्हारी मज़म्मत होती हो।
63-फ़िक़्ह के चार आधार
जैसे कि पहले भी इशारा किया जा चुका है कि हमारी फ़िक़्ह के चार मनाबे हैं।
1-क़ुरआने करीम
,अल्लाह की यह किताब इस्लामी मआरिफ़ व अहकाम की असली सनद है।
2-पैग़म्बरे इस्लाम (स.) व आइम्मा-ए-मासूमीन अलैहिम अस्साम की सीरत।
3-उलमा व फ़ुक़्हा का वह इजमा व इत्तेफ़ाक़ जो मासूमीन अलैहिमुस्सलाम की नज़र को ज़ाहिर करता हो।
4-अक़्ली दलील और अक़्ली दलील से हमारी मुराह दलीले अक़्ली क़तई है न कि दलीले अक़्ले ज़न्नी क्योँ कि दलीले अक़्ली ज़न्नी जैसे क़ियास
,इस्तेहसान वग़ैरह फ़िक़ही मसाइल में हमारे यहाँ क़ाबिले क़ुबूल नही है। इसी वजह से हमारे यहाँ कोई भी फ़क़्ही किसी ऐसे मस्ले में जिसके लिए क़ुरआन व सीरत में कोई सरीह हुक्म मौजूद न हो अगर अपने गुमान में किसी मसलहत को पाता है तो उसको अल्लाह के हुकम के उनवान बयान नही कर सकता । इसी तरह से क़ियास व इसी की तरह की दूसरी ज़न्नी दलीलों के ज़रिये शरई अहकाम को समझना हमारे यहाँ जाइज़ नही है। लेकिन वह मवारिद जहाँ इंसान को यक़ीन पैदा हो जाये जैसे ज़ुल्म
,झूट
,चोरी व ख़यानत के बुरे होने का यक़ीन
,अक़्ल का यह हुक्म मोतबर है व
“कुल्लु मा हकमा बिहि अलअक़्लु हकमा बिहि अश शरओ
”के तहत हुक्मे शरीअत को बयान करने वाला है।
हक़ीक़त यह है कि हमारे पास मुकल्लेफ़ीन के मोरिदे नियाज़ इबादी
,सियासी
,इक़्तेसादी व इज्तेमाई अहकाम को हल करने के लिए पैग़म्बरे इस्लाम(स.) व आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिम अस्सलाम की फ़रवान अहादीस मौजूद है जिस की बिना पर हम को ज़न्नी दलीलों की पनाह लेने की ज़रूरत पेश नही आती। यहाँ तक कि
“मसाइले मुस्तहद्दिसा
”
(वह नये मसाइल जो ज़माने के गुज़रने के साथ साथ इंसान की ज़िन्दगी में दाख़िल हुए) के लिए भी किताब व सुन्नत में उसूल व क़ुल्लियात बयान हुए हैं जो हम को इस तरह के ज़न्नी दलाइल के तवस्सुल से बेज़ार कर देते हैं। यानी इन अहकामे कुल्लियात की तरफ़ रुजूअ करने से नये मसाइल भी हल हो जाते हैं ।
नोट - इस छोटी सी किताब में इस बात को तौज़ीह के साथ बयान नही किया जा सकता। इस मसले को समझने के लिए किताब
“मसाइलुल मस्तुहद्दिसा
”
को देखें। हम ने इस किताब में इस बात को रौशन तौर पर बयान किया है।
64-इजतेहाद का दरवाज़ा हमेशा खुला हुआ है।
हमारा मानना है कि शरीअत के तमाम मसाइल के लिए इजतेहाद का दरवाज़ा खुला हुआ है और सभी साहिबे नज़र फ़कीह ऊपर बयान किये गये चार मनाबों से अल्लाह के अहकाम को इस्तंबात कर के उन लोगों के हवाले कर सकते हैं जो अहकामे इलाही के इसतंबात की क़ुदरत नही रखते। चाहे इन के नज़रिये पुराने फ़क़ीहों से मुताफ़ावित ही क्योँ न हो। हमारा अक़ीदह है कि जो अफ़राद फ़िक़्ह में साहिबे नज़र नही है उनको चाहिए कि किसी ज़िन्दा फ़क़ीही तक़लीद करे ऐसे ज़िन्दा फ़क़ीह की जो ज़मान व मकान के मसाइल से आगाह हो । फ़क़ीह की तरफ़ गैरे फ़क़ीही का रुजूअ करना हमरे नज़दीक बदीहीयात में से है। हम इन फ़क़ीहों को
“मरआ-ए- तक़लीद
”कहते हैं। हमरे नज़दीक इबतदाई तौर पर किसी मुर्दा फ़क़ीह की तक़लीद भी जाइज़ नही है। अवाम के लिए ज़रूरी है कि वह किसी ज़िन्दा फ़क़ीह की तक़लीद करें ताकि फ़िक़्ह हमेशा हरकत में रहे और तकामुल की मंज़िले तैय करती रहे।
65-क़ानूनी ख़ला का वुजूद नही है
हमारा अक़ीदह है कि इस्लाम में किसी तरह का कोई क़ानूनी ख़ला नही पाया जाता।
यानी क़ियामत तक इंसान को पेश आने वाले तमाम अहकाम इस्लाम में बयान हो चुके हैं। यह अहकाम कभी मख़सूस तौर पर और कभी कुल्ली व आम तौर पर बयान किये गये है। इसी वजह से हम किसी फ़क़ीह को क़ानून बनाने का हक़ नही देते बल्कि उनको सिर्फ़ ऊपर बयान किये गये चारो मनाबों से अहकामे इलाही को इस्तख़राज कर के अवाम के सुपुर्द करने का हक़ हासिल है। हमारा अक़ीदह है कि तमाम अहकाम कुल्ली तौर पर बयान किये जा चुके हैं और इसकी दलील यह है कि सूरए मायदह जो कि पैग़म्बरे इस्लाम पर नाज़िल होने वाले आख़री सूरह या आख़री सूरोह में से एक सूरह है इस में इरशाद हो रहा है
“अल यौम अकमलतु लकुम दीना कुम व अतममतु अलैकुम नेअमती व रज़ीतु लकुम अलइस्लामा दीनन
”
[10]यानी आज हम ने तुम्हारे लिए दीन को कामिल कर दिया और तुम पर अपनी नेअमतों को भी पूरा किया और तुम्हारे लिए दीने इस्लाम को मुंतख़ब किया।
अगर हर ज़माने के लिए फ़िक़्ही मसाइल बयान नही किये गये तो फिर दीन किस तरह कामिल हो सकता है
?
क्या आख़री हज के मौक़े पर पैग़म्बरे इसलाम (स.) ने नही फ़रमाया कि
“अय्युहा अन्नासु वल्लाहि मा मिन शैइन युक़र्रिबु कुम मिन अलजन्नति व युबाइदु कुम अन अन्नारि इल्ला व क़द अमरतु कुम बिहि
,व मा मिन शैइन युक़र्रिबु कुम मिन अन्नारि व युबाइदु कुम अन अलजन्नति इल्ला व क़द नहैतुकुम अनहु।
”
[11]यानी ऐ लोगो मैने तुम को उन तमाम चीज़ो का अंजाम देने का हुक्म दे दिया है जो तुम को जन्नत से नज़दीक व दोज़ख़ से दूर करने वाली है।और इसी तरह मैने तुम को उन तमाम कामों से मना कर दिया है जो तुम को जहन्नम की आग से नज़दीक और जन्नत से दूर करने वाले हैं।
हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि
“मा तरका अलीयुन (अ) शैअन इल्ला कतबहु हत्ता अरशा अलख़दशि
”
[12]यानी हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अहकाम इस्लाम से किसी चीज़ को बग़ैर लिखे नही छोड़ा(आप ने पैग़म्बरे इस्लाम(स.) के हुक्म से हर चीज़ को लिखा) यहाँ तक कि आप ने इंसान के बदन पर आने वाली एक छोटीसी ख़राश की दीयत को भी लिख दिया। इन सब की मौजूदगी में हम को ज़न्नी दलीलों
,क़ियास व इस्तिसहान की ज़रूरत पेश नही आती।
66-तक़िय्येह का फ़लसफ़ा
हमारा अक़ीदह है कि अगर कभी इंसान ऐसे मुतस्सिब लोगों के दरमियान फँस जाये जिन के सामने अपने अक़ीदेह को बयान करना जान के लिए खतरे का सबब हो तो ऐसी हालत में मोमिन की ज़िम्मेदारी यह है कि वह अपने अक़ीदेह को छुपा ले और अपनी जान की हिफ़ाज़त करे। हम इस काम को
“तक़िय्यह
”
का नाम देते हैं। इस अक़ीदेह के लिए हमारे पास क़ुरआने करीम की दो आयतें व अक़्ली दलीलें मौजूद हैं।
क़ुरआने करीम मोमिने आले फ़िरौन के बारे में फ़रमाता है कि
“व क़ाला रजुलुन मोमिनुन मिन आलि फ़िरऔना यकतुम ईमानहु अतक़तुलूना अन यक़ूला रब्बिया अल्लाहु व क़द जाआ कुम बिलबय्यिनाति मिन रब्बि कुम
”
[13]यानी आले फ़िरौन के एक मोमिन मर्द ने जिसने अपने ईमान का छुपा रखा था कहा कि क्या तुम उस इंसान को क़त्ल करना चाहते हो जो यह कहता है कि अल्लाह मेरा रब है
,जब कि वह तुम्हारे पास तुम्हारे परवरदिगार की तरफ़ से खुली हुई निशानियाँ लेकर आया है।
“
यक्तुम ईमानहु
”तक़िय्यह के मसले के रौशन करता है। क्या यह सही था कि मोमिने आले फ़िरौन अपने ईमान को ज़ाहिर कर के अपनी जान से हाथ धो बैठता और काम को आगे न बढ़ाता
?
क़ुरआने करीम सद्रे इस्लाम के कुछ मुजाहिद मोमिनीन को जो कि मुशरिक दुश्मनो के पँजों में फँस गये थे उन्हे तक़िय्येह का हुक्म देते हुए फ़रमाता है कि
“ला यत्तख़िज़ि अलमोमिनूना अलकाफ़िरीना औलिया मिन दूनि अलमोमिनीना व मन यफ़अल ज़लिक फ़लैसा मिन अल्लाहि फ़ी शैआन इल्ला अन तत्तक़ू मिन हुम तुक़ातन
”
[14]यानी मोमिनीन को चाहिए कि वह मोमिनीन को छोड़ कर किसी काफ़िर को अपना दोस्त या सरपरस्त न बनायें और अगर किसी ने ऐसा किया तो समझो उसका राब्ता अल्लाह से कट गया। मगर यह कि (तुम खतरे में हो ) और उन से तक़िय्यह करो।
इस बिना पर तक़य्या (यानी अपने अक़ीदेह को छुपाना) ऐसी हालत से मख़सूस है जब मुतास्सिब दुश्मन के सामने इंसान का जान व माल ख़तरे में पड़ जाये। ऐसी हालत में मोमिनीन को अपनी जानों को ख़तरे में नही डालना चाहिए बल्कि उनकी हिफ़ाज़त करनी चाहिए । इसी वजह से हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि
“अत्तक़िय्यतु तुर्सुल मोमिनि
”[15]यानी तक़िय्यह मोमिन की ढाल है।
तक़िय्येह को तुर्स (ढाल) से ताबीर करना एक लतीफ़ ताबीर है जो इस बात की तरफ़ इशारा करती है कि तक़िय्यह दुश्मन के मुक़ाबिल एक दिफ़ाई वसीला है।
जनाबे अम्मारे यासिर का दुश्मनो के सामने तक़िय्यह करना और पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का उस को सही क़रार देना बहुत मशहूर वाक़िया है।[
16]
मैदाने जंग में अपने सिपाहियों व हथियारों को छुपाना
,दुश्मनों से जंगी राज़ों को छुपा कर रखना वग़ैरह इंसान की ज़िन्दगी में तक़िय्येह की ही एक क़िस्म है। तक़िय्यह यानी छुपाना
,उस मक़ाम पर जहाँ किसी चीज़ का ज़ाहिर करना ख़तरे व नुक़्सान का सबब हो चाहे छुपाने से कोई फ़ायदा न भी हो। यह एक ऐसी अक़्ली व शरई बात है जिस पर ज़रूरत के वक़्त सिर्फ़ शिया ही नही बल्कि तमाम दुनिया के मुसलमान व अक़्लमन्द इंसान अमल करते हैं।
ताज्जुब की बात है कि कुछ लोग तक़िय्येह के अक़ीदेह को शियों व मकतबे अहलेबैत से मख़सूस करते हैं और उन पर एक ऐतेराज़ की शक्ल में इस को पेश करते हैं। जब कि यह एक रौशन मसला है जिसकी जड़ें क़ुरआने करीम
,अहादीस व पैग़म्बरे इस्लाम की सीरत में मौजूद हैं। और पूरी दुनिया के अहले अक़्ल हज़रात भी इस के क़ुबूल करते हैं।
67-तक़िय्यह कहाँ पर हराम है
इस ग़लत फ़हमी की असली वजह शियों के अक़ीदेह के बारे में मुकम्मल मालूमात का न होना है
,हमारा ख़याल है कि ऊपर बयान की गई वज़ाहत से यह मसला कामिल तौर पर रौशन हो गया होगा।
लेकिन इस बात से इनकार नही किया जा सकता कि कुछ जगहोँ पर तक़िय्यह हराम है। और यह उस मक़ाम पर है जहाँ असासे दीनो व इस्लाम व क़ुरआन या निज़ामे इस्लामी ख़तरे में पड़ जाये। ऐसे मौक़ों पर इंसान को चाहिए कि अपने अक़ीदेह को ज़ाहिर करे चाहे इस अक़ीदेह को ज़ाहिर करने पर कितनी ही बड़ी क़ुरबानी क्योँ न देनी पड़े। हमारा मानना है कि आशूर को कर्बला में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का क़ियाम इसी हदफ़ के लिए था। क्योँ कि बनी उमय्यह के बादशाहों ने इस्लाम की असास को ख़तरे में डाल दिया था। हजरत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के क़ियाम ने उन के कामों पर से पर्दा हटा दिया और इस्लाम को ख़तरे से बचा लिया।
68-इस्लामी इबादात
जिन इबादतों की क़ुरआने करीम व सुन्नत ने ताकीद की है हम उन तमाम इबादतों के मोतक़िद व पाबन्द हैं। जैसे हर रोज़ की पंजगाना नमाज़ जो कि ख़ालिक़ व मख़लूक़ के दरमिन मुहिमतरीन राब्ता है
,माहे रमज़ानुल मुबारक के रोज़े जो कि ईमान की तक़वियत
,तज़किया-ए-नफ़्स
,तक़वे व हवा-ए-नफ़्स से मुक़ाबला करने का बेहतरीन ज़रिया है।
हम अल्लाह के घर के हज पूरी उम्र में हर एक मर्तबा वाजिब मानते हैं इस शर्त के साथ कि इंसान हज के लिए मुस्तती हो(यानी ख़र्च रखता हो) हज मुसलमानों की इज़्ज़त
,आपसी मुहब्बत और हुसूले तक़वा का बेहतरीन व मुअस्सरतरीन ज़रिया है।
इसी तरह हम माल की ज़कात व ख़ुमुस
,अम्र बिल मारूफ़ व नही अज़ मुनकर और इस्लाम व मुसलमानों पर हमला करने वालों से जिहाद करने को भी वाजिब मानते हैं।
इन तमाम कामों के जुज़यात में हमारे और इस्लाम के दिगर फ़िर्क़ों के दरमियान कुछ फ़र्क़ पाये जाते हैं जैसे अहले सुन्नत के मज़ाहिबे चहार गाने के दरमियान भी इबादात के अहकाम बग़ैरह में कुछ फ़र्क़ पाये जाते हैं।
69-नमाज़ को जमा करना
हमारा अक़ीदह है कि नमाज़े जोह्र व अस्र
,नमाज़े मग़रिब व इशा को एक वक़्त में साथ मिला कर पढ़ने में कोई हरज नही है। (जब कि हमारा अक़ीदह है कि इन को जुदा जुदा पढ़ना अफ़ज़ल व बेहतर है) हमारा अक़ीदह है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की तरफ़ से उन लोगों को जिन के लिए बार बार में ज़हमत होती है इन नमाज़ों को मिला कर पढ़ने की इजाज़त दी गई है।
सही तिरमिज़ी में इब्ने अब्बास से एक हदीस नक़्ल हुई है और वह यह है कि
“जमाआ रसूलु अल्लाहि (स.) बैना अज़्ज़हरि व अलअस्रि
,व बैना अलमग़रिबि व अलइशाइ बिल मदीनति मिन ग़ैरि ख़ौफ़ि व ला मतरिन
,क़ाला फ़क़ीला लिइब्नि अब्बास मा अरादा बिज़ालिक
?क़ाला अरादा अन ला युहरिजा उम्मतहु
”[17]यानी पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने मदीने में ज़ोह्र व अस्र
,मग़रिब व इशा की नमाज़ों को मिला कर पढ़ा जबकि न कोई डर था औरक न ही बारिश
,इब्ने अब्बास से सवाल किया गया कि पैग़म्बर का इस काम से क्या मक़सद था
?उन्होने जवाब दिया कि पैग़म्बर (स.) का मक़सद यह था कि अपनी उम्मत को ज़हमत में न डाले (यानी जब अलग अलग पढ़ना ज़हमत का सबब हो तो मिला कर पढ़ लिया करें।)
मख़सूसन हमारे ज़माने में जब कि इजतेमाई ज़िन्दगी बहुत पेचीदह हो गई है खास तौर पर कारख़ानो वग़ैरह में काम करने वाले लोगों के लिए
,ऐसे मक़ामात पर नमाज़ को पाँच वक़्तो में अलग अलग कर के पढ़ना दशवार है इ। कभी कभी नमाज़ों को जुदा कर के पढ़ना इस बात का सबब बना कि लोगों ने नमाज़ पढ़ना ही छोड़ दिया। ऐसी हालत में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की दी गई इजाज़त
,यानी नमाज़ को मिला कर पढ़ना नमाज़ की पाबन्दी में मोस्सिर साबित हो सकती है। यह बात क़ाबिले ग़ौर है।
70-ख़ाक पर सजदह करना
हमारा अक़ीदह है कि नमाज़ में या तो ख़ाक पर सजदह किया जाये या फिर ज़मीन के अजज़ा में से किसी पर भी
,या उन चीज़ों पर जो ज़मीन से पैदा होती हैं जैसे दरख़्तों के पत्ते लकड़ी व घास फ़ूँस बग़ैरह (उन चीज़ों को छोड़ कर जो खाने या पहन ने में काम आती हैं)
इसी वजह से हम सूती फ़र्श पर सजदह करने को जायज़ नही मानते और ख़ाक पर सजदह करने को दूसरी तमाम चीज़ों पर तरजीह देते हैं। आसानी के लिए अक्सर शिया पाक मिट्टी को गोल या चकोर शक्ल में ढाल लेते है और इसे अपने पास रखते है और नमाज़ पढ़ते वक़्त इसी पर सजदह करते हैं। यह गोल या चकोर शक्ल में ढाली गई मिट्टी सजदहगाह कहलाती हैं।
इस अमल की दलील के लिए हमारे पास पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की हदीस मौजूद है जिस में आपने फ़रमाया कि
“जुइलत ली अलअर्ज़ु मस्जिदन व तहूरन
”
[18]यानी मेरे लिए ज़मीन को मस्जिद व तहूर क़रार दिया गया।
हम इस हदीस में मस्जिद से सजदेह की जगह मुराद लेते हैं। यह हदीस अक्सर कुतुबे सहा में मौजूद है।
मुमकिन है कि यह कहा जाये कि इस हदीस में मस्जिद से मुराद सजदेह की जगह नही है बल्कि नमाज़ की जगह है। उस के मुक़ाबिल में जो नमाज़ को किसी मुऐय्यन जगह पर पढ़ता हो
,लेकिन इस बात पर तवज्जोह देने से कि यहाँ पर तहूर भी इस्तेमाल हुआ है तहूर यानी ख़ाके तय्म्मुम
,यह बात वाज़ेह हो जाती है कि यहाँ पर मस्जिद से मुराद सजदेह की जगह ही है न कि नमाज़ की जगह। यानी ज़मीन की ख़ाक तहूर भी है और सजदेह की जगह भी। इसके अलावा आइम्मा-ए-मासूमीन अलैहिम अस्सलाम की बहुत सी ऐसी हदीसें हैं जो सजदेह के लिए ख़ाक
,संग और इन्हीं के मानिन्द दूसरी चीज़ो के बारे में राहनुमाई करती हैं।
71-पैग़म्बरो व आइम्मा की क़ब्रों की ज़ियारत
हमारा अक़ीदह है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) व आइम्मा-ए-मासूमीन अलैहिम अस्सलाम
,बुज़ुर्ग उलमा व अल्लाह की राह में शहीद होने वाले अफ़राद की क़ब्रों की ज़ियारत मुसतहब्बाते मुअक्किदा में से है।
अहले सुन्नत के उलमा की किताबों में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की क़ब्रे मुबारक की ज़ियारत से मताल्लिक़ बहुतसी रिवायतें मौजूद हैं। इसी तरह शिया उलमा की किताबों में भी इस तरह की बहुत सी रिवायतें मौजूद है।[
19]अगर इन तमाम रिवायतों को जमा किया जाये तो इस मोज़ू पर एक बड़ी किताब वुजूद में आ जायेगी।
दर तूले तारीख़ आलमे इस्लाम के बुज़ुर्ग उलमा और तमाम तबक़ात के लोगों ने इस काम को अहमियत दी है। और जो लोग पैग़म्बरे इस्लाम(स.) व दिगर बुज़ुर्गों की कब्रो की ज़ियारत के लिए गये हैं उनकी ज़िन्दगी के हालात से किताबे भरी पड़ी हैं। कुल्ली तौर पर यह कहा जा सकता है कि यह मसला तमाम मुसलमानों का मोरिदे इत्तेफ़ाक़ मसला है।
यहाँ पर यह बात क़ाबिले ग़ौर है कि ज़ियारत को इबादत नही समझना चाहिए। क्योँ कि इबादत सिर्फ़ अल्लाह की ज़ात से मख़सूस है। और ज़ियारत का मतलब बुज़ुर्गाने इस्लाम का एहतेराम और अल्लाह की बारगाह में उन से शफ़ाअत तलब करना है।रिवायात में यहाँ तक आया है कि कभी कभी पैग़म्बरे इस्लाम(स.) ख़ुद अहले क़ुबूर की ज़ियारत को जाते थे और जन्नतुल बक़ी मे पहुँच कर उन को सलाम करते थे और उन पर दरूद पढ़ते थे।[
20]
इस बिना पर कोई भी इस अमल को इस्लामी फ़िक़ह की नज़र से रद्द कर के ग़ैरे मशरूअ क़रार नही दे सकता।
72-अज़ादारी और इसका फ़लसफ़ा
हमारा अक़ीदह है कि शोहदा-ए- इस्लाम मख़सूसन शोहदा-ए-कर्बला के लिए अज़ादारी बरपा करना
,इस्लाम की बक़ा के लिए उनकी जाफ़िशानी व उनकी याद को ज़िन्दा रखने का ज़रिया है। इसी वजह से हम हर साल ख़ास तौर पर माहे मोहर्रम के पहले अशरे में (जो कि सरदारे जवानाने जन्नत[
21]फ़रज़न्दे अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली व हज़रत ज़हरा के बेटे पैग़म्बरे इस्लाम(स.) के नवासे हुसैन इब्ने अली की शहादत से मख़सूस है) दुनिया के मुख़तलिफ़ हिस्सों में अज़ादारी बरपा करते हैं। इस अज़ादारी में उनकी सीरत शहादत के मक़सद और मुसीबत को बयान करते हैं और उनकी रूहे पाक पर दरूद भेजते हैं।
हमारा मानना है कि बनी उमैय्यह ने एक ख़तरनाक हुकूमत क़ायम की थी और हुकूमत के बल बूते पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की बहुतसी सुन्नतों को बदल दिया था और आख़िर में इस्लामी अक़दार को मिटाने पर कमर बाँध ली थी।
यह सब देख कर हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने सन्
61हिजरी क़मरी में यज़ीद के ख़िलाफ क़ियाम किया।यज़ीद एक गुनाहगार
,अहमक़ और इस्लाम से बेगाना इंसान था और कुर्सीये ख़िलाफ़ते इस्लामी पर काबिज़ था। इस क़ियाम के नतीजे में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनकी साथीयों को इराक़ में सरज़मीने कर्बला पर शहीद कर दिया गया और उनके बीवी बच्चों को असीर बना लिया गया। लेकिन उनका ख़ून रंग लाया और उनकी शहादत ने उस ज़माने के तमाम मुसलमानों के अन्दर एक अजीबसा हीजान पैदा कर दिया। लोग बनी उमैय्यह के ख़िलाफ़ उठ ख़ड़े हुए और मुख़तलिफ़ मक़ामात पर क़ियाम होने लगे जिन्होने ज़ालिम हुकूमत की नीव को हिला कर रख दिया और आख़िर कार बनी उमैय्यह की हुकूमत का ख़ातमा हो गया। अहम बात यह है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद बनी उमैय्यह के ख़िलाफ़ जितने भी क़ियाम हुए वह सब अर्रिज़ा लिआलि मुहम्मद या लिसारतिल हुसैन के तहत हुए। इन में से बहुत से नारे तो बनी अब्बास की ख़ुदसाख़्ता हुकूमत के ज़माने तक लगते रहे।[
22]
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का यह ख़ूनी क़ियाम आज हम शियों के लिए ज़ालिम हुकूमतों से लड़ने के लिए एक बेहरीन नमूना है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के कर्बला में लगाये गये नारे
“हैहात मिन्ना अज़्ज़िलत
”
यानी हम कभी भी ज़िल्लत को क़बूल नही करेंगे।
“इन्ना अलहयाता अक़ीदतु व जिहाद
”
यानी ज़िन्दगी की हक़ीक़त ईमान और जिहाद है। हमेशा हमारी रहनुमाई करते रहे हैं और इन्ही नारों का सहारा लेकर हम ने हमेशा ज़ालिम हुकूमतों का सामना किया है। सय्युश शोहदा हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और आप के बावफ़ा साथियों की इक़तदा करते हुए हमने ज़ालिमों के शर का ख़ात्मा किया है। (ईरान के इस्लामी इंक़लाब में भी जगह जगह पर यही नारे सुन ने को मिले हैं।)
मुख़तस तौर पर यह कि शोहदा-ए- इस्लाम मख़सूसन शोहदा-ए- कर्बला ने की याद ने हमारे अक़ीदेह व ईमान में क़ियाम
,इसार
,दिलेरी व शौक़े शहादत को हमेशा ज़िन्दा रखा है।इन शोहदा की याद हमको हमेशा यह दर्स देती है कि हमेशा सर बुलन्द रहो और कभी भी ज़ालिम की बैअत न करो। हर साल अज़ादारी बरपा करने और शहीदों की याद को ज़िन्दा रखने की फ़लसफ़ा यही है।
मुमकिन है कि कुछ लोग इस अज़ादारी के फ़ायदे से आगाह ना हो। शायद वह कर्बला और इस शहादत को एक पुराना तारीख़ी वाक़िया समझते हो
,लेकिन हम अच्छी तरह जानते हैं कि इस याद को बाक़ी रखने की हमारी कल की
,आज की और आइन्दा की तारीख में क्या तसीर रही है और रहेगी।
जंगे ओहद के बाद सैय्यदुश शोहदा जनाबे हमज़ा की शहादत पर पैग़म्बरे इस्लाम का अज़ादारी बरपा करना बहुत मशहूर है।तारीख की सभी मशहूर किताबों में नक़्ल हुआ है कि पैग़म्बरे इस्लाम(स.) एक अनसारी के मकान के पास से गुज़रे तो उस मकान से रोने और नोहे की आवाज़ सुनाई दी पैग़माबरे इस्लाम(स.) की आखों से भी अश्क जारी हो गये और आपने फ़रमाया कि आह हमज़ा पर रोने वाला कोई नही है। यह बात सुन कर सअद बिन मआज़ तायफ़ा-ए-बनी अब्दुल अशहल के पास गया और उनकी ख़वातीन से कहा कि पैग़म्बर के चचा हमज़ा के घर जाओ और उनकी अज़ादारी बरपा करो।[
23]
यह बात ज़ाहिर है कि यह काम जनाबे हमज़ा से मख़सूस नही था।बल्कि यह एक ऐसी रस्म है जो तमाम शहीदों के लिए अंजाम दी जाये और उनकी याद को आने वाली नस्लों के लिए ज़िन्दा रखा जाये और जिस से हम मुसलमानों की रगो में ख़ून को गरम रख सकें। इत्तेफ़ाक़ से आज जो मैं यह सतरे लिख रहा हूँ आशूर का दिन है (
10मुहर्रम सन्
1417हिजरी क़मरी) और आलमें तश्शयो में एक अज़ीम वलवला है
,बच्चे
,जवान बूढ़े सभी सियाह लिबास पहने हुए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की अज़ादारी में शिरकत कर रहे हैं। आज इन में ऐसा जोश व जज़बा भरा हुआ है कि अगर इस वक़्त इन से दुशमने इस्लाम से दंग करने के लिए कहा जाये तो सभी हाथों में हथियार ले कर मैदाने जंग में वारिद हो जायेंगे। इस वक़्त इनमें वह जज़बा कार फ़रमा है कि यह किसी भी क़िस्म की क़ुर्बानी व इसार से दरेग़ नही करेंगे। इनकी हालत ऐसी है कि गोया इन सब की रगो में ख़ूने शहादत जोश मार रहा है और यह इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम व उनके साथियों को मैदाने कर्बला में राहे इस्लाम में लड़ते हुए देख रहे हैं।
इस अज़ादारी में इस्तेमार व इस्तकबार को मिटा डालने
,ज़ुल्म व सितम के सामने न झुकने व इज़्ज़त की मौत को ज़िल्लत की ज़िन्दगी पर तरजीह देने से मुताल्लिक़ शेर पढ़े जाते हैं।
हमारा मानना है कि यह एक अज़ीम मानवी सरमाया है जिसकी हिफ़ाज़त बहुत ज़रूरी है। क्योँ कि इस से इस्लाम
,ईमान व तक़वे की बक़ा के लिए मदद मिलती है।
73-अक़दे मुवक़्क़त (मुताअ)
हमारा अक़ीदह है कि अक़्दे मुवक़्क़त एक शरई अमल है जो इस्लामी फ़िक़्ह में मुताअ के नाम से मशहूर है। इस तरह अक़दे इज़दवाज (शादी व्याह) की दो क़िस्में है।
एक इज़दवाजे दाइम जिसका वक़्त व ज़मान महदूद नही है।
दूसरे इज़दवाजे मुवक़्क़त इसकी मुद्दत शोहर बीवी की मुवाफ़ेक़त से तै होती है।
अक़्दे मुवक़्क़त बहुत से मसाइल में अक़्दे दाइम के मशाबेह है। जैसे मेहर
,औरत का शादी में माने हर चीज़ से ख़ाली होना
,अक़दे मुवक़्क़त के ज़रिये पैदा होने वाली औलाद और अक़्दे दाइम से पैदा होने वाली औलाद के अहकाम के दरमियान कोई फ़र्क़ नही पाया जाता
,अक़द की मुद्दत तमाम होने के बाद इद्दत ज़रूरी है। यह सब चीज़े हमारे यहाँ अक़्दे मुवक़्क़त के मुसल्लेमात जुज़ हैं। दूसरे अलफ़ाज़ में मुताअ शादी की एक क़िस्म है शादी की तमाम ख़ुसूसियात के साथ।
बस मुताअ व अक़दे दाइम में यह फ़र्क़ पाया जाता है कि मुताअ में औरत का ख़र्च मर्द पर वाजिब नही है और शोहर व बीवी एक दूसरे से इर्स नही पाते। लेकिन अगर उन के औलाद हो तो वह माँ बाप दोनों से विर्सा पाते हैं।
हम ने इस हुक्म को क़ुरआने करीम से हासिल किया है
“फ़मा इस्तमतअतुम बिहि मिन हुन्ना फ़आतू हुन्ना उजूरा हुन्ना फ़रिज़तन
”[24]यानी तुम जिस औरत से मताअ करो उसका मेहर अदा करो।
बहुत से मशहूर मुहद्दिसों व मुफ़स्सिरों ने इस बात की तसरीह की है कि यह आयत मुताअ के बारे में है।
तफ़सीरे तबरी में इस आयत के तहत बहुत सी ऐसी रिवायतें नक़्ल हुई हैं जो इस बात की निशानदेही करती हैं कि यह आयत मुताअ के बारे में है और इस के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के असहाब के एक बहुत बड़े गिरोह ने गवाहियाँ भी दी हैं।
तफ़सीरे दुर्रे मनसूर व सुनने बहीक़ी में भी इस बारे में बहुत सी रिवायतें बयान हुई हैं। सही बुख़ारी
,सही मुसलिम
,मुसनदे अहमद और दूसरी बहुत सी किताबों में ऐसी रिवायतें मौजूद हैं जो पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने में मुताअ के रिवाज को साबित करती हैं। अहले सुन्नत के कुछ फ़क़ीहों का यह अक़ीदह है कि अक़्दे मुताअ पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने में राइज था यह हुक्म बाद में नस्ख़ हो गया। लेकिन अहले सुन्नत के ही कुछ फ़क़ीह यह कहते हैं कि यह हुकम पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की ज़िन्दगी तक जारी रहा मगर बाद में इसको हज़रत उमर ने नस्ख़ कर दिया। इस बारे में हज़रत उमर की हदीस का मौजूद होना इस बात की गवाही के लिए काफ़ी है। उन्होंने फ़रमाया कि मुतअतानि कानता अला अहदि रसूलि अल्लाहि व अना मुहर्रिमुहुमा व मुआक़िब अलैहिमा मुतअतुन निसा व मुतअतुल हज्ज।[
25]यानी पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने में जो दो मुतआ राइज थे मैने उनको हराम कर दिया है और इन को अंजाम देने वाले अफ़राद को सज़ा दूँगा
,एक मुता-ए-निसा और दूसरा मुता-ए-हज।
इस बात में कोई शक नही है कि अहले सुन्नत के दरमियान इस इस्लामी हुक्म के बारे में दूसरे बहुत से अहकाम की तरह इख़्तेलाफ़े नज़र पाया जाता है। कुछ लोग पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने में इस के नस्ख़ के क़ाइल हैं और कुछ इस के नस्ख़ को ख़लीफ़ा-ए-सानी के दौर में मानते हैं। और एक छोटा सा गिरोह इसका कुल्ली तौर पर इंकार करता है।अहले सुन्नत में इस तरह के फ़िक़्ही मसाइल में इख़्तलाफ़ पाया जाता है। लेकिन शिया उलमा मुतआ के शरई होने में मुत्तफ़िक़ हैं और कहते हैं कि यह पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने में नस्ख़ नही हुआ है और पैग़म्बर (स.) के बाद इसका नस्ख़ होना ग़ैर मुमकिन है।
बहर हाल हमारा मानना है कि अगर मुताअ से ग़लत फ़ायदा न उठाया जाये तो यह समाज की अहम ज़रूरत है और उन जवानों के लिए फ़यदे मन्द है जो दाइमी निकाह करने पर क़ादिर नही हैं। या वह अफ़राद जो तिजारत
,नौकरी या किसी दूसरी बिना पर एक लम्बे वक़्त तक अपने घर से दूर रहते हैं और जिस्मानी ज़रूरत को पूरा करने के लिए उनको तवाइफ़ों के दरवाज़ों को खटखटाना पड़ता है। ख़ास तौर पर हमारे ज़माने में मुताअ बहुत मुफ़ीद है क्योँकि आज कल इंसान के सामने बहुतसी मुश्किलें है जिनकी वजह से शादीयाँ काफ़ी सिन गुज़र जाने के बाद हो रही है। दूसरी तरफ़ शहवत बढ़ाने वाले आमिल बहुत तेज़ी से फैल रहे हैं। अगर इन हालात में मुताअ का दरवाज़ा बंद हो गया तो तवाइफ़ों के दरवाज़े यकीनी तौर पर आबाद हो जायेंगे।
हम इस बात की एक बार और तकरार करते हैं कि हम इस हुक्म शरई की आड़ में हर क़िस्म का ग़लत फ़यदा उठाने
,इस पाकीज़ा हुक्म को हवस परस्त अफ़राद के हाथों का खिलौना बनाने
,औरतों को दलदल में फँसाने के सख़्त मुख़ालिफ़ हैं। लेकिन कुछ हवस परस्त लोगों के ग़लत फ़ायदा उठाने की वजह से अस्ल हुक्म से मना नही करना चाहिए बल्कि लोगों को ग़लत फ़यदा उठाने से रोकना चाहिए।
74-शियत की तारीख़
हमारा मानना है कि शियत की इबतदा पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने में आपके अक़वाल से हुई। हमारे पास इस क़ौल की बहुत सी सनदें मौजूद हैं।
उन में से एक यह है कि सूरए बय्यिनह की आयत
“इन्न अल्लज़ीना आमनू व अमिलु अस्सालिहाति उलाइका हुम ख़ैरु अलबरिय्यह
”[26]यानी जो लोग ईमान लाये और नेक अमल अंजाम दिये वह (अल्लाह की) बेहतरीन मख़लूक़ हैं। के तहत बहुत से मुफ़स्सेरीन ने लिखा है कि पैग़म्बर (स.) ने फ़रमाया कि इस आयत से मुराद अली (अ.) व उन के शिया हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की इस हदीस को जलालुद्दीन सियोति ने अपनी तफ़्सीर
“अद्दुर्रु अलमनसूर
”
ने इब्ने असाकर व जाबिर बिन अब्दुल्लाह के हवाले से नक़्ल किया है कि हम पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की ख़िदमत में थे कि हज़रत अली (अ.) हमारे पास आये जैसे ही पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की नज़र उनके चेहरे पर पड़ी फ़रमाया
“व अल्लज़ी नफ़्सी बियदिहि इन्ना हाज़ा व शीअतहु लहुम अलफ़ाइज़ूना यौमा अलक़ियामति।
”
यानी उसकी क़सम जिसके क़ब्ज़ा-ए-क़ुदरत में मेरी जान है यह और इनके शिया रोज़े क़ियामत कामयाब होने वाले हैं। इसके बाद यह आयत नाज़िल हुई
“इन्न अल्लज़ीना आमनू व अमिलु अस्सालिहाति उलाइका हुम ख़ैरु अलबरिय्यह
”
इस वाक़िये के बाद से हज़रत अली अलैहिस्सलाम जब भी असहाब के मजमे में दाख़िल होते थे तो असहाब कहते थे
“जाआ ख़ैरु अलबरिय्यह
”
यानी अल्लाह की सबसे बेहतर मख़लूक़ आ गई।[
27]
इस मतलब को थोड़े से फ़र्क़ के साथ इब्ने अब्बास
,अबू बरज़ह
,इब्ने मर्दवियह
,अतिय्य-ए- औफ़ी ने भी नक़्ल किया है।[
28]
इस से मालूम होता है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम से वाबस्ता अफ़राद के लिए पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने में ही लफ़्ज़े
“शिया
”
का इस्तेमाल किया जाता था और यह नाम उनको पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने दिया था। उनका यह नाम ख़ुलफ़ा या हुकूमते सफ़वियह के ज़माने में नही पड़ा।
इस के बावुजूद कि हम इस्लाम के तमाम फ़िर्क़ों का एहतेराम करते हैं
,उनके साथ एक सफ़ में खड़े हो कर नमाज़ पढ़ते हैं
,सब के साथ मिल कर हज करते हैं और इस्लाम के तमाम मुशतरक अहदाफ़ में उनका साथ देते हैं। लेकिन हमारा मानना है कि मकतबे अली अलैहिस्सलाम की कुछ ख़ुसूसियतें हैं और इस मकतब पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की ख़ास नज़रे करम रही है इसी लिए हम इस मकतब की पैरवी करते हैं।
कुछ शिया मुख़ालिफ़ गिरोह शियत को अबादुल्लाह इब्ने सबा से मंसूब करने की कोशिश करते हैं हमेशा यह दोहराते रहते हैं कि शिया अब्दुल्लाह इब्ने सबा नामी एक शख़्स के पैरोकार हैं जो अस्ल में एक यहूदी था और बाद में इस्लाम क़बूल कर के मुसलमान बन गया था। यह बहुत अजीब बात है
,क्योँ कि शियों की तमाम किताबों को देखने से पता चलता है कि शियत का इस इस मर्द से कभी भी कोई दूर का वास्ता भी नही रहा है। बल्कि इसके बर ख़िलाफ़ शियों की इल्मे रिजाल की तमाम किताबों में अब्दुल्लाह इब्ने सबा के बारे में यह मिलता है कि वह एक गुमराह आदमी था। हमारी कुछ रिवयतों के मुताबिक़ हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने
,मुरतद होने के ज़ुर्म में उसके क़त्ल का फ़रमान जारी किया।[
29]
इस के अलावा यह कि अब्दुल्लाह इब्ने सबा का अस्ल वुजूद ही मशकूक है। क्योँ कि कुछ मुहक्क़िक़ो का मानना है कि अब्दुल्लाह इब्ने सबा एक अफ़सानवी इंसान है। उसका का वुजूदे खारजी ही नही पाया जाता था चेजाय कि वह शिया मज़हब का बुनयान गुज़ार हो।[
30]अगर उसको एक अफ़सानवी इंसान न भी माना जाये तो हमारी नज़र में वह एक गुमराह इंसान था।
75-शिया मज़हब का जोग़राफ़िया
मौजूदह ज़माने में शियों का सबसे बड़ा मरकज़ ईरान है लेकिन यह बात क़ाबिले तवज्जोह है कि ईरान हमेशा ही शियत का मरकज़ नही रहा है। बल्कि पहली सदी हिजरी में ही कूफ़ा
,यमन
,मदीना शियत के मरकज़ रहे हैं। यहाँ तक कि बनी उमैयह की जहर आलूद तबलीग़ात के बावुजूद शाम भी शियों का मरकज़ रहा है। लेकिन इन सब के बावुजूद शियों का सबसे बड़ा मरकज़ इराक़ ही रहा है।
इसी तरह सर ज़मीने मिस्र पर भी शिया हमेशा ज़िन्दगी बसर करते रहे हैं। ख़ुलफ़ा-ए- फ़तमी के दौर में तो मिस्र की हुकूमत ही शियों के हाथ में थी।[
31]
आज भी दुनिया के बहुत से मुल्कों में शिया पाये जाते हैं और सऊदी अरब के मनतका-ए- शरक़ियह में शिया एक बड़ी तादाद में रहते हैं और इस्लाम के दूसरे फ़िर्क़ों के लोगों के साथ उन के अच्छे ताल्लुक़ात हैं। इस्लाम के दुशमनों की हमेशा यह कोशिश रही है कि शिया और सुन्नी मुसलमानों के बीच दुशमनी व इख़्तेलाफ़ के बीज बो कर इन को आपस में लड़ाए और इस तरह दोनों को ही कमज़ोर कर दे।
ख़ासतौर पर आज के ज़माने में जबकि इस्लाम शर्क़ व ग़र्ब की माद्दी दुनिया के सामने एक अज़ीम ताक़त बन कर उभरा है और माद्दी तहज़ीब से थके हारे उदास लोगों को अपनी तरफ़ मुतवज्जेह कर रहा है। आज इस्लाम दुशमन अफ़राद मुसलमानों की ताक़त को तोड़ने और इस्लाम की तरक़्क़ी की रफ़्तार को सुस्त करने के लिए इस कोशिश में लगे हुए हैं कि मुसलमानों के दरमियान इख़्तेलाफ़ पैदा कर के इन को आपसी झगड़ो में उलझा दिया जाये। अगर इस्लाम के तमाम फ़िर्क़ों के लोग इस बात को समझ लें और होशियार हो जायें तो दुशमन के इस मंसूबे को ख़ाक में मिलाया जा सकता है।
यह बात भी क़ाबिले ज़िक्र है कि शियों में भी अहले सुन्नत की तरह मुताद्दिद फ़िर्के पाये जाते हैं इन में सब से मशहूर और बड़ा प़िर्क़ा शिया असना अशरी है जिसके पैरोकार तमाम दुनिया में कसीर तादाद में मौजूद हैं। अगरचे शियों की दक़ीक़ तादाद और दुनिया के दूसरे मुसलमानों की निसबत इन की तदाद सही तौर पर मालूम नही है
,मगर कुछ आकँड़ो की बुनियाद पर इस वक़्त दुनिया में तक़रीबन तीन सौ मिलयून शिया पाये जाते हैं जो आज की मुसलिम आबादी का
¼है।
76-अहले बैत (अ.) की मीरास
मकतबे शियत के पास पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की हदीसों का एक बहुत बड़ा ख़ज़ाना मौजूद है जो इस मकतब को आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिम अस्सालाम के ज़रिये हासिल हुआ हैं। इस के अलावा हज़रत अली अलैहिस्सलाम व दिगर आइम्मा के अक़वाल भी फ़रवान मौजूद हैं जो इस वक़्त शिया फ़िक़्ह व मआरिफ़ के असली मनाबे शुमार होते हैं। शिया मकतब में अहादीस की चार किताबे मोतबर समझी जाती हैं जो कुतुबे अरबा के नाम से मशहूर है जिन के नाम इस तरह हैं-
(1)काफ़ी
(2)मन ला यहज़ुरुहु अलफ़क़ीह
(3)तहज़ीब
(4)इस्तबसार
लेकिन यहाँ पर इस बात का ज़िक्र ज़रूरी है कि कोई यह न समझे कि हमारी इन चारों किताबों या दूसरी मोतबर किताबों में जो हदीसें मौजूद हैं
,वह सब मोतबर हैं। नही ऐसा नही है
,बल्कि हर हदीस का एक सनदी सिलसिला है रिजाल की किताबों की मदद से सनद में मौजूद हर इंसान के बारे में छानबीन होती है जिस रिवायत के तमाम रावी मोरिदे यक़ीन होते हैं उस हदीस के हम सही मानते हैं और जिस रिवायत के तमाम रावी मोरिदे इतमिनान नही होते हम उस हदीस को ज़ईफ़ व मशकूक मानते हैं। रिजाल की छानबीन का यह काम सिर्फ़ उलमा-ए- इल्मे रिजाल व हदीस से मख़सूस है।
यहाँ से यह बात अच्छी तरह रौशन हो जाती है कि शियों की हदीस की किताबें अहले सुन्नत की हदीस की किताबों लसे मुताफ़ावित है। क्योँकि अहले सुन्नत की कुतुबे सहा मखसूसन सही बुख़ारी व सही मुस्लिम के मोल्लिफ़ों का दावा यह है कि हम ने जो इन किताबों में हदीसे जमा की हैं हमारे नज़दीक वह सब सही व मोतबर हैं। इसी बिना पर इन हदीसो में से किसी के ज़रिये भी अहले सुन्नत के अक़ीदेह को समझा जा सकता है। इस के बर ख़िलाफ़ शिया मुहद्देसीन ने इस बात पर बिना रखी कि अहले बैत अलैहिम अस्सलाम से मंसूब जो भी हदीसें मिलें उनको जमा कर लिया जाये और इनके सही या ग़लत होने की शनाख़्त का काम उलमा-ए-रिजाल के हवाले कर दिया जाये।
77-दो अहम किताबें
वह अहम मनाबे जो शियों की बहुत अहम मीरास समझे जाते हैं उनमें से एक नहजुल बलाग़ा है। यह किताब हज़रत अली अलैहिस्सलाम के ख़ुतबों
,ख़तों और कलमाते क़िसार पर आधारित है। इस किताब को अब से एक हज़ार साल पहले मरहूम सैयद रज़ी रिजवानुल्लाह तआला अलैह ने मुरत्तब किया था। इस किताब के मतालिब
,अलफ़ाज़ की ज़ेबाई और कलाम की शीरनी ऐसी है कि जो भी इस किताब को पढ़ता है इस का गिरवीदह हो जाता है
,चाहे वह किसी भी मज़हब से ताल्लुक़ रखता हो। काश सिर्फ़ मुसलमान ही नही बल्कि अगर ग़ैरे मुसलमान भी इस किताब को पढ़ें तो इस्लाम के तौहीद व मआद के नज़रियह से आगाह हो कर इस्लाम के सियासी अख़लाक़ी व समाजी मसाइल से आशना हो जायें।
इस सिलसिला-ए-मीरास की दूसरी अहम किताब सहीफ़ा-ए-सज्जादियह है । यह किताब दुआओं का मज़मूआ है। इन दुआओं में इस्लाम के बुलन्द मर्तबा बेहतरीन मआरिफ़
,फ़सीह व जेबा इबारतों में बयान किये गये हैं। इस किताब में मौजूद दुआऐं नहजुल बलाग़ा के ख़ुत्बों की तरह हैं। जिनका हर जुम्ला इंसान को एक नया दर्स देता है और अल्लाह की इबादत व अल्लाह से दुआ का तरीक़ा सिखाते हुए इंसान की रूह को जिला बख़्शता है।
जैसा कि इस किताब के नाम से ज़ाहिर है यह किताब शिया मकतब के चौथे इमाम हज़रत ज़ैनुल आबीदीन अलैहिस्सलाम (जो कि सैयदे सज्जाद के लक़ब से मशहूर हैं) की दुआओं का मजमूआ है। हम जिस वक़्त भी यह चाहते हैं कि अल्लाह की बारगाह में दुआ करें
,उसकी इबादत में इज़ाफ़ा करें
,उस ज़ाते पाक से अपने राब्ते को और मज़बूत बनाऐं तो हम इन्हीं दुआओं को पढ़ते हैं। इन दुआओं को पढ़ने से हमारी रूह इसी तरह शाद होती है जिस तरह बारिश के पानी से सेराब हो कर सबज़ा लहलहाने लगता है।
शिया मकतब से मुताल्लिक़ दस हज़ार से ज़ाइद हदीसों में से अक्सर हदीसें पाँचवें और छटे इमाम यानी हज़रत इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम व हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ आलैहिस्सलाम से नक़्ल हुई हैं। इन आहादीस का एक अहम हिस्सा हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम से भी नक़्ल हुआ है। इस की वजह यह है कि इन तीनो बुज़ुर्गों ने ऐसे ज़माने में ज़िन्दगी बसर की जब अहले बैत अलैहिम अस्सलाम पर दुशमनों और बनी उमैयह व बनी अब्बास के हाकिमों का दबाव कम था। लिहाज़ा इस फ़ुर्सत का फ़ायदा उठाते हुए पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की वह अहादीस जो मआरिफ़ के तमाम अबवाब व इस्लामी फ़िक़ह के अहकाम से मुताल्लिक़ थी
,और इन के आबा व अजदाद के ज़रिये इन तक पहुँची थी अवाम के सामने बयान करने में कामयाब हो गये। शिया मज़हब को जाफ़री मज़हब जो कहा जाता है इस की वजह यही है कि शिया मज़हब की अक्सर रिवायतें इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम से नक़्ल हुई हैं। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम का ज़माना वह था जब बनी उमैयह रू बज़वाल थे और बनी अब्बास अभी सही से अपने पंजे नही जमा पाये थे। हमारी किताबों में मिलता है कि इसी दौरान इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने मआरिफ़े फ़िक़्ह व अहादीस में चार हज़ार शागिर्दों की तरबीयत की।
हनफ़ी मसलक के इमाम अबू हनीफ़ा हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की तारीफ़ करते हुए इस तरह कहते हैं कि
“मा रऐतु अफ़क़हा मिन दाफ़र बिन मुहम्मद
”[32]यानी मैने जाफ़र इब्ने मुहम्मद से बड़ा कोई फ़क़ीह नही देखा।
मालिकी मज़हब के इमाम मालिक िब्ने अनस कहते हैं कि
“एक मुद्दत तक मेरा जाफ़र बिन मुहम्मद के पास आना जाना रहा मैं जब भी उनके पास जाता था
,उनको तीन हालतों में से एक में पाता था या तो वह नमाज़ में मशग़ूल होते थे या रोज़े से होते थे या तिलावते क़ुरआने करीम कर रहे होते थे। मेरा अक़ीदह है कि इल्म व इबादत के लिहाज़ से जाफ़र इब्ने मुहम्मद से बाफ़ज़ीलत मर्द न किसी ने देखा है और न ही ऐसे आदमी के बारे में किसी ने सुना है।
”[33]चूँकि यह किताब बहुत मुख़्तसर है इस लिए आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिस्सलाम के बारे में उलमा-ए-इस्लाम के तमाम नज़रियात को नक़्ल नही कर रहे हैं।
78-इस्लामी उलूम में शियों का किरदार
उलूमें इस्लामी की दाग़ बाल में शियों का बहुत अहम किरदार रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि उलूमे इस्लामी शियों के ज़रिये ही फूला फला है। इस बारे में बहुत सी किताबें भी लिखी जा चुकी हैं और इन में इस दावे के सबूत भी पेश किये जा चुके हैं। लेकिन हमारा कहना है कि कम से कम इन उलूम की बुनियाद व पेशरफ़्त में शियों का बहुत बड़ा हाथ रहा है और इसकी बेहतरीन दलील इस्लामी इल्म व फ़नून में शिया उलमा की लिखी हुई किताबे हैं। शिया उलमा ने फ़िक़्ह व उसूल में हज़ारों किताबें लिखी हैं जिनमें से बहुत सी किताबें बहुत बड़ी व बेनज़ीर हैं। इसी तरह शिया उलमा ने उलूमे क़ुरआन
,तफ़्सीर
,अक़ाइद व इल्मे कलाम में हज़ारों किताबें लिखी हैं। इन में से बहुत सी किताबें आज भी हमारे किताब खानों के अलावा दुनिया के बड़े बड़े व मशहूर किताब ख़ानों में मौजूद हैं। जिस का दिल चाहे वह इन किताब ख़ानों में जाकर इन किताबों को देखे और इस क़ौल की सदाक़त को जाने।
इमामत
पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की शहादत के बाद इस्लामी समाज में पैग़म्बर (स.) के जानशीन (उत्तराधिकारी) और खिलाफ़त का मसला सब से ज़्यादा महत्वपूर्ण था। एक गिरोह ने पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के कुछ असहाब के कहने पर हज़रत अबू बकर को पैग़म्बर (स.) का ख़लीफ़ा (उत्तराधिकारी) चुन लिया
,लेकिन दूसरा गिरोह पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के हुक्म के अनुसार हज़रत अली (अ. स.) की खिलाफ़त के ईमान पर अटल रहा। एक लम्बा समय बीतने के बाद पहला गिरोह अहले सुन्नत व अल- जमाअत के नाम से और दूसरा गिरोह शिया के नाम से मशहूर हुआ।
यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि शिया व सुन्नी के बीच जो अन्तर पाया जाता है वह सिर्फ पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के जानशीन के आधार पर नहीं है
,बल्कि इमाम के मअना व मफ़हूम के बारे में भी दोनों मज़हबो (सम्प्रदायों) के दृष्टिकोणों में बहुत ज़्यादा फर्क पाया जाता है। अतः इसी आधार पर दोनों मज़हब एक दूसरे से अलग हो गये हैं।
हम यहाँ पर इस बात की वज़ाहत (व्याख़्या) के लिए (इमाम और इमामत) के मअना की तहक़ीक़ करते हैं ताकि दोनों के नज़रिये स्पष्ट हो जायें।
शाब्दिक आधार पर इमामत का अर्थ व मअना नेतृत्व व रहबरी हैं और एक निश्चित मार्ग में किसी गिरोह की सर परस्ती करने वाले ज़िम्मेदार को इमाम कहा जाता है। मगर दीन की इस्तलाह (धार्मिक व्याख़यानो व लेखों में प्रयोग होने वाले विशेष शब्दों को इस्तलाह कहा जाता है) में इमामत के विभिन्न अर्थ व मअना उल्लेख हुए हैं।
सुन्नी मुसलमानों के नज़रिये के अनुसार इमामत दुनिया की बादशाही का नाम है और इस के द्वारा इस्लामी समाज का नेतृत्व किया जाता है। अतः जिस तरह हर समाज को एक रहबर व उच्च नेतृत्व की ज़रुरत होती है और उसमें रहने वाले लोग अपने लिए एक रहबर को चुनते हैं
,इसी तरह इस्लामी समाज के लिए भी ज़रुरी है कि वह पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के बाद अपने लिए एक रहबर का चुनाव करे
,और चूँकि इस्लाम धर्म में इस चुनाव के लिए कोई खास तरीका निश्चित नहीं किया गया है इस लिए पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के जानशीन (उत्तराधिकारी) के चुनाव के लिए विभिन्न तरीकों को अपनाया जा सकता है। जैसे- जिसे पब्लिक या बुज़ुर्गों का अधिक समर्थन मिल जाये या जिसके लिए पहला जानशीन वसीयत करदे या जो बगावत कर के या फौजी ताक़त का प्रयोग कर के हुकूमत पर क़ब्ज़ा कर ले।
लेकिन शिया मुसलमानों का मत है कि हज़रत मुहम्मद (स.) अल्लाह के आख़िरी पैग़म्बर थे और उनके बाद पैग़म्बरी ख़त्म हो गई। उनके बाद पैग़म्बरी की जगह इमामत ने लेली अर्थात अल्लाह ने इंसानों की हिदायत के लिए पैग़म्बर के स्थान पर इमाम भेजने शुरू कर दिये। इमाम मखलूक के बीच अल्लाह की हुज्जत और उसके फ़ैज़ का वास्ता होता है। अतः शिया इस बात पर यक़ीन व ईमान रखते हैं कि इमाम को सिर्फ अल्लाह निश्चित व नियुक्त करता है और उसे पैग़म्बर
,वही का पैग़ाम लाने वाले के द्वारा पहचनवाता है। यह नज़रिया इमामत की अज़मत और बलन्दी (महानता) के साथ शिया फ़िक्र में पाया जाता है। इस नज़रिये के अनुसार इमाम का कार्य क्षेत्र बहुत व्यापक है वह इस्लामी समाज का सरपरस्त होता है और अल्लाह के अहकाम को बयान करता है
,क़ुरआन का मुफ़स्सिर होता है और इंसानों को राहे सआदत (कल्याण व निजात) की हिदायत करता हैं। बल्कि इससे भी अधिक स्पष्ट शब्दों में यह कहा जा सकता है कि शिया संस्कृति में
“इमाम
”पब्लिक की दीन और दुनिया की मुश्किलों को हल करने वाले व्यक्तित्व का नाम है। इसके विपरीत अहले सुन्नत का मानना यह है कि खलीफ़ा या इमाम की ज़िम्मेदारी सिर्फ दुनिया से संबंधित कामों में हुकूमत करना है।
इमाम की ज़रुरत
इन नज़रीयों के उल्लेख के बाद अब इस सवाल का जवाब देना उचित है कि कुरआने करीम और सुन्नते पैग़म्बर (स.) के बावजूद इमाम की क्या ज़रुरत है
?इमाम की ज़रुरत के लिए बहुत से दलीलें पेश की गई हैं लेकिन हम यहाँ पर उन में से सिर्फ़ एक को अपने सादे शब्दों में पेश कर रहे हैं।
जिस दलील के द्वारा नबियों (अ. स.) की ज़रुरत साबित होती है
,वही दलील इमाम की ज़रुरत को भी साबित करती है। एक बात तो यह कि क्यों कि इस्लाम आखरी दीन है और हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.) अल्लाह की तरफ़ से आने वाले आखरी पैग़म्बर हैं
,अतः ज़रूरी है कि इस्लाम में इतनी व्यापकता हो कि वह क़ियामत तक की इंसानों की सारी ज़रुरतों को पूरा कर सके। दूसरी बात यह कि कुरआने करीम में इस्लाम के उसूल (आधारभूत सिद्धान्त)
,अहकाम (आदेश) और इलाही तालीमों (शिक्षाओं) को आम व आंशिक रूप में उल्लेख किया गया हैं और उनकी तफ़्सीर व व्याख़्या पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़िम्मे है।[
1]यह बात स्पष्ट है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने मुसलमानों के हादी और रहबर के रूप में ज़माने की ज़रुरतों के अनुसार और अपने ज़माने के इस्लामी समाज की योग्यता के अनुरूप अल्लाह की आयतों को बयान किया अतः पैग़म्बर इस्लाम (स.) के लिए आवश्यक है कि अपने बाद वाले ज़माने के लिए कुछ ऐसे लायक जानशीनों को छोड़ें जो ख़ुदा वन्दे आलम के ला महदूद (अपार व असीमित) इल्म के दरिया से संबंधित हो ताकि जिन चीज़ों को पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने बयान नहीं किया
,वह उनको बयान करें और हर ज़माने में इस्लामी समाज की ज़रूरतों को पूरा करते रहें ।
इसी लिए इमाम (अ. स.) पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की छोड़ी हुई मिरास के मुहाफिज़ (रक्षा करने वाले)
,कुरआने करीम के सच्चे मुफ़स्सिर और उस के सही मअना बयान करने वाले हैं
,ताकि अल्लाह का दीन स्वार्थी दुशमनों के द्वारा तहरीफ (परिवर्तन) का शिकार न हो और यह पाक व पाक़ीज़ा दीन क़ियामत तक बाकी रहे।
इसके अलावा
,इमाम इंसाने कामिल (पूर्ण रूप से विकसित इन्सान) के रूप में इन्सानियत के तमाम पहलुओं में नमूनए अमल (आदर्श) है। क्यों कि इन्सानियत को एक ऐसे नमूने की सख्त ज़रुरत है जिसकी मदद और हिदायत के द्वारा इंसानी सामर्थ्य के अनुसार तरबियत (प्रशिक्षण) पा सके और इन आसमानी प्रशिक्षकों के आधीन रह कर भटकाव व अपने नफ्स की इच्छाओं के जाल और बाहरी शैतानों से सुरक्षित रह सके।
उपरोक्त विवरण से ये बात स्पष्ट हो जाती है कि जनता को इमाम की बहुत ज़रुरत है और इमाम की ज़िम्मेदारियाँ निमन लिखित हैं।
oसमाज का नेतृत्व व समाजी मुश्किलों का समाधान करना अर्थात हुकूमत की की स्थापना।
oपैग़म्बरे इस्लाम के दीन को तहरीफ़ (परिवर्तन) से बचाना और कुरआन के सही मअनी बयान करना।
oलोगों के दिलों का तज़किया करना अर्थात उन्हें पवित्र बनाना और उन की हिदायत करना।[
2]
इमाम की विशेषताएं
पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का जानशीन अर्थात इमाम
,दीन को ज़िन्दा रखता और इंसानी समाज की ज़रुरतों को पूरा करता है। इमाम के व्यक्तित्व में इमामत के महान पद के कारण कुछ विशेषताएं पाई जाती हैं जिन में से कुछ मुख़्य विशेषताएं निम्न लिखित हैं।
vइमाम
,मुत्तक़ी
,परहेज़गार और मासूम होता है
,जिसकी वजह से उससे एक छोटा गुनाह भी नहीं हो सकता।
vइमाम के इल्म का आधार पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का इल्म होता है और वह अल्लाह के इल्म से संपर्क में रहता है
,अतः वह भौतिक व आध्यात्मिक
,दीन और दुनिया की तमाम मुश्किलों के हल का ज़िम्मेदार होता है।
vइमाम में तमाम फ़ज़ायल (सदगुण) मौजूद होते हैं और वह उच्च अख़लाक़ का मालिक होता है।
vदीन के आधार पर इंसानी समाज को सही रास्ते पर चलाने की योग्यता रखता है।
उरोक्त वर्णित विशेषताओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि इमाम का चुनाव जनता के बस से बाहर है। अतः सिर्फ़ ख़ुदा वन्दे आलम ही अपने असीम इल्म के आधार पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के जानशीन (इमाम) का चुनाव कर सकता है। अतः इमाम की विशेषताओं में सब से बड़ी व मुख्य विशेषता उसका ख़ुदा वन्दे आलम की तरफ़ से मन्सूब नियुक्त) होना है।
प्रियः पाठको इमाम की इन विशेषताओं के महत्व को ध्यान में रखते हुए हम यहाँ पर इन में से हर विशेषता के बारे में संक्षेप में लिख रहे हैं।
इमाम का इल्म
इमाम
,जिस पर लोगों की हिदायत और रहबरी की ज़िम्मेदारी होती है
,उसके लिए ज़रुरी है कि दीन के तमाम पहलुओं को पहचानता हो और उसके क़ानूनों से पूर्ण रूप से परिचित हो। कुरआने करीम की तफ़्सीर को जानता हो और पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की सुन्नत को भी पूरी तरह से जानता हो ताकि अल्लाह को पहचनवाने वाली चीज़ों और दीन की शिक्षाओं को भली भाँती स्पष्ट रूप से बयान करे और जनता के विभिन्न सवालों के जवाब दे तथा उनका बेहतरीन तरीके से मार्गदर्शन करे। स्पष्ट है कि ऐसी ही इल्म रखने वाले इंसान पर लोगों को विश्वास हो सकता है
,और ऐसा इल्म सिर्फ़ ख़ुदा वन्दे आलम के असीम इल्म से संमपर्क रहने की सूरत में ही मुम्किन है। इसी वजह से शिया इस बात पर यक़ीन रखते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के जानशीन (इमाम) का इल्म ख़ुदा के असीम इल्म से संबंधित होता है।
हज़रत इमाम अली (अ. स.) सच्चे इमाम की निशानियों के बारे में फरमाते हैं।
“
इमाम
,अल्लाह के द्वारा हलाल व हराम किये गये कामों
,विभिन्न आदेशों
,अल्लाह के अम्र व नही और लोगों की ज़रुरतों का सब से ज़्यादा जानने वाला होता है।
”[3]
इमाम की इस्मत
इमाम की महत्वपूर्ण विशेषताओं और इमामत की आधारभूत शर्तों में से एक शर्त इस्मत है। (इस्मत यानी इमाम का मासूम होना) इस्मत एक ऐसा मल्का है जो हक़ीक़त के इल्म और मज़बूत इरादे से वजूद में आता है। चूँकि इमाम में ये दोनों चीज़ें पाई जाती हैं इस लिए वह हर गुनाह और खता से दूर रहता है। इमाम भी दीन की शिक्षाओं को जानने
,उन्हें बयान करने
,उन पर अमल करने और इस्लामी समाज की अच्छाईयों और बुराईयों की पहचान के बारे में ख़ता व ग़लती से महफूज़ रहता है।
इमाम की इस्मत के लिए कुरआन
,सुन्नत और अक्ल से बहुत सी दलीलें पेश की गई हैं। उन में से कुछ महत्वपूर्ण दलीलें निम्न लिखित हैं हैं।
1.दीन और दीनदारी की हिफाज़त इमाम की इस्मत पर आधारित है। क्यों कि इमाम पर लोगों को दीन की तरफ़ हिदायत करने और दीन को तहरीफ़ (परिवर्तन) से बचाये रखने की ज़िम्मेदारी होती है। इमाम का कलाम (प्रवचन)
,उनका व्यवहार और उनके द्वारा अन्य लोगों के कामों का समर्थन या खंडन करना समाज के लिए प्रभावी होता हैं। अतः इमाम दीन को समझने और उस पर अमल करने (क्रियान्वित होने) में हर ख़ता व ग़लती से सुरक्षित होना चाहिए ताकि अपने मानने वालों को सही तरीके से हिदायत कर सके।
2.समाज को इमाम की ज़रुरत की एक दलील यह भी है कि जनता दीन
,दीन के अहकाम और शरियत के क़ानूनों को समझने में खता व गलती से ख़ाली नहीं हैं। अतः अगर उनका रहबर
,इमाम या हादी भी उन्हीँ की तरह हो तो फिर उस इमाम पर किस तरह से भरोसा किया जा सकता है
?दूसरे शब्दों में इस तरह कहा जा सकता है कि अगर इमाम मासूम न हो तो जनता उसका अनुसरन करने और उसके हुक्म पर चलने में शक व संकोच करेगी।[
4]
इमाम की इस्मत पर कुरआने करीम की आयतें भी दलालत करती हैं जिन में सूरह ए बकरा की
124वीं आयत है
,इस आयते शरीफ़ा में बयान हुआ है कि जब ख़ुदा वन्दे आलम ने जनाबे इब्राहीम (अ. स.) को नबूवत के बाद इमामत का बलन्द (उच्च) दर्जा दिया तो उस मौक़े पर हज़रत इब्राहीम (अ. स.) ने ख़ुदा वन्दे आलम की बारगाह में दुआ की कि इस ओहदे को मेरी नस्ल में भी बाक़ी रखना
,जनाबे इब्राहीम (अ.स.) की इस दुआ पर ख़ुदा वन्दे आलम ने फरमायाः
यह मेरा ओहदा (इमामत) ज़ालिमों और सितमगरों तक नहीं पहुच सकता
,यानी इमामत का यह ओहदा हज़रत इब्राहीम (अ. स.) की नस्ल में उन लोगों तक पहुंचेगा जो ज़ालिम नही होंगे।
हालांकि कुरआने करीम ने ख़ुदा वन्दे आलम के साथ शिर्क को अज़ीम ज़ुल्म क़रार दिया है और अल्लाह के हुक्म के विपरीत काम करने को अपने नफ़्स (आत्मा) पर ज़ुल्म माना है और यह गुनाह है। यानी जिस इंसान ने अपनी ज़िन्दगी के किसी भी हिस्से में कोई गुनाह किया है
,वह ज़ालिम है अतः वह किसी भी हालत में इमामत के ओहदे के योग्य नहीं हो सकता है।
दूसरे शब्दो में यह कह सकते हैं कि इस बात में कोई शक नहीं है कि जनाबे इब्राहीम (अ. स.) ने इमामत को अपनी नस्ल में से उन लोगों के लिए नहीं मांगा था
,जिन की पूरी उम्र गुनाहों में गुज़रे या जो पहले नेक हों और बाद में बदकार हो जायें। अगर इस बात को आधार मान कर चलें तो सिर्फ दो किस्म के लोग बाक़ी रह जाते हैं।
1.वह लोग जो शुरु में गुनहगार थे
,लेकिन बाद में तौबा कर के नेक हो गए।
2.वह लोग जिन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी में कोई गुनाह न किया हो।
3.ख़ुदा वन्दे आलम ने अपने कलाम में पहली किस्म को अलग कर दिया
,यानी पहले गिरोह को (वह लोग जो शुरु में गुनहगार थे
,लेकिन बाद में तौबा कर के नेक हो गए। ) इमामत नहीं मिलेगी इस का नतीजा यह निकलता है कि इमामत का ओहदा सिर्फ़ दूसरे गिरोह से मख्सूस हैं
,यानी उन लोगों से जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी में कोई गुनाह न किया हो।
इमाम
,समाज को व्यवस्थित करने वाला होता है
चूँकि इंसान एक समाजिक प्राणी है और समाज इसके दिल व जान और व्यवहार को बहुत ज़्यादा प्रभावित करता है
,अतः इंसान की सही तरबियत और अल्लाह की तरफ़ बढ़ने के लिए समाजिक रास्ता हमवार होना चाहिए और यह चीज़ इलाही और दीनी हुकूमत के द्वारा ही मुम्किन हो सकती है। अतः ज़रूरी है कि लोगों का इमाम व हादी ऐसा होना चाहिए जिसमें समाज को चलाने व उसे दिशा देने की योग्यता पाई जाती हो और वह कुरआन की शिक्षाओं और नबी की सुन्नत (कार्य शैली) का सहारा लेते हुए बेहतरीन तरीके से इस्लामी हुकूमत की बुनियाद डाल सके।
इमाम का अख़लाक बहुत अच्छा होता है
इमाम चूँकि पूरे इंसानी समाज का हादी (मार्गदर्शक) होता है अतः उसके लिए ज़रूरी है कि वह तमाम बुराईयों से पाक हो और उसके अन्दर बेहतरीन अख़लाक पाया जाता हो
,क्यों कि वह अपने मानने वालों के लिए इंसाने कामिल का बेहतरीन नमूना माना जाता है।
हज़रत इमामे रिज़ा (अ. स.) फरमाते हैं कि :
इमाम की कुछ निशानियां होती हैं
,जैसे
,वह सब से बड़ा आलिम
,सब से ज़्यादा नेक
,सब से ज़्यादा हलीम (बर्दाश्त करने वाला)
,सब से ज़्यादा बहादुर
,सब से ज़्यादा सखी (दानी) और सब से ज़्यादा इबादत करने वाला होता है।[
5]
इसके अलावा चूँकि इमाम
,पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का जानशीन (उत्तराधिकारी) होता है
,और वह हर वक़्त इंसानों की तालीम व तरबियत की कोशिश करता रहता है अतः उसके लिए ज़रूरी है कि वह अख़लाक़ के मैदान में दूसरों से ज़्यादा से सुसज्जित हो।
हज़रत इमाम अली (अ. स.) फरमाते हैं कि :
जो इंसान (अल्लाह के हुक्मे) ख़ुद को लोगों का इमाम बना ले उसके लिए ज़रुरी है कि दूसरों को तालीम देने से पहले ख़ुद अपनी तालीम के लिए कोशिश करे
,और ज़बान के द्वारा लोगों की तरबियत करने से पहले
,अपने व्यवहार व किरदार से दूसरों की तरबियत करे।[
6]
इमाम ख़ुदा की तरफ़ से मंसूब (नियुक्त) होता है
शिया मतानुसार पैग़म्बर (स.) का जानशीन (इमाम) सिर्फ अल्लाह के हुक्म से चुना जाता है और वही इमाम को मंसूब (नियुक्त) करता है। जब अल्लाह किसी को इमाम बना देता है तो पैग़म्बर (स.) उसे इमाम के रूप में पहचनवाते हैं। अतः इस मसले में किसी भी इंसान या गिरोह को हस्तक्षेप का हक़ नहीं है।
इमाम के अल्लाह की तरफ़ से मंसूब होने पर बहुत सी दलीलें है
,उनमें से कुछ निमन लिखित हैं।
1.कुरआने करीम के अनुसार ख़ुदा वन्दे आलम तमाम चीज़ों पर हाकिमे मुतलक़ (जो समस्त चीज़ों को हुक्म देता है या जिसका हुक्म हर चीज़ पर लागू होता है
,उसे हाकिमे मुतलक़ कहते हैं।) है और उसकी इताअत (अज्ञा पालन) सब के लिए ज़रुरी है। ज़ाहिर है कि यह हाकमियत ख़ुदा वन्दे आलम की तरफ़ से (इसकी योग्यता रखने वाले) किसी भी इंसान को दी जा सकती है। अतः जिस तरह नबी और पैग़म्बर (अ. स.) ख़ुदा की तरफ़ से नियुक्त होते हैं
,उसी तरह इमाम को भी ख़ुदा नियुक्त करता है और इमाम लोगों पर विलायत रखता है यानी उसे समस्त लोगों पर पूर्ण अधिकार होता है।
2.इस से पहले (ऊपर) इमाम के लिए कुछ खास विशेषताएं लिखी गई हैं जैसे इस्मत
,इल्म आदि....
,और यह बात स्पष्ट है कि इन ऐसी विशेषताएं रखने वाले इंसान की पहचान सिर्फ़ ख़ुदा वन्दे आलम ही करा सकता है
,क्यों कि वही इंसान के ज़ाहिर व बातिन (प्रत्यक्ष व परोक्ष) से आगाह है
,जैसा कि ख़ुदा वन्दे आलम कुरआने मजीद में जनाबे इब्राहीम (अ. स.) को संबोधित करते हुए फरमाता हैः
हम ने
,तुम को लोगों का इमाम बनाया।[
7]
सबसे अच्छी बात
अपनी बात के इस आखरी हिस्से में हम उचित समझते हैं कि आठवें इमाम हज़रत अली रिज़ा (अ.स.) की वह हदीस बयान करें जिसमें इमाम (अ. स.) इमाम की विशेषताओं का वर्णन किया है।
इमाम (अ. स.) ने कहा कि : जिन्होंने इमामत के बारे में मत भेद किया और यह समझ बैठे कि इमामत एक चुनाव पर आधारित मसला है
,उन्होंने अपनी अज्ञानता का सबूत दिया।....... क्या जनता जानती है कि उम्मत के बीच इमामत की क्या गरीमा है
,जो वह मिल बैठ कर इमाम का चुनाव कर ले।
इसमें कोई शक नही है कि इमामत का ओहदा बहुत बुलन्द
,उच्च व महत्वपूर्ण है और उस की गहराई इतनी ज़्यादा है कि लोगों की अक्ल उस तक नहीं पहुँच पाती है या वह अपनी राय के द्वारा उस तक नहीं पहुँच सकते हैं।
बेशक इमामत वह ओहदा है कि ख़ुदा वन्दे आलम ने जनाबे इब्राहीम (अ. स.) को नबूवत व खुल्लत देने के बाद तीसरे दर्जे पर इमामत दी है। इमामत अल्लाह व रसूल (स.) की ख़िलाफ़त और हज़रत अमीरुल मोमेनीन अली (अ. स.) व हज़रत इमाम हसन व हज़रत इमाम हुसैन (अ. स.) की मीरास है।
सच्चाई तो यह है कि इमामत
,दीन की बाग ड़ोर
,मुसलमानों के कामों की व्यवस्था की बुनियाद
,मोमिनीन की इज़्ज़त
,दुनिया की खैरो भलाई का ज़रिया है और नमाज़
,रोज़ा
,हज
,जिहाद
,के कामिल होने का साधन है।
,इमाम के ज़रिये ही (उस की विलायत को क़बूल करने की हालत में) सरहदों की हिफ़ाज़त होती है।
इमाम अल्लाह की तरफ़ से हलाल कामों को हलाल और उसकी तरफ़ से हराम किये गये कामों को हराम करता है। वह ख़ुदा वन्दे आलम के हक़ीक़ी हुक्म के अनुसार हुक्म करता है) हुदूदे उलाही को क़ायम करता है
,ख़ुदा के दीन की हिमायत करता है
,और हिकमत व अच्छे वाज़ व नसीहत के ज़रिये
,बेहतरीन दलीलों के साथ लोगों को ख़ुदा की तरफ़ बुलाता है।
इमाम सूरज की तरह उदय होता है और उस की रौशनी पूरी दुनिया को प्रकाशित कर देती है
,और वह ख़ुद उफ़क़ (अक्षय) में इस तरह से रहता है कि उस तक हाथ और आँखें नहीं पहुँच पाते। इमाम चमकता हुआ चाँद
,रौशन चिराग
,चमकने वाला नूर
,अंधेरों
,शहरो व जंगलों और दरियाओं के रास्तों में रहनुमाई (मार्गदर्शन) करने वाला सितारा है
,और लड़ाई झगड़ों व जिहालत से छुटकारा दिलाने वाला है।
इमाम हमदर्द दोस्त
,मेहरबान बाप
,सच्चा भाई
,अपने छोटे बच्चों से प्यार करने वाली माँ जैसा और बड़ी - बड़ी मुसीबतों में लोगों के लिए पनाह गाह होता है। इमाम गुनाहों और बुराईयों से पाक करने वाला होता है। वह मख़सूस बुर्दबारी और हिल्म (धैर्य) की निशानी रखता है। इमाम अपने ज़माने का तन्हा इंसान होता है और ऐसा इंसान होता है
,जिसकी अज़मत व उच्चता के न कोई क़रीब जा सकता है और न कोई आलिम उस की बराबरी कर सकता है
,न कोई उस की जगह ले सकता है और न ही कोई उस जैसा दूसरा मिल सकता है।
अतः इमाम की पहचान कौन कर सकता है
?या कौन इमाम का चुनाव कर सकता
?यहाँ पर अक़्ल हैरान रह जाती है
,आँखें बे नूर
,बड़े छोटे और बुद्दीजीवी दाँतों तले ऊँगलियाँ दबाते हैं
,खुतबा (वक्ता) लाचार हो जाते हैं और उन में इमाम का श्रेष्ठ कामों की तारीफ़ करने की ताक़त नहीं रहती और वह सभी अपनी लाचारी का इक़रार करते हैं।[
8]