अल्लामा इक़बाल की नज़मे

अल्लामा इक़बाल की नज़मे33%

अल्लामा इक़बाल की नज़मे लेखक:
कैटिगिरी: शेर व अदब

अल्लामा इक़बाल की नज़मे
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अल्लामा इक़बाल की नज़मे

अल्लामा इक़बाल की नज़मे

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.


अल्लामा इक़बाल की ये नज़मे हमने रे्ख्ता नामक साइट से ली है और इनको बग़ैर किसी कमी या ज़्यादती के मिनो अन एक किताबी शक्ल मे जमा कर दिया है। इन नज़मो की तादाद उन्तीस है।

अल्लामा इक़बाल की नज़मे

अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

अबुल-अला-म 'अर्री

कहते हैं कभी गोश्त न खाता था म 'अर्री

फल-फूल पे करता था हमेशा गुज़र-औक़ात

इक दोस्त ने भूना हुआ तीतर उसे भेजा

शायद कि वो शातिर इसी तरकीब से हो मात

ये ख़्वान-ए-तर-ओ-ताज़ा म 'अर्री ने जो देखा

कहने लगा वो साहिब-ए-गुफ़रान-ओ-लुज़ूमात

ऐ मुर्ग़क-ए-बेचारा ज़रा ये तो बता तू

तेरा वो गुनह क्या था ये है जिस की मुकाफ़ात ?

अफ़्सोस-सद-अफ़्सोस कि शाहीं न बना तू

देखे न तिरी आँख ने फ़ितरत के इशारात!

तक़दीर के क़ाज़ी का ये फ़तवा है अज़ल से

है जुर्म-ए-ज़ईफ़ी की सज़ा मर्ग-ए-मुफ़ाजात!

इबलीस की मजलिस-ए-शूरा

इबलीस

ये अनासिर का पुराना खेल ये दुनिया-ए-दूँ

साकिनान-ए-अर्श-ए-आज़म की तमन्नाओं का ख़ूँ

इस की बर्बादी पे आज आमादा है वो कारसाज़

जिस ने इस का नाम रखा था जहान-ए-काफ़-अो-नूँ

मैं ने दिखलाया फ़रंगी को मुलूकियत का ख़्वाब

मैं ने तोड़ा मस्जिद-ओ-दैर-ओ-कलीसा का फ़ुसूँ

मैं ने नादारों को सिखलाया सबक़ तक़दीर का

मैं ने मुनइ 'म को दिया सरमाया दारी का जुनूँ

कौन कर सकता है इस की आतिश-ए-सोज़ाँ को सर्द

जिस के हंगामों में हो इबलीस का सोज़-ए-दरूँ

जिस की शाख़ें हों हमारी आबियारी से बुलंद

कौन कर सकता है इस नख़्ल-ए-कुहन को सर-निगूँ

पहला मुशीर

इस में क्या शक है कि मोहकम है ये इबलीसी निज़ाम

पुख़्ता-तर इस से हुए खोई ग़ुलामी में अवाम

है अज़ल से इन ग़रीबों के मुक़द्दर में सुजूद

इन की फ़ितरत का तक़ाज़ा है नमाज़-ए-बे-क़याम

आरज़ू अव्वल तो पैदा हो नहीं सकती कहीं

हो कहीं पैदा तो मर जाती है या रहती है ख़ाम

ये हमारी सई-ए-पैहम की करामत है कि आज

सूफ़ी-ओ-मुल्ला मुलूकिय्यत के बंदे हैं तमाम

तब-ए-मशरिक़ के लिए मौज़ूँ यही अफ़यून थी

वर्ना क़व्वाली से कुछ कम-तर नहीं इल्म-ए-कलाम

है तवाफ़-ओ-हज का हंगामा अगर बाक़ी तो क्या

कुंद हो कर रह गई मोमिन की तेग़-ए-बे-नियाम

किस की नौ-मीदी पे हुज्जत है ये फ़रमान-ए-जदीद

है जिहाद इस दौर में मर्द-ए-मुसलमाँ पर हराम

दूसरा मुशीर

ख़ैर है सुल्तानी-ए-जम्हूर का ग़ौग़ा कि शर

तू जहाँ के ताज़ा फ़ित्नों से नहीं है बा-ख़बर

पहला मुशीर

हूँ मगर मेरी जहाँ-बीनी बताती है मुझे

जो मुलूकियत का इक पर्दा हो क्या इस से ख़तर

हम ने ख़ुद शाही को पहनाया है जमहूरी लिबास

जब ज़रा आदम हुआ है ख़ुद-शनास-ओ-ख़ुद-निगर

कारोबार-ए-शहरयारी की हक़ीक़त और है

ये वजूद-ए-मीर-ओ-सुल्ताँ पर नहीं है मुनहसिर

मज्लिस-ए-मिल्लत हो या परवेज़ का दरबार हो

है वो सुल्ताँ ग़ैर की खेती पे हो जिस की नज़र

तू ने क्या देखा नहीं मग़रिब का जमहूरी निज़ाम

चेहरा रौशन अंदरूँ चंगेज़ से तारीक-तर

तीसरा मुशीर

रूह-ए-सुल्तानी रहे बाक़ी तो फिर क्या इज़्तिराब

है मगर क्या इस यहूदी की शरारत का जवाब

वो कलीम-ए-बे-तजल्ली वो मसीह-ए-बे-सलीब

नीस्त पैग़मबर व-लेकिन दर बग़ल दारद किताब

क्या बताऊँ क्या है काफ़िर की निगाह-ए-पर्दा-सोज़

मश्रिक-ओ-मग़रिब की क़ौमों के लिए रोज़-ए-हिसाब

इस से बढ़ कर और क्या होगा तबीअ 'त का फ़साद

तोड़ दी बंदों ने आक़ाओं के ख़ेमों की तनाब

चौथा मुशीर

तोड़ इस का रुमत-उल-कुबरा के ऐवानों में देख

आल-ए-सीज़र को दिखाया हम ने फिर सीज़र का ख़्वाब

कौन बहर-ए-रुम की मौजों से है लिपटा हुआ

गाह बालद-चूँ-सनोबर गाह नालद-चूँ-रुबाब

तीसरा मुशीर

मैं तो इस की आक़िबत-बीनी का कुछ क़ाइल नहीं

जिस ने अफ़रंगी सियासत को क्या यूँ बे-हिजाब

पाँचवाँ मुशीर इबलीस को मुख़ातब कर के

ऐ तिरे सोज़-ए-नफ़स से कार-ए-आलम उस्तुवार

तू ने जब चाहा किया हर पर्दगी को आश्कार

आब-ओ-गिल तेरी हरारत से जहान-ए-सोज़-अो-साज़़

अब्लह-ए-जन्नत तिरी तालीम से दाना-ए-कार

तुझ से बढ़ कर फ़ितरत-ए-आदम का वो महरम नहीं

सादा-दिल बंदों में जो मशहूर है पर्वरदिगार

काम था जिन का फ़क़त तक़्दीस-ओ-तस्बीह-ओ-तवाफ़

तेरी ग़ैरत से अबद तक सर-निगूँ-ओ-शर्मसार

गरचे हैं तेरे मुरीद अफ़रंग के साहिर तमाम

अब मुझे उन की फ़रासत पर नहीं है ए 'तिबार

वो यहूदी फ़ित्ना-गर वो रूह-ए-मज़दक का बुरूज़

हर क़बा होने को है इस के जुनूँ से तार तार

ज़ाग़ दश्ती हो रहा है हम-सर-ए-शाहीन-अो-चर्ग़

कितनी सुरअ 'त से बदलता है मिज़ाज-ए-रोज़गार

छा गई आशुफ़्ता हो कर वुसअ 'त-ए-अफ़्लाक पर

जिस को नादानी से हम समझे थे इक मुश्त-ए-ग़ुबार

फ़ितना-ए-फ़र्दा की हैबत का ये आलम है कि आज

काँपते हैं कोहसार-ओ-मुर्ग़-ज़ार-ओ-जूएबार

मेरे आक़ा वो जहाँ ज़ेर-ओ-ज़बर होने को है

जिस जहाँ का है फ़क़त तेरी सियादत पर मदार

इल्तिजा-ए-मुसाफ़िर

ब - दरगाह - ए - हज़रत महबूब - ए - इलाही देहली

फ़रिश्ते पढ़ते हैं जिस को वो नाम है तेरा

बड़ी जनाब तिरी फ़ैज़ आम है तेरा

सितारे इश्क़ के तेरी कशिश से हैं क़ाएम

निज़ाम-ए-मेहर की सूरत निज़ाम है तेरा

तिरी लहद की ज़ियारत है ज़िंदगी दिल की

मसीह ओ ख़िज़्र से ऊँचा मक़ाम है तेरा

निहाँ है तेरी मोहब्बत में रंग-ए-महबूबी

बड़ी है शान बड़ा एहतिराम है तेरा

अगर सियाह दिलम दाग़-ए-लाला-ज़ार-ए-तवाम

दिगर कुशादा जबीनम गुल-ए-बहार-ए-तवाम

चमन को छोड़ के निकला हूँ मिस्ल-ए-निकहत-ए-गुल

हुआ है सब्र का मंज़ूर इम्तिहाँ मुझ को

चली है ले के वतन के निगार-ख़ाने से

शराब-ए-इल्म की लज़्ज़त कशाँ कशाँ मुझ को

नज़र है अब्र-ए-करम पर दरख़्त-ए-सहरा हूँ

किया ख़ुदा ने न मोहताज-ए-बाग़बाँ मुझ को

फ़लक-नशीं सिफ़त-ए-मेहर हूँ ज़माने में

तिरी दुआ से अता हो वो नर्दबाँ मुझ को

मक़ाम हम-सफ़रों से हो इस क़दर आगे

कि समझे मंज़िल-ए-मक़्सूद कारवाँ मुझ को

मिरी ज़बान-ए-क़लम से किसी का दिल न दुखे

किसी से शिकवा न हो ज़ेर-ए-आसमाँ मुझ को

दिलों को चाक करे मिस्ल-ए-शाना जिस का असर

तिरी जनाब से ऐसी मिले फ़ुग़ाँ मुझ को

बनाया था जिसे चुन चुन के ख़ार ओ ख़स मैं ने

चमन में फिर नज़र आए वो आशियाँ मुझ को

फिर आ रखूँ क़दम-ए-मादर-ओ-पिदर पे जबीं

किया जिन्हों ने मोहब्बत का राज़-दाँ मुझ को

वो शम-ए-बारगह-ए-ख़ानदान-ए-मुर्तज़वी

रहेगा मिस्ल-ए-हरम जिस का आस्ताँ मुझ को

नफ़स से जिस के खिली मेरी आरज़ू की कली

बनाया जिस की मुरव्वत ने नुक्ता-दाँ मुझ को

दुआ ये कर कि ख़ुदावंद-ए-आसमान-ओ-ज़मीं

करे फिर उस की ज़ियारत से शादमाँ मुझ को

वो मेरा यूसुफ़-ए-सानी वो शम-ए-महफ़िल-ए-इश्क़

हुई है जिस की उख़ुव्वत क़रार-ए-जाँ मुझ को

जला के जिस की मोहब्बत ने दफ़्तर-ए-मन-ओ-तू

हवा-ए-ऐश में पाला किया जवाँ मुझ को

रियाज़-ए-दहर में मानिंद-ए-गुल रहे ख़ंदाँ

कि है अज़ीज़-तर अज़-जाँ वो जान-ए-जाँ मुझ को

शगुफ़्ता हो के कली दिल की फूल हो जाए

ये इल्तिजा-ए-मुसाफ़िर क़ुबूल हो जाए

एक आरज़ू

दुनिया की महफ़िलों से उक्ता गया हूँ या रब

क्या लुत्फ़ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो

शोरिश से भागता हूँ दिल ढूँडता है मेरा

ऐसा सुकूत जिस पर तक़रीर भी फ़िदा हो

मरता हूँ ख़ामुशी पर ये आरज़ू है मेरी

दामन में कोह के इक छोटा सा झोंपड़ा हो

आज़ाद फ़िक्र से हूँ उज़्लत में दिन गुज़ारूँ

दुनिया के ग़म का दिल से काँटा निकल गया हो

लज़्ज़त सरोद की हो चिड़ियों के चहचहों में

चश्मे की शोरिशों में बाजा सा बज रहा हो

गुल की कली चटक कर पैग़ाम दे किसी का

साग़र ज़रा सा गोया मुझ को जहाँ-नुमा हो

हो हाथ का सिरहाना सब्ज़े का हो बिछौना

शरमाए जिस से जल्वत ख़ल्वत में वो अदा हो

मानूस इस क़दर हो सूरत से मेरी बुलबुल

नन्हे से दिल में उस के खटका न कुछ मिरा हो

सफ़ बाँधे दोनों जानिब बूटे हरे हरे हों

नद्दी का साफ़ पानी तस्वीर ले रहा हो

हो दिल-फ़रेब ऐसा कोहसार का नज़ारा

पानी भी मौज बन कर उठ उठ के देखता हो

आग़ोश में ज़मीं की सोया हुआ हो सब्ज़ा

फिर फिर के झाड़ियों में पानी चमक रहा हो

पानी को छू रही हो झुक झुक के गुल की टहनी

जैसे हसीन कोई आईना देखता हो

मेहंदी लगाए सूरज जब शाम की दुल्हन को

सुर्ख़ी लिए सुनहरी हर फूल की क़बा हो

रातों को चलने वाले रह जाएँ थक के जिस दम

उम्मीद उन की मेरा टूटा हुआ दिया हो

बिजली चमक के उन को कुटिया मिरी दिखा दे

जब आसमाँ पे हर सू बादल घिरा हुआ हो

पिछले पहर की कोयल वो सुब्ह की मोअज़्ज़िन

मैं उस का हम-नवा हूँ वो मेरी हम-नवा हो

कानों पे हो न मेरे दैर ओ हरम का एहसाँ

रौज़न ही झोंपड़ी का मुझ को सहर-नुमा हो

फूलों को आए जिस दम शबनम वज़ू कराने

रोना मिरा वज़ू हो नाला मिरी दुआ हो

इस ख़ामुशी में जाएँ इतने बुलंद नाले

तारों के क़ाफ़िले को मेरी सदा दिरा हो

हर दर्दमंद दिल को रोना मिरा रुला दे

बेहोश जो पड़े हैं शायद उन्हें जगा दे

एक नौ-जवान के नाम

तिरे सोफ़े हैं अफ़रंगी तिरे क़ालीं हैं ईरानी

लहू मुझ को रुलाती है जवानों की तन-आसानी

इमारत किया शिकवा-ए-ख़ुसरवी भी हो तो क्या हासिल

न ज़ोर-ए-हैदरी तुझ में न इस्तिग़ना-ए-सलमानी

न ढूँड उस चीज़ को तहज़ीब-ए-हाज़िर की तजल्ली में

कि पाया मैं ने इस्तिग़्ना में मेराज-ए-मुसलमानी

उक़ाबी रूह जब बेदार होती है जवानों में

नज़र आती है उन को अपनी मंज़िल आसमानों में

न हो नौमीद नौमीदी ज़वाल-ए-इल्म-ओ-इरफ़ाँ है

उमीद-ए-मर्द-ए-मोमिन है ख़ुदा के राज़-दानों में

नहीं तेरा नशेमन क़स्र-ए-सुल्तानी के गुम्बद पर

तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चटानों में

औरत

वजूद-ए-ज़न से है तस्वीर-ए-काएनात में रंग

उसी के साज़ से है ज़िंदगी का सोज़-ए-दरूँ

शरफ़ में बढ़ के सुरय्या से मुश्त-ए-ख़ाक उस की

कि हर शरफ़ है इसी दर्ज का दुर-ए-मकनूँ

मुकालमात-ए-फ़लातूँ न लिख सकी लेकिन

उसी के शोले से टूटा शरार-ए-अफ़लातूँ

गोरिस्तान-ए-शाही

आसमाँ बादल का पहने ख़िरक़ा-ए-देरीना है

कुछ मुकद्दर सा जबीन-ए-माह का आईना है

चाँदनी फीकी है इस नज़्ज़ारा-ए-ख़ामोश में

सुब्ह-ए-सादिक़ सो रही है रात की आग़ोश में

किस क़दर अश्जार की हैरत-फ़ज़ा है ख़ामुशी

बरबत-ए-क़ुदरत की धीमी सी नवा है ख़ामुशी

बातिन-ए-हर-ज़र्रा-ए-आलम सरापा दर्द है

और ख़ामोशी लब-ए-हस्ती पे आह-ए-सर्द है

आह जौलाँ-गाह-ए-आलम-गीर यानी वो हिसार

दोश पर अपने उठाए सैकड़ों सदियों का बार

ज़िंदगी से था कभी मामूर अब सुनसान है

ये ख़मोशी उस के हंगामों का गोरिस्तान है

अपने सुक्कान-ए-कुहन की ख़ाक का दिल-दादा है

कोह के सर पर मिसाल-ए-पासबाँ इस्तादा है

अब्र के रौज़न से वो बाला-ए-बाम-ए-आसमाँ

नाज़िर-ए-आलम है नज्म-ए-सब्ज़-फ़ाम-ए-आसमाँ

ख़ाक-बाज़ी वुसअत-ए-दुनिया का है मंज़र उसे

दास्ताँ नाकामी-ए-इंसाँ की है अज़बर उसे

है अज़ल से ये मुसाफ़िर सू-ए-मंज़िल जा रहा

आसमाँ से इंक़िलाबों का तमाशा देखता

गो सुकूँ मुमकिन नहीं आलम में अख़्तर के लिए

फ़ातिहा-ख़्वानी को ये ठहरा है दम भर के लिए

रंग-ओ-आब-ए-ज़िंदगी से गुल-ब-दामन है ज़मीं

सैकड़ों ख़ूँ-गश्ता तहज़ीबों का मदफ़न है ज़मीं

ख़्वाब-गह शाहों की है ये मंज़िल-ए-हसरत-फ़ज़ा

दीदा-ए-इबरत ख़िराज-ए-अश्क-ए-गुल-गूँ कर अदा

है तो गोरिस्ताँ मगर ये ख़ाक-ए-गर्दूं-पाया है

आह इक बरगश्ता क़िस्मत क़ौम का सरमाया है

मक़बरों की शान हैरत-आफ़रीं है इस क़दर

जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ से है चश्म-ए-तमाशा को हज़र

कैफ़ियत ऐसी है नाकामी की इस तस्वीर में

जो उतर सकती नहीं आईना-ए-तहरीर में

सोते हैं ख़ामोश आबादी के हंगामों से दूर

मुज़्तरिब रखती थी जिन को आरज़ू-ए-ना-सुबूर

क़ब्र की ज़ुल्मत में है इन आफ़्ताबों की चमक

जिन के दरवाज़ों पे रहता है जबीं-गुस्तर फ़लक

क्या यही है इन शहंशाहों की अज़्मत का मआल

जिन की तदबीर-ए-जहाँबानी से डरता था ज़वाल

रोब-ए-फ़ग़्फ़ूरी हो दुनिया में कि शान-ए-क़ैसरी

टल नहीं सकती ग़नीम-ए-मौत की यूरिश कभी

बादशाहों की भी किश्त-ए-उम्र का हासिल है गोर

जादा-ए-अज़्मत की गोया आख़िरी मंज़िल है गोर

शोरिश-ए-बज़्म-ए-तरब क्या ऊद की तक़रीर क्या

दर्दमंदान-ए-जहाँ का नाला-ए-शब-गीर क्या

अरसा-ए-पैकार में हंगामा-ए-शमशीर क्या

ख़ून को गरमाने वाला नारा-ए-तकबीर क्या

अब कोई आवाज़ सोतों को जगा सकती नहीं

सीना-ए-वीराँ में जान-ए-रफ़्ता आ सकती नहीं

रूह-ए-मुश्त-ए-ख़ाक में ज़हमत-कश-ए-बेदाद है

कूचा गर्द-ए-नय हुआ जिस दम नफ़स फ़रियाद है

ज़िंदगी इंसाँ की है मानिंद-ए-मुर्ग़-ए-ख़ुश-नवा

शाख़ पर बैठा कोई दम चहचहाया उड़ गया

आह क्या आए रियाज़-ए-दहर में हम क्या गए

ज़िंदगी की शाख़ से फूटे खिले मुरझा गए

मौत हर शाह ओ गदा के ख़्वाब की ताबीर है

इस सितमगर का सितम इंसाफ़ की तस्वीर है

सिलसिला हस्ती का है इक बहर-ए-ना-पैदा-कनार

और इस दरिया-ए-बे-पायाँ की मौजें हैं मज़ार

ऐ हवस ख़ूँ रो कि है ये ज़िंदगी बे-ए 'तिबार

ये शरारे का तबस्सुम ये ख़स-ए-आतिश-सवार

चाँद जो सूरत-गर-ए-हस्ती का इक एजाज़ है

पहने सीमाबी क़बा महव-ए-ख़िराम-ए-नाज़ है

चर्ख़-ए-बे-अंजुम की दहशतनाक वुसअत में मगर

बेकसी इस की कोई देखे ज़रा वक़्त-ए-सहर

इक ज़रा सा अब्र का टुकड़ा है जो महताब था

आख़िरी आँसू टपक जाने में हो जिस की फ़ना

ज़िंदगी अक़्वाम की भी है यूँही बे-ए 'तिबार

रंग-हा-ए-रफ़्ता की तस्वीर है उन की बहार

इस ज़ियाँ-ख़ाने में कोई मिल्लत-ए-गर्दूं-वक़ार

रह नहीं सकती अबद तक बार-ए-दोश-ए-रोज़गार

इस क़दर क़ौमों की बर्बादी से है ख़ूगर जहाँ

देखता बे-ए 'तिनाई से है ये मंज़र जहाँ

एक सूरत पर नहीं रहता किसी शय को क़रार

ज़ौक़-ए-जिद्दत से है तरकीब-ए-मिज़ाज-ए-रोज़गार

है नगीन-ए-दहर की ज़ीनत हमेशा नाम-ए-नौ

मादर-ए-गीती रही आबस्तन-ए-अक़्वाम-ए-नौ

है हज़ारों क़ाफ़िलों से आश्ना ये रहगुज़र

चश्म-ए-कोह-ए-नूर ने देखे हैं कितने ताजवर

मिस्र ओ बाबुल मिट गए बाक़ी निशाँ तक भी नहीं

दफ़्तर-ए-हस्ती में उन की दास्ताँ तक भी नहीं

आ दबाया मेहर-ए-ईराँ को अजल की शाम ने

अज़्मत-ए-यूनान-ओ-रूमा लूट ली अय्याम ने

आह मुस्लिम भी ज़माने से यूँही रुख़्सत हुआ

आसमाँ से अब्र-ए-आज़ारी उठा बरसा गया

है रग-ए-गुल सुब्ह के अश्कों से मोती की लड़ी

कोई सूरज की किरन शबनम में है उलझी हुई

सीना-ए-दरिया शुआओं के लिए गहवारा है

किस क़दर प्यारा लब-ए-जू मेहर का नज़्ज़ारा है

महव-ए-ज़ीनत है सनोबर जूएबार-ए-आईना है

ग़ुंचा-ए-गुल के लिए बाद-ए-बहार-ए-आईना है

नारा-ज़न रहती है कोयल बाग़ के काशाने में

चश्म-ए-इंसाँ से निहाँ पत्तों के उज़्लत-ख़ाने में

और बुलबुल मुतरिब-ए-रंगीं नवा-ए-गुलसिताँ

जिस के दम से ज़िंदा है गोया हवा-ए-गुलसिताँ

इश्क़ के हंगामों की उड़ती हुई तस्वीर है

ख़ामा-ए-क़ुदरत की कैसी शोख़ ये तहरीर है

बाग़ में ख़ामोश जलसे गुलसिताँ-ज़ादों के हैं

वादी-ए-कोहसार में नारे शबाँ-ज़ादों के हैं

ज़िंदगी से ये पुराना ख़ाक-दाँ मामूर है

मौत में भी ज़िंदगानी की तड़प मस्तूर है

पत्तियाँ फूलों की गिरती हैं ख़िज़ाँ में इस तरह

दस्त-ए-तिफ़्ल-ए-ख़ुफ़्ता से रंगीं खिलौने जिस तरह

इस नशात-आबाद में गो ऐश बे-अंदाज़ा है

एक ग़म यानी ग़म-ए-मिल्लत हमेशा ताज़ा है

दिल हमारे याद-ए-अहद-ए-रफ़्ता से ख़ाली नहीं

अपने शाहों को ये उम्मत भूलने वाली नहीं

अश्क-बारी के बहाने हैं ये उजड़े बाम ओ दर

गिर्या-ए-पैहम से बीना है हमारी चश्म-ए-तर

दहर को देते हैं मोती दीदा-ए-गिर्यां के हम

आख़िरी बादल हैं इक गुज़रे हुए तूफ़ाँ के हम

हैं अभी सद-हा गुहर इस अब्र की आग़ोश में

बर्क़ अभी बाक़ी है इस के सीना-ए-ख़ामोश में

वादी-ए-गुल ख़ाक-ए-सहरा को बना सकता है ये

ख़्वाब से उम्मीद-ए-दहक़ाँ को जगा सकता है ये

हो चुका गो क़ौम की शान-ए-जलाली का ज़ुहूर

है मगर बाक़ी अभी शान-ए-जमाली का ज़ुहूर

जवाब-ए-शिकवा

दिल से जो बात निकलती है असर रखती है

पर नहीं ताक़त-ए-परवाज़ मगर रखती है

क़ुदसी-उल-अस्ल है रिफ़अत पे नज़र रखती है

ख़ाक से उठती है गर्दूं पे गुज़र रखती है

इश्क़ था फ़ित्नागर ओ सरकश ओ चालाक मिरा

आसमाँ चीर गया नाला-ए-बेबाक मिरा

पीर-ए-गर्दूं ने कहा सुन के कहीं है कोई

बोले सय्यारे सर-ए-अर्श-ए-बरीं है कोई

चाँद कहता था नहीं अहल-ए-ज़मीं है कोई

कहकशाँ कहती थी पोशीदा यहीं है कोई

कुछ जो समझा मिरे शिकवे को तो रिज़वाँ समझा

मुझ को जन्नत से निकाला हुआ इंसाँ समझा

थी फ़रिश्तों को भी हैरत कि ये आवाज़ है क्या

अर्श वालों पे भी खुलता नहीं ये राज़ है क्या

ता-सर-ए-अर्श भी इंसाँ की तग-ओ-ताज़ है क्या

आ गई ख़ाक की चुटकी को भी परवाज़ है क्या

ग़ाफ़िल आदाब से सुक्कान-ए-ज़मीं कैसे हैं

शोख़ ओ गुस्ताख़ ये पस्ती के मकीं कैसे हैं

इस क़दर शोख़ कि अल्लाह से भी बरहम है

था जो मस्जूद-ए-मलाइक ये वही आदम है

आलिम-ए-कैफ़ है दाना-ए-रुमूज़-ए-कम है

हाँ मगर इज्ज़ के असरार से ना-महरम है

नाज़ है ताक़त-ए-गुफ़्तार पे इंसानों को

बात करने का सलीक़ा नहीं नादानों को

आई आवाज़ ग़म-अंगेज़ है अफ़्साना तिरा

अश्क-ए-बेताब से लबरेज़ है पैमाना तिरा

आसमाँ-गीर हुआ नारा-ए-मस्ताना तिरा

किस क़दर शोख़-ज़बाँ है दिल-ए-दीवाना तिरा

शुक्र शिकवे को किया हुस्न-ए-अदा से तू ने

हम-सुख़न कर दिया बंदों को ख़ुदा से तू ने

हम तो माइल-ब-करम हैं कोई साइल ही नहीं

राह दिखलाएँ किसे रह-रव-ए-मंज़िल ही नहीं

तर्बियत आम तो है जौहर-ए-क़ाबिल ही नहीं

जिस से तामीर हो आदम की ये वो गिल ही नहीं

कोई क़ाबिल हो तो हम शान-ए-कई देते हैं

ढूँडने वालों को दुनिया भी नई देते हैं

हाथ बे-ज़ोर हैं इल्हाद से दिल ख़ूगर हैं

उम्मती बाइस-ए-रुस्वाई-ए-पैग़म्बर हैं

बुत-शिकन उठ गए बाक़ी जो रहे बुत-गर हैं

था ब्राहीम पिदर और पिसर आज़र हैं

बादा-आशाम नए बादा नया ख़ुम भी नए

हरम-ए-काबा नया बुत भी नए तुम भी नए

वो भी दिन थे कि यही माया-ए-रानाई था

नाज़िश-ए-मौसम-ए-गुल लाला-ए-सहराई था

जो मुसलमान था अल्लाह का सौदाई था

कभी महबूब तुम्हारा यही हरजाई था

किसी यकजाई से अब अहद-ए-ग़ुलामी कर लो

मिल्लत-ए-अहमद-ए-मुर्सिल को मक़ामी कर लो

किस क़दर तुम पे गिराँ सुब्ह की बेदारी है

हम से कब प्यार है हाँ नींद तुम्हें प्यारी है

तब-ए-आज़ाद पे क़ैद-ए-रमज़ाँ भारी है

तुम्हीं कह दो यही आईन-ए-वफ़ादारी है

क़ौम मज़हब से है मज़हब जो नहीं तुम भी नहीं

जज़्ब-ए-बाहम जो नहीं महफ़िल-ए-अंजुम भी नहीं

जिन को आता नहीं दुनिया में कोई फ़न तुम हो

नहीं जिस क़ौम को परवा-ए-नशेमन तुम हो

बिजलियाँ जिस में हों आसूदा वो ख़िर्मन तुम हो

बेच खाते हैं जो अस्लाफ़ के मदफ़न तुम हो

हो निको नाम जो क़ब्रों की तिजारत कर के

क्या न बेचोगे जो मिल जाएँ सनम पत्थर के

सफ़्हा-ए-दहर से बातिल को मिटाया किस ने

नौ-ए-इंसाँ को ग़ुलामी से छुड़ाया किस ने

मेरे काबे को जबीनों से बसाया किस ने

मेरे क़ुरआन को सीनों से लगाया किस ने

थे तो आबा वो तुम्हारे ही मगर तुम क्या हो

हाथ पर हाथ धरे मुंतज़िर-ए-फ़र्दा हो

क्या कहा बहर-ए-मुसलमाँ है फ़क़त वादा-ए-हूर

शिकवा बेजा भी करे कोई तो लाज़िम है शुऊर

अदल है फ़ातिर-ए-हस्ती का अज़ल से दस्तूर

मुस्लिम आईं हुआ काफ़िर तो मिले हूर ओ क़ुसूर

तुम में हूरों का कोई चाहने वाला ही नहीं

जल्वा-ए-तूर तो मौजूद है मूसा ही नहीं

मंफ़अत एक है इस क़ौम का नुक़सान भी एक

एक ही सब का नबी दीन भी ईमान भी एक

हरम-ए-पाक भी अल्लाह भी क़ुरआन भी एक

कुछ बड़ी बात थी होते जो मुसलमान भी एक

फ़िरक़ा-बंदी है कहीं और कहीं ज़ातें हैं

क्या ज़माने में पनपने की यही बातें हैं

कौन है तारिक-ए-आईन-ए-रसूल-ए-मुख़्तार

मस्लहत वक़्त की है किस के अमल का मेआर

किस की आँखों में समाया है शिआर-ए-अग़्यार

हो गई किस की निगह तर्ज़-ए-सलफ़ से बे-ज़ार

क़ल्ब में सोज़ नहीं रूह में एहसास नहीं

कुछ भी पैग़ाम-ए-मोहम्मद का तुम्हें पास नहीं

जा के होते हैं मसाजिद में सफ़-आरा तो ग़रीब

ज़हमत-ए-रोज़ा जो करते हैं गवारा तो ग़रीब

नाम लेता है अगर कोई हमारा तो ग़रीब

पर्दा रखता है अगर कोई तुम्हारा तो ग़रीब

उमरा नश्शा-ए-दौलत में हैं ग़ाफ़िल हम से

ज़िंदा है मिल्लत-ए-बैज़ा ग़ुरबा के दम से

वाइज़-ए-क़ौम की वो पुख़्ता-ख़याली न रही

बर्क़-ए-तबई न रही शोला-मक़ाली न रही

रह गई रस्म-ए-अज़ाँ रूह-ए-बिलाली न रही

फ़ल्सफ़ा रह गया तल्क़ीन-ए-ग़ज़ाली न रही

मस्जिदें मर्सियाँ-ख़्वाँ हैं कि नमाज़ी न रहे

यानी वो साहिब-ए-औसाफ़-ए-हिजाज़ी न रहे

शोर है हो गए दुनिया से मुसलमाँ नाबूद

हम ये कहते हैं कि थे भी कहीं मुस्लिम मौजूद

वज़्अ में तुम हो नसारा तो तमद्दुन में हुनूद

ये मुसलमाँ हैं जिन्हें देख के शरमाएँ यहूद

यूँ तो सय्यद भी हो मिर्ज़ा भी हो अफ़्ग़ान भी हो

तुम सभी कुछ हो बताओ तो मुसलमान भी हो

दम-ए-तक़रीर थी मुस्लिम की सदाक़त बेबाक

अदल उस का था क़वी लौस-ए-मराआत से पाक

शजर-ए-फ़ितरत-ए-मुस्लिम था हया से नमनाक

था शुजाअत में वो इक हस्ती-ए-फ़ोक़-उल-इदराक

ख़ुद-गुदाज़ी नम-ए-कैफ़ियत-ए-सहबा-यश बूद

ख़ाली-अज़-ख़ेश शुदन सूरत-ए-मीना-यश बूद

हर मुसलमाँ रग-ए-बातिल के लिए नश्तर था

उस के आईना-ए-हस्ती में अमल जौहर था

जो भरोसा था उसे क़ुव्वत-ए-बाज़ू पर था

है तुम्हें मौत का डर उस को ख़ुदा का डर था

बाप का इल्म न बेटे को अगर अज़बर हो

फिर पिसर क़ाबिल-ए-मीरास-ए-पिदर क्यूँकर हो

हर कोई मस्त-ए-मय-ए-ज़ौक़-ए-तन-आसानी है

तुम मुसलमाँ हो ये अंदाज़-ए-मुसलमानी है

हैदरी फ़क़्र है ने दौलत-ए-उस्मानी है

तुम को अस्लाफ़ से क्या निस्बत-ए-रूहानी है

वो ज़माने में मुअज़्ज़िज़ थे मुसलमाँ हो कर

और तुम ख़्वार हुए तारिक-ए-क़ुरआँ हो कर

तुम हो आपस में ग़ज़बनाक वो आपस में रहीम

तुम ख़ता-कार ओ ख़ता-बीं वो ख़ता-पोश ओ करीम

चाहते सब हैं कि हों औज-ए-सुरय्या पे मुक़ीम

पहले वैसा कोई पैदा तो करे क़ल्ब-ए-सलीम

तख़्त-ए-फ़ग़्फ़ूर भी उन का था सरीर-ए-कए भी

यूँ ही बातें हैं कि तुम में वो हमियत है भी

ख़ुद-कुशी शेवा तुम्हारा वो ग़यूर ओ ख़ुद्दार

तुम उख़ुव्वत से गुरेज़ाँ वो उख़ुव्वत पे निसार

तुम हो गुफ़्तार सरापा वो सरापा किरदार

तुम तरसते हो कली को वो गुलिस्ताँ ब-कनार

अब तलक याद है क़ौमों को हिकायत उन की

नक़्श है सफ़्हा-ए-हस्ती पे सदाक़त उन की

मिस्ल-ए-अंजुम उफ़ुक़-ए-क़ौम पे रौशन भी हुए

बुत-ए-हिन्दी की मोहब्बत में बिरहमन भी हुए

शौक़-ए-परवाज़ में महजूर-ए-नशेमन भी हुए

बे-अमल थे ही जवाँ दीन से बद-ज़न भी हुए

इन को तहज़ीब ने हर बंद से आज़ाद किया

ला के काबे से सनम-ख़ाने में आबाद किया

क़ैस ज़हमत-कश-ए-तन्हाई-ए-सहरा न रहे

शहर की खाए हवा बादिया-पैमा न रहे

वो तो दीवाना है बस्ती में रहे या न रहे

ये ज़रूरी है हिजाब-ए-रुख़-ए-लैला न रहे

गिला-ए-ज़ौर न हो शिकवा-ए-बेदाद न हो

इश्क़ आज़ाद है क्यूँ हुस्न भी आज़ाद न हो

अहद-ए-नौ बर्क़ है आतिश-ज़न-ए-हर-ख़िर्मन है

ऐमन इस से कोई सहरा न कोई गुलशन है

इस नई आग का अक़्वाम-ए-कुहन ईंधन है

मिल्लत-ए-ख़त्म-ए-रसूल शोला-ब-पैराहन है

आज भी हो जो ब्राहीम का ईमाँ पैदा

आग कर सकती है अंदाज़-ए-गुलिस्ताँ पैदा

देख कर रंग-ए-चमन हो न परेशाँ माली

कौकब-ए-ग़ुंचा से शाख़ें हैं चमकने वाली

ख़स ओ ख़ाशाक से होता है गुलिस्ताँ ख़ाली

गुल-बर-अंदाज़ है ख़ून-ए-शोहदा की लाली

रंग गर्दूं का ज़रा देख तो उन्नाबी है

ये निकलते हुए सूरज की उफ़ुक़-ताबी है

उम्मतें गुलशन-ए-हस्ती में समर-चीदा भी हैं

और महरूम-ए-समर भी हैं ख़िज़ाँ-दीदा भी हैं

सैकड़ों नख़्ल हैं काहीदा भी बालीदा भी हैं

सैकड़ों बत्न-ए-चमन में अभी पोशीदा भी हैं

नख़्ल-ए-इस्लाम नमूना है बिरौ-मंदी का

फल है ये सैकड़ों सदियों की चमन-बंदी का

पाक है गर्द-ए-वतन से सर-ए-दामाँ तेरा

तू वो यूसुफ़ है कि हर मिस्र है कनआँ तेरा

क़ाफ़िला हो न सकेगा कभी वीराँ तेरा

ग़ैर यक-बाँग-ए-दारा कुछ नहीं सामाँ तेरा

नख़्ल-ए-शमा अस्ती ओ दर शोला दो-रेशा-ए-तू

आक़िबत-सोज़ बवद साया-ए-अँदेशा-ए-तू

तू न मिट जाएगा ईरान के मिट जाने से

नश्शा-ए-मय को तअल्लुक़ नहीं पैमाने से

है अयाँ यूरिश-ए-तातार के अफ़्साने से

पासबाँ मिल गए काबे को सनम-ख़ाने से

कश्ती-ए-हक़ का ज़माने में सहारा तू है

अस्र-ए-नौ-रात है धुँदला सा सितारा तू है

है जो हंगामा बपा यूरिश-ए-बुलग़ारी का

ग़ाफ़िलों के लिए पैग़ाम है बेदारी का

तू समझता है ये सामाँ है दिल-आज़ारी का

इम्तिहाँ है तिरे ईसार का ख़ुद्दारी का

क्यूँ हिरासाँ है सहिल-ए-फ़रस-ए-आदा से

नूर-ए-हक़ बुझ न सकेगा नफ़स-ए-आदा से

चश्म-ए-अक़्वाम से मख़्फ़ी है हक़ीक़त तेरी

है अभी महफ़िल-ए-हस्ती को ज़रूरत तेरी

ज़िंदा रखती है ज़माने को हरारत तेरी

कौकब-ए-क़िस्मत-ए-इम्काँ है ख़िलाफ़त तेरी

वक़्त-ए-फ़ुर्सत है कहाँ काम अभी बाक़ी है

नूर-ए-तौहीद का इत्माम अभी बाक़ी है

मिस्ल-ए-बू क़ैद है ग़ुंचे में परेशाँ हो जा

रख़्त-बर-दोश हवा-ए-चमनिस्ताँ हो जा

है तुनक-माया तू ज़र्रे से बयाबाँ हो जा

नग़्मा-ए-मौज है हंगामा-ए-तूफ़ाँ हो जा

क़ुव्वत-ए-इश्क़ से हर पस्त को बाला कर दे

दहर में इस्म-ए-मोहम्मद से उजाला कर दे

हो न ये फूल तो बुलबुल का तरन्नुम भी न हो

चमन-ए-दहर में कलियों का तबस्सुम भी न हो

ये न साक़ी हो तो फिर मय भी न हो ख़ुम भी न हो

बज़्म-ए-तौहीद भी दुनिया में न हो तुम भी न हो

ख़ेमा-ए-अफ़्लाक का इस्तादा इसी नाम से है

नब्ज़-ए-हस्ती तपिश-आमादा इसी नाम से है

दश्त में दामन-ए-कोहसार में मैदान में है

बहर में मौज की आग़ोश में तूफ़ान में है

चीन के शहर मराक़श के बयाबान में है

और पोशीदा मुसलमान के ईमान में है

चश्म-ए-अक़्वाम ये नज़्ज़ारा अबद तक देखे

रिफ़अत-ए-शान-ए-रफ़ाना-लका-ज़िक्र देखे

मर्दुम-ए-चश्म-ए-ज़मीं यानी वो काली दुनिया

वो तुम्हारे शोहदा पालने वाली दुनिया

गर्मी-ए-मेहर की परवरदा हिलाली दुनिया

इश्क़ वाले जिसे कहते हैं बिलाली दुनिया

तपिश-अंदोज़ है इस नाम से पारे की तरह

ग़ोता-ज़न नूर में है आँख के तारे की तरह

अक़्ल है तेरी सिपर इश्क़ है शमशीर तिरी

मिरे दरवेश ख़िलाफ़त है जहाँगीर तिरी

मा-सिवा-अल्लाह के लिए आग है तकबीर तिरी

तू मुसलमाँ हो तो तक़दीर है तदबीर तिरी

की मोहम्मद से वफ़ा तू ने तो हम तेरे हैं

ये जहाँ चीज़ है क्या लौह-ओ-क़लम तेरे हैं

जावेद के नाम

लंदन में उस के हाथ का लिखा हुआ पहला ख़त आने पर

दयार-ए-इश्क़ में अपना मक़ाम पैदा कर

नया ज़माना नए सुब्ह ओ शाम पैदा कर

ख़ुदा अगर दिल-ए-फ़ितरत-शनास दे तुझ को

सुकूत-ए-लाला-ओ-गुल से कलाम पैदा कर

उठा न शीशागरान-ए-फ़रंग के एहसाँ

सिफ़ाल-ए-हिन्द से मीना ओ जाम पैदा कर

मैं शाख़-ए-ताक हूँ मेरी ग़ज़ल है मेरा समर

मिरे समर से मय-ए-लाला-फ़ाम पैदा कर

मिरा तरीक़ अमीरी नहीं फ़क़ीरी है

ख़ुदी न बेच ग़रीबी में नाम पैदा कर

जिब्रईल ओ इबलीस

जिब्रईल

हम-दम-ए-दैरीना कैसा है जहान-ए-रंग-ओ-बू

इबलीस

सोज़-ओ-साज़ ओ दर्द ओ दाग़ ओ जुस्तुजू ओ आरज़ू

जिब्रईल

हर घड़ी अफ़्लाक पर रहती है तेरी गुफ़्तुगू

क्या नहीं मुमकिन कि तेरा चाक दामन हो रफ़ू

इबलीस

आह ऐ जिबरील तू वाक़िफ़ नहीं इस राज़ से

कर गया सरमस्त मुझ को टूट कर मेरा सुबू

अब यहाँ मेरी गुज़र मुमकिन नहीं मुमकिन नहीं

किस क़दर ख़ामोश है ये आलम-ए-बे-काख़-ओ-कू

जिस की नौमीदी से हो सोज़-ए-दरून-ए-काएनात

उस के हक़ में तक़्नतू अच्छा है या ला-तक़्नतू

जिब्रईल

खो दिए इंकार से तू ने मक़ामात-ए-बुलंद

चश्म-ए-यज़्दाँ में फ़रिश्तों की रही क्या आबरू

इबलीस

है मिरी जुरअत से मुश्त-ए-ख़ाक में ज़ौक़-ए-नुमू

मेरे फ़ित्ने जामा-ए-अक़्ल-ओ-ख़िरद का तार-ओ-पू

देखता है तू फ़क़त साहिल से रज़्म-ए-ख़ैर-ओ-शर

कौन तूफ़ाँ के तमांचे खा रहा है मैं कि तू

ख़िज़्र भी बे-दस्त-ओ-पा इल्यास भी बे-दस्त-ओ-पा

मेरे तूफ़ाँ यम-ब-यम दरिया-ब-दरिया जू-ब-जू

गर कभी ख़ल्वत मयस्सर हो तो पूछ अल्लाह से

क़िस्सा-ए-आदम को रंगीं कर गया किस का लहू

मैं खटकता हूँ दिल-ए-यज़्दाँ में काँटे की तरह

तू फ़क़त अल्लाह-हू अल्लाह-हू अल्लाह-हू

ज़ोहद और रिंदी

इक मौलवी साहब की सुनाता हूँ कहानी

तेज़ी नहीं मंज़ूर तबीअत की दिखानी

शोहरा था बहुत आप की सूफ़ी-मनुशी का

करते थे अदब उन का अआली ओ अदानी

कहते थे कि पिन्हाँ है तसव्वुफ़ में शरीअत

जिस तरह कि अल्फ़ाज़ में मुज़्मर हों मआनी

लबरेज़ मय-ए-ज़ोहद से थी दिल की सुराही

थी तह में कहीं दुर्द-ए-ख़याल-ए-हमा-दानी

करते थे बयाँ आप करामात का अपनी

मंज़ूर थी तादाद मुरीदों की बढ़ानी

मुद्दत से रहा करते थे हम-साए में मेरे

थी रिंद से ज़ाहिद की मुलाक़ात पुरानी

हज़रत ने मिरे एक शनासा से ये पूछा

'इक़बाल ' कि है क़ुमरी-ए-शमशाद-ए-मआनी

पाबंदी-ए-अहकाम-ए-शरीअत में है कैसा

गो शेर में है रश्क-ए-कलीम-ए-हमदानी

सुनता हूँ कि काफ़िर नहीं हिन्दू को समझता

है ऐसा अक़ीदा असर-ए-फ़लसफ़ा-दानी

है उस की तबीअत में तशय्यो भी ज़रा सा

तफ़्ज़ील - ए - अली हम ने सुनी उस की ज़बानी

समझा है कि है राग इबादात में दाख़िल

मक़्सूद है मज़हब की मगर ख़ाक उड़ानी

कुछ आर उसे हुस्न - फ़रामोशों से नहीं है

आदत ये हमारे शोरा की है पुरानी

गाना जो है शब को तो सहर को है तिलावत

इस रम्ज़ के अब तक न खुले हम पे मआनी

लेकिन ये सुना अपने मुरीदों से है मैं ने

बे - दाग़ है मानिंद - ए - सहर उस की जवानी

मज्मुआ - ए - अज़्दाद है 'इक़बाल ' नहीं है

दिल दफ़्तर - ए - हिकमत है तबीअत ख़फ़क़ानी

रिंदी से भी आगाह शरीअत से भी वाक़िफ़

पूछो जो तसव्वुफ़ की तो मंसूर का सानी

उस शख़्स की हम पर तो हक़ीक़त नहीं खुलती

होगा ये किसी और ही इस्लाम का बानी

अल - क़िस्सा बहुत तूल दिया वाज़ को अपने

ता - देर रही आप की ये नग़्ज़ - बयानी

इस शहर में जो बात हो उड़ जाती है सब में

मैं ने भी सुनी अपने अहिब्बा की ज़बानी

इक दिन जो सर - ए - राह मिले हज़रत - ए - ज़ाहिद

फिर छिड़ गई बातों में वही बात पुरानी

फ़रमाया शिकायत वो मोहब्बत के सबब थी

था फ़र्ज़ मिरा राह शरीअत की दिखानी

मैं ने ये कहा कोई गिला मुझ को नहीं है

ये आप का हक़ था ज़े - रह - ए - क़ुर्ब - ए - मकानी

ख़म है सर - ए - तस्लीम मिरा आप के आगे

पीरी है तवाज़ो के सबब मेरी जवानी

गर आप को मालूम नहीं मेरी हक़ीक़त

पैदा नहीं कुछ इस से क़ुसूर - ए - हमादानी

मैं ख़ुद भी नहीं अपनी हक़ीक़त का शनासा

गहरा है मिरे बहर - ए - ख़यालात का पानी

मुझ को भी तमन्ना है कि 'इक़बाल ' को देखूँ

की उस की जुदाई में बहुत अश्क - फ़िशानी

'इक़बाल ' भी 'इक़बाल ' से आगाह नहीं है

कुछ इस में तमस्ख़ुर नहीं वल्लाह नहीं है

ज़ौक़ ओ शौक़

क़ल्ब ओ नज़र की ज़िंदगी दश्त में सुब्ह का समाँ

चश्मा - ए - आफ़्ताब से नूर की नद्दियाँ रवाँ !

हुस्न - ए - अज़ल की है नुमूद चाक है पर्दा - ए - वजूद

दिल के लिए हज़ार सूद एक निगाह का ज़ियाँ !

सुर्ख़ ओ कबूद बदलियाँ छोड़ गया सहाब - ए - शब !

कोह - ए - इज़म को दे गया रंग - ब - रंग तैलिसाँ !

गर्द से पाक है हवा बर्ग - ए - नख़ील धुल गए

रेग - ए - नवाह - ए - काज़िमा नर्म है मिस्ल - ए - पर्नियाँ

आग बुझी हुई इधर , टूटी हुई तनाब उधर

क्या ख़बर इस मक़ाम से गुज़रे हैं कितने कारवाँ

आई सदा - ए - जिब्रईल तेरा मक़ाम है यही

एहल - ए - फ़िराक़ के लिए ऐश - ए - दवाम है यही

किस से कहूँ कि ज़हर है मेरे लिए मय - ए - हयात

कोहना है बज़्म - ए - कायनात ताज़ा हैं मेरे वारदात !

क्या नहीं और ग़ज़नवी कारगह - ए - हयात में

बैठे हैं कब से मुंतज़िर अहल - ए - हरम के सोमनात !

ज़िक्र - ए - अरब के सोज़ में ,फ़िक्र - ए - अजम के साज़ में

ने अरबी मुशाहिदात , ने अजमी तख़य्युलात

क़ाफ़िला - ए - हिजाज़ में एक हुसैन भी नहीं

गरचे है ताब - दार अभी गेसू - ए - दजला - ओ - फ़ुरात !

अक़्ल ओ दिल ओ निगाह का मुर्शिद - ए - अव्वलीं है इश्क़

इश्क़ न हो तो शर - ओ - दीं बुतकद - ए - तसव्वुरात !

सिदक़ - ए - ख़लील भी है इश्क़ सब्र - ए - हुसैन भी है इश्क़ !

म 'अरका - ए - वजूद में बद्र ओ हुनैन भी है इश्क़ !

अाया - ए - कायनात का म 'अनी - ए - देर - याब तू !

निकले तिरी तलाश में क़ाफ़िला - हा - ए - रंग - ओ - बू !

जलवतियान - ए - मदरसा कोर - निगाह ओ मुर्दा - ज़ाऐक़

जलवतियान - ए - मयकदा कम - तलब ओ तही - कदू !

मैं कि मिरी ग़ज़ल में है आतिश - ए - रफ़्ता का सुराग़

मेरी तमाम सरगुज़िश्त खोए हुओं की जुस्तुजू !

बाद - ए - सबा की मौज से नश - नुमा - ए - ख़ार - ओ - ख़स !

मेरे नफ़स की मौज से नश - ओ - नुमा - ए - आरज़ू !

ख़ून - ए - दिल ओ जिगर से है मेरी नवा की परवरिश

है रग - ए - साज़ में रवाँ साहिब - ए - साज़ का लहू !

फुर्सत - ए - कशमुकश में ईं दिल बे - क़रार रा

यक दो शिकन ज़्यादा कुन गेसू - ए - ताबदार रा

लौह भी तू , क़लम भी तू ,तेरा वजूद अल - किताब !

गुम्बद - ए - आबगीना - रंग तेरे मुहीत में हबाब !

आलम - ए - आब - ओ - ख़ाक में तेरे ज़ुहूर से फ़रोग़

ज़र्रा - ए - रेग को दिया तू ने तुलू - ए - आफ़्ताब !

शौकत - ए - संजर - ओ - सलीम तेरे जलाल की नुमूद !

फ़क़्र - ए - 'जुनेद '-ओ - 'बायज़ीद 'तेरा जमाल बे - नक़ाब !

शौक़ तिरा अगर न हो मेरी नमाज़ का इमाम

मेरा क़याम भी हिजाब ! मेरा सुजूद भी हिजाब !

तेरी निगाह - ए - नाज़ से दोनों मुराद पा गए

अक़्ल ,ग़याब ओ जुस्तुजू ! इश्क़ ,हुज़ूर ओ इज़्तिराब !

तीरा - ओ - तार है जहाँ गर्दिश - ए - आफ़ताब से !

तब - ए - ज़माना ताज़ा कर जल्वा - ए - बे - हिजाब से !

तेरी नज़र में हैं तमाम मेरे गुज़िश्ता रोज़ ओ शब

मुझ को ख़बर न थी कि है इल्म - ए - नख़ील बे - रुतब !

ताज़ा मिरे ज़मीर में म 'अर्क - ए - कुहन हुआ !

इश्क़ तमाम मुस्तफ़ा ! अक़्ल तमाम बू - लहब !

गाह ब - हीला मी - बरद ,गाह ब - ज़ोर मी - कशद

इश्क़ की इब्तिदा अजब इश्क़ की इंतिहा अजब !

आलम - ए - सोज़ - ओ - साज़ में वस्ल से बढ़ के है फ़िराक़

वस्ल में मर्ग - ए - आरज़ू ! हिज्र में ल़ज़्जत - ए - तलब !

एेन - ए - विसाल में मुझे हौसला - ए - नज़र न था

गरचे बहाना - जू रही मेरी निगाह - ए - बे - अदब !

गर्मी - ए - आरज़ू फ़िराक़ ! शोरिश - ए - हाव - ओ - हू फ़िराक़ !

मौज की जुस्तुजू फ़िराक़ ! क़तरे की आबरू फ़िराक़ !

तराना- ए- मिल्ली

चीन - ओ - अरब हमारा हिन्दोस्ताँ हमारा

मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा

तौहीद की अमानत सीनों में है हमारे

आसाँ नहीं मिटाना नाम - ओ - निशाँ हमारा

दुनिया के बुत - कदों में पहला वो घर ख़ुदा का

हम इस के पासबाँ हैं वो पासबाँ हमारा

तेग़ों के साए में हम पल कर जवाँ हुए हैं

ख़ंजर हिलाल का है क़ौमी निशाँ हमारा

मग़रिब की वादियों में गूँजी अज़ाँ हमारी

थमता न था किसी से सैल - ए - रवाँ हमारा

बातिल से दबने वाले ऐ आसमाँ नहीं हम

सौ बार कर चुका है तू इम्तिहाँ हमारा

ऐ गुलिस्तान - ए - उंदुलुस वो दिन हैं याद तुझ को

था तेरी डालियों में जब आशियाँ हमारा

ऐ मौज - ए - दजला तू भी पहचानती है हम को

अब तक है तेरा दरिया अफ़्साना - ख़्वाँ हमारा

ऐ अर्ज़ - ए - पाक तेरी हुर्मत पे कट मरे हम

है ख़ूँ तिरी रगों में अब तक रवाँ हमारा

सालार - ए - कारवाँ है मीर - ए - हिजाज़ अपना

इस नाम से है बाक़ी आराम - ए - जाँ हमारा

'इक़बाल 'का तराना बाँग - ए - दरा है गोया

होता है जादा - पैमा फिर कारवाँ हमारा


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