हिजरते मदीना
अब मक्का की ज़िन्दगी ख़त्म हुई। रसूल (स.अ.) हिजरत कर के मदीने की तरफ़ तशरीफ़ ले गए। अली (अ.स.) रसूल (स.अ.) के बाद तीन दिन तक मक्का में रहे और बहुक्मे रसूल लोगों की अमानतें उनके हवाले कीं और ख़ानदाने रसूल (स.अ.) की कुछ मिख़्दारात को साथ लिया और मदीना रवाना हो गए।
अच्छा एक बात और आपके अज़हान और क़ुलूब तक पहुँचाता चलूं कि अहले बैत (अ.स.) ने इस्लाम को ज़िन्दा करने के लिये क्या किया ? यानि अहले बैत (अ.स.) से जो मवद्दत और मुहब्बत अल्लाह मांग रहा है यह क्या है ?
यह अहले बैत (अ.स.) पर कोई ईनाम नहीं कि बहुत बड़ा ईनाम है जो अहले बैत (अ.स.) की मुहब्बत वाजिब क़रार पाई है। यह हज़रात मुहम्मद (स.अ.) और आले मोहम्मद (अ.स.) की खि़दमात का सिला है।
इस्लाम से फ़ायदा उठाने वाले , इस्लाम के दस्तरख़्वान पर बैठ कर लज़ीज़ खाने तनावुल फ़रमाने वाले और इस्लाम के नाम पर दौलत ज़ख़ीरा करने वाले तो दुनियां में करोड़ों नहीं अरबों मिलेंगे लेकिन इस्लाम पर जान क़ुर्बान करने वाले वो , इस्लाम की बक़ा लिये अपना ख़ून निछावर करने वाले , इस्लाम पर बच्चे क़ुरबान करने वाले और इस्लाम पर अपने सर की बाज़ी लगाने वाले ढंूढ़ेगे तो बहुत कम मिलेंगे।
नहीं यकी़न तो आओ करबला के सहरा में देखो जो हुसैन (अ.स.) के साथी जो अहले बैत (अ.स.) हैं कितने है और इस्लाम से बग़ावत करने वाले कितने हैं ?
आले मोहम्मद (अ.स.) वह लोग हैं जिन्होंने इस्लाम से अपनी ज़ात को कोई फ़ायदा नहीं पहुँचाया बल्कि अपनी ज़ात से इस्लाम को फ़ायदा पहुँचाया। सो उनकी मुहब्बत फ़र्ज़ कि जाए तो यह ऐन अहसान शनासी है क्यों कि इनाम ही होता है जो बग़ैर खि़दमत के मिले और जो मामला तय किया जाए एक चीज़ के बदले में दूसरी चीज़ दी जाए उसे इनाम नहीं कहा जाता ।
यह जो मोहब्बत फ़र्ज़ की गई है यह सिला है आले मोहम्मद (अ.स.) की खि़दमत का। यह जो अली (अ.स.) और औलादे अली (अ.स.) से दुश्मनी है यह कैसे बढ़ती गई तो उम्मीद वासिक़ है कि कल की बात आपके अज़हान में होगी तो मैं सिलसिले वार आपकी खि़दमात में अर्ज़ करता जाऊँ।
कल बात शबे हिजरत तक पहुँची थी। बस एक जुमला सिलसिलेवार सुनिए दावते जु़ल अशिरा से बात की इब्तिदा हुई और काफ़िरों ने उस दावत का मज़ाक उड़ाया और उनके दिलों में पहला फ़र्क़ आया। जहां अली (अ.स.) ने उठ कर रसूल (स.अ.) की नुसरत का वायदा किया। दूसरे मौक़े पर दिल अज़ारी उस वक़्त हुई जब उनकी स्कीम जो उन्होंने बच्चों के ज़रिए की थी वो फ़ेल हो गई। तीसरे मौक़े पर उन्हें तकलीफ़ उस वक़्त हुई जब शेबे अबी तालिब (अ.स.) रसूल (स.अ.) के पूरे तीन साल ज़रूरियाते ज़िन्दगी और ग़िज़ा पहुँचाते रहे और चैथे मौक़े पर उनको तकलीफ़ पहुँची कि उनकी इतनी बड़ी साज़िश जिसकी कामयाबी का उन्हें भर पूर यक़ीन था। इस लिये कि रसूल (स.अ.) के दो अहम सहारे ख़त्म हो गए थे। उम्मुल मोमेनीन जनाबे ख़दीजा (अ.स.) और दूसरे सरकार अबू तालिब (अ.स.)।
लिहाज़ा उन दोनों के उठ जाने से कुफ़्फ़ार के हौसलें बुलन्द हो गए थे। उन्होंने रसूले ख़ुदा (स.अ.) को मारने का बड़ा कामयाब मन्सूबा बनाया था मगर अल्लाह तआला ने अपने रसूल को हिजरत का हुक्म भेज दिया और अली (अ.स.) को बिस्तर पर सुला दिया। यह भी अल्लाह तआला की मसलहत थी वरना अगर चाहता तो काफ़िरों को र्जुअत ही न होती।
मगर शायद वजह यह ही हो कि इस लिये हुक्मे हिजरत दिया गया कि हम यह सुनते हैं अकसर लोग पूछते हैं कि अकेली ख़दीजा ही दौलत मन्द थीं और भी कई दौलत मन्द रसूल (स.अ.) के साथ थे और क्या अकेले ही अबू तालिब (अ.स.) बाअसर थे और भी तो कई बाअसर थे जो रसूल (स.अ.) के साथ थे। अगर थे तो फिर रोक क्यों न लिया तमाम अरब के क़बाएल जमा हो रहे हैं किसी चन्द एक को ही रोक लिया होता। मगर अल्लाह ने हुक्मे हिजरत दिया और हुज़ूर (स.अ.) हिजरत कर के सिधार गए और अब मौला अली (अ.स.) कारवां को लिए और मख़दूराते इस्मत को लिये हुए मदीना पहुँचे।
रसूल (स.अ.) मक्का छोड़ कर मदीने चले गए , मक्का वालों को अब भी चैन न आया , फिर प्रोपेगण्डे शुरू हो गए। निपट लेगें , छोड़ेंगे नहीं , हम देख लेंगे। पालिसियां बनाते बनाते साल गुज़र गया , साल के बाद 1000 कुफ़्फ़ार का मुकम्मल जर्रार लश्कर तैयार किया गया। पूरे लश्कर के पास बेहतरीन अस्लहा , बेहतरीन सवारी और बड़े नामवर काफ़िर , बड़े जंगजू फौजी , अरब के बड़े बड़े पहलवान चले मुहम्मद (स.अ.) का सर काटने।
अली (अ.स.) बद्र के मैदान में
तारीख़ गवाह है कि रसूल (स.अ.) के पास कुल 313 आदमी और उनमें भी बे सरोसामानी का आलम। तीन आदमी सवार बक़िया सब पैदल और किसी के पास नैज़ा है तो तलवार नहीं , किसी के पास तलवार है तो तीर नहीं , किसी के पास ज़िरह नहीं , किसी के पास ढ़ाल नहीं , इस तरह लश्कर के पास सामाने जंग भी सही नहीं।
अब यह 313 का लश्कर लेकर सरवरे काएनात निकले उन एक हज़ार आदमियों का मुक़ाबला करने। बद्र नामी एक कुआं था मदीने के पास जिसकी वजह से यह जंग जंगे बद्र के नाम से मशहूर है। उस कुंए पर सरकारे दो आलम ने अपना लशकर तरतीब दिया जब कि उनके मुक़ाबले एक हज़ार का लशकर है। लशकरे कुफ़्फ़ार से तीन आदमी निकले और निकल कर उन्होंने रसूल (स.अ.) के लशकर को ललकारा।
रसूल (स.अ.) के लशकर में दो तरह के लोग थे , एक महाजिर थे और दूसरे अन्सार , जिन्होंने मदीना में रसूल (स.अ.) की मेज़बानी फ़रमाई।
अन्सार हाज़िर खि़दमते रसूल (स.अ.) हुए और कहा , सरकार ! आप और आपके शहर वाले हमारे मेहमान हैं , इस लिये हमारी ग़ैरत यह गवारा नहीं करती कि हमारे होते हुए हमारे मेहमान मैदाने जिहाद में जाएं और हम लश्कर में खड़े देखते रहें लिहाज़ा आप हमें इजाज़त बख़्शें , हम मैदान में जाते हैं। जब तक हम तमाम अन्सार राहे ख़ुदा में शहीद होते हैं आप और आपके साथी आराम से बैठें , हम लडे़गें। यह बात सुन कर रसूल (स.अ.) ख़ामोश हो गए और तीन अन्सार उन तीन काफ़िरों के मुक़ाबले में निकल आए।
तारीख़ शाहिद है कि जब काफ़िरों ने उन तीन अन्सारों को देखा तो रसूल (स.अ.) का नाम ले कर आवाज़ दी और कहा , ऐ मुहम्मद ! हम क़ुरैश हैं और हम सरदार हैं , ख़ानदानी हैं , दस्तूरे अरब के मुताबिक़ हमारे मुक़ाबले में कोई सरदार भेजो , हम अन्सारों से नहीं लड़ेंगे।
हमारी तौहीन है , हम पस्त ख़ानदान के लोगों से लड़ें , उनको क़त्ल करना भी हमारी तौहीन है और उनके हाथों क़त्ल होना भी हमारी तौहीन है।
रसूल (स.अ.) ने उन तीनों को आवाज़ दी कि पलट आओ , चूंकि हुक्मे रसूल (स.अ.) था वह पलट आए। अब क्या हुआ , रसूल (स.अ.) ने तीन सरदार चुने और वह मैदान में गए , अगर ऐतेराज़ न हो तो बताता चलूं कि वह तीन सरदार कौन थे ? यह तीनों रसूले अकरम (स.अ.) के घर के आदमी थे। पहले हज़रत हमज़ा रसूल (स.अ.) के चचा , और दूसरे हज़रत उबैदा रसूल (स.अ.) के चचाज़ाद भाई , और तीसरे जनाबे अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) यह भी रसूल (स.अ.) के चचा ज़ाद भाई। रसूल (स.अ.) ने इन तीनों को भेजा और फ़रमाया कि देखो और इतमीनान कर लो , इनसे तो लड़ोगे ?
तारीख़ उठा कर देख लो कि लश्करे इस्लाम से यह जो तीन सरदार निकले , उनमें सब से कमसिन हज़रत अली (अ.स.) थे। अली (अ.स.) की उम्र उस वक़्त 24 साल थी और जा कर उन तीनों काफ़िरों का मुक़ाबला किया। उनमें से सब से पहले जिसने मुक़ाबला में अपने बिलमुक़ाबिल काफ़िर को फ़िन्नार किया वह मौला अली (अ.स.) थे।
हम यहां आपको शायद पूरी जंगे बद्र तो न सुना पाएं लेकिन अहम निकात यह तवज्जो ज़रूर दिलाएंगे।
अब जंगे बद्र क़ाबिले दीद थी कि इधर मैदान में अली (अ.स.) और उधर तेरह साल के पिटे काफ़िर , वह भी थे जो बचपन में भी अली (अ.स.) के हाथों पिटे थे और उनके बाप भी , और वह भी थे जो रात भर शबे हिजरत टहलते रहे थे और सब जले भुने लोग अली (अ.स.) को देख रहे थे। एक गिरा तो दूसरा आया , वह भी गया , तीसरा बड़ा पहलवान आया , मैं उससे मुक़ाबला करूंगा , वह भी वासिले जहन्नम हुआ। जब दस बारह काफ़िर अली (अ.स.) के हाथों वासिले जहन्नम हुए तो सब काफ़िर बिलबिला कर अबू जहल से कहने लगे , चचा ! अब आप ही जाएं यह लड़कों के बस की बात नहीं। उन्होंने कहा , हां भई । अब मुझे ही जाना पड़ेगा , देखो मैं चलता हूँ। अब चचा चले होंगे मसलन 46, 47 साल के होंगे। बड़े ताक़तवर , लहीम सहीम , बड़े जंग जू। अब जो देखा तो वह चचा भी , भतीजे भी गए। अब जानते हो लड़ाई का क्या रूख़ हो गया ? बस अली (अ.स.) की तलवार पहले से ज़्यादा तेज़ चलना शुरू हो गई हत्ता कि काफ़िर अपने लाशे छोड़ कर , क़ैदी छोड़ कर भागे।
उधर में हिसाब हो रहे हैं कि 8 दिन जाने में लगे और 8 दिन आने में यह 16 दिन भी निकल गए मुम्किन है कि तीन चार दिन लड़ाई में लग गए हों यह तीन दिन भी निकल गए। जब 20 दिन हुए तो इन्तेज़ार शुरू हुआ। बच्चों की ड्यूटी लगा दी गई वह सारा सारा दिन पहाड़ों की चोटियों पर जमा हो जाते और लश्कर के आने का इन्तेज़ार करने लगे। अब लड़कों को एक दिन दूर से एक लश्कर आता दिखाई दिया कि लश्कर आ रहा है। उन्होंने तुरन्द घरों में इत्तेला दी , अब बड़े भी जमा हो गए , उन्होंने देखा कि मालूम हो रहा है लेकिन नज़रे कमज़ोर होने की वजह से मालूम नहीं होता। यह बात तो उनकी दुरूस्त थी। वाक़ई अगर नज़रे दुरूस्त होतीं तो हक़ को न पहचान लेते।
अब लश्कर क़रीब आना शुरू हुआ। पहचान गए कि यह वही लश्कर है जो गया था। जूं जूं लश्कर क़रीब पहुँचा तो यह सब लोग भी उनके इस्तेक़बाल के लिये बढ़े कि लश्कर गया था मदीने मोहम्मद का सर लेने और मोहम्मद का सर ला रहे होंगे। उन्होंने कहा चेहरा कोई दिखाई नहीं दे रहा , शायद किसी सन्दूक़ में सर को बन्द किया हो। अब यह बढ़ कर उनके बिल्कुल क़रीब हुए तो देखा कि चेहरे उतरे हुए हैं हवास फ़ाख़्ता हैं। जब सामने आए तो कहा , कहो भई क्या हुआ ? उन्होंने कहा वही हुआ जो पहले होता था। कहने लगे मोहम्मद का सर लाए हो ? उन्होंने कहा ? तुम तो 1000 जंग जू थे तो कैसे हार गए ? कहने लगे , बस हम हार गए। वह कहते हैं , क्यों ? क्या मोहम्मद के साथ बहुत बड़ा लश्कर था ? क्या उनके पास बहुत क़ीमती हथियार थे ? या उनकी सवारियां तुम्हारी सवारियों से बेहतर थीं ? कहने लगे , न लश्कर बड़ा था , न हथियार ज़्यादा थे। बस अली की वजह से हमें शिकस्त हुई। अली न होते तो हम तमाम लश्कर को कच्चा चबा जाते। उसने हमारे बड़े बन्दे मारे हैं।
सामेईन ! अच्छा अब आप इन्साफ़ से बताए कि जब लश्कर आ रहा हो और साथ में यह बात कहें कि सबको अली ने क़त्ल किया तो हर एक अपने रिश्तेदारों को ढूंढ़ेगा या नहीं ? बस यह फ़ितरी बात है कि हर को ढंूढेगा अपने रिश्तेदारों को । एक आया लश्कर में एक एक को देखता रहा और पुकार कर कहने लगा कि मेरा लड़का नहीं है। पता चला कि वह अली (अ.स.) के हाथों मारा गया। दूसरा आया तलाश करते करते कहने लगा कि मेरा भाई नहीं है तो पता चला कि वह अभी अली (अ.स.) के हाथों मारा गया। तीसरा बढ़ा कि मैं देखूं कि मेरे वालिदे मोहतरम मोहम्मद (स.अ.) का सर काटने के बड़े ख़्वाहिशमन्द थे। ढूंढता रहा तो पता चला कि बाप भी अली (अ.स.) के हाथों वासिले जहन्नम हुआ। जब चारों तरफ़ से अली (अ.स.) अली (अ.स.) होना शुरू हुई।
सामेईन हज़रात ! आप चन्द लम्हों के लिये ज़रा मक्का के काफ़िरों के ज़हन का अन्दाज़ा लगाएं कि जब हर घर में अली ने मारा , अली ने मारा की आवाज़ें आईं तो माहौल क्या होगा ? हर तरफ़ काफ़िर (आदमी औरत) अली (अ.स.) को कोसने लगे। कोई कहता अली ने मेरे बाप को मारा , कोई कहता अली ने मेरे भाई को मारा , कोई कहता अली ने मेरा बेटा मारा और हिन्दा का तो सारा ख़ानदान ही ख़त्म हो गया।
मोमेनीन कराम ! हिन्दा जानते हैं कौन है ? हिन्दा यज़ीद मलऊन की दादी है , मुआविया की मां है और अबु सुफ़ियान की बीवी है। उसका सारा ख़ानदान साफ़ हो गया। उसका बाप , उसका चचा , उसका भाई और इस्लाम का सबसे बड़ा दुश्मन और उनका सरदार अबु जहल भी मारा गया।
अबु जहल चूंकि गया नहीं था वह उस ग़म में घुल घुल कर मर गया। हर तरफ़ चर्चा था अली , अली , अली।
किसने मारा ? अली ने।
किसकी तलवार लगी ? अली की।
किसने सर काटा ? अली ने।
बस हर तरफ़ अली ने मारा , अली ने मारा की आवाज़ें आ रही थीं। अब क्या हुआ , अबु सुफ़ियान ने क़यादत संभाल ली। अब तक तो अबु जहल और अबु लहब साथ साथ थे। अबु जहल बद्र में मारा गया और अबु लहब उसके ग़म में घुल घुल कर मर गया बाक़ी रह गया अबु सुफ़ियान , अबु सुफ़ियान पर एक मुसीबत आन पड़ी । वह मुसीबत क्या थी ? सुन लीजिए।
हाज़रीने कराम !
ज़िन्दगी में आप लोगों को तर्जुबा होगा कि बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जिसमें बीवी अपने शौहर को कसूर वार समझती है तो हिन्दा ने कहा कि यह तुम्हारी ग़लती से हुआ। मसलन बीवी ने फ़र्माइश की कि फ़लां चीज़ मेरे लिये ले आना , शौहर ने बाज़ार से पता किया नहीं मिली , जब घर पहुँचा तो बीवी ने पूछा कि मेरी चीज़ लाए हो ? मर्द अब जितना मर्ज़ी यक़ीन दिलाने की कोशिश करे , बीवी यही कहती है कि तुमने पता ही नहीं किया होगा , कहीं देखा ही नहीं होगा , तुमने ढंूढा ही नहीं होगा। भला यह मुम्किन है कि चीज़ भरे शहर में मौजूद ही न हो ? तो ऐसी मुश्किल अबु सुफ़ियान पर आ पड़ी। कहने लगी , तुम लोग लड़े ही न होंगे , यह कैसे हो सकता है कि सबको अली ने मार डाला ? उसने बड़ा यक़ीन दिलाया कि हम यूं लड़े हैं , ऐसे हमले किये हैं और अली के हाथों पिट कर आ रहे हैं। हिन्दा कहती है कि तुम बहाने करते हो तुम लड़े ही नहीं ।
अब एक तो लड़ाई हार गए , जो मिलता है उसे समझाना मुश्किल है। घर आते हैं तो घर में बीवियां जूते मारती हैं। अब उसका बाप मारा गया , चचा मारा गया , भाई क़त्ल हो गया उसके कलेजे में आग के शोले भड़क रहे थे। अब यह मियां बीवी मिल कर तहरीक चलाने लगे , साल भर की मेहनत के बाद 3000 का लश्कर तैयार किया।
अबु सुफ़ियान यह तीन हज़ार का लश्कर ले कर दूसरे साल लड़ने के लिये रवाना हुआ कि इस दफ़ा हम बद्र की शिकस्त का बदला लेने जा रहे हैं और अबु सुफ़ियान की बे यक़ीनी का यह खुला सुबूत है कि हिन्दा इस दफ़ा उनके साथ रवाना हुई।
सवाल यह पैदा होता है कि पिछले साल जो लड़ाई हार चुके थे , ज़ख़्मी क़ैदी और लाशे छोड़ का भाग चुके थे उसका मतलब यह है कि मुसलमानों के मुक़ाबला आसान नहीं है। ऐसे मौक़े पर औरतों को साथ ले जाने का मसरफ़ क्या है ? अबु सुफ़ियान ख़ुद अपनी मर्ज़ी से हिन्दा को साथ नहीं ले गया था बल्कि यह ज़बरदस्ती गई थी कि मैं ख़ुद देखुंगी की अली के आगे लड़ कर तुम कैसे भागते हो ? मैं भी देखूं कि अली तुम को कैसे मारता है , तुम लड़ते नहीं हो।
अच्छा यह काफ़ेला चला , एक राइटर है ‘‘ अबु नुस्रान ’’ उसकी तहरीर है उन्होंने रसूल (स.अ.) की लाइफ़ हिस्ट्री लिखी है। सादुल्लाहुल अरब उनका नाम है। उसमें उन्होंने लिखा है , जब जंगे ओहद में काफ़िरों का लश्कर जा रहा था तो मक्का और मदीना के दरमियान एक जगह है जिसका नाम अलवा है। वहां रसूल (स.अ.) की वालेदा ए मोहतरमा की क़ब्रे मुबारक है। वह कहते हैं कि जैसे ही हिन्दा उस क़ब्र पर पहुँची और उसको मालूम हुआ कि रसूल (स.अ.) की वालेदा आमेना की क़ब्र है वह मचल गई कि मैं क़ब्र खोद कर हड्डियां निकाल कर उन हड्डियों को हार बना कर पहनुगी। वह कहते हैं कि यह बहुत बेचैन थी और बग़ैर क़ब्र खोदे जाने के लिये रिज़ा मन्द न थी और लिखते हैं कि रसूल (स.अ.) वहां से गुज़र रहे थे तो आप उस क़ब्र के सरहाने बैठे रहे। बहुत देर उनकी आंखों से अश्क जारी रहे , लोगों ने रसूल (स.अ.) को मां की क़ब्र पर रोते देखा।
अज़ीज़ाने गिरामी ! यह बात क़ाबिले ग़ौर है कि रसूल (स.अ.) का अमल , रसूल (स.अ.) का अमल था और हिन्दा का अमल एक काफ़िर औरत का अमल था लेकिन बाद में यह हिन्दा भी दाखि़ले इस्लाम हुई तो अब दोनों तर्ज़े अमल का फ़क्र समझ लीजिए।
जो मोहतरम क़ब्र के सराहने बैठ कर रोए वह रसूल (स.अ.) थे और जो क़ब्र की बे हुरमती करे वह हिन्दा है।
अब जब मुसलमानों में दोनों शामिल हो गए। मोहम्मद (स.अ.) वाला इस्लाम क़ब्र की ताज़ीम करेगा और अबु सुफ़ियान वाला इस्लाम क़ब्रों की तौहीन करेगा। बहर हाल यह लश्कर चला। सरवरे काएनात के पास उस वक़्त सात सौ आदमी थे और काफ़िर 3000 यानि काफ़िर मुसलमानों से चार गुना ज़्यादा थे।
अली (अ.स.) ओहद के मैदान में:- रसूल (स.अ.) ने कुछ तरह से अपनी सफ़ें जमाई कि एक तरफ़ मदीना शहर है और दूसरी तरफ़ ओहद की पहाड़ियां। ओहद की पहाड़ियां इस लिये कि दुश्मन पीछे से हमला न कर सके मगर ओहद की पहाड़ियों में सुरंगे थीं तो अन्देशा यह था कि उस सुरंग के ज़रिए काफ़िर हमला करें तो रसूल अल्लाह (स.अ.) की पुश्त ख़ाली थी।
हज़राते गिरामी ! उस वाक़ेआ पर ख़ुसूसी तवज्जो की ज़रूरत है और अगर आपने समझने की कोशिश की तो इन्शाअल्लाह बड़ा नतीजा निकलेगा।
रिसालत मआब ने अपने लश्कर में से 50 आदमी अलग किए और उनमें से एक को उनका सरदार मुक़र्रर किया और उनके सामने खड़े हो कर तक़रीर फ़रमाई कि देखों हम लड़ाई जीत जायें और दुश्मन को भगाते हुए मक्का तक ले जाएं या दुश्मन हम पर ग़ालिब आ जाए और हमें दबाता हुआ मदीना तक ले जाए तुम्हें हम जहां मुक़र्रर कर रहे हैं वहीं खड़े रहना अपनी जगह से न हटना और उस दर्रे की हिफ़ाज़त करते रहना और उस तरफ़ तीर मारते रहना ताकि उधर से हमला न हो सके। जब तक मैं ख़ुद आदमी भेज कर तुम्हें वापस न बुलाऊं तुम्हें अपनी जगह नहीं छोड़नी , तुम्हें लड़ाई के अन्जाम से कोई सरोकार नहीं और देखो यह ख़्याल न करना कि तुम लड़ाई से अलग हो , इस लिये माले ग़नीमत में उतना ही हिस्सा मिलेगा जितना दूसरे मुसलमानों को मिलेगा।
बात हो गई 50 आदमी वहां खड़े हो गए। अब रसूल (स.अ.) के पास 650 आदमी बाक़ी लश्कर में रह गए और तीन हज़ार काफ़िरों का मुक़ाबला करना है। उन 50 सिपाहियों का वाक़िया ज़हन में है। अब 650 आदमियों के लश्कर का अलम हैदरे कर्रार (अ.स.) के हाथ आया और इधर काफ़िरों का तीन हज़ार का लश्कर आने से पहले यह यज़ीद की दादी हिन्दा एक पल्ले हुए ऊँट पर सवार हो कर जिसके गले में ढ़ोल पड़ा हुआ था और उसके साथ उसके ख़ानदान की तीन औरतें और भी थीं। यह ढ़ोल बजाती हुई और गीत गाती हुई लश्कर के सामने से गुज़री जब कि हिन्दा गा रही थी।
ग़नी बनात तारिक़ ग़नी अली तारिक़
हम सितारा सहरी की बेटियां हम मुख़्मल के फ़र्श पर चलने वालियां हैं।
यह गीत यज़ीद की दादी साहिबा और मुआविया की वालेदा साहिबा जब कि अबु सुफ़ियान की ज़ौजा मुहतरमा गा रही थीं और दूसरी औरतें उसकी आवाज़ में आवाज़ और लह में लह मिला रही थीं और ढोल बज रहा है और वो खरामा ख़रामा मैदान की तरफ़ बढ़ रही हैं।
नख़न बनात तारिक़ फ़हशी तारिक़ के अलावा भी उसके कुछ अश्आर हैं लेकिन हमें अदब इजाज़त नहीं देता कि इस मिम्बर पर गोश गुज़ार करूं क्यों कि इस मिम्बर के कुछ तक़ाज़े हैं। भले कोई सच्चा वाक़ेआ ही क्यों न हो लेकिन खि़लाफ़े अदब व तहज़ीब है तो बयान नहीं कर सकते।
ख़ैर यह गाती हुई और ढोल बजाती हुई अपने ख़ानदान का कल्चर पेश कर रही थी कि हमारे ख़ानदान का यह है ।
हम सितारा सहरी की बेटियां , हम मख्मल के फ़र्श पर चलने वालियां ’’ मैं कहूंगा सितारा सहरी की बेटी तेरा मुक़द्दर ही ख़राब है। सितारा सहरी की बेटियों ! यह याद रखो कि लश्करे मोहम्मद (स.अ.) में एक आफ़ताब है वह जब निकलेगा तो तमाम सितारे ख़ुद ब खु़द मान्द पड़ जाते हैं। जब आफ़ताब तुलू होता है तो सितारे डूब जाते हैं। अब इधर से हैदरे करार अपना लश्कर लेकर बढ़े उधर कुफ़्फ़ार बढ़े लश्करे कुफ़्फ़ार से एक सरदार काफ़िर मैदान में उतरा। मेरे मौला अली (अ.स.) ने मैदान में आ कर उसे दावते इस्लाम दी , उसने इन्कार किया फिर मेरे मौला ने कहा कि वार कर , उसने वार किया , अली (अ.स.) ने वार को रोका और वार किया और उसका सर तन से जुदा कर दिया। फिर दूसरा आया , दूसरे को भी अली (अ.स.) ने मार गिराया। इस के बाद दीगरे जब सात काफ़िर अली (अ.स.) के हाथों वासिले जहन्नम हुए और उनका अलम अलग ज़मीन पर पड़ा है। अब फिर यही औरतें जो देर से खेल देख रही थीं कि काफ़ी देर कोई अलम उठाने के लिये नहीं पहुँचा।
अब उठाए कौन ? जो यह अलम उठाने के लिये आयेगा , मारा जाएगा। उन तीन औरतों में से एक बढ़ी और बढ़ कर अपना अस्लाह उठाया। अली (अ.स.) ने लाहौल पढ़ते हुए अपने राहवार को मोड़ा , लश्करे कुफ़्फ़ार ने लश्करे इस्लाम पर भरपूर हमला किया। दोबुद लड़ाई होने लगी , मुसलमानों ने बड़ी दिलेरी से इतने बड़े लश्कर का मुक़ाबला किया। लोहे से लोहा टकराने लगा , तलवारें चलने लगीं , अली (अ.स.) अपनी तलवार के जौहर दिखा रहे हैं , हमज़ा भी तलवार चला रहे हैं और भी मुसलमान मैदाने जिहाद में बड़े जोश व ख़रोश से हमलावर हैं।
थोड़ी देर में ही काफ़िरों के क़दम उखड़ने शुरू हो गए और वह आहिस्ता आहिस्ता मैदान छोड़ कर भागना शुरू हो गए। जब वह भाग रहे थे तो मुसलमानों ने माले ग़नीमत को अपने क़ब्ज़े में लेना शुरू कर दिया। अब पोज़िशन देखें कि काफ़िर भाग रहे हैं अपना माल अस्बाब छोड़ कर और मुसलमान सिपाहियों ने जेब भरना शुरू कि। अच्छा इधर तो यह हो रहा है और उधर पचास आदमी जो वहां दर्रे पर खड़े हैं उनमें खलबली मच गयी। उन्होंने कहा कि काफ़िर तो भाग गए अब क्या ख़्याल है ? चलो चलें: उनके सरदार ने कहा , कहां चलें ? कहने लगे माले ग़नीमत लूटने। उसने कहा: ख़्वाम ख़्वाह हमारे जज़्बात से न खेलो , वहां देखो माले ग़नीमत लूटा जा रहा है और तुम कहते हो कि यहां रहो। कहा , रसूल (स.अ.) ने कहा था कि दर्रा नहीं छोड़ना तुम्हें तुम्हारा हिस्सा मिलेगा।
कहने लगे: हां हिस्सा तो मिलेगा जो रसूल (स.अ.) तक पहुँचेगा उसी में से ही हिस्सा मिलेगा। सरदार ने कहा: देखो ऐसी बातें न सोचो , तुम्हें ख़ुदा के रसूल का हुक्म है कि यहीं रहो । मगर जो सिर्फ़ माल इकट्ठा करने के लिये परचमे इस्लाम के तले जमा हुए थे न रूके।
तारीख़ बताती है कि पचास आदमी में से 47 आदमी चले गए सिर्फ़ तीन आदमी बचे थे।
मेरे मोहतरम भाईयों ! जब यह 47 आदमी माले ग़नीमत लूटने के लिये चले गए और भागते हुए काफ़िरों ने देखा कि दर्रा ख़ाली पड़ा है सिर्फ़ तीन आदमी हैं। उन्होंने उन पर मिल कर हमला किया , अब यह तीन मुजाहिद लड़े और लड़ते लड़ते जामे शहादत नोश किया , और दर्रा बिल्कुल ख़ाली हो गया और उसके नतीजे में ओहद की लड़ाई का बना बनाया नक़्शा बिगड़ गया।
मोमिनो ! आपके अज़हान व क़ुलूब में भी शायद यह बात न हो कि यह वाक़ेआ मैंने किस लिये आपके हवाले किया है तवज्जो फ़रमायें कि चैदह सौ बरस के बाद उस वाक़ेआ से कोई इस्तेदलाल करेगा। सीने पचास 50 में से सैंतालीस 47 कितने प्रतिशत हुए 94 प्रतिशत ये 94 प्रतिशत मोर्चा छोड़ कर चले गए।
अब यह कहां थे ? कराची के , लाहोर के थे या लखनऊ के थे ? वह कुछ मक्के के थे और कुछ मदीने के थे। कौन थे ? वह थे सहाबी ए रसूल । रसूल (स.अ.) के सामने रसूल (स.अ.) के हुक्म की नाफ़रमानी कर रहे थे।
अब जो लोग समझते हैं कि ग़दीर में अगर रसूल (स.अ.) ने अली (अ.स.) के लिये ऐलान किया होता तो क्या मुसलमान इतने ही गए गुज़रे थे कि रसूल (स.अ.) की बात न मानते ? मैं यह कहता हूँ कि रसूल (स.अ.) की ज़िन्दगी में उनका हुक्म नहीं माना तो अगर उनकी ज़िन्दगी के बाद नाफ़रमानी कर रहे हैं तो कोई अजीब बात नहीं।
सरवरे काएनात मैदान में खड़े थे , रिसालत की चादर ओढ़े थे , भागे नहीं मैदान छोड़ कर , इस लिये कि रसूल अगर भाग जायें तो वरक़े हिदायत उलट जाए। रहमत हाथ पकड़े थी जो तलवार चलाने नहीं देती थी। रहमत अगर तलवार चलाए तो सारी काएनात पर बिजलियां बरस जाएं , अजब शान से रसूल (स.अ.) खड़े थे , क़दम लंग़रे हिदायत बने हुए थे।
दुनिया कहती है कि लड़ाई में अली (अ.स.) बढ़ते हैं , मोहम्मद (स.अ.) नहीं बढ़ते हैं। मैं यह कहता हूँ कि कोई इतनी देर ठहरे तो मोहम्मद (स.अ.) को देखे , सरदारे दो आलम शुक्र और इतमीनान का पैकर बने हुए मैदान में खड़ा है , न तलवार है हाथ में , मगर मैदान में एक इन्च भी पीछे नहीं हटते , उसी दौरान काफ़िरों ने शोर कर दिया कि मोहम्मद क़त्ल हो गए।
एक आवाज़ आई कि मोहम्मद (स.अ.) क़त्ल हो गए। बाद में यह तहक़ीक़ हुई जब मामलात ठहर गए तो पूछा गया कि किसने कहा था कि मुहम्मद क़त्ल हो गए , तो मुसलमानों ने कहा कि हमने यह आवाज़ सुनी थी , तो हमने कहा कि जब मुहम्मद (स.अ.) क़त्ल हो गए हैं तो फिर लड़ने का क्या फ़ायदा ? लिहाज़ा हम भाग गये।
और अक़्ल के अन्धे मैं कहता हूँ कि जब तुमने यह ख़बर सुन ली तो मैदान से भागे क्यों ? वहां ठहरते , वहां इज्तेमा करते किसी को ख़लीफ़ा मुक़र्रर करते। समझे आप , मौक़ा था न उसका ?
ख़ैर बाद में यह बात सामने आई कि वो शैतान ने कहा था कि मुहम्मद (स.अ.) शहीद हो गए। तो मुसलमान क्यों भागे ?
उन्होंने कहा कि हम समझे कि जिब्राईल बोल रहा है। तो जनाब होशियार रहियेगा कि ऐसे लोग न हो कही कहें शैतान और समझें कि जिब्राईल कह रहा है।
सब भाग निकले मगर अली (अ.स.) बिखरे हुए शेर की तरह हमले पर हमला कर रहे हैं। काफिरों की सफ़े चीरते हुए , काफ़िरों को फ़िन्नार करते हुए , मुसलमानों को पुकारते हुए , वहां पहुँचे जहां रहमते कुल जलवा अफ़रोज़ थे। अली (अ.स.) ने देखा कि काफ़िर रसूल (स.अ.) के इर्द गिर्द पहुँचे हुए हैं। रसूल (स.अ.) को घेर रखा था काफ़िरों ने , क्यों दोनों ग्रुप इधर उधर के मिल गए थे। पत्थर फंेक रहे थे कि अचानक एक पत्थर हबीबे ख़ुदा के रूख़सार पर लगा जिसके नतीजे में वह लोहे की जाली जो चेहरा ए अक़दस पर थी जिसे जंगी नक़ाब कहते हैं वो टूटी और उसकी कड़ी रूख़सारे मुबारक में उतर गई और ख़ून जारी हो गया। दूसरा पत्थर दहने अक़दस पर लगा जिसके नतीजे में दनदाने मुबारक शिकस्ता हो गया और होंठ ज़ख़्मी हो गए और दहने मुबारक से ख़ून जारी हुआ मगर रसूल (स.अ.) उसी शान से खड़े थे , भागे नहीं फ़र्क़ नही आया शाने रिसालत में। अली (अ.स.) पहुँचे , रसूल (स.अ.) ने कहा , या अली (अ.स.) ! ये वक़्त नुसरत का है। मैं कहता हूँ कि या रसूल अल्लाह (स.अ.) आप अली (अ.स.) से मदद क्यांे मांग रहे हैं ? अल्लाह से मांगे। आज लोग या अली (अ.स.) मदद कहने पर एतराज़ करते हैं आओ देखो कि रसूल अल्लाह (स.अ.) किसको पुकार रहे हैं।
तारीख़े उठा कर देखो कि मेरे मौला अली (अ.स.) ने वो आली शान लड़ाई लड़ी है जो अली (अ.स.) और अली (अ.स.) के घराने के लिये मख़सूस थी वो लड़ाई देखी ही नहीं।
तारीख़े अरब में घोड़े को कावे पर लगाना एक इस्तेलाह है यानी मैदान में गोल चक्कर दिया जाता है घोडे़ को जिसको कावा देना कहते हैं।
तारीख़ लिखती है कि रसूल (स.अ.) बीच में थे चारों तरफ़ काफ़िर थे। अली (अ.स.) ने बिखरे हुए शेर की तरह चारों तरफ़ से काफ़िरों पर झपटना शुरू किया। अली (अ.स.) की तलवार बिजली की तरह चल रही थी। अब नबुव्वत व इमामत यकजा हुईं । अली (अ.स.) ने मोहम्मद (स.अ.) को सहारा दिया और घोड़े को लगाया काव पर और अली (अ.स.) चक्कर लगा रहे हैं रसूल (स.अ.) के चारों तरफ़ मन्डलाते काफ़िरों की गर्दनें कटती जा रही हैं , काफ़िर गिरते जा रहे हैं और दाएरा फैल रहा है।
देखिए यह है तवाफ़े काबा , अली (अ.स.) ने घोड़े को कावे में लगाया जितनी देर में काफ़िर वार करते हैं उतनी देर में अली (अ.स.) जा चुके होते तो उनका वार आपस में ही किसी के लगता या राएगा जाता।
थोड़ी देर में बिखला कर चारों तरफ़ से सिमट कर एक तरफ़ आ गए , यही अली (अ.स.) चाहते थे कि चारों तरफ़ का हमला सिमट कर एक तरफ़ आ जाए । जूंही काफ़िर सिमट कर एक तरफ़ आए तो जंग ने एक रूप धरा , लड़ाई क़ाबिले दीद हुई। ढाई हज़ार 2500 का लशकर एक तरफ़ और अल्लाह का वली शेरे ख़ुदा मेरा मौला अली (अ.स.) एक तरफ़। मैदान से अल्लाहो अकबर अल्लाहो अकबर की सदाएं बलन्द हो रही हैं , हर तरफ़ सन्नाटा है।
इस्लाम के लश्कर में अब तीन हस्तियां रह गईं , पहली हस्ती वह अल्लाह , जिसका दीन है , दूसरी हस्ती मोहम्मद (स.अ.) जो दीन ले कर आए हैं और तीसरी हस्ती वह अली (अ.स.) है जिसने हर मक़ाम पर नुसरत का वादा किया है।
बरादराने इस्लाम ! ओहद के मैदान में देखो , ऐ कलमा पढ़ने वालों ! कलमा देखो , ओहद के मैदान में और पढ़ो , ‘‘ ला इलाहा इल्लल्लाह मोहम्मदुर्रूसूलुल्लाह अलीयं वली युल्लाह ’’ काफ़िर हवास बाख़्ता हो कर चिल्लाए कि जितनी जल्दी हो सके अली को गिराओ वरना गड़बड हो जाऐगी। जितना बढ़ चढ़ कर हमला करते हैं उतनी तेज़ी से सर अलग धड़ अलग होते हैं। इसी कशमकश में काफ़िर भागना शुरू हुए कि अली (अ.स.) के हाथ में जो तलवार थी टूट गई। अब जैसे ही तलवार टूटी , अली (अ.स.) पलटे रसूल (स.अ.) की तरफ़ और कहा या रसूल अल्लाह (स.अ.) तलवार टूट गई है।
रसूले ख़ुदा (स.अ.) जिस इतमीनान से खड़े थे , खडे़ रहे। मैं कहता हूं कि या रसूल अल्लाह (स.अ.) फौरी तौर पर कोई तलवार या कोई नैज़ा अली (अ.स.) को थमा देते , आप इतने इत्मीनान से क्यों खड़े हैं ?