अली (अ.स.) सैफ़ुल्लाह
आवाज़े रिसालत आई ख़ामोश ! जिसका सिपाही मैदान में लड़ रहा है वह उसे तलवार भी देगा , कि जिब्राईले अमीन का नुज़ूल हुआ और आ कर तलवार पेश की और कहा , ‘‘ ला फ़ता इल्ला अली ला सैफ़ा इल्ला ज़ुल्फ़ेक़ार ’’
मैं कहता हूँ कि जिब्राईल (अ.स.) तुम्हें क़सम है भेजने वाले की , सच बता पहले किताबे लेकर आए हो , किसी के लिये ज़ुल्फ़ेक़ार भी लाए हो ? तो आवाज़ आई कि साहबे किताब नबी बहुत हैं मगर साहबे ज़ुल्फ़ेक़ार सिर्फ़ एक अली (अ.स.) हैं।
अब जब तलवार भी इधर की , हाथ भी इधर का यकजा हुए तो क़यामत बरपा हो गई। अब ज़रा हाथ तेज़ किया तो हर कोई अपने सर पर तलवार देखता है। हर काफ़िर यह महसूस कर रहा था कि तलवार मेरे सर पर है , अली (अ.स.) मेेरे पीछे हैं। अब तीन हज़ार का लश्कर घिरा हुआ है , जिधर से भी कोई काफ़िर निकलना चाहता है तो देखता है कि अली (अ.स.) उसके सामने हैं।
अब अली (अ.स.) की ज़ुल्फ़ेक़ार से यह हज़ारों का लश्कर बिखला कर भागा , जब पहले भागे तो कहते थे कि लशकर ने भगाया है मगर अब जो भागे तो हर किसी के मुंह पर यही था कि अली (अ.स.) मेरे पीछे , अली मेरे पीछे। अब यह भागते भी जाते हैं और अपने पैरों से मुड़ मुड़ कर कहते जाते हैं कि अली (अ.स.) ने मारा , अली (अ.स.) ने मारा है जब कि मौला अली (अ.स.) भागने वालों का पीछा नहीं करते थे। यह अपने पैरों की चाप से मुड़ मुड़ कर देख रहे थे कि अली (अ.स.) तो नहीं आ रहे।
मन्ज़र क़ाबिले दीद था , वह सितारों की बेटियां आगे आगे और बेटे पीछे पीछे थे , भागते भी जाते थे और मुड़ मुड़ कर देखते भी जाते थे।
मैं कहता हूँ कि ऐ सितारों की औलाद ! आईन्दा कभी भुल कर भी अली (अ.स.) के मुक़ाबिल आने की र्जुअत न करना।
भागने वालों के मुंह उतरे हैं और भागते जाते हैं रास्ते में जो किसी ने पूछा कि क्या हुआ ? कहने लगे , वही कुछ हुआ , आज फिर अली (अ.स.) ने हमारा बेड़ा ग़र्क कर दिया। हमने कुछ मुसलमान तो मारे हैं मगर अली ने हमारी दौड़ लगा दी है , फ़ायदा कोई नहीं हुआ।
कहने लगे कि मोहम्मद को तो हमने मार लिया था मगर क्या करें सामने अली आ गये। हमारा मक़सद पूरा नहीं हुआ। कहा , हां भाई यही ग़म है हर समय पर अली आ जाते हैं।
तवज्जो फ़रमाईये , अब दुश्मनी का पौधा बहुत मज़बूत हो चुका है अब उसकी जड़े नीचे तक उतर चुकि हैं , अब ख़ुद ब ख़ुद बढ़ेगा।
उस भागे हुए लश्कर को मक्का पहुँचने दीजिए। अली (अ.स.) लश्करे कुफ़्फ़ार को पिस्पा कर रहे थे , मुसलमानों का पता मैदान में न था और इधर हिन्दा को समय मिला अपने दिल की अदावत निकालने का।
हिन्दा कलेजा ए हमज़ा पर
उसने जो देखा कि हमज़ा का लाशा बे यारो मददगार पड़ा है , यह जल्लाद सिफ़त औरत हमज़ा के लाशे पर झपटी और जनाबे हमज़ा का सीना चाक किया और सरकार हमज़ा का कलेजा निकाला । कलेजा भी हमज़ा का था किसी ऐसे वैसे का नहीं।
आप सोचें कि यह सनफ़े के दामन पर दाग़ है कि यह दरिन्दा सिफ़त औरत दुश्मनी इस्लाम में मख़्मूर हर कर हमज़ा के कलेजा पर मुंह मारती है कि चबा जाऊँ मगर तारीख़ गवाह है कि बहुक्मे ख़ुदा कलेजा पत्थर का हो गया। उसने जो मुंह मारा तो उसके दांत टूट गये।
दोस्ताने गरामी ! मैं कहता हूँ कि मरहबा क्या शान है मुजाहिदे इस्लाम हज़रत हमज़ा (अ.स.) कि , कैसा दन्दान शिकन जवाब दिया है , मरने के बाद भी दुश्मने इस्लाम के दांत तोड़ कर रख दिये हैं। लश्कर मैदान से फ़रार हुआ और हमज़ा की लाश जिसका सीना भी चाक किया जा चुका था मैदान में पड़ी थी।
इधर सरकारे दो आलम के ज़ख़्मों से ख़ून बह रहा था और जब रसूले ख़ुदा (स.अ.) की बेटी जनाबे सैयदा (स.अ.) ने अपने बाबा को ज़ख़्मी देखा और बेक़रार हुईं। जब जनाबे सैयदा (स.अ.) ने अपने बाबा को ज़ख़्मी देखा तो बीबी के हाथ में रेशमी रूमाल था जबकि अरब का दस्तूर था कि ज़ख़्म पर रेशम को जलाकर लगा देते थे तो ज़ख़्म बन्द हो जाता था। अली (अ.स.) लश्करे कुफ़्फ़ार को भगा कर रसूल (स.अ.) के लिये ढ़ाल में पानी लाये और चेहरा ए मुबारक का ज़ख़्म धोया , दहने मुबारक का ज़ख़्म धोया। जनाबे सैयदा (स.अ.) ने रूमाल जलाया और रसूल अल्लाह (स.अ.) के ज़ख़्म पर लगाया। जनाबे फ़ात्मा (स.अ.) की आंखों से आंसू जारी थे और जख़्मी बाप की तीमारदारी कर रही थीं।
इधर मैदान में से कुछ और आदमी भी पलट आये और उन्होंने आ कर ख़बर दी , एक दफ़ा महशर बरपा हो गई कि हज़रत हमज़ा की बहन सफ़िया जनाबे हमज़ा के लाशे पर आ रही हैं।
हज़रत हमज़ा रसूल (स.अ.) के चचा थे और यह बीबी जो तशरीफ़ ला रही थीं रसूल (स.अ.) की फुफी हैं। रसूल (स.अ.) से कहा गया कि आपकी फुफी अपने भाई की शहादत की ख़बर सुन कर लाशे पर आ रही हैं। सरवरे काएनात ने हुक्म दिया कि सफ़िया को रोको , लाश पर न आने दो । लोगों ने कहा , मौला ! वह बेताब हैं नहीं रूक रहीं , मैय्यत पर चली आ रही हैं , कहा , मना कर दो , सफ़िया को न आने दो । लोगो ने बहुत रोका मगर बहन फ़रते मोहब्बत में डूबी चली आईं , उसकी दुनिया अन्धेर हो चूकी थी। चली आई।
रसूल (स.अ.) ने हज़रत हमज़ा (अ.स.) के लाशे को देखा तो कहा , इस पर चादर डाल दो ताकि बहन अपने भाई के लाशे को उरियां न देखे। मैदाने जंग में फ़ौरी तौर पर चादर न मिली।
तारीख़ शाहिद है कि बहन अपने भाई के लाशे के क़रीब आ चुकी थी तो रसूले ख़ुदा (स.अ.) ने फ़ौरन अपनी ऐबा उतारी और जल्दी से हज़रत हमज़ा के लाशे पर डाल दी और लाश को ढांप दिया ताकि बहन अपने भाई के लाशे को उरियां न देखे।
दोस्ताने गेरामी ! अपनी निगाहों को किसी और मैदान की तरफ़ ज़रा मोड़िये मैं क़ुरबान जाऊँ मेरे मज़लूम मौला हुसैन (अ.स.) तेरी बहनों के , मौमिनों और देखो एक बहन नहीं , तीन बहने थीं और साथ बेटियां थीं , एक भाई की लाश नहीं बल्कि कई भाईयो के लाशे उरयां पड़े थे। मैं कहता हूँ या रसूल अल्लाह (स.अ.) आईये एक रिदा भाई के उरियां लाशे पर डालिये और एक रिदा बहन के सर पर। गुज़िश्ता बात यहां तक पहुँची थी कि अली (अ.स.) से दुश्मनी का पौधा एक पूरा तनावुर दरख़्त बन चुका था।
अली (अ.स.) का मुक़ाबला कैसे ? और अब वह काफ़िर जो ओहद से वापिस जा रहे थे उनके दिमाग़ों में एक तसव्वुर था वह यह कि जब तक अली (अ.स.) का इन्तेज़ाम न होगा तब तक मोहम्मद (स.अ.) को ख़त्म करना मुश्किल है और जब तक अली (अ.स.) को ज़हर न दिया जायेगा उस वक़्त तक लश्करे इस्लाम को शिकस्त देना ख़्वाब व ख़्याल की बात होगी। अब दुश्मनी एक मंज़िल पर पहुँच गई कि जिसके बाद दोस्ती का कोई तसव्वुर बाक़ी ही नहीं ।
सुबूत उसका यह है कि अब कि दफ़ा जंग की तैयारी की जाए तो सबसे पहले इन्तेज़ाम किसी पहलवान का क्या जाये। पहलवान की तलाश शुरू की गई। इस्लाम की तीसरी लड़ाई जंगे खन्दक है , उसमें लश्कर की तैयारी से ज़्यादा पहलवान की तलाश पर ज़ोर दिया गया। यह नुक़्ता भी क़ाबिले ग़ौर है कि पहली दो लड़ाईयांे में यह कोशिश नहीं हुई अब की दफ़ा यह कोशिश क्यों ?
अबु सुफ़ियान ने वापिस आते ही एक तहरीक चलाई , तमाम क़बाएल जो कि ग़ैर मुस्लिम थे उन्हें जमा किया और यह एजेण्डा पेश किया गया कि आपस के ज़ाती इख़्तेलाफ़ात ख़त्म कर के इस्लामी दुश्मनी में एक हो जाओ और मिल कर इस्लाम और बानिए इस्लाम को मिटा डालो , अगर इस्लाम ज़िन्दा रह गया तो तुम में से कोई ज़िन्दा नहीं बचेगा। जंगे ओहद की नाकामी के बाद अबु सुफ़ियान ने इस्लामी दुश्मनों के नाम पर युनाईटेड फ़्रन्ट चलाया , अहज़ाब का तर्जुमा यही है।
जंगे ख़न्दक़ की तैयारिया
हज़ब कहते हैं अरबी में गिरोह को और एहज़ाब उसकी जमा है यानि कई गिरोह की लड़ाई । जितने गिरोह खि़लाफ़े इस्लाम थे वह सब एक हो गए इस्लाम को मिटाने के लिये।
दस हज़ार का लश्कर था , बड़ी जद्दो जहद के बाद एक पहलवान का इन्तेख़ाब किया गया जिसका नाम ‘‘ उमर बिन अब्दवद था ’’ उसे लाया गया। यह उमर अब्दवद पूरे लश्कर से लड़ने के लिये नहीं आया था उसे सिर्फ़ अली (अ.स.) से मुक़ाबिले के लिये लाया गया था , इस लिये कि दो जंगों में काफ़िरों को अन्दाज़ा हो गया था और तमाम दस्त व बाज़ु आज़माये जा चुके थे लिहाज़ा यह पहलवान एक हज़ार 1000 आदमियों का मुक़ाबला करने की ताक़त रखता था। पूरे अरब में उसका बड़ा नाम था। रसूल अल्लाह (स.अ.) ने जब लश्कर की आदम की ख़बर सुनी तो मदीना के सामने ख़न्दक़ ख़ुदवाई इसलिये यह लड़ाई जंगे ख़न्दक़ कहलाती है। ख़न्दक़ इस लिये खुदवाई कि दुश्मन आते ही हमला न कर दें।
दुश्मन जो आये उन्हें आते ही नई सूरते हाल का मुक़ाबला करना पडे़। खन्दक़ खुद चुकी थी लश्करे कुफ़्फ़ार मदीना से बाहर जमा हो चुका था , खन्दक़ के बाहर जमा हो चुका था। खन्दक़ के पार फ़ख़्रे अबु सुफ़ियान उमरो बिन अब्दवद निकल कर टहलता , काफ़िरों को यक़ीन था कि इस दफ़ा हमारी फ़तेह होगी , उमर इब्ने अब्दवद अली (अ.स.) को क़त्ल कर देगा , फिर मोहम्मद (स.अ.) को ख़त्म करना हमारे लिये आसान हो जायेगा। अब्दवद खन्दक़ के पार टहलता रहा और उस बात का अन्दाज़ा करना चाह रहा था कि ख़न्दक़ को कहां से उबूर करे। एक जगह से ख़न्दक़ ज़रा कम चैड़ी थी। अब्दवद घोड़े पर सवार हुआ और घोड़े को ऐड़ी लगाई और घोड़े को उड़ाता हुआ इस पार आ गया। घोड़ा दौड़ते हुए खेमा ए रसूल (स.अ.) तक पहुँचा और हज़रत (स.अ.) के ख़ैमा पर नैज़ा मार कर कहने लगा ऐ मोहम्मद ! कोई जवान है तो बाहर भेजो मेरा मुक़ाबला करे ?
मेरे ख़ामोश दोस्तो ! मुझे अफ़सोस है कि वो ख़ैमा रसूल (स.अ.) तक पहुँच गया और रास्ते में मुसलमानों ने कोई मज़हमत तक न की। अब्दवद कहने लगा , ऐ मोहम्मद ! कहां गई तुम्हारी जन्नत , क़त्ल करो तो ग़ाज़ी और क़त्ल हो जाओ तो शहीद। उसकी आवाज़ सुन कर रसूल (स.अ.) की ख़ेमा में आवाज़ गुंजी है कोई जो इस कुत्ते की ज़बान बन्द करे ? यह कौन कह रहा था , रसूल (स.अ.) कह रहे थे। जिन्होंने दुश्मन के लिये भी ऐसे अल्फ़ाज़ कभी इस्तेमाल न किऐ थे।
मैं कहता हूँ या रसूल अल्लाह (स.अ.) ऐसा लबो लहजा पहले कभी आपका नहीं सुना। तो आवाज़े रिसालत आई कि जो भी मासूम के दरवाज़े पर आ कर ऊंचा बोल कर ग़ुस्ताख़ी करता है वह कुत्ता होता है।
इतने में फिर उसकी आवाज़ आई। सरवरे काएनात ने फिर फ़रमाया , कोई है जो इस कुत्ते की ज़बान बन्द करे ? तो वही आवाज़ गुंजी लब्बैक या रसूल अल्लाह (स.अ.) मैं हाज़िर हूँ।
यह कौन सी आवाज़ थी ? यह वही आवाज़ थी जो दावते ज़ुल्अशीरा में आई थी। रसूल अल्लाह ने कहा , या अली (अ.स.) ! बैठ जाओ। रसूल अल्लाह (स.अ.) ने फिर आवाज़ दी , कि है कोई जो इस कुत्ते की ज़बान बन्द करे ? जब कोई न उठा तो फिर रसूल अल्लाह (स.अ.) ने कहा , बैठ जाओ , फिर फ़रमाया कि जो जाऐगा मेरा वसी होगा मेरा वज़ीर होगा।
तो अली (अ.स.) ने फ़रमाया , या रसूल अल्लाह (स.अ.) क़रीबी बैठे रहे और कोई दूसरा जाके कट जाए ? अली (अ.स.) उठे।
अली (अ.स.) खन्दक़ के मैदान में:- इधर अब्दवद रजज़ नहीं पढ़ रहा था बल्कि कह रहा था कि जन्न्त लेने वाले आओ! हालांकि दस्तूरे ज़माना है कि रजज़ पढ़ा जाता है। मैं फ़लां बिल फ़लां हूँ मैं यह हूँ वह हूँ। मगर वह कह रहा है कि अगर जन्नत पर यक़ीन है तो आओ मेरी तलवार की धार के नीचे जन्नत है। मेरी तलवार की धार पर चल कर आओ।
इधर रसूल (स.अ.) हज़रत अली (अ.स.) को तैयार कर रहे हैं , अस्लाह पहना रहे हैं , जंग के लिये सामाने जंग अली (अ.स.) पे सजा रहे हैं कि किसी की आवाज़ आई कि सरकार यह काफ़िर (अब्दवद) और मैं जब मैं उनका हम रक़ीब हुआ करता था तो हम जंगल में जा रहे थे कि जंगल में डाकुओं ने हमें लूटना चाहा और हम पर हमला कर दिया तो उसने अकेले डाकुओं का मुक़ाबला किया , लड़ते लड़ते उसकी तलवार गिर गई तो उसने ग़ुस्से और जोश में आ कर ऊँट के बच्चे को टांग से पकड़ कर चकर दिया और दुश्मनों को मारने लगा। सरकार यह बड़ा ताक़तवर है।
अली (अ.स.) कुल्ले ईमान हैं:- हुज़ूर (स.अ.) ने कहा , तुम जानते हो कि अली अल्लाह का मज़हर है।
अली (अ.स.) मैदान में आए। इधर अली (अ.स.) मैदान की तरफ़ बढ़ रहे थे कि रिसालत मआब ने कहा: ‘‘ आज कुल्ले ईमान कुल्ले कुफ़्र के मुक़ाबले में जा रहा है। ’’ मेरे मौला उमरो इब्ने अब्दवद के मुक़ाबले में आए । कहा कि सुना है कि तू तीन बातों में से एक बात को ज़रूर मानता है। उसने कहा , हां ठीक सुना है। तो आपने फ़रमाया , कलमा पढ़ ले और मुसलमान हो जा। वह कहने लगा , ऐसा नहीं हो सकता। देखिए इस्लाम की थ्योरि है कि जब्र नहीं करता , तलवार नहीं चलाता जब तक इत्मामे हुज्जत न कर ले। आपने कहा अगर मुसलमान नहीं होता तो वापस चला जा। कहने लगा कि यह भी नहीं हो सकता , न मुसलमान हो सकता हूँ न वापस जा सकता हूँ। तीसरी बात की घोड़े से नीचे उतर आ। हां यह हो सकता है , और वह घोड़े से नीचे उतर आया।
अली (अ.स.) ने कहा कि वार कर तेरे दिल में हसरत न रहे कि शायद पहले मैं वार करता तो कामयाब हो जाता । तलवार चली बहुत से वार उसने किये। अली (अ.स.) ने रोके। अली (अ.स.) ने सत्तर वार करने का मौक़ा दिया। इतना तवील मौक़ा इस लिये दिया था कि वक़्ते रूख़सत रसूल (स.अ.) ने कहा था कि आज कुल्ले ईमान कुल्लेे कुफ़्र के मुक़ाबले में जा रहा है ,, और कुफ़्र के दिल में हसरत न रहे। उसके बाद अली (अ.स.) ने वार किया , लड़ाई की तस्वीर लफ़्ज़ों से बयान नहीं हो सकती। तारीख़ बताती है कि इतनी गर्द उड़ी मैदान में कि सिवाए तलवारों की चमक के कुछ दिखाई नहीं देता था। बाहर दोनों तरफ़ नज़रे जमी हुई थीं। कुफ़्फ़ार की तमन्ना थी कि अली (अ.स.) क़त्ल हो जायंे और मुसलमान की तमन्ना थी कि अब्दवद क़त्ल हो जाये। यूं कहूं कि उमर इब्ने अब्दवद कल कुल्ले कुफ़्र की निचोड़ था और मेरे मौला अली (अ.स.) कुल्ले ईमान की निचोड़ थे।
तलवार चल रही थी कि मैदान से नारा ए तकबीर की आवाज़ गंूजी। मेरे मौला ने अब्दवद के पांव पर वार किया और उसके पैर काट दिये , वह गिरा गर्द फटी दूर खड़े तमाशाईयों ने नज़ारा देखा कि अली (अ.स.) उमरो इब्ने अब्दवद को नीचे गिरा कर इसके सीने पर सवार हैं और तलवार हाथ में है कि देखने वालों ने देखा कि अली (अ.स.) अचानक गला काटे बग़ैर उसके सीने से नीचे उतर आए हैं। यह मन्ज़र फ़िदइयाने इस्लाम को बहुत बुरा लगा। उन्होंने तुरन्द रसूल (स.अ.) को शिकायत की कि या रसूल अल्लाह (स.अ.) देखें अली (अ.स.) ने कैसी ग़लती की , अच्छा भला दुश्मन को क़ाबू में ला कर फिर छोड़ दिया , हम अगर अली (अ.स.) की जगह होते तो कभी गला काटे बग़ैर नीचे न उतरते।
रसूल (स.अ.) ने कहा , ख़ामोश जब अली (अ.स.) आयेगें तो खुद पूछ लेना कि उन्होंने ऐसा क्यों किया ? वह लेटा रहा , अली (अ.स.) ने टहलना शुरू किया , थोड़ी देर के बाद उसके सीने पर बैठे और गला काट लिया। जब उसका सर ले कर चले। जब अली (अ.स.) का अमल ख़ुदा को पसन्द है तो फिर अली (अ.स.) की पसन्द का इस्लाम चाहिए तुम्हारी पसन्द का इस्लाम नहीं चाहिए। सर ला कर रसूल (स.अ.) के क़दमों में डाल दिया। कहा: या रसूल अल्लाह (स.अ.) यह सर हाज़िर है। यही था जो चन्द मिनट पहले बहुत ललकार रहा था। यह उस दुश्मने ख़ुदा और दुश्मने रसूल का सर है। फ़रमाया:
ज़रबतो अलीयिन यौमल ख़न्दक़े अफ़ज़लो मिन इबादतिस्सक़लैन.
अली (अ.स.) की यह ज़रबत जो आज यौमे ख़न्दक़ उमर इब्न अब्दवद के सर पर लगी है वह सक़लैन की इबादत से अफ़ज़ल है।
क़यामत तक की इबादत एक तरफ़ अली (अ.स.) की यह एक ज़रबत एक तरफ़।
अब अली (अ.स.) के फ़ज़ाएल पर पर्दा डालने वालों ने अपना काम शुरू कर दिया। एक मोमेण्ट चली कि बहुत बूढ़ा था , डेढ़ सौ बरस का था उसे राशा था , हाथ भी हिलते थे , पांव भी लरज़ते थे , यह था वो था मगर मैं कहता हूँ ओ अक़ल के अंधों जो उसको लड़ाने के लिये लाये थे , जिन्होंने पूरे अरब में बड़ी जद्दो जहद के बाद उसे मुन्तख़ब किया था क्या वह नहीं जानते थे ? ज्यूही नहीं उमर बिन अब्दवद क़त्ल हुआ। तो अब अबु सुफ़ियान समझ गया कि आगे बढ़ना ख़ुद कुशी है। तारीख़ी सुबूत है कि उसी रात मुहासेरा ख़त्म हो गया और लश्कर चला गया।
अली (अ.स.) के ख़ौफ़ से दिल में तूफ़ान आते हैं:- बाद में मुआविया के दौर में उसके ख़रीदे हुए मोअर्रेख़ीन ने यूं कह कर बात बराबर की है कि वो तूफ़ान आ गया , खैमे उखड़ गए , यह हो गया वो हो गया। मेरी समझ में यह नहीं आता कि ख़न्दक़ कितनी चैड़ी थी ? दस फ़िट थी या बीस फिट। बस इतनी चैड़ी थी कि घोड़ा जम्प कर के इस पार आ गया। तो उधर तूफ़ान आया है और खे़मे तक उखड़ गए हैं और उधर तूफ़ान से रसूल (अ.स.) के लश्कर के ख़ैमों में चिराग़ तक नहीं बुझा। हमारी अक़्ल में यह तूफ़ान नहीं आया। यह दस हज़ार 10,000 जंगजू समझ गए थे कि जिसको बुनियाद बना कर लाए थे वह तो क़त्ल हो गया , लिहाज़ा अली (अ.स.) के ख़ौफ़ से उनके दिलों में तूफ़ान बरपा था , सो भाग गए।
अबु सुफ़ियान की जद्दो जहद
अब अबु सुफ़ियान लश्कर ले कर ख़ुद वापस नहीं आया। अब उसने ख़ैबर के यहूदियों को मुसलमानों के खि़लाफ़ भड़काया और माल व मुताअ का लालच दे कर मुसलमान काफ़िलों पर हमले शुरू करवा दिये और मुसलमानों की ज़िन्दगी और उनके काफ़िलों के लिये ख़तरा पैदा हो गया।
सरवरे काएनात (स.अ.) ने बार बार वारनिंग दी की होश में रहो , मुसलमानों से यह ज़्यादती न करो , वह न माने। आखि़रकार रसूल (स.अ.) अपना लश्कर ले कर वहां पहुँच गए। तारीख़ बताती है कि उनके छोटे मोटे इलाक़े फ़तेह कर लिये और जब उस इलाक़े में पहुँचे जहां क़िला क़ामूस था उसके अन्दर उनका मशहूर नामी गिरामी पहलवान मरहब रहता था। (मुझै ख़ैबर नहीं पढ़ना वाक़ेआ आपके बच्चों का भी सुना है) कि लशकर जाता था और जब मरहब कहता कि आऊं तो बहादुर जवान कहते थे कि तुम ज़हमत न करो हम ख़ुद ही चले जाते हैं। 40 दिन तक का मुआहेदा हुआ था , क़िला ए क़मूस फ़तेह करेंगे मगर 39 दिन गुज़र गए क़िला की ईंट भी न हिली। अब सवाल यह पैदा होता है कि 39 दिन में राशन तो तमाम ख़त्म हो गया मगर ख़ैबर क्यों फ़तेह न हुआ क्यों कि 39 दिनों में लश्कर के दरमियान अली (अ.स.) न थे।
जब उन्तालीस 39 दिन गुज़र गए तो तारीख़े इस्लाम की मशहूर हदीस , सरवरे काएनात ने कहा ‘‘ मैं कल अलम उसे दुंगा जो कर्रार होगा , ग़ैरे फ़र्रार होगा ख़ुदा और रसूल को दोस्त रखता होगा और ख़ुदा और रसूल उसको दोस्त रखते होगे।
सारी रात मुसलमानों के लश्कर में इज़्तेराब रहा कि देखें कल अलम किसको मिलता है। सुबह हुई मुसलमानों का मजमा रसूल (स.अ.) के ख़ैमा के गिर्द अलम लेने के लिये जमा है , रसूल (स.अ.) जब तशरीफ़ लाए मजमा पर नज़र की। हर एक के दिल में तमन्ना थी अलम मिले मगर रसूल (स.अ.) ने मजमा पर नज़र डाल कर कहा , ऐना अली , अली कहां हैं ?
अली (अ.स.) से मदद मांगना हुक्मे ख़ुदा है
उससे चन्द लम्हें पहले यह नादे अली नाज़िल हुई रसूल (स.अ.) पर यह हदीसे क़ुदसी है। हदीसे क़ुदसी अल्लाह के उस कलाम को कहते हैं जो क़ुरआन न हो मगर कलामे ख़ुदा हो। नादे अली जो है यह हदीसे क़ुदसी है। नाद है अरबी में अम्र का सेग़ा है। नाद माने निदा , पुकारो। नादे अली यानी अली (अ.स.) को पुकारो। यह हुक्मे ख़ुदा हो रहा है रसूल (स.अ.)ं को।
नादे अलीयन , अली (अ.स.) को पुकारो , मज़हरल अजाएब , तुम उन्हें मज़हरल अजाएब पाओगे। उसकी ज़ात से अजाएबात ज़ाहीर होंगे।
उन्होंने पुकारा यहां आओ पर दो रवायतें हैं। एक रवायत यह है कि हज़रत अली (अ.स.) ख़ैबर में थे लेकिन आशब चश्म में मुब्तेला थे। दूसरी रवायत यह है कि मदीना में थे अगर मदीना में भी थे तो जब मज़हरल अजाएब हैं तो मदीना से भी आना कोई हैरत नहीं। रसूल (स.अ.) ने पुकारा और अली (अ.स.) आए। अब मदीना से आए या ख़ैमा से , मुझे उससे बहस नहीं लेकिन जिस शान से ख़ैमा में दाखि़ल हुए वह शान मैंने किताबों में देखी।
मौला अली (अ.स.) की आंखों में शदीद तकलीफ़ थी कि आंखें खोलना दुश्वार था तो इस तरह ख़ैमा रसूल (स.अ.) में आए कि एक हाथ सलमान के कंधे पर रखे हुए और एक हाथ अबुज़र के कांधे पर रखे हुए हैं।
मन्ज़र क़ाबिले दीद था। एक तरफ़ नवें 9 दर्जा का ईमान और एक तरफ़ दसवें दर्जे का ईमान , दरमियान में कुल्ले ईमान तशरीफ़ ला रहे हैं।
कहा: क्या हाल हैं या अली (अ.स.) ? अली (अ.स.) ने कहा: मौला ! आपकी ज़्यारत की तमन्ना है लेकिन आंखों में शदीद तकलीफ़ के बाइस आंख खोलना दुश्वार है। कहा: क़रबी आओ। अली (अ.स.) क़रीब आए और हुज़ूर सरवरे काएनात (स.अ.) ने अपनी अंगुश्ते शहादत ज़बाने मुबारक से मस की और फिर अली (अ.स.) की आंखों पर अपना लुबाबे दहन लगाया। रसूल (स.अ.) ने अली (अ.स.) की आंखों को उस तरह खोला जिस तरह क़ारी र्क़ुआन के वरक़ उलटता है।
अली (अ.स.) ने कहा: रसूल (स.अ.) का हाथ लगाना था कि मुझे आंखों की कोई तकलीफ़ नहीं रही।
तवज्जो फ़रमाईये ! लड़ाई में शाने एजाज़ी न रसूल (स.अ.) ने दिखाई न अली (अ.स.) ने लेकिन ख़ैबर में ऐजाज़ी मामले में अल्लाह ने मज़हरल अजाएब कह दिया था लिहाज़ा अजाएबात ज़ाहिर हुए ।
रसूल (स.अ.) ने कहा: या अली ! लो अलम। अली (अ.स.) कहते हैं या रसूल अल्लाह (स.अ.) कब तक लड़ूं ? कहा जब तक फ़तेह न हो जाए।
अली (अ.स.) ख़ैबर के मैदान में:- अब अली (अ.स.) को फ़िक्र न थी कि कौन पीछे आ रहा है और कौन नहीं , लश्कर आ रहा है कि नहीं। सरकार घोड़ा उड़ाते हुए आए क़िला की तरफ़ और वहां एक बूढ़ा यहूदी आलम था जो बैठा तो रात का मुतालेआ करता रहता था। वह यहूदी आलम मरहब का ख़ास आदमी था। क़िला के ऊपर बैठा था उसने जो ग़ौर से देखा तो तुरन्द मरहब को इत्तेला की कि ऐ मरहब ! गुज़िश्ता अय्याम जितने आते रहे हैं वह और थे , यह जो आज आया है यह और है। तुम्हारी बेहतरी इसमें है कि तू उससे मुक़ाबला न कर , वरना तेरी मौत उसके हाथों में है। परवरदिगार की क़सम तुम हार गए।
ख़ाली सूरते हाल देख कर कहा , लड़ते नहीं देखा। कहा मूसा के परवरदिगार की क़सम तुम हार गए। यह वही आ रहा है जिसका ज़िक्र तौरैत में है।
टली (अ.स.) ने मैदान में आ कर अलम एक पत्थर पर नस्ब किया। अलम का दस्ता पत्थर में यूं उतर गया जैसे पत्थर किसी मौम का बना है। अलम नस्ब कर दिया। उसके बाद क़िले का दरवाज़ा खुला , पहले हारिस निकला , मरहब के बदले अन्तर निकला उनको अली (अ.स.) ने फ़िन्नार किया और फिर वह निकला जिसका पूरे ख़ैबर में डंका बजता था।
मरहब निकल , महरब ने दो ज़िरह , दो ख़ुद सर पर , दो तलवारें दो नैज़े लगा रखे थे चूंकि लम्हे पहले उसके दो बहादुर सिपाही जंगी जवान क़त्ल हुए थे लिहाज़ा अपनी हिफ़ाज़त का पूरा इन्तेज़ाम कर के निकला। आते ही उसने रजज़ पढ़ा कि मैं मरहब हूँ और मेरी माँ ने मेरा नाम मरहब रखा है। सारा ख़ैबर मुझे जानता है। मैं बहादुर पहलवान हूँ।
अली (अ.स.) ख़ुदा का शेर हैं
इधर अली (अ.स.) ने मुस्कुरा कर कहा मेरी मां ने मेरा नाम हैदर रखा है और मैं ख़ुदा का शेर हूँ।
मरहब की बहन ने कहा: तेरी दाइया ने मना किया था कि हैदर नाम के किसी आदमी से न लड़ना। शैतान ने तुरन्त यह उसके कान में फूंका कि यह ज़रूरी नहीं कि यह वही हैदर हो। मरहब घमण्ड में आ गया। फिर अली (अ.स.) ने उसे दावते इस्लाम दी और उसने इन्कार किया और कहने लगा कि अगर मैंने इस्लाम क़ुबूल कर लिया और मैदान से वापस चला गया तो औरतें हंसेंगी। काफ़िरों को भी इसी बात का एहसास है कि मैदान से भागा तो औरते शर्मसार करेंगी।
और बाज़ लोग ऐसे होते हैं कि कोई हंसे भी तो उन्हें परवाह नहीं , ज़िन्दा तो रहेंगे। इमाम (अ.स.) ने कहा , अच्छा मरहब , वार करो ताकि तुम्हें दिल में हसरत न रहे। मरहब ने वार किया। मेरे मौला ने रद किया , फिर वार किया , फिर वार रद किया , फिर मेरे मौला ने नारा ए तकबीर बुलन्द किया और वही मरहब जो दो ज़िरा , दो खुद , दो तलवारे , दो कमन्द , दो नैज़े , सब चीज़े दो दो ले कर निकला था मेरे आदिल इमाम (अ.स.) ने उस मरहब को दो हिस्सों में तक़सीम कर दिया। मरहब क़त्ल हो गया। काफ़िर भागे और भाग कर क़िले का दरवाज़ा बन्द कर दिया।
तारीख़ बताती है कि अली (अ.स.) बढ़े और बाएं हाथ की उंगलियां ख़ैबर के दरवाज़े में डालीं । यह अल्लाह का हाथ था । उंगलियां फ़ौलादी दरवाज़े के अन्दर उतर गईं। झटका दिया और दरवाज़े को उड़ाकर फ़ेंक दिया और फिर उसी दरवाज़े को पुल बनाया और लश्करे इस्लाम से कहा चलो आओ। इधर लोग दौड़े , या रसूल अल्लाह (स.अ.) अली (अ.स.) ख़ैबर का दरवाज़ा हाथ पर लिये हैं। रसूल (स.अ.) ने कहा तुमने हाथ देखा है पैर नही देखे ? कहा , नहीं। कहा , जाओ देख कर आओ। जब देखा तो अली (अ.स.) के पैर हवा में थे। अली (अ.स.) मज़हरल अजाएब हैं लिहाज़ा अजाएबात ज़ाहिर हो रहे हैं। अली (अ.स.) दरवाज़ा हाथ पर लिये हैं और लोग गुज़र रहे हैं।
अली (अ.स.) के फ़ज़ाएल को नज़र अन्दाज़ करने के लिये मौलाना शिब्ली नौमानी अपनी एक किताब में लिखते हैं कि ख़ुदा ने रोज़े अव्वल से फ़तेह ख़ैबर अली (अ.स.) के मुक़द्दर में लिख दी थी इस लिये फ़तेह कर लिया और लोगों ने भी दरवाज़े पर बहस की है कि लोहे का न था , मामूली था वग़ैरा । यह शिया लोगों की ख़ाली बात है उनका इज़ाफ़ा है जो जोश मोहब्बत में पढ़ रहे हैं। वैसे ऐसा दरवाज़ा कहां था।
मैं कहता हूँ कि वह दरवाज़ा ही नहीं था फ़क़त कागज़ का टुकड़ा था या कपड़े का पर्दा पड़ा था , दरवाज़ा था ही नहीं। आप यही समझ लें तो अली (अ.स.) ने ख़ैबर का दरवाज़ा उखाड़ा या नहीं ?
अली (अ.स.) के फ़ज़ाएल में एक फ़ज़ीलत कम हो जाए या बढ़ जाए तो फ़र्क़ नहीं पड़ता। अली (अ.स.) ने वह दरवाज़ा लोहे का था या लकड़ी का या कपडे़ का पर्दा , बहस यह नहीं , बात है फ़तेह की तो ख़ैबर दस्ते अली (अ.स.) पर फ़तेह हुआ तो उनकी शख़्सियत में कमी हुई या ज़्यादती ? मगर लोगों को यह सोचना चाहिये कि दुश्मनी ए अली (अ.स.) में दूसरों को बदनाम कर रहे हैं कि जिनसे वह भी फ़तेह नहीं हुआ। कहा कि वह तो अली (अ.स.) के मुक़द्दर में लिखा था , यह भी अजीब मामला है। मुक़द्दर हमेशा बुराई के ज़माने में याद आता है अच्छाई के ज़माने में नहीं। एक लड़का चार साल से बी 0 एस 0 सी 0 में फे़ल हो रहा है तो उसके बाप ने कहा क्या बताएं शायद उसके मुक़द्दर में ही नहीं। पढ़ता है , मेहनत करता है मगर न जाने क्यों हर साल फे़ल हो जाता है , किसी न किसी मज़मून में रह जाता है और एक साहब के लड़के ने पहली दफ़ा इम्तेहान दिया और यूनिवर्सिटी में टाप किया। अब आप मुबारक बाद देने जा रहे हैं। मियां तुम्हारा लड़का क्या पास हुआ है वह तो मुक़द्दर में ही लिखा है , पास होना था सो पास हो गया। उसमें तुम्हारे लड़के का कोई कमाल नहीं। तो वह यह सुन कर आपका मुहं नोचने तक जाऐगा।
आप बड़े आए मेरे बेटे के चाहने वाले , हमारे लड़के ने मेहनत की , मशक़्क़त की , रातों को रात न समझा , दिनों को दिन न समझा , दिन रात एक करके मेहनत करता रहा और टाप किया है आप कह रहे हैं कि उसने पास होना ही था उसके मुक़द्दर में लिखा था।
अली (अ.स.) का मुक़द्दर
अजीब मामला है अली (अ.स.) के मुक़द्दर का भी , काबा में पैदा होना अली (अ.स.) का मुक़द्दर , रसूल (स.अ.) की गोद में पलना अली (अ.स.) का मुक़द्दर , अलम अली (अ.स.) के मुक़द्दर में , मिम्बर अली (अ.स.) के मुक़द्दर में , दोशे पैग़म्बर अली (अ.स.) के मुक़द्दर में , आयते तत्हीर अली (अ.स.) के मुक़द्दर में , अक़्दे फ़ातेमा (स.अ.) अली (अ.स.) के मुक़द्दर में। अब दुनियां अपने मुक़द्दर फोड़े , उस मुक़द्दर का कोई जवाब नहीं , जनाब मुझे कह लेने दीजिए कि क्या कातिबे तक़दीर भी अली (अ.स.) का मज़हब तो नहीं रखता था ? जो यह सब चीज़ें अली (अ.स.) के मुक़द्दर में लिख दीं।
अब उस ख़ैबर की लड़ाई के बाद काफ़िरों के खुले मैदान में चैलेन्ज देने के दम ख़म हो गए और समझ गए कि उनसे यूं निमट नहीं सकते। अब आखि़री मंज़िल आई उनकी दाएमी अदावत की जब रसूल (स.अ.) फ़तेह मक्का के लिये मक्का में दाखि़ल हुए। (ज़रा कड़ियां ज़हन में मिलती रहें अगर ज़हन से एक कड़ी भी छट गयी तो बात समझ में नहीं आएगी।) इन्सान को अपनी जान प्यारी होती है माल और औलाद प्यारी होती है और बाज़ हालात में उनसे बढ़ कर दीन और ईमान प्यारा होता है। जिन बुतों के तहफ़्फ़ुज़ में यह काफ़िर लड़ रहे थे फ़तेह मक्का के दिन उन्होंने देखा कि अली (अ.स.) और रसूल (स.अ.) उसी काबा में दाखि़ल हुए जिस काबा से निकले गए थे अब इतनी बड़ी ताक़त थी कि काफ़िर सामने आ कर मुक़ाबला करते तो मुम्किन न था। रसूल (स.अ.) लश्कर लिये हुए फ़तेह मक्का पर मोहर लगाने के लिये मक्का के दरवाज़े पर आ गए थे। शाम हो रही थी जब हुज़ूर मक्का के पास पहुँचे। दुश्मन के शहर में रात को दाखि़ल होना मुनासिब न समझा तो मक्का के बाहर मैदान में लश्कर ठहराया गया। इधर दो आदमी पहाड़ी पर चढ़े एक मुसलमान था और दूसरा काफ़िर। यह तारीख़ पेश कर रहा हूँ तमाम मकतबे फ़िक्र मोअर्रेख़ीन ने रक़म किया है । मुसलमान का नाम अब्बास था जो कि रसूल (स.अ.) के चचा थे और काफ़िर का नाम अबु सुफ़ियान था। यह दोनों बलन्द मक़ाम से रसूल (स.अ.) के लश्कर का नज़ारा करने लगे। अबु सुफ़ियान जो कि पुराना जंग जु , तर्जुबा कार जिसकी ज़िन्दगी मैदाने जंग में गुज़री थी अपनी तर्जुबे कार आंखों से फेले हुए लश्कर का जायज़ा लेने लगा। हद्दे निगाह तक ख़ैमे लगे हुए हैं , दूर दूर तक लश्कर फेला हुआ है , हर तरफ़ बेहतर इन्तेज़ाम हैं। अबु सुफ़ियान ने अपनी ज़िन्दगी भर की तर्जुबे कार आंखों से लश्कर को देखा और हज़रात अब्बास से कहने लगा: वाह तुम्हारे भतीजे ने बहुत बड़ी हुकूमत बना ली है। हज़रत अब्बास ने उसको कोहनी मार कर कहा , ओ बदबख़्त यह हुकूमत नहीं है रिसालत है।
दो नज़रिये
देखिये रात तक वह लफ़्ज़ कानों तक पहुँचे , रात तक दो मुख़्तलिफ़ नज़रिये थे । मुसलमान ने लश्करे इस्लाम को देख कर कहा कि यह रिसालत है और काफ़िर ने लश्कर को देख कर कहा कि यह हुकूमत है। रात तक नज़रिया ए हुकूमत काफ़िर के पास था एक नज़रिया ए इस्लाम मुसलमान के पास था।
सुबह हुई तो यही काफ़िर अबु सुफ़ियान कलमा पढ़ कर मुसलमान हो गया नज़रिया अपनी जगह क़ायम है। अब मुसलमानों में दो नज़रिये आ गए। नज़रिया ए हुकूमत भी और नज़रिया ए इस्लाम भी। अब नज़रिया हुकूमत जो क्मअवसवचम हुआ तो उसने इस्लाम में अहलेबैत (अ.स.) के खि़लाफ़ अपनी सारी सर गरमियां दिखाईं। उसके मेरे पास और बहुत सारे तारीख़ी सुबूत मौजूद हैं।
काफ़िरों से मोहब्बत कैसी ? इस्लाम क़ुबूल करने के बाद भी लोगों के दिलों में अपने मक़तूल काफ़िरों की मोहब्बत थी। जैसा कि एक मशहूर सहाबी ने अपने बिगड़ बिगड़े रहते हो , तुम्हारे दिल में मेरे लिये बुग़्ज़ है और मैं यह भी जानता हूँ कि क्यों बुग़्ज़ और फ़र्क़ है। तुम आज तक यही समझ रहे हो कि तुम्हारे मामू को मैंने क़त्ल किया है जब कि मैंने उसे मैदान में देखा ज़रूर था कि वह ख़ून में लत पत लेट रहा है मगर मैं आगे बढ़ गया जब कि मेरे पीछे अली था उन्होंने उसे क़त्ल किया।
क्या मतलब निकला इस वाक़ेए का ? लोग अपनी सफ़ाईयां देते थे कि हमने काफ़िरों को क़त्ल नहीं किया बल्कि अली (अ.स.) ने अक्सर काफ़िर क़त्ल किये हैं। अब यह रात को काफ़िर और मुसलमान दोनों इन्तेज़ाम में हैं कि कब सुबह हो और रसूल (स.अ.) का अज़ीम लश्कर सफ़ेद परचम लिए अमान का मक्का में दाखि़ल हुआ।
कहा बदला नहीं लिया जायेगा , अमान है उन लोगों के लिये जो अस्लाह खोल के घर से निकले , उसको अमान है जो अपने घर के दरवाज़े बन्द कर ले , उसको अमान है जो अबु सुफ़ियान के घर चला जाए , उसको अमान है जो उम्मे हानी के घर चला जाए। किसी ने दुश्मन को इतना मरतबा दिया है जितना रसूल (स.अ.) ने दिया।
जो उम्मे हानी के घर चला जाए उसको अमान। उम्मे हानी हज़रत अली (अ.स.) की बहन का नाम है। उम्मे हानी बिन्ते हज़रत अबु तालिब (अ.स.) । हज़रत अली (अ.स.) की बड़ी बहन थीं। जो मस्जिेदिल हराम की हद में आजाए उसको अमान।
लश्करे इस्लाम का मक्का में दाखि़ला:- यह थे मक्का दाखि़ला के वक़्त लश्कर के ऐलानात। उसके बाद सरवरे काएनात अली (अ.स.) को साथ लिये सीधे ख़ाना ए काबा में तशरीफ़ लाए। आ कर देखा कि काबा पर बुतों का क़ब्ज़ा है। नबी (स.अ.) और अली (अ.स.) ने मिल कर बुतों को तोड़ना शुरू किया जो दीवारों पर सजे थे उन्हें गिराना शुरू किया। तवज्जो ! अब यह बुत नहीं टूट रहे , काफ़िरों के दिल टूट रहे हैं। अब हर तरफ़ बुत बिखरे पड़े हैं।
निगाहे रिसालत व इमामत जब काबा की दीवार पर पड़ी ,, ऊंचा देखा तो एक सब से बड़ा बुत जिस पर बहुत ज़्यादा नज़रो न्याज़ें और चढ़ावे चढ़ते थे दीवार में नस्ब है। अली (अ.स.) और नबी (स.अ.) में कुछ बातें हुईं। बातों के बाद नबी ए करीम (स.अ.) ने अली (अ.स.) को अपने दोश पर सवार किया अली (अ.स.) रसूल (स.अ.) के कंधों पर सवार हो कर बुत तोड़ने शुरू किये जब तमाम बुत अली (अ.स.) ने गिरा दिये तो यूं कहूं कि जब तमाम काफ़िरों के दिल टूट चुके। नूर अला नूर की तस्वीर देखना है तो बस यही देख लीजिए। यह मन्ज़र भी क़ाबिले दीद है। कभी दोशे रसूल (स.अ.) पर अली (अ.स.) हैं कभी दोशे पैग़म्बर (स.अ.) पर हसन (अ.स.) और कभी हुसैन (अ.स.) हैं लेकिन हासिद कहते हैं कि कोई बड़ी बात नहीं हर बड़ा अपने छोटे को अपने दोश पर बिठा लेता है अगर रसूल (स.अ.) ने बिठा लिया तो क्या हुआ ? बड़ी बात नहीं होती लेकिन एक मिसाल से बात वाज़ेअ करता हूँ कि मैं अपने दोनों पर कन्धों पर रखता हूँ क़ुरआन और उसके ऊपर अपना नवासा या पोता बिठा लेता हूँ तो आप क्या कहोगे कि यह क्या बदतमीज़ी है ? सारा मजमा एतेराज़ करेगा। तो अक़्ल के अन्धे शर्म नहीं आती , फ़ज़ीलते अली (अ.स.) पर पर्दा डालते हुए कि दुनियां में हर कन्धा आम कन्धा है मगर रसूल (स.अ.) का कन्धा आम कन्धा नहीं यह वह कन्धा है जिस पर मोहरे नबूवत नस्ब है और मोहरे नबूवत क्या है ? मुहरे नबूवत क़ुरआन है। तो फ़िर र्क़ुआन पर सिर्फ़ क़ुरआन ही रखा जा सकता है कोई दूसरी चीज़ नहीं रखी जा सकती जब कि दोशे रसूल (स.अ.) पर सिवाए अली (अ.स.) और हसनैन (अ.स.) के अगर कोई सवार हुआ है तो सामने ला ?
मक्का मुसलमान हो गया
जब काफ़िरों की अली (अ.स.) से दुश्मनी की हुदूद कलाई मेट तक पहुँच गई तो अब यह मजबूर हो चुके थे लिाहज़ा यह ज़ौक़ दर ज़ौक़ आ कर रसूल (स.अ.) के हाथों पर मुसलमान होने लगे और शाम तक सारा मक्का मुसलमान हो गया , जो कल शाम तक काफ़िर थे। उनमें उनका सरदार अबु सुफ़ियान भी मुसलमान हो गया जिसने ज़िन्दगी भर लड़ाईयां लड़ीं वह तो वह थे , हिन्दा भी मुसलमान हो गई जिसने हज़रत हमज़ा का कलेजा चबाया था तो क्या ख़्याल है कि वह मुसलमान हो गई ? कितने भोले हैं मोअर्रिख़े इस्लाम।
मेरी समझ में आज तक एक कुफ़्र नहीं आया और एक इस्लाम बता दूं कि कौन सा कुफ़्र और कौन सा इस्लाम ।
अबु तालिब (अ.स.) का कुफ़्र समझ में नहीं आता और अबु सुफ़ियान और हिन्दा का इस्लाम मेरी अक़्ल में नहीं समाता।
बड़े बड़े कहते हैं कि अबु तालिब (अ.स.) मुसलमान न थे , रसूल (स.अ.) ने मरते वक़्त भी कान में कहा कि चचा कलमा पढ़ लो मगर उन्होंने नहीं पढ़ा। बड़ी अजीब बात है कि जो मुहाफ़िज़े नबुव्वत है वह काफ़िर और जो मुख़ालिफ़े नबुव्वत व रिसालत है वह मुसलमान।
अबु तालिब (अ.स.) मुसलमान न थे जब कि अबु सुफ़ियान मुसलमान हो गया था।
यह बाहर की लड़ाईयां थीं अब घर के अन्दर की लड़ाई सुनाऊंगा। मदीने के अन्दर ही अन्दर अली (अ.स.) से दुश्मनी कैसे बढ़ती गई। यह मक्का वालों की कहानी थी अब मदीने वालों की सुनाऊंगा। जब यह बयान मुकम्मल होगा। अभी तसव्वुर का एक रूख़ आपके सामने आया है तो दो काफ़िर हैं और मुसलमान। अब यज़ीद का ज़िक्र आया तो कहा बहर हाल वह मुसलमान तो था। अबु सुफ़ियान की बात आए तो कहते हैं कि वह मुसलमान हो गए थे। यह ठहरे मुसलमान।
अब दूसरी तरफ़ आते हैं , एक अबु तालिब (अ.स.) काफ़िर एक हम काफ़िर तो हमारी समझ में बात आ गई , इस्लाम और काफ़िर का मेयार समझ में आ गया। जो पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) को पाले वह काफ़िर और और जो पैग़म्बरे अकरम (स.अ.) के नवासे पर रोऐं वह काफ़िर। जो पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) से लड़े वह मुसलमान और जो उनके नवासे को शहीद करे वह मुसलमान।
तो हम कहते हैं कि ऐ पालने वाले ! तुझे रूहे मुहम्मद (स.अ.) का वास्ता हमंे क़यामत के दिन हज़रत अबु तालिब (अ.स.) और हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के साथ महशूर फ़रमा और जो हमें और सरकार अबु तालिब (अ.स.) को काफ़िर कहते हैं उन्हें बरोज़े महशर अबु सुफ़ियान और यज़ीद के साथ उठा। काफ़िर काफ़िर एक जगह रहने दो और मुसलमान मुसलमान एक जगह। झगड़ा किस बात का।
अजीब नज़रिया
ख़ुदा की क़सम यह अजीब नज़रिया है , अजब इस्लाम है। अफ़सोस................ कि जो ज़िन्दगी भर हक़ के साथ लड़ता रहे वह मुसलमान , जो हमज़ा का कलेजा चबाए वह मुसलमान , जो अली (अ.स.) के साथ बहत्तर जंगे करे वह मुसलमान , जो फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) को तीन दिन का भूखा प्यासा दरिया के किनारे गये यारो अन्सार के साथ क़त्ल करे वह मुसलमान , जो ख़ानदाने इस्मत व तहारत की शहज़ादियों को असीर करे वह मुसलमान , जो फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) का कटा हुआ सर नौके नेज़ा पर देख कर कहे , काश ! आज मेरे बद्र वाले ज़िन्दा होते तो मेरे शाने थपक कर कहते , शाबाश , वह मुसलमान और जो मज़लूमे करबला के ग़म में ग़मगीन हो वह काफ़िर................ ?
देखा आपने ! यह बद्र की लड़ाई का शोला भड़क कर वहां तक गया था। यह वही तलवार की दुश्मनी थी जो वहां तक पहुँची , जो यज़ीद ने कहाः आज मेरे बद्र वले ज़िन्दा होते और यह मन्ज़र देख कर मुझे दुआएं देते कि ऐ यज़ीद ! तेरे हाथ कभी शल न हों।
यह जो अहलेबैत (अ.स.) पर ज़ुल्म व सितम हुए हैं यह वही बद्र के कुत्तों का इन्तेक़ाम लिया जा रहा है , वह दुश्मनी के शोले थे।
वह कैसे बे ग़ैरत थे उस लईन के दरबार में बैठने वाले जिनके ईमान बिक गये थे , जिनके ज़मीर बिक गये थे , जो दीन फ़रोश थे। आज वह इस्लाम के ठेकेदार बन कर अपने आप को सफ़े अव्वल का मुसलमान कहते हैं। वह सफ़े अव्वल का मुसलमान है जो यज़ीद को छटा इमाम माने , जिसने नवासे रसूल (स.अ.) को शहीद कर दिया और उनके छोटे छोटे बच्चे शहीद कर दियो और इस्मत व तहारत की मलका बीबियों को सर खुले भरे बाज़ार में ले आए और बे ग़ैरत मुसलमान ने पलट कर यह न पूछा कि यह किस घराने की शहज़ादियां हैं ?
अज़ीज़े गिरामी ! आले मोहम्मद (स.अ.) पर ज़ुल्म मामूली नहीं हुआ , साल भर क़ैद रहे। आले मोहम्मद (स.अ.) , तक़रीबन एक साल यह यज़ीदियों का प्रोपेगन्डा है कि नहीं एक दिन दरबार में आये थे और एक रात क़ैद की मुद्दत है। एक रात कहां क़ैद की मुद्दत है ? एक साल क़ैद की मुद्दत है। 61 हिजरी में इमाम हुसैन (अ.स.) शहीद हुए हैं और 20 सफ़र सन् 62 हिजरी में जनाबे ज़ैनब (अ.स.) पलट कर आई हैं क़ब्रे हुसैन (अ.स.) पर। 11 मुहर्रम सन् 61 हिजरी को आले मोहम्मद (स.अ.) क़ैद हुए थे और 20 सफ़र 62 हिजरी को यह काफ़ेला क़ब्रे हुसैन (अ.स.) पर आया था। 8 दिन क़ैद से रिहाई के बाद असीराने शाम ने शाम में मातम किया है और जितने दिन सफ़र में लगे उनको नफ़ी कर के हिसाब कर लें तो आले मोहम्मद (अ.स.) की असीरी का पता चल जायेगा।
उसी मुद्दत में वह ज़माना भी आ गया जब उस घर के छोटे छोटे बच्चों ने क़ैदखाने में दम तोड़ दिया। उनमें से सब से दर्दनाक वाक़ेआ जो मिलता है वह शहज़ादी सकीना (अ.स.) का है। क़ाफ़ेला ए हुसैनी (अ.स.) में शहज़ादी सकीना (अ.स.) थीं जो अक्सर ज़िन्दाने में शाम में सै. सज्जाद (अ.स.) से सवाल किया करती थीं भाई सज्जाद (अ.स.) कब वो दिन आएगा जब हम इस ज़िन्दान से रिहा हो कर मदीना जाएंगे ?
कभी कभी सुबह को शहज़ादी आसमान की तरफ़ देख कर पूछतीं भाई सज्जाद (अ.स.) ! यह परिन्दे कहां जा रहे हैं ? तो बीमार सज्जाद (अ.स.) रो कर कहते: बहन यह परिन्दे अपनी खुराक को ढ़ूढने के लिये जा रहे हैं। जब शाम होती तो बीबी फिर पूछतीं भय्या अब यह परिन्दे कहां जा रहे हैं ? मेरे क़ैदी इमाम की आंखों से ख़ून के आंसू टपकते और कहते सकीना यह परिन्दे अब अपने घर जा रहे हैं , तो बीबी तड़प कर कहजी भय्या ! वह दिन कब आयेगा जब हम भी अपने घर जायेंगे ? सय्यदे सज्जाद (अ.स.) रो कर बहन का माथा चूम कर कहते सकीना! हर किसी को अपने घर जाना नसीब होगा मगर एक तुझे अपने घर जाना नसीब नहीं होगा।
यह बच्ची हर वक़्त बाबा बाबा कर के रोती तो शाम के दर व दीवार हिल जाते एक रात बच्ची की बेताबी हद से बढ़ गई और मासूमा बहुत बेचैन हुईं तो जनाबे ज़ैनब ने बड़ी मुश्किल से तसल्ली दे कर सकीना (अ.स.) को सुलाया , शहज़ादी रात के पिछले पहर चूंकि यह कहती कि फुफी अम्मा ! अभी तो मेरे बाबा आए थे , कहां चले गए ? सकीना (अ.स.) ने बहुत गिरया किया अपने बाबा के लिये तड़प तड़प् कर रोने लगीं , शहज़ादी उम्मे कुलसूम रोने लगीं , जनाबे लैला और जनाबे उम्मे रूबाब बल्कि ज़िन्दान में पूरा हुसैनी काफ़िला रोने लगा। वा हुसैना वा मुहम्मदा की सदाए गूंज उठीं।
यज़ीद ने आदमी भेजा , मालूम हुआ कि हुसैन (अ.स.) की बेटी सकीना ने अपने बाबा को ख़्वाब में देखा है और बाप से मिलने के लिये बेताब है। ज़ालिम ने तसल्ली के लिये नया सामान किया , एक ख्वान में इमाम हुसैन (अ.स.) का कटा हुआ सर रख कर भेज दिया। क़ैद ख़ाने का भारी ताला खुला और क़ैद ख़ाने में शम्मे जलीं , सकीना (अ.स.) के सामने ख़्वान रखा गया। बच्ची के सामने कपड़ा उठाया गया , चाहने वाली बेटी ने बाप का सर देखा , सर को सीने से लगाया और बैन करना शुरू किये बच्ची कहती है , बाबा ! मेरे कान ज़ख़्मी हैं , बाबा मुझे शिम्र ने तमांचे मारे हैं , बाबा आपके बाद हमें ज़ालिमों ने बहुत रूलाया है। बच्ची ने सर ख़ाक पर रख दिया और ज़ैनब (अ.स.) की गोद से फ़ातिमा (अ.स.) की गोद में सिधार गईं।
अज्रे रिसालत
ख़ुदा वन्दे आलम ने क़ुरआने मजीद में इरशाद फ़रमाया है कि: कु़ल ला अस्अलोकुम अलैहे अजरन इल्लल मवद्दता फ़िल क़ुर्बा ‘‘ ऐ रसूल (स.अ.) कह दीजिए कि मैं तबलीग़े रिसालत के सिलसिले में कोई मज़दूरी नहीं चाहता , कोई बदला नहीं चाहता सिर्फ़ अपने क़राबतदारों की मुहब्बत और मवद्दत चाहता हूँ । ’’
इससे क़ब्ल कह चुका हूँ कि जब अल्लाह ने अहले बैत (अ.स.) से मुहब्बत का हुक्म दिया तो अहले बैत (अ.स.) से अदावत क्यों ? और यह हक़ हमारा इस लिये गहरा हो जाता है कि अदावते अहले बैत (अ.स.) के नतीजे में दुनियां का अज़ीम तरीन वाक़ेआ करबला रूनुमा हुआ। जिसने सिर्फ़ रसूल (स.अ.) के घराने को नुक़सान पहुँचाया बल्कि आज चैहदा सौ साल से मुसलमान उस वाक़ेआ से मवस्सिर भी हो रहे हैं तो यह एक ग़ैर मामूली तासीर और यह रसूल (स.अ.) के घराने का होने वाले नुक़्सान बहैसियत एक मुसलमान के किया हमें हक़ नहीं पहुँचता कि हम एक मामला की तहक़ीक़ात करें कि उसके अस्बाब क्या हैं ? यह बात ज़हने आली में रहे कि यह बात जिसको लिख रहा हूँ और उसका राज़ क्या है और मुहब्बते अहले बैत (अ.स.) से उन वाक़ेआत का रिश्ता क्या है ?
इससे पहले कह चुका हूँ कि कौन से हालात थे जिसने काफ़िरों को अली (अ.स.) का दुश्मन बनाया और वह दुश्मनी रोज़ ब रोज़ बढ़ती गई और गहरी हो गई। इसके अस्बाब क्या थे ? इस सिल सिले में उन वाक़ेआत का खुलासा कर दूं।
दावते ज़ुलअशीरा में हज़रत अली (अ.स.) का नुसरत का वादा करने से काफ़िरों के दिलों में अली (अ.स.) की दुश्मनी का आग़ाज़ हुआ। फिर मक्का के पुरआशोब दौर में हर क़दम पर नुसरते रसूल (स.अ.) करने से काफ़िरों के दिलों में दुश्मनी की जड़ें मज़बूत होती चली गईं। फिर शबे हिजरत काफ़िरों की साज़िश को बिस्तरे रसूल (स.अ.) पर आराम कर के नाकाम बना दिया । उसके नतीजे में दुश्मनी और मुस्तहकम हो गई। उसके बाद मुतावित मसतह तसादिम शुरू हो गए। मदीने की ज़िन्दगी , बद्र की लड़ाई में तो अली (अ.स.) की तलवार चली , ओहद की लड़ाई हुई तो अली (अ.स.) ने रसूल (स.अ.) की जान बचा ली। वैसे जान बचाने वाला तो अल्लाह है मगर ज़ाहिरी सबब अली (अ.स.) हैं। ख़न्दक़ की लड़ाई हुई तो उनके माया नाज़ पहलू उनको अली (अ.स.) ने क़त्ल किया और ख़ैबर की लड़ाई हुई तो जिस क़िला पर यहूदियों को नाज़ था उस क़िला को अली (अ.स.) ने फ़तह किया। यह मुसलसल तारीख़ अली (अ.स.) की चल रही है। यहां तक कि फ़तेह मक्का करने की मंज़िल आई तो अली (अ.स.) रसूल (स.अ.) के दोश पर बुत शिकनी कर रहे थे।
दावते ज़ुल अशीरा से फ़तेह मक्का तक जो कुफ़्फ़ार के रेज़ो रेश की तारीख़ है उसमें अली (अ.स.) का नाम मुसलसल है। मुसलसल टकराव दावते अशीरा से फ़तेह मक्का तक अली (अ.स.) हर जगह सामने रहे। अब उन काफ़िरों के दिल में अली (अ.स.) की तरफ़ से वह गहरे ज़ख़्म हैं जिनको वह नज़र अन्दाज़ नहीं कर सकते। यह थी एक बैरूनी लड़ाई जिसमें अली (अ.स.) काफ़िरों से टकरा रहे हैं मोहब्बते ख़ुदा और रसूल (स.अ.) में। अब घर के अन्दर के हालात का जायज़ा लें कि घर के अन्दर के हालात क्या हैं ? उसके लिये नफ़्सियात को समझना ज़रूरी है।
जब तक आप उसकी स्टडी न करेंगे तब तक मामला समझ में नहीं आएगा। किसी लाइन पर अगर आप मिल कर एक कर रहे हैं और एक आदमी ग़ैर मामूली तौर पर तरक़्क़ी कर जाए तो बहुत फ़रिश्ता ख़साएल आप होंगे। अगर आप के दिल में उससे मोहब्बत पैदा हो जाए , मिसाल के तौर पर स्कूल में एक तालिबे इल्म हमेशा पहली पोज़िशन हासिल करता है , खेल के मैदान में भी हमेशा पहली पोज़िशन हासिल करता है , हर काम में अव्वल रहता है तो शायद दो चार तालिबे इल्म ऐसे होंगे जो उससे मोहब्बत करते होंगे बक़ाया सब उससे जलते होंगे। देखिए यह इन्सानी फ़ितरत है और यह कभी तब्दील नहीं होती , न रसूल (स.अ.) से पहले बदली और न उनके बाद।
तारीख़ यह बताती है कि अली (अ.स.) रोज़े अव्वल से इस्लाम में नुमाया रहे यानि यह तज़किरा जो मैंने किया इस्लाम के दाएरे से बाहर का है यानि काफ़िरों वाला मामला अली (अ.स.) से नुमाया रहे। दाएरा ए इस्लाम के अन्दर भी अली (अ.स.) के दो साहब ज़ादे थे जो रसूल (स.अ.) की गोद में और रसूल (स.अ.) के घर में पल रहे थे। आग़ाज़े इस्लाम में , दावते ज़ुल अशीरा में ख़ानदाने क़ुरैश वाले ही थे कोई ग़ैर नहीं थे लिहाज़ा ला मुहाला अली (अ.स.) का नाम आया , उसके बाद नुसरते इस्लाम जो होती रही मक्का में उसमें अली (अ.स.) और अली (अ.स.) के वालिद अबु तालिब (अ.स.) , अली (अ.स.) का घराना , अली (अ.स.) के भाई जाफ़र (अ.स.) , अली (अ.स.) के वालिद के भाई हमज़ा , यही लोग नुमाया रहे।
लिहाज़ा मक्का की ज़िन्दगी में भी अली (अ.स.) और अली (अ.स.) के घराने वाले नुमाया हैसियत के मालिक रहे। जब रसूल (स.अ.) हिजरत कर के चले तो अली (अ.स.) ने तारीख़ी किरदार अदा किया। बिस्तरे रसूल (स.अ.) पर तलवारों के साए तले सोए , यह अली (अ.स.) की गै़र मामूली क़ुरबानी जो थी उसने इतना बड़ा असर छोड़ा कि रसूल (स.अ.) मदीना में दाखि़ल नहीं हुए जब तक अली (अ.स.) न आ गए। अब मदीने में जा कर फ़ज़ाएल का रूख़ अली (अ.स.) के ंघर की तरफ़ मुड़ा। सितारा उतरता है तो उसी के घर पर , बद्र के फ़तेह बनते हैं तो यही , तलवार आती है तो इन्हीं के लिये , जो कुल्ले ईमान बनते हैं , ज़र्बतें सक़लैन पर भारी होती हैं तो इन्ही की , ख़ैरून्निसा सैय्यदा ए कौनैन का अक़्द होता है तो इन्हीं से , जिन बच्चों को रसूल (स.अ.) अपना बेटा कह रहे हैं वह अली (अ.स.) के बच्चे हैं , जिस दरवाज़े पर रसूल (स.अ.) सलाम कर रहे हैं तो वह दरवाज़ा अली (अ.स.) का है , अंगूठी हालते रूकुअ में ज़कात दी तो अली (अ.स.) ने , आयत उतरी तो रोटियां गईं तो उन्हीं की। जितने भी फ़ज़ाएल हैं अली (अ.स.) के घर को रूख़ किए हुए हैं मैं उसके तारीख़ी सुबूत दूंगा ताकि किसी को इन्कार की गुंजाईश न रहे।
हज़रत अली (अ.स.) मस्जिदे नबवी में बैठे हैं और ऐसा लगता है कि फ़ज़ाएल अली (अ.स.) को ढूंढ़ रहें हैं , यह शायरी नहीं कर रहा हूँ हक़ीक़त बयान कर रहा हूँ। दलील , सीना ए विलायत को अली (अ.स.) की तमन्ना नहीं है , अली (अ.स.) को विलायत की तमन्ना नहीं। अगर साएल को बुलाने जाएं तो अली (अ.स.) को विलायत की तमन्ना और अगर अंगुशतरी हालते नमाज़ में उतार कर ले जाए तो विलायत को अली (अ.स.) की तमन्ना। अली (अ.स.) को सूरा ए दहर की तमन्ना कि सूरा ए दहर को अली (अ.स.) की तमन्ना ? अगर मिस्कीन व असीर व ग़रीब के घर रोटियां ले कर जाएं और रोज़े बाद में खोलें तो अली (अ.स.) को सूरा ए दहर की तमन्ना और अगर दरवाज़े से मांग कर ले जाएं तो सूरा ए दहर को अली (अ.स.) की तमन्ना। इसी तरह ज़रा मेरे साथ साथ चलते आएं तो मुझे वाज़ेह करने में आसानी होगी , अली (अ.स.) को अलम की तमन्ना नहीं बल्कि अलम को अली (अ.स.) की तमन्ना है , वाज़ेह कर दूं ? अगर ख़ैबर के दिन अली (अ.स.) अलम मांगने आए हैं तो फिर अली (अ.स.) को अलम की तमन्ना है और अगर रसूल (स.अ.) नादे अली (अ.स.) पढ़ कर बुलाए तो फिर यक़ीन करना पड़ेगा कि अलम को अली (अ.स.) की तमन्ना है।
तवज्जो ! आज का मुल्ला कहां तक अली (अ.स.) के फ़ज़ाएल पर पर्दा डालेगा । मैं कहता हूँ कि काबा को अली (अ.स.) की तमन्ना है। दलील से , अगर बिन्ते असद काबा में दरवाज़े से तशरीफ़ ले गईं तो तमन्ना अली (अ.स.) की और अगर दीवारे काबा फटी और काबा पुकार कर बीबी को बुलाए तो फिर मानना पड़ेगा कि काबा की आरज़ू है।
फ़ज़ाएल अली (अ.स.) का रूख़ किए हुए हैं। यह नजम आई तो उनके लिये , आय ए इस्तेख़लाल आई तो उनके लिये , इमामे मुबीन की आयत नाज़िल हुई तो उनके लिये , फ़ज़ाएल जो हैं जैसे घर पहचानते हैं।
यह तो अल्लाह की मरज़ी है मैं क्या करूं लेकिन है कुछ ऐसा ही कि फ़ज़ाएल जो थे अली (अ.स.) के घर का रूख़ करते हैं। थोड़े दिनों के बाद यह फ़ज़ाएल जो थे मदीना में लोगों को नागवार गुज़रने लगे जिसके इशारे रसूल (स.अ.) की मस्जिद में हमें मिलते हैं। पहले बयान कर चुका हूँ कि अली (अ.स.) सर काट कर ले कर चले तो लोगों ने कहा था कि हमें यह चाल पसन्द नहीं। जब अली (अ.स.) अम्र इब्ने अब्दवद के सीने से उतरे तो लोगों ने ऐतराज़ किया कि हमें यह तरीक़ा पसन्द नहीं और जब अली (अ.स.) के घर का दरवाज़ा मस्जिद में खुला रहा तो लोगों ने ऐतराज़ किया कि अली (अ.स.) का दरवाज़ा खुला रहा और हमारे दर बन्द हो गए।
यह वाक़ेआ भी है तारीख़े इस्लाम में , आग़ाज़ में हर किसी का दरवाज़ा मस्जिदे नबवी में खुलता था फिर हुक्म हुआ की मस्जिद में खुलने वाले तमाम दरवाज़े बन्द कर दिये जाएं सिर्फ़ रसूले ख़ुदा (स.अ.) के घर का दरवाज़ा खुला रहे और हज़रत अली (अ.स.) के घर का दरवाज़ा खुला रहे। अगर बात फ़क़त रसूल (स.अ.) के दरवाज़े की होती तो किसी को ऐतराज़ नहीं होता चूंकि दरमियान में मसला अली (अ.स.) का था लिहाज़ा लोगों को नागवार गुज़रा , दिल अज़ारी हुई , चेमीगोइयां होने लगीं।
सरकारे दो आलम मिम्बर पर तशरीफ़ लाए , फ़रमाया:- मैंने सुना है कि तुम्हारे दरमियान दरवाज़े के सिलसिले में कोई इख़्तेलाफ़ हो रहा है , क़सम खु़दा की जिसके क़ब्ज़ा ए कु़दरत में मोहम्मद (स.अ.) की जान है , न मैंने दरवाज़ा अपनी मर्ज़ी से बन्द किया है जिस जिस का दरवाज़ा ख़ुदा ने अपनी मर्ज़ी से बन्द करने का हुक्म दिया उसका दरवाज़ा बन्द कर दिया , सिजका दरवाज़ा ख़ुदा ने खुला रहने का हुक्म दिया है उसका दरवाज़ा खुला है। मैं कहूंगा कि रसूल (स.अ.) उन लोगों की अक़्ल का ठिकाना ही नहीं है , उनको यह समझना चाहिये कि जिसके लिये काबा में नया दरवाज़ा खुला उसका दररवाज़ा मस्जिद में कैसे बन्द होगा ?
यह तफ़सीली वाक़ेयात हैं , मैं तफ़्सील में नहीं पड़ता सिर्फ़ इशारे करूंगा , सितारा उतरने का वाके़आ , सूरज के पलटने का वाक़ेआ सूरा ए दहर के आने का वाक़ेआ ख़ुसूसन जनाबे सैय्यदा (स.अ.) से अमीरूल मोमेनीन अली (अ.स.) की शादी का वाक़ेआ। यह तमाम वाक़ेआत अहम हैं मगर मैं इशारे करता हुआ गुज़र रहा हूँ ताकि आपके ज़हन में ख़ाके आ जांए।
बस अली (अ.स.) इधर इस लिये बढ़े हैं कि तलवार की मार लग रही है। यही फ़र्क़ है कि मुख़्तलिफ़ मौक़ों पर अली (अ.स.) बढ़ गए और लोग पीछे रह गए। नतीजा यह है कि दोनों तरफ़ अली (अ.स.) की मुख़ालिफ़त और दिलों में कशीदगी है। मेरे पास उसके सुबूत बड़े ज़बरदस्त हैं । मेरा दावा है कि जिस सिजको सुबूत चाहियें मैं हाज़िर हूँ। रसूल (स.अ.) को उनकी ज़िन्दगी में मुसलमानों ने कहा कि यह मोहब्बते अहलेबैत (अ.स.) में गुमराह हो गए हैं। अगर यक़ीन नही तो क़ुरआन गवाह है क़ुरआने मजीद में आयत ‘‘ न तुम्हारा साहब बहका है , न गुमराह है , न बहकी बहकी बातें करता है । ’’
यह न कहियेगा कि यह बात काफ़िरों की थी , आप काफ़िरों के साहब नहीं थे। लफ़्ज़े साहब जो है यह कुछ ऐसे ही लोगों की तरफ़ इशारा कर रहा है जो सहाबियत के दावेदार हैं। ये मैं नहीं जानता हूँ कि कौन थे मगर कुछ ऐसे भी थे जो यह इल्ज़ाम रखते थे और यह इल्ज़ाम रखा रसूल (स.अ.) की ज़िन्दगी में , रसूल (स.अ.) पर। तारीख़ गवाह है कि मोहब्बते अली (अ.स.) का इल्ज़ाम दिया जाता है रसूल (स.अ.) को कि मोहब्बते अली (अ.स.) में हक़ से तजाविज़ कर गए थे।
इस लिये तो फिर ख़ुदा ने डांटा जो क़ुरआन गवाही दे रहा है कि ‘‘ तुम्हारा साहब बहका नहीं न गुमराह हुआ है । ’’
यह मदीना में अली (अ.स.) की तरफ़ से फर्क़ पैदा हो रहे हैं दिलों में। मैं बस एक बात के लिये आप से ख़ास तवज्जो चाहता हूँ कि एक तरफ़ अहले मदीना के दिलों में फ़र्क पैदा हो रहे हैं मगर दोनों शहर अपनी अपनी नौइय्यत के हामिल हैं। मक्का काफ़िरों का शहर है और मदीना मुसलमानों का शहर है। आमद व रफ़्त बहुत कम है , मक्के वाले मदीना नहीं आते और मदीना वाले मक्का नहीं जाते। उनको वहां ख़ौफ़ है और उन्हें यहां ख़ौफ़ है। यह सिलसिला फ़तह मक्का तक रहा। फ़तेह मक्का के दिन मक्का वाले भी मस्लहतन कलमा पढ़ कर मुसलमान हो गए और वह दीवार जो मक्का और मदीना के दरमियान कुफ़्र के नाम से खै़ंची गई थी गिर गई।
अब जब दीवार गिर गई तो ज़बान एक थी , दोनों का समाज एक था , कलचर एक था , तहज़ीब एक थी , बाप यहां था तो बेटा वहां , एक ख़ानदानी भाई इधर है तो दूसरा उधर , एक अज़ीज़ यहां है तो दूसरा वहां। यानि की ख़ानदान बटें हुए थे और जब ख़ानदान किसी मौक़े पर एक दूसरे से मिल जाएं तो पूछने की ज़रूरत नहीं क्या पकाते हो क्या पहनते हो या किसी लफ़्ज़ के मानी समझाने की ज़रूरत नहीं।
बस फ़तेह मक्का के बाद यह मामला हुआ , वह लोग अलग अलग क़ौमंे नहीं थीं , अलग अलग लोग नहीं थे , अलग अलग तहज़ीब न थी सब एक दूसरे को जानते थे। इस्लाम और कुफ़्र की वजह से अलग अलग हो गए थे। अब जब यह दोनेां शहर मुसलमानों के हो गए तो बिछड़े हुए मिल गए।
अग वह साथ उठने बैठने लगे वह लाइन कुफ़्र और इस्लाम की ख़त्म हो गई। अब मिले तो बिते दिन याद आए , गुज़िश्ता ज़माने की बातें याद आईं। तो बवउउवद चवपदज जो उनमें निकला वह अली (अ.स.) की दुश्मनी थी। उन्होंने कहा और तो सब ठीक है इस्लाम अच्छा है , सब बातें माक़ूल हैं पर हमारा दिल अली (अ.स.) की तरफ़ से साफ़ नहीं है। क्यों कहा ? उसका दिल अली (अ.स.) के लिये इस लिये साफ़ नहीं कि उसका चचा अली (अ.स.) के हाथों क़त्ल हुआ था। वह कौन था ? वह मक्का वाला था जो अब मुसलमान हो गया था तो उस पर मदीने वाले दोस्त ने कहा कि भई कहते तो तुम ठीक हो। उसने क्यों कहा ? इस लिये कि वह चोट खाया हुआ है ख़ैबर के अलम की , वह अलम बड़ा तमन्नाई था जो कि उस दिन उसे नहीं मिला , उसके लिये उसके दिल में ख़राश थी। अब एक तरफ़ मदीना और मक्का के लोगों के दिलों में अली (अ.स.) की दुश्मनी बवउउवद कुछ फ़ज़ाएल के हाथों पीटे हुए , कुछ तलवारों के हाथों पिटे हुए। मैं किसी के जज़्बात या किसी शख़्सियत पर तन्ज़ का क़ाएल नहीं हूँ मगर जो हक़ीक़तें हैं वह तारीख़ के आईने में और हदीस की रौशनी में पेश करूंगा कि किसी को कुछ कहने की गुंजाइश न रह जाए।
तो यह बात कामन है कि कुछ फ़ज़ाएल के हाथों , कुछ तलवार के हाथों दोनों के दिल के अन्दर दुश्मनी अली (अ.स.) और इधर रसूल (स.अ.) के अन्दाज़ बार बार यह बता रहे हैं , इरशाद यह बता रहे हैं कि उनको ही अपने दौर में ख़लीफ़ा मुक़र्रर कर के जाएगें। यह अपनी मस्नद पर उन्हें बिठा कर जायेगें। बात अगर ख़ाली नियाबते रिसालत की होती तो शायद लोगों को उसकी फ़िक्र ज़्यादा लाहक़ न होती लेकिन फ़तेह मक्का के बाद रिसालत के इक़्तेदार को लोगों ने आपस में बांट लिया। नतीजा यह हुआ , इस्लाम के अन्दर रसूल (स.अ.) की ज़िन्दगी में एक अज़ीम ज़ाज़िश ने जन्म लिया जिसका नाम कोई हो न हो हमने उसको दुश्मनी ए अली (अ.स.) का नाम दिया है।
अब सुबूत उसका सीना , क्यों कि मामला उस ज़माने का है जिस ज़माने से लोग अक़ीदें वाबस्ता करते हैं। अक़ीदतें मेरी भी वाबस्ता हैं , मैं दिल व जान से बुज़ुर्गाने इस्लाम का क़ाएल हूँ मगर बुज़ुर्गी यानी मैं उम्मती हूँ रसूल (स.अ.) का। उनके बताए हुए मज़हब पर चलता हूँ लेकिन अगर आप मुझ से यह मुतालेबा करते हैं कि मैं हज़रत मोहम्मद (स.अ.) को ख़ुदा के बराबर मानने लगूं तो मेरी गर्दन काट लें मैं मोहम्मद (स.अ.) को ख़ुदा न कहूंगा। इसका यह मतलब नहीं हुआ कि मआज़अल्लाह रसूल (स.अ.) की तौहीन की , नहीं क्यों कि हज़रत मोहम्मद (स.अ.) अल्लाह के बन्दे हैं , अल्लाह नहीं और दोस्ती का तक़ाज़ा भी यही है कि जैसे मानने का हमें हुक्म हुआ है वैसे मानें।
मैं अपने आपको अली (अ.स.) का ग़ुलाम कहता हूँ , अली (अ.स.) का चाहने वाला कहता हूँ लेकिन अगर आप यह कहें कि मैं अली (अ.स.) को ख़ातेमुल अम्बिया कहूं तो नहीं कहूंगा। वह इमामे अव्वल हैं , सैय्यदुल औसिया हैं लेकिन आप कहंे कि सैय्यदुल अम्बिया कहूं तो मेरे बस की बात नहीं और न उससे मौला अली (अ.स.) ख़ुश होंगे कि मैं रसूले आज़म (स.अ.) या आखि़री रसूल (स.अ.) कहुंगा। मेरे लिये जन्नत की सिफ़ारिश नहीं करेंगे।
तो मक़सद मेरी बात का यह है कि हम हर किसी को उसके मक़ाम पर मानते हैं हमारी मोहब्बत दर्जा ब दर्जा है। कौन कहता है कि हम साहबा को नहीं मानते , हम हर साहबा को मोहतरम मानते हैं मगर अहलेबैत (अ.स.) के बाद। रसूल (स.अ.) हमारे लिये क़ाबिले अहतराम है मगर अल्लाह के बाद। अली (अ.स.) हमारे लिये क़ाबिले एहतेराम हैं अहलेबैत के बाद। अब अगर रसूल (स.अ.) को ख़ुदा कहें तो मैं राज़ी नहीं , अगर अली (अ.स.) को रसूल (स.अ.) कहें तो मैं राज़ी नहीं और अगर अस्हाब को अहलेबैत (अ.स.) की जगह रखें तो मैं राज़ी नहीं। तो जनाबे आली दुश्मनी हो गई मज़बूत और इधर इक़्तेदार पर क़ब्ज़ा करते की फ़िक़े्र हुई और यह ज़बरदस्त तनज़ीम भी जो मुसलमानों के दरमियान बन गई न्दकमत ळतवनदक जिससे रसूल (स.अ.) बा ख़बर हैं मगर हालात ऐसे हैं कि उसे कैसे म्गचवेम किया जाए।
दलील सुनिए र्क़ुआन से , यह मामेला ऐसा है कि जब तक र्क़ुआन और हदीस की मज़बूत दलीले न लाऊंगा लोग मानने के लिये तैयार न होंगे।
सरवरे काएनात जब आखि़री हज के बाद चले तो पूरी साज़िश तैयार थी रसूल (स.अ.) ने अरफ़ात में जो ख़ुत्बा पढ़ा है उसमें अपने जाने की ख़बर दी है। अपने बाद वाले को नहीं बताया कि क्या होगा या रसूल (स.अ.) ने जो ख़ुत्बा ग़दीरे खुम में दिया है वह मैदाने अरफ़ात में क्यों नहीं दिया ? उसके लिये मेरे पास कोई जवाब नहीं है क्यों कि किसी किताब में से यह तज़किरा मैं नहीं पढ़ रहा हूँ लेकिन एक बात मेरी समझ में आती है कि हर आदमी ने चाहे वह रसूल (स.अ.) हों या इमाम (अ.स.) हों एहतेरामे काबा का ख़्याल रखा है। शायद इस ऐलान को मक्का की सरज़मीन पर इस लिये मुलतवी रखा हो कि अगर उस वक़्त हंगामा हो जाए तो मक्का की पाक ज़मीन ख़ून से रंगीन न हो।
इधर इस ऐलान की मन्ज़िल आई रास्ते में तो आयत क्यों कर उतरी या यहां रसूल (स.अ.) ‘‘ बल्लिग़ मा उन्ज़िला इलैक मिन रब्बिक ’’ यहा आयत का पहला टुकड़ा आया कि ‘‘ ऐ रसूल (स.अ.) ! उसे पहुँचा दें जो आपके परवरदिगार की तरफ़ से नाज़िल हो गया । ’’ पर आप आगे बढ़ गए। रसूल (स.अ.) ने पहुँचाया फिर आयत आई। ‘‘ व-इन्लम तफ़अल फ़मा अब्लग़्तो रिसालतहु । ’’ ‘‘ अगर नहीं पहुँचाया तो कोई रिसालत नहीं पहुँचाई ’’
फिर रसूल (स.अ.) आगे बढ़े फिर आयत आई ‘‘ वल्लाहो याफ़ेमोका मिनन्नास ’’ ‘‘ अल्लाह आपको लोगों के ख़तरे से बचाएगा ’’
अब रसूल (स.अ.) ने काफ़िला ठहरा लिया। जब उधर से ख़तरे के बचाव की ज़िम्मेदारी आ गयी तो रसूल (स.अ.) ने काफ़िले को रोका। दोस्तो यह बात क़ाबिले ग़ौर है कि आज कौन सा ख़तरा है 11 ज़िल्हिज्जा 10 हिजरी का क्या ख़तरा है यह आयत तो आनी चाहिये थी दावते ज़ुल अशीरा में कि अपने ख़ानदानों वालों को बताव अल्लाह आपको ख़तरे से बचाएगा। यह आयत आनी चाहिये थी शबे हिजरत में कि ऐ मेरे हबीब ! आप हिजरत कर जाएं अल्लाह आपको ख़तरे से बचाएगा , यह आयत आनी चाहिये थी बद्र में कि मेरे रसूल तीन सौ तेरह आदमी ले कर जंग करें काफ़िरों के ख़तरे से अल्लाह आपको बचाएगा , यह आयत आनी चाहिये थी जंगे ओहद में कि ऐ रसूल (स.अ.) ! अगर मुसलमान आपको छोड़ कर भी चले जाएं तो ग़म न कीजिएगा अल्लाह आपको ख़तरे से बचाएगा , यह आयत आनी चाहिये थी जंगे ख़न्दक़ में कि अगर दुश्मन क़वी हैं तो आप घबराइये नहीं अल्लाह आपको ख़तरे से बचाएगा। यह आयत अगर कहीं रूक गई थी तो कम अज़ कम फ़तह मक्का तक आ जाती मगर जो ख़तरे के मौक़े थे जब तो आई नहीं अब कौन सा ख़तरा रह गया था ? ऐ माबूद ! शम्मा ए इस्लाम रवानों के झुर्मुठ में है। तेरा हबीब , सरवरे काएनात (स.अ.) जिन लोगों के साथ चल रहे हैं तीन तीन तमज़ों के मालिक हैं , सब मुसलमान हैं , सब हामी हैं , सब के सब साहबी हैं। यह जो इतना बड़ा एक लाख चैबीस हज़ार का इज्तेमा आखि़री हज करके पलट रहा है सब मुसलमान , सब हामी , सब सहाबी हैं। मआज़अल्लाह उनमें भी कोई ख़तरा है। लेकिन रसूल (स.अ.) ने हर हुक्म पहुँचाया उस हुक्म के पहुँचाने में इस लिये देर की कि बात खुल कर सामने आ जाए कि कोई ख़तरा है जभी तो कहा गया कि अल्लाह ख़तरे से बचाएगा। यह आयत न दावते अशीरा , न बद्र , न ओहद , न ख़न्दक़ किसी मौक़े पर न आयी , मालूम हुआ कि यह ख़तरा काफ़िरों के ख़तरात से बड़ा ख़तरा है जो अल्लाह ने कहा कि मेरे हबीब अल्लाह हर ख़तरे से बचाएगा। यह र्क़ुआन है जो मैंने पढ़ा।
रसूल (स.अ.) ने ग़दीरे ख़ुम के मैदान में अल्लाह की हम्दो सना के बाद ऐलाने विलायते अली (अ.स.) कर दिया और मिम्बर पर बैठ कर सबको समझा दिया कि
‘‘ मनकुन्तो मौलाहो फ़हाज़ा अलीयुन मौला ’’ ‘‘ जिस जिसका मैं मौला उस उसका यह अली (अ.स.) मौला ’’
मुबारक बादें भी हुईं । दलील सुने , मेरा कहना यह है कि अली (अ.स.) की मुख़ालिफ़त की तहरीक इतनी मज़बूत हो चुकी थी कि अगर रसूल (स.अ.) कुछ दिन और ज़िन्दा रहते तो जो कुछ वीसाले रसूल (स.अ.) के बाद हुआ वह रसूल (स.अ.) की ज़िन्दगी में ही हो जाता । तारीख़ बताती है कि सरवरे काएनात ऐलाने ग़दीर के बाद मदीना की तरफ़ बढे़ । रास्ते में एक पहाड़ी , घाट आती है जिसका नाम उक़्बा की घाटी है। रात के वक़्त रसूल (स.अ.) का ऊंट उस घाटी से गुज़र रहा था। साज़िश यह थी कि रसूल (स.अ.) ज़िन्दा मदीना न पहुँचने पाएं लिहाज़ा रास्ते में रसूल अकरम (स.अ.) के ऊंट को घाटी में गिराने की साज़िश हुई। तारीख़ शाहिद है कि उस वक़्त जब रसूल (स.अ.) का नाक़ा उक़्बा की घाटी से गुज़र रहा था तो रसूल (स.अ.) के नाक़ा की मिहार हुज़ेफ़ा यमानी थामे हुए थे और अम्मारे यासिर ऊंट को पीछे से हांक रहे थे। ऊंट ऊपर से गुज़र रहा था जहां से जाना था रसूले अकरम (स.अ.) को। उस पर लोगों ने पत्थर लटकाए कि नाक़ा रात को अंधेरे में पहाड़ी (घाटी) में नीचे गिर जाए। यहां बिजली चमकी रसूल (स.अ.) ने सूरतें देखीं।
मेरा अक़ीदा यह है कि ख़ुदा ने रसूल (स.अ.) को दिखाने के लिये बिजली नहीं चमकाई। रसूल (स.अ.) तो नस्लो में देख लेता है , रसूल (स.अ.) तो सदियों के पीछे देख लेता है यह बिजली इस लिये चमकी ताकि लोग समझ लें कि देख लिये गए। रसूल (स.अ.) ने हुज़ैफ़ा यमानी को बुलाकर कान में नाम बताए और कहा: हुज़ैफ़ा सुनो ! फ़लां फ़लां लोग थे मगर हुज़ैफ़ा इस बात को बल्कि उन नामों को राज़ में रखना किसी से नामों को इज़हार न करना। या रसूल अल्लाह (स.अ.) जब इज़हार से मना फ़रमाया तो बताया क्यों ?
हुज़ैफ़ा ने फ़ौरन दूसरे दिन सुबह को ऐलान कर दिया कि साज़िश नाकाम हो गई , बिजली चमक गई थी , रसूल (स.अ.) ने सब को पहचान लिया , मुझे नाम बताए हैं और मना फ़रमाया है कि नाम न बताना। भरा मदीना था कभी अली (अ.स.) ने न पूछा हुज़ैफ़ा से कि वह कौन लोग थे , कभी सलमान न पूछा कि मुझे बताओ , कभी अबुज़र ने न पूछा कि नाम बताओ। कुछ लोग आ कर नाम पूछा करते थे और हुज़ैफ़ा हां नहीं करते थे , कहते मुझे रसूल (स.अ.) ने मना किया है।
सुनिए दूसरी साज़िश , अब रसूल (स.अ.) मदीने आ कर थोड़े दिनों बाद बिमार हो गए। पहले ख़बर दे चुके थे कि मेरी ज़िन्दगी के चन्द दिन बाक़ी हैं समझदारों के समझने के लिये यह बात काफ़ी थी कि यह बीमारी आखि़री बीमारी है।
तारीख़ शाहिद है कि उसी बीमारी में एक मन्ज़िल पर रसूल (स.अ.) ने कहा कि लाओ क़लम दवात मैं तुम्हें एक ऐसी तहरीर लिख दूं कि मेरे बाद तुम लोग गुमराह न होगे।
मुसलमानों को चाहिये था कि सर आंखों से क़लम दवात ले कर आते और रसूल (स.अ.) से लिखवाते लेकिन तारीख़ यह बताती है कि यहां झगड़ा होने लगा कि क़लम दवात दी जाए या नहीं।
इतने में एक क़रीबी सहाबी जिसको बड़ा दीन का ठेकेदार समझा जाता है और जिसको ख़लिफ़ा ए दोम भी कहा जाता है , ने कहा कि उनको दर्द की शिद्दत है और मअज़ाल्लाह मेरी ज़बान ज़ेब नहीं देती। उसने कहा कि उनका दिमाग़ दुरूस्त नहीं है। इस वक़्त यही किताबल्लाह काफ़ी है। (बुख़ारी शरीफ़)
रसूल (स.अ.) ने बीमारी के आलम में दस हज़ार 10000 का लश्कर मुरत्तब किया और उस 10000 के लश्कर का सरदार ओसामा बिन ज़ैद को बनाया और तमाम बुज़ुर्ग सहाबा और अन्सार को सिवाए अली (अ.स.) और अब्बास जो कि रसूल (स.अ.) के चचा थे और बड़े बड़े मुहाजेरीन और अन्सार को हुक्म दिया कि जाओ ओसामा के लश्कर में। तारीख़ बताती है कि लश्कर मदीना के बाहर जा कर ठहर गया। रसूल (स.अ.) बुख़ार की शिद्दत में भी जब आंख खोलते थे तो पूछते थे लश्कर गया ? कहा , नहीं। हुज़ूर सरवरे काएनात फ़रमाते थे , जाओ उनसे कहो कि जाएं। लश्कर न जाना था न गया। तारीख़ में यहां तक कि है कि आखि़री में रसूले ख़ुदा ने बरहम हो कर कहा: मगर फिर भी लश्कर न गया। सवाल यह है कि क्यों न गया ? जब हुज़ूर हुक्म दे रहे थे। यह बात में सवाल कीजिएगा कि रसूल (स.अ.) जो ग़दीर में कह गए थे उस पर अमल दर आमद क्यों नहीं हुआ ? यह सब इस्लाम की तारीख़ है जो मैं आपके सामने पेश कर रहा हूँ। क़यास से बहस नहीं कर रहा हूँ। रसूल (स.अ.) कहते हैं जाओ लश्कर नहीं जाता। इसका मतलब यह है कि अब पार्टी इतनी मज़बूत हो गई है कि रसूल (स.अ.) की बात का असर ही नहीं है। अब रसूल (स.अ.) भी हुक्म देने वाली हालत में नहीं रह गए कि जो हुक्म करें वह हो जाए , अपनी ज़िन्दगी के आखि़री दिनों में। अच्छा सुनिये मामला हल्का नहीं तारीख़े की मजबूर हैं।
सुनिए मिसाल से वाज़ेह करता हूँ। आप काम करते हैं अबु ज़हनी में जबकि कोई है रहना वाला लखनऊ का , पाकिस्तान का कोई कहीं का और कोई कहीं का , अब एक साहब अपने वतन कह कर गया था कि महीना के बाद वहां जाना है ड्यूटी पर बीस दिन गुज़र गए और उसका वालिद बीमार हो गया और उसकी हालत बिगड़ गई। बाप ने कहा बेटा जाओ यहां हालत बिगड़ रही है , बेटा नहीं गया। बाप बीमारी में फिर उठा , आंखें खोली , कहाः बेटा ! तुम अभी तक नहीं गए ? लड़का नहीं जा रहा है। और यह अपनी जगह दुरूस्त है , क्यों ? अगर चला गया तो कहीं ऐसा न हो कि अब इधर जहाज़ से उतरे और वहां तार मिला की पीछे मामला ख़राब हो गया कि वालिद साहब का इन्तेक़ाल हो गया। अब या तो वह फिर पलट कर आए या ज़िन्दगी भर का दाग़ लगाए कि बेटा दूर था बाप के जनाज़े में शरीक न हो सका। लेहाज़ा जैसा होगा देखा जायेगा इस हाल में हम छोड़ कर न जायेंगे तो बेटा बाप को इस हाल में छोड़ कर न जायेगा। तो बाप का अगर इन्तेक़ाल हो जाए तो उसे रोते हुए आना चाहिये न मैय्यत उठानी चाहिये , क़्रब्रिस्तान पहुँचाना और दफ़्न करना चाहिए था। अगर बेटा जहां ठहरा हुआ था वहां ठहरा रहा , बाप की मैय्यत दफ़्न हो गई मगर बेटा नहीं आया तो अब आप यह न कहिएयेगा कि बाप की मुहब्बत में ठहरा था बल्कि वाज़ेह हो गया कि जायदाद पर क़ब्ज़ा लेने के लिये ठहरा हुआ था।
यह जो दस हज़ार का लश्कर मदीना के दरवाज़े पर ठहरा हुआ था अगर रसूल (स.अ.) के इन्तेक़ाल की ख़बर सुनकर मदीने में रोता पीटता आ जाता तो हमारे दिल को शिकोह न होता। लश्कर जहां था वहां ठहरा रहा। रसूल (स.अ.) दफ़्न हो गए और लश्कर न आया , इसका मतलब की मोहब्बते रसूल (स.अ.) में नहीं ठहरे थे , मदीना के दरवाज़े पर ठहरे थे मदीना में होने वाले इन्क़ेलाब की पुश्त पनाही के लिये।
यह लश्कर नहीं आया। यह तारीख़ का अजीब व ग़रीब मरहला है अगर जैसा पढ़ा है तारीख़ में वैसे पेश किया तो शायद किसी की दिल अज़ारी तक बात चली जाए। मैं एक मिसाल से अपने मक़सद को वाज़ेह करता हूँ। मसलन एक बाप के दो बेटे थे और बाप बड़ा मालदार और रईस आदमी था। अब दोनों बेटों में से एक को बाप की ज़ात से बड़ी मोहब्बत थी और दूसरे को बाप के माल से प्यार था। इत्तेफ़ाक़ से बाप बीमार पड़ गया। अब दोनों आ कर पूछते हैं कि अब्बा कैसे हो ? मगर जवाब की तमन्ना अलग अलग होगी , जिसकी मोहब्बत बाप की ज़ात के साथ है वह मुन्तज़िर होगा की बाप की हालत बेहतर हो रही है यानि की वह चाहेगा की बाप कहे , बेटे ! अल्हम्दो लिल्लाह मैं ठीक हो रहा हूँ। मगर जिसकी मोहब्बत है माल और दौलत के साथ वह चाहेगा कि बाप कहे कि मेरा कोई पता नहीं , न जाने किस वक़्त मेरी रूह निकल जाए। यहां तक कि उसी हाल में एक दिन बाप का इन्तेक़ाल हो गया। जिसको ज़ात प्यारी है वह मैय्यत के पास बैठा रो रहा था। ग़ुस्ल व कफ़न के इन्तेज़ामात में लगा है और जिसको जायदाद प्यारी थी जायदाद पर क़ब्ज़ा ले रहा है। वह सेफ़ की चाबी कहां है ? वह बैंक के चैक बुक कहां हैं ? उस कोठी के कागज़ात कहां हैं ? फ़लां ज़मीन के कागज़ात कहां हैं ? नतीजा क्या निकला कि एक के हिस्से में दौलत और जायदाद और दूसरे के हिस्से में आई मैय्यत और जिसने दौलत पर क़ब्ज़ा जमा लिया वह कुछ दिन तो इधर रहा दौलत समैटने के चक्कर में , बाद में दो चार मुल्कों की सैर के बाद आया तो किसी ने पूछा कि साहब यही ज़माना था कि आपके वालिदे मोहतरम का इन्तेक़ाल हुआ था तो साहब लगे सोचने , हां शायद यही ज़माना था। दिसम्बर का महीना था और तारीख़ भूल गए और भूलते भी कैसे ना मैय्यत पर रोए , होते तो तारीख़ याद रहती , जनाज़ा में शिरकत की होती तो तारीख़ याद रहती।
इसी तरह दर्दनाक वाक़िआ यह है कि न उम्मत को तारीख़े पैदाइश याद है न तारीख़े वफ़ाते रसूल (स.अ.)। यह क्या फ़लसफ़ा है कि बारह तारीख़ के अन्दर पैदाइश भी वफ़ात भी।
रसूल (स.अ.) को पूछना है तो अबु तालिब (अ.स.) से पूछो:-
अरे ! रसूल (स.अ.) की विलादत व वफ़ात का पूछना है तो अबु तालिब (अ.स.) से पूछो। जिनकी गोद में आंख खोली और वफ़ात का पूछना है तो अली (अ.स.) से पूछो जिनके सीने पर दम निकला। दोनों ने न दुनिया से झगड़ा किया न लोगों को तारीख़े पैदाइश याद रही न तारीख़े वफ़ात। अब बताइये यह क्या चक्कर है इस्लाम के अन्दर ? अब कहते हैं कि अली (अ.स.) ने तलवार क्यों नहीं उठाई अपने हक़ के लिये ? अली (अ.स.) के किस किस से लड़ते ? ऐजाज़े क़ुव्वत से सारे मक्का व मदीना को ख़त्म कर देते तो इल्ज़ाम अली (अ.स.) पर ही रहता कि मोहम्मद (स.अ.) ने दीन को ख़ून से सींचा था अली (अ.स.) ने ख़ून से नहा दिया। फ़ातेह ख़ैबर ने तलवार क्यों न चलाई ? तलवार चलाते तो पहले यह दस हज़ार का लश्कर था मदीना के दरवाज़े पर उस से निपटते। हालात पहचानिये कि अली (अ.स.) ने तलवार क्यों न उठाई ? कह देना हर किसी ज़बाना के लिये आसान है। दूसरी बात मौला अली (अ.स.) क़लम दवात ले कर ख़ुद क्यों न आ गए लिखवाने ? अगर अली (अ.स.) क़लम दवात और काग़ज़ ले कर आते तो शायद इतना हंगामा होता कि वहीं शहादते रसूल (स.अ.) हो जाती। हालात का तजज़िया तो फ़रमाईये कि जब तक ‘‘ वलिल्लाहे या-सेमोका मिनन्नास ’’ की ।नजीवतपजल न आ गई तब तक ऐलाने ग़दीर न हुआ। अब आख़री दलील सुनिये। ऐसी दलील जिसे कोई काट न सके इस लिये कि क़ुरआन की बात हो तो आप तफ़सीर में उलझाइये , हदीस की बात हो तो आप रवायत में उलझाइये।
अली (अ.स.) का मुख़ालिफ़ कौन ?
मैंने इतने दिन जो पढ़ा है उसका निचोड़ यह है कि अली (अ.स.) की मुख़ालिफ़त के दो गिरोह थे।
एक गिरोह वह जो अली (अ.स.) की तलवार के पिटे हुए थे और दूसरे वह जो फ़ज़ाएले अली (अ.स.) की वजह से मुतअस्सिर हुए थे। दलील यह है कि जब रसूल (स.अ.) ? की वफ़ात के पचीस साल के बाद इत्तेफ़ाक हालात के तहत अली (अ.स.) तख़्ते हुकूमत पर आ गए तो वह दोनों गिरोह अली (अ.स.) के खि़लाफ़ सर गरम हो गए। जो तलवार से पिटा था उसका बेटा सामने आया और जो फ़ज़ाएल से मोअस्सिर हुआ उसकी बेटी सामने आई।
आपने गौर फ़रमाया यह कौन मुसलमान थे जो अली (अ.स.) के मुक़ाबिल आए ? अली (अ.स.) के तख़्त नशीन होते ही यह तलवारें ले कर ख़ड़े हो गए। तारीख़ से पूछिये आज भी तारीख़ अली (अ.स.) का कुसूर नहीं बताती , अली (अ.स.) तो ऐसे मासूम हैं कि अली (अ.स.) को आज भी तारीख़ बे ख़ता कह रही है। लेकिन वह भी प्यारे हैं लिहाज़ा उनकी ख़ता ख़ताए इज्तेहादी है। अब समझे कि वह क्यों आलमगीर तनज़ीम बन गई अली (अ.स.) के खि़लाफ़ जिसने इस्लाम की तारीख़ के रूख़ को भी बदला और ज़माने ने अली (अ.स.) के साथ क्या किया और रसूल (स.अ.) की बेटी फ़ातेमा (स.अ.) के साथ क्या किया ? यही मुख़ालिफ़ते अली (अ.स.) थी और यही अदावते अली (अ.स.) थी जिसका शोला कर्बला में भड़का। जब इमाम हुसैन (अ.स.) ने उमरे साअद से पूछा कि मेरी ख़ता क्या है ? तो उस लाअनती मलऊन ने कहा कि बुग़्ज़ है। तेेरे बाप की दुश्मनी में मैं तुमसे लड़ रहा हूँ और जब हुसैन (अ.स.) का कटा हुआ सर यज़ीद के सामने रखा गया तो उसने ख़ुश हो कर शेर पढ़ा। ‘‘ काश आज मेरे बद्र वाले ज़िन्दा होते तो इस मन्ज़र को देख कर खुश हो कर मुझे दुआएं देते ’’ सब से ज़्यादा अफ़सोस मुसलमान के भोलेपन पर। किसी तरह आंखें नहीं खुलती यज़ीद का शेर सबने सुना अब जो कहोगे कि मुसलमानों की लड़ाई न थी। बच्चों को भी जंगे बद्र याद होगी जो यज़ीद के दादा और हुसैन (अ.स.) के नाना के दरमियान हुई थी। हुसैन (अ.स.) के नाना कह रहे थे कि ख़ुदा एक है , यज़ीद का दादा कहता नहीं यह तीन सौ साठ हैं और जब तलवार चली तो हुसैन (अ.स.) के बुर्ज़ुगों ने अल्लाह की तरफ़ से तलवार चलाई और यज़ीद के बुर्ज़ुगों ने बुतों की तरफ़ से , जिसके नतीजे में यज़ीद के बुर्ज़ुग मारे गए। हुसैन (अ.स.) के बाप ने यज़ीद के बुर्ज़ुगों को क़त्ल किया राहे ख़ुदा में लड़ते लड़ते। अब यज़ीद जो याद कर रहा है किसको याद कर रहा है ? जो बुतों के नाम पर मरे थे। अब कर्बला में होने वाली जंग को दो मुसलमानों की जंग न कहें। यह ख़ुदा व सनम की लड़ाई थी और वह भी ख़ुदा और सनम की लड़ाई फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि हुसैन (अ.स.) के बुर्ज़ुग ने सर काट कर मुहब्बते ख़ुदा का सुबूत दिया और हुसैन (अ.स.) ने सर कटवा कर मुहब्बते ख़ुदा का सुबूत दिया।
मसलहते ख़ुदा:- बाज़ मक़ाम ऐसे होते हैं जहां दीन के लिये सर काटना फ़र्ज़ होता है और बाज़ मक़ाम पर सर कटवाना फ़र्ज़ होता है। बद्र की लड़ाई में इब्तेदा में सर काटना फ़र्ज़ था चूंकि अगर अली (अ.स.) सर कटवा देते तो सारी लड़ाईयां कौन लड़ता ? जब कि कर्बला की लड़ाई अन्जामे इस्लाम था जहां पर सर कटवाना ज़रूरी था। वहां अगर अली (अ.स.) सर कटवा देते तो इस्लाम न फैलता। 61 हिजरी में इस्लाम फैल चुका था यहां अगर सर काट लेते तो आम लड़ाई तसव्वुर होती। सर कटवा कर इस्लाम बचाया ताकि क़यामत तक दिलों पर जंगे कर्बला की मोहर लगी रहे क्यों कि उसमें हुसैन (अ.स.) ने बहुत से सरों का नज़राना दिया है। कभी अट्ठारह साल वाले ने सीने पर बरछी खाई , कभी तेरह साल वाले क़ासिम ने मौत को शहद से ज़्यादा शीरीं समझा और कहीं चैंतीस साल के कड़ियल जवान अलमदार भाई दरियाए फ़ुरात से प्यासा निकला और कभी छः महीने के असग़र ने मुसकुरा कर तीर खाया। कभी किसी बहन ने अपने हाथों से ला कर भाई को कफ़न दिया और कभी कमसिन बेटी रात की तारीकी में बाबा की लाश को सीने से लगाने आई। अफ़सोस सद अफ़सोस।
अली (अ.स.) से दुश्मनी के अस्बाब
सिलसिला ए कलाम ज़हने आली में होगा कि वह अस्बाब क्या हैं जिनकी बिना पर दुनियां ने अली (अ.स.) से दुश्मनी इख़्तियार की। उसका खुलासा पहले आपकी खि़दमत में पेश किया कि उसके ख़ास असबाब दो थे एक वह लोग जो अली (अ.स.) की तलवार से कटे हुए थे और दूसरे वह जो फ़ज़ाएल की दौड़ में अली (अ.स.) से बहुत पीछे रह गए थे।
इस्लाम की तारीख़ में वह वाक़ेआत रूनुमा हुए जिससे इस्लाम टुकड़ों में बंट गया , इस्लाम मलूकियत में बदल गया बजाए मज़हब या दीन के लोगों ने इस्लाम को मलूकियत समझा। जब इस्लाम मलूकियत और सलतनत बन गया तो मलूकियत और सलतनत का दामन दाग़ों से ख़ाली नहीं रह सकता। इसी तो दुनियां दामने इस्लाम को भी दाग़दार समझी हालांकि दामने इस्लाम दाग़दार न था। दामने सलतनत दाग़दार थाा मगर इंसान की नज़र में इतनी तेज़ी न थी कि फ़र्क़ महसूस कर सकती कि दामने सलतनत क्या है और दामने इस्लाम क्या है ? नतीजा यह निकला कि इस्लाम को बदनाम किया गया जब कि सलतनत के दामन पर दाग़ थे उसके लिये मैं सुबूत पेश करूंगा कि ग़ैरों ने इस्लाम को देखकर जो तसव्वुर पेश किया वह भी सुन लीजिए। गबून एक मशहूर राइटर गुज़रा है उसने इस्लाम का चीर फाड़ करते हुए लिखा है:- ‘‘ मोहम्मद (स.अ.) ने एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में क़ुरआन लेकर अपनी सलतनत की बुनियादें रूम और ईसाइयत के खण्डरात पर वसीअ की । ’’
हमारे रसूल (स.अ.) रहमत थे , वह तलवार उठाते ही न थे और न वह रूम तक तशरीफ़ ले गए। कभी तारीख़ नहीं बताती तो मिस्टर गबून ने कैसे लिख दिया कि एक हाथ में क़ुरआन और एक में तलवार ? उसने कहा ज़बरदस्ती लड़ते हो तुम उस शक्ल से आए थे हमने लिख दिया मालूम हुआ की तसव्वुर मुसलमान का था और नाम लिखा गया रसूल (स.अ.) का। यह तो गए थे मुसलमान इस तरह एक हाथ में तलवार और दूसरे में क़ुरआन तो रसूल (स.अ.) ने कहा , मुझसे शिकवा न करना , मैं मुसलमानों के दोनों हाथ मसरूफ़ कर के गया था। एक हाथ में क़ुरआन और दूसरे हाथ में दामने अहले बैत (अ.स.) मगर मेरे बाद अकसर लोगों ने दामने अहले बैत (अ.स.) छोड़ा और हाथ में तलवार आ गई। मैं क्या करूं ?
समझे आप इस्लाम की बदनसीबी। यही मैं करता हूँ कि इस्लाम और मुसलमानों की बदनसीबी की इब्तेदा यह है कि अहले बैत (अ.स.) का दामन छोड़ा तो एक हाथ हुआ ख़ाली , ख़ाली हाथ तलवार आ गई।
मैंने कहा गबून तूने एक रूख़ देखा है और तू समझ नहीं सका हमने क़रीब से देखा है उनके हाथ में क़ुरआन नहीं पत्थर है जो क़ुरआन कह रहा है , क़ुरआन नहीं है क़ुरआन नुमा कोई चीज़ है जो दूर से क़ुरआन दीखाई देता है।
तो अज़ीज़ाने गेरामी ! तारीख़े इस्लाम में रसूल (स.अ.) की आंख बन्द होते ही वह नाज़ुक दौर आ गया कि जिसका नतीजा आज तक निगाहों में है और आज तक आलमे इस्लाम में तफ़र्रक़ा की सूरत में वह नतीजा नुमायां है।
अब यह रह गया कि हमने उस कशमकश के माहौल में और उस माहौल में यह तै किया कि हमें अली (अ.स.) का साथ देना है। यह क्यों तै किया ? इस लिये कि अली (अ.स.) का साथ देने में सेफ़ साइड तो आई और यह सेफ़ साइड सुन लीजिए। हर आदमी अपनी ज़िन्दगी में ख़तरे से महफ़ूज़ रास्ता चाहता है , ख़तरे वाला रास्ता नहीं चाहता। जब तारीख़े इस्लाम में उलझने हुई तो हमने पूछा यह उलझने कैसी हैं ? उसने कहाः एक बात तो बताओ एक मुसलमान पर वाजिब कितना है।
देखिए आज आलमे इस्लाम में दो नज़रिये हैं , एक नज़रिया हमारा है , जो शिया लोग वह यह कि रसूल (स.अ.) ख़ुदा के हुक्म से हज़रत अली (अ.स.) को ख़लीफ़ा बना गए थे ख़ुद नहीं बना गए थे हुक्मे ख़ुदा से बना गए थे जैसे रसूले खुदा (स.अ.) नमाज़ पहुँचा गए थे रसूल (स.अ.) अपनी तरफ़ से नमाज़ नहीं दे गए थे , ख़ुदा ने भेजी थी तो रसूल (स.अ.) ने पहुँचाई थी। रसूल (स.अ.) रोज़ा पहुँचा गए तो रसूल (स.अ.) के वाजिब किये हुए थोड़े हैं ? ख़ुदा के वाजिब किए हुए हैं। जैसे रसूल (स.अ.) हुक्मे हज पहुँचा गए थे। हज जो है रसूल (स.अ.) ने नहीं वाजिब किया , अल्लाह ने वाजिब किया है।
वैसे ही अली (अ.स.) को वली बना गए थे , रसूल (स.अ.) ने नहीं बनाया , अल्लाह ने बनाया , अल्लाह ने बनाया , हर बात अल्लाह की रसूल (स.अ.) ही के ज़रिए से मिली है तो एक नज़रिया यह है नज़रिया ए इस्लाम में।