इमाम अली से दुश्मनी क्यो

इमाम अली से दुश्मनी क्यो0%

इमाम अली से दुश्मनी क्यो कैटिगिरी: इमाम अली (अ)

इमाम अली से दुश्मनी क्यो

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

कैटिगिरी: विज़िट्स: 14160
डाउनलोड: 3735

कमेन्टस:

खोज पुस्तको में
  • प्रारंभ
  • पिछला
  • 6 /
  • अगला
  • अंत
  •  
  • डाउनलोड HTML
  • डाउनलोड Word
  • डाउनलोड PDF
  • विज़िट्स: 14160 / डाउनलोड: 3735
आकार आकार आकार
इमाम अली से दुश्मनी क्यो

इमाम अली से दुश्मनी क्यो

हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

अली (अ.स.) ग़दीरे ख़ुम में

मैं तन्ज़ नहीं करता , मैं उसका क़ाएल नहीं मगर बात सीधी है बिगाड़ने की ज़रूरत नहीं। किसी भी नज़रिये का मुसलमान क्यों न हो एक नज़रिया आलमे इस्लाम में यह है कि ख़ुदा के हुक्म से रसूल (स.अ.) ग़दीरे ख़ुम में अपना नाएब मुक़र्रर फ़रमा गए थे मगर सियासी वजूह पर मुसलमानों ने माना। अलबत्ता इस्लाम के दूसरे नज़रिये के लोग कहते हैं कि नहीं रसूल (स.अ.) किसी को अपना ख़लीफ़ा बना कर नहीं गए थे न अली (अ.स.) को और न किसी और को उनका यूं ही इन्तेक़ाल हो गया था । बग़ैर इस मसले पर रौशनी डाले , तो जब रसूल (स.अ.) ज़माने से डठ गए तो मुसलमानों ने सोचा कि बग़ैर सरदार के तो फ़ौज हो नहीं सकती। बग़ैर रहबर के तो निज़ाम चल नहीं सकता लिहाज़ा कैसे चलेगा। पस उस उम्मत ने अपनी राय की अकसरियत से सद्र मुन्तख़ब कर लिया। इस लिये उम्मत को चाहिये उस रहबर को मान ले। यह दूसरा नज़रिया है। मैंने उसमें से पहले नज़रिया को मुन्तख़ब किया ज़िन्दगी के लिये क्यों कि यह सेफ़ साइड है। वह कैसे ? उन नज़रियों में से एक ही सही होगा या हमारा नज़रिया कि बहुक्मे ख़ुदा आप अली (अ.स.) को अपना नाएब मुक़र्रर फ़रमा गए थे या दूसरा कि किसी को नहीं बना गए थे। अब आप से एक बात पूछता हूँ एक मुसलमान पर कितना इल्म वाजिब है जो ख़ुदा कहे उस पर अमल करना ? जो रसूल (स.अ.) कहें उस पर अमल करना ? या जो रसूल (स.अ.) कहें उस पर अमल करना वाजिब है या नहीं ?

कहीं लिखा है कि मुसलमान का हुक्म मानना मुसलमान पर वाजिब है ? अब अगर हमारी क़ौल सही है कि जिसने अली (अ.स.) को माना उसने हुक्मे ख़ुदा और रसूल (स.अ.) की खि़लाफ़ वर्ज़ी न की और अगर हमारे मुख़ालिफ़ नज़रिये का क़ौल सही है तो उसने न ख़ुदा का , न रसूल (स.अ.) का हुक्म तस्लीम किया बल्कि सिर्फ़ मुसलमानों का हुक्म माना।

अगर क़यामत के दिन उस जुर्म में पकड़े गए कि मुसलमानों ने तो तय किया तुमने क्यों नहीं माना तो हम कहेंगे कि ऐ माबूद ! तूने अपनी इताअत का हुक्म दिया था या वह आयत बता जिसमें मुसलमानों के हुक्म को मानने का हुक्म दिया हो। वह आयत चाहिये ?

जनाबे आली ! मैं मजलिस पढ़ कर उतरा आप ठण्डे पानी का गिलास लाए और कहा कि जनाब आप पसीना पसीना हो रहे हैं पानी पी लें। मैंने कहा कि कल भी मजलिस पढ़नी है आवाज़ ख़राब हो जाऐगी अगर पानी पियुंगा तो आपने कहा नहीं ठण्डा पानी है आप पी लीजिए , सबकी ख़्वाहिश है। मैंने कहा , इससे निमोनिया भी हो सकता है और नज़ला भी , सारा जिस्म गर्म है और यह पानी ठण्डा है। कहा नहीं। मौलवी साहब सारे मुसलमान चाहते हैं , पी लीजिए । मैंने कहाः नहीं मैं नहीं पियुंगा। अब सारे मुसलमानों ने भी कहा कि जनाब पी लीजिए मैंने कहा नहीं मैं नहीं पियुगां।

फिर उन मुसलमानों की ताईद में सारी दुनियां के मुसलमानों ने ताईद की कि पी लीजिए। मैंने कहा: नहीं पियुगा बल्कि बजाए पीने के मैंने नीचे गिरा दिया। अब आप बताएं कि मैंने कितना बड़ा जुर्म किया कि अगर सारी दुनिया के मुसलमानों का कहना टाल दूं क्यों कि यह हुक्मे ख़ुदा नहीं है और न ही हुक्मे रसूल (स.अ.) है।

अज़ीज़ाने गिरामी ! मसला सिर्फ़ इतना है कि हमारी समझ में यह बात नहीं आई कि रसूल (स.अ.) जो सुर्मा लगाने के आदाब , कंघा करने के आदाब , आईना देखने के आदाब , टोपी पहनने के आदाब , घर से बाहर क़दम रखने के आदाब , घर में क़दम रखने के आदाब और बेशुमार मसाएल भी अपनी तब्लीग़ में नज़र अन्दाज़ न करें सब कुछ बता गए वह इस्लाम के मुस्तक़बिल का इतना बड़ा मसला नज़रअन्दाज़ कर के कैसे चले गए ? यह छोटे छोटे मसाएल न बताए होते तो उनके बदले में यह मसाएल दिया होता कि जिसके सबब तफ़र्रूका पड़ रहा है।

रसूल (स.अ.) का विसाल

जनाब ! इस्लाम में तफ़र्रूक़ा की इब्तेदा हुई और मस्जिदुन्नबी में यह मन्ज़र नज़र आने लगा कि अली (अ.स.) और अली (अ.स.) के घराने के चन्द लोग रसूल (स.अ.) के पास बैठे हैं। हम तो यह समझते थे कि मदीना के सब लोग सर पीटते हुए आएंगे रसूल (स.अ.) के पास और ग़म के मारे अपनी जाने दे देंगे।

मदीना के दर व दीवार से रोने की सदाए आएंगी लेकिन मदीना में ऐसा सन्नाटा छाया कि अगर कोई परदेसी भी मदीना में आकर मर जाता तो इतना सन्नाटा न होता।

हमें तो तारीख़ में नहीं मिलता कि मस्जिदे नबवी में कोहराम मचा है हमें तो तारीख़ में सिर्फ़ यह मिलता है कि एक बेटी के रोने की आवाज़ आ रही थी। वहां न भीड़ थी न कोई मजमा था । कुछ भी नहीं था , सिर्फ़ अली (अ.स.) थे अब्बास और दो तीन आदमी और थे और मस्जिद में कोई न था। हज़रत अली (अ.स.) सरवरे काएनात की मय्यत को ग़ुस्ल दे रहे थे और हज़रत अब्बास , हसन और सकरानी पानी डाल रहे थे।

उन तीनों की आंखों पर पट्टी बंधी थी। अली (अ.स.) की आंखे खुली थीं इस लिये कि रसूल (स.अ.) की वसीयत थी कि या अली (अ.स.) तुम ग़ुस्ल देना और अब्बास , हसन , सकरानी तुम्हारी मदद करेंगे मगर उनको इतना बता देना कि मेरी मय्यत देखें नहीं वरना नाबीना हो जाएंगे इस लिये उन तीनों की आंखों पर पट्टी बंधी थी।

तारीख़े इस्लाम में एक और जुमला मिलता है। यह लिखा है कि अब्बास की पट्टी बंधी थी जबकि अब्बास रसूल (स.अ.) के चचा थे

वाज़ेह रहे कि हज़रत अब्बास ने हज़रत अली (अ.स.) से कहा कि ऐ भतीजे ! अपना हाथ लाओ , तो अली (अ.स.) ने पूछा कि चचा हाथ क्या कीजिएगा ? कहा: कि बैअत करूंगा तुम्हारी। कहा क्यों चचा ? तो हज़रत अब्बास ने कहा , इस लिये कि जब दुनिया देखेगी कि रसूल (स.अ.) के चचा ने अली (अ.स.) के हाथों पर बैअत कर ली तो सब कर लेंगे। अली (अ.स.) ने कहा: नहीं मुझे ऐसी बैअत नहीं करनी चाहिये। हाथ नहीं दिया। या अली (अ.स.) बड़ी सियासी बात थी जो अब्बास कह रहे थे , हाथ बढ़ा देते। मौला अली (अ.स.) ने हाथ अब्बास के हाथ में नहीं दिया। अगर अली (अ.स.) उस बैअत के बाद ख़लीफ़ा बनते तो यह होता कि अब्बास ने बैअत की इस लिये ख़लीफ़ा बने।

अली (अ.स.) अब्बास के बनाए नहीं बनना चाहते थे खु़दा के बनाए थे। अली (अ.स.) को ख़लीफ़ा मानना या न मानना यह एक अलग मौज़ू है।

बड़ी हैरत का मक़ाम है कि रसूल (स.अ.) के जनाज़े में कुल 9 या 11 आदमी थे। इससे ज़्यादा तो किसी परदेसी के जनाज़े में होते हैं। यहां मुरसले आज़म का जनाज़ा दफ़्न हो रहा था और उसके बाद जब रसूल (स.अ.) की मैय्यत दफ़्न हो गई तो नए मक़ामात (सक़ीफ़ा) से फ़ारिग़ हो हो कर लोग आए और इधर अली (अ.स.) अपने घर से निकले मस्जिद में सब जमा हुए। अली (अ.स.) ने कहा: यह क्या हुआ ? कहाः या अली (अ.स.) ! सब ने मिल कर ख़लीफ़ा बना लिया , अकसरियत ने बनाया है। कहा: मदीना में अकसरियत अन्सार की थी और तुम तो महाजरीन हो ? कहाः या अली हमने दलील दी। अली (अ.स.) ने कहा क्या दलील है ? कहने लगे: हमने दलील यह दी कि तुम्हारी निस्बत हम रसूल (स.अ.) के ज़्यादा क़रीब हैं। अली (अ.स.) ने उनके मुहं से कहलवा लिया कि अकसरियत से नहीं दलील से बनते हैं तो आपने कहा: ‘‘ जो दलील तुुम्हारी अन्सार पर है वही दलील मेरी तुम पर है । ’’

मेरे मौला अली (अ.स.) के उस जवाब पर आज तक तारीख़ ला जवाब है। अब तक किसी ने उसका जवाब नहीं दिया। यह कह कर अली (अ.स.) मस्जिद से अपने घर आ गए और ख़ामोश बैठे रहे। तारीख़े इस्लाम हमारे सामने अजीबो ग़रीब मन्ज़र पेश करती है। ज़रा तवज्जो चाहता हूँ इस लिये कि आदमी मुसलमान बने तो आंखें खोल कर मुसलमान हो क्यों कि इस्लाम अंधेरे का नाम नहीं , इल्म का नाम है , इल्म की रौशनी का नाम है।

अब तारीख़ हमारे सामने दूसरा मसअला लाती है वह यह है कि क़ुरआन में कहीं लफ़्ज़े अहलेबैत है और कहीं लफ़्ज़े क़ुर्बा इस्लाम होना है। कहीं लफ़्ज़े ज़ुल्क़र्बा से कौन मुराद है अब आले रसूल (अ.स.) से कौन मुराद हैं ? अहलेबैते रसूल (स.अ.) से कौन मुराद हैं ? और ज़ुल्क़र्बा से कौन मुराद हैं। इस मसअले पर आलमे इस्लाम में बहसें हैं।

रसूल (स.अ.) के रिश्तेदारों में तअय्युन में भी इस्लाम में बहसें हैं। बाज़ कहते हैं कि बीवियां भी शामिल हैं , बाज़ कहते हैं नहीं यह झगड़ा है। मगर इसमें कोई झगड़ा नहीं कि बेटी रसूल (स.अ.) की रिश्तेदार है।

जनाबे सैय्यदा के मसअले में है कि जनाबे सैय्यदा (स.अ.) आया ए ततहीर में भी हैं जनाबे सैय्यदा (स.अ.) ज़ुल्क़र्बा में भी हैं। जनाबे सैय्यदा (स.अ.) आइम्मा ए मवद्दत में भी हैं , इसमें कोई झगड़ा नहीं इस लिये हर रिश्ते पर बहस हो सकती है मगर बाप बेटी के रिश्ते पर बहस नहीं हो सकती। यह रिश्ता हर बहस से बाला तर है। यह तय शुदा बात है।

कोई आया ए ततहीर में हो या न हो मगर जनाबे सैय्यदा (स.अ.) हैं। ज़ुल्क़ुर्बा में कोई आए या न आए मगर जनाबे सैय्यदा हैं। तारीख़े इस्लाम गवाह हैं कि रसूल (स.अ.) के बाद बरसरे इक़्तेदार का टुकड़ा जो सबसे पहले होता है वह जनाबे सैय्यदा (स.अ.) हैं। यह तारीख़े इस्लाम का हैरत अंगेज़ मसअला है कि बरसरे इक़्तेदार जमाअत जो टकराती है तो पहले जनाबे सैय्यदा (स.अ.) से। कौन सैय्यदा ? जिसकी शान बुतूल और लक़ब ख़ातूने जन्नते और ख़ातूने क़यामत है।

कौन ख़ातूने क़यामत ? :- जिसका लक़ब ज़हरा है। ज़हरा कली को भी कहते हैं और जे़या को भी कहते हैं। रसूले मुअज़्ज़म फ़रमाते हैं ‘‘ मेरी बेटी से जन्नत की ख़ुश्बू आती है। ’’ आप जन्नत की उस कली को सूंघा करते थे।

कौन ख़ातूने जन्नत ? जिसकी सवारी मैदाने महशर में आएगी तो निदा दी जायेगी कि ऐ अहले महशर ! अपनी निगाहे निची कर लो मुहम्मद (स.अ.) की बेटी की सवारी गुज़रने वाली है।

कौन ख़ातूने क़यामत ? जिसकी सवारी सत्तर हज़ार हूरों के झुर्मुट में पुले सिरात से ऐसे गुज़र जाएगी जैसे बिजली कूद जाती है।

मोमिनीने कराम ! मैं सैय्यदा ए कौनैन का क्या ताअर्रूफ़ कराऊँ यह वह सैय्यदा हैं जिनके लिये रसूल (स.अ.) ने फ़रमाया , ‘‘ फ़ातिमा मेरा टुकड़ा है । ’’

वह सैय्यदा हैं जिनके दरवाज़े पर रसूल (स.अ.) सलाम किया करते थे। यह वह सैय्यदा हैं जिनकी ताज़ीम के लिये रसूले अकरम (स.अ.) खड़े हो जाते थे।

तारीख़ शाहिद है कि सरवरे काएनात (स.अ.) के दुनिया से चले जाने के बाद जब जनाबे सैय्यदा फ़ातिमा (स.अ.) अपना हक़ मांगने दरबार में गईं तो बरसरे मिम्बरे ने कहा कौन सा हक़ ?

फ़ातिमा (स.अ.) के हक़ से इन्कार

मोमिनों ! सैय्यदा फ़ातिमा का हक़ वह था जो जायदाद जिसका नाम फ़िदक था जो रसूल (स 0 अ 0) ने अपनी ज़िन्दगी में दे गये थे जो उनसे वापस ले लिया गया था।

आज लोग कहते हैं कि यह शिया ख़ाली झगड़े के लिये बात करते हैं वरना कोई बड़ा इलाक़ा न था बस ख़ुरमे के चन्द दरख़्त थे। मैं कहता हूं कि चन्द भी नहीं थे एक दरख़्त था। मसला च्तवचमतजल टवसनजपवद का नहीं , मसला सदाक़ते फ़ातिमा (स.अ.) का है और सदाक़ते फ़ातिमा (स.अ.) का मसला सदाक़ते क़ुरआन का मसला है। मसला जायदाद की क़िमत का नहीं , उसमें 5000 दरख़्त थे या 5 थे या एक था , उसमे बहस नहीं है बहस यह है कि अगर फ़ातिमा (स.अ.) ने दावा झूठा किया (नाऊज़ो बिल्लाह) तो आया ए ततहीर ने दावा किया। आया ए ततहीर ने दावा झूठा किया तो क़ुरआन ने दावा झूठा किया और अगर क़ुरआन का एक झूठ पकड़ा गया तो बाक़ी मामलात में ऐतेबार करेंगे ? उन वाक़ेआत से न कोई इन्कार कर सकता है और न कोई चश्म पोशी कर सकता है। तारीख़ यह बताती है कि सरवरे आलम की बेटी जो अपनी ज़ात में बेपनाह कमालात रखती थीं और बेशुमार फ़ज़ाएल की मालिक थीं वह अपने घर से निकली और मस्जिद में आईं। मैं कहूँगा शहज़ादी ! आप क्यो गईं ? अपनी वकालत के लिये अली (अ.स.) को भेज दिया होता। तो जवाब में आलिया बीबी फ़रमाती हैं , कि अगर अली (अ.स.) को भेजती तो कल मोअर्रेख़ीन लिखते कि फ़ातिमा बेचारी घर में बैठने वाली ख़ानादार ख़ातून थीं उनका क्या ताअल्लुक़ उन झगड़ों से , अली (अ.स.) उनके शौहर थे वह उनकी तरफ़ से हर से लड़ते फिरते हैं वह बेचारी क्या करें लिहाज़ा फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) ख़ुद गईं।

देखिए ! जब शहज़ादी ए कौनैन चलती हैं तो अकेले नहीं , क्यों कि फ़ातिमा (स.अ.) हैं। ईमान की मलका लिहाज़ा फ़ातिमा (अ.स.) चलें तो उनके साथ आया ए मवद्दत भी चलेगी , उनके साथ सूरा ए दहर भी चलेगा। जब फ़ातिमा चलेंगी तो आया ए ततहीर भी चलेगी ताकि जो ऐतेराज़ हों तो आया ए ततहीर अपने सीने पर रोके फ़ातिमा तक जाने न दे।

फ़ातिमा (अ.स.) अकेली दरबार में नहीं गईं। आया ए ततहीर , आया ए मवद्दत और सूरा ए दहर के ऐलान के अलावा अली (अ.स.) भी आए , हसन (अ.स.) और हुसैन (अ.स.) भी साथ आए।

दरबार में सन्नाटा छा गया कि सरवरे काएनात की बेटी आपने कैसी ज़हमत फ़रमाईं ? कहा ! मैं तुमसे यह कहने आई हूँ कि यह बाग़े फ़िदक मेरे बाबा मुझे दे कर गए थे , तुम ने मेरे आमिल को निकाल कर अपना आमिल भेज दिया। यह मेरी जायदाद जो मेरे बाबा मुझे दे गए थे वह वापस कर दो। तख़्त नशीन चिल्लाया , ऐ रसूल (स.अ.) की बेटी ! कोई गवाह है ? जब कि फ़ातिमा (अ.स.) से गवाह मांगना आया ए ततहीर पर अदम ऐतेमाद है क्यांे कि झूठा दावा करना है और ख़ुदा कहता है कि उनसे रिज्स दूर है।

सैय्यदा ए आलम पलट आइये बात वाज़ेह हो गईं । कहा नहीं अभी और वाज़ेह होगी। ख़ातूने जन्नत ने काहा , हां गवाह हैं।

कहा पेश कीजिए !

सब से पहले अली (अ.स.) बढ़े और बढ़ कर कहा कि मैं गवाही देता हूँ कि रसूल (स.अ.) ने उनको फिदक दिया था। उसके बाद इमाम हसन (अ.स.) बढ़े और कहा कि मैं गवाही देता हूं कि मेरे नाना ने फ़िदक मेरी मां को दिया था। उसके बाद इमाम हुसैन (अ.स.) बढ़े और कहा , मैं गवाही देता हूँ कि मेरे नाना मेरी मां को फ़िदक दे गये थे। उसके बाद उम्मे ऐमन बढ़ी जो रसूल (स.अ.) के घर की कनीज़ थीं उन्होंने कहा कि मैं गवाही देती हूँ कि रसूल (स.अ.) अपनी बेटी को फ़िदक दे गए थे। गवाहीयां गुज़र गईं जवाब दिया गया कि अली की गवाही को हम नहीं मानते कि ज़ौजा और शौहर का मसला अलग अलग नहीं होता। हसनैन की गवाही को दो वजह से नहीं मानते एक तो दोनों छोटे छोटे हैं दूसरा मां के मामले में हम बेटों की गवाही नहीं मानेंगे।

अलबत्ता उम्मे ऐमन की गवाही हम मानते हैं मगर यह एक औरत है तीन औरतें और हों या एक औरत और एक मर्द हो क्यों कि फ़ातिमा जो गवाहियां आपने पेश की हैं शहादत के हिसाब से नमुकम्मल हैं लिहाज़ा हम केस ख़ारिज करते हैं।

फ़ातिमा (अ.स.) का केस अदालत में ख़ारिज हुआ।

मैं कहूंगा कि ऐ शहज़ादी ! आप अपने बाबा के वफ़ादार मिक़दाद , अबुज़र या अम्मारे यासिर को क्यों न ले गईं जो यह बहस ही न उठती। मुम्किन है जवाब मिलता कि हक़ मेरा है मुझको न मिलता , मगर गवाही झुठलाने वाले पर जुर्म इतना ही लगता कि दो मोमिनों की गवाही झुटला दी। मैं गवाही में उन लोगों को ले गई जो एक बार ख़ुदा की गवाही में आए और एक बार रसूल (स.अ.) की गवाही में आए। अब यह गवाही क़ुबूल नहीं हुई तो ख़ुदा से भी इन्कार करो , रसूल (स.अ.) से भी इन्कार करो।

शहज़ादी ! मैं कहता हूँ कि बच्चों को क्यों ले गईं जो कहा कि बच्चों की गवाही नहीं मानते तो मुबाहेला वालों ने क्यो न कहा कि बच्चों को क्यों लाए ? अगर मां के हक़ में बच्चों की गवाही यह नहीं मानते तो हज़रत मरयम के हक़ में हज़रत ईसा (अ.स.) की गवाही है।

मख़दूमा बीबी ने तुरन्त दूसरा दावा कर दिया कि अच्छा मेरे बाबा की मीरास मुझे दो। कहा: बीबी हम ने आपके बाबा को यह कहते सुना है कि गिरोहे अम्बिया की कोई विरासत नहीं होती , वह जो छोड़ते हैं वह सदक़ा होता है। बीबी ने कहा तुम ग़लत कहते हो। मेरे बाबा ने हरगिज़ नहीं कहा इस लिये कि ख़ुदा ख़ुद क़ुरआन में फ़रमाता है कि वरसा सुलैमान में दाऊद सुलैमान के वारिस हुए। ज़करिया (अ.स.) की दुआ क़ुरआन में ख़ुदा ने नक़्ल की है । पालने वाले मुझे अकेला न छोड़ मेरा वारिस बना दे मुझे ऐसा बेटा दे वारिस , वारिसे आले याक़ूब जो मेरा वारिस हो और आले याक़ूब हो।

क्या मेरा बाप क़ुरआन के खि़लाफ़ कह गया है ? उसका कोई आज तक जवाब नहीं आया। बीबी हमने तो यूंह ी सुना है। अब समझ में आया अगर अब भी समझ में नहीं आई तो और दलील पेश करता हूँ।

उन मासूमों के हमराह ऐमन क्यों गईं थीं ? उम्मे ऐमन थीं हज़रत अब्दुल्लाह की कनीज़ , जो रसूल (स.अ.) के हिस्से में आई थीं तो रसूल (स.अ.) उसके वारिस हुए थे। वारीस होने की दलील में तीन वारिस आए थे। (जो बात मैंने कही वह यह है कि उस पूरी गुफ़्तगू के बाद जनाबे सय्यदा फ़ातिमा (अ.स.) अपने घर वापस आईं ।) और मुसलमानों से भरी मस्जिद में कोई उठकर यह नहीं कहता कि रसूल (स.अ.) की बेटी के साथ क्या सुलूक हो रहा है। आपने देखा तन्ज़ीम और व्तहंदप्रंजपवद का ज़ोर ? पूरी मस्जिद में एक आवाज़ भी नहीं आई कि फ़ातिमा (अ.स.) सही कह रही हैं हम उनका साथ देंगे ।

गवाही में कौन सच्चा ? उस पर तक उलेमा ए इस्लाम मुहद्दिस देहलवी जैसे लिखते हैं कि इस पर ग़ौर नहीं करना चाहिये , इस लिये कि इस पर ग़ौर करने से परेशानियां पैदा होती हैं और दिमाग़ यकसर नहीं रहता।

अगर यह कहते हैं कि फ़ातिमा (अ.स.) ने ग़लत दावा किया तो यह भी नहीं कह सकते और अगर यह कहें कि दरबार में तख़्त नशीनों ने ग़लत फ़ैसला किया तो यह भी नहीं कह सकते लिहाज़ा बेहतर है कि उन मसाएल को हम सोचेंगे ही नहीं। हम यह सोच रहे हैं कि अली (अ.स.) ने गवाही दी , गवाही रद हो गई। बाद में अली (अ.स.) को उम्मत ने ख़लीफ़ा चुन लिया चैथी मन्ज़िल पर। अब हम इस सोच में पड़े हैं कि जिसने गवाही दी थी वह सच्चा है या जिसने रद की थी वह सच्चा है।

शहज़ादी ए आलम ने अपना मौकूफ़ पेश किया क़ुरआन और हदीस से उसके बावजूद भी किसी ने न माना। तारीखे अलम का दर्दनाक वाक़ेआ है कि जिस दर्दनाक वाक़ेआ पर ज़बान हम खोलते हैं तो दिल ख़ून के आंसू रोने लगता है लेकिन बहर हाल इस्लाम की तारीख़ में ऐसा भी है कि फ़ातिमा ज़हरा (अ.स.) इस शान से वापस आईं हैं और उनकी आवाज़ किसी न न सुनी यह कौन सा इस्लाम था कि रसूल (स.अ.) की बेटी की मद्द को हम तैय्यार नहीं हैं और वह कौन सी हदीस थी जिसके मुक़ाबले में फ़ातिमा ज़हरा क़ुरआन से इस्तेदलाल कर रही हैं मगर क़ुरआन से सुनने को तैय्यार नहीं है।

अली (अ.स.) के गले में रस्सी

तारीख़ शाहिद है कि चन्द दिन के बाद वह समय भी आ गया जब अली (अ.स.) के गले में रस्सी डाली गई मगर उनकी तौहीन करने वालों पर पर्दा डालने , वह चेहरे नक़ाब होते है हक़ की तौहीन करने वालों ने जिसकी वजह से आज ज़मीर फ़रोश बल्कि यूं कहूं कि दीन फ़रोश मुल्ला कहता है कि नहीं यह ग़लत है। अली (अ.स.) शेरे ख़ुदा थे और शेरे ख़ुदा के गले में रस्सी ? ऐसी बात नहीं है।

मगर मैं कहता हूँ कि तुम्हारी इस दलील से दुश्मनाने अली के चेहरे बे नक़ाब होने से बच नहीं सकते। अगर अली (अ.स.) फ़कत शेर होते , शेरे ख़ुदा न होते तो वाक़ई रस्सी कोई न डालता। मेरा सवाल है कि हज़रत मोहम्मद (स.अ.) क्या रसूल नहीं थे ? रसूल (स.अ.) थे इस लिये दांत भी शहीद हुआ , पत्थर भी लगे क्या रसूल (स.अ.) कमज़ोर हो गया थे। जंगे ओहद में रसूल (स.अ.) ज़ख़्मी भी हो गए थे। अली (अ.स.) की शुजाअत कम नहीं हुई थी और न ही वह कमज़ोर हुए थे जो रस्सी गले में डाली गई और आपने रस्सी पहन ली। यह दीन की ख़ातिर क़ुरबानी है। मसलहते दीन है। जिससे ज़िन्दगी में कभी कभी ऐसे मौक़े भी आते हैं

मसलहते इलाही क्या थी ? उनकी ज़िन्दगी में किसी से सुलह हो या जंग , तलवार चलाई हो या तलवार रोकी हो हर चीज़ में मसलहते परवरदिगार है और मासूम मसलहते परवरदिगार के ताबा होते हैं। जिस तरह हज़रत इब्राहीम (अ.स.) खलीलुल्लाह को आग में डाला जाता है और उनके लिये आग को गुलज़ार किया जाता है , ठण्डा किया जाता है। यह क्या है ? यह मसलहते इलाही है और एक तरफ़ फ़िरऔन के चार अंगारों से मूसा (अ.स.) की हथेली भी जल गई और मुंह भी।

ऐ माबूद ! यह क्या च्वसपबल है ?

एक नबी पूरे जहन्नम में नहीं जलता और एक नबी चार अंगारों से जल जाता है।

मसलहते इलाही क्या थी ?

उनकी ज़िन्दगी में सुलह हो या जंग , तलवार चलाई हो या तलवार रोकी हो हर चीज़ में मसलहते परवरदिगार है और मासूम मसलहते परवरदिगार के ताबा होते हैं। जिस तरह हज़रत इब्राहीम (अ.स.) ख़लीलउल्लाह को आग में डाला जाता है और उनके लिये आग को गुलज़ार किया जाता है , ठण्डा किया जाता है। यह क्या है ? यह मसलहते इलाही है और एक तरफ़ फ़िरऔन के चार अंगारों से मूसा (अ.स.) की हथेली भी जल गई और मुह भी। ऐ माबूद ! यह क्या पोलिसी है ? एक नबी पूरे जहन्नम में नहीं जलता और एक नबी चार अंगारों से जल जाता है। ? या ख़ुदाया ! मूसा (अ.स.) के लिये आग को गुलज़ार क्यों नहीं बनाया ? क्या यह तेरा कलीमुल्लाह नहीं है ? यहां पर अपनी क़ुदरत से आग गुलज़ार क्यों नहीं बनाई ?

आवाज़े बारी ताअला आती है ख़ामोश ! वहां आग को गुलज़ार करने में मसलेहत थी यहां हाथ जल जाने में मसलेहत है। इसी तरह जब मसलेहत होती है तो हाथ पर दरे ख़ैबर होता है और जब मसलहत है तो गले में रस्सी होती है।

तारीख़ में पढ़ लीजियेगा और अब जो कुछ कह रहा हूँ एक लफ़्ज़ भी अपनी तरफ़ से नहीं कह रहा हूँ अली (अ.स.) के गले में रस्सी डाल कर जब ज़ालिम चले तो फ़ातिमातुज़्ज़हरा (स.अ.) ने बढ़ कर कहा कि अली (अ.स.) को छोड़ो और जब फ़ातिमा (स.अ.) ने कहा कि अगर तुम अली (अ.स.) को नहीं छोड़ते तो मैं सर के बाल खोलती हूँ। जब फ़ातिमा (अ.स.) ने बाल खोलने को कहा तो दरो दीवार हिलने लगी उन्होंने अली (अ.स.) को छोड़ दिया। जब अली (अ.स.) को छोड़ा तो अली (अ.स.) सीधे पहले क़ब्रे रसूल (स.अ.) पर जा कर रोए और उसके बाद मस्जिद में आए।

तारिख़ का जुमला सुनिये और तवज्जो फ़रमाईये कि पार्टी के ज़ोर पर क्या हो रहा है ? सियाह को सफ़ेद बनाया जा रहा है और सफ़ेद को सियाह बनाया जा रहा है।

हज़रत अली (अ.स.) रसूले ख़ुदा (स.अ.) के भाई थे। हज़रत अब्दुलमुत्तलीब (अ.स.) के और बेटे भी थे जिनमें से एक का नाम अब्दुल्लाह और एक का नाम अबु तालिब था। अब्दुल्लाह के बेटे रसूल (स.अ.) थे और अबु तालिब के बेटे अली (अ.स.) थे। सगे चचा ज़ाद भाई थे। जब अली (अ.स.) क़ब्र से मस्जिद में आकर बैठे और कहा कि क्या आज तुम उस आदमी कोे क़त्ल करना चाहते थे जो अल्लाह का बन्दा और रसूल (स.अ.) का भाई है तो मुक़ाबिले मिम्बरे रसूल पर बैठने वालों ने कहा कि यह अब्दुल्लाह तो तुम्हें तसलीम करते हैं मगर रसूल का भाई नहीं मानते।

अफ़सोस....................... सद अफ़सोस

आज अहलेबैत (अ.स.) से इन्कार का पहला दिन है। क़ाबिले ग़ौर बात यह है कि मक्का वाले , मदीना वाले जो साल हा साल की क़राबत से वाक़िफ़ हैं। मस्जिद में कसीर तादाद में लोग चुपके से बैठे रहे , किसी ने पलट कर नहीं कहा कि जब यह रसूले अकरम (स.अ.) के भाई हैं तो तुम कौन होते हो न मानने वाले ?

जब यह भाई हैं तो तुम्हें भाई न मानने का क्या हक़ है ?

चलो यह अच्छा हुआ हमें यह भी मालूम हो गया कि मुसलमानों को उसका भी हक़ है जिस रिश्ते को मानें और जिसे चाहें इनकार कर दें।

अली (अ.स.) को मुसलमान बवजूद इसके कि अली (अ.स.) सरवरे काएनात के सगे चचा ज़ाद भाई हैं भाई मानने पर तैयार नही ंतो हमें तो हमें भी तो हक़ पहुँचता है कि हम कह दें हम कुछ लोगों को सहाबी ए रसूल मानते है और कुछ को नहीं मानते। ज़हन में आई मेरी बात ? अब हालात क्या थे सद्र इस्लाम के ? और कैसे नाज़ुक मौक़े पर अली (अ.स.) ने दीन बचाया है । अब अली (अ.स.) की इस्लाम साज़ पोलीसी को समझिये जिसकी ख़ामोशी ने दीन को ज़िन्दा रखा वरना यह जो कह सकते हैं कि हम अली (अ.स.) को रसूलउल्लाह (स.अ.) का भाई नहीं मानते तो क्या दीन को न क़ाबिल तिलाफी नुकसान न पहुँचाता ?

दुनिया कहती है कि चौदह सौ साल के हालात का क्या मालूम ? तो जनाबे आली! आप चौदह सौ साल पहले के लिये ख़्याली घोड़े न दौड़ाईये , पहले हालात का तजज़िया कीजिए कि हालात क्या थे ? पहले तारीख़ से पूछिये मसाएल क्या थे ? उसके बाद अन्दाज़ा होगा जो इस्लाम रसूल (स.अ.) के अहले बैत (अ.स.) ने बचाया और फिर यह समझये कि उनकी मोहब्बत क्यों फ़र्ज़ कि गई ? इस लिये कि यह वह हैं जो हर हाल में अपनी जान पर खेल कर इस्लाम को बचाएगें।

तारीख़ जनाबे फ़ातिमातुज़्ज़हरा के मसले में आज तक ख़ामोश है जबकि पूरा केस आज भी हिस्ट्री में मौजूद है जोकि हर मुसलमान देख कर फ़ैसला कर सकता है।

तारीख़ बताती है कि उससे पहले मदीना में ऐलाने आम हुए थे कि रसूल (स.अ.) ने किसी से वादा किया हो तो आए। रसूल (स.अ.) का क़र्ज़ा हो तो आए , रसूल (स.अ.) पर कोई ज़िम्मेदारी हो तो आए। रसूल (स.अ.) पर हक़ क़र्ज़ा था वह भी सुन लीजिये।

अली (अ.स.) को जो वसीयते की हैं उनमें एक वसीयत यह भी है कि अली (अ.स.) हज़ार दीनार फ़लां यहूदी के मुझ पर क़र्ज़ हैं जो मैंने ओसामा के लश्कर की तैयारी पर ख़र्च किये थे मेरे बाद अदा कर देना। एक सवाल करूं , मोअर्रेख़ीन धोके में लिख गए यह बात याद न रही कि कुछ लोग बाद में पैदा हो कर उस पर ग़ौर करेंगे। जब आदमी स्टेट का मालिक होता है तो उसके दो बजट होते हैं एक स्टेट का बजट और एक अपनी खुद का बजट। दोनों को वही चलाता है मगर स्टेट के बजट की ज़िम्मेदारी उसकी अपनी ज़ात पर होती है। मेरा मुल्क एक ग़रीब मुल्क है वह अमीर मुल्कों से क़र्ज़ा लेता है बहैसियत हैड आफ स्टेट के और अगर वह मर जाए तो वह अमीर मुल्क आपके बेटे से क़र्ज़े की अदाएगी की डिमांड नहीं करते। अगर डिमांड करते हैं तो उसकी जगह बैठने वाले दूसरे सद्र से जो उसकी जगह पर आ कर बर सरे इक़्तेदार होता है। तवज्जो ! अगर आपने समझने की कोशिश की तो मेरा मक़सद हल हो जायेगा। ओसामा का क़र्ज़ा लश्करे रसूल (स.अ.) की ज़ाती जायदाद के लिये नहीं जा रहा था स्टेट के लिये जा रहा था। जंजम का क़र्ज़ा अली (अ.स.) क्यों दें ? या रसूल अल्लाह (स.अ.) जिसको स्टेट मिल रही है उससे कहिये अली (अ.स.) से क्यों कह रहें हैं ? मालूम हुआ अली (अ.स.) को ही सद्र , ख़लीफ़ा मुक़र्रर फ़रमाया था जो उनसे वसीयत की गई यह आले रसूल (अ.स.) का ही बर्तन था , या आले मोहम्मद (अ.स.) की शान थी जो इसके बाद भी ख़ामोश रहे। तारीख़ इसके आगे भी कहती है और इतना तो बुखारी ने भी कहा है रसूल (स.अ.) ने फ़ातिमा (स.अ.) के लिये कहा था:- जिसने फ़ातिमा को अज़ीयत पहुंचाई उसने मुझे अज़ीयत दी ’’ जिसने फ़ातिमा को अज़ीयत दी उसने मुझे अज़ीयत दी ‘‘

इसके बाद मोअर्रिख़ लिखते हैं कि इस वाक़िये को जब कुछ दिन गुज़र गए तो कुछ लोग अली (अ.स.) के पास आए कि या अली (अ.स.) ! रसूल (स.अ.) की बेटी हमसे नाराज़ हैं हम माफ़ी मागंने के लिये आए हैं आप हमें उनके पास ले चलें। मैं कहता हूँ कि या अली (अ.स.) न ले जाएं और उनके दिल को न दुखायें लेकिन अली (अ.स.) कहेंगे कि मैं अपने ऊपर ज़िम्मेदारी क्यों रखूं जो बाद में लोग कहें कि रहमतुल्लि आलमीन की बेटी थीं माफ़ कर देतीं अली (अ.स.) हमें ले कर नहीं गए।

अब माफ़ी भी समझ में नहीं आती। फ़र्ज़ कीजिए आप नाराज़ हो गए मैंने माफ़ी मांग ली आपने माफ़ कर दिया। आप ने मेरे पचास हज़ार दिरहम मार लिये , अब आप मेरे आगे हाथ जोड़ रहे हैं कि जनाब माफ़ कर दीजिये। तो यह भी कोई माफ़ी होगी ? पचास हज़ार दिरहम हाथ पर रखीये फिर माफ़ी मागिये फिर शायद माफ़ी की गुंजाईश निकल आए और अगर दिरहम एक न दिखाओ और माफ़ी मांगने जाओ ? तारीख़ कहती है कि अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने कहा कि ज़हरा दरवाज़े पर वही लोग तुमसे माफ़ी मांगने के लिये आए हैं। ख़ातूने क़यामत पर्दे के पीछे बैठीं , उन्होंने कहा अस्सलामुन अलैयकुम बिन्ते रसूलिल्लाह , ‘‘ आप पर सलाम हो रसूल की बेटी । ’’ पर्दे के पीछे से कोई जवाब न आया। अब यह मसला पेचीदा हो गया शरह कहती है कि जवाबे सलाम वाजिब है और तारीख़ लिखती है कि जनाबे ज़हरा (स.अ.) ने जवाब नहीं दिया। ख़ातूने जन्नत ! इस्लाम कहता है जो वाजिब को तर्क करे वह गुनाहगार है। आय ए तत्हीर कहती है फ़ातिमा (अ.स.) से गुनाह होगा ही नहीं।

सलाम का जवाब आया नहीं , रसूल (स.अ.) जा चुके हैं , अब क़ानून इस्लाम बदलेगा नहीं। जिसको मोहम्मद (स.अ.) हलाल फ़रमा गए हैं वो क़यामत तक हलाल रहेगा और जिसको मोहम्मद (स.अ.) हराम बना गए है वह क़यामत तक हराम रहेगा।

इस्लाम कहता है कि कोई बड़े से बड़ा आदमी भी क़ानून नहीं तोड़ सकता । उस शशो पन्ज में हैं और वहां बात शुरू हो गई आने वाले ने कहा कि ऐ रसूल (स.अ.) की बेटी ! हम आपके बा पके , बस यहां तक कहा था कि अन्दर से आवाज़ आयी कि मैं तुम दोनों को अपने बाप की वो हदीस सुनाऊं जो तुमने सुनी है और तुम्हे क़सम दे कर पूछती हूं कि तुमने मेरे बाप से यह नहीं सुना , ‘‘ कि फ़ातिमा मेरा टुकड़ा है जिसने उसे सताया उसने मुझे सताया ’’ कहा: हमने सुना है। कहा: बस मैं ख़ुदा और रसूल (स.अ.) को और मलाएका को गवाह करती हूं कि तुमने मुझे सताया है। तो हज़राते मोहतरम! मसला हल हो गया जिसने फ़ातिमा (स.अ.) को सताया उसने रसूल (स.अ.) को सताया और जिसने रसूल (स.अ.) को सताया उसने ख़ुदा को सताया जिसने खुदा को सताया वह दाएरा ए इस्लाम से खारिज और जवाबे सलाम मुसलमान पर वाजिब है।

जिन हालात से आले रसूल (अ.स.) गुज़र रहे थे ख़ुदा की क़सम यह सारे हालात साबित न हो पाते क्यों कि तारीख़ में धांधलियां हैं जो आज तक जारी हैं। हुसैन इब्ने अली (अ.स.) ने ज़ाहिर किया सारे हालात को इस लिये कि हुसैन (अ.स.) ने दिन की दो पहर में जो कु़रबानी दी है अब किसी को कुछ कहने की गुन्जाइश नहीं रह गई कि अली असग़र (अ.स.) के गले पर तीर नहीं लगा। अब किसी को कहने के लिये यह नहीं रह गया कि अली अकबर (अ.स.) के सीने पर बरछी नहीं लगी। यह दुश्मनी का शोला जो वहां भड़का था अब पूरी आब व ताब से मैदाने करबला में फैल चुका था।

[[अलहम्दो लिल्लाह किताब (अली अलैहिस्सलाम से दुश्मनी क्यो) पूरी टाईप हो गई खुदा वंदे आलम से दुआगौ हुं कि हमारे इस अमल को कुबुल फरमाऐ और इमाम हुसैन (अ.) फाउनडेशन को तरक्की इनायत फरमाए कि जिन्होने इस किताब को अपनी साइट (अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क) के लिऐ टाइप कराया। 17.6.2017