1. बिस्मिल्ला हिर्रहमा निर्हीम
शूरू अल्लाह के नाम से जो रहमान ओ रहीम है।
तफ़सीर
तमाम लोगों में यह रस्म है कि हर अहम और अच्छे काम का आगाज़ किसी बुज़ुर्ग के नाम से करते है। किसी अज़ीम इमारत की पहली ईंट उस शख़्स के नाम पर रखी जाती है। जिसमें बहुत ज्यादा क़ल्बी लगाव हो यानी उस काम को अपनी पसंदीदा शख्सीयत के नाम मनसूब कर देते है। मगर क्या ये बेहतर नहीं है कि प्रोग्राम को दावाम बख़्शने और किसी मिशन को बरकरार रखने के लिए किसी ऐसी हसती से मनसूब किया जाए जो पायेदार हमीशा रहने वाली हो और जिसकी ज़ात में फना का गुज़र ना हो इस जहान की तमाम मौजूदात पुरानी होने वाली है और ज़वाल की तरफ रवां दवां है। सिर्फ वही चीज़ बाक़ी रह जाएगी जो इस ज़ात ला यज़ाल से वाबस्ता होगी तमाम मौजूदात में फख़त ख़ुदा अज़ली व अबदी है। इसलिए चाहिए कि तमाम अमूर को उसी के नाम से शुरू किया जाऐ। उसके साये में तमाम चीज़ो को क़रार दिया जाये और उसी से मदद तलब की जाये।
इसी लिए कुरआन का आगाज बिस्मिल्ला से होता है। यही वजह है कि रसूले अकरम की मशहूर हदीस में हम पढ़ते हैः जो भी अहम काम खुदा के नाम के बगैर शुरू होगा नाकामी से हमकिनार होगा।
(तफ़सीरे अलबयान जिल्द न. 1 पेज न. 461)
इंसान जिस काम को अंजाम देना चाहे चाहिए कि बिस्मिल्लाह कहे और जो अमल खुदा के नाम से शुरू हो वह मुबारक है।
इमाम मुहम्मद बाकिर फरमाते हैं कि जब कोई काम शुरू करने लगो बडा हो या छोटा बिस्मिल्लाह कहो ताकी वो बा बरकत भी हो और पुर अज अमनो सलामती भी।
खुलासा ये हैं कि किसी अमल कि पायदारी और बका बिस्मिल्लाह के राबते खुदा से वाबस्ता है। इसी मुनासबात से जब खुदा तआला ने पैगम्बर ए अकरम पर वही नाजिल फरमाई तो उन्होंने हुक्म दिया कि तबलीग ए इस्लाम की अजीम जिम्मेदारी को खुदा के नाम से शुरू करें।
इक़रा बिस्मे रब्बेकल लज़ी खलक़। (सूरे इक़रा आयत न. 1)
हम देखते है कि जब तअज्जुबखेज़ और सख्त तूफान के आलम मे हज़रत नूह किश्ती पर सवार हुऐ , पानी की मौजे पहाड़ो की तरह बुलंद थी और हर सेकेन्ड खतरो का सामना था। ऐसे मे मंज़िले मक़सूद तक पहुँचने और मुश्किलात पर क़ाबू पाने के लिऐ आपने अपने साथियो को हुक्म दिया कि किश्ती के चलते और रूकते बिस्मिल्ला कहो। (सूरह हूद आयत 41)
लेहाज़ा उन लोगो ने इस खतरो से भरे सफर को तोफीक़े इलाही के साथ कामयाबी से तय कर लिया और अमनो सलामती के साथ कश्ती से उतरे (सूरे हूद आयत 48)
जब जनाबे सुलैमान ने मलीकाऐ सबा को खत लिखा तो उसका उनवान बिस्मिल्ला ही को रखा।
ये (खत) सुलैमान की तरफ से है और बेशक इस का मज़मून ये है कि शूरू करता हुँ अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान और निहायत रहम वाला है।
(सूरऐ नमल आयत 30)
इसी बिना पर कुरआन हकीम की तमाम सूरतो की इब्तेदा बिस्मिल्लाह से ही होती है। ताकि नोऐ बशर की हिदायत व सआदत का असली मक़सद कामयाबी से हमकिनार हो और बग़ैर किसी नुकसान के अंजाम पज़ीर हो सिर्फ सूरे तौबा ऐसी सूरत है। जिसकी इब्तेदा में बिस्मिल्लाह नज़र नही आती। क्योंकि उसका आग़ाज़ मक्का के मुजरिमो और वादा तोड़ने वालो से ऐलाने जंग के साथ हो रहा है। लिहाज़ा ऐसे मौकों पर ख़ुदा की सिफत रहमानो रहीम का ज़िक्र मुनासिब नहीं।
यहां एक नुक़ते कि तरफ तवज्जो देना ज़रूरी है।
1. क्या बिस्मिल्लाह सूरह हम्द का जुज़ है।
शिया उलेमा व मुहक़्क़ीन मे इस मसले पर कोई इख़्तेलाफ नहीं किया कि बिस्मिल्लाह सूरऐ हम्द और दिगर सूरे कुरआन का जुज़ है। बिस्मिल्लाह का तमाम सूरतो की इब्तेदा में होना उसूली तौर पर इस बात का ज़िंदा सबूत है के ये जुज़े कुरआन है। क्योंकि हमें मालूम है कि कुरआन में कोई इज़ाफ़ी चीज़ नहीं लिखी गई और बिस्मिल्लाह ज़माना ऐ पैगम्बर से लेकर अब तक सूरतो की इब्तेदा मौजूद है। इन सबके अलावा मुसलमानों की ये सीरत रही है कि वो कुरआन मजीद की तिलावत के वक्त बिस्मिल्लाह हर सूरत की इब्तेदा में पढ़ते रहे है। तवातुर से यह साबित है कि पैगम्बर अकरम भी इसकी तिलावत फरमाते थे। ये कैसे मुमकिन है कि जो चीज़ कुरआन का जुज़ न हो उसे पैगम्बर और मुसलमान हमेशा कुरआन के ज़मन पढ़ते रहे हो और सदा इस अमल को जारी रखा हो।
एक दिन माविया ने अपनी हुकुमत के ज़माने में नमाज़े जमात में बिस्मिल्लाह नही पढ़ी तो नमाज के बाद मुहाजरीन और अंसार के एक गिरोह ने पुकार कर कहाः
क्या मुआविया ने बिस्मिल्लाह को छोड़ दिया है या भूल गए है।
(बेहक़ी जुज़ 2 पेज 49)
2. ख़ुदा के नामो में से अल्लाह जामेतरीन नाम है।
बहरहाल कलमऐ अल्लाह जो ख़ुदा के नामो में से सबसे ज्यादा जामे है। ख़ुदा के इन नामो को जो कुरआन मजीद या दीगर मसादरे इस्लामी में आए है। अगर देखा जाए तो पता चलता है कि वो ख़ुदा की किसी एक सिफ़त को मुनअकिस करते है। लेकिन वो नाम जो तमाम सिफ़तो कमालाते इलाही की तरफ इशारा करते है। दूसरे लफ़्ज़ों में जो सिफ़त जलालो जमाल का जामे है। वो सिर्फ अल्लाह है।
यही वजह है कि ख़ुदा के दूसरे नाम अमूमन कलमऐ अल्लाह की सिफ़त की हैसियत से ज़िक्र किए जाते है। मिसाल के तौर पर चंद एक का ज़िक्र किया जाता है।
फइन्नल्लाहा गफूरूर रहीम
(सुरऐ बक़रा आयत 226)
ये सिफ़ते ख़ुदा की सिफ़त बख़्शिश की तरफ इशारा है।
समीउन अलीम
समीअ इशारा है इस बात की तरफ़ की ख़ुदा तमाम सुनी जाने वाली चीज़ो से आगाही रखता है। और आलिम इशारा है कि वो तमाम चीजों से बा ख़बर है।
फइन्नल लाहा समीउन अलीम
(सूरऐ बक़रा आयत 227)
ज़ाहिर हुआ कि अल्लाह ही ख़ुदा के तमाम नामो में से जामेतरीन है। यही वजह है कि एक ही आयत मे हम देखते हैं कि बहुत से नाम अल्लाह करार पाए है।
अल्लाह वो है जिसके सिवा कोई माबूद नही वो हाकिमे मुतलक है। मुनज़्ज़ा है। हर ज़ुल्मो सितम से पाक है। अमन बख़्शने वाला है। सबका निगेहबान है। तवाना है। किसी से शिकस्त खाने वाला नहीं और तमाम मौजूदात पर क़ाबिर ओ ग़ालिब है और बा अज़मत है।
(सुरऐ हशर आयत 23)
इस नाम की जामीयत की एक वजह शायद यह है कि इमान ओ तौहीद का इज़हार सिर्फ़ (ला इलाहा इल्लल लाह) के जुमले से हो सकता है। और जुमला (ला इलाहा इल्लल अलीम इल्लल खालिक़ इल्लल राज़िक़) और दिगर इस किस्म के जुमले ख़ुदा से तौहीदो इस्लाम की दलील नहीं हो सकते यही वजह है कि दिगर मज़हब के लोग जब मुसलमानों के माबूद की तरफ इशारा करना चाहते हैं तो लफ्ज़ अल्लाह का जिक्र करते है। क्योंकि खुदावंद आलम की तारीफो तौसीफ लफ्ज़े अल्लाह से मुसलमानों के साथ मख़सूस है।
खुदा की रहमते आम और रहमते ख़ास
मुफास्सिरीन के एक तबके में मशहूर है कि सिफ़त रहमान रहमत ए आम की तरफ इशारा है। यह वो रहमत है जो दोस्त व दुश्मन , मोमीन और काफिर , नेक और बद सबके लिए है।
क्योंकि उसकी रहमत की बेहिसाब बारिश सबको पहुंचती है और इसका खवान ए नेमत हर कहीं बिछा हुआ है। उसके बंदे की जिंदगी का गुनागून रेनाइयो से भरा हुआ है। अपनी रोज़ी इसके दस्तर ख्वान से हासिल करते है। जिसपर बेशुमार नेमते रखी है। यह वो रहमते उमूमी है। जिसने आलमे हसती का इहाता कर रखा है और सबके सब इस दरिया ए रहमत में गोताज़न है। रहमते ख़ुदावंदे आलम की रहमते ख़ास की तरफ इशारा है यह वो रहमत है जो इसके सालेह और फ़रमा बरदार बंदो के साथ मख़सूस है। क्योंकि उन्होंने ईमान और अमले सालेह के बिना पर यह शाइस्तगी हासिल कर ली है कि वो इस रहमते एहसाने ख़ुसूसी से बेहरमंद हो जो गुनहगारो और ग़ारत गरो के हिस्से में नहीं हैं।
एक चीज़ जो मुमकिन है। उसी मतलब की तरफ इशारा हो यह है कि लफ्ज़ रहमान कुरआन में हर जगह मुतलक़ आया है जो उमूमियत की निशानी है जब के रहीम कभी मुक़य्द ज़िक्र हुआ है। मसलनः व काना बिल मोमेनीना रहीमा।
ख़ुदा मोमीनीन के लिए रहीम है।
(सुरऐ अहज़ाब आयत 43)
और कभी मुतलक़ जैसे के सूरह हम्द में है। एक रिवायत में है कि हज़रत इमाम जाफर सादिक़ ने फरमाया
ख़ुदा हर चीज का माबूद है। वो तमाम मख़लूक़ात के लिए रहमान और मोमीनीन पर ख़ुसूसियात के साथ रहीम है।
(अल मीज़ान बे सनदे काफ़ी , तौहीद सदूक़ और मआनीउल अख़बार)
खुदा की दीगर सिफ़त बिस्मिल्लाह में क्यूं मज़कूर नहीं
यह बात क़ाबिले तवज्जो है कि कुरआन की तमाम सूरते सिवाऐ सुराऐ बरात के जिसकी वजह बयान हो चुकी है बिस्मिल्लाह से शुरू होती है और बिस्मिल्लाह में मख़सूस नाम अल्लाह के बाद सिर्फ सिफ़त ए रहमानियत का ज़िक्र है। इससे सवाल पैदा होता है कि यहाँ पर बाक़ी सिफ़त का ज़िक्र क्यूं नहीं है।
अगर हम एक नुक़्ते की तरफ तवज्जो करें तो उस सवाल का जवाब वाज़े हो जाता है और वो यह है कि हर काम की इब्तेदा में ज़रूरी है कि ऐसी सिफ़त से मदद ले जिसके असर तमाम जहान पर साया फिगन हो जो तमाम मौजूदात का इहाता किए हो और आलमे बोहरान में मुसीबतज़दो को निजात बख़्शने वाली हो। मुनासिब है कि इस हकीक़त को कुरआन की ज़बान से सुना जाऐ
इरशादे इलाही है
मेरी रहमत तमाम चीज़ों पर फैली है।
(सुरऐ आराफ आयत 154)
एक और जगह हामेलान ए अर्श की एक दुआ ख़ुदा वंदे करीम ने यूँ बयान फ़रमाया है
परवरदिगार तूने अपना दामने रहमत हर चीज़ तक फैला रखा है।
(सुरऐ मोमीन आयत 7)
हम देखते हैं कि अम्बिया कराम निहायत सख़्त हवादिस और ख़तरनाक दुश्मनों के चंगुल से निजात के लिए रहमते ख़ुदा के दामन में पनाह लेते है। क़ौमे मूसा फिरओनियो के ज़ुल्म से निजात के लिए पुकारती है।
ख़ुदाया हमें ज़ुल्म से निजात दिला और अपनी रहमत का साया अता फ़रमा।
(सुरऐ युनूस आयत 86)
हज़रत हुद (अ.स.) और उनके पैरोकार के सिलसिले में इरशाद है।
हज़रत हुद (अ.स.) और उनके साथियों को हमनें अपनी रहमत के वसीले से निजात दी।
(सुरऐ आराफ आयत 72)
बिस्मिल्ला से वाज़ेह तौर पर ये दरस हासिल किया जा सकता हैं कि ख़ुदा वंदे आलम के हर काम की बुनियाद रहमत पर है और बदला या सज़ा तो अलग सूरत है जब तक यक़ीनी अवामिल पैदा नही हो सज़ा मुतहक़्क़ नही होती। जैसा कि हम दुआ में पढ़ते है।
ऐ वो ख़ुदा के जिसकी रहमत इसके ग़जब पर सबक़त ली गयी है। (दुआऐ जोशने कबीर)
इंसान को चाहिये के वो ज़िन्दगी के प्रोग्राम पर यूं अमल पैदा हो के हर काम की बुनियाद रहमतो मोहब्बत को क़रार दे और सख़्ती को फ़क़त बवक़्ते ज़रुरत इख़्तियार करे। कुरआन मजीद के 114 सूरतो में से 113 की इब्तेदा रहमत से होती है और फ़क़त एक सूरह तोबा है जिस का आग़ाज़ बिस्मिल्लाह की बजाये ऐलान ऐ जंग और सख़्ती से होता है।