इमाम अली के मकतूबात (पत्र)

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इमाम अली के मकतूबात (पत्र) लेखक:
कैटिगिरी: इमाम अली (अ)

इमाम अली के मकतूबात (पत्र)

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: सैय्यद रज़ी र.ह
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इमाम अली के मकतूबात (पत्र)
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इमाम अली के मकतूबात (पत्र)

इमाम अली के मकतूबात (पत्र)

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

15-आपकी दुआ (जिसे दुश्मन के मुक़ाबले के वक़्त दोहराया करते थे )

ख़ुदाया तेरी ही तरफ़ दिल खिंच रहे हैं और गर्दनें उठी हुई हैं और आंखें लगी हुई हैं और क़दम आगे बढ़ रहे हैं और बदन लाग़र हो चुके हैं।

ख़ुदाया छिपे हुए कीने सामने आ गए हैं और अदावतों की देगें जोश खाने लगी हैं। ख़ुदाया हम तेरी बारगाह में अपने रसूल की ग़ैबत और दुश्मनों की कसरत की और ख़्वाहिशात के तफ़रिक़े की फ़रयाद कर रहे हैं। ख़ुदाया हमारे और दुश्मनों के दरम्यान हक़ के साथ फ़ैसला कर दे के तू बेहतरीन फ़ैसला करने वाला है।

16-आपका मकतूब गिरामी (जो जंग के वक़्त अपने असहाब से फ़रमाया करते थे)

ख़बरदार तुम पर वह फ़रार गराँ न गुज़रे जिसके बाद हमला करने का इमकान हो और वह पसपाई परेशान कुन न हो जिसके बाद दोबारा वापसी का इमकान हो , तलवारों को उनका हक़ दे दो और पहलू के भल गिरने वाले दुश्मनों के लिये मक़तल तैयार रखो , अपने नफ़्स को शदीद नैज़ाबाज़ी और सख़्त तरीन शमशीरज़नी के लिये आमादा रखो और आवाज़ों को मुर्दा बना दो के इससे कमज़ोरी दूर हो जाती है , क़सम है उस ज़ात की जिसने दाने को शिगाफ़ता किया है और जानदार चीज़ों को पैदा किया है के यह लोग इस्लाम नहीं लाए हैं बल्कि हालात के सामने सिपर अन्दाख़्ता हो गए हैं और अपने कुफ्ऱ को छिपाए हुए हैं और जैसे ही मददगार मिल गए वैसे ही इज़हार कर दिया। (((-इसमें कोई शक नहीं के मैदाने जंग में ऐसे हालात आ जाते हैं जब सिपाही को अपनी जगह छोड़ना पड़ती है और एक तरह से फ़रार का रास्ता इख़्तेयार करना पड़ता है , लेकिन इसमें कोई इश्काल नहीं है बशर्ते के हौसलाए जेहाद बरक़रार रहे और जज़्बाए क़ुरबानी में फ़र्क़ न आए। मैदाने ओहद का सबसे बड़ा ऐब यही था के “ सहाबाए कराम ” जज़्बाए क़ुरबानी से आरी हो गए थे और रसूले अकरम (स 0) के पुकारने के बावजूद पलट कर आने के लिये तैयार न थे ऐसी सूरते हाल यक़ीनन इस क़ाबिल है के उसकी मज़म्मत की जाए और यह नंग व आर नस्लों में बाक़ी रह जाए वरना फ़रार के बाद हमला या पस्पाई के बाद वापसी कोई ऐसी बात नहीं है जिस पर मज़म्मत या मलामत की जाए।-)))

17-आपका मकतूबे गिरामी (माविया के नाम उसके एक ख़त के जवाब में)

तुम्हारा यह मुतालबा के मैं शाम का इलाक़ा तुम्हारे हवाले कर दूँ , तो जिस चीज़ से कल इनकार कर चुका हूँ वह आज अता नहीं कर सकता हूं और तुम्हारा यह कहना के जंग ने अरब का ख़ातेमा कर दिया है और चन्द एक अफ़राद के अलावा कुछ नहीं बाक़ी रह गया है तो याद रखो के जिसका ख़ात्मा हक़ पर हुआ है उसका अन्जाम जन्नत है और जिसे बातिल खा गया है उसका अन्जाम जहन्नम है। रह गया हम दोनों का जंग और शख़्सियात के बारे में बराबर होना , तो तुम शक में इस तरह तेज़ रफ़्तारी से काम नहीं कर सकते हो जितना मैं यक़ीन में कर सकता हूँ और अहले शाम दुनिया के बारे में इतने हरीस नहीं हैं जिस क़द्र अहले इराक़ आखि़रत के बारे में फ़िक्रमन्द हैं। और तुम्हारा यह कहना के हम सब अब्दे मुनाफ़ की औलाद हैं तो यह बात सही है लेकिन न उमय्या हाशिम जैसा हो सकता है और न हर्ब अब्दुलमुत्तलिब जैसा , न अबू सुफ़ियान अबूतालिब का हमसर हो सकता है और न राहे ख़ुदा में हिजरत करने वाला आज़ाद कर्दा अफ़राद जैसा। न वाज़ेह नसब वाले का क़यास शजरे से चिपकाए जाने वाले पर हो सकता है और न हक़दार को बातिल नवाज़ जैसा क़रार दिया जा सकता है। मोमिन कभी मुनाफ़िक़ के बराबर नहीं रखा जा सकता है , बदतरीन औलाद तो वह है जो इस सल्फ़ के नक़्शे क़दम पर चले जो जहन्नम में गिर चुका है। इसके बाद हमारे हाथों में नबूवत का शरफ़ है जिसके ज़रिये हमने बातिल के इज़्ज़तदारों को ज़लील बनाया है और हक़ के कमज़ोरों को ऊपर उठाया है और जब परवरदिगार ने अरब को अपने दीन में फ़ौज दर फ़ौज दाखि़ल किया है और यह क़ौम बख़ुशी या ब-कराहत (नाख़ुशी से) मुसलमान हुई है तो तुम उन्हें दीन के दायरे में दाखि़ल होने वालों में थे या ब-रग़बत (लालच से) या ब-ख़ौफ़ जबके सबक़त हासिल करने वाले सबक़त हासिल कर चुके थे और मुहाजेरीन अव्वलीन अपनी फ़ज़ीलत पा चुके थे , देखो ख़बरदार शैतान को अपनी ज़िन्दगी का हिस्सेदार मत बनाओ और उसे अपने नफ़्स पर राह मत दो , वस्सलाम। (((-माविया ने अपने ख़त में चार नुक्ते उठाए थे और हज़रत ने सबके अलग-अलग जवाबात दिये हैं और हक़ व बातिल का अबदी फ़ैसला कर दिया है और आखि़र में यह भी वाज़ेह कर दिया है के तमाम मुआमलात में मसावात फ़र्ज़ कर लेने के बाद भी शरफ़े नबूवत का कोई मुक़ाबला नहीं हो सकता है जो परवरदिगार ने बनी हाशिम को अता किया है है और इसका बनी उमय्या से कोई ताल्लुक़ नहीं है। और ज़ाती किरदार के एतबार से भी बनी हाशिम इस्लाम की मन्ज़िल पर फ़ाएज़ थे और बनी उमय्या ने फतहे मक्का के मौक़े पर मजबूरन कलमा पढ़ लिया था और ज़ाहिर है के अस्तसलाम इस्लाम के मानिन्द नहीं हो सकता है-)))

18-हज़रत का मकतूबे गिरामी (बसरा के गवर्नर अब्दुल्लाह बिन अब्बास के नाम)

याद रखो के यह बसरा इबलीस के उतरने और फ़ितनों के उभरने की जगह का नाम है लेहाज़ा यहाँ के लोगों के साथ अच्छा बरताव करना और उनके दिलों से ख़ौफ़ की गिरह खोल देना। मुझे यह ख़बर मिली है के तुम बनी तमीम के साथ सख़्ती से पेश आते हो और उनसे सख़्त क़िस्म का बरताव करते हो तो याद रखो के बनी तमीम वह लोग हैं के जब उनका कोई सितारा डूबता है तो दूसरा उभर आता है , यह जंग के मामले में जाहेलीयत या इस्लाम कभी किसी से पीछे नहीं रहे हैं और फिर हमारा उनसे रिश्तेदारी और क़राबतदारी का ताल्लुक़ भी है के अगर हम इसका ख़याल रखेंगे तो अज्र पाएंगे अैर क़तअ ताल्लुक़ करेंगे तो गुनहगार होंगे , लेहाज़ा इब्ने अब्बास ख़ुदा तुम पर रहमत नाज़िल करे , उनके साथ अपनी ज़बान या हाथ पर जारी होने वाली अच्छाई या बुराई में सोच-समझ कर क़दम उठाना के हम दोनों इन ज़िम्मेदारियों में शरीक हैं , और देखो तुम्हारे बारे में हमारा हुस्ने ज़न बरक़रार रहे और मेरी राय ग़लत न साबित होने पाए।

19-आपका मकतूबे गिरामी (अपने बाज़ गवर्नरो के नाम)

अम्माबाद! तुम्हारे शहर के ज़मीनदारों ने तुम्हारे बारे में सख़्ती , संगदिली , तहक़ीर व तज़लील और तशद्दुद की शिकायत की है और मैंने उनके बारे में ग़ौर कर लिया है , वह अपने शिर्क की बिना पर क़रीब करने के क़ाबिल तो नहीं हैं लेकिन अहद व पैमान की बिना पर उन्हें दूर भी नहीं किया जा सकता है और उन पर ज़्यादती भी नहीं की जा सकती है लेहाज़ा तुम नके बारे में ऐसी नरमी का शोआर इख़्तेयार करो जिसमें क़द्र से (कहीं-कहीं) सख़्ती भी शामिल हो और उनके साथ सख़्ती और नर्मी के दरम्यान का बरताव करो के कभी क़रीब कर लो , कभी दूर कर दो , कभी नज़दीक बुला लो और कभी अलग रखो , इन्शाअल्लाह।

20-आपका मकतूबे गिरामी (ज़ियाद बिन अबिया के नाम)

जो बसरा के गवर्नर अब्दुल्लाह बिन अब्बास का नायब हो गया था और इब्ने अब्बास बसरा और अहवाज़ के तमाम एतराफ़ के गवर्नर थे)

मैं अल्लाह की सच्ची क़सम खाकर कहता हूँ के अगर मुझे ख़बर मिल गई के तुमने मुसलमानों के माले ग़नीमत में छोटी या बड़ी क़िस्म की ख़यानत की है तो मैं तुम पर ऐसी सख़्ती करूंगा के तुम नादार , बोझिल पीठ वाले और बेनंग व नाम (बेआबरू) होकर रह जाओगे। वस्सलाम। (((-वाज़ेह रहे के किसी का क़रीब कर लेना और है और उसके साथ आदिलाना और मुनसिफ़ाना बरताव करना और है , इस्लाम आदिलाना बरताव का हुक्म हर एक के बारे में देता है लेकिन क़ुरबत का जवाज़ सिर्फ़ साहिबाने ईमान व किरदार के लिये है) कुफ़्फ़ार व मुशरेकीन को तो उसने हरमे ख़ुदा से भी दूर कर दिया है और उनका दाखि़ला हुदूदे हरम में बन्द कर दिया है , यह और बात है के आज आलमे इस्लाम में कुफ़्फ़ार व मुशरेकीन ही क़रीब बनाए जाने के क़ाबिल हैं और कलमागो मुसलमान इस लाएक़ नहीं रह गए हैं और उनसे सुबह व शाम सर्द जंग सिर्फ़ कुफ़्फ़ार व मुशरेकीन से क़ुरबत पैदा करने या बरक़रार रखने की बुनियाद पर की जा रही है , अल्लाह इस इस्लाम पर रहम करे और इस उम्मत को अक़्ले सलीम इनायत फ़रमाए। वाज़ेह रहे के हज़रत इख़्तेयारी तौर पर किसी ऐसे शख़्स को ओहदा नहीं दे सकते हैं जिसका नसब मशकूक हो , यह काम इब्ने अब्बास ने ज़ाती तौर पर किया था , इसीलिये हज़रत ने नेहायत ही सख़्त लहजे में खि़ताब फ़रमाया है-)))

21-आपका मकतूबे गिरामी (ज़ियाद इब्ने अबिया के नाम)

इसराफ़ को छोड़कर मयानारवी इख़्तेयार करो और आज के दिन कल को याद रखो , बक़द्रे ज़रूरत माल रोक कर बाक़ी रोज़े हाजत (मोहताजी के दिन) के लिये आगे बढ़ा दो (फ़ुज़ूल ख़र्ची से बाज़ आओ)। क्या तुम्हारा ख़याल यह है के तुम मुतकब्बिरों में रहोगे और ख़ुदा तुम्हें मुतवाज़ेह अफ़राद जैसा अज्र देगा या तुम्हारे वास्ते सदक़ा व ख़ैरात करने वालों का सवाब लाज़िम क़रार देगा और तुम नेमतों में करवटें बदलते रहोगे , न किसी कमज़ोर का ख़याल करोगे और न किसी बेवा का जबके इन्सान को उसी का अज्र मिलता है जो उसने अन्जाम दिया है और वह उसी पर वारिद होता है जो उसने पहले भेज दिया है , वस्सलाम।

22-आपका मकतूबे गिरामी

(अब्दुल्लाह बिन अब्बास के नाम , जिसके बारे में ख़ुद इब्ने अब्बास का मक़ैला था

के मैंने रसूले अकरम (स 0) के बाद किसी कलाम से इस क़द्र इस्तेफ़ादा नहीं किया है जिस क़द्र इस कलाम से किया है)

अम्माबाद! कभी कभी ऐसा होता है के इन्सान उस चीज़ को पाकर भी ख़ुश हो जाता है जो उसके हाथ से जाने वाली नहीं थी और उस चीज़ के चले जाने से भी रन्जीदा हो जाता है जो उसे मिलने वाली नहीं थी लेहाज़ा तुम्हारा फ़र्ज़ है के उस आखि़रत पर ख़ुशी मनाओ जो हासिल हो जाए और उस पर अफ़सोस करो जो इसमें से हासिल न हो सके , दुनिया हासिल हो जाए तो इस पर ज़्यादा ख़ुशी का इज़हार न करो और हाथ से निकल जाए तो बेक़रार होकर अफ़सोस न करो , तुम्हारी तमामतर फ़िक्र मौत के बाद के बारे में होनी चाहिये।

23-आपका इरशादे गिरामी (जिसे अपनी शहादत से पहले बतौर वसीयत फ़रमाया है)

तुम सबके लिये मेरी वसीयत यह है के ख़बरदार ख़ुदा के बारे में किसी तरह का शिर्क न करना और हज़रत मोहम्मद (स 0) की सुन्नत को ज़ाया और बरबाद न करना इन दोनों को क़ायम रखो और इन दोनों पर चिराग़ों को रौशन रखो , इसके बाद किसी मज़म्मत का कोई अन्देशा नहीं है। मैं कल तुम्हारे साथ था और आज तुम्हारे लिये इबरत बन गया हूँ और कल तुमसे जुदा हो जाऊंगा , इसके बाद मैं बाक़ी रह गया तो अपने ख़ून का साहबे इख़्तेयार मैं ख़ुद हूँ वरना अगर मेरी मुद्दते हयात पूरी हो गई तो मैं दुनिया से चला जाऊंगा। मैं अगर माफ़ कर दूँ तो यह मेरे लिये क़ुरबते इलाही का ज़रिया होगा और तुम्हारे हक़ में भी एक नेकी होगी लेहाज़ा तुम भी माफ़ कर देना “ क्या तुम नहीं चाहते हो के अल्लाह तुम्हें बख़्श दे ” ख़ुदा की क़सम यह अचानक मौत ऐसी नहीं है जिसे मैं नापसन्द करता हूँ और न ऐसा सानेहा है जिसे मैं बुरा समझता हूँ , मैं उस शख़्स के मानिन्द हूँ जो रात भर पानी की जुस्तजू में रहे और सुबह को चश्मे पर वारिद हो जाए और तलाश के बाद अपने मक़सद को पा ले और फ़िर “ ख़ुदा की बारगाह में जो कुछ भी है वह नेक किरदारों के लिये बेहतर ही है। ”

सय्यद रज़ी- इस कलाम का एक हिस्सा पहले गुज़र चुका है लेकिन यहाँ कुछ इज़ाफ़ात थे लेहाज़ा मुनासिब मालूम हुआ के उसे दोबारा नक़्ल कर दिया जाए।(((-वाज़ेह रहे के इस माफ़ी से मुराद दुनिया में इन्तेक़ाम न लेना है के क़ातिल के जुर्म की दो हैसियतें होती हैं- वह इन्सानी दुनिया में एक ख़ून का ज़िम्मेदार होता है जिसके नतीजे में क़सास का क़ानून सामने आता है और मज़हबी दुनिया में हुक्मे इलाही की मुख़ालेफ़त का मुजरिम होता है जिसका अन्जाम आतिशे जहन्नम है। दुनिया के क़सास व इन्तेक़ाम में फ़सादात के अन्देशे होते हैं और अदावतों के शोले मज़ीद भड़क उठते हैं लेकिन आखि़रत के अज़ाब में कोई ख़तरा नहीं होता है। इसलिये साहेबाने अक़्ल व दानिश यहाँ के इन्तेक़ाम को नज़रअन्दाज़ कर देते हैं ताके मज़ीद फ़साद न पैदा हो सके और इस बात से मुतमईन रहते हैं के मुजरिम के लिये अज़ाबे जहन्नम ही काफ़ी है और ख़ुदा से बेहतर इन्तेक़ाम लेने वाला कौन है ?-)))

24-आपकी वसीयत (अपने अमवाल के बारे में जिसे जंगे सिफ़्फ़ीन की वापसी पर तहरीर फ़रमाया है)

यह बन्दए ख़ुदा , अली बिन अबीतालिब (अ 0) अमीरूलमोमेनीन का हुक्म है अपने अमवाल के बारे में जिसका मक़सद रिज़ाए परवरदिगार है ताके उसके ज़रिये जन्नत में दाखि़ल हो सके और रोज़े महशर के हौल से अमान पा सके। इन अमवाल की निगरानी हसन (अ 0) बिन अली करेंगे , बक़द्रे ज़रूरत इस्तेमाल करेंगे और बक़द्रे मुनासिब अनफ़ाक़ करेंगे। इसके बाद अगर उन्हें कोई हादसा पेश आ गया और हुसैन (अ 0) बाक़ी रह गए तो ज़िम्मेदार वह होंगे और इसी अन्दाज़ पर काम करेंगे। औलादे फ़ातेमा (अ 0) का हक़ अली (अ 0) के सदक़ात में वही है जो दीगर औलादे अली (अ 0) का है , मैंने निगरानी का काम औलादे फ़ातेमा (अ 0) को सिर्फ़ रिज़ाए इलाही और क़ुरबते पैग़म्बर (स 0) के ख़याल से सौंप दिया है के इस तरह हज़रत की हुरमत का एहतेराम भी हो आएगा और आपकी क़राबत का एज़ाज़ भी बरक़रार रहेगा। लेकिन इसके बाद भी वाली के लिये यह शर्त है के माल की असल को बाक़ी रखे और सिर्फ़ इसके समरात को ख़र्च करे , वह भी उन राहों में जिनका हुक्म दिया गया है और जिनकी हिदायत दी गई है और ख़बरदार इस क़रिया के नख़लिस्तान में से एक पौदा भी फ़रोख़्त न करे यहां तक के वह ज़मीन में दोबारा बोने के लाएक़ न रह जाए। मेरी वह कनीज़ें जिनसे मेरा ताल्लुक़ रह चुका है और उनकी औलाद भी मौजूद है या वह हामेला हैं , उनको उनकी औलाद के हिसाब से (बच्चे के हक़ में) रोक लिया जाए और उन्हीं का हिस्सा क़रार दे दिया जाए (वह उसके हिस्से में शुमार होगी)। इसके बाद अगर बच्चा मर जाए और कनीज़ ज़िन्दा रह जाए तो उसे आज़ाद कर दिया जाए के गोया इसकी ग़ुलामी ख़त्म हो चुकी है और आज़ादी हासिल हो चुकी है। सय्यद रज़ी- इस वसीयत में हज़रत का इरशाद “ वदिया भी फ़रोख़्त न किया जाए ’ इसमें वदिया से मुराद ख़ुर्मा के छोटे दरख़्त हैं जिसकी जमा वदी होती है और “ हती तशकल अरज़हा ग़रासा ’ एक फ़सीहतरीन कलाम है जिसका मक़सद यह है के ज़मीन में खजूर की दरख़्तकारी इतनी ज़्यादा हो जाए के देखने वाला इसकी असल हैसियत का अन्दाज़ा न कर सके और इसके लिये मसलए मुश्तबा हो जाए के शायद यह कोई दूसरी ज़मीन है। (((मोअर्रेख़ीन के बयान के मुताबिक़ अमीरूलमोमेनीन (अ 0) ने अपनी ज़िन्दगी में सिर्फ़ अरवाह व नुफ़ूस की सरज़मीनों को ज़िन्दा करने का काम अन्जाम नहीं दिया है , बल्कि माद्दी ज़मीनों में भी मुसलसल काम करते रहे हैं , ज़मीनों को क़ाबिले काश्त बनाया है , चश्मों को जारी किया है , दरख़्तों की सिंचाई की है और एक मज़दूर जैसी ज़िन्दगी गुज़ारी है और फिर अपनी सारी ज़हमतों और मेहनतों के नतीजे को राहे ख़ुदा में वक़्फ़ कर दिया है ताके बन्दगाने ख़ुदा इस्तेफ़ादा कर सकें और औलादे अली (अ 0) भी सिर्फ़ बक़द्रे ज़रूरत फ़ायदा उठा सके , ऐसा किरदार अब सिर्फ़ काग़ज़ात पर रह गया है वरना इसका वजूद दुनिया से अनक़ा हो चुका है अली (अ 0) वालों में देखने में नहीं आता है। सरबराहाने ममलिकत फोटो खींचवाने के लिये हाथ में फावड़ा और कुदाल ले लेते हैं वरना उन्हें ज़राअत से क्या ताल्लुक़ है , ज़मीनों का ज़िन्दा रखना अबूतुराब का काम था और उन्होंने इसका हक़ अदा कर दिया। बाक़ी सब दास्तानें हैं जो सफ़हे क़रतास पर महफ़ूज़ कर दी गई हैं और उनमें रोशनाई की चमक है , किरदार और हक़ीक़त की रोशनी नहीं है।-)))

25-आपकी वसीयत (जिसे हर उस शख़्स को लिख कर देते थे जिसे सदक़ात का आमिल क़रार देते थे)

सय्यद रज़ी- मैंने यह चन्द जुमले इसलिये नक़्ल कर दिये हैं ताके हर शख़्स को अन्दाज़ा हो जाए के हज़रत किस तरह सुतूने हक़ को क़ायम रखते थे

और हर छोटे बड़े और पोशीदा व ज़ाहिर उमूर में अद्ल के नमूने क़ायम फ़रमाते थे।

ख़ुदाए वहदहू लाशरीक का ख़ौफ़ लेकर आगे बढ़ो और ख़बरदार न किसी मुसलमान को ख़ौफ़ज़दा करना और न किसी की ज़मीन पर जबरन अपना गुज़र करना और जितना उसके माल में अल्लाह का हक़ निकलता हो उससे ज़र्रा बराबर ज़ायद (ज़्यादा) न लेना , और जब किसी क़बीले पर वारिद होना तो उनके घरों में घुसने के बजाए पहले उनके चश्मे और कनवीं पर वारिद होना और उसके बाद सुकून व वेक़ार के साथ उनकी तरफ़ जाना और उनके दरम्यान खड़े होकर सलाम करना और सलाम करने में कंजूसी से काम न लेना , इसके बाद उन से कहना के बन्दगाने ख़ुदा मुझे तुम्हारी तरफ़ परवरदिगार के वली और जानशीन ने भेजा है ताके मैं तुम्हारे अमवाल में से परवरदिगार का हक़ ले लूँ तो क्या तुम्हारे अमवाल में कोई हक़्क़े अल्लाह है जिसे मेरे हवाले कर सको ? अगर कोई शख़्स इन्कार कर दे तो उससे ज़्यादा तकरार न करना और अगर कोई शख़्स इक़रार करे तो उसके साथ इस अन्दाज़ से जाना के न किसी को ख़ौफ़ज़दा करना न धमकी देना , न सख़्ती का बरताव करना और न बेजा दबाव डालना जो सोना या चान्दी दे दें वह ले लेना और अगर चैपाया या ऊंट हों तो उनके मरकज़ पर अचानक बिला इजाज़त वारिद न हो जाना के ज़्यादा हिस्सा तो मालिक ही का है , उसके बाद जब चैपायों के मरकज़ तक पहुंच जाना तो किसी ज़ालिम व जाबिर की तरह दाखि़ल न होना न किसी जानवर को भड़का देना और न किसी को ख़ौफ़ज़दा कर देना और मालिक के साथ भी ग़लत बरताव न करना बल्कि माल को दो हिस्सों में तक़सीम करके मालिक को इख़्तेयार देना के वह जिस हिस्से को इख़्तेयार कर ले उस पर कोई एतराज़ न करना , फिर बाक़ी को दो हिस्सों पर तक़सीम करना और उसे इख़्तेयार देना और फिर उसके हिस्से पर एतराज़ न करना , यहांतक के उतना ही माल बाक़ी रह जाए जिससे हक़्क़े ख़ुदा अदा हो सकता है तो इसी को ले लेना बल्कि अगर कोई शख़्स पहले इन्तेख़ाब को मुस्तर्द करके दोबारा इन्तेख़ाब करना चाहे तो उसे इसका मौक़ा दो और सारे माल को मिलाकर फ़िर पहले की तरह तक़सीम करना और आखि़र में इस बचे माल में से हक़्क़े अल्लाह ले लेना , बस इसका ख़याल रखना के बूढ़ा , ज़ईफ़ कमर शिकस्ता , कमज़ोर और ऐबदार ऊंट न लेना और उन ऊंटों का अमीन भी उसी को बनाना जिसके दीन का एतबार हो और जो मुसलमानों के माल में नर्मी का बरताव करता हो। ताके वह वली तक माल पहुंचा दे और वह उनके दरम्यान तक़सीम कर दे , इस मौज़ू पर सिर्फ़ उसे वकील बनाना जो मुख़लिस , ख़ुदातरस अमानतदार और निगराँ हो , न सख़्ती करने वाला हो , न ज़ुल्म करने वाला , न थका देने वाला हो न शिद्दत से दौडाने वाला , इसके बाद जिस क़द्र माल जमा हो जाए वह मेरे पास भेज देना ताके मैं अम्रे इलाही के मुताबिक़ उसके मरकज़ तक पहुंचा दूँ। अमानतदार को माल देते वक़्त इस बात की हिदायत दे देना के ख़बरदार ऊंटनी और उसके बच्चे को जुदा न करे और सारा दूध न निकाल ले जो बच्चे के हक़ में मुज़िर हो , सवारी में भी शिद्दत से काम न ले और उसके और दूसरी ऊंटनियों के दरम्यान अद्ल व मसावात से काम ले। (((-दुनिया में कौन ऐसा सरबराहे ममलेकत है जो अपने एहकाम को इतनी शदीद पाबन्दियों में जकड़ दे और अपनी रिआया को इस क़द्र सहूलत दे दे , दुनिया के हुक्काम में तो इसका तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता है , हैरतअंगेज़ अम्र यह है के इस्लाम के ख़ोलफ़ा में भी दूर-दूर तक इस किरदार का पता नहीं मिलता है और हुकूमत का आग़ाज़ ही जब्र , ज़ोर और असीरी व ख़ानासोज़ी से होता है। ज़रूरत है के इस वसीयत नामे को बग़ौर पढ़ा जाए और इसकी एक-एक दिफ़ा पर ग़ौर किया जाए ताके यह अन्दाज़ा हो के इस्लामी सल्तनत में रिआया का क्या मरतबा होता है। हक़्क़े अल्लाह की अदायगी में किस क़द्र सहूलत फ़राहम की जाती है और इन्सानों की तरह जानवरों के साथ किस तरह बरताव किया जाता है।-)))

थके मान्दे ऊंट को दम लेने का मौक़ा दे और जिसके खुर घिस गए हों या पांव शिकस्ता हों उनके साथ नर्मी का बरताव करे , रास्ते में तालाब पड़ें तो उन्हें पानी पीने के लिये ले जाए और सरसब्ज़ रास्तों को छोड़कर बेआब व ग्याह रास्तों पर न ले जाए वक़्तन-फ़वक़्तन आराम देता रहे और पानी और सब्ज़े के मुक़ामात पर ठहरने की मोहलत दे यहाँ तक के हमारे पास इस आलम में पहुचे तो हुक्मे ख़ुदा से तन्दरूस्त हो गए हों व उनकी हड्डियों के गूदे बढ़ चुके हों। थके मान्दे और दरमान्दा न हों ताके किताबे ख़ुदा और सुन्नते रसूल (स 0) के मुताबिक़ उन्हें तक़सीम कर सकें के यह बात तुम्हारे लिये भी अज्रे अज़ीम का बाएस और हिदायत से क़रीबतर है , इन्शाअल्लाह।

26-आपका अहदनामा (बाज़ गवर्नरो के लिये जिन्हें सदक़ात की जमाआवरी के लिये रवाना फ़रमाया था)

मैं उन्हें हुक्म देता हूँ के अपने पोशीदा उमूर और मख़फ़ी आमाल में भी अल्लाह से डरते रहें जहां उसके अलावा कोई दूसरा गवाह और निगरां नहीं होता है और ख़बरदार ऐसा न हो के ज़ाहेरी मामेलात में ख़ुदा की इताअत करें और मख़फ़ी मसाएल में इसकी मुख़ालेफ़त करें , इसलिये के जिसके ज़ाहिर व बातिन और क़ौल व फ़ेल में इख़्तेलाफ़ नहीं होता है वही अमानते इलाही का अदा करने वाला और इबादते इलाही में मुख़लिस होता है और फ़िर हुक्म देता हूं के ख़बरदार लोगों से बुरे तरीक़े से पेश न आएं और उन्हें परेशान न करें और न उनसे इज़हारे इक़तेदार के लिये किनाराकशी करें के बहरहाल यह सब भी दीनी भाई हैं और हुक़ूक़ की अदाएगी में मदद करने वाले हैं।

देखो इन सदक़ात में तुम्हारा हिस्सा मुअय्यन है और तुम्हारा हक़ मालूम है लेकिन फ़ोक़रा व मसाकीन और फ़ाक़ाकश अफ़राद भी इस हक़ में तुम्हारे शरीक हैं , हम तुम्हें तुम्हारा पूरा हक़ देने वाले हैं लेहाज़ा तुम्हें भी इनका पूरा हक़ देना होगा के अगर ऐसा नहीं करोगे तो क़यामत के दिन सबसे ज़्यादा दुश्मन तुम्हारे होंगे और सबसे ज़्यादा बदबख़्ती इसी के लिये है जिसके दुश्मन बारगाहे इलाही में फ़ोक़रा व मसाकीन , साएलीन , महरूमीन , मक़रूज़ और ग़ुरबत ज़दा मुसाफ़िर हों और जिस शख़्स ने भी अमानत को मामूली तसव्वुर किया और ख़यानत की चरागाह में दाखि़ल हो गया और अपने नफ़्स और दीन को ख़यानतकारी से नहीं बचाया , उसने दुनियां में भी अपने को ज़िल्लत और रूसवाई की मन्ज़िल में उतार दिया और आखि़रत में तो ज़िल्लत व रूसवाई उससे भी ज़्यादा है और याद रखो के बदतरीन ख़यानत उम्मत के साथ ख़यानत है और बदतरीन फ़रेबकारी सरबराहे दीन के साथ फ़रेबकारी का बरताव है।

(((- काश दुनिया के तमाम हुक्काम को यह एहसास पैदा हो जाए के फ़ोक़रा व मसाकीन इस दुनिया में बे आसरा और बे सहारा हैं लेकिन आखि़रत में उनका भी वाली व वारिस है और वहां किसी साहबे इक़्तेदार का इक़्तेदार काम आने वाला नहीं है। अदालते इलाही में शख़्सियात का कोई असर नहीं है हर शख़्स को अपने आमाल का हिसाब देना होगा और इसके मवाख़ेज़ा और मुहासेबा का सामना करना होगा। वहाँ न किसी की कुर्सी काम आ सकती है और न किसी का तख़्त व ताज। अफ़राद के साथ ख़यानत तो बरदाश्त भी की जा सकती है के वह इन्फ़ेरादी मामला होता है और उसे अफ़राद माफ़ कर सकते हैं लेकिन क़ौम व मिल्लत के साथ ख़यानत नक़ाबिले बरदाश्त है के इसकी मुद्दई तमाम उम्मत होगी और इतने बड़े मुक़दमे का सामना करना किसी इन्सान के बस का काम नहीं है-)))

27-आपका अहदनामा (मोहम्मद बिन अबीबक्र के नाम- जब उन्हें मिस्र का हाकिम बनाया)

लोगों के सामने अपने शानों को झुका देना और अपने बरताव को नरम रखना , कुशादारोई से पेश आना और निगाह व नज़र में भी सब के साथ एक जैसा सुलूक करना ताके बड़े आदमियों को यह ख़याल न पैदा हो जाए के तुम उनके मफ़ाद में ज़ुल्म कर सकते हो और कमज़ोरों को तुम्हारे इन्साफ़ की तरफ़ से मायूसी न हो जाए , परवरदिगार रोज़े क़यामत तमाम बन्दों से उनके तमाम छोटे और बड़े ज़ाहिर और मख़फ़ी आमाल के बारे में मुहासेबा करेगा उसके बाद अगर वह अज़ाब करेगा तो तुम्हारे ज़ुल्म का नतीजा होगा और अगर माफ़ कर देगा तो उसके करम का नतीजा होगा।

बन्दगाने ख़ुदा! याद रखो के परहेज़गार अफ़राद दुनिया और आखि़रत के फ़वाएद लेकर आगे बढ़ गए वह अहले दुनिया के साथ उनकी दुनिया में शरीक रहे लेकिन अहले दुनिया उनकी आखि़रत में शरीक न हो सके , वह दुनिया में बेहतरीन अन्दाज़ से ज़िन्दगी गुज़ारते रहे जो सबने खाया उससे अच्छा पाकीज़ा खाना खाया और वह तमाम लज़्ज़तें हासिल कर लीं जो ऐश परस्त हासिल करते हैं और वह सब कुछ पा लिया जो जाबिर और तकब्बुर अफ़राद के हिस्से में आता है। इसके बाद वह ज़ादे रराह लेकर गए जो मन्ज़िल तक पहुंचा दे और वह तिजारत करके गए जिसमें फ़ायदा ही फ़ायदा हो , दुनिया में रहकर दुनिया की लज़्ज़त हासिल की और यह यक़ीन रखे रहे के आखि़रत में परवरदिगार के जवारे रहमत में होंगे , जहां न उनकी आवाज़ ठुकराई जाएगी और न किसी लज़्ज़त में इनके हिस्से में कोई कमी होगी।

बन्दगाने ख़ुदा! मौत और उसके क़ुर्ब से डरो उसके लिये सरो सामान मुहैया कर लो के वह एक अज़ीम अम्र और बड़े हादसे के साथ आने वाली है , ऐसे ख़ैर के साथ जिसमें कोई शर न हो या ऐसे शर के साथ जिसमें कोई ख़ैर न हो , जन्नत या जहन्नम की तरफ़ उनके लिये अमल करने वालों से ज़्यादा क़रीबतर कौन हो सकता है तुम वह हो जिसका मौत मुसलसल पीछा किये हुए है , तुम ठहर जाओगे तब भी तुम्हें पकड़ेगी और फ़रार करोगे तब भी अपनी गिरफ़्त में ले लेगी वह तुम्हारे साथ तुम्हारे साये से ज़्यादा चिपकी हुई है। उसे तुम्हारी पेशानियों के साथ बान्ध दिया गया है और दुनिया तुम्हारे पीछे से बराबर लपेटी जा रही है , इस जहन्नम से डरो जिसकी गहराई बहुत दूर तक है और इसकी गर्मी बेहद शदीद है और इसका अज़ाब भी बराबर ताज़ा होता रहेगा।

वह घर ऐसा है जहां न रहमत का गुज़र है और न वहां कोई फ़रयाद सुनी जाती है और न किसी रंज व ग़म की कशाइश का कोई इमकान है अगर तुम लोग यह कर सकते हो के तुम्हारे दिल में ख़ौफ़े ख़ुदा शदीद हो जाए और तुम्हें इससे हुस्ने ज़न हासिल हो जाए तो इन दोनों को जमा कर लाो के बन्दे का हुस्ने ज़न उतना ही होता है जितना ख़ौफ़े ख़ुदा होता है और बेहतरीन हुस्ने ज़न रखने वाला वही है जिसके दिल में शदीदतरीन ख़ौफ़े ख़ुदा पाया जाता हो , मोहम्मद बिन अबी बक्र! याद रखो के मैंने तुमको अपने बेहतरीन लशकर अहले मिस्र पर हाकिम क़रार दिया है।

(((- बेहतरीन ज़िन्दगी से मुराद क़स्रे शाही में क़याम और लज़ीज़तरीन ग़िज़ाएं नहीं हैं , बेहतरीन ज़िन्दगी से मुराद तमाम असबाब हैं जिनसे ज़िन्दगी गुज़र जाए और इन्सान किसी हराम और नाजाएज़ में मुब्तिला न हो। मौत के आने का मतलब यह नहीं है के आखि़रत में या सिर्फ़ ख़ैर है या सिर्फ़ शर और मख़लूत आमाल वालों की कोई जगह नहीं है , मक़सद यह है के आखि़रत के सवाब व अज़ाब का फ़लसफ़ा यही है के इसमें किसी तरह का इख़लात व इमतेराज नहीं है , दुनिया के हर आराम में तकलीफ़ शामिल है और हर तकलीफ़ में आराम का कोई न कोई पहलू ज़रूर है लेकिन आखि़रत में अज़ाब का एक लम्हा भी वह है जिसमें किसी राहत का तसव्वुर नहीं है और सवाब का एक लम्हा भी वह है जिसमें किसी तकलीफ़ का कोई इमकान नहीं है। लेहाज़ा इन्सान का फ़र्ज़ है के उस अज़ाब से डरे और इस सवाब का इन्तेज़ाम कर ले-)))

अब तुमसे मुतालेबा यह है के अपने नफ़्स की मुख़ालफ़त करना और अपने दीन की हिफ़ाज़त करना चाहे तुम्हारे लिये दुनिया में सिर्फ़ एक ही साअत बाक़ी रह जाए और किसी मख़लूक़ को ख़ुश करके ख़ालिक़ को नाराज़ न करना के ख़ुदा हर एक के बदले काम आ सकता है लेकिन इसके बदले कोई काम नहीं आ सकता है।

नमाज़ उसके मुक़र्ररा औक़ात में अदा करना , न ऐसा हो के फ़ुर्सत हासिल करने के लिये पहले अदा कर लो और न ऐसा हो के मशग़ूलियत की बिना पर ताख़ीर कर दो। याद रखो के तुम्हारे हर अमल को नमाज़ का पाबन्द होना चाहिये। याद रखो के इमामे हिदायत और पेशवाए हलाकत एक जैसे नहीं हो सकते हैं नबी का दोस्त और दुश्मन यकसाँ नहीं होता है। रसूले अकरम (स 0) ने ख़ुद मुझसे फ़रमाया है के “ मैं अपनी इमामत के बारे में न किसी मोमिन से ख़ौफ़ज़दा हूँ और न मुशरिक से , मोमिन को अल्लाह उसके ईमान की बिना पर बुराई से रोक देगा और मुशरिक को उसके शिर्क की बिना पर मग़लूब कर देगा , सारा ख़तरा उन लोगों से है जो ज़बान के आलिम हों और दिल के मुनाफ़िक़। कहते वही हैं जो तुम सब पहचानते हो और करते वह हैं जिसे तुम बुरा समझते हो। ”

28-आपका मकतूबे गिरामी (माविया के ख़त के जवाब में जो बक़ौल सय्यद रज़ी आपका बेहतरीन ख़ुत्बा है)

अम्माबाद! मेरे पास तुम्हारा ख़त आया है जिसे तुमने रसूले अकरम (स 0) के दीने ख़ुदा के लिये मुन्तख़ब होने और आपके परवरदिगार की तरफ़ से असहाब के ज़रिये उनको क़ूवत व तवानाई मिलने का ज़िक्र किया है लेकिन यह तो एक बड़ी अजीब व ग़रीब बात है जो ज़माने ने तुम्हारी तरफ़ से छिपाकर रखी थी के तुम हमको उन एहसानात की इत्तेलाअ दे रहे हो जो परवरदिगार ने हमारे ही साथ किये हैं और उस नेमत की ख़बर दे रहे हो जो हमारे ही पैग़म्बर (स 0) को मिली है। गोया के तुम मक़ामे हिज्र की तरफ़ ख़ुरमे भेज रहे हो या उस्ताद को तीरअन्दाज़ी की दावत दे रहे हो। इसके बाद तुम्हारा ख़याल है के फ़ुलां और फ़ुलां तमाम अफ़राद बेहतर थे तो यह ऐसी बात है के अगर सही भी हो तो इस काम से तुम्हारा कोई ताल्लुक़ नहीं है और अगर ग़लत भी हो तो तुम्हारा कोई नुक़सान नहीं है। तुम्हारा इस फ़ाज़िल व मफ़ज़ूल , हाकिम व रिआया के मसले से क्या ताल्लुक़ है , भला आज़ादकरदा ग़ुलाम और उनकी औलाद को मुहाजेरीन अव्वलीन के दरम्यान इम्तियाज़ क़ायम करने , उनके दरजात का ताअय्युन करने और उनके तबक़ात के पहुंचाने का क्या हक़ है (यह तो उस वक़्त मुसलमान भी नहीं थे) अफ़सोस के जुए के तीरों के साथ बाहर के तीर भी आवाज़ निकालने लगे और मसाएल में वह लोग भी करने लगे जिनके खि़लाफ़ ख़ुद ही फ़ैसला होने वाला है।

(((- माविया ने ख़त अबू इमामा बाहेली के ज़रिये भेजा था और इसमें मुतादद मसाएल की तरफ़ इशारा किया था , सबसे बड़ा मसला हज़रात शैख़ीन के फ़ज़ाएल का था के हज़रत अली (अ 0) के साथ अकसरीयत उन्हीं अफ़राद की थी जो आपको सिलसिले से चौथा ख़लीफ़ा तस्लीम करते थे , अब अगर उनके बारे में अपनी सही राय का इज़हार कर दे तो क़ौम बदज़न हो जाएगी और मुआशरे में एक नया फ़ितना खड़ा हो जाएगा और अगर उनके फ़ज़ाएल का इक़रार कर लें तो गोया इन तमाम कलेमात की तकज़ीब कर दी जो कल तक अपनी फ़ज़ीलत या मज़लूमियत के बारे में बयान करते थे। हज़रत ने इस हस्सास सूरते हाल का बख़ूबी अन्दाज़ा कर लिया और वाज़ेह जवाब देने के बजाय माविया को इस मसले से अलग रहने की तलक़ीन फ़रमाई और उसे इसकी औक़ात से भी बाख़बर कर दिया के यह मसले सद्रे इस्लाम का है और उस वक़्त तो तुम्हारा बाप भी मुसलमान नहीं था तुम्हारा क्या ज़िक्र है ? लेहाज़ा ऐसे मसाएल में तुम्हें राय देने का कोई हक़ नहीं है , अलबत्ता यह बहरहाल साबित हो जाता है के इन फ़ज़ाएल में तुम्हारे ख़ानदान का कोई ज़िक्र नहीं है।-)))

ऐ शख़्स तू अपने लंगड़ेपन को देखकर अपनी हद पर ठहरता क्यों नहीं है और अपनी कोताह दस्ती को समझता क्यों नहीं है और जहां क़ज़ा व क़द्र का फै़सला तुझे पीछे हटा चुका है वहीं पीछे हट कर जाता क्यों नहीं है। तुझे किसी मग़लूब की शिकस्त या ग़ालिब की फ़तेह से क्या ताल्लुक़ है। तू तो हमेशा गुमराहियों में हाथ पांव मारने वाला और दरम्यानी राह से इन्हेराफ़ करने वाला है , मैं तुझे बाख़बर नहीं कर रहा हूँ बल्कि नेमते ख़ुदा का तज़किरा कर रहा हूं वरना क्या तुझे नहीं मालूम है के मुहाजेरीन व अन्सार की एक बड़ी जमाअत ने राहे ख़ुदा में जानें दी हैं और सब साहेबाने फ़ज़्ल हैं लेकिन जब हमारा कोई शहीद हुआ है तो उसे सय्यदुशशोहदा कहा गया है और रसूले अकरम (स 0) ने उसके जनाज़े की नमाज़ में सत्तर तकबीरें कही हैं। इसी तरह तुझे मालूम है के राहे ख़ुदा में बहुत सों के हाथ कटे हैं और साहेबाने शरफ़ हैं लेकिन जब हमारे आदमी के हाथ काटे गए तो उसे जन्नत में तय्यार और ज़ुलजनाहीन बना दिया गया और अगर परवरदिगार ने अपने मुंह से अपनी तारीफ़ से मना न किया होता तो बयान करने वाला बेशुमार फ़ज़ाएल बयान करता जिन्हें साहेबाने ईमान के दिल पहचानते हैं और सुनने वालों के कान भी अलग नहीं करना चाहते हैं। छोड़ो उनका ज़िक्र जिनका तीर निशाने से ख़ता करने वाला है , हमें देखो जो परवरदिगार के बराहेरास्त साख़्ता व परदाख़्ता हैं और बाक़ी लोग हमारे एहसानात का नतीजा हैं। हमारी क़दीमी इज़्ज़त और तुम्हारी क़ौम पर बरतरी हमारे लिये इस अम्र से मानेअ नहीं हुई के हमने तुमको अपने साथ शामिल कर लिया तो तुमसे रिश्ते लिये और तुम्हें रिश्ते दिये जो आम से बराबर के लोगों में किया जाता है और तुम हमारे बराबर के नहीं हो और हो भी किस तरह सकते हो जबके हममें से रसूले अकरम (स 0) हैं और तुममें से इनकी तकज़ीब करने वाला , हम में से असदुल्लाह हैं और तुममें से असदुल हलाफ़ , हम में सरदाराने जवानाने जन्नत हैं और तुम में जहन्नुमी लड़के , हममें सय्यदते निसाइल आलमीन हैं और तुम में हम्मालतल हतब और ऐसी बेशुमार चीज़ें हैं जो हमारे हक़ में हैं और तुम्हारे खि़लाफ़। हमारा इस्लाम भी मशहूर है और हमारा क़ब्ले इस्लाम का शरफ़ भी नाक़ाबिले इनकार है और किताबे ख़ुदा ने हमारे मुन्तशिर औसाफ़ को जमा कर दिया है , यह कहकर के “ क़राबतदार बाज़ बाज़ के लिये ऊला हैं ” और यह कहकर के “ इब्राहीम के लिये ज़्यादा क़रीबतर वह लोग हैं जिन्होंने उनका इत्तेबाअ किया है और यह पैग़म्बर (स 0) और साहेबाने ईमान और अल्लाह साहेबाने ईमान का वली है। (((-यह उस अम्र की तरफ़ इशारा है के रसूले अकरम (स 0) ने अपने हाथ की परवरदा लड़कियों का अक़्द बनी उमय्या में कर दिया और अबू सुफ़ियान की बेटी उम्मे हबीबा से ख़ुद अक़्द कर लिया हालांके आम तौर से लोग रिश्तों के लिये बराबरी तलाश करते हैं , मगर चूंके इस्लाम ने ज़ाहिरी कलमे को काफ़ी क़रार दिया है लेहाज़ा हमने भी रिश्तेदारी क़ायम कर ली और तुम्हारी औक़ात का ख़याल नहीं किया ताके मज़हब समाज पर हाकिम रहे और समाज मज़हब पर हुकूमत न करने पाए।-)))

यानी हम क़राबत के एतबार से भी ऊला हैं और इताअत व इत्त्तेबाअ के ऐतबार से भी , इसके बाद जब मुहाजेरीन ने अन्सार के खि़लाफ़ रोज़ सक़ीफ़ा क़राबते पैग़म्बर (स 0) से इस्तेदलाल किया और कामयाब भी हो गए , तो अगर कामयाबी का राज़ यही है तो हक़ हमारे साथ है न के तुम्हारे साथ और अगर कोई और दलील है तो अन्सार का दावा बाक़ी है।

तुम्हारा ख़याल है के मैं ख़ोलफ़ा से हसद रखता हूँ और मैंने सबके खि़लाफ़ बग़ावत की है तो अगर यह सही भी है तो इसका ज़ुल्म तुम पर नहीं है के तुमसे माज़ेरत की जाए , ( यह वह ग़लती है जिससे तुम पर कोई हर्फ़ नहीं आता) बक़ौल शायर

और तुम्हारा यह कहना के मैं इस तरह खींचा जा रहा था जिस तरह नकेल डालकर ऊंट को खींचा जाता है ताके मुझसे बैअत ली जाए तो ख़ुदा की क़सम तुमने मेरी मज़म्मत करना चाही और नादानिस्ता तौर पर तारीफ़ कर बैठे और मुझे रूसवा करना चाहा था मगर ख़ुद रूसवा हो गए।

मुसलमान के लिये इस बात में कोई ऐब नहीं है के वह मज़लूम हो जाए जब तक के वह दीन के मामले में शक में मुब्तिला न हो , और इसका यक़ीन शुबह में न पड़ जाए , मेरी दलील असल में दूसरों के मुक़ाबले में है लेकिन जिस क़द्र मुनासिब था मैंने तुमसे भी बयान कर लिया।

इसके बाद तुमने मेरे और उस्मान के मामले का ज़िक्र किया है तो इसमें तुम्हारा हक़ है के तुम्हें जवाब दिया जाए इसलिये के तुम उनके क़राबतदार हो लेकिन यह सच सच बताओ के हम दोनों में उनका ज़्यादा दुश्मन कौन था और किसने उनके क़त्ल का सामान फ़राहम किया था , उसने जिसने नुसरतत की पेशकश की और उसे बिठा दिया गया और रोक दिया गया या उसने जिससे नफ़रत का मुतालेबा किया गया और उसने सुस्ती बरती और मौत का रूख़ उनकी तरफ़ मोड़ दिया यहां तक के क़ज़ा व क़द्र ने अपना काम पूरा कर दिया , ख़ुदा की क़सम मैं हरगिज़ इसका मुजरिम नहीं हूँ और अल्लाह उन लोगों को भी जानता है जो रोकने वाले थे और अपने भाइयों से कह रहे थे के हमारी तरफ़ चले आओ और जंग में बहुत कम हिस्सा लेने वाले थे। मैं उस बात की माज़ेरत नहीं कर सकता के मैं उनकी बिदअतों पर बराबर एतराज़ कर रहा था के अगर यह इरशाद और हिदायत भी कोई गुनाह था तो बहुत से ऐसे लोग होते हैं जिनकी बेगुनाह भी मलामत की जाती है और “ कभी कभी वाक़ई नसीहत करने वाले भी बदनाम हो जाते हैं ” मैंने अपने इमकान भर इसलाह की कोशिश की और मेरी तौफ़ीक़ सिर्फ़ अल्लाह के सहारे है , उसी पर मेरा भरोसा है और उसी की तरफ़ मेरी तवज्जो है। ”

तुमने यह भी ज़िक्र किया है के तुम्हारे पास मेरे और मेरे असहाब के लिये तलवार के अलावा कुछ नहीं है तो यह कहकर तुमने रोते को हंसा दिया है , भला तुमने औलादे अब्दुल मुत्तलिब को कब दुश्मनों से पीछे हटते या तलवार से ख़ौफ़ज़दा होते देखा है ? “ ज़रा ठहर जाओ के हमल मैदान जंग तक पहुंच जाए ” ( शायर) (((-क़यामत की बातत है के माविया तलवार की धमकी साहबे ज़ुलफ़ेक़ार को दे रहा है जबके उसे मालूम है के अली (अ 0) उस बहादुर का नाम है जिसने दस बरस की उम्र में तमाम कुफ़्फ़ार व मुशरेकीन से रसूले अकरम (स 0) को बचाने का वादा किया था और हिजरत की रात तलवार की छांव में निहायत सुकून व इतमीनान से सोया है और बद्र के मैदान में तमाम रोसाए कुफ़्फ़ार व मुशरेकीन और ज़ामाए बनी उमय्या का तनो तन्हा ख़ात्मा कर दिया है।-))) अनक़रीब जिसे तुम ढूंढ रहे हो वह तुम्हें ख़ुद ही तलाश कर लेगा और जिस चीज़ को बईद ख़याल कर रहे हो उसे क़रीब कर देगा। अब मैं तुम्हारी तरफ़ मुहाजेरीन व अन्सार के लशकर के साथ बहुत जल्द आ रहा हूँ और मेरे साथ वह भी हैं जो उनके नक़्शे क़दम पर ठीक तरीक़े से चलने वाले हैं , इनका हमला शदीद होगा और ग़ुबारे जंग सारी फ़िज़ा में मुन्तशिर होगा। यह मौत का लिबास पहने होंगे और उनकी नज़र में बेहतरीन मुलाक़ात परवरदिगार की मुलाक़ात होगी , उनके साथ असहाबे बद्र की ज़ुर्रियत और बनी हाशिम की तलवारें होंगी। तुमने उनकी तलवारों की काट अपने भाई , मामू , नाना और ख़ानदान वालों में देख ली है और वह ज़ालिमों से अब भी दूर नहीं है। ”