52-आपका मकतूबे गिरामी (शहरो के गर्वनरो के नाम- नमाज़ के बारे में)
अम्माबाद- ज़ोहर की नमाज़ उस वक़्त तक अदा कर देना जब आफ़ताब का साया बकरियों के बाड़े की दीवार के बराबर हो जाए और अस्र की नमाज़ उस वक़्त तक पढ़ा देना जब आफ़ताब रौशन और सफ़ेद रहे और दिन में इतना वक़्त बाक़ी रह जाए जब मुसाफ़िर दो फ़रसख़ जा सकता हो। मग़रिब उस वक़्त अदा करना जब रोज़ेदार इफ़्तार करता है और हाजी अरफ़ात से कूच करता है और इशा उस वक़्त पढ़ना जब श़फ़क़ छिप जाए और एक तिहाई रात न गुज़रने पाए
,
सुबह की नमाज़ उस वक़्त अदा करना जब आदमी अपने साथी के चेहरे को पहचान सके। इनके साथ नमाज़़ पढ़ो कमज़ोरतरीन आदमी का लेहाज़ रखकर
,
और ख़बरदार इनके लिये सब्र आज़मा न बन जाओ। (((-वाज़ेह रहे के यह ख़त रूसा शहर के नाम लिखा गया है और उनके लिये नमाज़े जमाअत के औक़ात मुअय्यन किये गये हैं
,
इसका असल नमाज़ से कोई ताल्लुक़ नहीं है
,
अस्ल नमाज़ के औक़ात सूरए इसरा में बयान कर दिये गये हैं यानी ज़वाले आफ़ताब
,
तारीकीए शब और फ़ज्र और उन्हीं तीन औक़ात में पांच नमाज़ों को अदा हो जाना है।
,
जिसमें तक़दीम देना ख़ैर नमाज़ी के इख़्तेयार में है के फ़ज्र के एक डेढ़ घन्टे में दो रकअत कब अदा करेगा या ज़ोहर व अस्र के छः घण्टे में आठ रकअत किस वक़्त अदा करेगा या तारीकीए शब के बाद सात रकत मग़रिब व इशा कब पढ़ेगा
,
सरकारी जमाअत में इस तरह की आज़ादी मुमकिन नहीं है
,
इसका वक़्त मुअय्यन होना ज़रूरी है ताके लोग नमाज़ में शिरकत कर सकें
,
लेहाज़ा हज़रत ने इस दौर के हालात पेशे नज़र एक वक़्त मुअय्यन कर दिया
,
वरना आज के ज़माने में दो फ़रसख़ रास्ता पांच मिनट में तय होता है जो क़तअन इस मकतूबे गिरामी में मक़सूद नहीं है-)))
53-आपका मकतूबे गिरामी
(
जिसे मालिक बिन अश्तर नग़मी के नाम तहरीर फ़रमाया है
,
उस वक़्त जब उन्हें मोहम्मद बिन अबीबक्र के हालात के ख़राब हो जाने के बाद मिस्र और उसके एतराफ़ का गवर्नर मुक़र्रर फ़रमाया और यह अहदनामा हज़रत के तमाम सरकारी ख़ुतूत में सबसे ज़्यादा मुफ़स्सिल और महासिन कलाम का जामा है)
बिस्मिल्लाहिर रहमानिर्रहीम
यह वह क़ुरान है जो बन्दए ख़ुदा
,
अमीरूल मोमेनीन अली (अ
0) ने मालिक बिन अश्तर नग़मी के नाम लिखा है जब उन्हें ख़ेराज जमा करने
,
दुश्मन से जेहाद करने
,
हालात की इस्लाह करने और शहरों की आबादकारी के लिये मिस्र का गवर्नर क़रार देकर रवाना किया।
सबसे पहला अम्र यह है के अल्लाह से डरो
,
उसकी इताअत को इख़्तेयार करो और जिन फ़राएज़ व सुन्ना का अपनी किताब में हुक्म दिया गया है उनका इत्तेबाअ करो के कोई शख़्स उनके इत्तेबाअ के बग़ैर नेक बख़्त नहीं हो सकता है और कोई शख़्स उनके इन्कार और बरबादी के बग़ैर बदबख़्त नहीं क़रार दिया जा सकता है
,
अपने दिल
,
हाथ और ज़बान से दीने ख़ुदा की मदद करते रहना के ख़ुदाए
“
इज़्ज़्समहू
”
ने यह ज़िम्मेदारी ली है के अपने मददगारों की मदद करेगा और अपने दीन की हिमायत करने वालों को इज़्ज़त व शरफ़ इनायत करेगा।
दूसरा हुक्म यह है के अपने नफ़्स के ख़्वाहिशात को कुचल दो और उसे मुंह ज़ोरियों से रोके रहो के नफ़्स बुराइयों का हुक्म देने वाला है जब तक परवरदिगार का रहम शामिल न हो जाए इसके बाद मालिक यह याद रखना के मैंने तुमको ऐसे इलाक़े की तरफ़ भेजा है जहां अद्ल व ज़ुल्म की मुख़्तलिफ़ हुकूमतें गुज़र चुकी हैं और लोग तुम्हारे मामलात को इस नज़र से देख रहे हैं जिस नज़र से तुम उनके आमाल को देख रहे थे और तुम्हारे बारे में वही कहेंगे जो तुम दूसरों के बारे में कह रहे थे
,
नेक किरदार बन्दों की शिनाख़्त इस ज़िक्रे ख़ैर से होती है जो उनके लिये लोगों की ज़बानों पर जारी होता है लेहाज़ा तुम्हारा महबूबतरीन ज़ख़ीराए अमले स्वालेह को होना चाहिये
,
ख़्वाहिशात को रोक कर रखो और जो चीज़ हलाल न हो उसके बारे में नफ़्स को सर्फ़ करने से कंजूसी करो के यही कंजूसी इसके हक़ में इन्साफ़ है चाहे उसे अच्छा लगे या बुरा
,
रिआया के साथ मेहरबानी और मोहब्बतत व रहमत को अपने दिल का शोआर बना लो और ख़बरदार इनके हक़ में फाड़ खाने वाले दरिन्दे के मिस्ल न हो जाना के उन्हें खा जाने ही को ग़नीमत समझने लगो। के मख़लूक़ाते ख़ुदा की दो क़िस्में हैं
,
बाज़ तुम्हारे दीनी भाई हैं और बाज़ खि़लक़त में तुम्हारे जैसे बशर हैं जिनसे लग़्ज़िशें भी हो जाती हैं और उन्हें ख़ताओं का सामना भी करना पड़ता है और जान बूझकर या धोके से उनसे ग़लतियां भी हो जाती हैं। लेहाज़ा उन्हें वैसे ही माफ़ कर देना जिस तरह तुम चाहते हो के परवरदिगार तुम्हारी ग़लतियों से दरगुज़र करे के तुम उनसे बालातर हो और तुम्हारा वलीए अम्र तुमसे बालातर है और परवरदिगार तुम्हारे वाली से भी बालातर है और उसने तुमसे उनके मामलात की अन्जामदही का मुतालबा किया है और उसे तुम्हारे लिये ज़रियाए आज़माइश बना दिया है और ख़बरदार अपने नफ़्स को अल्लाह के मुक़ाबले पर न उतार देना। (((-यह इस्लामी निज़ाम का इम्तेयाज़ी नुक्ता है के इस निज़ाम में मज़हबी तास्सुब से काम नहीं लिया जाता है बल्कि हर शख़्स को बराबर के हुक़ूक़ दिये जाते हैं। मुसलमान का एहतेराम उसके इस्लाम की बिना पर होता है और ग़ैर मुस्लिम के बारे में इन्सानी हुक़ूक़ का तहफ़्फ़ुज़ किया जाता है और उन हुक़ूक़ में बुनियादी नुक्ता यह है के हाकिम हर ग़लती का मवाख़ेज़ा न करे बल्कि उन्हें इन्सान समझ कर उनकी ग़लतियों को बरदाश्त करे और उनकी ख़ताओं से दरगुज़र करे और यह ख़याल रखे के मज़हब का एक मुस्तक़िल निज़ाम है
“
रहम करो ताके तुम पर रहम किया जाए
’
अगर इन्सान अपने से कमज़ोर अफ़राद पर रहम नहीं करता है तो उसे जब्बार समावात व अर्ज़ से तवक़्क़ो नहीं करनी चाहिये
,
क़ुदरत का अटल क़ानून है के तुम अपने से कमज़ोर पर रहम करो ताके परवरदिगार तुम पर रहम करे और तुम्हारी ख़ताओं को माफ़ कर दे जिस पर तुम्हारी आक़ेबत और बख़्शिश का दारोमदार है-)))
इसलिये के लोगों में बहरहाल कमज़ोरियां पाई जाती हैं और उनकी परदापोशी की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी वाली पर है लेहाज़ा ख़बरदार जो ऐब तुम्हारे सामने नहीं है उसका इन्केशाफ़ न करना
,
तुम्हारी ज़िम्मेदारी सिर्फ़ उयूब की इस्लाह कर देना है और ग़ायबात का फ़ैसला करने वाला परवरदिगार है जहां तक मुमकिन हो लोगों के उन तमाम उयूब की परदा पोशी करते रहो जिन अपने उयूब की परदापोशी की परवरदिगार से तमन्ना करते हो
,
लोगों की तरफ़ से कीना की कर गिरह को खोल दो और दुश्मनी की हर रस्सी को काट दो और जो बात तुम्हारे लिये वाज़ेह न हो उससे अन्जान बन जाओ और हर चुग़लख़ोर की तस्दीक़ में उजलत से काम न लो के चुग़लख़ोर हमेशा ख़यानततकार होता है चाहे वह मुख़लेसीन ही के भेस में क्यों न आए।
(
मशावेरत) देखो अपने मशविरे में किसी कंजूसी को शामिल न करना के वह तुमको फ़ज़्ल व करम के रास्ते से हटा देगा और फ़क़्र व फ़ाक़े का ख़ौफ़ दिलाता रहेगा और इसी तरह बुज़दिल से मशविरा न करना के वसह हर मामले में कमज़ोर बना देगा
,
और हरीस से भी मशविरा न करना के वह ज़ालिमाना तरीक़े से माल जमा करने को भी तुम्हारी निगाहों में आरास्ता कर देगा
,
यह कंजूसी
,
बुज़दिली और लालच अगरचे अलग-अलग जज़्बात व ख़साएल हैं लेकिन इन सबका क़द्रे मुश्तर्क परवरदिगार से सूए ज़न है जिसके बाद इन ख़सलतों का ज़हूर होता है।
(
वोज़रात): और देखो तुम्हारे वज़ीरो में सबसे ज़्यादा बदतर वह है जो तुमसे पहले अशरार का वज़ीर रह चुका हो और उनके गुनाहों में शरीक रह चुका हो
,
लेहाज़ा ख़बरदार! ऐसे अफ़राद को अपने ख़्वास में शामिल न करना के यह ज़ालिमों के मददगार और ख़यानत कारों के भाई बन्द हैं और तुम्हें इनके बदले बेहतरीन अफ़राद मिल सकते हैं जिनके पास उन्हीं की जैसी अक़्ल और कारकर्दगी हो और उनके जैसे गुनाहों के बोझ और ख़ताओं के अम्बार न हों
,
न उन्होंने किसी ज़ालिम की उसके ज़ुल्म में मदद की हो और न किसी गुनाहगार का उसके गुनाह में साथ दिया हो
,
यह वह लोग हैं जिनका बोझ तुम्हारे लिये हल्का होगा और यह तुम्हारे बेहतरीन मददगार होंगे और तुम्हारी तरफ़ मोहब्बत का झुकाव भी रखते होंगे और अग़यार से मुहब्बत भी न रखते होंगे। उन्हीं को अपने मख़सूस जलसो में अपना मुसाहब क़रार देना और फिर उनमें भी सबसें ज़्यादा हैसियत उसे देना जो हक़ के हर्फे तल्ख़ को कहने की ज़्यादा हिम्मत रखता हो और तुम्हारे किसी ऐसे अमल में तुम्हारा साथ न दे जिसे परवरदिगार अपने औलिया के लिये न पसन्द करता हो चाहे वह तुम्हारी ख़्वाहिशात से कितनी ज़्यादा मेल क्यों न खाती हो।
मसाहेबत: अपना क़रीबी राबेता अहले तक़वा और अहले सदाक़त से रखना और उन्हें भी इस अम्र की तरबीयत देना के बिला सबब तुम्हारी तारीफ़ न करें और किसी ऐसे बेबुनियाद अमल का ग़ुरूर न पैदा कराएं जो तुमने अन्जाम न दिया हो के ज़्यादा तारीफ़ से ग़ुरूर पैदा होता है और ग़ुरूरे इन्सान को सरकशी से क़रीबतर बना देता है।
देखो ख़बरदार! नेक किरदार और बदकिरदार तुम्हारे नज़दीक एक जैसे न होने पाएं के इस तरह नेक किरदारों में नेकी से बददिली पैदा होगी और बदकिरदारों में बदकिरदारी का हौसला पैदा होगा। हर शख़्स के साथ वैसा ही बरताव करना जिसके क़ाबिल उसने अपने को बनाया है और याद रखना के हाकिम में जनता से हुस्ने ज़न की उसी क़द्र तवक़्क़ो करनी चाहिये जिस क़द्र उनके साथ एहसान किया है और उनके बोझ को हलका बनाया है और उनको किसी ऐसे काम पर मजबूर नहीं किया है जो उनके इमकान में न हो
,
लेहाज़ा तुम्हारा बरताव इस सिलसिले में ऐसा ही होना चाहिये जिससे तुम जनता से ज़्यादा से ज़्यादा हुस्ने ज़न पैदा कर सको के यह हुस्ने ज़न बहुत सी अन्दरूनी ज़हमतों को खत्म कर देता है और तुम्हारे हुस्ने ज़न का भी सबसे ज़्यादा हक़दार वह है जिसके साथ तुमने बेहतरीन सलूक किया है। (((-इन बातो में ज़िन्दगी के मुख़तलिफ़ हिस्सो के बारे में हिदायत का ज़िक्र किया गया है और इस नुक्ते की तरफ़ तवज्जो दिलाई गई है के हाकिम को ज़िंदगी के किसी भी हिस्से से ग़ाफ़िल नहीं होना चाहिये और किसी मोक़े पर भी कोई ऐसा क़दम नहीं उठाना चाहिये जो हुकूमत को तबाह व बरबाद कर दे और आम जनता के फ़ायदे को ग़फलत की नज़र करके उन्हें ज़ुल्म व सितम का निशाना बना दे-)))
सबसे ज़्यादा बदज़नी का हक़दार वह है जिस का बरताव तुम्हारे साथ ख़राब रहा हो
,
देखो किसी ऐसी नेक सुन्नत को मत तोड़़ देना जिस पर इस उम्मत के बुज़ुर्गों ने अमल किया है और उसी के ज़रिये समाज में उलफ़त क़ायम होती है और जनता के हालात की इस्लाह हुई है और किसी ऐसी सुन्नत को ईजाद न करना जो गुज़िश्ता सुन्नतों के हक़ में नुक़सानदेह हो के इस तरह अज्र उसके लिये होगा जिसने सुन्नत को ईजाद किया है और गुनाह तुम्हारी गर्दन पर होगा के तुमने उसे तोड़ दिया है।
ओलमा के साथ इल्मी मुबाहेसे और हुकमा के साथ सन्जीदा बहस जारी रखना उन मसाएल के बारे में जिनसे इलाक़े के काम की इस्लाह होती है और काम क़ायम रहते हैं जिनसे गुज़िश्ता अफ़राद के हालात की इस्लाह हुई है। और याद रखो के जनता के बहुत से तबक़ात होते हैं जिनमें किसी की इस्लाह दूसरे के बग़ैर नहीं हो सकती है और कोई दूसरे से मुस्तग़नी नहीं हो सकता है। उन्हीं में अल्लाह के लशकर के सिपाही हैं और उन्हीं में आम व ख़ास काम के कातिब हैं उन्हीं में अदालत से फ़ैसले करने वाले हैं और उन्हीं में इन्साफ़ और नर्मी क़ायम करने वाले गवर्नर हैं उन्हीं में मुसलमान अहले ख़ेराज और काफ़िर अहले ज़िम्मा हैं और उन्हीं में तिजारत और सनअत (तिजारत पेशा व अहले हरफ़ा) वाले अफ़राद हैं और फिर उन्हीं में फ़ोक़रा और मसाकीन का पस्त तरीन तबक़ा भी शामिल है और सबके लिये परवरदिगार ने एक हिस्सा मुअय्यन कर दिया है। और अपनी किताब के फ़राएज़ या अपने पैग़म्बर की सुन्नत में इसकी हदें क़ायम कर दी हैं और यह वह अहद है जो हमारे पास महफ़ूज़ है। फ़ौजी दस्ते बहुक्मे ख़ुदा से जनता के मुहाफ़िज़ और वालियों की ज़ीनत हैं
,
उन्हीं से दीन की इज़्ज़त है और यही अम्न व अमान के वसाएल हैं। रईयत का (नज़्म व नस्क़) काम का क़याम उनके बग़ैर नहीं हो सकता है और यह दस्ते भी क़ायम नहीं रह सकते हैं। जब ततक वह ख़ेराज न निकाल दिया जाए जिसके ज़रिये से दुश्मन से जेहाद की ताक़त फ़राहम होती है और जिसपर हालात की इस्लाह में एतमाद किया जाता है और वही इनके हालात के दुरूस्त करने का ज़रिया है और इसके बाद इन दोनों सनफ़ों (तबक़ों) का क़याम काज़ियों आमिलों और कातिबों के तबक़े के बग़ैर नहीं हो सकता है के यह सब अहद व पैमान को मुस्तहकम बनाते हैं मामूली और ग़ैर मामूली मामलात में उनपपर एतमाद किया जाता है
,
इसके बाद उन सबका क़याम सौदागरों और सनअतकारों पर होता है के वह वसाएले हयात को फ़राहम करते हैं
,
बाज़ारों को क़ायम रखते हैं और लोगों की ज़रूरत का सामान उनकी ज़हमत के बग़ैर फ़राहम कर देते हैं। इसके बाद फ़ोक़रा व मसाकीन का पस्त तबक़ा है जो मदद का हक़दार है और अल्लाह के यहां हर एक के लिये सामाने हयात मुक़र्रर है और हर तबक़े का वाली पर इतनी मिकदार में हक़ है जिससे इसके अम्र की इस्लाह हो सके और वाली इस फ़रीज़े से ओहदा बरआ नहीं हो सकता है जब तक इन मसाएल का एहतेमाम न करे और अल्लाह से मदद तलब न करे और अपने नफ़्स को हुक़क़ की अदाएगी और इस राह के ख़फ़ीफ़ व सक़ील पर सब्र करने के लिये आमादा न करे लेहाज़ा लशकर का सरदार उसे क़रार देना जो अल्लाह
,
रसूल और इमाम का सबसे ज़्यादा मुख़लिस
,
सबसे ज़्यादा पाकदामन और सबसे ज़्यादा बरदाश्त करने वाला हो। (((-इस मुक़ाम पर अमीरूलमोमेनीन (अ
0) ने समाज को
9हिस्सों पर तक़सीम किया है और सबके ख़ुसूसियात
,
फ़राएज़
,
अहमियत और ज़िम्मेदारियों का तज़किरा फ़रमाया है और यह वाज़ेह कर दिया है के एक काम दूसरे के बग़ैर नहीं हो सकता है लेहाज़ा हर एक का फ़र्ज़ है के दूसरे की मदद करे ताके समाज की मुकम्मल इस्लाह हो सके और मुआशरा चैन और सुकून की ज़िन्दगी जी सके वरना इसके बगै़र समाज तबाह व बरबाद हो जाएगा और इसकी ज़िम्मेदारी तमाम तबक़ात पर यकसां तौर पर आयद होगी।-)))
फ़ौज का सरदार उसको बनाना जो अपने अल्लाह का और अपने रसूल (स
0) का और तुम्हारे इमाम का सबसे ज़्यादा ख़ैरख़्वाह हो सबसे ज़्यादा पाक दामन हो
,
और बुर्दबारी में नुमायां हो
,
जल्द ग़ुस्से में न आ जाता हो
,
उज़्र माज़ेरत पर मुतमइन हो जाता हो
,
कमज़ोरों पर रहम खाता हो और ताक़तवरों के सामने अकड़ जाता हो न बदख़ोई उसे जोश में ले आती हो और न पस्त हिम्मती उसे बिठा देती हो
,
फिर ऐसा होना चाहिये के तुम बलन्द ख़ानदान
,
नेक घराने और उमदा रिवायात रखने वालों और हिम्मत व शुजाअत और जूद व सख़ावत के मालिकों से अपना रब्त व ज़ब्त बढ़ाओ क्योंके यही लोग बुज़ुर्गियों का सरमाया और नेकियों का सरचश्मा होते हैं फिर उनके हालात की इस तरह देख भाल करना
,
जिस तरह माँ बाप अपनी औलाद की देखभाल करते हैं
,
अगर उनके साथ कोई ऐसा सलूक करो के जो उनकी तक़वीयत का सबब हो तो उसे बड़ा न समझना और अपने किसी मामूली सुलूक को भी ग़ैर अहम न समझ लेना (के उसे छोड़ बैठो) क्योंके इस हुस्ने सुलूक से उनकी ख़ैरख़्वाही का जज़्बा उभरेगा और हुस्ने एतमाद में इज़ाफ़ा होगा और इस ख़याल से के तुमने उनकी बड़ी ज़रूरतों को पूरा कर दिया है
,
कहीं उनकी छोटी ज़रूरतों से आंख बन्द न कर लेना
,
क्योंके यह छोटी क़िस्म की मेहरबानी की बात भी अपनी जगह फ़ायदाबख़्श होती है और वह बड़ी ज़रूरतें अपनी जगह अहमियत रखती हैं और फ़ौजी सरदारों में तुम्हारे यहां वह बुलन्द मन्ज़िलत समझा जाए
,
जो फ़ौजियों की एआनत में बराबर का हिस्सा लेता हो और अपने रूप्ये पैसे से इतना सलूक करता हो जिससे उनका और उनके पीछे रह जाने वाले बाल-बच्चों का बख़ूबी गुज़ारा हो सकता हो। ताके वह सारी फ़िक्रों से बेफ़िक्र होकर पूरी यकसूई के साथ दुश्मन से जेहाद करें इसलिये के फ़ौजी सरदारों के साथ तुम्हारा मेहरबानी से पेश आना इनके दिलों को तुम्हारी तरफ़ मोड़ देगा।
हुक्मरानों के लिये सबसे बड़ी आंखों की ठण्डक इसमें है के शहरों में अद्ल व इन्साफ़ बरक़रार रहे और जनता की मोहब्बत ज़ाहिर होती रहे और उनकी मोहब्बत उसी वक़्त ज़ाहिर हुआ करती है के जब उनके दिलों में मैल न हो
,
और उनकी ख़ैर ख़्वाही उसी सूरत में साबित होती है के ववह अपने हुक्मरानों के गिर्द हिफ़ाज़त के लिये घेरा डाले रहें। इनका इक़्तेदार सर पड़ा बोझ न समझें और न उनकी हुकूमत के ख़ात्मे के लिये घड़ियां गिनें
,
लेहाज़ा उनकी उम्मीदों में वुसअत व कशाइश रखना
,
उन्हें अच्छे लफ़्ज़ों से सराहते रहना और उनमें के अच्छी कारकर्दगी दिखाने वालों के कारनामों का तज़किरा करते रहना
,
इसलिये के इनके अच्छे कारनामों का ज़िक्र बहादुरों को जोश में ले आता है और पस्त हिम्मतों को उभारता है
,
इन्शाअल्लाह जो शख़्स जिस कारनामे को अन्जाम दे उसे पहचानते रहना और एक का कारनामा दूसरे की तरफ़ मन्सूब न कर देना और उसकी हुस्ने कारकर्दगी का सिला देने में कमी न करना और कभी ऐसा न करना के किसी शख़्स की बलन्दी व रफ़अत की वजह से उसके मामूली काम को बढ़ा समझ लो और किसी के बड़े काम को उसके ख़ुद पस्त होने की वजह से मामूली क़रार दे लो। जब ऐसी मुश्किलें तुम्हें पेश आएं के जिनका हल न हो सके और ऐसे मुआमलात के जो मुश्तबा हो जाएं तो उनमें अल्लाह और रसूल (स
0) की तरफ़ रूजू करो क्योंके ख़ुदा ने जिन लोगों को हिदायत करना चाही है उनके लिये फ़रमाया है -
“
ऐ ईमान दारों अल्लाह की इताअत करो
,
और उसके रसूल (स
0) की और उनकी जो तुम में साहेबाने अम्र हों
”
तो अल्लाह की तरफ़ रूजू करने का मतलब यह है के उसकी किताब की मोहकम आयतों पर अमल किया जाए और रसूल की तरफ़ रूजु करने का मतलब यह है कि आपके उन मुत्तफ़िक़ अलिया इरशादात पर अमल किया जाए जिनमें कोई इख़्तेलाफ़ नहीं (मक़सद उनकी सुन्नत की तरफ़ पलटाना है
,
जो उम्मत को जमा करने वाली हो तफ़रिक़ा डालने वाली न हो)।
क़ज़ावतः फिर उसके बाद तुम ख़ुद भी उनके फ़ैसलों की निगरानी करते रहना और उनके अताया में इतनी वुसअत पैदा कर देना के उनकी ज़रूरत ख़त्म हो जाए और फिर लोगों के मोहताज न रह जाएं उन्हें अपने पास ऐसा मरतबा और मुक़ाम अता करना जिसकी तुम्हारे ख़्वास भी लालच न करते हों के इस तरह वह लोगों के ज़रर पहुंचाने से महफ़ूज़ हो जाएंगे। मगर इस मामले पर भी गहरी निगाह रखना के यह दीन बहुत दिनों अशरार के हाथों में क़ैदी रह चुका है जहां ख़्वाहिशात की बुनियाद पर काम होता था और मक़सद सिर्फ़ दुनिया तलबी था।
उम्मालः इसके बाद अपने आमिलों के मामलात पर भी निगाह रखना और उन्हें इम्तेहान के बाद काम सिपुर्द करना और ख़बरदार ताल्लुक़ात या जानिबदारी की बिना पर ओहदा न दे देना के यह बातें ज़ुल्म और ख़यानत के असरात में शामिल हैं और देखो इनमें भी जो मुख़लिस और ग़ैरतमन्द हों उनको तलाश करना जो अच्छे घराने के अफ़राद हों और उनके इस्लाम में साबिक़ जज़्बात रह चुके हों के ऐसे लोग ख़ुश इख़लाक़ और बेदाग़ इज़्ज़त वाले होते हैं
,
इनके अन्दर फ़िज़ूल ख़र्ची की लालच कम होती है और यह अन्जामकार पर ज़्यादा नज़र रखते हैं। इसके बाद इनके भी तमाम एख़राजात का इन्तेज़ाम कर देना के इससे उन्हें अपने नफ़्स की इस्लाह का भी मौक़ा मिलता है और दूसरों के अमवाल पर क़ब्ज़ा करने से भी बेनियाज़ हो जाते हैं और फिर तुम्हारे अम्र की मुख़ालेफ़त करें या अमानत में रख़ना पैदा करें तो उन पर हुज्जत तमाम हो जाती है। इसके बाद उन गवर्नरो के आमाल की भी तफ़तीश करते रहना और निहायत मोतबर क़िस्म के अहले सिद्क़ व सफ़ा को उन पर जासूसी के लिये मुक़र्रर कर देना के यह तर्ज़े अमल (((-इस मुक़ाम पर क़ाज़ियों के हस्बेज़ैल सिफ़ात का तज़किरा किया गया है-
1.
ख़ुद हाकिम की निगाह में क़ज़ावत करने के क़ाबिल हो।
2.
तमाम जनता से अफ़ज़लीयत की बुनियाद पर मुन्तख़ब किया गया हो।
3.
मसाएल में उलझ न जाता हो बल्कि साहेबे नज़र व स्तमबात हो।
4.
फ़रीक़ैन के झगड़ों पर ग़ुस्सा न करता हो।
5.
ग़लती हो जाए तो उस पर अकड़ता न हो।
6.
लालची न हो।
7.
मुआमलात की मुकम्मल तहक़ीक़ करता हो और काहेली का शिकार न हो।
8.
शुबहात के मौक़े पर जल्दबाज़ी से काम न लेता हो बल्कि दीगर मुक़र्ररा क़वानीन की बुनियाद पर फ़ैसला करता हो।
9.
दलाएल को क़ुबूल करने वाला हो।
10.
फ़रीक़ैन की तरफ़ मराजअ करने से उकताता न हो बल्कि पूरी बहस सुनने की सलाहियत रखता हो।
11.
तहक़ीक़ातत में बेपनाह क़ूवते सब्र व तहम्मुल का मालिक हो।
12.
बात वाज़ेह हो जाए तो क़तई फ़ैसला करने में तकल्लुफ़ न करता हो।
13.
तारीफ़ से मग़रूर न होता हो ।
14.
लोगों के उभारने से किसी तरफ़ झुकाव न पैदा करता हो।-)))
उन्हें अमानतदारी के इस्तेमाल पर और जनता के साथ नर्मी के बरताव पर आमादा करेगा और देखो अपने मददगारों से भी अपने को बचाकर रखना के अगर उनमें कोई एक भी ख़यानत की तरफ़ हाथ बढ़ाए और तुम्हारे जासूस मुत्तफ़िक़ा तौर पर यह ख़बर दें तो इस शहादत को काफ़ी समझ लेना और इसे जिस्मानी एतबार से भी सज़ा देना और जो माल हासिल किया है उसे छीन भी लेना और समाज में ज़िल्लत के मक़ाम पर रख कर ख़यानतकारी के मुजरिम की हैसियत से रू शिनास कराना और ज़ंग व रूसवाई का तौक़ उसके गले में डाल देना।
ख़ेराजः ख़ेराज और मालगुज़ारी के बारे में वह तरीक़ा इख़्तेयार करो जो मालगुज़ारों के हक़ में ज़्यादा मुनासिब हो के ख़ेराज और अहले ख़ेराज के सलाह ही में सारे तुम्हारे सारे मुआशरे की सलाह है और किसी के हालात की इस्लाह ख़ेराज की इस्लाह के बग़ैर नहीं हो सकती है
,
लोग सबके सब इसी ख़ेराज के भरोसे ज़िन्दगी गुज़ारते हैं
,
ख़ेराज में तुम्हारी नज़र माल जमा करने से ज़्यादा ज़मीन की आबादकारी पर होनी चाहिये के माल की जमाआवरी ज़मीन की आबादकारी के बग़ैर मुमकिन नहीं है और जिसने आबादकारी के बग़ैर मालगुज़ारी का मुतालेबा किया उसने शहरों को बरबाद कर दिया और बन्दों को तबाह कर दिया और उसकी हुकूमत चन्द दिनों से ज़्यादा क़ायम नहीं रह सकती है। इसके बाद अगर लोग गरांबारी
,
आफ़ते नागहानी
,
नहरों की ख़ुश्की
,
बारिश की कमी
,
ज़मीन की ग़रक़ाबी की बिना पर तबाही और ख़ुश्की की बिना पर बरबादी की कोई फ़रियाद करें तो उनके ख़ेराज में इस क़द्र तख़फ़ीफ़ कर देना के उनके काम की इस्लाह हो सके और हख़बरदार यह तख़फ़ीफ़ तुम्हारे नफ़्स पर गरां न गुज़रे इसलिये के तख़फ़ीफ़ और सहूलत एक ज़ख़ीरा है जिसका असर शहरों की आबादी और हुक्काम की ज़ेब व ज़ीनत की शक्ल में तुम्हारी ही तरफ़ वापस आएगा और इसके अलावा तुम्हें बेहतरीन तारीफ़ भी हासिल होगी और अद्ल व इन्साफ़ के फैल जाने से मसर्रत भी हासिल होगी
,
फिर उनकी राहत व रफ़ाहियत और अद्ल व इन्साफ़
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नरमी व सहूलत की बिना पर जो एतमाद हासिल किया है उससे एक इन्सानी ताक़त भी हासिल होगी जो बवक़्ते ज़रूरत काम आ सकती है। इसलिये के बसा औक़ात ऐसे हालात पेश आ जाते हैं के जिसमें एतमाद व हुस्ने ज़न के क़द्रदान पर एतमाद करो तो निहायत ख़ुशी से मुसीबत को बरदाश्त कर लेते हैं और इसका सबब ज़मीनों की आबादकारी ही होता है। ज़मीनों की बरबादी अहले ज़मीन की तंगदस्ती से पैदा होती है और तंगदस्ती का सबब हुक्काम के नफ़्स का जमाआवरी की तरफ़ रूझान होता है और उनकी यह बदज़नी होती है के हुकूमत बाक़ी रहने वाली नहीं है और वह दूसरे लोगों के हालात से इबरत हासिल नहीं करते हैं।
कातिबः इसके बाद अपने मुन्शियों के हालात पर नज़र रखना और अपने काम को बेहतरीन अफ़राद के हवाले करना और फिर वह ख़ुतूत जिनमें रमूज़े (राज़) सल्तनत और इसरारे ममलेकत हों उन अफ़राद के हवाले करना जो बेहतरीन अख़लाक़ व किरदार के मालिक हों और इज़्ज़त पाकर अकड़ न जाते हों के एक दिन लोगों के सामने तुम्हारी मुख़ालेफ़त की जराअत पैदा कर लें और ग़फ़लत की बिना पर लेन-देन के मामलात में तुम्हारे अमाल के ख़ुतूत के पेश करने (((
‘-
यह इस्लामी निज़ाम का नुक्तए इम्तेयाज़ है के इसने ज़मीनों पर टैक्स ज़रूर रखा है के पैदावार में अगर एक हिस्सा मालिके ज़मीन की मेहनत और आबादकारी का है तो एक हिस्सा मालिके कायनातत के करम का भी है जिसने ज़मीन में पैदावार की सलाहियत दी है और वह पूरी कायनात का मालिक है वह अपने हिस्से को पूरे समाज पर तक़सीम करना चाहता है और उसे निज़ाम की तकमील का बुनियादी अनासिर क़रार देना चाहता है
,
लेकिन इस टैक्स को हाकिम की सवाबदीदा और उसकी ख़्वाहिश पर नहीं रखा है जो दुनिया के तमाम ज़ालिम और अय्याश हुक्काम का तरीक़ाए कार है बल्कि उसे ज़मीन के हालात से वाबस्तता कर दिया है ताके टैक्स और पैदावार में राबेता रहे और मालिकाने ज़मीन के दिलों में हाकिम से हमदर्दी पैदा हो
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पुरसूकून हालात में जी लगाकर काश्त करें और हादसाती मवाक़े पर ममलेकत के काम आ सकें वरना अगर अवाम में बददिली और बदज़नी पैदा हो गई तो निज़ाम और समाज को बरबादी से बचाने वाला कोई न होगा।-)))
और उनके जवाबात देने में कोताही से काम लेने लगें और तुम्हारे लिये जो अहद व पैमान बान्धें उसे कमज़ोर कर दें और तुम्हारे खि़लाफ़ साज़बाज़ के तोड़ने में आजिज़ी का मुज़ाहिरा करने लगे देखो यह लोग मामलात में अपने सही मक़ाम से नावाक़िफ़ न हों के अपनी क़द्र व मन्ज़िलत का न पहचानने वाला दूसरे के मुक़ाम व मरतबे से यक़ीनन ज़्यादा नावाक़िफ़ होगा। इसके बाद उनका तक़र्रूर भी सिर्फ़ ज़ाती होशियारी
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ख़ुश एतमादी और हुस्ने ज़न की बिना पर न करना के अकसर लोग हुक्काम के सामने बनावटी किरदार और बेहतरीन खि़दमात के ज़रिये अपने को बेहतरीन बनाकर पेश करने की सलाहियत रखते हैं। जबके इसके पसे पुश्त न कोई इख़लास होता है और न अमानतदारी पहले इनका इम्तेहान लेना के तुमसे पहले वाले नेक किरदार हुक्काम के साथ इनका बरताव क्या रहा है फिर जो अवाम में अच्छे असरात रखते हों और अमानतदारी की बुनियाद पर पहचाने जाते हों उन्हीं का तक़र्रूर कर देना के यह इस अम्र की दलील होगा के तुम अपने परवरदिगार के बन्दए मुख़लिस और अपने इमाम के वफ़ादार हो अपने जुमला शोबों के लिये एक-एक अफ़सर मुक़र्रर कर देना जो बड़े से बड़े काम से मक़हूर न होता हो और कामों की ज़्यादती पर परागन्दा हवास न हो जाता हो
,
और यह याद रखना के इन मुन्शियों में जो भी ऐब होगा और तुम उससे चश्मपोशी करोगे इसका मवाख़ेज़ा तुम्हीं से किया जाएगा।
इसके बाद ताजिरों और सनअतकारों के बारे में नसीहत हासिल करो और दूसरों को उनके साथ नेक बरताव की नसीहत करो चाहे वह एक मुक़ाम पर काम करने वाले हों या जाबजा गर्दिश करने वाले हों और जिस्मानी मेहनत से रोज़ी कमाने वाले हों। इसलिये के यही अफ़राद मुनाफ़े का मरकबज़ और ज़रूरियाते ज़िन्दगी के मुहैया करने का वसीला होते हैं। यही दूर दराज़ मुक़ामात बर्रो बहर कोह व मैदान हर जगह से इन ज़ुरूरियात के फ़राहम करने वाले होते हैं जहां लोगों की रसाई नहीं होती है और जहांतक जाने की लोग हिम्मत नहीं करते हैं
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यह वह अमन पसन्द लोग हैं जिनसे फ़साद का ख़तरा नहीं होता है और वह सुलह व आश्ती वाले होते हैं जिनसे किसी शोरिश का अन्देशा नहीं होता है।
अपने सामने और दूसरे शहरों में फैले हुए इनके मुआमलात की निगरानी करते रहना और यह ख़याल रखना के मैं बहुत से लोगों में इन्तेहाई तंग नज़री और बदतरीन क़िस्म की कन्जूसी पाई जाती है
,
यह मुनाफ़े की ज़खी़राअन्दोज़ी करते हैं और ऊंचे ऊंचे दाम ख़ुद ही मुअय्यन कर देते हैं जिससे अवाम को नुक़सान होता है और हुक्काम की बदनामी होती है
,
लोगों को ज़ख़ीराअन्दोज़ी से ममना करो के रसूले अकरम (स
0) ने इससे मना फ़रमाया है। ख़रीद व फ़रोख़्त में सहूलत ज़रूरी है जहां आदिलाना मीज़ान हो और वह क़ीमत मुअय्यन हो जिससे ख़रीदार या बेचने वाले किसी फ़रीक़ पर ज़ुल्म न हो
,
इसके बाद तुम्हारे मना करने के बावजूद अगर कोई शख़्स ज़ख़ीराअन्दोज़ी करे तो उसे सज़ा दो लेकिन इसमें भी हद से तजावुज़ न होने पाए। (((-बाज़ शारेहीन की नज़र में इस हिस्से का ताल्लुक़ सिर्फ़ किताबत और अनशाए से नहीं है बल्कि हर शोबाए हयात से है जिसकी निगरानी के लिये एक ज़िम्मेदार का होना ज़रूरी है और जिसका इदराक अहले सियासत को सैकड़ों साल के बाद हुआ है और हकीमे उम्मत ने चैदह सदी क़ब्ल इसस नुक्ताए जहानबानी की तरफ़ इशारा कर दिया था। इसमें कोई शक नहीं है के तिजारत और सनअत का मुआसेरे की ज़िन्दगी में रीढ़ की हड्डी का काम करते हैं और उन्हीं के ज़रिये मुआशरे की ज़िन्दगी में इस्तेक़रार पैदा होता है
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यही वजह है के मौलाए कायनात ने इनके बारे में ख़ुसूसी नसीहत फ़रमाई है और उनके मुफ़सेदीन की इस्लाह पर ख़ुसूसी ज़ोर दिया है। ताजिर में बाज़ इम्तेयाज़ी ख़ुसूसियात होते हैं जो दूसरी क़ौमों में नहीं पाए जाते हैं-
1. यह लोग फ़ितरन सुलह पसन्द होते हैं के फ़साद और हंगामे में दुकान के बन्द हो जाने का ख़तरा होता है
2. इनकी निगाह किसी मालिक और अरबाब पर नहीं होती है बल्कि परवरदिगार से रिज़्क़ के तलबगार होते हैं
3. दूर दराज़ के ख़तरनाक मेवारिद तक सफ़र करने की बिना पर इनसे तबलीग़े मज़हब का काम भी लिया जा सकता है जिसके शवाहिद आज सारी दुनिया में पाए जा रहे हैं।-)))
इसके बाद अल्लाह से डरो उस पसमान्दा तबक़े के बारे में जो मसाकीन
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मोहताज
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फ़ोक़रा और माज़ूर अफ़राद का तबक़ा है जिनका कोई सहारा नहीं है इस तबक़े में मांगने वाले भी हैं और ग़ैरतदार भी हैं जिनकी सूरत सवाल है उनके जिस हक़ का अल्लाह ने तुम्हें मुहाफ़िज़ बनाया है उसकी हिफ़ाज़त करो और उनके लिये बैतुलमाल और अर्जे ग़नीमत के ग़ल्लात में से एक हिस्सा मख़सूस कर दो के उनके दूर इक़्तादा का भी वही हक़ है जो क़रीब वालों को है और तुम्हें सबका निगरां बनाया गया है लेहाज़ा ख़बरदार कहीं ग़ुरूर व तकब्बुर तुम्हें इनकी तरफ़ से ग़ाफ़िल न बना दे के तुम्हें बड़े कामों के मुस्तहकम कर देने से छोटे कामों की बरबादी से माफ़ न किया जाएगा लेहाज़ा न अपनी तवज्जो को इनकी तरफ़ से हटाना और न ग़ुरूर की बिना पर अपना मुंह मोड़ लेना जिन लोगों की रसाई तुम ततक नहीं है और उन्हें निगाहों न गिरा दिया है और शख़्सियतों ने हक़ीर बना दिया है उनके हालात की देखभाल भी तुम्हारा ही फ़रीज़ा है लेहाज़ा इनके लिये मुतवाज़ेह और ख़ौफ़े ख़ुदा रखने वाले मोतबर अफ़राद को मख़सूस कर दो जो तुम तक उनके मामलात को पहुंचाते रहें और तुम ऐसे आमाल अन्जाम देते रहो जिनकी बिना पर रोज़े क़यामत पेशे परवरदिगार माज़ेर कहे जा सको के यही लोग सबसे ज़्यादा इन्साफ़ के मोहताज हैं और फिर हर एक के हुक़ूक़ को अदा करने में पेशे परवरदिगार अपने को माज़ूर साबित करो।
और यतीमों और कबीरा सिन बूढ़ों के हालात की भी निगरानी करते रहना के इनका कोई वसीला नहीं है और यह सवाल करने के लिये खड़े भी नहीं होते हैं ज़ाहिर है के इनका ख़याल रखना हुक्काम के लिये बड़ा संगीन मसला होता है लेकिन क्या किया जाए हक़ तो सबका सब सक़ील ही है
,
अलबत्ता कभी कभी परवरदिगार इसे हल्का क़रार दे देता है इन अक़वाम के लिये जो आाक़ेबत की तलबगार होती हैं और इस राह में अपने नफ़्स को सब्र का ख़ूगर बनाती हैं और ख़ुदा के वादे पर एतमाद का मुज़ाहिरा करती हैं। और देखो साहेबाने ज़रूरत के लिये एक वक़्त मुअय्यन कर दो जिसमें अपने को उनके लिये ख़ाली कर लो और एक उमूमी मजलिस में बैठो उस ख़ुदा के सामने मुतवाज़ेह रहो जिसने पैदा किया है और अपने तमाम निगेहबान पोलिस
,
फ़ौज ऐवान व अन्सार सबको दूर बैठा दो ताके बोलने वाला आज़ादी से बोल सके और किसी तरह की लुकनत का शिकार न हो के मैंने रसूले अकरम (स
0) से ख़ुद सुना है के आपने बार-बार फ़रमाया है के वह उम्मत पाकीज़ा किरदार नहीं हो सकती है जिसमें कमज़ोर को आज़ादी के साथ ताक़तवर से अपना हक़ लेने का मौक़ा न दिया जाए।
”
इसके बाद उनसे बदकलामी या आजिज़ी कलाम का मुज़ाहिरा हो तो उसे बरदाश्त करो और दिले तंगी और ग़ुरूर को दूर रखो ताके ख़ुदा तुम्हारे लिये रहमत के एतराफ़ कुशादा कर दे और इताअत के सवाब को लाज़िम क़रार दे दे
,
जिसे जो कुछ दो ख़ुशगवारी के साथ दो और जिसे मना करो उसे ख़ूबसूरती के साथ टाल दो। (((-मक़सद यह नहीं है के हाकिम जलसए आम में लावारिस होकर बैठ जाए और कोई भी मुफ़सिद
,
ज़ालिम फ़क़ीर के भेस में आकर उसका ख़ात्मा कर दे
,
मक़सद सिर्फ़ यह है के पोलिस
,
फ़ौज मुहाफ़िज़ दरबान लोगों के ज़रूरियात की राह में हाएल न होने पाएं के न उन्हें तुम्हारे पास आने दें और न खुलकर बात करने का मौक़ा दें
,
चाहे इससे पहले पचास मक़ामात पर तलाशी ली जाए के ग़ोरबा की हाजत रवाई के नाम पर हुक्काम की ज़िन्दगीयों को क़ुरबान नहीं किया जा सकता है और न मुफ़सेदीन को बेलगाम छोड़ा जा सकता है हाकिम के लिये बुनियादी मसले इसकी शराफ़त
,
दयानत
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अमानतदारी का है इसके बाद इसका मरतबा आम मशविरे से बहरहाल बलन्दतर है और इसकी ज़िन्दगी अवामुन्नास से यक़ीनन ज़्यादा क़ीमती है और इसका तहफ़्फ़ुज़ अवामुन्नास पर उसी तरह वाजिब है जिस तरह वह ख़ुद इनके मफ़ादात का तहफ़्फ़ुज़ कर रहा है।-)))
इसके बाद तुम्हारे मामलात में बाज़ ऐसे मामलात भी हैं जिन्हें ख़ुद बराहे रास्त अन्जाम देना है जैसे हुक्काम के उन मसाएल के जवाबात जिनके जवाबात मोहर्रिर अफ़राद न दे सकें या लोगों के उन ज़रूिरयात को पूरा करना जिनके पूरा करने से तुम्हारे मददगार अफ़राद जी चुराते हों और देखो हर काम को उसी के दिन मुकम्मल कर देना के हर दिन का अपना एक काम होता है इसके बाद अपने और परवरदिगार के रवाबित के लिये बेहतरीन वक़्त का इन्तेख़ाब करना जो तमाम औक़ात से अफ़ज़ल और बेहतर हो अगरचे तमाम ही औक़ात अल्लाह के लिये शुमार हो सकते हैं अगर इन्सान की नीयत सालिम रहे और जनता इसके तुफ़ैल ख़ुशहाल हो जाए।
और तुम्हारे वह आमाल जिन्हें सिर्फ़ अल्लाह के लिये अन्जाम देते हो उनमें से सबसे अहम काम इन फ़राएज़ का क़याम हो जो सिर्फ़ परवरदिगार के लिये होते हैं अपनी जिस्मानी ताक़त में से रात और दिन दोनों वक़्त एक हिस्सा अल्लाह के लिये क़रार देना और जिस काम के ज़रिये इसकी क़ुरबत चाहते हो उसे मुकम्मल तौर से अन्जाम देना न कोई रख़ना पड़ने पाए और न कोई नुक़्स पैदा हो चाहे बदन काो किसी क़द्र ज़हमत क्यों न हो जाए
,
और जब लोगों के साथ जमाअत की नमाज़ अदा करो तो न इस तरह पढ़ो के लोग बेज़ार हो जाएं और न इस तरह के नमाज़ बरबाद हो जाए इसलिये के लोगों में बीमार और ज़रूरतमन्द अफ़राद भी होते हैं और मैंने यमन की मुहिम पर जाते हुए हुज़ूरे अकरम (स
0) से दरयाफ़्त किया था के नमाज़े जमाअत का अन्दाज़ क्या होना चाहिये तो आपने फ़रमाया था के अपनी जनता से देर तक अलग न रहना के हुक्काम का जनता से पसे पर्दा रहना एक तरह की तंग दिली पैदा करता है और उनके मामलात की इत्तेलाअ नहीं हो पाती है और यह पर्दादारी उन्हें भी उन चीज़ों के जानने से रोक देती है जिनके सामने यह हेजाजात क़ायम हो गए हैं और इस तरह बड़ी चीज़ छोटी हो जाती है और छोटी चीज़ बड़ी हो जाती है। अच्छा बुरा बन जाता है और बुरा अच्छा बन जाता है और हक़ बातिल से मख़लूत हो जाता है और हाकिम भी बाला आखि़र एक बशर है वह पसे पर्दा काम की इत्तेलाअ नहीं रखता है और न हक़ की पेशानी पर ऐसे निशानात होते हैं जिनके ज़रिये सिदाक़त के इक़साम को ग़लत बयानी से अलग करके पहचाना जा सके। और फिर तुम दो में से एक क़िस्म के ज़रूर होगे
,
या वह शख़्स होगे जिसका नफ़स हक़ की राह में बज़ल व अता पर माएल है तो फिर तुम्हें वाजिब हक़ अता करने की राह में परवरदिगार हाएल करने की क्या ज़रूरत है और करीमों जैसा अमल क्यों नहीं अन्जाम देते हो
,
या तुम बुख़ल की बीमारी में मुब्तिला हो गे तो बहुत जल्दी लोग तुमसे मायूस होकर ख़ुद ही अपने हाथ खींच लेंगे और तुम्हें परदा डालने की ज़रूरत ही न पड़ेगी। हालांके लोगों के अकसर ज़रूरियात वह हैं जिनमें तुम्हें किसी तरह की ज़हमत नहीं है जैसे किसी ज़ुल्म की फ़रयाद या किसी मामले में इन्साफ़ का मुतालेबा। (((यह शायद उस अम्र की तरफ़ इशारा है के समाज और अवाम से अलग रहना वाली और हाकिम के ज़रूरियाते ज़िन्दगी में शामिल है वरना इसकी ज़िन्दगी
24घन्टे अवामुन्नास की नज़र हो गई तो न तन्हाइयों में अपने मालिक से मुनाजात कर सकता है और न ख़लवतों में अपने अहल व अयाल के हुक़ूक़ अदा कर सकता है। परदादारी एक इन्सानी ज़रूरत है जिससे कोई बेनियाज़ नहीं हो सकता है। असल मसला यह है के इस परदादारी को तूल न होने पाए के अवामुन्नास हाकिम की ज़ियारत से महरूम हो जाएं आौर इसका दीदार सिर्फ़ टेलीवीज़न के पर्दे पर नसीब हो जिससे न को ई फ़रयाद की जा सकती है और न किसी दर्दे दिल का इज़हार किया जा सकता है
,
ऐसे शख़्स को हाकिम बनने का क्या हक़ है जो अवाम के दुख दर्द में शरीक न हो सके और इनकी ज़िन्दगी की तलखियों को महसूस न कर सके
,
ऐसे शख़्स को दरबारे हुकूमत में बैठ कर
“
अना रब्बोकुमुल आला
”
का नारा लगाना चाहिये और आखि़र में किसी दरया में डूब मरना चाहिये इस्लामी हुकूमत इस तरह की लापरवाही को बरदाश्त नहीं कर सकती है। इसके लिये कूफ़े में बैठकर हज्जाज और यमामा के फ़ोक़रा को देखना पड़ता है और इनकी हालत के पेशे नज़र सूखी रोटी खाना पड़ती है-)))
इसके बाद भी ख़याल रहे के हर वाली के कुछ मख़सूस और राज़दार क़िस्म के अफ़राद होते हैं जिनमें ख़ुदग़र्ज़ी दस्ते दराज़ी और मुआमलात में बेइन्साफ़ी पाई जाती है लेहाज़ा ख़बरदार ऐसे अफ़राद के फ़साद का इलाज इन असबाब के ख़ातमे से करना जिनसे यह हालात पैदा होते हैं। अपने किसी भी हाशियानशीन और क़राबतदार को कोई जागीर मत बख़्श देना और उसे तुमसे कोई ऐसी तवक़्क़ो न होनी चाहिये के तुम किसी ऐसी ज़मीन पर क़ब्ज़ा दे दोगे
,
जिसके सबब आबपाशी या किसी मुशतर्क मामले में शिरकत रखने वाले अफ़राद को नुक़सान पहुंच जाए के अपने मसारिफ़ भी दूसरे के सर डाल दे और इस तरह इस मामले का मज़ा इसके हिस्से में आए और उसकी ज़िम्मेदारी दुनिया और आखि़रत में तुम्हारे ज़िम्मे रहे। और जिस पर कोई हक़ आएद हो उस पर इसके नाफ़िज़ करने की ज़िम्मेदारी डालो चाहे वह तुमसे नज़दीक हो या दूर और इस मसले में अल्लाह की राह में सब्र व तहम्मुल से काम लेना चाहिये इसकी ज़द तुम्हारे क़राबतदारों और ख़ास अफ़राद ही पर क्यों न पड़ती हो और इस सिलसिले में तुम्हारे मिज़ाज पर जो बार हो उसे आखि़रत की उम्मीद में बरदाश्त कर लेना के इसका अन्जाम बेहतर होगा।
और अगर कभी जनता को यह ख़याल हो जाए के तुमने उन पर ज़ुल्म किया है तो उनके लिये अपने बहाने का इज़हार करो और उसी ज़रिये से उनकी बदगुमानी का इलाज करो के इसमें तुम्हारे नफ़्स की तरबीयत भी है और जनता पर नर्मी का इज़हार भी है और वह उज्ऱख़्वाही भी है जिसके ज़रिये तुम जनता को राहे हक़ पर चलाने का मक़सद भी हासिल कर सकते हो। और ख़बरदार किसी ऐसी दावते सुलह का इन्कार न करना जिसकी तहरीक दुश्मन की तरफ़ से हो और जिसमें मालिक की रज़ामन्दी पाई जाती हो के सुलह के ज़रिये फ़ौजों को क़द्रे सुकून मिल जाता है और तुम्हारे नफ़्स को को भी उफ़्कार से निजात मिल जाएगी और शहरों में भी अम्न व अमान की फ़िज़ा क़ायम हो जाएगी
,
अलबत्ता सुलह के बाद दुश्मन की तरफ़ से मुकम्मल तौर पर होशियार रहना के कभी कभी वह तुम्हें ग़ाफ़िल बनाने के लिये तुमसे क़ुरबत इख़्तेयार करना चाहता है लेहाज़ा इस सिलसिले में मुकम्मल होशियारी से काम लेना और किसी हुस्ने ज़न से काम न लेना और अगर अपने और उसके दरम्यान कोई मुआहेदा करना या उसे किसी तरह की पनाह देना तो अपने अहद की पासदारी व वफ़ादारी के ज़रिये करना और अपने ज़िम्मे को अमानतदारी के ज़रिये महफ़ूज़ बनाना और अपने क़ौल व क़रार की राह में अपने नफ़्स को सिपर बना देना के अल्लाह के फ़राएज़ में ईफ़ाए अहद जैसा कोई फ़रीज़ा नहीं है जिस पर तमाम लोग ख़्वाहिशात के इख़्तेलाफ़ और उफ़कार के तज़ाद के बावजूद मुत्तहिद हैं और इसका मुशरेकीन ने भी अपने मुआमलात में लेहाज़ रखा है के अहद शिकनी के नतीजे में तबाहियों का अन्दाज़ा कर लिया है तो ख़बरदार तुम अपने अहद व पैमान से ग़द्दारी न करना और अपने क़ौल व क़रार में ख़यानत से काम न लेना और अपने दुश्मन पर अचानक हमला न कर देना। (((-इसमें कोई शक नहीं है के सुलह एक बेहतरीन तरीक़ाए कार है और क़ुरान मजीद ने इसे ख़ैर से ताबीर किया है लेकिन इसके मानी यहय नहीं हैं के जो शख़्स जिन हालात में जिस तरह की सुलह की दावत दे तुम क़ुबूल कर लो और उसके बाद मुतमईन होकर बैठ जाओ के ऐसे निज़ाम में हर ज़ालिम अपनी ज़ालिमाना हरकतों ही पर सुलह करना चाहेगा और तुम्हें उसे तस्लीम करना होगा
,
सुलह की बुनियादी शर्त यह है के उसे रिज़ाए इलाही के मुताबिक़ होना चाहिये और उसकी किसी दिफ़ा को भी मरज़ीए परवरदिगार के खि़लाफ़ नहीं होना चाहिये जिस तरह के सरकारे दो आलम (स
0) की सुलह में देखा गया है के आपने जिस जिस लफ़्ज़ और जिस जिस दिफ़ाअ पर सुलह की है सब की सब मुताबिक़े हक़ीक़त और ऐन मर्ज़ीए परवरदिगार थीं और कोई हर्फ़ ग़लत दरमियान में नहीं था
“
बिस्मेका अल्लाहुम
”
भी एक कलमाए सही था
,
मोहम्मद बिन अब्दुल्लाह भी एक हर्फ़े हक़ था और दुश्मन के अफ़राद का वापस कर देना भी कोई ग़लत एक़दाम नहीं था
,
इमामे हसन (अ
0) मुज्तबा की सुलह में भी यही तमाम ख़ुसूसियात पाई जाती हैं जिनका मुशाहिदा सरकारे दो आलम (स
0) की सुलह में किया जा चुका है। और यही मौलाए कायनात (अ
0) की बुनियादी तालीम और इस्लाम का वाक़ई हदफ़ और मक़सद है-)))
इसलिये के अल्लाह के मुक़ाबले में जाहिल व बदबख़्त के अलावा कोई जराअत नहीं कर सकता है और अल्लाह ने अहद व पैमान को अम्न व अमान का वसीला क़रार दिया है जिसे अपनी रहमत से तमाम बन्दों के दरम्यान आम कर दिया है और ऐसी पनाहगाह बना दिया है जिसके दामने हिफ़ाज़त में पनाह लेने वाले पनाह लेते हैं और इसके जवार में मन्ज़िल करने के लिये तेज़ी से क़दम आगे बढ़ाते हैं लेहाज़ा इसमें कोई जालसाज़ी
,
फ़रेबकारी और मक्कारी न होनी चाहिये और कोई ऐसा मुआहेदा न करना जिसमें तावील की ज़रूरत पड़े और मुआहेदा के पुख़्ता हो जाने के बाद उसके किसी मुबहम लफ़्ज़ से फ़ायदा उठाने की कोशिश न करना और अहदे इलाही में तंगी का एहसास ग़ैर हक़ के साथ वुसअत की जुस्तजू पर आमादा न कर दे के किसी अम्र की तंगी पर सब्र कर लेना और कशाइश हाल और बेहतरीन आक़ेबत का इन्तेज़ार करना इस ग़द्दारी से बेहतर है जिसके असरात ख़तरनाक हों और तुम्हें अल्लाह की तरफ़ से जवाबदेही की मुसीबत घेर ले और दुनिया व आखि़रत दोनों तबाह हो जाएं।
देखो ख़बरदार! नाहक़ ख़ून बहाने से परहेज़ करना के इससे ज़्यादा अज़ाबे इलाही से क़रीबतर और पादाश के एतबार से शदीदतर और नेमतों के ज़वाल
,
ज़िन्दगी के ख़ात्मे के लिये मुनासिबतर कोई सबब नहीं है और परवरदिगार रोज़े क़यामत अपने फ़ैसले का आग़ाज़ ख़ूंरेज़ियों के मामले से करेगा
,
लेहाज़ा ख़बरदार अपनी हुकूमत का इस्तेहकाम नाहक़ ख़ूंरेज़ी के ज़रिये न पैदा करना के यह बात हुकूमत को कमज़ोर और बेजान बना देती है बल्के तबाह करके दूसरों की तरफ़ मुन्तक़िल कर देती है और तुम्हारे पास न ख़ुदा के सामने और न मेरे सामने अमदन क़त्ल करने का कोई बहाने नहीं है और इसमें ज़िन्दगी का क़सास भी साबित है अलबत्ता अगर धोके से इस ग़लती में मुब्तिला हो जाओ और तुम्हारा ताज़ियाना तलवार या हाथ सज़ा देने में अपनी हद से आगे बढ़ जाए के कभी कभी घूंसा वग़ैरा भी क़त्ल का सबब बन जाता है
,
तो ख़बरदार तुम्हें सलतनत का ग़ुरूर इतना ऊंचा न बना दे के तुम ख़ून के वारिसों को उनका हक़्क़े ख़ूं बहा भी अदा न करो।
और देखो अपने नफ़्स को ख़ुद पसन्दी से भी महफ़ूज़ रखना और अपनी पसन्द पर भरोसा भी न करना और ज़्यादा तारीफ़ का शौक़ भी न पैदा हो जाए के यह सब बातें शैतान की फ़ुरसत के बेहतरीन वसाएल हैं जिनके ज़रिये वह नेक किरदारों के अमल को ज़ाया और बरबाद कर दिया करता है।
और ख़बरदार जनता पर एहसान भी न जताना और जो सलूक किया है उसे ज़्यादा समझने की कोशिश भी न करना या उनसे कोई वादा करके उसके बाद वादा खि़लाफ़ी भी न करना के यह तर्ज़े अमल एहसान को बरबाद कर देता है और ज़्यादती अमल का ग़ुरूर हक़ की नूरानियत को फ़ना कर देता है और वादा खि़लाफ़ी ख़ुदा और बन्दगाने ख़ुदा दोनों के नज़दीक नाराज़गी का बाएस होती है जैसा के उसने इरशाद फ़रमाया है के
“
अल्लाह के नज़दीक यह बड़ी नराज़गी की बात है के तुम कोई बात कहो और फिर उसके मुताबिक़ अमल न करो।
”
(((-
वाज़ेह रहे के दुनिया में हुकूमतों का क़याम तो विरासत
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जमहूरियत
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असकरी इन्क़ेलाब और ज़ेहानत व फ़रासत तमाम असबाब से हो सकता है लेकिन हुकूमतों में इस्तेहकाम अवाम की ख़ुशी और मुल्क की ख़ुशहाली के बग़ैर मुमकिन नहीं है और जिन अफ़राद ने यह ख़याल किया के वह अपनी हुकूमतों को ख़ूँरेज़ी के ज़रिये मुस्तहकम बना सकते हैं उन्होंने जीतेजी अपनी ग़लत फ़हमी का अन्जाम देख लिया और हिटलर जैसे शख़्स को भी ख़ुदकुशी पर आमादा न होना पड़ा
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इसीलिये कहा गया है के मुल्क कुफ्ऱ के साथ तो बाक़ी रह सकता है लेकिन ज़ुल्म के साथ बाक़ी नहीं रह सकता है और इन्सानियत का ख़ून बहाने से बड़ा कोई जुर्म क़ाबिले तसव्वुर नहीं है लेहाज़ा इससे परहेज़ हर साहबे इक़्तेदार और साहबे अक़्ल व होश का फ़रीज़ा है और ज़माने की गर्दिश के पलटते देर नहीं लगती है-)))
और ख़बरदार वक़्त से पहले कामों जल्दी न करना और वक़्त आजाने के बाद सुस्ती का मुज़ाहेरा न करना अैर बात समझ में न आए तो झगड़ा न करना और वाज़ेह हो जाए तो कमज़ोरी का इज़हार न करना हर बात को इसकी जगह रखो और हर अम्र को उसके महल पर क़रार दो।
देखो जिस चीज़ में तमाम लोग बराबर के शरीक हैं उसे अपने साथ मख़सूस न कर लेना और जो हक़ निगाहों के सामने वाज़ेह हो जाए उसके ग़फ़लत न बरतना के दूसरों के लिये यही तुम्हारी ज़िम्मादारी है और अनक़रीब तमाम काम से परदे उठ जाएंगे और तुमसे मज़लूम का बदला ले लिया जाएगा अपने ग़ज़ब की तेज़ी अपनी सरकशी के जोश अपने हाथ की जुम्बिश और अपनी ज़बान की काट पर क़ाबू रखना और उन तमाम चीज़ों से अपने को इस तरह महफ़ूज़ रखना के जल्दबाज़ी से काम न लेना और सज़ा देने में जल्दी न करना यहांतक के ग़ुस्सा ठहर जाए और अपने ऊपर क़ाबू हासिल हो जाए
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और इस अम्र पर भी इख़्तेयार उस वक़्त तक हासिल नहीं हो सकता है जब तक परवरदिगार की बारगाह में वापसी का ख़याल ज़्यादा से ज़्यादा न हो जाए।
तुम्हारा फ़रीज़ा यह है के माज़ी में गुज़र जाने वाली आदिलाना हुकूमत और फ़ाज़िलाना सीरत को याद रखो रसूले अकरम (अ
0) के आसार और किताबे ख़ुदा के एहकाम को निगाह में रखो और जिस तरह हमें अमल करते देखा है उसी तरह हमारे नक़्शे क़दम पर चलो और जो कुछ इस इस अहदनामे में हमने बताया है उस पर अमल करने की कोशिश करो के मैंने तुम्हारे ऊपर अपनी हुज्जत को मुस्तहकम कर दिया है ताके जब तुम्हारा नफ़्स ख़्वाहिशात की तरफ़ तेज़ी से बढ़े तो तुम्हारे पास कोई बहाना न रहे
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और मैं परवरदिगार की वसीअ रहमत और हर मक़सद के अता करने की अज़ीम क़ुदरत के वसीले से यह सवाल करता हूँ के मुझे और तुम्हें इन कामों की तौफ़ीक़ दे जिनमें इसकी मर्ज़ी हो और हम दोनों इसकी बारगाह में और बन्दों के सामने बहाना पेश करने के क़ाबिल हो जाएं
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बन्दों की बेहतरीन तारीफ़ के हक़दार हों और इलाक़ों में बेहतरीन आसार छोड़ कर जाएं
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नेमत की फ़रावानी और इज़्ज़त के रोजाफ़ज़ों इज़ाफ़े को बरक़रार रख सकें और हम दोनों का ख़ात्मा सआदत और शहादत पर हो के हमस ब अल्लाह के लिये हैं और उसी की बारगाह में पलट कर जाने वाले हैं। सलाम हो रसूले ख़ुदा (स
0) पर और उनकी तय्यब व ताहिर आल पर और सब पर सलाम बेहिसाब। वस्सलाम