54-आपका मकतूबे गिरामी
(
तल्हा व ज़ुबैर के नाम जिसे अम्र बिन अलहुसैन अलख़ज़ाई के ज़रिये भेजा था और जिसका ज़िक्र अबूजाफ़र इसकाफ़ी ने किताबुल मक़ामात में किया है)
अम्माबाद! अगरचे तुम दोनों छिपा रहे हो लेकिन तुम्हें बहरहाल मालूम है के मैंने खि़लाफ़त की ख़्वाहिश नहीं की
,
लोगों ने मुझसे ख़्वाहिश की है और मैंने बैअत के लिये एक़दाम नहीं किया है। जब तक उन्होंने बैअत करने का इरादा ज़ाहिर नहीं किया है तुम दोनों भी उन्हीं अफ़राद में शामिल हो जिन्होंने मुझे चाहा था और मेरी बैअत की थी और आम लोगो ने भी मेरी बैअत न किसी सल्तनत के रोब दाब से की है और न किसी माल व दुनिया की लालच में की है। (((- अबूजाफ़र इसकाफ़ी मोतजे़लह के शुयूख़ में शुमार होते थे और उनकी सत्तर तसनीफ़ात थीं जिनमें एक
“
किताबुल मक़ामात
”
भी थी
,
इसी किताब में अमीरूल मोमेनीन (अ
0) के इस मकतूबे गिरामी का तज़किरा किया है और यह बताया है के हज़रत ने इसे इमरान के ज़रिये भेजा था जो फ़ोक़हाए सहाबा में शुमार होते थे और जंगे ख़ैबर के साल इस्लाम लाए थे और अहदे माविया में इन्तेक़ाल किया था।- इसकाफ़ी जाहज़ के मआसिरों में थे और उन्हें इस्काफ़ की निस्बत से इस्काफ़ी कहा जाता है जो नहरवान और बसरा के दरम्यान एक शहर है)))
पस अगर तुम दोनों ने मेरी बैअत अपनी ख़ुशी से की थी तो अब ख़ुदा की तरफ़ रूजू करो और फ़ौरन तौबा कर लो। और अगर मजबूरन की थी तो तुमने अपने ऊपर मेरा हक़ साबित कर दिया के तुमने इताअत का इज़हार किया था और नाफ़रमानी को दिल में छिपाकर रखा था और मेरी जान की क़सम दोनों इस राज़दारी और दिल की बातों को छिपाने में महाजेरीन से ज़्यादा सज़ावार नहीं थे और तुम्हारे लिये बैअत से निकलने और इसके इक़रार के बाद इन्कार कर देने से ज़्यादा आसान रोज़े अव्वल ही इसका इन्कार कर देना था
,
तुम लोगों का एक ख़याल यह भी है के मैंने उस्मान को क़त्ल किया है तो मेरे और तुम्हारे दरम्यान वह अहले मदीना मौजूद हैं जिन्होंने हम दोनों से अलाहेदगी इख़्तेयार कर ली है
,
इसके बाद हर शख़्स इसी का ज़िम्मेदार है जो उसने ज़िम्मेदारी क़ुबूल की है। बुज़ुर्गवारों! मौक़ा ग़नीमत है अपनी राय से बाज़ आ जाओ के आज तो सिर्फ़ जंग व आर का ख़तरा है लेकिन इसके बाद आर व नार दोनों जमा हो जाएंगे
,
वस्सलाम।
55-आपका मकतूबे गिरामी (माविया के नाम)
अम्माबाद! ख़ुदाए बुज़ुर्ग व बरतर ने दुनिया को आखि़रत का मुक़दमा क़रार दिया है और उसे आज़माइश का ज़रिया बनाया है ताके यह वाज़ेह हो जाए के बेहतरीन अमल करने वाला कौन है
,
हम न इस दुनिया के लिये पैदा किये गये हैं और न हमें इसके लिये दौड़-धूप का हुक्म दिया गया है
,
हम यहाँ फ़क़त इसलिये रखे गए हैं के हमारा इम्तेहान लिया जाए और अल्लाह ने तुम्हारे ज़रिये हमारा और हमारे ज़रिये तुम्हारा इम्तेहान ले लिया है और एक को दूसरे पर हुज्जत क़रार दे दिया है लेकिन तुमने तावीले क़ुरान का सहारा लेकर दुनिया पर धावा बोल दिया और मुझसे ऐसे जुर्म का मुहासेबा कर दिया जिसका न मेरे हाथ से कोई ताल्लुक़ था और न ज़बान से
,
सिर्फ़ अहले शाम ने मेरे सर डाल दिया था और तुम्हारे जानने वालों ने जाहिलों को और क़याम करने वालों ने ख़ाना नशीनों को उकसा दिया था लेहाज़ा अब भी ग़नीमत है के अपने नफ़्स के बारे में अल्लाह से डरो और शैतान से अपनी ज़माम छुड़ा लो और आखि़रत की तरफ़ रूख़ कर लो के वही हमारी और तुम्हारी आखि़री मन्ज़िल है
,
उस वक़्त से डरो के इस दुनिया में परवरदिगार कोई ऐसी मुसीबत नाज़िल कर दे के असल भी ख़त्म हो जाए और नस्ल का भी ख़ात्मा हो जाए
,
मैं परवरदिगार की ऐसी क़सम खाकर कहता हूं जिसके ग़लत होने का इमकान नहीं है के अगर मुक़द्दर ने मुझे और तुम्हें एक मैदान में जमा कर दिया तो मैं उस वक़्त तक मैदान न छोड़ूंगा जब तक मेरे और तुम्हारे दरम्यान फ़ैसला न हो जाए।
56-आपकी वसीयत (जो शरीह बिन हानी को उस वक़्त फ़रमाई जब उन्हें शाम जाने वाले हर अव्वल दस्ते का सरदार मुक़र्रर फ़रमाया)
सुबह व शाम अल्लाह से डरते रहो और अपने नफ़्स को इस धोकेबाज़ दुनिया से बचाए रहो और इस पर किसी हाल में एतबार न करना और यह याद रखना के अगर तुमने किसी नागवारी के ख़ौफ़ से अपने नफ़्स को बहुत सी पसन्दीदा चीज़ों से न रोका तो ख़्वाहिशात तुमको बहुत से नुक़सानदेह काम तक पहुंचा देंगी लेहाज़ा अपने नफ़्स को रोकते टोकते रहो और ग़ुस्से में अपने ग़ैज़ व ग़ज़ब को दबाते और कुचलते रहो।
(((-
यह अमीरूलमोमेनीन (अ
0) के जलीलुलक़द्र सहाबी थे
,
अबू मिक़दाद कुन्नीयत थी और आपके साथ तमाम मारेकों में शरीक रहे
,
यहां तक के हज्जाज के ज़माने में शहीद हुए
,
हज़रत (अ
0) ने उन्हें शाम जाने वाले हर अव्वल दस्ते का अमीर मुक़र्रर किया तो मज़कूरा हिदायात से सरफ़राज़ फ़रमाया ताके कोई शख़्स इस्लामी पाबन्दी से आज़ादी का तसव्वुर न कर सके।-)))
57-आपका मकतूबे गिरामी (अहले कूफ़ा के नाम- मदीने से बसरा रवाना होते वक़्त)
अम्माबाद! मैं क़बीले से निकल रहा हूँ या ज़ालिम की हैसियत से या मज़लूम की हैसियत से
,
या मैंने बग़ावत की है या मेरे खि़लाफ़ बग़ावत हुई है
,
मैं तुम्हें ख़ुदा का वास्ता देकर कहता हूँ के जहां तक मेरा यह ख़त पहुंच जाए तुम सब निकल कर आ जाओ
,
इसके बाद मुझे नेकी पर पाओ तो मेरी इमदाद करो और ग़लती पर देखो तो मुझे रज़ा के रास्ते पर लगा दो।
58-आपका मकतूबे गिरामी (तमाम शहरों के नाम - जिसमें सिफ़्फ़ीन की हक़ीक़त का इज़हार किया गया है)
हमारे मामले की इब्तिदा यह है के हम शाम के लशकर के साथ एक मैदान में जमा हुए जब बज़ाहिर दोनों का ख़ुदा एक था
,
रसूल एक था
,
पैग़ाम एक था
,
न हम अपने ईमान व तस्दीक़ में इज़ाफ़े के तलबगार थे
,
न वह अपने ईमान को बढ़ाना चाहते थे। मामला बिल्कुल एक था सिर्फ़ इख़्तेलाफ़ ख़ूने उस्मान के बारे में था जिससे हम बिलकुल बरी थे और हमने यह हल पेश किया के जो मक़सद आज नहीं हासिल हो सकता है उसका वक़्ती इलाज यह किया जाए के आतिशे जंग को ख़ामोश कर दिया जाए और लोगों के जज़्बात को पुरसूकून बना दिया जाए
,
इसके बाद जब हुकूमत को इस्तेहकाम हो जाएगा और हालात साज़गार हो जाएंगे तो हम हक़ को उसकी मन्ज़िल तक लाने की ताक़त पैदा कर लेंगे। लेकिन क़ौम का इसरार था के इसका इलाज सिर्फ़ जंग व जेदाल है जिसका नतीजा यह हुआ के जंग ने अपने पांव फेला दिये और जम कर खड़ी हो गई
,
शोले भड़क उठे और ठहर गए और क़ौम ने देखा के जंग ने दोनों के दांत काटना शुरू कर दिया है और फ़रीक़ैन में अपने पन्जे गाड़ दिये हैं तो वह मेरी बात मानने पर आमादा हो गए और मैंने भी उनकी बात को मान लिया और तेज़ी से बढ़ कर उनके मुतालबए सुलह को क़ुबूल कर लिया यहां तक के उन पर हुज्जत वाज़ेह हो गई और हर तरह का उज्ऱ ख़त्म हो गया। अब इसके बाद कोई इस हक़ पर क़ायम रह गया तो गोया अपने नफ़्स को हलाकत से निकाल लिया वरना इसी गुमराही में पड़ा रह गया तो ऐसा अहद शिकन होगा जिसके दिल पर अल्लाह ने मोहर लगा दी है और ज़माने के हवादिस उसके सर पर मण्डला रहे हैं। (((-यह इस अम्र की तरफ़ इशारा है के हज़रत ने माविया और उसके साथियों के इस्लाम व ईमान का इक़रार नहीं किया है बल्कि सूरतेहाल का तज़किरा किया है। हक़ीक़ते अम्र यह है के माविया को ख़ूने उस्मान से कोई दिलचस्पी नहीं थी
,
वह शाम की हुकूमत और आलमे इस्लाम की खि़लाफ़त का तमाअ था लेहाज़ा कोई सन्जीदा गुफ़्तगू क़ुबूल नहीं कर सकता था
,
हज़रत ने भी इमामे हुज्जत का हक़ अदा कर दिया और इसके बाद मैदाने जेहाद में क़दम जमा दिये ताके दुनिया पर वाज़ेह हो जाए के जेहादे राहे ख़ुदा फ़रज़न्दे अबूतालिब (अ
0) का काम है
,
अबू सुफ़ियान के बेटे का नहीं है।-)))
59-आपका मकतूबे गिरामी (असवद बिन क़तबा वालीए हलवान के नाम)
अम्माबाद! देखो अगर वाली के ख़्वाहिशात मुख़्तलिफ़ क़िस्म के होंगे तो यह बात उसे अक्सर औक़ात इन्साफ़ से रोक देगी लेकिन तुम्हारी निगाह में तमाम अफ़राद के मामलात को एक जैसा होना चाहिये के ज़ुल्म कभी अद्ल का बदल नहीं हो सकता है। जिस चीज़ को दूसरों के लिये बुरा समझते हो उससे ख़ुद भी इजतेनाब करो और अपने नफ़्स को उन कामों में लगा दो जिन्हें ख़ुदा ने तुम पर वाजिब किया है और इसके सवाब की उम्मीद रखो और अज़ाब से डरते रहो।
और याद रखो के दुनिया दारे आज़माइश है यहां इन्सान की एक घड़ी भी ख़ाली नहीं जाती है मगर यह के यह बेकारी रोज़े क़यामत हसरत का सबब बन जाती है और तुमको कोई शै हक़ से बेनियाज़ नहीं बना सकती है और तुम्हारे ऊपर सबसे बड़ा हक़ यह है के अपने नफ़्स को महफ़ूज़ रखो और अपने इमकान भर जनता का एहतेसाब करते रहो के इस तरह जो फ़ायदा तुम्हें पहुंचेगा वह उससे कहीं ज़्यादा बेहतर होगा जो फ़ायदा लोगो को तुमसे पहुंचेगा
,
वस्सलाम।
60-आपका
मकतूबे
गिरामी
(उन
गवर्नरो
के
नाम
जिनका
इलाक़ा
फ़ौज
के
रास्ते
में
पड़ता
था
)
बन्दए ख़ुदा अमीरूल मोमेनीन अली (अ
0) की तरफ़ से
इन ख़ेराज जमा करने वालों और इलाक़ों के वालियों के नाम जिनके इलाक़े से लश्करों का गुज़र होता है।
अम्माबाद! मैंने कुछ फ़ौजें रवाना की हैं जो अनक़रीब तुम्हारे इलाक़े से गुज़रने वाली हैं और मैंने उन्हें उन तमाम बातों की नसीहत कर दी है जो उन पर वाजिब हैं के किसी को अज़ीयत न दें और तकलीफ़ को दूर रखें और मैं तुम्हें और तुम्हारे अहले ज़िम्मा को बता देना चाहता हूँ के फ़ौज वाले कोई दस्त दराज़ी करेंगे
,
तो मैं उनसे बेज़ार रहूंगा मगर यह के कोई शख़्स भूक से मुज़तर हो और उसके पास पेट भरने का कोई रास्ता न हो
,
उसके अलावा कोई ज़ालिमाना अन्दाज़ से हाथ लगाए तो उसको सज़ा देना तुम्हारा फ़र्ज़ है
,
लेकिन अपने सरफिरों को समझा देना के जिन हालात को मैंने मुस्तशना क़रार दिया है उनमें कोई शख़्स किसी चीज़ को हाथ लगाना चाहे तो उससे मुक़ाबला न न करें और टोकें नहीं
,
फिर उसके बाद मैं लशकर के अन्दर मौजूद हूँ अपने ऊपर होने वाली ज़्यादतियों और सख्तियो की फ़रयाद मुझसे करो अगर तुम दिफ़ाअ करने के क़ाबिल नहीं हो जब तक अल्लाह की मदद और मेरी इमदाद शामिल न हो
,
मैं इन्शाअल्लाह अल्लाह की मदद से हालात को बदल दूँगा। (((-इस ख़त में हज़रत ने दो तरह के मसाएल का तज़किरा फ़रमाया है
,
एक का ताल्लुक़ लशकर से है और दूसरे का उस इलाक़े से जहां से लशकर गुज़रने वाला है। लशकरवालों को तवज्जो दिलाई है के ख़बरदार जनता पर ज़ुल्म न होने पाए के तुम्हारा काम ज़ुल्म व जौर का मुक़ाबला करना है
,
ज़ुल्म करना नहीं है और रास्ते के अवाम को मुतवज्जो किया है के अगर लशकर में कोई शख़्स बर बिनाए इज़तेरार किसी चीज़ को इस्तेमाल कर ले तो ख़बरदार उसे मना न करना के यह उसका शरई हक़ है और इस्लाम में किसी शख़्स को उसके हक़ से महरूम नहीं किया जा सकता है। इसके बाद लशकर की ज़िम्मेदारी है के अगर कोई मसला पेश आ जाए तो मेरी तरफ़ रूजू करे और अवाम की भी ज़िम्मेदारी है के अपने मसाएल की फ़रियाद मेरे पस पेश करें और सारे मुआमलात को ख़ुद तय करने की कोशिश न करें।-)))
61-आपका मकतूबे गिरामी (कुमैल बिन ज़ियाद के नाम जो बैतुलमाल के आमिल थे और उन्होंने फ़ौजे दुश्मन को लूटमार से मना नहीं किया)
अम्माबाद! इन्सान का उस काम को नज़र अन्दाज़ कर देना जिसका ज़िम्मेदार बनाया गया है और उस काम में लग जाना जो उसके फ़राएज़ में शामिल नहीं है एक वाज़ेह कमज़ोरी और तबाहकुन फ़िक्र है। और देखो तुम्हारा अहले क़िरक़िसया पर हमला कर देना और ख़ुद अपनी सरहदों को मोअत्तल छोड़ देना जिनका तुमको ज़िम्मेदार बनाया गया था। इस आलम में के उनका कोई दिफ़ाअ करने वाला और उनसे लश्करों को हटाने वाला नहीं था एक इन्तेहाई परागन्दा राय है और इस तरह तुम दोस्तों पर हमला करने वाले दुश्मनों के लिये एक वसीला बन गए जहां न तुम्हारे कान्धे मज़बूत थे और न तुम्हारी कोई हैबत थी
,
न तुमने दुश्मन का रास्ता रोका और न इसकी शौकत को तोड़ा
,
न अहले शहर के काम आए और न अपने अमीर के फ़र्ज़ को अन्जाम दिया।
62-आपका मकतूबे गिरामी (अहले मिस्र के नाम
,मालिके अश्तर के ज़रिये जब उनको मिस्र का गर्ननर बनाकर रवाना किया)
अम्माबाद! परवरदिगार ने हज़रत मोहम्मद (स
0) को आलमीन के लिये अज़ाबे इलाही से डराने वाला और मुरसलीन के लिये गवाह और निगरां बनाकर भेजा था लेकिन उनके जाने के बाद ही मुसलमानों ने उनकी खि़लाफ़त में झगड़ा शुरू कर दिया
,
ख़ुदा गवाह है के यह बात मेरे ख़याल में भी न थी और न मेरे दिल से गुज़री थी के अरब इस मन्सब को उनके अहलेबैत (अ
0) से इस तरह मोड़ देंगे और मुझसे इस तरह दूर कर देंगे के मैंने अचानक यह देखा के लोग फ़लाँ शख़्स की बैअत के लिये टूटे पड़े हैं तो मैंने अपने हाथ को रोक लिया यहाँ तक के यह देखा के लोग दीने इस्लाम से वापस जा रहे हैं और पैग़म्बर के क़ानून को बरबाद कर देना चाहते हैं
,
तो मुझे यह ख़ौफ़ पैदा हो गया के अगर इस रख़्ने और बरबादी को देखने के बाद भी मैंने इस्लाम और मुसलमानों की मदद न की तो इसकी मुसीबत रोज़े क़यामत उससे ज़्यादा अज़ीम होगी जो आज इस हुकूमत के चले जाने से सामने आ रही है जो सिर्फ़ चन्द दिन रहने वाली है और एक दिन उसी तरह ख़त्म हो जाएगी जिस तरह सराब की चमक दमक ख़त्म हो जाती है या आसमान के बादल फट जाते हैं तो मैंने इन हालात में क़याम किया यहां तक के बातिल ज़ाएल हो गया और दीन मुतमइन होकर अपनी जगह पर साबित हो गया। (((-जनाबे कुमैल मौलाए कायनात के मख़सूस असहाब में थे और बड़े पाये के आलिम व फ़ाज़िल थे लेकिन बहरहाल बशर थे और उन्होंने माविया के मज़ालिम के जवाब में यही मुनासिब समझा के जिस तरह वह हमारे इलाक़े में फ़साद फेला रहा है
,
हम भी उसके इलाक़े पर हमला कर दें ताके फ़ौजों का रूख़ उधर मुड़ जाए मगर यह बात इमामत के मिज़ाज के खि़लाफ़ थी लेहाज़ा हज़रत ने फ़ौरन तम्बीह कर दी और कुमैल ने भी अपने एक़दाम के नामुनासिब होने का एहसास कर लिया और यही इन्सान का कमाले किरदार है के ग़लती पर इसरार न करे वरना ग़लती न करना शाने इस्मत है शाने इस्लाम व ईमान नहीं है। जनाबे कुमैल की ग़ैरतदारी का यह आलम था के जब हज्जाज ने उन्हें तलाश करना शुरू किया और गिरफ़्तार न कर सका तो उनकी क़ौम पर दाना
,
पानी बन्द कर दिया
,
कुमैल को इस अम्र की इत्तेलाअ मिली तो फ़ौरन हज्जाज के दरबार में पहुंच गए और फ़रमाया के मैं अपनी ज़ात की हिफ़ाज़त की ख़ातिर सारी क़ौम को ख़तरे में नहीं डाल सकता हूँ और ख़ुद मोहब्बते अहलेबैत (अ
0) से दस्तबरदार भी नहीं हो सकता हूँ लेहाज़ा मुनासिब यह है के अपनी सज़ा ख़ुद बरदाश्त करूं जिसके नतीजे में हज्जाज ने उनकी ज़िन्दगी का ख़ात्मा करा दिया।-)))
ख़ुदा की क़सम अगर मैं तनो तन्हा उनके मुक़ाबले पर निकल पड़ूं और उनसे ज़मीन छलक रही हो तो भी मुझे फ़िक्र और दहशत न होगी के मैं उनकी गुमराही के बारे में भी और अपने हिदायत याफ़्ता होने के बारे में भी बसीरत रखता हूँ और परवरदिगार की तरफ़ से मन्ज़िले यक़ीन पर भी हूं और मैं लक़ाए इलाही का इश्तियाक़ भी रखता हूं और इसके बेहतरीन अज्र व सवाब का मुन्तज़िर और उम्मीदवार हूँ। लेकिन मुझे दुख इस बात का है के उम्मत की ज़माम अहमक़ों और फ़ाजिरों के हाथ में चली जाए और वह माले ख़ुदा को अपनी इमलाक और बन्दगाने ख़ुदा को अपना ग़ुलाम बना लें
,
नेक किरदारों से जंग करें और फ़ासिक़ों को अपनी जमाअत में शामिल कर लें
,
जिनमें वह भी शामिल हैं जिन्होंने तुम्हारे सामने शराब पी है और उन पर इस्लाम में हद जारी हो चुकी है और बाज़ वह भी हैं के जो उस वक़्त तक इस्लाम नहीं लाए जब तक उन्हें फ़वाएद नहीं पेश कर दिये गए
,
अगर ऐसा न होता तो मैं तुम्हें इस तरह जेहाद की दावत न देता और सरज़न्श न करता और क़याम पर आमादा न करता बल्कि तुम्हें तुम्हारे हाल पर छोड़ देता के तुम सरताबी भी करते हो और सुस्त भी हो।
क्या तुम ख़ुद नहीं देखते हो के तुम्हारे एतराफ़ कम होते जा रहे हैं और तुम्हारे शहरों पर क़ब्ज़ा हुआ जा रहा है
,
तुम्हारे मुमालिक को छीना जा रहा है और तुम्हारे इलाक़ों पर धावा बोला जा रहा है। ख़ुदा तुम पर रहम करे अब दुश्मन से जंग के लिये निकल पड़ो और ज़मीन से चिपक कर न रह जाओ वरना यूँ ही ज़िल्लत का शिकार होगे
,
ज़ुल्म सहते रहोगे और तुम्हारा हिस्सा इन्तेहाई पस्त होगा
,
और याद रखो के जंग आज़मा इन्सान हमेशा बेदार रहता है और अगर कोई शख़्स सो जाता है तो उसका दुश्मन हरगिज़ ग़ाफ़िल नहीं होता है
,
वस्सलाम।