दूसरा अध्याय
इस्लाम और सेक्स
अ – शादी
ब – मुतअः
पिछले अध्याय में यह बात स्पष्ट हो चूकी है कि सेक्सी इच्छाओं की पूर्ति के सभी अप्राकृतिक और अधार्मिक तरीक़े (अर्थात हस्त मैथुन , गुद मैथुन और बलात्कार) मनुष्य की सहत और तन्दुरूस्ती को बरबाद कर देते हैं जिसको इस्लाम बिल्कुल पसन्द नही करता ------ इसी इस्लाम ने प्राकृतिक और धार्मिक तरीक़े से शादी करके सेक्सी इच्छा की पूर्ति को जायज़ और बल्कि हरामकारी के खौफ से वाजिब बताया है। ताकि मनुष्य की सेहत और तनदुरूस्ती बाक़ी रहे , आराम व सुकून मिले , खुशी प्रतीत हो , अल्लाह के करीब होने में बढ़ोतरी हो , गुनाह से बचा रहे और ईमान बाक़ी रहे।
शादीः- इस्लाम के अनुसार शादी नौजवानों के लिए एक ऐसी बड़ी दौलत है जो उनको हरामकारियों और बुराईयों से बचा कर के पाक दामनी और पर्हेज़गारी अता करती है। जिसके कारण नौजवान का आधा धर्म सुरक्षित हो जाता है। इसी लिए पैग़म्बर इस्लाम का इरशाद-ए-गिरामी हैः-
“ए- जवानों अगर शादी करने का सामथ्य रखते हो तो शादी करो क्योंकि शादी आँख की बुराईयों से बचाये रखती है और पाकदामनी और पर्हेज़गारी अता करती है ”। ( 36)
आप ही का इर्शाद (प्रवचन) हैः-
“ जिसने शादी की उसने अपना आधा धर्म सुरक्षित कर लिया ”। ( 37)
या
“ जिसने एक औरत से शादी की उसने आधे धर्म की सुरक्षा की और बाक़ी आधे में तक़वे (अर्थात दूसरे हराम कामों से बचे रहने) की ज़रूरत रही ”। ( 38)
इसी तरह इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक (अ.) ने फर्मायाः-
“ मेरे ख्याल में किसी मोमिन मर्द के ईमान की तरक्क़ी नही हो सकती अलावा इसके कि वह औरत से मुहब्बत रखे ”।( 39)
यह भी फर्माया कि
“ जिसे औरतों से ज्यादा मुहब्बत होती है उसके ईमान में तरक्क़ी होती है ”। ( 40)
बहरहाल यह वास्तविकता है कि शादी प्राकृतिक सेक्सी इच्छाओं की पूर्ति का अकेला रास्ता है जिससे इन्सान गुमराही , बे दीनी और हरामकारी से बचकर तक़वा और पर्हेज़गारी को अपनाता है। जिससे उसके ईमान की सुरक्षा होती है। वह मनुष्य जिसकी रगों में जवानी का खून और दिल में जवानी की उमंगे हैं वह जिसको खुदा ने प्राकृतिक तौर पर सेक्सी इच्छाओं का मालिक बनाया है वह कि जिन में प्राकृतिक तौर पर अपनी विपरीत जाति की तरफ़ खिचाव और लगाव होता है ----- अगर अपनी इच्छाओं और उमंगो पर ज़ोहद और तक़वा (संयम और पर्हेज़गारी) के सख़्त पहरे बिठा कर प्राकृतिक सेक्सी इच्छाओं की पूर्ति न करे तो वास्तव में उसकी सहत और तन्दुरूस्ती ख़राब और इन्सानी नस्ल खत्म हो जायेगी। जिसको इन्सान हरगिज़ पसन्द नही करता। इसीलिए इस्लाम ने शादी से भागने और कुँवारा रहने को अच्छा नही समझा है। बल्कि शादी को ज़रूरी और मसतहब (जिसके करने में सवाब) बताया है। जो खुदा को पसन्द है।
पैग़म्बर-ए-इस्लाम इर्शाद फ़र्माते हैं।
“ इस्लाम में कोई चीज़ ऐसी नही जो खुदा के नज़दीक़ शादी से ज़्यादा अज़ीज़ और महबूब (अर्थात पसन्द की जाती) हो ”। ( 41)
एक और इर्शादे-ए-गिरामी हैः-
“ ऐसा मर्द जो बीवी नही रखता , गरीब और बेचारः है। चाहे वह मालदार ही क्यों न हो। इसी तरह बिना पति के औरत ग़रीब और बेचारी है चाहे वह मालदार ही क्यों न हो ”। ( 42)
इसी से सम्बन्धित इमाम-ए-जाफर-सादिक़ (अ ,) ने एक शख्स से पूछाः-
“ तुम्हारी बीवी है ? उसने कहा नही। आप ने फरमाया मैं पसन्द नही करता कि एक रात भी बिना बीवी के रहूँ। चाहे उसके बदले में सारी दुनिया की दौलत का मालिक ही क्यों न बन जाऊँ ”। ( 43)
कुछ इसी तरह की बात इमाम-ए-मुहम्मद-ए-बाक़िर (अ ,) ने इर्शाद फर्मायी हैः-
“ मुझे यह बात किसी तरह बर्दाशत नही कि दुनिया और इसमें जो कुछ भी है वह पूरा का पूरा हासिल हो जाए और एक रात बिना औरत के सोऊँ ”।( 44)
उपर्युक्त प्रवचनों से यह बात स्पष्ट होती है कि पूरी दुनिया की दौलत बीवी से कम होती है और पति और पत्नी के दुनिया की दौलत व मालदारी , गरीबी और बेचारगी जैसी है ----------- कौन नही चाहता कि वह मालदार हो जाए और वास्तविक मालदारी विवाह के बिना सम्भव नही। इसी लिए क़ुर्आन-ए-करीम में मिलता हैः-
“ और अपनी (क़ौम की) बिना पति की औरतों और अपने नेक चलन गुलामों और लौंङियों (नौकरानियों) का भी निकाह ( 45) कर दिया करो। अगर यह लोग ग़रीब होंगे तो खुदा अपने रहम (व करम) से मालदार बना देगा ”।( 46)
सिर्फ़ यही नही बल्कि महान खुदा , कुर्आन-ए-मजीद में इस बड़ी नेमत (दौलत) का वर्णन करते हुए फर्माता हैः-
“ खुदा की निशानियों में से एक निशानी यह है कि उसने तुम्हारी जाती में ही से तुम्हारे लिए ज़िन्दगी का साथी पैदा किया ताकि उन से मुहब्बत पैदा करो और उनके साथ आराम व सुकून से रहो और तुम्हारे बीच मुहब्बत और लगाव पैदा किया। इस सिलसिले में ग़ौर करने वालों के लिए बहुत से निशानियां मौजूद हैं ”।( 47)
अर्थात कुर्आन-ए-करीम की दृष्टि में शादी कोई ख़राबी या बुराई नहीं बल्कि आराम व सुकून और मुहब्बत और लगाव का बेहतरीन साधन है और शायद यही दिल को मिलाने वाला वह सुकून हो जो ईमान में बढ़ोतरी का कारण बनता हो। क्योंकि क़ुर्आन ने ईमान में बढ़ोतरी का कारण सुकून ही बताया है।
मिलता हैः-
“ वह वही (खुदा) तो है जिसने मोमिनीन के दिलों में सुकून (और तसल्ली) नाज़िल फ़र्मायी ताकि अपने (पहले) ईमान के साथ ईमान को बढ़ाये ”।( 48)
अतः सुकून हासिल करने के लिए शादी करना आव्यशक है। इसी लिए इस्लाम ने अकेला अर्थात अविवाहित रहने को अच्छा नहीं समझा है बल्कि इसकी कठोर निन्दा की है। रसूल-ए-खुदा का इर्शाद हैः-
“ मेरी उम्मत के बेहतरीन लोग विवाहित हैं और वह लोग बुरे हैं जो अविवाहित हैं ”।( 49)
यह भी फ़र्मायाः-
“ तुम में सब से खराब लोग अविवाहित हैं ”।( 50)
मासूम ने यह भी इर्शाद फ़र्मायाः-
“ तुम में सबसे खराब मर्द वह है जो अविवाहित मर जाए ”।( 51)
जहाँ उपरोक्त सभी बातें बतायीं वहीं विवाहित और अविवाहित की तुलना करते हुए इरशाद फ़र्मायाः-
विवाहित की दो रक़त नमाज़ , अविवाहित की सत्तर रक़त से बेहतर है।( 52)
और विवाहित लोगों से सम्बन्धित इमाम-ए-सय्यद-अल-साजिदीन (अ ,) से रिवायत है किः-
“ अगर कोई शख्स खुदा को खुश करने और औलाद के लिए शादी करे तो क़यामत के दिन उसके सर पर ऐसा ताज होगा जिससे वह बादशाह मालूम होगा ”।( 53)
जब कि आधुनिक युग में कुछ नौजवान आर्थिक कठिनाईयों के कारण शीघ्र शादी करना नही चाहते , कुछ बेमिस्ल (ला जवाब) पत्नी या पति की तमन्ना (आरज़ू , कामना) में अपनी उम्र गुज़ार देते हैं , कुछ बढ़ती हुई आबादी को देखते हुए केवल बच्चों के लिए शादी करना उचित नहीं समझते , कुछ शिक्षा पूरी करने का बहाना करके शादी से बचते हैं , कुछ शादी के झमेलों में पड़ने के बजाए ग़लत सेक्सी सम्बन्धों को बनाए रखना उचित समझते है , कुछ सेक्सी आज़ादी को मानते हैं। इत्यादि।
लेकिन इस्लाम धर्म ने उपर्युक्त रखने वाले हर गिरोह का खूबसूरत जवाब मौजूद है। जो कम आमदनी को सामने रखकर केवल इस लिए शादी नही करते कि घर के खर्चें कैसे पूरे होगें। उनके लिए क़ुर्आन में मिलता हैः-
“ और अपनी (कौम की) बिना पति की औरतों और अपने नेक चलन ग़ुलामों और लौंङियों (नौकरानियों) का भी निकाह कर दिया करो। अगर यह लोग ग़रीब होंगें तो तो खुदा अपने रहम (व करम) से मालदार बना देगा ”। ( 54)
यह खुदा वायदा है ------- फिर भी अगर आर्थिक कठिनाईयों और ग़रीबी व परेशानी को सामने रखा जाए तो मानना पड़ेगा कि खुदा कि क़ुदरत और वायदे पर भरोसा नहीं। इसी लिए रसूल-ए-अकरम (स ,) ने इर्शाद फ़र्माया है किः-
“ जो शख्स ग़रीबी और परेशानी के डर से निकाह न करता हो इसमें कोई शक नहीं कि वह खुदा से बदगुमान (अर्थात खुदा की ओर से बुरी धारणा रखने वाला) है। क्योंकि हक्क़े तआला (अर्थात खुदा) फ़र्माता है कि अगर वह फक़ीर होगें तो खुदा अपने फ़जल व करम से उन्हे ग़नी (मालदार) कर देगा ”।( 55)
कम आमदनी वाले लोगों को कभी ठंडे दिल से सोचना चाहिए कि उनकी उम्र हो गयी , उस पूरी उम्र में कितने दिन बीत चुके , उन बीते हुए दिनों में उन्हे कितने दिन खाना , पानी , लिबास या सर छुपाने की जगह नहीं मिली है तो दिवानों (पागलों) के अलावा शायद ही कोई ऐसा मिले जिसे दो चार दिन तक खाना पानी न मिला हो , लिबास शरीर पर न हो और सर छुपाने की जगह न रही हो ----------अतः मानना पड़ेगा कि जो खुदा को इस उम्र तक खाना देता रहा और ज़िन्दगी की सभी ज़रूरतों को पूरा करता रहा है वह भविष्य में भी राज़िक़ रहेगा और ज़िन्दगी की सभी आव्यश्कताओं को पूरा करता रहेगा। बस प्रयत्न करना मनुष्य का कर्तव्य है ( 56) और राज़िक़ (रोटी) पहुँचाना ( 57) तथा आव्यश्कताओं को पूरा करना खुदा की ज़िम्मेदारी।
ग़ौर करना चाहिए कि अगर कोई शादी कर के अपने ऊपर और ज़िम्मेदारियों का बोझ नही लेना चाहता तो इस से बेहतर है कि वह अपने अन्दर सेक्सी इच्छा को ही न पैदा होने दे ताकि उसकी पूर्ति का भी मसला न हो सके ------- लेकिन यह मनुष्य के बस की बात नहीं। क्योंकि सेक्सी इच्छाओं का पैदा होना प्राकृतिक और कुदरती है। अतः जवानों के लिए शादी (जायज़ शारीरिक मिलाप) प्राकृतिक सेक्सी इच्छाओं की बुनियादी आव्यश्कता है। इसके अलावा दुनिया में ज़िन्दगी की और आव्यश्कताऐं दूसरे नम्बर पर आती हैं। यूँ भी दुनिया का कोई मनुष्य ऐसा नही मिल सकता जिसकी सभी दुनिया की आव्यश्कताऐं उसकी आखिरी उम्र तक पूरी रहें----------- अंतः बुनियादी आव्यश्कता (प्राकृतिक सेक्सी इच्छा) मौजूद होने पर हर लड़के और लड़की को शादी के लिए कदम बढ़ाना चाहिए।
फिर भी अगर कोई शादी में होने वाले प्रारम्भिक खर्चों को देखते हुए शादी के लिए कदम नहीं बढ़ाता , वह भी ग़लत है। क्योंकि इस्लाम में उसके हल पेश किये हैं ----- उदाहरणार्थ लड़की के माता-पिता और संरक्षक दहेज , रस्म व रिवाज और दूसरे कामों से खौफ खाते हैं तो उसके लिए इस्लाम ने हल पेश किया है कि लड़की को चाहने (अर्थात शादी करने) वाला लड़का पहले आधा महर दे जिससे दहेज और दूसरी ज़रूरतों को पूरा किया जा सके और निकाह के समय बाक़ी आधा महर भी दे दे-------- और महर की माँग लड़की के माता पिता या संरक्षक उसी तरह करें जिस तरह रसूल-ए-अकरम (स.) ने अपनी बेटी फातिमः-ए-ज़हरा (स ,) के साथ शादी की मांग करने वाले हज़रत अली (अ.) से किया और महर मिल जाने के बाद ही निकाह (अक्द) किया।
इस्लाम के इस उसूल से लड़की वालों को लड़की की शादी में कोई मुश्किल नही हो सकती ---- लेकिन सम्भव है कि लड़की वाले इस्लाम के उपर्युक्त उसूल से फायदः उठाकर अधीक से अधीक महर तय करने (लेनें) की कोशिश करें और लड़का उसे न दे पाने की सूरत में शादी न कर सके। अतः रसूल-ए-इस्लाम (स ,) ने इसका हल भी पेश किया। आप ने इरशाद फर्मायाः-
“ मेरी उम्मत की बेहतरीन और हैं जो खूबसूरत हों और उनका महर कम हो ”। ( 58)
इसी तरह इमाम-ए-जाफर-ए-सादिक़ (अ ,) ने इर्शाद फर्मायाः-
“ वह औरत बा बरकत है जो कम खर्च हो ”।( 59)
इस तरह इस्लाम धर्म ने लड़के और लड़की दोनों की आर्थिक कठिनाईयों को दूर करने का आसान और खूबसूरत तरीक़ा पेश किया है। जिसको अपना कर मुसलमान कठिनाईयों में पड़े बिना बहुत आसानी से शादी कर सकता है।
माली परेशानियों से अलग हट कर बेमिस्ल पत्नी या पति की तमन्ना (कामना) करने वाले लोगों को पहले अपने को देखना चाहिए कि क्या वह भी बेमिस्ल है या नही ? तो निष्कर्ष निकलेगा कि नहीं। उनमें भी बहुत सी कमियाँ हैं। अतः हर एक को सोचना चाहिए की अगर किसी में कुछ कमियां हैं तो उसको अपनाने में पहल करे ताकि उम्र न गुज़रे और जवानी में मिले हुए खुबसूरत दिनों में अल्लाह की नेअमत से स्वाद और आन्नद का मौका मिल सके। इससे एक मुख्य लाभ यह होगा कि शादी हो जाने के बाद लड़के और लड़की से खराब , बुरे और हराम और शर्म वाले वाकेआत नहीं होंगे।
आम तौर से आधुनिक युम में बेमिस्ल पति या पत्नी की परिभाषा में ईमानदारी , पाक़ीज़गी , पक़वा व पर्हेज़गारी की खूबसूरती , मालदारी और बड़ा खानदान माना जाना लगा है कि जब कि पैग़म्बर-ए-इस्लाम (स ,) कुछ और ही शिक्षा देते हुए दिखाई देते हैः-
“ तुम जब भी निकाह का इरादा करो तीन निशानियों को अवश्य देखो , उसका इख्लाक़ , उसका दीन और अमानत (यह निशानियाँ लड़की और लड़के दोनो के लिए हैं ” )।
आगे फर्माते हैः-
“ अगर तुम ने निकाह के लिए उस के इख्लाक़ , दीन और उसके अमानत दार होने को नही देखा और शादी कर दी तो तुम ने अपनी औलाद की नस्ल काट दी और बड़े लड़ाई झगड़े के अतिरिक्त कुछ नही मिलेगा ”।( 60)
इसी तरह हज़रत अली (अ) ने जनाब-ए-फातिमा ज़हरा (स) की वफात के बाद जब दूसरी शादी का इरादः किया तो अपने भाई जनाब-ए-अकील से कहाः-
“ अक़ील ऐसा बहादुर खानदान और मुत्तक़ी स्त्री तलाश करो जिस के पेट से ऐसा बहादुर बच्चा पैदा हो कि जो कर्बला में हुसैन का साथ दे सके ”।( 61)
और जब एक शख्स ने इमाम-ए-हसन (अ) की सेवा में आकर पूछा किः-
“ मौला बेटी जवान हो गई है। उसकी शादी करना चाहता हूँ। किस से निकाह करूँ ?”
इमाम ने जवाब दियाः-
“ न हुस्न देखना और न दौलत ”। ( 62)
इमाम-ए-हसन (अ.) की ही इर्शाद हैः-
“ किसी को बेटी दो तो यह देखो कि लड़का नेक , पर्हेज़गार और मुत्तक़ी है या नही। क्योंकि अगर तेरी बेटी उसे पसन्द आई तो उससे मुहब्बत करेगा और तेरी बेटी की इज़्ज़त करेगा। लेकिन अगर तेरी बेटी अगर उसकी कसौटी पर पूरी नही उतरी तो वह कभी ज़ुल्म (परेशान) नही करेगा। क्योंकि मुत्तक़ी कभी ज़ुल्म नही करता ”। ( 63)
और इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक़ (अ) ने इरशाद फर्मायाः-
“ अगर खूबसूरती और हुस्न के लिए शादी करोगे तो न हुस्न मिलेगा और न दौलत बल्कि बरबादी के पात्र होगे ”।( 64)
याः-
“ जो शख्स माल व हुस्न व जमाल के लिए निकाह करगा वह दोनों से महरूम रहेगा और जो शख्स पर्हेज़गारी और दीन के लिए निकाह करेगा , हक़-ए-तआला (खुदा) उसको माल भी देगा और जमाल भी ”। ( 65)
उपर्युक्त प्रवचनों की रौशनी में यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पत्नी या पति की तलाश के लिए तक़वा व पर्हेज़गारी , इख्लाक़ व मुरव्वत , दीनदारी , ईमानदारी और बहादुरी आदि को देखना चाहिए न कि हुस्न व जमाल , माल या दौलत या आधुनिक आज़ादी आदि। कुर्आन में साफ-साफ ऐलान मौजूद हैः-
गन्दी औरतें गन्दें मर्दों के लिए (उपयुक्त) हैं और गन्दे मर्द गन्दी औरतों के लिए और पाक औरतें पाक मर्दों के लिए (उपयुक्त) हैं और पाक मर्द पाक औरतों के लिए।( 66)
और यही आपस में एक दूसरे के साथ शादी करने के लिए उचित हैं। जहाँ तक मोमिन मर्दों और मोमिनः औरतों की पहचान का सम्बन्ध है उनके लिए कुर्आन में मिलता हैः-
“ ए-रसूल। ईमानदारों से कह दो कि अपनी निगाहों को नीचे रखें और अपनी शर्मगाहों की सुरक्षा करें। यही उनके वास्ते ज़्यादा सफाई की बात है (ए रसूल) ईमानदार औरतों से भी कह दो कि वह भी अपनी निगाहें नीचे रखें और अपनी शर्मगाहों की सुरक्षा करें और अपने बनाव सिंगार (की जगहों) को (किसी पर) प्रकट न होने दें। मगर जो अपने आप प्रकट हो जाता है। (छुप न सकता हो उसका गुनाह नहीं) और अपनी ओढ़नियों (चादरों , दुपटटों) को अपने सीनों पर डाले रहें और अपने पतियों या अपने बाप दादाओं या अपने पति के बाप दादाओं या अपने बेटों या अपने पति के बेटों या अपने भाईयों या अपने भतीजों या अपने भानजों या अपनी तरह की औरतों या अपनी नौकरानियों या (घर के) वह नौकर जो मर्द की सूरत तो हैं मगर (बहुत बुढ़े होने कि वजह से) औरतों से कुछ मतलब नही रखते या वह कम उम्र लड़के जो औरतों के पर्दे की बात नही जानते। उन के अतिरिक्त (किसी पर) अपना बनाव सिंगार प्रकट न होने दिया करें और चलने में अपने पैर ज़मीन पर इस तरह से रखें कि लोगों को उनके छुपे हुए बनाव व सिंगार की खबर हो जाए ”। ( 67)
जो लोग बढ़ती हुई आबादी को देखते हुए केवल बच्चों के लिए शादी करना उचित नहीं समझते , वह कभी यह क्यों ग़ौर क्यों नही करते कि क्या मनुष्य की तरह जानवर और पेड़ पौधे भी यह सोचते हैं कि औलाद न हो , फल न आए और नस्ल बाक़ी न रहे ------- नहीं ऐसा नहीं होता। जानवरों और पेड़ पौधों में नर और मादा का इश्क व लगाव और मिलाप केवल औलाद और फल के लिए होता है ताकि दुनिया में उसकी नस्ल बाक़ी रहे। तो मनुष्य जो अशरफ-उल-मख़्लूक़ात (सारे प्राणी वर्ग में सब से श्रेष्ठ) है वह ऐसा क्यों सोचता है कि औलाद न हो और उसकी नस्ल बाक़ी न रहे------ वास्तव में औलाद का होना या न होना , मनुष्य के बस की बात नही है --------- और अगर उसी के बस की बात होती तो दुनिया में बहुत से इन्सानी जोड़े केवल एक औलाद की कामना में दुआ , दवा , मन्नत , मुराद न करते फिरते ------ इसके विपरीत वह जोड़े जो ग़रीबी के खौफ ( 68) से नस्ल से खत्म करने के लिए फैमिली प्लानिंग के उसूलों पर अमल करते हैं वह एक के बाद एक बच्चे को खुशी से या मजबूरी में अपनी गोद में न पालते रहते।
अगर इस्लाम की दृष्टि में नस्ल का बाक़ी रखना तात्पर्य न होता तो शायद इस्लामी शरीअत हस्त मैथुन और गुद मैथुन के द्वारा वीर्य की पूरी तरह बरबादी और बलत्कारी के द्वारा काफी हद तक बरबादी पर सख्त पाबंदी लागू नही करती -------- इसी कीमती वीर्य की सुरक्षा (बरबादी से बचाने) के लिए ही शरीअत ने यहाँ तक आदेश दिया है कि अपनी आज़ाद निकाही पत्नी से संभोग करते समय अपने वीर्य को पत्नी की योनि के बाहर बिना इजाज़त के नही ड़ाल सकते। ( 69) (क्योंकि इससे वीर्य की बरबादी है) ------ अतः मानना पड़ेगा कि शादी केवल औलाद के लिए होना चाहिए और औलाद खुदा कि एक महान नेअमत का नाम है। इसी लिए रसूल-ए-इस्लाम (स ,) ने फर्मायाः-
“ मोमिन को कौन सी चीज़ इस बात से मना करती है कि वह निकाह करे। शायद खुदा उसको ऐसा बेटा दे जो ज़मीन को कल्मः-ए-ला इललल्लाह से शोभा दे ”। ( 70)
अगर शिक्षा का बहाना ले कर शादी न की जाए तो यह उस समय तक ठीक और उचित रहेगा जब तक कि हराम का खौफ न हो। अगर हराम का खौफ़ या डर हो तो उस समय पर शादी वाजिब (अनिवार्य) हो जाएगी। वैसे भी क़ुर्आन के अनुसार शादी के द्वारा आराम व सकून मिलता है और पढ़ाई के लिए आराम व सकून आव्यश्क है। इसलिए मानना पड़ेगा कि पढ़ने की नीयत रखने वाले लोग शादी के बाद और दिल लगाकर पढ़ सकते हैं।
जो लोग शादी के झमेलों में पड़ने या स्थायी तौर से शादी करने के बजाए ग़लत सेक्सी सम्बन्धों को बनाए रखना उचित समझते हैं। अर्थात सही चीज़ को ग़लत तरीक़े से हासिल करने की बात को सही मानते हैं वह शरीअत-ए-इस्लाम के अनुसार हराम कारी और बलात्कारी करते हैं। जिनके लिए अज़ाब (पाप) है और यही सेक्सी आज़ादी को मानने वाले लोगों के लिए भी है।
शायद ऐसे ही लोगों के लिए इस्लाम ने सामायिक शादी (मुतअः) का आदेश दिया है। जिसके द्वारा जाएज़ चीज़ को जाएज़ तरीक़े से हासिल किया जा सकता है। क्योंकि शादी (हमेशा के लिए हो या सामायिक) का बुनियादी उद्देशय सेक्सी इच्छा की पूर्ति ही है और औलाद होना सेक्सी पूर्ति का नतीजा है। जो दूसरे नम्बर पर आती है। यही कारण है कि सेक्सी इच्छा की पूर्ति न होने पर शादी का उद्देशय ही खत्म हो जाता है लेकिन औलाद (सन्तान) के बिना ऐसा नही होता। और मनुष्य कभी-कभी सेक्सी इच्छा की पूर्ति की आव्श्कता महसूस करता है लेकिन सन्तान की इच्छा नही करता। इसी लिए इस्लाम धर्म ने पत्नी न होने या पत्नी से पूरी तरह इच्छा पूर्ति न होने पर सेक्सी इच्छा की पूर्ति के लिए मुतअः (सामायिक शादी को जाएज़ करार दिया है।
“ मुतआः- इस्लाम ने ज़ाएज़ चीज़ को जाएज़ तरीक़े से हासिल करने अर्थात सेक्सी इच्छा की पूर्ति के लिए निकाह की शर्त लगाई है और निकाह पढ़ लेने के बाद औरत , मर्द पर हलाल हो जाती है जिसके बाद दोनों (स्त्री और पुरूष) आपस में किसी भी तरह से स्वाद और आन्नद उठा सकते हैं। इस निकाह के दो प्रकार हैं। निकाह-ए-दायमी (हमेशा के लिए निकाह) और निकाह-ए-मुवक्कती (सामायिक निकाह अर्थात मुतअः) दोनों प्राकृतिक आव्यश्कता और सेक्सी इच्छा की पूर्ति के लिए ही होते हैं। दोनों के अभिप्राय और उद्देशय एक है केवल फर्क इतना है कि हमेशा के लिए निकाह में समय सीमा तय नही होती और न ही किसी तरह की शर्त लगाई जाती है जब कि सामायिक निकाह में समय सीमा तय होती है और शर्त भी लगाई जा सकती है। उदाहरण के लिए जब कोई स्त्री मुतअः करने के समय यह शर्त कर दे कि उसका पति उसके साथ संभोग न करे तो मुतअः भी सही है और शर्त भी। और उसका पति उस से हर तरह का स्वाद और आन्नद हासिल कर सकता है। लेकिन अगर पत्नी स्वंय बाद में राज़ी हो जाए तो उसका पति उस से संभोग कर सकता है ”। ( 71)
मुतअः (अर्थात सामायिक शादी) ना जाएज़ सेक्सी सम्बन्ध और बलात्कारी से विभिन्न चीज़ है। जब कि कुछ मुतअः के विरोधी इसको बलात्कार का नाम देते हैं। लेकिन मुतअः और बलात्कारी में बड़ा अन्तर है। मुतअः शरीअत (धर्म) के बताए हुवे तरीक़े के अनुसार खास सीग़ों (निकाह के समय पढ़े जाने वाले मुख्य धार्मिक वाक्य) के पढ़े जाने का नाम है। जिसमें ईजाब (अनिवार्य करना) और क़ुबूल अपनाना होता है और बलात्कारी अधार्मिक काम है जिस में सीगे नही पढ़े जाते अर्थात ईजाब व कुबूल नही होता।
यह वास्तविक्ता है कि मनुष्य को कभी-कभी ऐसे हालात से ग़ुज़रना पड़ता है कि जिसमें निकाह सम्भव नही होता और वह ज़िना , (बलात्कार) या मुतअः (सामायिक शादी) मे से किसी एक को अपनाने पर मजबूर हो जाता है। ऐसे हालात में ज़िना के मुकाबले में मुतअः कर लेना बेहतर है। अर्थात इस्लाम धर्म में आव्यश्कता के समय मुत्अः वह बड़ी नेअमत है जो जवानों की पाकदामनी और पर्हेज़गारी को बाक़ी रखने और हरामकारी से बचाए रखने में मददगार साबित होता है। मुतअः से सम्बन्धित क़ुर्आन-ए-करीम में मिलता हैः-
“ जिन औरतों से तुम ने मुतअः किया हो तो उन्हें जो महर तय किया हो दे दो और महर के तय होने के बाद आपस में (कमी व ज़्यादती पर) राज़ी हो जाओ तो इस में तुम पर कुछ गुनाह नही है। बेशक खुदा (हर चीज़ का) जानकार मसलहतों का पहचाननें वाला है ”।( 72)
उपरोक्त आयत मुतअः के जाएज़ व हलाल होने पर दलील है जो मनुष्य को गुमराही और बदकारी से बचा सकती है। मुतअः से सम्बन्धित मिलता है किः-
“ जो शख्स मुतअः करे आयु में एक बार वह स्वर्ग के लोगों मे से है और उस पर पाप नही किया जाएगा जो स्त्री और पुरूष मुतअः करें। मगर स्त्री पाक दामन हो , मोमिनः हो ”। ( 73)
लेकिन कुँवारी लड़की से मुतअः करना मकरूह है।
मुतअः के जाएज़ होने का सुबूत इस से भी मिलता है कि रसूल (स.) के ज़माने के बाद रसूल (स ,) के असहाब (हज़रत अबू बकर और हज़रत उमर) हुकूमत के दौर में भी मुतअः होता रहा। बाद मे हज़रत उमर ने लोगों को मुतअः से मना किया. जिसकी तरफ़ हज़रत अली (अ.) ने इस तरह इशारः किया हैः-
“ अगर हज़रत उमर लोगों को मुतअः से मना करते तो कयामत तक अलावा शक़ी (निर्दय) और बदबख़्त (अभागा) के कोई दूसरा ज़िना नही करता ”। ( 74)
अर्थात हज़रत अली (अ.) के नज़दीक मुतअः ज़िना और हराम कारी से बचने वाली चीज़ है अतः मुतअः से रोकना ठीक नही। क्योंकि हज़रत अली (अ.) मुतअः से रोकने को ठीक नही समझते हैं। जबकि इस युग में मुतअः से काफी दूर भागने की कोशीश की जा रही है। यह भी देखने में आता है कि कुछ लोग मुतअः को जाएज़ जानते हुए भी मुतअः नही करते , लेकिन कभी-कभी ज़िना कारी पर तैय्यार हो जाते हैं। शायद इसकी वजह यह है कि ज़िना कारी छिप कर होती है। और अधीकतर लोगों को इसका ज्ञान भी नही हो पाता। लेकिन मुतअः ऐलानिया होता है इस लिए समाज ऐसे लोगों से हमेशा के लिए निकाह करने पर तैय्यार नहीं होता , जिसने मुतअः किया है। क्योंकि समाज की दृष्टि में मुतअः करने वाले लोगों के दामने किरदार पर सेक्सी इच्छाओं का धब्बा लग जाता है। जो बिल्कुल ग़लत है। क्योंकि मुतअः कोई अधार्मिक कार्य नही बल्कि प्राकृतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए धार्मिक और जाएज़ कार्य है। इस से मुत्अः करने वाले लोगों के ईमान व अमल , तक़वा व पर्हेज़गारी और इफ़्फ़त व पाकीज़गी का सुबूत भी मिलता है। इसी लिए इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक़ (अ.) ने इर्शाद फर्मायाः-
“ एक बात ऐसी है कि जिसे बयान करने में कभी तकय्यः नही करूँगा वह मुतअः कि बात है ”। ( 75)
मुतअः के बाद यह सम्भव है कि स्त्री व पुरूष दोनों आपस में एक दूसरे के मिज़ाज को समझ सकें और तबीयतों में एकरूपता होने पर सामायिक निकाह को हमेशा के निकाह में बदल लें और आने वाली ज़िन्दगी खुशगवार हो सके और तबीयतों में विभिन्ता होने पर एक तय किये हुवे समय पर अलग हो जायें।
आने वाली ज़िन्दगी को खुशगवार बनाने के लिए ही अब योरप में बिना निकाह के (अर्थात समाज की तरफ से स्त्री और पुरूष को सेक्सी मिलाप की इजाज़त मिलने के बाद) सेक्सी सम्बन्ध बनाए जाते हैं। इन सेक्सी सम्बन्धों का तात्पर्य यह होता है कि निकाह से पूर्व ही आने वाली शादी की ज़िन्दगी के खुशगवार होने का यक़ीन कर लिया जाए और इस तरह की शादीयों को आरज़ी (अस्थायी) आज़माईशी (परख की) या वक्ती शादी का नाम दिया जाता है।( 76) और यह समझा जाता है कि इस तरह की शादी के द्वारा जवानी के ज़माने में सेक्सी परेशानियों और शारीरिक बीमारियों से बचा जा सकता है और एक दूसरे के मिज़ाज को समझ कर हमेशा के लिए शादी भी की जा सकती है। इसी लिए ब्रितेन्ड रसल जवानी के ज़माने की सेक्सी परेशानियों की तहक़ीक़ (पर शोध) करने के बाद लिखता है किः-
“ इस मुश्किल का सही हल यह है कि शहरी क़ानूनों में आयु के इस संवेदनशील आयली (घरेलू) ज़िन्दगी की तरह खर्चों का बार न हो ताकि नौजवानों को विभिन्न ग़ैर क़ानूनी और नाजाएज़ कामों से रोका जा सके और तरह तरह की रूहानी (आत्मिक) और जिसमानी (शारीरिक) बीमारियों से बचाया जा सके ”।( 77)
इससे यह सुबूत मिलता है कि इस तरक़्क़ी के युग में ग़ैर कानूनी और नाजाएज़ कामों से रोकने और प्राकृतिक इच्छाओं को पूरा करने के लिए सामायिक शादी को जगह दी जा रही है। जो काफी हद तक इस्लामी (अर्थात प्रकृति के अनुसार धर्म के) क़ानून मुतअः से मिलती जुलती है। इसी लिए तो हज़रत अली (अ.) ने कहाः-
“ अगर हज़रत उमर लोगों को मुतअः से मना न करते तो क़यामत तक सिवाये शक़ी और बदबख़्त के कोई दूसरा ज़िना न करता। ( 78)
लेकिन दीने फ़ितरत (अर्थात प्रकृति के अनुसार धर्म-इस्लाम) के क़ानून मुतअः के सिलसिले में यह बात हमेशा याद रखना चाहिए कि मुतअः आव्यश्कता होने पर ही (जैसे जब हराम में पड़ जाने का डर हो , सफर में हो , दवा के लिए हो , (79) किसी की मदद करना मक़सद हो आदि) होना चाहिए न कि बिना ज़रूरत। चुनाँचे हक़ बात कहने वाले इमामों ने अकसर यह शीक्षा दी है कि आवयश्कता न होने पर मुतअः न किया जाए। उदाहरण के लिए एक शख़्स ने इमाम-ए-मूसी-ए-काज़िम (अ.) से मुतअः से सम्बन्धित पूछा तो आप ने इर्शाद फर्मायाः-
“ पत्नी की मौजूदगी में तुम्हे मुतअः की क्या ज़रूरत ” ?(80)
या
“ तुम्हे मुतअः करने की ज़रूरत है। खुदा ने तुम्हें तो इस ज़रुरत से दूर रखा है ”।( 81)
और
“ मुतअः उसके लिए है जिसे अल्लाह ने पत्नी के होते हुए , उससे बेनियाज़ (बेपर्वा) न किया हो। जिसकी पत्नी हो वह केवल उस समय मुतअः कर सकता है जब उसका अधिकार (इख्तियार) अपनी पत्नी के ऊपर न हो ”। ( 82)
अतः यह बात साबित हो जाती है कि मुतअः के शरई जवाज़ (अर्थात धर्म के अर्थाप जाएज़ होने) से नाजाएज़ फायदः उठाना यक़ीनी तौर पर उसकी हिक़मत (युक्ति) और मसलहत (परामर्श या हित) को मिट्टी में मिला देना है और ऐसा करना अक़्ली तौर पर जुर्म से कम नही है। मगर यह कि हराम का ख़ौफ़ होने पर सामायिक निकाह (अर्थात मुतअः) या दायमी निकाह (अर्थात पूरी ज़िन्दगी के लिए निकाह) वाजिब (ज़रूरी) है।