शादी का बुनियादी तात्पर्य –संभोग-
जवानी में क़दम रखने के बाद प्राकृतिक रूप से प्रत्येक नौजवान मर्द और औरत को अपनी नई ज़िन्दगी का आरम्भ करने के लिए एक अच्छे साथी की तलाश होती है और यह तलाश औरत के मुक़ाबले में मर्द को ज़्यादा होती है। क्योंकि उसे अपनी सेक्सी इच्छा की पूर्ति के साथ-साथ अपने नाम व निशान अर्थात नस्ल को बाक़ी रखने के लिए औलाद की ख्वाहिश होती है जिसका पूरा होना औरत के बिना सम्भव नही है ------ मर्द को औरत की तलाश इसलिए भी होती है कि वह प्राकृतिक तौर पर औरत की सरपरस्ती (देख-भाल , पालन-पोषण) करना चाहता है और औरत इसलिए मर्द का साथ इख़्तियार कर लेती है कि वह प्राकृतिक तौर पर मर्द की सरपरस्ती (अभीभावकता) को क़ुबूल करना चाहती है ------ प्राकृतिक तौर पर मर्द और औरत एक दूसरे की इच्छा इसलिए भी करते हैं कि दोनों मिलकर एक घर को बसा सकें और घरेलू जीवन (अर्थात जोड़ा बनाकर जीवन) व्यतीत कर सकें।
घरेलू जीवन व्यतीत करने की यह प्राकृतिक इच्छा मनुष्यों के अलावा कुछ पशु-पक्षियों (जैसे शेर-शेरनी , कबूतर-कबूतरी , चिङिया-चिडढ़ा आदि) में भी पाई जाती है जो जोड़ा बनाकर ही जीवन व्यतीत करते हैं ------ क़ुदरती और प्राकृतिक तौर पर इन जोड़ो में मादा , नर की सेक्सी इच्छा की पूर्ति के साथ-साथ औलाद देने की ज़िम्मेदारी भी निभाती है और नर प्राकृतिक इच्छा की पूर्ति के साथ-साथ घर (अर्थात मादा और बच्चों) की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी निभाता है।
यह बात देखने में आती है कि इस तरह घरेलू जीवन व्यतीत करने के लिए जोडा बनाने (मुख्य रूप से कबूतर को देखा जा सकता है जो कबूतरी से कोशिश के साथ जोड़ा बनाता है) घर बसाने और घर की हिफ़ाज़त (देखरेख) करने का पूरा रोल नर ही अदा करता है। जो मनुष्य में भी पाया जाता है।
शादी का ख़्याल आने पर दुआ
चूँकि क़ुदरती और प्राकृतिक मर्द जोड़ा बनाने , घर बसाने और औलाद की इच्छा के लिए हमेशा एक अच्छी (न कि बुरी) औरत की तलाश करता रहता है। इसीलिए इमाम-ए-जाफर-ए-सादिक़ (अ.) ने हर मर्द को प्राकृतिक तौर पर औरत का ख्याल आने और शादी का इरादः करने पर दो रकअत नमाज़ पढ़ने , खुदा की तारीफ करने और निम्नलिखित दुआ पढ़ने की शीक्षा दी हैः
अल्लाहुम्मा इन्नी ओरीदो अनअताज़व्वजा फकददिर ली मिनन निसाऐअअफ़्फहुन्ना फरजाँव व अहफज़हुन्ना ली फी नफसेहा व माली वऔसअहुन्ना ली रिज़कन व अअज़माहुन्ना ली बरकतन फी नफ़सेहा व माली इन्नी अतरोको फकददिर ली मिनहा वलादन तय्येबन तजअलोहू खलाफन सालेहन फी हयाती व बअदा मौती। ( 123)
(अर्थात) ए अल्लाह- मेरा इरादः है कि मै निकाह कँरू , तू मेरे लिए औरतों मे से ऐसी औरत मेरे भाग्य में लिख जो पर्हेज़गारी में सब से बढ़ी हूई हो और मेरे लिए अपने नफ़्स (आत्मा) और मेरे माल की सबसे ज़्यादा हिफाज़त (सुरक्षा) करने वाली हो और मेरे लिए रिज़्क (रोज़ी) की बढ़ोतरी के हिसाब से सब से ज़्यादा नसीब वाली हो और इसी तरह बरकत (लाभ) में भी मेरे लिए सबसे बढ़ी हो। फिर मुझे उसके गर्भ से एक पाकीज़ा और नेक औलाद देना जो मेरी ज़िन्दगी में और मरने के बाद मेरी नेक यादगार बने।
मासूम (अ ,) की बताई हुई उपर्युकत दुआ से इस बात का अन्दाज़ा हो जाता है कि औरत का पाक और पाकिज़ा होना , अपने नफ्स और पति के माल की हिफाज़त करना , पति की रोज़ी व बरकत में बढ़ोतरी होना और नेक औलाद को जनना ही मुख्य खूबियों मे है जिस के लिए अल्लाह ने शुरू शुरू (अर्थात शादी के लिए औरत का ख्याल आते ही) में ही दुआ करना एक मोमिन का कर्तव्य है और दुआ को कबूल करना अल्लाह के ऊपर। क्योंकि क़ुर्आन-ए-करीम में है किः-
और तुम्हारा पर्वरदीगार फ़र्माता है कि तुम मुझ से दुआऐं मांगो मै तुम्हारी (दुआ) क़ुबूल करूगाँ। ( 124)
बहरहाल यह याद रखना चाहिए कि क़ुदरत (हालात) होने पर हर नौजवान मर्द को शादी करने और घर बसाने का ख्याल करना चाहिए क्योंकि रसूल-ए-अक़रम (स ,) का इर्शाद हैः-
ए जवानों- अगर शादी करने की क़ुदरत रखते हो तो शादी करो क्योंकि शादी आँख को नामहरमों से ज़्यादा दूर रखती है और पाकदामनी और पर्हेज़गारी पैदा करती है। ( 125)
इसके अतिरिक्त शादी करने और घर बसाने की क़ुदरत न होने की हालत में क़ुर्आन में मिलता हैः-
और जो लोग निकाह करने की क़ुदरत नही रखते उनको चाहिए की पाकदामनी पैदा करें यहाँ तक की खुदा उनको अपने फज़ल (व करम) से मालदार बना दे। ( 126)
जो इस बात का सुबूत है कि घर बसाने की क़ुदरत न होने की हालत में शादी नही करना चाहिए। लेकिन अगर क़ुदरत है तो चाहिए कि नौजवान मर्द अपने शादी के ख्याल को अपने माता-पिता पर भी प्रकट कर दें , उनसे सलाह लें और उनकी सलाह पर अमल करें तो बेहतर (उचित) है क्योंकिः-
बेटे का बाप पर एक हक़ होता है और बाप का बेटे पर एक हक़ होता है। चूनाँचे बाप का बेटे पर यह हक़ है कि बेटा हर बात में उसका कहना माने मगर खुदा की नाफरमानी में (न माने) और बेटे का हक़ बाप पर यह है कि बाप उसका नाम अच्छा रखे उसको अच्छी-अच्छी बातें सिखाए और उसे क़ुर्आन-ए-पाक की शीक्षा दे। ( 127)
और शादी के लिए रिश्ते का चयन करना खुदा-ए-पाक की नाफरमानी (अर्थात उसके आदेश का न मानना) नहीं है।
माता-पिता की सलाह पर अमल करना इसलिए भी उचित है कि अधिकतर नौजवानों से ज़्यादा माता-पिता या अभिभावक बेटे की नई ज़िन्दगी को द्रष्टिगत रखकर अच्छे से अच्छा साथी तलाश करने की फिक्र में रहते हैं। और वह अपनी इस तलाश में अपने अनुभव के कारण काफी हद तक क़ामयाब भी रहते हैं ------ और लड़की के माता-पिता या अभिभावक को तो इस्लाम धर्म ने पूरी इजाज़त दी है कि वह उसके लिए पति का चयन करें। मसायल में यहाँ तक मिलता है किः-
जब लड़की किशोरी (जवान) हो जाए और अपने बुरे भले को समझने का सलीक़ा रखती हो अगर वह किसी के साथ शादी करना चाहे और अगर वह कुँवारी हो तो वह लाज़मी अहतियात की बुनियाद पर अपने बाप या दादा से इजाज़त ले। लेकिन माँ और भाई की इजाज़त ज़रूरी नही। ( 128)
पैग़ाम देना
बहरहाल माता-पिता की सलाह के बाद ज़माने (समय) के उसूल के अनुसार मर्द या उसके माता-पिता को औरत के घर शादी का पैग़ाम भेजना चाहिए। ज़माने के इस उसूल से औरत की हैसीयत और उसकी इज़्ज़त का भी अन्दाज़ा होता है। जिसमें मर्द की तरफ से शादी का पैग़ाम दिया जाता है और औरत की तरफ से शादी के पैग़ाम की स्वीक्रति या अस्वीक्रति होती है------- और अगर लड़की के माता-पिता या अभिभावक अपनी ओर से रिश्ते (चयन) की पेशकश करें तो यह तरीक़ा शरीअत (धर्म के क़ानून) के विपरीत नही है बल्कि पैग़म्बर (स.) की सुन्नत (अर्थात वह काम जो पैग़म्बर (स.) ने किया हो) पर अमल करना। क़ुर्आन-ए-करीम में मिलता है किः-
(तब) शुएब (अ.) ने कहा मै चाहता हूँ कि अपनी इन दोनों लड़कियों में से एक के साथ तुम्हारा इस (महर) पर निकाह कर दूँ--------। ( 129)
अर्थात जनाबे शुएब (अ ,) पैग़म्बर ने जनाबे मूसा (अ ,) जैसे नेक , पर्हेज़गार , सच्चे , अच्छे ईमानदार और बहादुर मर्द के निकाह में देने के लिए अपनी एक लड़की की पेश-कश की जिस से यह नतीजा निकलता है कि नेक , पर्हेज़गार और ईमानदार मर्द के निकाह में देने के लिए अपनी लड़की की पेश-कश की जा सकती है। जो शरीयत के हिसाब से ग़लत नही है। वरन् वर्तमान समाज में बुरा ज़रूर समझा जाता है। अतः उचित है कि पसन्द के होते हुवे भी मर्द की ओर से पैग़ाम भेजा जाए ताकि समाज में औरत की हैसियत और इज़्ज़त बाक़ी रहे।
यूँ भी प्रकृति ने मर्द को मुहब्बत का देवता और औरत को मुहब्बत की देवी बनाया है। मर्द परवाहः (पतंगा) जैसा है और औरत शमअ। शमअ हमेशा अपनी जगह पर मौजूद रहती है और परवानः दूर से उसके करीब जाता है और अपनी जान को निछावर कर देता है। ठीक इसी तरह से बुलबुल और फूल (गुल) का भी रिश्ता है। फूल अपनी जगह पर मौजूद रहता है और बुलबुल उसको तलाश करते हुवे उसके पास पहुँच जाती है------- इसी तरह मर्द को भी चाहिए कि वह बुलबुल या परवानः की तरह फूल या शमअ को तलाश करते करते औरत के घर तक पहुँचे और अपना शादी का पैग़ाम दे। क्योंकि मर्द को शादी के लिए औरत करना और अपना पैग़ाम देना कोई बुराई की बात नहीं है।
लेकिन इस्लामी शरीअत के अनुसार मर्द , अपनी शादी का पैग़ाम हर औरत के पास नही दे सकता। बल्कि उसे हराम और हलाल ( 130) औरतों को ज़रूर देखना होगा। क्योंकि हराम औरत से शादी करने के बाद औलाद हराम और हलाल औरत से शादी करने के बाद औलाद हलाल होगी और समाज में केवल उन्हीं औलादों को इज़्ज़त मिलती है जो हलाल है और शादी का तात्पर्य भी यही होता है कि घर बसाने के साथ-साथ जाएज़ और हलाल औलाद को हासिल किया जा सके। जिन को समाज में इज़्ज़त की निगाह से देखा जा सके।
पिछले अध्याय में इस बात को स्पष्ट किया जा चुका है कि औरत के चयन में हलाल और हराम को ध्यान में रखने के साथ-साथ अच्छी और बुरी को भी देख लेना चाहिए क्योंकि औरतें मर्दों की खेतियाँ ( 131) हैं। जिसमें मर्द अपनी बीज डालता है। अतः औरत यदि अच्छी होगी तो उससे मिलने वाला फल (अर्थात बच्चा) भी होगा। इसीलिए रसूल-ए-खुदा (स ,) अपने असहाब (साथियों) को समझाते थे कि वह पत्नी के चयन में बहुत देख भाल करें अर्थात बीज डालने से पहले यह देख लिया करें कि ज़मीन भी अच्छी और ठीक है या नही ताकि औलाद में माँ की तरफ से बुरी बातें पैदा न हों। ( 132)
रसूल-ए-खुदा (स.) ने यह भी इर्शाद फर्माया किः-
इस बारे में निगाह रखो कि तुम अपनी औलाद को किस बर्तन में रख रहे हो। क्योंकि अरूक़-ए-निसवानी –वसास- (अर्थात अख़लाक़-ए- माता-पिता बच्चों की तरफ परिवर्तित करने वाली) होती है। ( 133)
शायद इसी लिए हज़रत अली (अ ,) को कहना पङाः-
अक़ील ऐसा बहादुर ख़ानदान पर्हेज़गार औरत तलाश करो कि जिस के गर्भ में ऐसा बहादुर बच्चा पैदा हो कि जो कर्बला में हुसैन (अ.) की देख-रेख कर सके। ( 134)
और हुवा भी यही कि बहादुर खानदान की पर्हेज़गार औरत जनाबे उम्मुल बनीन के गर्भ से जनाबे अबुल फ़ज़्लिल अब्बास (अ.) जैसे पर्हेज़गार , मासूम जैसे और बहादुर बेटे पैदा हुवे जिन्होनें कर्बला में इमामे हुसैन (अ ,) की सुरक्षा का हक़ अदा कर दिया।
अतः प्रत्येक मर्द को चाहिए कि वह अपने बराबर और अपने जैसी औरत के चयन में , औरत से सम्बन्धित मालूमात हासिल करने के साथ-साथ उसके पूरे खानदान से सम्बन्धित भी मालूमात हासिल करे ताकि एक अच्छा रिश्ता बनाया जा सके--------- और मालूमात हासिल करने के बाद पति-पत्नी का रिश्ता बनाने के लिए मर्द स्वयं , उस औरत के यहाँ अपनी शादी का पैग़ाम भेजे या अपने माता-पिता , अभिभावक , परिवार के दूसरे लोगों , दोस्तों आदि किसी के द्वारा औरत के यहाँ अपनी शादी का पैग़ाम ( 135) भिजवाए------ और शादी का पैग़ाम आने पर लड़की वालों को चाहिए कि वह भी मर्द और उसके खानदान से सम्बन्धित मालूमात हासिल करें , हराम व हलाल ( 136) और अच्छे व बुरे ( 137) पर ध्यान दें और अपने हम कफो ( 138) (बराबर) और अपने जैसे होने पर ही अपनी बेटी देने (अर्थात शादी करने) पर राज़ी होने को उस समय ज़ाहिर करें जब लड़की की मर्ज़ी ले लें। क्योंकि इस्लाम में अपनी शादी के लिए पति के चयन में लड़कियों का पूरा अधिकार होता है। अतः उनकी मर्ज़ी लेना ज़रूरी है।
तारीख इस बात की गवाह है कि रसूल-ए-खुदा (स.) ने अपनी बेटी जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स.) को अपने लिए पति के चयन में पूरी तरह आज़ाद रखा -------- जब हज़रत अली (अ ,) ने रसूल-ए-खुदा से उनकी बेटी जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स.) की शादी अपने साथ करने का ख्याल ज़ाहिर किया तो रसूल-ए-खुदा (स.) ने हज़रत अली (अ ,) को जवाब दिया कि अब तक कई लोग फ़ातिमा ज़हरा (स.) से शादी का ख़्याल लेकर मेरे पास आये. तो मैने उनकी बात फ़ातिमा ज़हरा (स.) के सामने रखी। लेकिन फ़ातिमा ज़हरा (स.) के चेहरे से मालूम हुआ कि वह उन लोगों के साथ शादी नहीं करना चाहती हैं। इसलिए तुम्हारी बात भी फ़ातिमा ज़हरा (स.) से कहूँगा------ रसूल-ए-खुदा (स.) फ़ातिमा ज़हरा (स.) के पास गए और शादी के लिए आए हुवे पैग़ाम को सुनाया तो फ़ातिमा ज़हरा ने मुँह नही फेरा और चुपचाप बैठी रहीं। चुपचाप रहने से रसूल-ए-खुदा (स.) समझ गये कि फ़ातिमा ज़हरा (स.) ने इस पैग़ाम को मान लिया है ------ बाद में जनाबे ज़हरा (स.) के राज़ी होने की खबर हज़रत अली (अ ,) को दे दी।
उपर्युक्त वाक़िए (विवरण) से यह सबक़ मिलता है कि हर बाप को अपनी बेटी के लिए पति के चयन में बेटी की मर्ज़ी (सहमति) लेना ज़रूरी है। बेटी की मर्ज़ी से ही सम्बन्धित एक वाक़िया यह भी मिलता है किः-
एक परेशान व दुखी लड़की हज़रत पैग़म्बर (स.) के पास आई और कहा कि – या रसूलल्लाह (स) खुद इस के हाथों........। आख़िर तुम्हारे बाप ने क्या किया है ? इन्होंने अपने एक भतीजे से मेरी मर्ज़ी के बिना मेरी शादी कर दी है। ------ अब तो वह शादी कर चुका , इसलिए अब तुम विवाद (मुख़ालिफत) न करो ------ मुत्मइन (संतुष्ट) रहो और चचा के बेटे की बीवी बन कर रहो। या रसूलल्लाह (स.) चचा के बेटे से मुझे मुहब्बत नही है। ऐसे मर्द की बीवी कैसे बनूँ जिससे कि मुहब्बत न हो ?
अगर तुम उससे मुहब्बत नहीं करती हो तो कोई बात नहीं है तुम्हे अधिकार है जाओ जिससे तुम्हे मुहब्बत है उसे अपना पति बना लो--------
या रसूलल्लाह (स.) -------- वास्तव में मै उसे बहुत चाहती हूँ। उसके अलावा और किसी से मुहब्बत नही करती , इसलिए उसके अलावा और किसी की बीवी नही बन सकती। बात तो बस इतनी है कि मेरे बाप ने शादी के लिए मेरी रज़ामन्दी (इच्छा) क्यों नहीं ली। मै जानबूझकर आप के पास आई हूँ कि आपसे सवाल करूँ और यह जवाब आप से सुन लूँ और पूरी दुनियां की औरतों को बता दूँ कि शादी के लिए बाप पूरी तरह फैसला नही कर सकता। शादी के लिए लड़कीयों को भी अधिकार है और उनकी रज़ामन्दी भी ज़रूरी है। ( 139)
इस्लामी शरीअत ने शादी के लिए लड़के और लड़की की रज़ामन्दी हासिल करने के लिए लड़के और लड़की को यहाँ तक इजाज़त दी है कि वह दोनों नामहरम (अर्थात वह लोग जो एक दूसरे को नही देख सकते) होने के बावजूद ज़रूरत के मुताबिक़ एक दूसरे को देख कर अपनी पसन्द से रिश्ता तय कर सकते हैं। रसूल-ए-खुदा का इर्शाद है किः-
एक दूसरे को देखकर अपनी पसन्द से शादी करना दोनों के बीच हमेशा प्रेम व मुहब्बत का कारण होता है। ( 140)
मंगनीः- बहरहाल पैग़ाम दिये जाने के बाद लड़के और लड़की की रज़ामन्दी होने पर ही मंगनी (अर्थात रिश्ता तय करने) की रस्म होनी चाहिए। जिस के लिए हज़रत अली (अ ,) का इर्शाद हैः-
जुमए (शुक्रवार) का दिन मंगनी का दिन है। ( 141)
जो औरत की इज़्ज़त और हैसियत बनाए रखने का सबसे अच्छा तरीक़ा है।
मुसलमानों में मंगनी और निकाह के बीच कुछ और भी रसमें होती है जिन में मिठाई और तरकारी का जाना या आना , मांझा , तिलक , रात्री जागरण (रत जगा) आदि। इनमें कुछ में कोई शरई रूकावट नही लेकिन कुछ रस्में (जैसे तिलक आदि) दूसरी क़ौमों की रस्में हैं जिनको अपनाना ग़लत है। क्योंकि क़ुर्आन-ए-करीम में मिलता है किः-
और जो व्यक्ति सीधे रास्ते के प्रकट (ज़ाहिर) होने के बाद रसूल (स.) से मुखालिफत (सरकशी) करे और मोमिनीन के तरीक़े के अलावा किसी और रास्ते पर चले जो जिधर वह फिर गया है हम भी उधर फेर देंगे और (आखिर) उसे जहन्नम (नरक) में झोंक देंगे और वह तो बहुत ही बुरा ठिकाना है। ( 142)
निकाह की तारीखों का तय करनाः- मंगनी होने के बाद अक्द-ए-निकाह अर्थात बारात की तारीखें तय होना चाहिए। जिसके लिए चाँद के महीनें (( 143)) और तारीख के साथ दिन और वक़्त का भी ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि आइम्मः-ए-मासूमीन (अ.) ने महीना , तारीख , दिन और वक़्त को ध्यान में रखते हुवे होने वाले निकाह के अलग अलग असरात (प्रभाव) बताए हैं। एक हदीस में मिलता हैः-
शव्वाल (ईद) के महीने में निकाह करना अच्छा नहीं है। ( 144)
जहाँ तक तारीख का सवाल है तो इस में नेक और बद (अर्थात अच्छी और बुरी , सअद व नहस) तारीख को ध्यान में रखते हुवे तहतशशुआअ ( 145) (अर्थात चाँद के महीने के वह दो या तीन दिन जब चाँद इतना महीन होता है कि दिखाई नही देता। यह दिन ख़राब माने जाते हैं) और क़मर दरअक्रब ( 146) (चाँद का वृश्चिक राशि अर्थात् बुर्ज-ए-अक्रब में होना जो बहुत ज़्यादा खराब माना जाता है) का मुख्य रूप से ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि इमाम-ए-जाफर-ए-सादिक़ (अ.) ने इर्शाद फर्मायाः-
जो व्यक्ति तहतशशुआअ में निकाह या संभोग करे वह याद रखे उसका जो वीर्य (नुत्फ़ा) पैदा होगा वह पूर्ण होने से पहले गिर जाएगा। ( 147)
और आप ही का इर्शाद है किः-
जो व्यक्ति क़मर दरअक़्रब मे शादी या संभोग करे उसका अन्जाम (अन्त) अच्छा नही होगा। ( 148)
महीने की तारीख के साथ-साथ दिन और वक़्त का भी ख़्याल रखना चाहिए. हज़रत अली (अ.) ने बताया किः-
जुमए का दिन मंगनी और निकाह का दिन है। ( 149)
और समय के लिए इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक़ (अ ,) ने इर्शाद फर्माया किः-
रात के वक़्त निकाह करना सुन्नत है। ( 150)
इससे विपरीत दिन में निकाह से सम्बन्धित मिलता है किः-
इमाम-ए-मुहम्मद-ए-बाक़िर (अ.) को ख़बर पहुँची कि एक व्यक्ति ने दिन में ऐसे वक़्त निकाह किया है कि हवा गर्म चलती थी। फ़र्माया मुझे गुमान (शंका) नहीं है कि उनमें आपस में मुहब्बत और प्रेम हो। चुनाँचे थोड़े ही समय के बाद अलगाव हो गया। ( 151)
बहरहाल निकाह के लिए महीना , तारीख , दिन और वक़्त तय होने पर बताना चाहिए , मोमिनीन को निकाह में बुलाना चाहिए और उन्हे खाना खिलाना चाहिए। जिस के लिए हज़रत अली (अ.) ने इर्शाद फ़र्माया किः-
निकाह में मोमिनीन को बुलाना , उनको खाना खिलाना और निकाह से पहले खुतबः पढ़ना सुन्नत है। ( 152)
महर
निकाह के समय सब से मुख्य बात महर (अर्थात वह रक़्म जो निकाह के समय दुल्हन को दिये जाने के लिए तय होती है) का तय होना है। जिसे बातचीत होने के समय भी तय किया जा सकता है। और निकाह से पहले शरई तौर से लड़की वाले , लड़के वालों से आधा महर माँग सकते हैं। जिससे वह लड़की के दहेज (( 153)) या शादी के दूसरे खर्चों को पूरा कर सकें और निकाह के समय बाक़ी आधा महर या पूरा महर लड़के को अदा कर देना चाहिए---------- लेकिन सम्भव है कि इस्लाम के उपर्युक्त उसूल (क़ानून , नियम) और कायदे से फायदः उठा कर लड़की वाले अधिक से अधिक महर तय करने की कोशीश करें। इस लिए पैग़म्बर-ए-इस्लाम (स.) ने इर्शाद फ़र्मायाः-
मेरी उम्मत की बेहतरीन औरत वह हैं जो खूबसूरत (सुन्दर) हों और जिन का महर कम हो। ( 154)
और उचित यह है कि सुन्नत महर तय करें जो पाँच सौ दिरहम ( 155) है और हदीस मे आया है कि वह बहुत ख़राब औरत है जिसका महर बहुत हो। इसके विपरीत इमाम-ए-जाफ़र सादिक़ (अ ,) का इर्शाद है किः-
वह औरत बरकत वाली है जो कम खर्च हो। ( 156)
और अगर कोई औरत अपने पति को अपना महर माफ कर दे तो खुदा वन्दे आलम हर दिरहम के बदले में एक नूर उसकी कब्र मे देता है और हर दिरहम के बदले में हज़ार फरिश्तों को हुक्म फ़र्माता है कि वह उस औरत के लिए क़यामत तक नेकियाँ लिखें। ( 157) इसी महर से सम्बन्धित क़ुर्आन-ए-करीम में मिलता हैः-
और औरतों को उनके महर खुशी-खुशी दे डालो फिर अगर वह खुशी-खुशी तुम्हें कुछ छोड़ दें तो शौक से नोशे जान खाओ पियो। ( 158)
याः-
.... तो उन्हें जो महर तय किया है दे दो और महर के तय होने के बाद अगर आपस में (कम व ज़्यादा पर) राज़ी हो (मान) जाओ तो इसमें तुम पर कुछ गुनाह नहीं है। बेशक खुदा (हर चीज़ से) वाकिफ़ (जानने वाला) और मसलहतों (भलाइयों) का पहचान ने वाला है। ( 159)
अर्थात महर माफ़ करना या आपस में कमी या ज़्यादती पर राज़ी हो जाना शरई हिसाब से ठीक है।
खुतबः और निकाह के सीग़ेः- महर के तय होने के बाद निकाह की बारी आती है। जिसमें सब से पहले निकाह का खुतबः ( 160) पढ़ना चाहिए और उसके बाद निकाह के सीग़े जारी करना चाहिए। जिसे कई तरह से पढ़ा जा सकता है। मर्द और औरत के अलग-अलग वकील (आम तौर से यही तरीक़ा प्रचलित है) , मर्द और औरत खुद (स्वयं) , मर्द खुद औरत का वकील , मर्द और औरत दोनों नाबालिग़ होने पर दोनों के वली (संरक्षक , अभिभावक) के अलग-अलग वकील , एक ही व्यक्ति मर्द और औरत दोनों का वकील आदि निकाह के सीग़े जारी कर सकते हैं।
निकाह के सीग़े जारी होने अर्थात ईजाब व क़ुबूल के बाद मर्द और औरत दोनों ससुराल वाले हो जाते हैं। जिसके लिए क़ुर्आन में मिलता हैः-
और वही तो वह (खुदा) है जिस ने पानी (मनी अर्थात वीर्य) से आदमी को पैदा किया फिर उसको खानदान और ससुराल वाला बनाया। ( 161)
निकाह के बाद निकाह मे शरीक़ लोगों को चाहिए कि दूल्हा और दुल्हन को ख़ैर व बरकत की दुआऐं दें और पति (शौहर) अपनी धर्म पत्नी (ज़ौजअः-ए-मनकूहा) को निकाह व महर को सनद लिख कर दे जो की निकाहः नामा कहलाता है। इसी मौक़े पर निकाह में शरीक होने वाले लोगों की दावत करें। क्योंकि यह पैग़म्बरों (अ.) की सुन्नत है। रसूल-ए-खुदा (स ,) का इर्शाद हैः-
निकाह के वक़्त खाना पैग़म्बरों की सुन्नत है। ( 162)
रुख़्सती (विदाई) व दुआ
निकाह के बाद हर खानदान में दुल्हन के घर में कुछ खास रस्में अदा की जाती हैं और बाद में रुखसती है। उस वक़्त अल्लाहो अकबर पढ़ना सुन्नत है ( 163) (आम तौर से अज़ान दी जाती है जिसमें कोई नुकसान नहीं) इस मौक़े पर हर माता-पिता को चाहिए कि वह अपनी बेटी को उसके नए घर और नए माहौल में जाने के आदाब (तौर तरीक़े) पति के साथ रहन-सहन के तरीक़े , और उसकी ज़िम्मेदारियों और हुक़ूक़ से सम्बन्धित वसीयत और नसीहत करें। क्योंकि यह नसीहत वह महान नेअमत (तोहफ़ा) है जिस पर अमल करने से लड़की की पूरी ज़िन्दगी , हंसते खेलते और खुश रहते हुवे व्यतीत होती है। जिसकी हर माता-पिता ख्वाहिश करता है।
बहरहाल रूख्सती के बाद जिस वक़्त दूल्हा (लड़का) दुल्हन (लड़की अर्थात धर्म पत्नी) को अपने घर लोए तो उसे हज़रत अली (अ ,) की बतायी हुवी यह दुआ पढ़ना चाहिएः-
अल्लाहुम्मा बे कलेमातेका असतहललतोहा व बेअमानतेका अख़ज़तोहा अल्लाहुम्म- जअलहा वलूदाँव व दूदन ला तफ़रको ताकोलो मिममा राहा व ला तसअलो अम्मा साराहा।
अर्थात ए अल्लाह मैने तेरे कलाम-ए-मुक़ददस (पाक व पाकीज़ा कलाम) से अपने लिए हलाल किया और तेरी हिफाज़त में इसे लिया , या अल्लाह इससे औलाद बहुत ज़्यादा पैदा हो। मुझ से इसे मुहब्बत रहे और कभी दुश्मनी न हो। जो मिले खाले और जो मिल जाए पहन लें। ( 164)
और इमाम-ए-जाफर-ए-सादिक़ (अ ,) ने बताया है कि यह दुआ पढ़ेः-
बे कलेमातिल्लाहे इस तहललकतो फरजहा व फी अमानतिल्लाहे अखज़तोहा अल्लाहुम्मा इन क़ज़ैता ली फी रहमेहा शैअन फजअलहो बररन तक़ीय्यवं वजअलहो मुसललमन सविय्यन व ला तजअल फीहे शिरकन लिश्शैतान।
अर्थात मैनें अल्लाह के कलेमात मुक़ददस से इसकी योनि (अन्दामेनिहानी) को अपने ऊपर हलाल और अल्लाह के अमान में इसको लिया। ए खुदा- अगर तू ने इसके गर्भ से मेरे लिए कोई चीज़ तय की है तो उसको पाक व पाकीज़ा , हर तरह से सहीह व सालिम व पूर्ण बना। जिसमें शैतान का कोई हिस्सा न हो। ( 165)
इमाम-ए-जाफर-ए-सादिक़ (अ ,) से भी यह नक़्ल है कि जब दूल्हा दुल्हन को विदा करा के अपने घर में लाए तो दूल्हा और दुल्हन दोनों क़िबले की ओर मुँह करके खड़े हो जायें और दूल्हा अपना दाहिना हाथ दुल्हन के माथे पर रखकर यह दुआ पढ़ेः-
अल्लाहुम्मा अला किताबेका तज़व्वजतोहा व फी अमानतेका अखज़तोहा व बेकलेमातेका इसतहललतो फरजहा फाइन कज़ैता ली फी रहमेहा शैअन फजअलहो मोसल्लामन सविय्यन वला तजअलहो शिरका शैतानिन।
अर्थात ए अल्लाह – मैने तेरी किताब के क़ानून के अनुसार इस से निकाह किया है और तेरी हिफाज़त में इसको लिया है और तेरे पाक व पाकीज़ा कलमात से इस की योनि (अन्दामेनिहानी) को अपने लिए हलाल किया हैः अतः अगर तूने इस के गर्भाशय से मेरे लिए कोई चीज़ तय की है तो उसको पूर्ण और सहीह व सालिम बना और उसमें शैतान का हिस्सा न होने पाए। ( 166)
फिर दुल्हन के दोनों पैर एक बर्तन में धोये जायें और उस पानी को घर के कोने कोने छिड़क दें। क्योंकि यह खैर व बरकत के लिए होता है। मिलता है कि पैग़म्बर-ए-इस्लाम (स ,) ने हज़रत अली (अ ,) को वसीअत फ़र्मायी किः-
ऐ अली (अ ,)। जब दुल्हन तुम्हारे घर आए तो उसकी जूतियाँ उतरवा दो कि वह बैठे। फिर उसके पैर धुलवा कर उस घर के दर्वाज़े से पीछली दीवार तक सब जगह छिड़कवा दो कि ऐसा करने से सत्तर हज़ार किस्म की बरकतें दाखिल होंगी। सत्तर हज़ार तरह की रहमतें तुम पर और उस दुल्हन पर नाज़िल होंगी। उस रहमत की बरकत उस मकान के हर कोने में पहुँचेगी और वह दुल्हन जब तक उस मकान में रहेगी दीवानगी और कोढ़ की बीमारियों से बची रहेगी। ( 167)
यह है इस्लामी शिक्षाऐं। जो संभोग का समय करीब आने से पहले ही दूल्हा को हर-हर क़दम पर अपने लिए ख़ैर व बरकत की दुआऐं करने , शैतान से बचे रहने , नेक , सहीह व सालिम अर्थात पूर्ण औलाद न होने , परेशानियों से दूर होने , रहमतें और बरकतें नाज़िल होने आदि से सम्बन्धित दुआऐं और अमल की शीक्षा देता है। साथ ही साथ दूल्हा के दिमाग़ में यह बात बैठा देना चाहता है के तुम्हारे लिए दुल्हन के पैर का धोवन ( 168) भी रहमत व बरकत का कारण होता है न कि ज़हमत और परेशानी का ----------- तो घर में दुल्हन का रहना कितना ज़्यादा बरकत का कारण होगा --------- अतः हर सच्चे मुसलमान मर्द (पति) पर औरत (पत्नी) का आदर करना और उसकी हयात व वुजूद को बाक़ी रखना ( 169) आव्यशक है। ताकि घर पर हमेशा खुदा की रहमत व बरकत बनी रहे।
बहरहाल हर खानदान में दुल्हन आने के बाद दूल्हा के घर भी कुछ मुख्य रस्में अदा होती हैं। उसके बाद दूल्हा को दुल्हन के पास लाया जाता है और केवल दूल्हा से दुल्हन के आँचल पर दो रकअत नमाज़ पढ़ाई जाती है (जो रस्म सी बन गई है) जबकि इमाम-ए-मुहम्मद-ए-बाक़िर (अ.) ने दूल्हा और दुल्हन दोनों को दो दो रकअत नमाज़ पढ़ने की शीक्षा दी है और इसकी ज़िम्मेदारी दूल्हा को दी है। ( 170) मिलता है किः-
जब दुल्हन को तुम्हारे पास लायें तो उससे कहो कि पहले वज़ू कर ले और तुम भी वज़ू कर लो और वह दो रकअत नमाज़ पढ़े और तुम भी दो रकअत नमाज़ पढ़ो। इसके बाद खुदा की तारीफ करो और मुहम्मद (स ,) व आले मुहम्मद (अ.) पर दुरूद भेजो फिर दुआ मांगो और जो औरत दुल्हन के साथ आई हों उन से कहो वो सब आमीन कहें और यह दुआ पढ़ोः-
अल्लाहुम्मर ज़ुक़नी उलफताहा व वुददहा व रेज़ाहा वरज़ेनी बेहा वजमऊ बैनना बे अहसनिजतेमाईन व ऐसरे ईतेलाफिन फइन्नका तोहिब्बुल हलाला व तुकरेहुल हरामा
(अर्थात या अल्लाह। मुझे इस औरत की मुहब्बत , प्रेम , दोस्ती और खुशी अता कर और मुझे इस से राज़ी रख और मेरे और इसके बीच मुहब्बत व प्रेम बनाए रख क्योंकि तू हलाल को पसन्द करता है और हराम से नाराज़ है) इसके बाद इमाम (अ ,) ने इर्शाद फ़र्माया यह याद रखो कि प्रेम व मुहब्बत खुदा की तरफ से है और दुश्मनी शैतान की तरफ से और शैतान यह चाहता है कि जिस चीज़ को खुदा ने हलाल किया है आदमियों की तबीयतें (रूचियाँ) किसी न किसी तरह उससे फिर जायें। ( 171)
इसके बाद धीरे धीरे वह समय करीब आने लगता है जिसका इन्तिज़ार औरत और मर्द को जवानी में क़दम रखने से पहले से होता है। प्राकृतिक तौर पर दूल्हा और दुल्हन की धड़कने तेज़ हो जाती हैं , दोनो में ख़ास मुहब्बत और लगाव की प्रवृत्ति पैदा हो जाती है , दोनो उचित और हलाल प्राकृतिक सेक्सी इच्छा की पूर्ति के लिए बेचैन होते हैं। यहाँ तक की दोनों को सेक्सी क्रिया (अमल) की आखिरी हरकत जिमाअ (मैथुन , संभोग) (जिसके शरई उसूल और क़ानून अगले अध्याय में लिखे जायेंगे) के लिए एकान्त (अर्थात कमरे) में भेज दिया जाता है। जो प्राकृतिक धर्म इस्लाम की दृष्टि में शादी का असल और बुनियादी तात्पर्य होता है। जिसके लिए दूल्हा और दुल्हन धार्मिक और सामाजिक रूप से पूरे जीवन के लिए पूरी तरह स्वतन्त्र (आज़ाद) होते हैं। इसी को सुहाग रात कहा जाता है। जो बेहद जज़बाती (भावुक) , खुशी अता करने वाली और नशीली होती है। ऐसे समय पर भी अपनी भावनाओं और इच्छाओं (ख्वाहिशात) पर काबू रखना और शरीअत के तय की हुवी हदों से क़दम बाहर न निकालना कोई आसान काम नहीं है।
इस्लामी शीक्षाओं ने इस बेहद भावुक , खुशीयों से भरी हुई और नशीली रात को भी खुदा के ज़िक्र (की याद) और दुआ से भर दिया है। इमाम-ए-जाफर-ए-सादिक़ (अ.) ने बताया है कि जब दूल्हा संभोग के लिए पहली बार दुल्हन के पास जाए तो उसकी पेशानी (माथे) के बाल पकड़ कर क़िबले की ओर मुँह करे और यह दुआ पढ़ेः-
अल्लाहुम्मा बे अमानतेका अखज़तोहा व बेकलेमातेका असतहललतोहा फइन क़ज़ैता ली मिनहा वलादन फजअलहो मुबारकन तकिय्यन मिन शीअते आले मुहम्मदिव व ला तजअल लिशशैताने फीहे शिरकांव वला नसीबा।
अर्थातऐअल्लाह। मैने तेरी हिफाज़त से इसे लिया और तेरे कलामात से अपने ऊपर इसे हलाल किया अब अगर तूने इसके गर्भ से मेरे लिए कोई बच्चा तय किया है तो उसे मुबारक व पाकीज़ा और आले मुहम्मद (अ.) के शीओं मे से बना , उसमें शैतान का कोई हिस्सा न हो। ( 172)
और जब किसी ने मासूम (अ.) से सवाल किया कि बच्चा शैतान का हिस्सा क्योंकर बन सकता है तो फ़र्मायाः
अगर संभोग के समय खुदा का नाम लिया गया है तो शैतान दूर हो जाएगा और अगर नही लिया गया है तो वह अपना लिंग उस व्यक्ति के लिंग के साथ दाखिल कर देगा। फिर रावी ने पूछा कि यह क्योंकर जानें कि किसी व्यक्ति में शैतान शरीक हुआ है या नहीं। फ़र्माया जो व्यक्ति हमें दोस्त रखता है उसमें शैतान शरीक नहीं हुआ और जो हमारा दुश्मन है उसमें ज़रूर शरीक हुआ है। ( 173)
किसी पूछने वाले ने यह पूछा कि आदमी के वीर्य में शैतान के शरीक होने की रोक थाम क्योंकर हो सकती है तो आप ने फ़र्मायाः- जिस समय संभोग का इरादः हो यह पढ़ो
बिस्मिल्लाह हिर् रहमान निर् रहीमिल लज़ी ला इलाहा इल्ला होवा बदीउस्समावाते वलअरज़े अल्लाहुम्मा इन क़ज़ैता मिन्नी फी हाज़ेहिल लैलते ख़लीफतन फला तजअल लिश्शैताने फीहे शिरकाँव व ला नसीबाँव व ला हज़्ज़ा वजअलहो मोमिनम मुखलेसम मुसफ्फम मिनश्शैतान व रिज़जहू जल्ला सनाअका।
अर्थात मै उस खुदा के नाम से शुरू करता हूँ जो बड़ा रहम करने वाला और महरबान है। उसके अलावा और कोई खुदा नहीं वह आसमान और ज़मीन का पैदा करने वाला है या अल्लाह अगर तूने इस रात में मेरा वारिस (उत्तराधिकारी) मेरे वीर्य से पैदा करना तय किया है तो इस में शैतान का कोई हिस्सा न हो बल्कि इसको पूर्ण रूप से मोमिन बना जो शैतान और पहली बुराईयों से दूर हो। तेरी तारीफ़ (वंदना) हमारी ताक़त से बहुत ज़्यादा है। ( 174)
खुद और बच्चे को शैतान से बचाने के लिए ही हज़रत अली (अ.) ने मैथुन के समय यह दुआ पढने को बतायी हैः
बिस्मिल्लाह व बिल्लाहे अल्लाहुम्मा जन्निबनी व जन्नेबिश्शैतान अम्मा रज़कतनी।
अर्थात मैं अल्लाह के नाम और अल्लाह की मदद से आरम्भ करता हूँ या अल्लाह तू मुझको शैतान से बचा और जो औलाद मुझे दे उसे भी शैतान से बचाना। ( 175)
और पैग़म्बर-ए-इस्लाम ने इर्शाद फ़र्माया कि जब तुम में से कोई व्यक्ति से संभोग करना चाहे तो यह दुआ पढ़े।
बिस्मिल्लाहे अल्लाहुम्मा जन्निबनश्शैताना व जन्नेबिश्शैताना मा रज़कतना।
अर्थात अल्लाह के नाम से आरम्भ करता हूँ ,ऐअल्लाह तू हमें शैतान से बचा और शैतान को उस चीज़ से अलग रख जो तू हमें अता करे। ( 176)
और यह फ़र्माया कि जब अगर बच्चा पैदा होगा तो शैतान कदापि उसको नुक़सान (हानि) न पहुँचा सकेगा। शैतान से बचने के लिए सबसे आसान तरीक़ा यह बताया गया है कि बिस्मिल्लाह और आऊज़ो बिल्लाह पढ़ ले। ( 177) और इमाम-ए-मुहम्मद-ए-बाक़िर (अ ,) ने बताया है कि सेक्सी मिलाप अर्थात संभोग के समय यह दुआ पढ़ोः
अल्लाहुम्मर ज़ुकनी वलदाँव वज अल्हो तक़ीययन ज़कीय्यन लैसा फी ख़लक़ेही ज़ियादतुँव व ला नुकसानुन वजअल आकेबताहू इला खैरिन।
अर्थात या अल्लाह मुझे एक ऐसी औलाद दो जो पाक व साफ हो और उसकी पैदाईश में कमी या ज़्यादती न हो अर्थात् पूर्ण हो और उसका अन्त अच्छा हो। ( 178)
इसका मतलब यह है कि इस्लाम धर्म के शिक्षकों (अर्थात् आइम्मः-ए-मासूमीन (अ.)) ने जाएज़ सेक्सी इच्छा की पूर्ति का ख़्याल पैदा होने से लेकर मैथुन की आख़िरी मंज़िल तक खुदा की याद को बाक़ी रखने , नेक साथी की तमन्ना करने , शैतान से बचे रहने , नेक और पूर्ण औलाद पैदा होने की दुआ करने से सम्बन्धित दुआओं की शिक्षा दी है ताकि औरत और मर्द की भावनाऐं पाकीज़ा रहें और वह ईश्वर से दुआ भी करे तो पाक दामनी के साथ नेक औलाद की दुआ करें।
बहरहाल सुहागरात ( 179) (शबे ज़ुफ़ाफ) के बाद भी दुआओं के इस क्रम को बाक़ी रखने के लिए इस्लाम धर्म ने दूल्हा और दुल्हन पर , मुसतहिब करार दिया है कि वह घर में आए और सभी रिश्तेदारों को सलाम करें और उनके लिए दुआ करें। साथ ही साथ रिश्तेदारों के लिए भी मुसतहिब है कि वह दूल्हा और दुल्हन को ख़ैर और बरकत की दुआऐं दें।
दावत-ए-वलामः- इसके बाद ज़रूरी है कि दावत-ए-वलीमः (अर्थात विवाह भोज , बहू-भोज , महमानी के खाने) का इन्तिज़ाम करे ताकि लोगों को औरत और मर्द के जाएज़ सेक्सी मिलाप का इल्म (ज्ञान) हो सके। इसी दावत-ए-वलीमः के लिए रसूल-ए-खुदा (स.) ने इर्शाद फ़र्माया है किः
वलीमः पहले दिन ज़रूरी है दूसरे दिन कोई हरज (नुकसान) नहीं और तीसरे दिन रियाकारी (ढ़ोंग) है। ( 180)
और वलीमः के दिन में होने से सम्बन्धित मिलता है किः
निकाह का रात में होना सुन्नत है और वलीमः दिन में तैय्यार कराना सुन्नत है।
वलीमे के अवसर पर भी मुसतहिब है कि दावत-ए-वलीमः में शरीक होने वाले लोग दूल्हा और दुल्हन को ख़ैर व बरकत की दुआऐं दें।
शादी का बुनियादी तात्पर्य –संभोगः- इन सभी मंज़िलों से गुज़रने के बाद औरत औऱ मर्द एक दूसरे से हर तरह का (मुख्य रूप से मैथुन , संभोग अर्थात सेक्सी) का स्वाद उठा सकते हैं। जिसके लिए शादी का क़दम उठाया जाता है और यही शादी का वास्तविक और बुनियादी तात्पर्य भी होता है।
अगर इस्लाम की दृष्टि में शादी का वास्तविक और बुनियादी तात्पर्य मैथुन (अर्थात औरत और मर्द का शारीरिक और सेक्सी मिलाप) न होता तो इस्लाम धर्म , सेक्सी इच्छाओं की पूर्ति के न होने की सूरत में औरत और मर्द दोनों को बिना किसी तलाक़ के निकाह तोड़ देने का हक़ न देता। मसाएल में मिलता है किः
अगर औरत को निकाह के बाद मालूम हो जाए कि उसका पति निकाह से पहले दीवाना (पागल) था या बाद में दीवाना हुआ है या उसे पता चल जाये कि वह लिंग नही रखता या नामर्द है और संभोग नही कर सकता या निकाह के बाद संभोग करने से पहले ही नामर्द हो जाए या उसका अंड कोष निकाह से पहले निकाल दिया गया हो तो वह (अगर चाहे तो) निकाह को तोड़ सकती है। ( 182)
इसी तरहः
अगर मर्द को निकाह के बाद मालूम हो जाए कि औरत दीवानी (पागल) है या उसको कोढ़ है , या उसके सफेद दाग़ है , या वह अन्धी है या फालिज (लक़वे) आदि के कारण चलने उठने के लायक़ नही है , या उसके पेशाब और हैज़ का रास्ता या हैज़ और पाखाने का रास्ता एक हो गया है या उसकी शर्मगाह (योनि) में ऐसा गोश्त या हड्डी है जिसके कारण संभोग नही किया जा सकता है तो वह (अगर चाहे तो) निकाह को तोड़ सकता है। ( 183)
इनमें औरत और मर्द की कुछ बुराईयों (अर्थात पागलपन , कोढ़ , सफेद दाग आदि) ऐसे हैं जो दिमाग़ी सुकून पर बार होते हैं और कुछ बुराईयों (अर्थात लिंग न होना , संभोग के लायक न होना , पेशाब और हैज़ या हैज़ और पाखाने का रास्ता एक होना , योनि में अलग का गोश्त या हड्डी होना) ऐसे हैं जो शादी के असल तात्पर्य के ही विपरीत है। इसलिए इस्लाम धर्म ने बिना तलाक़ के निकाह को तोड़ देने का हक़ (अधिकार) दोनों (औरत और मर्द) को दिया है ताकि वह अपनी सेक्सी इच्छा की पूर्ति के लिए दूसरे को तलाश करें और दिमाग़ी सुकून तथा प्राकृतिक सेक्सी इच्छा की पूर्ति कर सकें। क्योंकि इसका सम्बन्ध मर्द और औरत की पूरी ज़िन्दगी से रहता है।