इस्लाम और सेक्स

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इस्लाम और सेक्स लेखक:
कैटिगिरी: अख़लाक़ी किताबें

इस्लाम और सेक्स

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: डा. मोहम्मद तक़ी अली आबदी
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इस्लाम और सेक्स

इस्लाम और सेक्स

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

पांचवा अध्याय

मैथुन के तरीक़े

अ- मैथुन की मनाही

ब- घ्रणित मैथुन

स- पुनीत मैथुन

द- अनिवार्य मैथुन

य- वज़ू और दुआ

र- एकान्त

ल- मसास व दस्तबाज़ी

व- स्नान व तयम्मुम

श- मैथुन के राज़ को बयान करने की मनाही

ष- संतान

स- संतान की शिक्षा और प्रशिक्षण

ह- मर्द और औरत के अधिकार

चूँकि इस्लाम की दृष्टि में शादी का वास्तविक और बुनियादी तात्पर्य शिष्टाचार (अख़्लाक़) और पाकदामनी (इस्मत) की हिफाज़त करते हुए औरत और मर्द का एक दूसरे के उचित (जाएज़ , हलाल) अंगों से सेक्सी इच्छा की पूर्ति करना है। जिसका सम्बन्ध औऱत और मर्द के पूरे जीवन से रहता है। इसीलिए इस्लाम धर्म ने रोज़े की हालत में , एतिक़ाफ़ (एकान्त वास अर्थात एकान्त में ईश्वर की तपस्या) की सूरत में और औरत के खूने हैज़ (अर्थात मासिकधर्म) निफास (रक्त स्राव जो प्रसूतिका के शरीर से बच्चा जनने के चालिस दिन तक होता रहता है) आने की सूरत के अतिरिक्त किसी और समय पर एक दूसरे से सेक्सी इच्छा की पूर्ति करने में रूकावट नही डाली है। मगर यह कि इस्लाम के शिक्षकों (आइम्मः-ए-मासूमीन (अ.) ने कुछ ऐसे अवसरों या हलाल की ओर इशारा ज़रूर किया है जिसका असर (प्रभाव) पति या पत्नी या संतान पर पड़ता है। जिसके नतीजे में पति और पत्नी में जुदाई (अलगाव) या औलाद नेक , बुरी होती है , और अधिकतर अवसरों में संतान में कुछ शारीरिक कमीयां भी हो जाती हैं। जबकि सेक्सी मिलाप के द्वारा मिलने वाले औलाद जैसे महान फल के नेक और हर प्रकार की शारीरिक कमियों से दूर होने के प्रत्येक माता-पिता तमन्ना (इच्छा) करते हैं। अतः ज़रूरी है कि पति और पत्नी दोनों को सेक्सी इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए संभोग के शरई (धार्मिक) तरीकों का ज्ञान होना चाहिए ताकि वह हराम (मनाही) , मक्रूह (घ्रणित) , मुस्तहिब (पुनीत) और वाजिब (अनिवार्य) को ध्यान में रखते हुवे एक दूसरे से स्वाद और आन्नद उठा सकें। पाकीज़गी बाक़ी रख सकें और सेक्सी मिलाप से मिलने वाला फल (औलाद) नेक और हर तरह की शारीरिक बुराईयों और कमियों से पाक हो।

मैथुन की मनाही

याद रखना चाहिए कि इस्लामी शरीअत के उसूलों और क़ानूनों के अनुसार जीवन व्यतीत करने वाले सच्चे मुसलमान का एक-एक क़दम और एक-एक कार्य अज्र व सवाब (पुण्य) के लिए होता है। जिसमें जीवन के सभी हिस्सों के साथ-साथ औरत और मर्द की मैथुन क्रिया भी है। इसमें भी इस्लामी शरीअत ने पवित्रता (तक़द्दुस) का रंग भर दिया है।

रसूल-ए-खुदा (स ,) ने इर्शाद फ़र्मायाः

तुम लोग जो अपने बीवीयों के पास जाते हो यह भी पुण्य का कारण है। सहाबा ने पूछा या रसूल्लाह (स.)। हम में का कोई व्यक्ति अपनी सेक्सी इच्छा की पूर्ति करता है और इसमें क्या उसको सवाब (पुण्य) मिलेगा ? आप ने फ़र्माया तुम्हारा क्या ख़्याल (विचार) है , यदि वह अपनी इच्छा हराम (ग़लत) तरीक़े से पूरी करे तो गुनाह (पाप) होगा या नही ? सहाबा जवाब दिया हाँ , गुनाह होगा। आप ने फ़र्माया तो इसी तरह जब वह हलाल (सहीह) तरीक़े से अपनी सेक्सी इच्छा पूरी करे तो उस से सवाब मिलेगा। ( 184)

इस्लाम धर्म ने जहाँ औरत और मर्द का एक दूसरे से अपनी सेक्सी इच्छा को पूरा करना सवाब और पुण्य का कारण हुवा करता है वहीं कुछ मौकों पर हराम होने की वजह से पाप और अज़ाब का कारण हो जाता है।

1.याद रखना चाहिए की औरत की योनि (जहाँ संभोग के समय मर्द अपना लिंग दाखिल करता है) के रास्ते से प्राकृतिक तौर पर प्रत्येक माह ( 185) तीन से दस दिन तक खूने हैज़ (अर्थात मासिक धर्म) आता है। उस हालत में औरत से संभोग करना हराम है। क्योंकि उस हालत में संभोग करना औरत और मर्द दोनों के लिए शारीरिक तकलीफों और आतशक व सोज़ाक जैसी भयानक बीमारियों के पैदा होने और गर्भ ठहरने पर बच्चे में कोढ़ और सफेद दाग की बीमारी होने का कारण होता है। जबकि इस्लाम धर्म मनुष्य को तन्दुरूस्त और निरोग देखना चाहता है। इसी लिए इस्लाम धर्म ने हैज़ आने के दिनों में संभोग को हराम (अर्थात वह काम जिसके करने पर पाप हो) करार दिया है। क़ुर्आन-ए-करीम में मिलता हैः

(ए रसूल (स )) तुम से लोग हैज़ के बारे में पूछते हैं। तुम उनसे कह दो कि यह गन्दगी और घिन बीमारी है तो हैज़ (के दिनों) में तुम औरतों से अलग रहो और जब तक वह पाक (अर्थात खून आना बन्द) न हो जाए उनके पास न जाओ। फिर जब वह पाक हो जायें तो जिधर से तुम्हे खुदा ने आदेश (हुक्म) दिया है उनके पास जाओ। बेशक खुदा तौबहः करने वालों और साफ सुथरे लोगों को पसन्द करता है। ( 186)

चूँकि हैज़ के ज़माने में औरत की तबीअत खून निकलने की ओर लगी रहती है और मैथुन से कार्य करने की कुव्वत में हैजान (बेचैनी) होती है और दोनों कुव्वतों के एक दूसरे के विपरीत होने की वजह से तबीअत को जो बदन की बादशाह है हैजान होता है और उसी की वजह से विभिन्न तरह की बीमारियां होती हैं। इसके अतिरिक्त मर्द की सेक्सी इच्छा मैथुन के समय मनी (वीर्य) निकालने की तरफ लगी रहती है और शरीर के रोम-कूप (मसामात) खुल जाते है और खूने हैज़ से बुखारात (भाप) बुलन्द (ऊपर उठकर) हो कर बुरे असर (प्रभाव) डालती है। इसके अलावा खुद खून भी मर्द के लिंग के सूराख़ में दाखिल होकर सोजाक आदि जैसी बीमारी पैदा करने का कारण होता है। इन्ही कारणों से शरीअत ने हैज़ की हालत मे मैथुन क्रिया को पूरी तरह से हराम करार दिया है। ( 187)

-आदाब-ए-ज़वाज- के लेखक ने लिखा है कि हायजः औरत (अर्थात वह औऱत जिसके खूने हैज़ आ रहा हो) से मैथुन करने की मनाही (हराम होने , हुरमत) में दो युक्तियाँ हैं। एक मासिक धर्म की गन्दगी जिससे मनुष्य की तबीयत घ्रणित (कराहियत) करती है। दूसरे यह कि मर्द और औरत को बहुत से शारीरिक नुक़सान पहुँचते है। चुनाँचे आधुनिक चिकित्सा ने हायजः औरत से मैथुन की जिन हानियों व बिमारियों को स्पष्ट किया है उनमे से दो मुख्य और अहम हैं। एक यह कि औरत के लिंग में दर्द पैदा हो जाता है औऱ कभी कभी गर्भाशय में जलन पैदा हो जाती है। जिससे गर्भाशय खराब हो जाता है और औरत बांझ हो जाती है। दूसरा यह कि हैज़ के कीटाणु (मवाद) मर्द के लिंग में पहुँच जाते हैं जिस से कभी कभी पीप जैसा माददः (पदार्थ) बनकर जलन पैदा करता है। और कभी कभी यह पदार्थ फैलता हुआ अंडकोष तक पहुँच जाता है और उनको तकलीफ देता है। आखिरकार (अन्त में) मर्द बांझ हो जाता है , इस प्रकार की और भी बीमारियाँ और तकलीफें पैदा होती है। जिसको दृष्टिगत रखते हुवे सभी आधुनिक चिकित्सक इस बात को मानते हैं कि हैज़ आने की हालत में मैथुन क्रिया से दूर रहना अनिवार्य है। यह ऐसी वास्तविकता है जिसे हज़ारों साल पहले कुर्आन-ए-हकीम ने बताया था यह भी कुर्आन-ए-करीम का मौजिजः हैः-( 188)

ऐसी (अर्थात खूने हैज़ आने की) सूरत (हालत) में इस्लामी शरीअत ने यह अनुमति (इजाज़त) ज़रूर दे रखी है कि संभोग के अलावा औरत के शरीर का बोसा लेना , प्यार करना छातियों से खेलना , साथ लेटना और सोना , शरीर से शरीर मिलाना संक्षिप्त यह कि किसी भी तरह से स्वाद व आन्नद उठाना जाएज़ है। ( 189)

वरना संभोग के कर गुज़रने का खतरा होने की सूरत में बीवी से दूर रहना ही बेहतर (उचित) है। लेकिन फिर भी अगर कोई व्यक्ति अपनी सेक्सी इच्छाओं को काबू न कर पाने की सूरत में संभोग कर बैठे तो शरीअत ने उस पर कफ्फारः (जुर्माना) लगाया है। ( 190)

मसाएल में यहाँ तक मिलता है कि हायज़ः औरत की योनि (अर्थात आगे के सूराख) में मर्द के लिंग के खतरे वाली जगह से कम हिस्सा भी दाखिल न हो। ( 191)

2.खूने हैज़ आने की हालत में मर्द कभी-कभी (बीमारी आदि के डर से) औरत के आगे के सूराख को छोड़कर पीछे के सूराख में अपना लिंग इस ख्याल से दाखिल कर देता है कि खूने हैज़ पीछे के सूराख से नही आ रहा है अर्थात वह पाक है। या यह कहा जाए कि वह आगे और पीछे दोनों सूराखों को एक ही जैसा समझता है। जबकि कुछ आलिमों (विद्वानों) ने पीछे के सूराख में लिंग को दाखिल करना हराम और कुछ ने सख्त मकरूह माना है। रसूल-ए-खुदा का इर्शाद है किः-

उस व्यक्ति पर अल्लाह की लानत है जो अपनी औरत के पास उसके पीछे के रास्ते में आता है। ( 192)

और जामेअ तिरमिज़ी में हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास से रिवायत है किः

अल्लाह तआला (क़यामत के दिन) उस व्यक्ति की ओर निगाह उठा कर नही देखेगा जो किसी मर्द या किसी औरत के पास पीछे के रास्ते में आएगा। ( 193)

क्योंकि पीछे के रास्ते में लिगं दाखिल करने और वीर्य के निकलने से वीर्य नष्ट (बेकार) हो जाता है और इस्लामी शरीअत कदापि पसन्द नही करती कि प्राकृतिक तौर पर तैय्यार होने वाले क़ीमती जौहर (मूल्यवान वीर्य) को नष्ट होने दिया जाए। इसीलिए इस्लाम ने गुदमैथुन को हराम करार दिया है। क्योंकि इसमें वीर्य नष्ट हो जाता है। ध्यान देने योग्य बात है कि अगर हैज़ आने के दिनों में औरत के पीछे के सूराख में लिंग को दाखिल करने की अनुमति होती तो हैज़ आने के दिनों में औरत से दूर रहने (अर्थात मैथुन न करने) का हुक्म नही दिया जाता और यह कहा जाता किः

फिर जब वह पाक हो जाए तो जिधर से तुम्हे खुदा ने हुक्म दिया है उनके पास जाओ। बेशक खुदा तौबा करने वालों और पाक व पाकीज़ा लोगों को पसन्द करता है। ( 194)

अर्थात हर हालत में औरत के पास जाने का आदेश केवल उनके आगे के सूराख मे है----- और पाक होने का अर्थ विद्वानों ने खूने हैज़ का आना बन्द हो जाना माना है न कि स्नान करना।

मसाएल में मिलता है किः

जब औरत हैज़ से पाक हो जाए चाहे अभी स्नान न किया हो उसको तलाक़ देना सहीह है और उसका पति उस से संभोग भी कर सकता है और उचित यह है कि संभोग से पहले योनि के स्थान को धो ले , फिर भी यह मुसतहिब है कि स्नान करने से पहले संभोग करने से बचा रहे। लेकिन दूसरे काम जो हैज़ की हालत में हराम थे (अर्थात जिसकी मनाही थी) जैसे मस्जिद में ठहरना , क़ुर्आन के शब्दों को छूना अब भी हराम है जब तक स्नान न कर ले। ( 195)

अर्थात खूने हैज़ आना बन्द हो जाने की सूरत में शर्मगाह (योनि) को धोकर संभोग किया जा सकता है। विद्वानों ने यह भी लिखा है कि उचित यह है कि स्नान के बाद ही संभोग करे।

3.खूने हैज़ की तरह खूने नफ़ास (रक्तस्राव , अर्थात वह खून जो बच्चा पैदा होने के बाद औरत की योनि से निकलता है) आने की हालत में भी औरत से संभोग करना हराम है। मसाएल में मिलता है किः

नफ़ास की हालत में औरत को तलाक़ देना और उससे संभोग करना हराम है लेकिन यदि उस से संभोग किया जाये कफ्फारः (जुर्मानः) वाजिब नहीं है। ( 196)

4.इस्लामी शरीअत ने औरत और मर्द को सेक्सी इच्छा की पूर्ति की पूरी आज़ादी देने के साथ-साथ रोज़े की हालत में संभोग की मनाही की है। क्योंकि रोज़ः बातिल (टूट) हो जाता है। मसाएल में मिलता है किः

संभोग से रोज़ः टूट जाता है। चाहे केवल खतने का हिस्सः ही अन्दर दाखिल हो और वीर्य भी बाहर न निकले। ( 197)

जबकि रोज़ो (अर्थात रमज़ान के महीने और रोज़ो) की रातों में अपनी बीवी से संभोग करना जाएज़ और हलाल है।

क़ुर्आन-ए-करीम में हैः

(मुस्लमानों) तुम्हारे लिए रोज़ों की रातों मे अपनी बीवीयों के पास जाना हलाल कर दिया गया , औरतें तुम्हारी चोलीं है और तुम उसके दामन हो , खुदा ने देखा तुम (पाप करके) अपनी हानि करते थे (कि आँख बचाके अपनी बीवी के पास चले जाते थे) तो उसने तुम्हारी तौबः कुबूल की (स्वीकृति कर ली) और तुम्हारी ग़लती को माफ कर दिया। अब तुम उस से संभोग करो और (संतान से) जो कुछ खुदा ने तुम्हारे लिए (भाग्य में) लिख दिया है उसे मांगो और खाओ पियो। यहाँ तक कि सुबह की सफ़ेद धारी (रात की) काली धारी से आसमान पर पूर्व की ओर तुम्हें साफ दिखाई देने लगे। फिर रात तक रोज़ा पूरा करो और (हाँ) जब तुम मस्जिदों में एतिकाफ़ (एकान्त में ईशवर की तपस्या) करने बैठो तो उनसे (रात को भी) संभोग न करो। यह खुदा की (तय की हुवी) हदें हैं। तो तुम उनके पास भी न जाना यूँ बिल्कुल स्पष्ट रूप से खुदा अपने क़ानूनों को लोगो के सामने बयान करता है ताकि वह लोग (क़ानून उल्लघंन) से बचें। ( 198)

5.क़ुर्आन की उपर्युक्त आयत से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि एतिकाफ़ की हालत में संभोग की मनाही की गयी है। मसाएल में यह भी मिलता है किः

औरत से संभोग करना और सावधानी (अहतियात) के रूप में उसे छूना , सेक्स के साथ बोसा देना (प्यार करना) चाहे मर्द हो या औरत हराम है। ( 199)

औरः

मुस्तहिब (पुनीत) सावधानी यह है कि एकान्त में ईश्वर की तपस्या करने वाला हर उस चीज़ से बचा करे जो हज के मौक़े पर एहराम (अर्थात वह वस्त्र जो हाजी हज के मौक़े पर पहनते हैं) की हालत में हराम हैं। ( 200)

6.याद रखना चाहिए कि हाजी जब मीक़ात (अर्थात एहराम बांधने की जगह) से हज की नीयत कर लेता है और तकबीर पढ़ लेता है तो कुछ मुबाह (जाएज़) चीज़े उस पर हराम हो जाती है। इन ही मुबाह चीज़ों में पति और पत्नी भी है जो एक दूसरे पर एहराम की हालत में हराम हो जाते हैं। मिलता है किः

एहराम की हालत में अपनी पत्नी से संभोग करना , बोसा (चुम्मा , प्यार) लेना , सेक्स की निगाह से देखना बल्कि हर तरह का स्वाद और आन्नद हासिल करना हराम है। ( 201)

और यह हराम , हलाल में उस समय बदलता है जब तवाफें निसाअ ( 202) कर लिया जाए। मसाएल में है किः

तवाफ़े निसाअ और नमाज़े तवाफ के बाद औरत पर पति और पति पर पत्नी हलाल हो जाती है। ( 203)

याद रखना चाहिए किः

तवाफ़े निसाअ केवल मर्दों से मख़सूस (के लिए) नहीं है बल्कि औरतों. नपुंस्कों , नामर्दों और तमीज़ रखने वाले (अर्थात अच्छा-बुरा समझने वाले) बच्चों के लिए भी ज़रूरी है। अगर व्यक्ति तवाफ़े निसाअ न करे तो पत्नी हलाल न होगी। जैसा कि पूर्व में बयान किया जा चुका है। इसी तरह अगर औरत तवाफ़े निसाअ न करे तो पति हलाल न होगा। बल्कि अगर अभिभावक तमीज़ न रखने वाले बच्चे के एहराम बाँधे तो अहतियात वाजिब (ज़रूरी एहतीयात) यह है कि उसको तवाफ़े निसाअ करना चाहिए ताकि बालिग़ होने के बाद औरत या मर्द उस पर हलाल हो जाऐं। ( 204)

घ्रणित मैथुनः

फक़ीहों (विद्धानों) ने आठ मौकों पर मैथुन करने को मक्रूह करार दिया है।

1.चन्द्र ग्रहण की रात

2.सूर्य ग्रहण का दिन

3.सूर्य के पतन (गिराव अर्थात ( 12) बजे के आस-पास) के समय (ब्रहस्पतिवार के अतिरिक्त किसी दिन में)।

4.सूर्य के डूबते समय , जब तक की लाली न छट जाये।

5.मुहाक़ की रातों में (अर्थात चाँद के महीने की उन दो या तीन रातों में जब चाँद बिल्कुल नहीं दिखाई देता)

6.सुबह होने से लेकर सूरज निकलने तक।

7.रमज़ान के अतिरिक्त हर चाँद के महीने की चाँद रात को

8.हर माह की पन्द्रहवीं रात को इस के अतिरिक्त विद्धानों ने कुछ और मौक़ो पर भी मैथुन को घ्रणित बताया है।

1.जैसे सफर की हालत में जब कि स्नान के लिए पानी न हो।

2.काली , पीली या लाल आंधी चलने के समय।

3.ज़लज़ले (भूकंप) के समय। ( 205)

मोअतबर हदीस (यक़ीन करने योग्य हदीसों) में मिलता है कि निम्नलिखित मौक़ों पर मैथुन करना मक्रूह (घ्रणित) है।

1.सुबह से सूर्य निकलने (सूर्योदय) तक ( 206)

2.सूर्यास्त से लेकर लाली खत्म होने तक

3.सूर्य ग्रहण के दिन

4.चन्द्र ग्रहण के दिन

5.उस रात या दिन में जिसमें काली , पीली या लाल आँधी आये या भूकंप मसहूस हो , खुदा की क़सम यदि कोई व्यक्ति इन मौकों पर मैथुन करेगा और उससे सन्तान पैदा होगी तो उस संतान में एक भी आदत ऐसी नहीं देखेगा जिस से (प्रसन्ता) हासिल हो क्योंकि उसने खुदा के ग़ज़ब की निशानियों को कम समझा। ( 207)

इन क़ानूनो के ज़ाहरी कारण यह है कि चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण ज़मीनी निज़ाम पर लाज़मी (अनिवार्य) रूप से अपना असर छोड़ते हैं। अतः इस बात का डर है कि ऐसे मौके पर गर्भ ठहरने की सूरत में बच्चे मे कुछ ऐसी कमियाँ पैदा हो जायें जो माता-पिता के ज़हनी सुकून को बरबाद कर दें , जिसको प्राकृतिक धर्म (इस्लाम) पसन्द नहीं करता----- शायद इसी लिए इस्लाम धर्म ने उपर्युक्त मौक़ो पर मैथुन क्रिया को घ्रणित करार दिया गया है।

इस्लाम में शादी (निकाह) का तात्पर्य सेक्सी इच्छा की पूर्ति के साथ-साथ सदैव नेक व सहीह व पूर्ण संतान का द्रष्टिगत रखना भी है। इसी लिए आइम्मः-ए-मासूमिन (अ.) ने मैथुन के लिए महीना , तारीख , दिन , समय और जगह को द्रष्टिगत रखते हुवे अलग-अलग असरात (प्रभाव) बताये है जिसका प्रभाव बच्चे पर पड़ता है।

कमर दर अक्रब (अर्थात जब चाँद व्रश्चिक राशि मे हो) और तहतशशुआअ (अर्थात चाँद के महीने के वह दो या तीन दिन जब चाँद इतना महीन होता है कि दिखाई नही देता) में मैथुन करना घ्रणित है। ( 209)

तहतशशुआअ में मैथुन करने पर बच्चे पर पड़ने वाले प्रभाव से सम्बनधित इमाम-ए-मूसी-ए-काज़िम (अ.) ने इर्शाद फ़र्माया किः

जो व्यक्ति अपनी औरत से तहतशशुआअ में मैथुन करे वह पहले अपने दिल में तय करले कि पैदाइश (हमल , गर्भ , बच्चा) पूर्व होने से पहले गर्भ गिर जायेगा। ( 210)

तारीख से सम्बन्धित इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक (अ.) ने फ़र्मायाः

महीने के आरम्भ , बीच और अन्त में मैथुन न करो क्योंकि इन मौकों में मैथुन करना गर्भ के गिर जाने का कारण होता है और अगर संतान हो भी जाए तो ज़रूरी है कि वह दीवानगी (पागलपन) में मुब्तला (ग्रस्त) होगी या मिर्गी में। क्या तुम नहीं देखते कि जिस व्यक्ति को मिर्गी की बीमारी होती है , या उसे महीने के शुरू में दौरा होता है या बीच में या आखिर में। ( 211)

दिनों के हिसाब से बुद्धवार की रात में मैथुन करना घ्रणित बताया गया है इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक (अ.) का इर्शाद है किः

बुद्धवार की शाम को मैथुन (संभोग) करना उचित नहीं है। ( 212)

जहाँ तक समय का सम्बन्ध है उसके लिए ज़वाल (बारह बजे के आस पास) औऱ सूर्यास्त के समय सुबह शुरू होने के समय से सूर्योदय तक के अलावा पहली घड़ी में संभोग नही करना चाहिए। क्योंकि अगर बच्चा पैदा हुआ तो शायद जादूगर हो और दुनियां को आख़िरत पर इख़्तियार करे। यह बात रसूल-ए-खुदा (स.) ने हज़रत अली (अ.) को वसीयत करते हुवे इर्शाद फर्मायी किः

या अली (अ.) रात की पहली घड़ी (पहर) में संभोग न करना क्योंकि अगर बच्चा पैदा हुआ तो शायद जादूगर हो और दुनियां को आख़िरत पर इख्तियार करे। या अली (अ.) यह वसीयतें (शिक्षाऐं) मुझ से सीख लो जिस तरह मैने जिबरईल से सीखी है। ( 213)

वास्तव में रसूल-ए-खुदा (स.) की यह वसीयत (अन्तिम कथन) केवल हज़रत अली (अ ,) से नही है बल्कि पूरी उम्मत से है। इसी वसीयत में रसूल-ए-खुदा (स ,) ने मक्रूहात (घ्रणित मैथुन) की सूची इस तरह गिनाई हैः

.......ऐअली (अ.) उस दुल्हन को सात दिन दूध , सिरका , धनिया और खटटे सेब न खाने देना। हज़रत अमीरूल मोमिनीन (अ.) ने कहा किः या रसूलल्लाह (स.) इसका क्या कारण है ? फ़र्माया कि इन चीज़ो के खाने से औरत का गर्भ ठंडा पड़ जाता है और वह बाँझ हो जाती है और उसके संतान नही पैदा होती।ऐअली (अ ,) जो बोरिया घर के किसी कोने में पड़ा हो उस औरत से अच्छा है जिसके संतान न होती हो। फिर फ़र्माया या अली (अ.) अपनी बीवी से महीने के शुरू , बीच , आखिर में संभोग न किया करो कि उसको और उसके बच्चों को दीवानगी , बालखोरः (एक तरह की बीमारी) कोढ़ और दिमाग़ी ख़राबी होने का डर रहता है। या अली (अ ,) ज़ोहर की नमाज़ के बाद संभोग न करना क्योंकि बच्चा जो पैदा होगा वह परेशान हाल होगा। या अली (स ,) संभोग के समय बातें ( 214) करना अगर बच्चा पैदा होगा तो इसमें शक नहीं कि वह गूँगा हो। और कोई व्यक्ति अपनी औरत की योनि की तरफ न देखे ( 215) बल्कि इस हालत में आँखें बन्द रखे। क्योंकि उस समय योनि की तरफ देखना संतान के अंधे होने का कारण होता है। या अली (अ ,) जब किसी और औरत के देखने से सेक्स या इच्छा पैदा हो तो अपनी औरत से संभोग न करना क्योंकि बच्चा जो पैदा होगा नपुंसक या दिवाना होगा। या अली (अ.) जो व्यक्ति जनाबत (वीर्य निकलने के बाद) की हालत में अपनी बीवी के बिस्तर में लेटा हो उस पर लाज़िम है कि क़ुर्आन-ए-करीम न पढ़े क्योंकि मुझे डर है कि आसमान से आग बरसे और दोनों को जला दे। या अली (अ ,) संभोग करने से पहले एक रूमाल अपने लिए और एक अपने बीवी के लिए ले लेना। ऐसा न हो कि तुम दोनों एक ही रूमाल प्रयोग करो कि उस से पहले तो दुश्मनी पैदा होगी और आखिर में जुदाई तक हो जाएगी। या अली (अ.) अपनी औरत से खड़े खड़े संभोग न करना कि यह काम गधों का सा है। अगर बच्चा पैदा होगा तो वह गधे ही की तरह बिछौने पर पेशाब किया करेगा या अली (अ ,) ईद-उल-फितर की रात संभोग न करना कि अगर बच्चा पैदा होगा तो उससे बहुत सी बुराईयां प्रकट होंगी। या अली (अ ,) ईद-उल-क़ुर्बान की रात संभोग न करना अगर बच्चा पैदा होगा तो उसके हाथ में छः उँगलियाँ होंगी या चार। या अली (अ ,) फलदार पेड़ के नीचे संभोग न करना अगर बच्चा पैदा होगा तो या क़ातिल व जल्लाद (हत्यारा) होगा या ज़ालिमों (अत्याचारों) का लीडर। या अली (अ ,) सूर्य के सामने संभोग न करना मगर यह कि परदः डाल लो क्योंकि अगर बच्चा पैदा होगा तो मरते दम तक बराबर बुरी हालत और परेशानी में रहेगा। या अली (अ ,) अज़ान व अक़ामत के बीच संभोग न करना। अगर बच्चा पैदा होगा तो उसकी प्रव्रति खून बहाने की ओर होगी।

या अली (अ ,) जब तुम्हारी बीवी गर्भवती हो तो बिना वज़ू के उस से संभोग न करना वरना बच्चा कनजूस पैदा होगा। या अली (अ ,) शाअबान की पन्द्रहवीं तारीख को संभोग न करना वरना बच्चा पैदा होगा तो लुटेरा और ज़ुल्म (अत्याचार) को दोस्त रखता होगा और उसके हाथ से बहुत से आदमी मारें जायेंगे। या अली (अ. कोठे पर ( 216) संभोग न करना वरना बच्चा पैदा होगा तो मुनाफिक़ और दग़ाबाज़ होगा। या अली (अ.) जब तुम यात्रा (सफर) पर जाओ तो उस रात को संभोग न करना वरना बच्चा पैदा होगा तो नाहक़ (बेजा) माल खर्च करेगा और बेजा खर्च करने वाले लोग शैतान के भाई हैं और अगर कोई ऐसे सफर में जायें जहाँ तीन दिन का रास्ता हो तो संभोग करे वरना अगर बच्चा पैदा हुआ तो अत्याचार को दोस्त रखेगा।( 217)

जहाँ रसूल-ए-खुदा (स.) ने उपर्युक्त बातें इर्शाद फ़र्मायीं हैं वहीं किसी मौक़े पर यह भी फ़र्माया किः

उस खुदा कि कसम जिस की क़ुदरत में मेरी जान है अगर कोई व्यक्ति अपनी औरत से ऐसे मकान में संभोग करे जिस में कोई जागता हो और वह उनको देखे या उनकी बात या सांस की आवाज़ सुने तो संतान जो उस मैथुन से पैदा होगी नाजी न होगी (अर्थात उसे मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकती) बल्कि बलात्कारी होगी। ( 218)

इसी तरह की बात इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक़ (अ ,) ने इर्शाद फ़र्मायी है किः

मर्द को उस मकान में जिसमें कोई बच्चा हो अपनी औरत या लौंडी से संभोग नही करना चाहिए वरनः वह बच्चा बलात्कारी होगा। ( 219)

शायद इसी लिए इमाम-ए-ज़ैनुल आबिदीन (अ ,) जिस समय संभोग का इरादः करते तो नौकरों को हटा देते , दरवाज़ा बन्द कर देते , पर्दः डाल देते और फिर किसी नौकर को उस कमरे के करीब आने की इजाज़त (आज्ञा , अनुमति) नहीं होती थी। ( 220)

अतः ज़रूरी अहतेयात यह है कि अच्छे और बुरे की तमीज़ (समझ) न रखने वाले बच्चे के सामने भी मैथुन न करें। क्योंकि इस से बच्चे के बलात्कार की ओर आकर्षित होने का डर है।

यह भी घ्रणित है कि कोई एक आज़ाद (स्वतन्त्र) औरत के सामने दूसरी आज़ाद औरत से संभोग करे।

इमाम-ए-मुहम्मद-ए-बाक़िर (अ.) ने इर्शाद फ़र्माया है किः

एक आज़ाद औरत से दूसरी आज़ाद औरत के सामने संभोग मत करो मगर ग़ुलाम (कनीज़) से दूसरी कनीज़ के सामने संभोग करने में कोई नुक़सान (आपत्ति) नहीं है। ( 221)

इन सभी चीज़ो के साथ-साथ औरत और मर्द को इस बात का भी ख़्याल रखना चाहिए कि वह ख़िज़ाब लगाकर या पेट भरा रहने की सूरत में संभोग न करें। क्योंकि इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक़ (अ ,) ने इर्शाद फ़र्माया किः

अगर कोई व्यक्ति खिज़ाब लगाये हुवे अपनी औरत से संभोग करेगा तो जो बच्चा पैदा होगा नपुंसक पैदा होगा। ( 222)

और आप ही ने इर्शाद फ़र्माया किः

तीन चीज़ शरीर के लिए बहुत खतरनाक (हानिकारक) बल्कि कभी हलाक करने वाली (प्राण घातक) भी होती है। पेट भरे होने की हालत में हमाम में जाना (अर्थात स्नान करना) पेट भरा होने की हालत में संभोग और बूढ़ी औरत से संभोग करना। ( 223)

संभोग के समय इसका भी ख्याल (ध्यान) रखना चाहिए किः

अगर किसी के पास कोई ऐसी अंगूठी हो जिस पर कोई नामे खुदा हो उस अंगूठी को उतारे बिना संभोग न करे। ( 224)

जहाँ यह सभी चीज़े हैं वहीं काबे की तरफ मुँह करके संभोग करना घ्रणित है। इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक़ (अ.) से सवाल करने वाले ने सवाल किया किः

क्या मर्द नंगा (निर्वस्त्र) होकर संभोग कर सकता है। फ़र्माया नहीं। इसके अतिरिक्त न ही क़िब्ले की ओर मुँह करके संभोग कर सकता है न काबे की ओर पीठ करके और न ही किश्ती में। ( 225)

जबकि आधुनिक युग के अधिकतर जोड़े पूरे नंगे होकर (अर्थात पूरे कपड़े उतार कर) संभोग करने से अधिक स्वाद और आन्नद महसूस करते हैं और यह कहते हैं कि इस से संभोग में कई गुना बढ़ोतरी हो जाती है। लेकिन उन्हे यह मालूम नहीं कि इस तरह मैथुन क्रिया से पैदा होने वाले बच्चे बेशर्म होते हैं। रसूल-ए-अकरम ने फ़र्मायाः

जंगली जानवरों की तरह नंगे न हो , क्योंकि नंगे होकर संभोग करने से संतान बेशर्म पैदा होती है। ( 226)

बहरहाल अगर बहुत ज़्यादा ग़ौर से देखा जाए तो मालूम होगा कि सभी मकहूरात (घ्रणित मैथुन) संभोग से अधिकतर बच्चे का फायदः (अर्थात शारीरिक कमीयों से पाक) होगा और कुछ (जैसे संभोग के बाद लगी हुई गंदगी को दूर करने के लिए मर्द और औरत से अलग-अलग रूमाल होने) में औरत और मर्द का फायदः (अर्थात दुश्मनी या जुदाई न होना) होगा।

याद रखना चाहिए कि जिस तरह घ्रणित मैथुन से मर्द और औरत या बच्चे का लाभ होगा उसी तरह पुनीत मैथुन (मुस्तहिबाते जिमाअ) से औरत और मर्द या बच्चे का ही लाभ होगा।

पुनीत मैथुनः पिछले अध्याय में लिखा जा चुका है कि संभोग के समय वज़ू किये होना और बिस्मिल्लाह कहना पुनीत है। वास्तव में यह इस्लाम धर्म की सर्वोच्च शिक्षाऐं है कि वह व्यक्ति को ऐसे हैजानी , जज़बाती और भावुक माहौल (संभोग के समय) में भी अपने खुदा से बेखबर नही होने देना चाहता। जिसका अर्थ यह है कि एक सच्चे मुस्लमान का कोई काम खुदा की याद या खुदा के क़ानून से अलग हट कर नही होता है। उसके दिमाग़ में हर समय यह बात रहती है कि वह दुनियां का हर काम (यहाँ तक कि मैथुन भी) खुदा कि खुशनूदी के लिए करता है ------ यही कारण है कि ऐसा खुदा का नेक , अच्छा व्यक्ति जिस समय सेक्सी इच्छा की पूर्ति कर रहा होता है उस समय खुदा अपने छिपे हुए खज़ाने से , उसके लिए संतान जैसी वह महान नेअमत (अर्थात ईश्वर का दिया हुआ वह महान धन) तय करता है जो दीन (धर्म) और दुनिया के लिए लाभदायक और प्रयोग योग्य सिद्ध होती है।

उसी नेक औऱ लाभदायक और प्रयोग योग्य संतान प्राप्त करने के लिए जहाँ रसूल-ए-खुदा (स.) ने हज़रत अली (अ ,) को घ्रणित मैथुन की शिक्षा दी है वहीं पुनीत मैथुन से सम्बन्धित बताया है किः

या अली (अ ,) सोमवार की रात को मैथुन करना अगर संतान पैदा हुवी तो हाफिज़े क़ुर्आन और खुदा की नेअमत पर राज़ी व शाकिर होगी। या अली (अ ,) अगर तुम ने मंगलवार की रात को मैथुन किया तो जो बच्चा पैदा होगा वह इस्लाम की सआदत (प्रताप) प्राप्त करने के अलावा शहादत का पद (मरतबा) भी पायेगा। मुँह से उसके खुशबूँ आती होगी। दिल उसका रहम (दया) से भरा होगा। हाथ का वह सखी (दाता) होगा। और ज़बान उसकी दूसरों की बुराई और उनसे सम्बन्धित ग़लत बात कहने से रूकी रहेगी। या अली (अ ,) अगर तुम ब्रहस्पतिवार की रात को मैथुन करोगे तो जो बच्चा पैदा होगा वह शरीअत का हाकिम (पदाधिकारी) होगा या विद्धान और अगर ब्रहस्पतिवार के दिन ठीक दोपहर के समय मैथुन करोगे तो आखिरी समय तक शैतान उस के पास न आ सकेगा और खुदा उसको दीन और दुनिया में तरक्की देगा। या अली (अ ,) अगर तुम ने शुक्रवार की रात को मैथुन किया तो बच्चा जो पैदा होगा वह बात चीत में बहुत मीठा और सरल व सुन्दर मंजी हुवी भाषा के बोलने वालों में प्रसिद्ध होगा और कोई बोलने वाला (व्याखता) उसकी बराबरी न कर सकेगा और अगर शुक्रवार के दिन अस्र की नमाज़ के बाद मैथुन करे तो बच्चा जो पैदा होगा वह ज़माने के बहुत ही बुद्धिजीवीयों में गिना जाएगा। अगर शुक्रवार की रात इशाअ की नमाज़ के बाद मैथुन किया तो उम्मीद है कि जो बच्चा पैदा होगा वह पूर्ण उत्तराधिकारियों (वली-ए-कामिल) में गिना जाएगा। ( 227)

पुनीत मैथुन से सम्बन्धित यह भी मिलता है कि छुप कर मैथुन करना चाहिए जैसा कि ऊपर भी वर्णन किया जा चुका है कि इमाम-ए-ज़ैनुल आबेदीन (अ ,) जब भी संभोग का इरादः करते थे तो दरवाज़े बन्द करते , उन पर पर्दः डालते और किसी को कमरे की तरफ न आने देते थे। छुप कर संभोग करने ही से सम्बन्धित उन घ्रणित मैथुन को भी दृष्टिगत रखा जा सकता है जिसमें अच्छे और बुरे की पहचान न रखने वाले बच्चे के सामने भी संभोग करने को मना किया गया है। या एक आज़ाद (स्वतन्त्र) और से मौजूदगी (उपस्थिति) में दूसरी आज़ाद औरत के साथ मैथुन करने को भी घ्रणित बताया गया है। अतः इस से यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है कि छुप कर मैथुन करना ही पुनीत (मुस्तहिब) है। इसी से सम्बन्धित रसूल-ए-खुदा (स.) ने इर्शाद फ़र्माया किः

कव्वे की सी तीन आदतें सीखो। छुप कर मैथुन करना , बिल्कुल सुबह रोज़ी की तलाश में जाना , दुश्मनों से बहुत बचे रहना। ( 228)

पुनीत मैथुन में यह भी मिलता है कि कोई भी व्यक्ति अपनी औरत से फौरन संभोग न करे। बल्कि पहले छाती , रान आदि को मसले , सहलाए , (अर्थात मसास करे) छेड़-छाड़ और मज़ाक करे। इस बात को सेक्सी शिक्षा के विद्धानों ने माना है। उनकी दृष्टि में एकदम से संभोग करने पर मर्द का वीर्य शीघ्र ही निकल जाता है जिसके कारण मर्द की इच्छा तो पूरी हो जाती है लेकिन औरत की इच्छा पूरी नहीं हो पाती। जिसकी वजह से औरत अपने मर्द से नफ़रत करने लगती है। शायद इसी लिए प्राकृतिक धर्म इस्लाम ने मसास (मसलना , सहलाना) चूमना चाटना छेड़-छाड़ , हंसी-मज़ाक , प्यार व मुहब्बत की बातें आदि को पुनीत करार दिया है ताकि औरत उपर्युक्त कार्यों से संभोग के लिए पूरी तरह तैय्यार हो जाए और जब उससे संभोग किया जाए तो वह भी मर्द की तरह से पूरी तरह सेक्सी संतुष्टि (अर्थात स्वाद और आन्नद) प्राप्त कर सके। इसीलिए रसूल-ए-खुदा ने इर्शाद फ़र्माया किः

जो व्यक्ति अपनी औरत से संभोग करे वह मुर्ग़ की तरह उस के पास न जाए बल्कि पहले मसास और छेड़-छाड़ी हंसी मज़ाक करे उसके बाद संभोग करे। ( 229)

यही वजह है कि जिस समय इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक़ (अ ,) से किसी ने पूछा किः

अगर कोई व्यक्ति हाथ या उंगली से अपनी बीवी या अपनी लौड़ी (अर्थात वह औरत जिसे मर्द ने खरीद लिया हो) की योनि के साथ छेड़-छाड़ करे तो कैसा ? फ़र्माया कोई नुकसान नहीं लेकिन बदन (शरीर) के हिस्सों (अंगों) के अलावा कोई और चीज़ (वस्तु) उस स्थान में प्रवेश न करे। ( 231)

अर्थात औरत को संभोग के लिए पूरी तरह तैय्यार करने और गर्म करने के लिए मर्द औरत की योनि (शर्मगाह) में अपनी उंगली या शरीर के किसी अंग से छेड़-छाड़ कर सकता है ताकि औरत और मर्द को पूरी तरह से सेक्सी स्वाद और आन्नद प्राप्त हो सके।

अनिवार्य मैथुन

घ्रणित और पुनीत मैथुन की तरह अनिवार्य मैथुन में मर्द पर वाजिब है कि वह अपनी जवान बल्कि बूढ़ी पत्नी से चार महीने में एक बार मैथुन अवश्य करे।

मसाएल में है किः-

पति अपनी जवान पत्नी से चार महीने से अधिक संभोग को नही छोड़ सकता। बल्कि एहतियात (सावधानी) यह है कि अपनी बूढ़ी पत्नी के साथ भी इससे अधिक समय तक संभोग को न छोड़े। ( 232)

यह भी मिलता है किः-

औरत के जो हुक़ूक़ (अधिकार) मर्द पर है उनमें से एक यह भी है कि अगर मर्द घर में मौजूद है और कोई शरई (धार्मिक) उज़र (आपत्ति) न रखता हो तो चार महीने में एक बार संभोग करे यह अनिवार्य है और अगर कई पत्नियाँ हों और उनमें से किसी एक के साथ एक रात सोये तो अनिवार्य है कि औरों (दूसरों) के पास भी एक एक रात सोये। विद्धानों का एक गिरोह मानता है और यह मानना सावधानी पर आधारित मालूम होता है कि चार रातों मे से एक रात एक औरत के लिए मखसूस हो। अब चाहे इसमें एक औरत हो या ज़्यादा (पास सोने का तात्पर्य यह नही है कि संभोग भी अवश्य करे) लौङियों (वह औरत जिन्हें खरीद लिया गया हो) के हक़ (अधिकार) मे और उन औरतों के हक़ में जिन से मुतअः किया है यह क़ानून अनिवार्य नही है बल्कि लौड़ी के हक़ मे अच्छा तरीक़ा यह है कि उसकी सेक्सी इच्छा की पूर्ति मर्द खुद करे या उसका किसी के साथ निकाह कर दे। कुछ हदीसों में आया है कि अगर ऐसा न किया और वह बलात्कार कर बैठी तो इसका गुनाहः मालिक के नामः-ए-आमाल में लिखा जाएगा। ( 233)

बहरहाल जब संभोग से सम्बन्धित हराम , मक्रूह , मुस्तहिब और वाजिब का ज्ञान हो गया तो आव्यश्क है कि संभोग की कुछ बुनियादी और अनिवार्य बातों का अवश्य ध्यान में रखे क्योंकि संभोग का सम्बन्ध औरत और मर्द की पूरी ज़िन्दगी (के पूरे जीवन) से रहता है।

वज़ू और दुआ

जैसा कि ऊपर भी वर्णन किया जा चुका है कि संभोग का इरादः होने पर सब से पहले वज़ू करे और खुदा से नेक और पाकीज़ा संतान की दुआ करे। जैसा कि कुछ नबीयों ने भी किया। जनाब-ए-ज़करिया (अ.) ने नेक संतान की दुआ करते हुवे कहाः

....... ऐ मेरे पालने वाले तू मुझ को (भी) अपनी बारगाह से नेक और पाक संतान दे। बेशक तू ही दुआ का सुनने वाला है। ( 234)

या जनाब-ए-इब्राहीम (अ.) ने दुआ किः

परवर्दिगारा मुझे एक नेक सीरत (औलाद) अता फ़र्मा। ( 235)

अतः संभोग से पहले नेक संतान की दुआ अवश्य माँग लेना चाहिए।

एकान्तः वज़ू और दूआ के अलावा संभोग के लिए यह भी आव्यशक है कि छुप कर संभोग करने के लिए एकान्त अर्थात उस कमरे में जाया जाए जिस में औरत और मर्द का बिस्तर लगा हुआ हो। उसके दर्वाज़े और खिड़कियां बन्द करके अगर सम्भव हो तो पर्दे गिरा दें (( 236)) ताकि दोनों को तस्ल्ली (संतोष) हो जाए कि उनकी सेक्सी क्रिया को कोई और नही देख सकता। संभोग से पूर्व उचित है कि औरत और मर्द दोनों पेशाब कर लें क्योंकि इस तरह स्वाद और आन्नद ज़्यादा देर तक बाकी रहता है।

मसास व दस्तबाज़ी

बन्द कमरे में जब औरत और मर्द को पूरी तरह इस बात का यक़ीन हो जाए कि उनकी सेक्सी क्रिया कलापों को कोई और नही देख रहा है तो सर्व प्रथम आव्यश्कता अनुसार वस्त्र को उतारे फिर पुनीत है कि दोनों आपस में सेक्सी खेल खेलें। दोनों एक दूसरे के हस्सास (संवेदनशील) अंगों को मस (स्पर्श) करें , सहलाए , खुजलायें और मसलें ताकि प्राकृतिक तौर पर वह चीकनाहट और तरी पैदा हो सके जिसे -मज़ी- कहा जाता है। जिसका काम पहले से निकल कर रास्ते को चिकना करना होता है ताकि मैथुन कठीनाई और परेशानी न होकर स्वाद और आन्नद पैदा हो सके ------ याद रखना चाहिए कि मसास (अर्थात अंगों को सहलाना , खुजलाना और मसलना) और दस्तबाज़ी की इस क्रिया में मर्द मुख्य रूप से ध्यान रखे। अर्थात वह प्यार और मुहब्बत की बातों के साथ साथ औरत को गोद में ले , चूमे चाटे , छाती (स्तन) के निपुलों को मसले , छाती को धीरे धीरे दबाए , होटों या ज़बान को धीरे धीरे चूसे , बगल , गुददी और रान आदि में उंगलियाँ फेरे , योनि में उंगली से हल्के हल्के हरकत दे , अपना लिंग औरत के हाथ में दे ताकि वह उसे धीरे धीरे दबाए और तनाव पैदा होने पर अपनी सेक्सी इच्छा को उस समय तक काबू में रखे जब तक कि औरत की सांसें उखड़ी न शुरू हो जायें , और औरत अपनी आँखे बन्द न करने लगे , ज़ोर से सीने से चमटने न लगे , चेहरे पर लाली , खुशी और ताज़गी के आसार (लक्षण , निशानात) न पैदा हो जाए------- अगर इस बीच मर्द को स्वाद महसूस हो तो वह अपने ख्याल को बाटे , अगर वीर्य अपनी जगह से हरकत कर चुका हो तो सांस रोके ताकि वीर्य रूक जाए और न निकले। लेकिन इस बीच भी औरत के संवेदनशील अंगों को हाथों से सहलाता ( 237) रहे ताकि औरत की इच्छा कम न हो--- फिर जब औरत की आँखों में लाल ड़ोरें मालूम हों या वह लम्बी लम्बी सांसें ले , या वह मर्द को ज़ोर से सीने से चिमटा ले---- उस समय औरत को सीधा लिटा कर उसकी क़मर के नीचे तकीया रख दे और उसकी रानों को खोल दें या उसके दोनों पैर समेट कर सुरीन (चूतड़) के नीचे रख दें ताकि औरत का मुख्य स्थान (आगे का सुराख) ऊचाँ हो जाए इस तरह मर्द के लिंग का मुहँ औरत के मुख्य स्थान के बिल्कुल सामने होगा और मर्द का लिंग आसानी के साथ औरत के गर्भ के मुहँ तक पहुँच जाएगा ----- तब मर्द अपने लिंग को , औरत के मुख्य सुराख में सख्ती से प्रवेश (दाखिल) कर दे। इस क्रिया से औरत को तकलीफ़ नही होगी बल्कि उसके स्वाद में काफी हद तक बढ़ोतरी होगी------ फिर अगर पैर औरत के चूतड़ के नीचे हो तो एक-एक कर के औरत के दोनों पैर फैला दें और खुद भी अपने पैर फैलाकर औरत पर इस तरह छा जाए ( 238) कि उसके शरीर के एक एक हिस्से को छुपा लें। लेकिन उस समय भी प्यार और मुहब्बत , प्रेम , मसलता और सहलाता रहे , होठों और ज़बान को चूसता रहे , धीरे धीरे लिंग को निकालता और दाखिल करता रहे , जिससे गर्भ फैल जाता है , उसका मुहँ खुल जाता है और इस वजह से गर्भ कुछ ऊचाँ भी हो जाता है। जिससे मर्द का लिंग टकराता है (जिसका अनुभव कुछ बहुत जल्दी अनुभव करने वाले लोगों को आसानी से हो जाता है) इस क्रिया से औरत बहुत जल्दी मुन्ज़िल हो जाती (अर्थात उसका वीर्य निकल जाता है) है। ऐसे समय में मर्द को स्वाद बिल्कुल नही उठाना चाहिए ताकि उसका वीर्य शीघ्र न निकले। बल्कि जब औरत मुन्ज़िल होने के बिल्कुल करीब हो अर्थात वह मर्द को कस के दबाये। तब मर्द भी जल्दी जल्दी दाखिल और खारिज (डाले और निकाले) करके मुन्ज़िल (वीर्य को निकाल दे) हो जाये। अगर इत्तिफाक (संयोगवश) से औरत उस समय तक मुन्ज़िल न हो और वह अपने हाथों या टागों से मर्द को कस कर दबा रही हो ताकि मर्द अलग न हो तो मर्द को चाहिए कि उस समय तक अपने लिंग को औरत की योनि से बाहर न निकाले जब तक कि औरत मुन्ज़िल न हो जाए। फिर कुछ देर बाद लिंग को निकाल कर मर्द धीरे से औरत से अलग हो जाए और औरत कुछ देर तक चित लेटी रहे , अपनी रानों को चिपकाये रहे ताकि गर्भ ठहरने में आसानी हो। उसके बाद अपने अपने रूमाल से (रसूल-ए-अकरम (स.) की वसीयत के अनुसार एक रूमाल होने पर पहले औरत और मर्द में दुश्मनी होती है और बाद में अलगाव) शरीर पर लगी हुई गन्दगी को साफ़ करें और मर्द के लिए ज़रूरी है कि वह पेशाब कर ले ताकि कई तरह की बीमारियों से बचा रहे।

बहरहाल मर्द का वीर्य निकलते ही उसके वीर्य के पदार्थ के पचास करोड़ जरसूमे (अर्थात छोटे-छोटे कीड़े जो बिना सूक्ष्मदर्शी के नही दिखाई देते) औरत के गर्भ में पहुँच कर अंड़ो की पैदाइश के स्थान की तरफ़ दौड़ते हैं जहाँ लगभग तीन लाख अंडे होते है------- और कभी कभी मर्द का जरसूमा औरत के अंडे से मिलकर बच्चे की पैदाइश का कार्य शुरूअ कर देता है। ( 229)

यह खुदा कि क़ुदरत (दैवी माया) है कि मर्द के वीर्य पदार्थ के जरसूमें उछलते कुदते सुरक्षा के साथ औरत के गर्भ में पहुँच कर अंडो से मिलते और बच्चे की पैदाइश का कार्य प्रारम्भ करते है। चाहे मर्द लिंग लम्बा और छोटा हो , औरत का गर्भ दूर हो या करीब , मर्द का लिंग औरत के गर्भाशय से टकराये या न टकराये। हर सूरत में प्राकृतिक तौर पर मर्द के वीर्य पदार्थ के जरसूमे उछलते कूदते ही औरत के गर्भाशय में पहुँचते है और गर्भ करार पाता है।

संभोग का उपर्युक्त तरीक़ा (अर्थात और नीचे और मर्द ऊपर होने की हालत) ही सब से अच्छा और आसान तरीक़ा है। जिसकी तरफ क़ुर्आन-ए-करीम ने भी इशारा किया है किः

तो जब मर्द औरत के ऊपर छा जाता है (अर्थात संभोग करता है) तो बीवी एक हल्के से गर्भ से गर्भवती हो जाती है। ( 240)

और मर्द उसी समय औरत पर पूरी तरह छा सकता है जब मर्द ऊपर और औरत उसके नीचे हो और मर्द का ऊपर होना इसलिए भी उचित है कि मर्द को अपना वीर्य औरत के गर्भ में टपकाना पडता है जिसके लिए क़ुर्आन में मिलता हैः

और यह कि वह नर और मादा दो तरह (के जीव) वीर्य से जब (गर्भ) में जब डाला जाता है , पैदा करता है। ( 241)

या

क्या गर्भ (सर्व प्रथम) वीर्य का एक कतरा न था जो गर्भ में डाली जाती है। ( 242)

और

तो जिस वीर्य को तुम (औरतों के) गर्भ में डालते हो क्या तुम ने देख भाल लिया है क्या तुम उस से आदमी बनाते हो या हम बनातें हैं।( 243)

उपर्युक्त क़ुर्आनी आयतों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मर्द को अपना वीर्य औरत के गर्भ मे टपकाने , डालने के लिए संभोग के समय औरत के ऊपर ही होना चाहिए। मर्द के ऊपर होने ही से सम्बन्धित रसूल-ए-खुदा (स.) ने एक हदीस में इर्शाद फ़र्माया किः

जब मर्द औरत के चारों तरफ बैठ जाए फिर उसके साथ मिलकर खूब थक जाए तो स्नान (ग़ुस्ल) अनिवार्य (वाजिब) हो जाता है।( 244)

और औरत के चारों किनारों पर बैठना उसी समय सम्भव है जब औरत नीचे और मर्द ऊपर हो।

लेकिन याद रखना चाहिए कि इस्लामी शरीअत (प्राकृतिक धर्म) ने मनुष्य की प्रकृति को दृष्टिगत रखते हुवे केवल उपर्युक्त अच्छे और आसान तरीक़े का ही हुक्म (आदेश) नहीं दिया है बल्कि संभोग के लिए पूरी स्वतन्त्रा और छूट दी है कि हर मनुष्य जिस तरीक़े से चाहे अपनी पसन्द के अनुसार संभोग करे।

क़ुर्आन-ए-करीम में है किः

तुम्हारी बीवीयां (गोया) तुम्हारी खेती है तो तुम अपनी खेती में जिस तरह चाहो आओ।( 245)

अर्थात अपनी पसन्द के अनुसार जिस तरह चाहो संभोग करो।

संभोग के विभिन्न तरीक़ों को इस्तिलाह (परिभाषा) में –आसन- कहा जाता है इनकी कुल तादाद (गिनती) चौरासी बताई जाती है। लेकिन डाक्टर केवल घेर के कथा अनुसार छः आसनों को छोड़कर उनमें सब के सब बेकार और अधिकतर असम्भव हैं। छः सम्भव आसन इस तरह हैँ।

1.औरत नीचे और मर्द ऊपर की अवस्था में

2.औरत व मर्द पहलू बा पहलू की अवस्था में

3.मर्द नीचे और औरत ऊपर की अवस्था में

4.औरत और मर्द लगभग खड़े रहने की अवस्था में

5.औरत और मर्द आगे पीछे की अवस्था में

6. औरत और मर्द बैठने की अवस्था में

लेकिन इनमें प्रारम्भिक दो आसन ज़्यादा प्रचलित और उपयोग में आने वाले हैं। तिसरा आसन इस्लामी दृष्टि से हराम (अर्थात वह कार्य जिसे करने पर पाप हो) तो नही लेकिन चिकित्सा शास्त्र के हिसाब से हानिकारक अवश्य है। क्योंकि मर्द का वीर्य पूरी तरह से नही निकल पाता। बल्कि अधिकतर मर्द की लिंग में कुछ हिस्सा बाकी रह जाता है। जो बाद में सड़ता और बीमारी का कारण बनता हैं। इसके अतिरिक्त ऐसी सूरत (अर्थात मर्द के नीचे और मर्द के ऊपर की अवस्था) में मर्द के लिंग में औरत की योनि से बहुत सा पदार्थ आकर एकत्र हो जाता है जो हानिकारक है। ऐसी हालत में सब से बड़ी हानि यह होती है कि गर्भ ठहरने की सम्भावना बहुत कम रहती है। बाकी आसन भी प्रयोग में आते हैं लेकिन उनका प्रयोग पहली दो आसनों की तुलना में बहुत कम होता है इनमें भी पहला आसन ही ज़्यादा प्रचलित आसान और उचित है और इसी से ज़्यादा सेक्सी इच्छा की पूर्ति होती है क्योंकि इस सूरत में औरत और मर्द दोनों मैथुन क्रिया में पूरी सरगर्मी से भाग लेते हैं।

यहाँ यह भी लिखना उचित है कि सुल्तान अहमद इस्लाही ने अपनी किताब –जिमाअ- के आदाब में निम्नलिखित इस्लामी आसनों का वर्णन किया है।

1.औरत खड़ी हो औरत मर्द भी खड़ा हो (लेकिन रसूल-ए-खुदा (स.) ने हज़रत अली (अ ,) को वसीयत करते (आखिरी शिक्षा देते) हुवे खड़े खड़े संभोग करने से मना फ़र्माया है क्योंकि यह क्रिया गधों की सी है। रसूल-ए-खुदा (स.) ने यह भी फर्माया कि अगर इस हालत में गर्भ ठहरे तो बच्चा गधों ही कि तरह बिछौने पर पेशाब करेगा। ( 247)

2.औरत बैठी हो और मर्द भी बैठा हो

3.औरत बैठी हो और मर्द खड़ा हो

4.औरत लेटी हो और मर्द आगे से आगे के रास्ते में मैथुन करे।

5.औरत लेटी हो और मर्द पीछे की ओर से आगे के रास्ते में मैथुन करे।

6.औरत करवट लेटी हो और मर्द बैठकर उससे मैथुन करे।

7.औरत करवट लेटी हो और मर्द भी करवट ही की हालत में पीछे की ओर से मैथुन करे।

8.औरत चित लेटी हो और मर्द करवट हो और आगे के रास्ते में आगे की ओर से मैथुन करे।

9.औरत करीब करीब रूकू की अवस्था (हालत) में हो और मर्द पीछे की ओर से आगे के रास्ते में मैथुन करे।

10.औरत करीब करीब सज्दे की हालत में हो और मर्द पीछे की ओर से आगे के रास्ते में मैथुन करे।

11.औरत रुकू और सज्दे की हालत में हो और मर्द आगे के रास्ते में पीछे की ओर से मैथुन करे।( 248)

उपर्युक्त आसनों के अतिरिक्त भी बहुत से आसन हैं जिनमें कुछ से औरतों को स्वाद मिलने के बजाए तकलीफ होती है और यही तकलीफ जब ज़्यादा बढ़ जाती है तो वह रोना भी आरम्भ कर देतीं हैं। अतः उचित है कि संभोग के लिए ऐसा तरीका अपनाया जाए जिस से औरत और मर्द दोनों स्वाद प्राप्त करने के साथ साथ खुश भी हो और एक संभोग के बाद दूसरे संभोग के अवसरों की प्रतिक्षा (इन्तिज़ार) करते रहें। यह न हो कि एक बार संभोग के बाद मैथुन से नफरत हो जाए।

नफरत पैदा होने का मौका मुख्य रूप से उस समय आ जाता है जब मर्द संभोग के फन को पहलवानी का फ़न समझकर सूहागरात या किसी दूसरे मौके पर अपनी औरत पर पूरे ज़ोर व शोर से टूटकर एक के बाद एक कई बार संभोग के द्वारा औरतों पर अपनी मर्दानगी का रोब (प्रभाव) जमाने की कोशिश (का प्रयत्न) करता है जबकि यह बिल्कुल ग़लत है। क्योंकि कुछ मौकों मुख्य रूप से पहली रात (अर्थात सुहागरात) में औरत में झिझक या रुकावट हो सकती है इस लिए उस रात का खाली चला जाना कोई बूरा ( 249) (ऐब) नहीं है। यूँ भी बीवी की मौजूदगी (उपस्तिथि) में बहुत सी रातें ऐसी आती है जिनको सुहागरात समझकर भरपूर संभोग का स्वाद प्राप्त किया जा सकता है।

स्नान या तयम्मुमः

बहरहाल क़ुर्आन शिक्षा अनुसार औरत और मर्द अपनी पसन्द और आसानी के अनुसार मैथुन का कोई भी तरीका अपना सकते हैं और जब दोनों मिलकर खूब थक जायें तो उन पर ग़ुस्ल (स्नान) अनिवार्य (वाजिब) हो जाता है। रसूल-ए-अकरम (स.) का इर्शाद है किः

जब मर्द औरत के चारों किनारों पर बैठ जाए फिर उसके साथ मिलकर खूब थक जाए तो ग़ुस्ल वाजिब हो जाता है। ( 250)

इसी ग़ुस्ल को ग़ुस्ले जनाबत कहा जाता है जिसके दो प्रकार हैः ग़ुस्ले तरतीबी , ग़ुस्ले इरतेमासी (इनका वर्णन पहले किया जा चुका है) इसी ग़ुस्ल से सम्बन्धित कुर्आन-ए-करीम में हैः

ऐ ईमानदारों। तुम नशे की हालत में नमाज़ के करीब न जाओ ताकि जो कुछ मुँह से कहो समझो भी तो और न जनाबत की हालत में यहाँ तक की ग़ुस्ल करो मगर रास्ता चालते में (जब ग़ुस्ल सम्भव नही है तो ज़रूरत नहीं है) बल्कि अगर तुम बीमार हो (और पानी नुकसान करे) या सफर में हो या तुम में से किसी को पैखाना निकल आए और औरतों से संभोग किया हो और तुम को पानी न मिल पा रहा हो (कि स्नान करो) तो पाक मिट्टी पर तयम्मुम कर लो और (इसका तरीका यह है कि) अपने मुँह और हाथों पर मिटटी भरा हाथ फेर लो। बेशक (निसंदेह) खुदा माफ़ करने वाला (औऱ) बख्शने वाला है। ( 251)

या

ऐ ईमानदारों। जब तुम नमाज़ के लिए तय्यार हो तो अपने मुँह और कोहनियों तक हाथ धो लिया करो और अपने सरों और टखनों तक पैर का मसह कर लिया करो। और अगर तुम जनाबत की हालत में हो तो तुम तहारत (ग़ुस्ल) कर लो (हाँ) और अगर तुम बीमार हो या सफर में हो या तुम में से किसी को पखना निकल आए या औरत से संभोग किया हो और तुम को पानी न मिल सके तो पाक मिट्टी से तय्यमुम कर लो अर्थात (दोनों हाथ मार कर) उससे अपने मुहँ अपने हाथों का मसह कर लो (देखो तो खुदा ने कैसी आसानी कर दी) खुदा तो यह चाहता ही नहीं कि तुम पर किसी तरह की सख्ती करे बल्कि वह यह चाहता है कि पाक व पाकीज़ा कर दे और तुम पर अपनी नेअमत पूरी कर दे ताकि तुम शुक्रगुज़ार बन जाओ। ( 252)

उपर्युक्त क़ुर्आनी आयतों से यह स्पष्ट हो जाता है कि संभोग के बाद औरत और मर्द दोनों पर ग़ुस्ल-ए-जनाबत (स्नान) वाजिब हो जाता है और अगर स्नान करना सम्भव नहीं है तो तयम्मुम करना वाजिब (अनिवार्य) है----- लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि संभोग के फौरन बाद ग़ुस्ल करना वाजिब है। बल्कि कई बार संभोग कर के केवल एक स्नान कर लेना काफी और जाएज़ है। मगर इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि नमाज़ का समय जाने से पहले ग़ुस्ल-ए-जनाबत कर लिया जाए ताकि नमाज़ अदा किया जा सके ------- यह भी याद रखना चाहिए कि एक ही औरत से एक बार संभोग करने से पहले योनि (शर्मगाह) को धोकर वज़ू कर लेना पुनीत (मुस्तहिब) है।

इमाम-ए-अली-ए-रिज़ा (अ ,) का इर्शाद है किः

एक बार संभोग करने के बाद अगर दोबारा संभोग करने का इरादा हो और ग़ुस्ल न करे तो चाहिए कि वज़ू करे और वज़ू करने के बाद संभोग करे। ( 253)

याद रहना चाहिए कि योनि धोने से और वज़ू करने से थोड़ी सफाई हो जाती है और दुबारा संभोग में कुछ अधिक स्वाद और आनन्द मिलता है।

अगर दो , तीन या चार स्वतन्त्र औरतों से एक के बाद एक संभोग करना हो तो उचित है कि हर संभोग के बाद स्नान कर ले। मिलता है कि रसूल-ए-अकरम (स ,) ने एक रात अपनी सभी पाक व पाकीज़ा बीवीयों के यहाँ चक्कर लगाया और उनमे से हर औरत के पास आपने ग़ुस्ल फ़र्माया। ( 254) लेकिन अगर कोई कनीज़ों (अर्थात वह औरतें जिन्हे खरीदा गया हो) मे एक के बाद एक से संभोग करना है तो हर एक के लिए केवल वज़ू करना ही काफी है।

इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक (अ ,) ने इर्शाद फ़र्मायाः

जो व्यक्ति अपनी कनीज़ से संभोग करे और फिर चाहे कि ग़ुस्ल से पहले दूसरी कनीज़ से भी संभोग करे तो उस पर लाज़िम (अनिवार्य) है कि वज़ू कर ले। ( 255)

बहरहाल संभोग के बाद वज़ू या ग़ुस्ल करना अनिवार्य है जिस से सफाई व पाकीज़गी पैदा होती है और सफाई और पाकीज़गी को खुदा पसन्द करता है ---- वज़ू या ग़ुस्ल से तबीअत में चुस्ती , फुरती और खुशी पैदा होती है। इसी के द्वारा कुछ खतरनाक बीमारियों से भी बचा जा सकता है। जिसे चिकित्सा शास्त्र के विद्धानों ने भी माना है।

मैथुन के राज़ को बयान करने की मनाहीः

मैथुन से सम्बन्धित ध्यान में रखने वाली बुनियादी और मुख्य बातों में एक बात यह भी है कि औरत और मर्द अपने खास सेक्सी (शारीरिक) मिलाप के राज़ो को दूसरों (सहेली और दोस्तों) के सामने बयान न करे। क्योंकि यह बहुत बुरा गुनाह (पाप) है। रसूल-ए-खुदा (स.) का इर्शाद है किः

कयामत (महाप्रलय) के दिन अल्लाह के निकट सब से खराब पोज़ीशन वाला वह व्यक्ति होगा जो अपनी बीवी से संभोग करने के बाद उसका राज़ फैलाता है। ( 256)

संतानः बहरहाल औरत और मर्द के शारीरिक मिलाप के नतीजे में उस समय संतान वुजूद में आती है जब खुदा कि रहमत और बरकत शरीक होती है। और अगर खुदा न ख्वास्ता खुदा की रहमत और बरकत नही होती तो औरत और मर्द पूरी ज़िन्दगी पूरे जोश व खरोश के साथ शारीरिक मिलाप करते रहते हैं लेकिन एक संतान भी पैदा नहीं कर पाते। क्योंकि संतान का पैदा करना मनुष्य के बस (सामथ्यर) की बात नही। इसी से सम्बन्धित क़ुर्आन-ए-करीम में मनुष्य के मस्तिष्क को झिंझोड़ते हुवे मिलता है किः

तो जिस वीर्य को तुम (औरतों के) गर्भ में डालते हो क्या तुमने देख भाल लिया है कि तुम उससे आदमी बनाते हो या हम बनाते हैं। ( 257)

अर्थात मनुष्य को पैदा करने वाला केवल और केवल खुदा ही है , जो माँ के गर्भाशय में नौ महीने तक पड़ा रहता है। जिसकी पैदाइश (बनावट) की विभिन्न मंज़िलों से सम्बन्धित किताब –अल काफ़ी- में इमाम-ए-बाक़िर (अ ,) से रिवायत है किः

जब अल्लाह अज़ व जल ऐसे वीर्य को जिस से हज़रत आदम (अ ,) के वीर्य को जिस (अभिवचन , वादा) लिया होता है , आलमे बशरीयत (मानवता के संसार) में पैदा करने का इरादः करता है तो सब से पहले उस मर्द में मैथुन की ख्वाहिश (इच्छा) पैदा करता है। जिसके वीर्य में वह नुत्फः (वीर्य) मौजूद होता है और उसकी पत्नी के गर्भ को आदेश देता है कि अपने दरवाज़े खोल दे ताकि उस समय मनुष्य की पैदाइश से सम्बन्धित कज़ा व कदर (खुदा का लिखा हुवा) आदेश पारित (नाफिज़) हो। फिर गर्भ के दरवाज़े खुल जाते हैं और उसमें नुत्फः दाखिल हो जाता है फिर चालीस दिन तक वह वही एक हालत से दूसरी हालत की तरफ बदलता रहता है। फिर वह ऐसा गोश्त का लोथड़ा बन जाता है कि जिस में रगों का जाल होता है। फिर अल्लाह दो फरिश्तों को भेजता है जो औरत के मुँह के रास्ते से उसके गर्भ में दाखिल हो जाते है , जहाँ वह पैदाइश (तखलीक़ , सूजन) का काम जारी करते हैं। उस गोश्त के लोथड़े में वह पुरानी रूह जो वीर्यों और गर्भों से स्थानान्तरित होती हुई आती है सामर्थ्य और शक्ति के हिसाब से मौजूद होती है। फिर फरिश्ते उसमें ज़िन्दगी और बक़ा की रूह फूँक देते हैं और अल्लाह की इजाज़त से उसमें आँख , कान , और दूसरे सभी अंग बना देते हैं। फिर अल्लाह उन दोनों को वही (अर्थात खुदा की तरफ से आया हुआ आदेश) कहता है कि- इस पर मेरी कज़ा और कद्र और नाफ़िज़ (लागू) आदेश को लिख दो और जो कुछ लिखो उसमें तेरी तरफ़ से बदअ (शुरूअ , प्रारम्भ) की शर्त लगा दो।

तब वह फरिश्ते कहते हैःऐपरवर्दिगार हम क्या लिखें ?

परवर्दिगार उनको आदेश देता हैः अपने सरों को उसकी माँ की सर के तरफ उठाओ। फिर वह फरिश्ते जब सर उठाकर उधर देखते हैं तो मालूम होता है कि तकदीर की तख़्ती उसकी पेशानी (माथे) से टकरा रही है , जिसमें उस बच्चे (शिशु) की सूरत और खूबसूरती , उसकी उम्र (आयु) और उसके अच्छे या बुरे आदि होने के बारे में सब कुछ लिखा होता है। फिर उन फ़रिश्तों में से एक दूसरे के लिए पढ़ता है और दोनों लिखते हैं वह सब कुछ जो उस शिशु (बच्चे) की तक़दीर (भाग्य) में होता है और शुरूअ की शर्त भी वह लिखते जाते हैं। ( 258)

और यह बच्चा (शिशु) कभी लड़का (नर) और कभी लड़की (मादा) हुआ करती है। जिस से सम्बन्धित क़ुर्आन-ए-करीम में मिलता है किः

सारे आसमान और ज़मीन की हुकूमत खास खुदा ही की है। जो चाहता है पैदा करता है (और) जिसे चाहता है (केवल) बेटियाँ देता है और जिसे चाहता है (केवल) बेटे अता करता है। या उनको बेटे , बेटियाँ (संतान की) दोनों किस्में देता है और जिस को चाहता है बाँझ बना देता है बेशक (निःसन्देह) वह बड़ा जानने वाला और हर चीज़ पर क़ुदरत रखने वाला है। ( 259)

उपर्युक्त आयत से सम्बन्धित हाशिये में मौलाना फ़र्मान अली ने लिखा है किः

चूँकि लोग आम तौर से पहले के भी और अब भी बेटियों को विभिन्न कारणों से पसन्द नहीं करते हैं और यही कारण था कि कुफ़्फ़ार ने खुदा की तरफ बेटियों की निसबत (संज्ञा) दी और अपनी तरफ बेटों की। तो मोमेनीन को जो प्राकृतिक तौर से बेटी होने से दुख होता है तो खुदावन्दे आलम उसका बदला देता है। चूँनाचे हज़रत रसूल-ए-खुदा (स.) फ़र्माते हैं वह औरत बहुत बरकत वाली है जो पहले बेटी जने (पैदा करे) क्योंकि खुदा ने पहले बेटियों का वर्णन किया है फिर फ़र्माया है बेटी रहमत और बेटा नेअमत। यह बिल्कुल वाक़ेए का बयान है और इसी वजह से लोगों को शाक़ (अरूचिकर) भी होता है मगर यह भी याद रखना चाहिए कि नेअमत प्राप्त होने पर सवाब नहीं मिलता बल्कि महनत पर मिलता है। ( 260)

यह वास्तविकता है कि पहले भी और अब भी ऍसे लोग अत्याधिक मिल जाते हैं। जो बेटी की पैदाइश पर बहुत ज़्यादा दुखित होते हैं , गुस्सा (क्रोध) करते हैं , पेच व ताब खाते हैं , ग़लत बात मुँह से निकालते हैं बेटी को मार डालते हैं या उस बेटी को जनने वालीयों (अर्थात अपनी पत्नी) को ही मार डालते हैं ताकि वह किसी बेटी को न जन सके------ मनुष्य की इसी प्रकृति से सम्बन्धित क़ुर्आन-ए-करीम में इशारः मिलता है किः

यह लोग खुदा के लिए बेटियाँ तज्वीज़ (निर्णय) करते हैं (सुब्हानल्लाह) वह इससे पाक व पाकीज़ा है (अर्थात उसे इसकी ज़रूरत नहीं है) और अपने लिए (बेटे) जो चाहते (और पसन्द) है और जब उनमें से किसी एक को लड़की पैदा होने की खुशखबरी दी जाए तो दुख के मारे उसका मुँह काला हो जाता है और वह ज़हर सा का घूँट पी कर रह जाता है (बेटी की) आर (लज्जा) है जिसकी इसको खुशख़बरी दी गयी है अपनी कौम के लोगों से छिपा छिपा करता है (और सोचता रहता है) कि या उसको ज़िल्लत (अपमान) उठा कर जीवित रहने दे या (ज़िन्दा ही) उसको ज़मीन में गाड़ दे देखो तो यह लोग कितना बुरा हुक्म (आदेश) लगाते हैं। ( 261)

और क्या उसने अपनी मख़लूक़ात (अर्थात वह सब चीज़े जो दुनियां में हैं) में से खुद तो बेटीयाँ ली हैं और तुम को चुन कर बेटे दिए हैं। हालाँकि जब उनमें किसी व्यक्ति को उस चीज़ (बेटी) की खुशख़बरी दी जाती है जिसकी मसल (उदाहरण) उसने खुदा के लिए बयान की हो तो वह (क्रोध के मारे) काला हो जाता है और ताओ पेच खाने लगता है। ( 262)

अर्थात बेटीयों की पैदाइश खुदा की ओर से एक खुशख़बरी है जो रहमत बन कर आती है। अतः इस पर मनुष्य (अर्थात माता पिता) को खुश होना चाहिए न कि दुखी।

बहरहाल लड़का हो या लड़की या दोनों हर हाल मे मनुष्य को खुदा का शुक्र अदा करना चाहिए। क्योंकि खुदा ने उसे औलाद की नेअमत दी , वंचित नहीं रखा। माता पिता का कर्तव्य है कि बच्चे का अच्छे से अच्छा नाम रखने और शिक्षा और प्रशिक्षण (तालीम व तर्बियत) का भी उचित प्रबन्ध करे।

संतान की शिक्षा और प्रशिक्षणः बच्चों को सहीह शिक्षा और प्रशिक्षण करना माता पिता का कर्तव्य है। और यह कर्तव्य उस समय से आरम्भ हो जाता है जब औरत और मर्द आपस में संभोग कर रहें होते हैं। क्योंकि समय का प्रभाव बच्चे पर अवश्य पड़ता है। मिलता है किः

हज़रत अली (अ.) के सामने पति और पत्नी आए दोनों गोरे रंग के थे और उनकी संतान का रंग काला था। बाप कहता है कि यह मेरी संतान नहीं है। मेरा रंग गोरा है और मेरी पत्नी का भी. लेकिन इस बच्चे का रंग काला है। अवश्य इसकी माँ ने कोई ग़लती की है। हज़रत अली (अ ,) ने फ़र्माया कि – न तुम ने कोई ग़लती की है और न तुम्हारी पत्नी ने। यह बच्चा तुम्हारे ही वीर्य का है। अब उस व्यक्ति ने आशचर्य से पूछा मौला। गोरे माता पिता का बच्चा काला कैसे हो सकता है। हज़रत अली (अ.) ने जवाब दिया कि –इसलिए ऐसा हुवा कि जब वीर्य (गर्भ) ठहर रहा था तब तुम खुदा को याद नहीं कर रहे थे और तुम्हारी पत्नी के ध्यान में किसी काले हबशी का ख्याल था जिसका नतीजा यह निकला। ( 263)

अर्थात मैथुन (संभोग) के बीच खुदा की याद करने और अपने ध्यान में नेक ख़्यालों को लाने पर ही नेक संतान पैदा हो सकती है। और जब वीर्य (नुत्फः , हमल , गर्भ) ठहर जाता है तो उसके प्रशिक्षण की ज़िम्मेदारी केवल औरत पर ही होती है। क्योंकि उसके एक-एक अच्छे या बुरे का प्रभाव उसके पेट में पलने और बढ़ने वाले बच्चे पर पड़ता रहता है। मिलता है किः

अल्लामः मजलिसी (र.) अपने बच्चे को मस्जिद लेकर जाते हैं। अब बच्चा कभी खेलता है और कभी सजदः करता है। एक मोमिन आया और उसने पानी से भरकर मशकिज़ः रखा और नमाज़ पढ़ने लगा। अब बच्चे के दिमाग में शरारत आई और उसने उस मोमिन के मशकीज़े मे सुराख कर दिया। मशकिज़ः फट गया और सारा पानी बह गया। नमाज़ के बाद अल्लामः मजलिसी (र ,) को इस वाकये का ज्ञान हुआ तो बहुत दुखी हुवे और सोच कर कहने लगे कि मैने कोई हराम काम नहीं किया , वाजिब , मुस्तहिब और हराम का ख़्याल रखा. ऍसा ज़ुल्म (ग़लत काम) मेरे बच्चे ने कैसे किया ? वास्तव में यह ग़लती माँ की तरफ से है। अब उन्होने अपनी बीवी से पूछा कि ----- हमारे बच्चे ने यह ग़लती की कि एक मज़दूर के मश्कीज़े को नुकसान पहुँचाया और उसका पानी बहा दिया। उसने ऍसा किया , वास्तव में हमारी ग़लती है। माँ ने बहुत सोचा और कहाः हाँ मेरी ही ग़लती है। गर्भ के दौरान में मौहल्ले के किसी घर चली गई थी और उसमें अनार का पेड़ था। मैने मालिक की इजाज़त (आज्ञा) के बिना सूई अनार में दाखिल कर दी और उसमें जो रस निकला उसे मैने चखा और उसको मैने नहीं बताया। ( 264)

अतः यह मानना पड़ेगा कि गर्भ के दौरान माँ के हर काम का असर (प्रभाव) बच्चे पर पड़ता है और जब बच्चा दुनियां में आ जाता है तो वह धीरे धीरे माँ और बाप की आदतों और तरीक़ो को सीखता रहता है। इसीलिए उचित है कि माँ और बाप ऐसी ज़िन्दगी व्यतीत करें जिसका प्रभाव बच्चे पर अधिक पड़े। क्योंकि यही माँ और बाप बच्चे (अर्थात परिवार , खानदान) को बनाने के दो मुख्य अंग होते है। लेकिन यह तभी सम्भव है जब माँ और बाप और दोनों इस्लामी शिक्षाओं पर पूरी तरह अमल कर रहे हों।

मर्द और औरत के अधिकारः- हर मर्द और औरत पर अपनी वैवाहिक ज़िन्दगी खुशगवार (रुचिकर , सुस्वाद) और बेमिस्ल (अद्वितीय) बनाने के लिए अनिवार्य है कि वह इस्लाम के बताए हुवे अपने अपने अधिकारों और कर्तव्यों पर पूरी पाबन्दी से अमल करें। क्योंकि प्राकृतिक धर्म (इस्लाम) ने मनुष्य की प्रकृति को दृष्टिगत रखते हुवे ही मर्द औऱ औरत के अलग-अलग अधिकार और कर्तव्य बताए हैं। जिन पर अलम करने के बाद यह सम्भव ही नहीं है कि वैवाहिक जीवन में कोई अरूचिकर मौका आ सके और वह अरूचिकर मौक़े बढ़ते बढ़ते तलाक़ (औरत और मर्द में अलगाव पैदा) की नौबत ला सकें।

याद रखना चाहिए कि प्रत्येक परिवार के मर्द और औरत (अर्थात पति और पत्नी) दो मुख्य सदस्य होते हैं जिसका संरक्षक मर्द है। इसकी तरफ रसूल-ए-खुदा (स ,) ने इशारः किया हैः

मर्द परिवार के संरक्षक हैं और हर संरक्षक पर अपने अधिक लोगों के पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी (का उत्तरदायित्व) होती है। ( 265)

और औरत घर की मालिकः (रानी) होती है। जो अपने कर्तव्यों को पूरा करने से घर को जन्नत (स्वर्ग) की तरह बना सकती है और वास्तव में यही उसका जिहाद (अर्थात धर्म के लिए युद्ध) भी है। हज़रत अली (अ ,) ने इर्शाद फ़र्मायाः

औरत का जिहाद यही है कि वह पत्नी होने की हैसीयत से अपने कर्तव्यों को खूबसूरती के साथ पूरा करे। ( 266)

लेकिन औरत और मर्द को यह बात अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि किसी पत्नी का पति बनना या किसी पति की पत्नी बनना कोई आसान और मामूली काम नही है जिसे हर एक अच्छी तरह से निभा सके। बल्कि दोनों को वैवाहिक जीवन में हर हर क़दम पर समझदारी , अक़्लमंदी , होशमंदी , और होशियारी की आव्यशकता है। अपने-अपने अधिकारों और कर्तव्यों का जानना ज़रूरी है , ताकि पति और पत्नी बनकर एक दूसरे के जीवन की आव्यशकताओं को पूरा करें और एक दूसरे के दिलों को इस तरह अपने कब्ज़े (अधिकार) में कर लें कि एक के बिना दूसरे का दिल ही न लगे और दोनों पर एक जान दो क़ालिब का मुहावरा पूरा उतर सके। यह तभी सम्भव है कि जब दोनों अपने-अपने अधिकारों और कर्तव्यों को समझते हुवे इस्लामी हदों में रहकर एक दूसरे की खुशी और मर्ज़ी (इच्छा) के तरीक़े तलाश कर लें। क्योंकि दोनों के एक दूसरे पर अधिकार और कर्तव्य है। जिसकी तरफ इस्लाम की क़ानूनी किताब क़ुर्आन-ए-करीम में इशारः मौजूद हैः

..... और शरीअत के अनुसार औरतों का (मर्दों पर) वही सब कुछ (अधिकार) है जो (मर्दों का) औरतों पर है हाँ मगर यह कि मर्दों को (श्रेष्ठता , फ़ज़ीलत में) औरतों पर प्रधानता (फौक़ियत) अवश्य है। ( 267)

अर्थात इस्लाम में दोनों (पति और पत्नी) पर ज़िम्मेदारी डाली है।

इस्लाम ने मर्द (पति) पर यह ज़िम्मेदारी (बार) सौंपी है कि वह औरत (पत्नी) की देखभाल करे , उससे अपनी मुहब्बत , चाहत और प्रेम को दर्शाये ( 268) उसका आदर करे , (269) उसके साथ अच्छा व्यवहार ( 270) करे , बुराई तलाश न करे , जितना सम्भव हो सके उसकी ग़लतियों पर ध्यान न दे , (271) रात में अपनी पत्नी के पास जाए ( 272), चार महीने में एक बार संभोग अवश्य करे ( 273) इत्यादि। वास्तव में यही वह बातें है जिस से पत्नी के दिल को जीता जा सकता है। उपर्युक्त बातों के साथ मर्द को यह भी याद रखना चाहिए कि वह अपनी पत्नी से सलाह न करे , उन्हे पर्दे में रखे , अजनबी (नामहरम) मर्द से मुलाक़ात न होने दे , (274) कोठों और खिड़कियों में जगह न दे , सूरः-ए-यूसुफ की शिक्षा न दे , (275) ज़ीन की सवारी से मना करे , (276) उसकी आज्ञा का पालन न करे , (277) अपना राज़ उनसे न कहे ( 278) इत्यादि। क्योंकि यह बातें धीरे-धीरे पति और पत्नी के बीच फूट और बिगाड़ का कारण बनती हैं। अनुभव से यह भी पता चलता है कि पति पत्नी के बीच फूट और बिगाड़ के कारणों मे ग़लत ऐतिराज़ व शिकायत , बीवी की माँ (अर्थात लड़के की सास जो प्राकृतिक तौर पर अपने दामाद से अत्याधिक मुहब्बत करती है , लेकिन कमअक़्ल होने के कारण से कुछ ऐसी बातें कर बैठती है जिस से बेटी दामाद के बीच तलाक़ तक की घड़ी आ जाती है) मर्द (पति) का पत्नी पर शक करना , (279) मर्द (पति) का अजनबी (नामहरम) औरतों पर निगाह डालना , रात में घर देर से आना इत्यादि भी हैं जिससे तलाक़ तक की घड़ी आ सकती है। जिसे इस्लाम ने जाएज़ और हलाल होने के बावजूद हद से ज़्यादा बुरा और अरूचिकर कार्य बताया है।

इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक़ (अ.) ने इर्शाद फ़र्मायाः

शादी (विवाह) कीजिए लेकिन तलाक़ न दीजिए। क्योंकि तलाक़ होने से आसमान हिल जाता है। ( 280)

लेकिन यही तलाक़ उस समय ज़रूरी हो जाता है जब औरत बलात्कार कर बैठी हो रसूल-ए-खुदा (स ,) ने इर्शाद फ़र्मायाः

मुझ से जिबरील-ए-अमीन (अ.) ने औरतों के बारे में इतना ज़ोर दे कर यह बात कही कि मैं समझता हूँ कि अलावा उस मौक़े पर कि वह बलात्कार कर बैठी हो उन्हे हरगिज़ (कदापि) तलाक़ नही देनी चाहिए। ( 281)

और बलात्कारी औरत (अर्थात बलात्कार जिसकी आदत बन चुकि हो) को अगर पति तलाक़ नहीं देता बल्कि उस पर राज़ी (संतुष्ट) रहता है तो रसूल-ए-खुदा (स.) के इर्शाद की रौशनी में पति स्वर्ग की खुशबू भी नहीं सूघँ सकता। आप ने इर्शाद फ़र्मायाः

पाँच सौ साल में तय होने वाले रास्ते में स्वर्ग की खुशबू आती है लेकिन दो तरह के लोगों को स्वर्ग की खुशबू नहीं मिल सकती। माता पिता के आक़ (अर्थात वह व्यक्ति जिसको उसके माता पिता ने किसी बड़ी ग़लती के कारण अपनी संतान होने से इन्कार कर दिया हो) किये हुए और बेग़ैरत (बेशर्म) मर्द ------ किसी ने आप से पूछा या रसूलल्लाह (स.) बेग़ैरत मर्द कौन हैं ? फ़र्माया वह मर्द जो जानता हो कि उसकी पत्नी बलात्कारी है (और उसके इस बुरे काम पर खामोश रहे) ( 282)

बहरहाल मर्द जो औरत की तुलना में बहादुर और अक़्लमंद होता है अपने वैवाहिक जीवन में खराब और नाज़ुक हालात पैदा होने पर उन्हें अच्छे और खूबसूरत बनाने तथा तलाक़ का मौका न आने देने की मुख्य भूमिका निभा सकता है। शायद इसी लिए इस्लाम में तलाक़ देने का अधिकार केवल मर्द को दिया है। जो प्राकृतिक तौर पर काम को जल्दी करने की प्रवृत्ति नहीं रखता बल्कि ग़ौर व फिक्र तथा अपनी बुद्धी का प्रयोग कर के अच्छे से अच्छा रास्ता निकालने पर क़ुदरत रखता है। (जबकि आधुनिक युग में छोटी-छोटी बातों पर भी मर्द जल्दी कर के पत्नी को तलाक़ दे देता है। जिससे जहाँ तक सम्भव हो सके मर्दों को बचना चाहिए ताकि कई जीवन खराब न हों और न ही आसमान कांपे) कभी-कभी यह भी देखने में आता है कि तलाक़ का मौक़ा आ जाने के बावजूद , मर्द के मुक़ाबले (की तुलना) में और ज़्यादा समझदारी और होशियारी से कदम उठाकर अपने खराब और बुरे वैवाहिक जीवन को खुशी और आराम के जीवन में तबदील (परिवर्तित) कर लेने की मुख्य भूमिका अदा करती है- और वह इस बात पर पूरी तरह क़ुदरत भी रखती है , क्योंकि यह बात दुनियां में मानी जा चुकि है कि औरत एक अजीब व ग़रीब ताक़त की मालिक होती है। वह खुदा के लिखे हुवे की तरह होती है। वह जो चाहे वह बन (कर) सकती है। ( 283)

इसी औरत पर खराब और बुरे हालात न पैदा करने के लिए ही इस्लाम ने कुछ बार (ज़िम्मेदारी) सौंपा है कि पति की बात को माने , उसका आदर करे , उसकी आज्ञा के बिना कोई काम न करे (यहाँ तक भी सुन्नती रोज़े भी न रखे , अपने माल के अलावा परिवार वालों के सदकः तक न दे , घर से बाहर न निकले इत्यादि।) पति को संभोग से मना न करे , (284) पति के लिए खुशबू लगाये , अपनी आवाज़ को पति की आवाज़ से ऊँचा न करे इत्यादि। यही वह बातें है जिस से पति का दिल जीता जा सकता है। औरत को यह भी ख्याल रखना चाहिए कि वह जहाँ तक सम्भव हो सके अपने पति (मर्द) को नाखुश (अप्रसन्न) न करे। क्योंकि इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक़ (अ ,) ने फ़र्माया किः

जो औरत एक इस हाल में बीताये कि उसका पति उससे अप्रसन्न रहा हो तो जब तक उसका पति राज़ी (प्रसन्न) न होगा उसकी नमाज़ कुबूल न होगी। जो औरत दूसरे मर्दों के लिए खुशबू लगायेगी जब तक उस खुशबू को दूर न कर लेगी उसकी नमाज़ कुबूल न होगी। ( 285)

कुछ इसी तरह की बात एक और मौक़े पर फ़र्मायी हैः

कोई चीज़ पति के आज्ञा के बिना न दे अगर देगी तो सवाब उसके पति के नामः-ए-आमाल (कर्म पत्र) में लिखा जाएगा और गुनाह उस औरत के , और किसी रात इस हालत में न सोये कि उसका पति उस से अप्रसन्न हो। उस औरत ने कहा या रसूलल्लाह (स.) चाहे उसके पति ने कितना ही अत्याचार किया हो। ( 286)

अर्थात औरत के लिए मर्द के साथ प्रेम , मुहब्बत और शीलता का व्यवहार करना ही बेहतर (उचित) है क्योंकि यह सवाब एवं पुण्य का कारण होता है------ जबकि आधुनिक युग में औरत और मर्द के साथ बुरा व्यवहार करने मे फख्र महसूस करती है। जिससे वह ग़ुनाह व पाप की मुस्तहक़ (पात्र) होती हैं----- आम तौर से जिसका व्यवहार अच्छा होता है जो लोगों से हस्ता हुआ मिलता है मुस्कुरा कर बात करता है वह सबकी दृष्टि में महान और प्रीय होता है इसी लिए रसूल-ए-खुदा (स.) ने इर्शाद फ़र्मायाः

अच्छे व्यवहार से बेहतर कोई अमल नहीं है। ( 287)

और इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक़ (अ) ने इर्शाद फ़र्मायाः

अच्छे व्यवहार से बढ़कर जीवन में और कोई चीज़ नही है। ( 288)

जबकि बुरा व्यवहार , चिड़चिड़ापन , खराब ज़बान से ही जीवन में खराबियां और परेशानियां पैदा होती हैं। जिससे जीवन अज़ाब (पीड़ा युक्त) हो जाता है। इसीलिए इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक़ (अ.) ने फ़र्मायाः

बुरे व्यवहार का व्यक्ति स्वयं अपने को अज़ाब में डाल लेता है। ( 289)

अतः प्रत्येक औरत और मर्द का कर्तव्य है कि वह अपना अच्छा जीवन व्यतीत करने के लिए सर्वप्रथम अपने को अच्छे व्यवहार का बनाए।

औरत को चाहिए कि वह उपर्युक्त ज़िम्मेदारियों को निभाते हुवे (कर्तव्यों का पालन करते हुवे) इस बात का भी ध्यान रखे कि पति से प्रेम व मुहब्बत को ज़ाहिर करे , शिकवा व शिकायत न करे , अजनबी मर्दों से मेल मिलाप न रखे , पर्दे में रहे , पति कि ग़लतियों कि अंदेखी करे , पति के परिवार वालों से मेल मिलाप रखे , पति के कामों में दिलचस्पी दिखाए , पति पर शक न करे इत्यादि। क्योंकि यह वह बातें है जिस से घर स्वर्ग जैसा मालूम होता है हमेशा खुशी महसूस होती है और कभी भी फूट , बिगाड़ और अप्रसन्नता पैदा नही होती। जिसका बच्चों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। और औरत और मर्द का वैवाहिक जीवन बेमिसाल , लाजवाब व्यतीत होता है लेकिन यह सब उसी समय सम्भव है जब मर्द और औरत (अर्थात पति और पत्नी) दोनों इस्लामी शिक्षाओं पर पूरी तरह अमल कर के मुत्तक़ी और पर्हेज़गार बन जाए ऐसे ही मुत्तक़ी और पर्हेज़गारों के लिए क़ुर्आन-ए-करीम ने दुनियां मे भी भलाई बतायी है और आख़िरत (परलोक , यमलोक) में भीः-

और जब पर्हेज़गारों से पूछा जाता है कि तुम्हारे परवर्दिगार ने क्या नाज़िल किया तो बोल उठते हैं कि सब अच्छे से अच्छा। जिन लोगों ने नेकी की उनके लिए इस दुनियां में (भी) भलाई है और आखिरत का घर तो (उनके लिए) अच्छा ही है और पर्हेज़गारों का भी (आखिरत का) घर कितना अच्छा है। वह हमेशा बहार वाले (हरे भरे) बाग़ हैं जिनमें (बिना झिझक) जा पहुँचेंगे। उनके नीचे नहरें जारी होंगी और यह लोग जो चाहेंगे उनके लिए मौजूद है। यूँ खुदा पर्हेज़गार को जज़ा (सवाब , नेअमत , फल) अता फ़र्माता (देता) है। ( 290)

और आखिरत (परलोक , यमलोक) के अच्छे औक खूबसूरत घर में और आराम व सुकून के साथ-साथ सेक्सी स्वाद व आनन्द और सेवा के लिए हूर व ग़िलमान मौजूद हैं अर्थात सेक्स एक ऐसी मुख्य और अनिवार्य चीज़ है जिसका सम्बन्ध दुनियां के साथ-साथ आखिरत में भी है।