प्रस्तावना
अन्तर्राष्ट्रीय साम्राज्यवाद अपने उपनिवेशों की रक्षा के लिए आज़ादी चाहने वाली जातियों से तरह तरह की लङाईयां लङ़ता रहा है। और आज़ादी चाहने वाली जातियां भी अपने सामाजिक प्रोयौगिक और मनोवैज्ञानिक साधनों की सहायता लेकर साम्राज्यवादी शक्तियों से टकराती रहती हैं। उसका तोड़ यह है कि शासक चाहते है कि आपस मे मतभेद रखने वाली शक्तियों को एक न होने दिया जाए। राजनीति और इतिहास का अध्यन करने के बाद ज्ञात होता हैं कि शक्तिशाली और दुसरों के अधिकार हड़प करने वाली विस्तारवादी शक्तियों को जड़ से उखाड़ फैकना ही जातियों की एकता है। इसलिए वह शक्तियां इस एकता को तोड़ने का प्रयास करती रहती हैं।
शासकों की “लड़ाओं और शासन करो ” की राजनीति हर जगह और हर मोड़ पर सामने आयी है। सामाजिक और एतिहासिक बन्धनों को तोड़ने और लोगों को आपस में लड़ाने की मुहिम जारी रखी गई है। साम्राज्यवाद ने इसके लिए अपनी शक्ति का प्रयोग किया है। और इसके रास्ते में आने वाली रूकावटों को हटा दिया है। हमलों के समय बडी शक्तियाँ केवल भौगोलिक इलाके और अर्थव्यवस्था से सम्बन्धित केन्द्रों को ही नहीं देखती बल्कि उनकी तेज तलवारों का पहला निशाना जातियों की साँस्कृतिक सभ्यता और धार्मिक विश्वास होते है। जो जाति जाती किसी सांस्कृतिक विचारधारा में पैदा हुई और पली बढी हो या जिसकी सभ्यता मजबूत हो वह अपने सभ्य विचारों से जीवन में शक्ति पाती है। वह अपने इसी सभ्य समाज के जाने माने लोगों , उनके स्वभावों और कार्य प्रणालियों को उजागर करती हैं। विस्तारवाद , जातियों को उनके स्भय विचारों से अलग करता है। क्योकि जब तक किसी जाति की साँस्कृतिक सभ्यता को परखा ना जाए या उसके मज़बुत बन्धनों और लोगों के एकत्रित होने के स्थानों को कमजोर न किया जाए उस समय तक वह अपने समाज और समाज के धार्मिक विश्वासों को सभ्यता प्रदान करती रहेगी।
और लोगो के जीवन मे नई विचार धारा को बाकी रख सकेगी। जब तक जाति (क़ौम) में दृढ़ता (मज़बुती) बनी रहती हैं। उस समय तक शासन और शासन करनें वालों के अधीन होना कठिन है। विस्तारवाद के इतिहास का संक्षिप्त विवरण यह हैं कि उसका सर्व प्रथम कार्य संस्कृतिक सभ्यता और धार्मिक एकता को हानि पहुचाने के साथ ही संगठित समाज को तोड़ना और उसकी विचार धाराओं को अलग अलग करना हैं। इसके बाद वह अपनी शासकीय सभ्यता और संस्कृतिक फैलाने के लिए , गरीब और दबी हुई जातियो की इतिहासिक सभ्यता और कला व संस्कृतिक को मिटा देता है। इसलिए कहा जा सकता है कि मानवीय आधार पर सत्य और सबसे बड़ा क्रान्तिकारी समाज इस्लामी समाज है। क्योंकि इस्लाम को जीवन प्रदान करने वाली उसकी कुशल तकनीक है। चौदह सौ साल पहले मक्के मे जन्मी सभ्यता का आज तक तानाशाही और साम्राज्यवाद से मुकाबला हो रहा है। इस्लाम के समर्थक अल्लाह पर विश्वास , धार्मिक शिक्षा और मज़बुत इस्लामी कानुन की बुनियाद पर कोशिश करते रहते हैं। ताकि हर जगह इस्लाम का बोल बाला हो जाए। और इस्तेमार , तानाशाही का समापन हो जाए। अन्तिम दो शताब्दीयों मे अन्तर्राष्ट्रीय साम्राज्यवाद ने एक नया भेष बनाया। उसने अफरीका ,एशिया और अमेरिका जैसे देशों पर अपना अधिकार जमाया। उस समय हिम्मत और एकाग्रता से मुकाबला करने वाले केवल मुस्लमान ही थे तथा जल्द ही इस मुक़ाबले मे धार्मिक नेताओं (उल्लमाए - दीन) का समुह आगे बढ़ा और उन्होने पुरी एकाग्रता से भाग लिया।
उन्नीसवीं शताब्दी ईसवी के अन्त मे तुर्की का उसमानी और ईरान का क़ाचारी परिवार (भौगोलिक दृष्टि से इस्लाम की दो बड़ी शक्तियां) अपने अन्त के अन्तिम क्षणों को गिन रही थीं। उनके पुर्वजो ने इस्लामी शासन का समर्थन छ़ोड़ दिया था इंगलैण्ड़ और रुस लम्बे समय से मुसलमानों के उपजाउु क्षेत्रों पर अधिकार करने का प्रयत्न कर रहे थे। पुर्व-मध्य देशों पर अधिकार जमाने के लिए खींचतान हो रही थी। ईरान , भारत और रुस के मध्य बहुत ही महत्व पुर्ण क्षेत्र था। इंगलैण्ड़ और रुस एक से बचने और एक को बचाने के लिए इस आग मे कुदना चाहते थे और दोनो साम्राज्यवादी अपने नऐ इतिहास को आरम्भ करने के लिए नक्शे तैयार करने मे अपनी अपनी शक्तियों का प्रयोग कर रहे थे। और दुसरी तरफ इस्लामी सभ्यता के रक्षक अपने तन , मन , धन से दोनो साम्राज्यवादी शासनों का सामना करने के लिए ड़टे थे। दोनो दुश्मन चाहते थे कि इस रुकावट को उखाड़ फेंकें।
नये धर्मो को जन्म देकर लोंगों के अन्दर फुट ड़ालना बड़े शासको का चलन रहा है। यह विस्तारवाद का पुराना हथियार है। समाज के उपद्रव और लोंगो के धार्मिक विश्वासों पर हमला ,फुट ड़ालने का सबसे बड़ा कारण है। धर्म से अलग केवल नाम चाहने वाले नये फ़िर्क़ो से मिलकर जाति (क़ौम) को नये संगठनों के नाम से धोखा देता है। इस तरह साम्राज्यवाद का उद्देश्य पुरा हो जाता है। और इसी तरह उन्की आशाओं की पुर्ति होती है। अत: ईरान मे धार्मिक नेताओं को समाज से अलग करना और उनके चाल चलन को बेअसर बनाने और देश की एकता को भंग करने के लिए विस्तार वाद ने इस तरह की राजनिति अपनाई है। बहाईयत इसी रुप रेखा का एक अंग है। विस्तारवादीयों ने इस गिरोह की सहायता से अपने उद्देश्य की पुर्ति की है। तथा इस गिरोह की जन्म भुमि ईरान है। अत: इससे परिचित होने के लिए ईरान की सभ्यता और इतिहास का जानना आवश्यक है। और यह कार्य ईरान वासियों के लिए सरल है। वह इस नऐ जन्में विस्तारवाद को अच्छी तरह जानते और पहचानतें है।
पिछले दिनो साम्राज्यवादयों ने एक और चाल चलने का प्रयत्न किया है। वह यह है कि बहाईयो को संगठित किया जाए उनकी यह चाल ईरान के बाहर शुरु हुई है। इसलिए कि वहाँ के लोग अब इस गिरोह से अपरिचित हैं। उन लोगों (बहाईयों) ने स्वतंत्रता चाहने वालो का लबादा ओढ़ रखा है। अत: साम्राज्यवाद इस लबादे के अन्दर से गुलामी का एक और जाल फेंक रहा है।
बहाईयों के साम्राज्यवादी पिट्ठुओं और उन्के कार्यकर्ताओं से ईरान का हर व्यक्ति परिचित है। लेकिन ईरान से बाहर के लोग उनके असली रुप से अपरिचित हैं। क्योकि वहां के लोग इनको मेल मिलाप वाले और स्वतन्रता के पक्षधर ही समझते हैं। यह लेख इसी आवश्यकता की पुर्ती के लिए हैं। ताकि इनके लिबादे को हटाकर उनकी असलियत को पहंचनवाया जा सके।
बहाईयत का संक्षिप्त इतिहास
(1) तेरहवीं शताब्दी हिजरी के मध्य मे अली मोहम्मद शीराज़ी नामक व्यक्ति का जन्म हुआ वह अपने व्यक्तित्व और शिक्षात्मक विचारों का सहारा लेते हुए इमाम मेहदी का दावेदार बन बैठा। ( 2)उसने अपने आप को “वासित ” ,“बाबे इमामे ज़माना ” कहलवाना शुरु कर दिया इसलिए उसके समर्थक “बाबी ” कहे जाने लगे।
अली मोहम्मद औसत दर्जे का पढ़ा लिखा व्यक्ति था अरबी ,फारसी , साहित्य को जो पाठ्यक्रम प्रचलित था उसने उसकी शिक्षा प्राप्त की थी। ( 3)अली मोहम्मद अपने विधार्थी जीवन मे धार्मिक विचार सही ना होने के कारण जादु , टोना ,टोटका , भुत प्रेत , जिन और रहस्मयी बातों पर अजीब अजीब विश्वास रखता था। जैसा कि वह ईरान के दक्षिणी बन्दरगाह “बु शहर ” मे तेज़ धुप के बावजुद छत पर घंटो जादु टोने के सहारे सुर्य को अपने अधिकार मे करने के लिए अजीब अजीब हरकतें किया करता था। ( 4) सीधे साधे लोगों को दुआ तावीज़ और गंडों के सहारे अपना बनाता रहा और लोग धोखा खाते रहे। ( 5) पहले तो उसने अपने को इमामे ज़माना का जानशीन होने का दावा किया। ( 6) और कुछ ही दिनों बाद खुद ही इमामे ज़माना बन बैठा ( 7) फिर नबुवत और नया दीन लाने का एलान कर दिया। ( 8) अंत मे एक समय ऐसा भी आया कि वह अपने भाषण और लेंखों मे स्वयं खुदा होनें का दावा किया करता था। ( 9) शीराज़ के पढ़े लिखे लोगो ने जब अली मोहम्मद को घेरा तो काफी वाद विवाद के बाद उसने मस्जिद मे जाकर जनता के सामने अपने किये हुए कर्मों की क्षमा याचना की। ( 10)दुसरी बार उसने जब अपने मिशन का आरम्भ किया तो उस समय तबरेज़ के लोगों ने पकड़ा। इस बार वह बहुत रोया पीटा और माफीनामा भी लिखकर राजा के पास भेजा। ( 11) किन्तु तबरेज़ के धार्मिक नेताओं ने उसकी क्षमा याचना को स्वीकार नही किया लेकिन उसके पागल पन के कारण उसे मौत के हुक्म से मुक्त रखा। ( 12) परन्तु बाबियों के हंगामे और उग्रवाद से मजबुर होकर अमीर कबीर (सदरे-आज़म) ने इस बुनियाद पर मृत्यु दण्ड़ का आदेश दे दिया कि जब तक बाब जीवित है। उसके उसके पक्षधर हंगामे करने से नही रुकेगें। ( 13) इसफ़हान का शासक “रुसी असअसल ” , अरमानी मनोचहर खान बड़ा ज़ालिम था। उसको बाब और बाबियों से बड़ा लगाव था। रुस और ब्रिटिश दुतावासों के इतिहास से ज्ञात होता है कि न केवल मनुचहर को बाबियों से लगाव था बल्कि वह ज़बानी समर्थन देता और अपनी शक्तियों से उन्की रक्षा किया करता था। (15) उसने उसके मृत्युदण्ड के आदेश के बारे में हस्तक्षेप भी किया था। लेकिन अमीर कबीर ने अपना आदेश वापस नही लिया। क़ज़वीन , माजिन्दारन यज़्द , तबरेज़ , ज़न्जान में बाबियों ने अली मोहम्मद को छुड़ाने के लिए काफी उपद्रव किया। जिनके कारण अत्याधिक जानी और माली नुकसान हुए। और बहुत से क्षेत्रों में अनुशासन हीनता फैल गई। यह गड़बड़ दूतावासों के लिए विशेष रूचि का कारण बनी। जो देश अपने विस्तारवादी प्रोग्राम बनाए बैठे थे उन्हें अपनी इच्छाओं की पूर्ति का अवसर मिला। इसलिए इंग्लैण्ड के राजदूत ने अपनी सरकार के पास एक पत्र भेजा। जिसके कुछ अंश इस प्रकार है।
“ इस प्रचारक , (अली मोहम्मद शीराज़ी) के सिध्दान्त और धार्मिक विश्वास अपने अन्दर कोई नई बात नहीं रखते हैं। और अगर इनके पक्षधरों को इसी हालत में छोड़ दिया जाए और कोई नोटिस न लिया जाए तो यह लोग अपनी मौत आप मर जाएँगे। किन्तु यह कैद और पाबंदिया ऐसी हैं जो इन्हें मरने से बचा लेगी ” ।
बाबियों के हंगामें एक खोखले , निराधार गिरोह को सामाजिक अस्तित्व देने का कारण बने। और सीधे - साधे , आलसी लोगों के लिए शक्ति ग्रहण का रास्ता बने।
अली मोहम्मद शीराजी के फाँसी पाने के बाद मिर्जा याहिया नूरी (सुबहे - अज़ल) ने जानशीनी के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करके बाबियों के नेता बनने का भार संभाल लिया। याहिया अपने सौतेले भाईयों के साथ दो साल तक ईरान के विभिन्न क्षेत्रों में छुपा-छुपा घूमता रहा। इस अन्तराल में तीन बहाई , राजाओं को कत्ल करने का मनसूबा (योजना) बनाने के जुर्म में तथा कुछ अन्य जुर्मों में गिरफ्तार और कत्ल किये गये। शासन ने उनके बढते हुए प्रभाव को समाप्त करने के लिए चुन चुन कर फासियाँ दी , ख़तरनाक माहौल देखा तो मिर्ज़ा यहिया साधुओं का भेष बदलकर बग़दाद चला गया। और मिर्ज़ा हुसैन अली याहिया के सौतेले भाई ने रूसी दूतावास में पनाह ली। रूसी राजदूत ने उसका भरपूर समर्थन किया। और सदरे-आज़म ईरान को एक पत्र लिखा। जिसमें हुसैन अली की जान और माल की रक्षा का आग्रह किया गया था। लेकिन हुसैन अली कैद किया गया जिसके उत्तर में रूसी शासन ने ईरान के शासक को धमकी पूर्ण पत्र लिखा। अंततः राजदूत ने बहुत प्रयास करने के बाद उसे आजाद करा लिया। ईरान की बाब से खुल्लमखुल्ला दुश्मनी और रूस से खुल्लमखुल्ला समर्थन पाने के बाद उन लोगों को ईरान में ठिकाना नहीं मिला तो रूस के राजदूत ने अत्यधिक प्रयत्न कर के हुसैन अली को बग़दाद भेजने का निर्णय किया। उसके बाद बाबियों की गिरफ्तारी और कत्लेआम का काम शुरू हुआ। उसी हाल में हुसैन अली को रूसी और ईरानी संरक्षकों के साथ ईरान से बग़दाद पहुँचा दिया गया।
रूस और बहाईयत से सम्बंधित महत्तवपूर्ण बात यह है कि रूसी शासन ने अपने दक्षिणी नगर “इश्क़ाबाद ” में बाबियों को धार्मिक स्थल बनाने की आज्ञा दे दी। ताकि रूसी मुसलमानों से मुकाबला हो सके। “इश्क़ाबाद ” में बहाईयों की पार्टी बनी और शासन ने उनके प्रचार और प्रसार के लिए पूरा समर्थन दिया। जिसके उत्तर में हुसैन अली ने रूस के राजा ज़ार को एक तख्ती भेंट की। जिसमें राजा की प्रशंसा के साथ साथ राजा के प्रति अपनी सेवा और धन्यवाद प्रकट किया था।
बग़दाद के शासन और रूस के शासन के प्रयनत्न से बाबियों को उसमानी शासन का वफादार मान लिया गया। इसके बाद शासन के लिए खींचतानी लड़ाई और क़त्ल की नौबत आ पहुँची। हर एक के पास मुहम्मद अली द्वारा हस्ताक्षरित पत्र मौजूद थे। और हर एक जानशीनी के लिए दावा कर रहा था। उग्रवाद , चोरी , ड़कैती , बाबियों का काम बन चुका था। इसलिए लोग बाबियों से नाराज़ थे। इसके अतिरिक्त कट्टर धार्मिक नेताओं (उल्माए-दीन) की अध्यक्षता में मुसलमान भी उनके मुकाबले के लिए आ गये थे। ईरानी शासन भी लगातार सरकारी और गैर सरकारी तौर पर उसमानी शासन से रोष प्रकट कर रहा था। इसका परिणाम यह हुआ कि बाबी बगदाद से इस्तम्मबूल और कुछ महीने के बाद अदिरना स्थानतरित कर दिए गये। मिर्ज़ा हुसैन ने यहां पूरी तरह से बाब की जानशीनी का दावा करके अपने सौतेले भाई मिर्जा याहिया से टक्कर ली। इसके बाद दोनो पक्षों ने जाली काग़ज़ात और धोखाधड़ी से ग्रुप बना लिया। आपस मे झगड़े बढते गए। हुसैन अली और याहिया ने किसी न किसी विपक्षी तुर्की दुतावास से सम्बन्धित होकर अपने बचाव की तरकीब निकाली। किन्तु यह बात शासन के नहीं भाई। और निर्णय किया की मिर्ज़ा याहिया के समर्थकों को “किबरस ” और मिर्ज़ा हुसैन अली को उसके समर्थकों के साथ फिलिस्तीन भेज दिया जाए। याहिया के समर्थक विदेशी सहायता समाप्त होने के बाद धीरे धीरे उसका साथ छ़ोड़ने लगे। हुसैन अली बहाउल्ला के नाम से स्वयं एक नये धर्म का नेता बन बैठा हुसैन अली ने बाब की तरह क़दम आगे बढ़ाया पहली बात तो यह कही कि अली मोहम्मद का कोई स्थान नही , असली तों मैं हूं। बाब हमारे आने का समाचार लेकर आए थे। अब बाबियत का अन्त हो चुका और बहाईयत ने जन्म पाया हैं। बहाउल्ला ने पैग़म्बरी के दावे के साथ साथ खुदाई का दावा भी किया। लेकिन अक्का (फिलिस्तीन) का माहौल सही न देखकर अपने को मुसलमान भी कहता रहा। बीस वर्ष से अधिक समय तक उसने माहौल ठीक बनाने और बाबियों मे अपना व्यक्तिव और प्रभाव जमाने के प्रयत्न के साथ साथ और भी काम किये। महत्वपूर्ण बात यह है कि रुसी शासन यहां भी उसका भरपूर समर्थन करता रहा और प्रति माह वेतन भी देता रहा। और लगातर उसका दबाव बना हुआ था। इसलिए बहाइयों ने एक बार फिर ईरान का रास्ता पकड़ा और वापसी की तरक़ीब सोची। ईरान के राजा को स्वयं हुसैन अली ने क्षमा के लिए सिफ़ारिश लिखी। जिसमें ईरान शासन ने इस दरखास्त पर कोई नोटिस नही लिया। अब (अक्का) फिलस्तीन के बहाई पुरी तरह तुर्की के शासन से सम्बन्ध बनाने पर नज़र जमा बैठे। और उस्मानी सुल्तान के दरबार से रो-धो कर क्षमा याचना करते रहे।
हुसैन अली बहा की मृत्यु के बाद उसका पुत्र मिर्ज़ा अब्बास आफ़न्दी बहाईयों का नेता बना। और उसने अब्दुल बहा के नाम से अपने को प्रसिध्द किया। अब्बास आफंदी भी तुर्की के राजा को खुश करने के लिए हर तरह से चापलूसी करने के साथ साथ मुस्लमान होने का दावा भी करता रहा। और साथ ही खुले आम उस्मानी शासन का समर्थन भी करता रहा।
रुस मे कम्युनिस्ट क्रान्ति आने से माहौल बदला और नए शासन ने बहाईयों को रुसी शासक “जार ” का मित्र माना तथा अपने व्यय की अधिकता के कारण उनकी आर्थिक सहायता मे बेहद कमी कर दी। अब्दुल बहा ने इंगलैण्ड़ के साथ सम्बन्ध दोबारा क़ायम करने की ठान ली। और वह इस विषय मे जासूसी करने लगा। प्रथम विश्व युध्द और फिल्स्तीन मे अंग्रेज़ी सेना का आगमन होते समय अबदुल बहा की अध्यक्षता में बहाइयों ने अंग्रेजों की सहायता की।तुर्की के शासन ने अब्बास आफंन्दी के रहस्य मय कार्यो का पता पाते ही एक नया क़दम उठाया। फिलिस्तीन के कमान्डर इन -चीफ ने जासूसी के आरोप में उसके क़त्ल का निर्णय दिया। लेकिन इंगलैण्ड की सूचना देने वाली एजेन्सी ने तेज़ी दिखायी। उसकी सूचना पर इंगलैण्ड के विदेश मंत्री लार्ड बिलफर ने जनरल ऐल्न बी को फिलिस्तीन तार भेजा जिसमे अबदुल बहा की जान बचाना और बहाईयो की सुरक्षा का आदेश था।
इगलैण्ड की ओर से सेवा की स्वीकृति
युध्द समाप्त होने के बाद इंगलैण्ड की सरकार ने अबदुल बहा को उसकी जासूसी सेवा के एक शानदार समारोह मे उसका सम्मान करते हुए ‘नाइटहेड़ ’ पुरुस्कार और ‘सर ’ का खिताब दिया। इसके उत्तर मे अब्दुल बहा ने इंगलैण्ड सरकार की वफादारी और प्रतिष्ठा मे एक तख्ती भेंट की।
अब्दुल बहा की मृत्यु पर इंगलैण्ड के दुतावास और सांस्कृतिकभवन ने बहाईयों से सहानुभूति प्रकट की तथा सरकारी तोर पर तार और पत्र भेजा। इंगलैण्ड के उपनिवेश मंत्री सर वेनसन चर्चिल ने जनरल एलन बी को आदेश दिया की इंगलैण्ड के राजा की ओर से बहाईयो को उन्के नेता की मृत्यु पर शोक प्रकट करें। इंग्लैण्ड के चीफ कमिश्नर सर हरर्बट समोईल और सर डूनाल्ड हरर्बट मध्य-पूर्व एशिया के राजनीतिक एजेन्ट और दूसरे बड़े-बड़े पदाधिकारियों को अब्दुल बहा के जऩाजे में सम्मिलित होने का आदेश दिया। यह बात स्मर्णीय है कि हरर्बट समोईल ही वह व्यक्ति है जिसने ईसराईली शासन की नींव रखी। अब्दुल बहा के बाद उसका समलैंगिक कुकर्मी , नाती , शोंकी , आफन्दी वसीयत के अनुसार बहाईयों का नेता बना।और अब बहाई संगठन इंगलैण्ड़ के विस्तारवाद का एक राजनैतिक और खतरनाक अड्डा है। शौक़ी ने इंग्लैण्ड में शिक्षा प्राप्त की और अंग्रेज़ों की सलाह के अनुसार इंगलैण्ड़ के “बहाईयों की सभा ” नामी संगठन की नींव ड़ाली। पूरे इंग्लैण्ड , स्काट लैण्ड , आयर लैण्ड और उत्तरी दक्षिणी वेल्ज़ में इस संगठन का जाल फैलाया जा चुका है।
युगान्डा पर अंग्रेजी आधिपत्य का दौर बहाईयों के लिए लाभदायक रहा। उन लोगों ने जासूसी के अड्डों के सहारे “कम्पाला ” में एक धार्मिक स्थल बना लिया। शौक़ी आफन्दी ने विस्तारवादी गिरोहों से सम्बन्ध बढ़ाए। अमरीका और दूसरी दुनिया में संगठन की स्थापना करना शुरू किया। वास्तविकता यह है कि फ्रीमेसन संगठनों ने नीचे आकर बहाईयों का रूप धारण कर लिया है। और दुनिया के सूचना विभागों विशेषकर सी-आई-ए ने अपनी उग्रवादी योजनाओं में बहाईयों की सहायता ली है। शौकी आफन्दी के कोई पुत्र नहीं था , उसने नौ व्यक्तियों को सम्मिलित करके एक कांउसिल की स्थापना की। जिसे “न्यायालय ” कहा जाने लगा यह कांउसिल और उसके सदस्य दुनिया के बहाईयों की समस्याओं का समाधान करने के लिए आधारभूत सदस्य थे। शौकी आफन्दी की मृत्यु के पश्चात् उसकी वसीयत के अनुसार “चार्ल्स मेसन रेमी ” को न्यायालय का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। चार्ल्स सी.आई.ए. का अमरीकी एजेन्ट था। उसकी अध्यक्षता पर बहाईयों ने आपत्ति प्रकट की। विशेषकर इंग्लैण्ड समर्थक गुट ने अच्छा खासा विरोध किया। अब बहाई विभिन्न फिर्कों में बट चुके थे। और आजकल बहाई साम्राज्यवाद का कार्यकर्ता संगठन है। अब बहाई पूरी दुनिया में अन्तराष्ट्रीय शासन का सपना देख रहे हैं।
साम्राज्यवादी शक्तियों से बहाईयों का सम्बन्ध
(बहाईयत और रूस) बहाईयत के आरम्भ से रूसी शासन गुप्त और खुले तौर पर इस संगठन का समर्थन करता रहा है। दक्षिणी क्षेत्रों में अपना विस्तार तथा अधिपत्य जमाने के लिए हर रोज़ नई नई योजनाएँ बनाते थे। उनमें ईरानी सरकार से संघर्ष भी सम्मिलित था। बहाई आन्दोलन का समर्थन इस सिलसिले की महत्तव पूर्ण कड़ी थी। हुसैन अली का रूसी दूतावास में पनाह लेना , बाबियों की समस्याओं में रूसी सरकार का सम्मिलित होना , हुसैन अली की जान का संरक्षण ,और पूर्ण सुरक्षा के साथ इराक़ भेजना , प्रतिमाह वेतन की अदाएगी , रूसी शासक ज़ार का आशीर्वाद और समर्थन में तखतियों का लिखना , प्रार्थना पत्रों का भेजना यह सब ऐसी वास्तविकताएँ है। कि इन्हें बहाई आज भी स्वीकार करते हैं।
बहाईयत ओर उसमानी शासक
इसलामी खिलाफत की दावेदार उसमानी शाहनशाहियत मुसलमान आबादी के बहुत बड़े क्षेत्र पर शासन करती थी। राजनीति और धार्मिक गुटों के अन्दर फूट ड़ालने के अतिरिक्त साम्राज्यवादियों की साजिश के हाथों उसके ईरान से खराब सम्बन्ध , उलझी हुई समस्याएँ और युध्द जैसा माहौल रहता था। हर सम्भव क्षण में ईरान पर चोट लगाते और उससे पूर्ण रूप से लाभ उठाते थे। इन समस्याओं को देखते हुए उसमानी शासक ने बाबियों को अपने यहाँ पनाह देने में स्वयं फायदा समझा। बाबी गुट को इरानी शासन के विरूध्द प्रयोग करना सम्भव होने के साथ साथ बाधा ड़ालने का यह लाभ भी था कि ईरानी मुसलमानों के धार्मिक दलों में फूट पड़ जाए। इसलिए बगदाद के गर्वनर ने बाबियों के लिए राष्ट्रीयता प्रदान की। और जितनी भी सहायता उसके बस में थी करता रहा। इसके उत्तर में हुसैन अली ने अपने विचार प्रकट करते हुए उनकी प्रशंसा की।
बहाईयत और ब्रिटिश सरकार
उसमानी शासन बाबियों को शरण देकर कुछ लोगो के हाथो कठिनाई मे पड़ गया। सबसे बड़ी बात यह है कि उन लोगों के विरोधी सरकार के दुतावासों से सम्बन्ध थे। तुर्की की सरकार ने खतरा देखते ही बाबियों का समर्थन छोड़ दिया। और लाल क्रान्ति मे आए हुए रुस ने भी अपने सम्बन्ध तोड़ लिये- दूसरी ओर सबसे पुराना इंगलैण्ड़ का साम्राज्य अपने विस्तारवादी साधनों जैसे जासूसी और राजदूतों के सहारे बाबियों कि समस्याओ को महत्व दे रहा था। और मौक़ा आने पर उनकी सहायता भी करता था। अंग्रेज़ ताक मे थे कि समय मिलते ही जाल फेंकें। रुस और उसमानी सरकार के सम्बन्ध तोड़ने के बाद मैदान खाली हो गया। उधर बाबी भी किसी शक्तिशाली की शरण ढूँढ रहे थे। दोनो की एक दुसरे को आवश्यकता थी। इसलिए अपने पुराने सम्बन्ध को बढ़ाना आरम्भ किया। और बहाई ब्रिटिश सरकार के विश्वसनीय हो गए। फ्रीमेश्नी और अन्तर्राष्ट्रीय साम्राज्यवाद के केन्द्रीय कार्यों का सहारा लेते हुए फिलिस्तीन में सेवा कार्यों हेतु आगे बढ़े। इंग्लैण्ड ने इसके उत्तर में उन्हें "सर" का खिताब दिया। इंग्लैण्ड की सरकार ने उपनिवेश मंत्रालय औऱ धार्मिक कार्यों के उद्देश्य के अनुसार उससे कार्य किए। और बहाईयों ने अंग्रेजों के पूर्ण या अर्थ सुरक्षित क्षेत्रों में विदेश मंत्रालय , जासूसी के अड्डे तथा विस्तारवादी उद्देश्यों की प्रगति में सहायता दिया। विशेषकर महाद्वीप अफ्रीका में उन लोगों ने बढ़ चढ़ कर सेवा की। और भरपूर लाभ उठाया। खूंखार और अत्याचारी ब्रिटिश शासन मज़लूम और बेचारी जनता की जागरूकता , आज़ादी के आन्दोलन , और एकता , (विशेषकर इस्लाम की ओर अफ्रीका वालों का झुकाव)को एक बड़ा खतरा समझ रहा था। इस तूफान को रोकने के लिए बहाईयत इसलाम के नाम पर बहुत लाभदायक थी। इन सम्बन्धों के सबूत में बहाई संगठनों की केन्द्रीय कमेटी की ब्रिटिश देशों में स्थापना करने के अतिरिक्त बहाईयों और उनके नेताओं की वह भावनाऐं हैं जो उन्होनें भयावह ब्रिटिश शासन के पदाधिकारियों को लिखी थीं।
बहाईयत और यहूदी आन्दोलन
प्रथम विश्व युद्ध के दिल दहला देने वाले परिणामों में वह क़ारनामा भी है जो इंग्लैण्ड के विदेश मंत्री लार्ड बिलफोर्ड और यहूदी पूंजीपति लार्ड रिचर्ड में हुआ था। जिसके कारण फिलिस्तीन में यहूदियों का नए सिरे से उपनिवेश (आबादकारी) और कौमी बैठक की स्थापना हुई। फिलिस्तीन की पवित्र भूमि पर यहूदियों को बसाया जाना ब्रिटिश शासन के चेहरे पर बदनुमा धब्बा है। और अमरीका के अपराधों में इस बड़े अपराध ने उसे अधिक अपमानित किया है। फिलिस्तीन पर कंट्रोल संभालने के बाद ब्रिटेन मध्य पूर्व क्षेत्रों पर अपने कदम जमाये रखने और मुस्लिम क्षेत्रों पर सत्ता करने का सपना देख रहा था। उधर मुसलमानों में जागरूकता और आजादी की लहर उठ रही थी। मध्य-पूर्व में साम्राजियत को खतरे का सामना दिखाई दिया तो उसने सोचा कि इस क्षेत्र में एक चौकी की स्थापना करना आवश्यक है। सर हरबर्ट समोईल यहूदी पूँजीपति को इस काम के वास्ते चुना गया। यह राजनैतिक ऐजेन्ट यहूदियों की फिलिस्तीन वापसी की योजना बनाने के लिए आया था तथा बहाईयों का मित्र और सहायक था। जो अब्दुल बहा के जनाज़े में शामिल भी हुआ था। फिलिस्तीन पर ब्रिटिश शासन के लिए बहाई एक होकर सहायता कर रहे थे। यहूदी आन्दोलन कर्ताओं के सहायक और तरह तरह की समस्याओं में उनके साथ थे। इसीलिए शासन की स्थापना के बाद फिलिस्तीन में यहूदी हिस्सादारी का दावा करने और उसे पवित्र भूमि कहने लगे। फिलिस्तीन में उन्होनें अपने नेताओं को दफन किया औऱ मुसलमानों से दुश्मनी ठान ली। बहाईयों ने फिलिस्तीन में यहूदी सरकार की स्थापना का स्वागत किया। राष्ट्र संघ ने फिलिस्तीन की समस्या का निरीक्षण करने के लिए जो कमीशन भेजा था। बहाईयों ने इस कमीशन को यहूदी मांग के समर्थन में एक मेमोरण्डम लिखा। जो कि फिलिस्तीन पर अधिकार करने वाली इसराईली सरकार की स्थापना और उसकी मजबूती के लिए कोशिश कर रहा है। वह बहुत ढ़िठाई से एक कौम के अधिकारों को कुचलने और साम्राज्यवाद के फैलाव के खुदाई वचन की पूर्ति का नाम देते हैं। इस सेवा सत्कार के उत्तर में इसराईली शासन ने सरकारी तौर पर उनके गिरोही विचारों को कानूनी धर्म स्वीकार किया है। और बहाईयों ने पूरी छूट के साथ (अक्का) फ़िलिस्तीन में विश्व बहाई केन्द्र स्थापित कर लिया। जिसे यहूदी सरकार सहायता देती है। इसके अतिरिक्त अमरीका में भी उनका एक केन्द्र यहूदी सहायता से बना है। और वह केन्द्र जो कि खूंखार साम्राज्यवाद के लाभों की पूर्ण औऱ विकसित करने में लगा हुआ है। बहाईयों का जासूसी और हानिकारक कार्य बढ़ते बढ़ते अरब भूमि तक फैल गया। इसराईल और अरब के युद्ध में उसकी कार्य प्रणाली सबने देख ली।
ईरान में बहाईयत और यहूदी आन्दोलन इस्लामी आन्दोलन क्रान्ति से पूर्व
पहलवी शासन में ईरान मध्य-पूर्व क्षेत्र का एक सीमान्त दुर्ग था।और विस्तारवादियों के लाभों का संरक्षण उसके ज़िम्मे था। इसलिए बहाई और यहूदी संयुक्त रूप से शाह के साथ थे। बहाई मुहम्मद रज़ा पहलवी की रिश्वत और पार्टी बाजी के नाम पर अपना समर्थक बनाकर सरकार में अपनी पहुँच बना बैठे। और फिर धीरे धीरे उत्तरदायी अधीकारेयों को अपना बनाकर पहलवी शासन के भरोसेमंद कार्यकर्ता बन बैठे। यहूदी समर्थक होवैदा शासन के 15 वर्षों मे बहुत से यहूदी मंत्री और संसद सदस्य हो गए। उन लोगों ने कारखाने बनवायें ,बैंक और औधौगिक फर्मों के मालिक बने।
इस अवधि के अनेक राजनैतिक नेता बहाई थे। जैसे हज़ ब्रिजवानी मशहूर पूंजीपति , जनरल आलाई , प्रोफेसर हकीम और शाही विशेष ड़ाक्टर के नाम प्रसिध्द हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि शाह के दौर में फ्रीमेशन के बाद जिस दल ने ईरान की राजनीति और अर्थव्यवस्था में उँचा स्थान पा लिया था , वह बहाई ही थे। वह 25 वर्षों तक पहलवी शासन द्वारा अत्याचार करवाते रहे। यही वे थे जो इस्लाम और मुस्लमानों को समाप्त कर देना चाहते थे।