तारीख़े इस्लाम भाग 1

तारीख़े इस्लाम  भाग 10%

तारीख़े इस्लाम  भाग 1 लेखक:
कैटिगिरी: इतिहासिक कथाऐ

तारीख़े इस्लाम  भाग 1

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: जनाब फरोग़ काज़मी साहब
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तारीख़े इस्लाम  भाग 1

तारीख़े इस्लाम भाग 1

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

इस्लाम वह इलाही अक़ीदा है जिसके लिये खुदा ने चाहा कि यह मेरे रसूल (स.अ.व.व.) और इताअत गुज़ारों का दीन हो। यह इन्सानी हुकू़क़ का वह कामिल मजमूआ है जिसकी वही खुदा ने अपने नबी पर की और नबी ने उसको अपनी उम्मत तक पहुँचाया। जिन लोगों ने नबीऐ मुरसल (स.अ.व.व.) की दावत पर लब्बैक कही और जिन्होंने इस दीन की पैरवी की वह हज़रात दीन के पैरू हैं खुद दीन नहीं है।

इस्लाम अज़ली भी है और अबदी भी। यह दीन हज़रत आदम (अ.स.) के दौर में भी था और क़यामत तक बाक़ी रहेगा। यह और बात है कि हज़रत आदम (अ.स.) के ज़माने में इस्लाम के मौजूदा ख़दो खाल नहीं थे। उसूल व ज़वाबित मोअय्यन नहीं थे और न कोई बाक़ायदा निज़ामे हयात था। इस लिये क़ुरआने मजीद ने इस्लाम का तज़किरा सबसे पहले हज़रत नूह (अ.स.) की ज़बान से किया। चुनान्चे इरशाद हुआ :- फ़ा इन तवल्लैतुम फ़मा साअलतोकुम मिन अजरे इन अजरी इल्ला अल्लाहो व ओमिरतो अन अकूना मिनल मुस्लेमीन (यूनुस आयात 72) ‘‘ तुम ने (मेरी नसीहत से) मुंह मोड़ लिया हालांकि मैने तुम से कोई उजरत नहीं मांगी थी , मेरी उजरत तो अल्लाह पर है और मुझे हुक्म है कि मैं उसके फ़रमाबरदारों में शामिल हों जाऊं। ’’

आयाए मज़कूरा में लफ़्ज़े मिनल मुस्लेमीना से साफ़ तौर पर ज़ाहिर है कि इस्लाम का सिलसिला हज़रत नूह (अ.स.) से पहले भी था और वह ख़ुद इस सिलसिले की एक कड़ी थे।

इसके बाद हर दौर हर ज़माने में इस्लाम का ज़िक्र ‘‘ तकरार ’’ के साथ होता रहा ताकि यह अम्र भी वाज़ेह हो जाए कि शरिअतों के बदल जाने से शरिअत की ‘‘ रूह ’’ की रूह पर कोई असर नहीं पड़ता। नीज़ यह भी आशकार हो जाए कि इस्लाम दर हक़ीक़त वही दीने इलाही है जो इन्सानी ज़िन्दगी के लिये ज़ाबते के तौर पर वज़ा हुआ था और जिसकी हमागीर तालीमात में इन्सान की फ़लाह व निजात के इसरार व रमूज़ पोशीदा हैं।

जब हज़रत इब्राहीम (अ.स.) ख़लील उल्लाह का दौर आया तो उन्होंने भी अपनी शरीयत को इस्लाम से ताबीर किया। जैसा कि क़ुरआने मजीद का बयान है :- व वसी बेहा इब्राहीमो बैनही व याक़ूब या बुनैय्या इन्नल लहा इस्तफ़ालकुमुद्दीना फला तमूतुन्ना इल्ला व अनतुम मुस्लेमून (बक़रा आयत 132)

‘‘ इब्राहीम (अ.स.) व याक़ूब (अ.स.) ने अपने फ़र्ज़न्दों को वसीयत की कि अल्लाह ने तुम्हारे लिये इस्लाम को पसन्द किया है लेहाज़ा जब दुनिया से तुम उठना तो मुस्लमान उठना। ’’

हज़रत इब्राहीम (अ.स.) और हज़रत याक़ूब (अ.स.) की यही वसीयत जब जनाबे यूसुफ़ (अ.स.) की तरफ़ मुन्तक़िल हुई तो उन्होंने फ़रमाया :- रब्बे क़द आतैनी मिनल मुल्के व अल्लम तनी मिन तावीलिल अहदीस फातेरस समावाते वल अर्ज़े अन्ता वलीये फिद दुनिया वल आख़ेरत तवफ़्फ़नी मुस्लेमन व अलहक़्क़ेनीबिल सालेहीन (यूसुफ़ आयत 101)

‘‘ परवर दिगार ! तूने मुझे मुल्क दिया है और हदीसों की तावील का इल्म भी अता किया है , तू ही ज़मीन व आसमान का ख़ालिक और दुनिया व आख़ेरत में मेरा वली व सरपरस्त है। मेरे मालिक ! मुझे इस दुनिया से मुसलमान उठाना और सालेहीन से मुलहक़ कर देना। ’’

इस आया ए करीमा में हज़रत यूसुफ़ (अ.स.) की तरफ़ से अपने पदरे बुज़ुर्गवार की वसीयत के मुतालिक़ जादये इस्लाम पर गामज़न रहने दुनिया से मुस्लमान उठने और ‘‘ सालेहीन ’’ से इल्हाक़ की ख़्वाहिश का इज़हार है और इसके साथ ही यह भी बताया गया है कि सिर्फ़ इस्लाम ही वह मज़हब है जो दुनिया व आख़ेरत दोनों जगह इन्सान के काम आता है।

मालूम हुआ कि हज़रत नूह (अ.स.) की तरह हज़रत यूसुफ़ (अ.स.) की नज़रों में भी अल्लाह के कुछ मख़्सूस और सालेह बन्दे ऐसे थे जिनकी ज़वाते मुक़द्देसा ग़ायबाना तमस्सुक ज़रूरी था। वह ‘‘ सालेहीन ’’ कौन थे ? यह वह बन्दे थे जिनके बारे में क़ुरआन का इरशाद है :-

यह वह ‘‘ सालेहीन ’’ हैं कि जिनके बारे में रसूल (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया :- ‘‘ मेरे अहले बैत की मिसाल किश्ती ए नूह (अ.स.) की सी है। जो इस पर सवार हुआ वह निजात पा गया और जो इससे किनारा कश रहा वह ग़र्क़ हो गया। ’’

एक और मौक़े पर फ़रमाया :- ‘‘ मैं तुम्हारे दरमियान दो गरांक़द्र चीज़ें छोड़े जा रहा हूँ एक क़ुरआन है और दूसरे मेरे अहले बैत हैं। यह दोनों अज़मत में मसावी हैं और एक दूसरे से उस वक़्त तक जुदा न होंगे जब तक (क़यामत के दिन) हौज़े कौसर पर मेरे पास वारिद न हों। अगर तुम उनसे तमस्सुक रखोगे और उनका दामन थामे रहोगे तो मेरे बाद कभी गुमराह न होगे। ’’

कुरआने मजीद ने जहां जहां पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) का ज़िक्र किया है वहां वहां ‘‘इस्लाम ’’ का तज़किरा भी इस अन्दाज़ में किया है कि गोया ‘‘ दीने इस्लाम ’’ सिर्फ़ आप ही का दीन है और अल्लाह की तरफ़ से पहले पहल आप ही को अता हुआ है।

हक़ीकत भी यही है क्यों कि अम्बियाये साबेक़ीन में से हर नबी ने अपने इस्लाम से पहले किसी ‘‘ साहबे इस्लाम ’’ के ‘‘ इस्लाम ’’ का एतराफ़ किया है लेहाज़ा यह देखना चाहिये कि वह साहबे इस्लाम कौन है ?

क़ुरआन मजीद जवाब देगा :- ‘‘ क़ुल इन्ना सलाती व नासोकी व मोहयाया व ममाती लिल्लाहे रब्बिल आलामीना ला शरीका लहू व बेज़ालेका ओमिरतो व अना अव्वुलल मुस्लेमीन (इन्आम आयत 163 व 164) ’’

‘‘ ऐ रसूल (स.अ.व.व.) ! कह दो कि मेरी नमाज़ , इबादत़ ज़िन्दगी और मौत सब उस अल्लाह के लिये है जो आलेमीन का रब और लाशरीक है और मैं पहला मुसलमान हूँ। ’’

क़ुरआने करीम ने यह वाज़ेह कर दिया कि अल्लाह का आखि़री रसूल मुहम्मद (स.अ.व.व.) पहला मुसलमान और ‘‘ साहबे इस्लाम ’’ है और रसूले अकरम (स.अ.व.व.) ने भी अपनी बेअसत के बाद मुसलसल तेईस साल तक उम्मत को इस्लाम ही की तालीम दी मगर रसूल (स.अ.व.व.) के इस्लाम और उम्मत के इस्लाम में एक नुमाया फ़र्क़ यह है कि रसूल (स.अ.व.व.) का इस्लाम अज़ली है और उम्मत का इस्लाम उसके वजूद में आने के बाद शुरू हुआ है। रसूल (स.अ.व.व.) के इस्लाम के मुताअल्लिक़ अव्वलो मन असलमा और अव्वलुल मुसलेमीना की लफ़ज़े इस्तेमाल हुई हैं। इन लफ़्ज़ों का मतलब ही यह है कि जब से इस्लाम का सिलसिला शुरू हुआ है पैग़म्बर (स.अ.व.व.) का इस्लाम तमाम अम्बिया ए कराम व अहले इस्लाम के इस्लाम पर मुक़द्दम रहा है। दूसरा वाज़ेह फ़र्क़ यह है कि उम्मत का इस्लाम पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के दस्ते मुबारक पर कलमे का मरहूने मिन्नत है जब कि ख़ुद पैग़म्बरे (स.अ.व.व.) ने किसी से इस्लाम का दर्स नहीं लिया।

इसमें कोई शक नहीं कि क़ुरआन मजीद ने साहेबाने इस्लाम की फेहरिस्त में नूह (अ.स.) , इब्राहीम (अ.स.) , जु़र्रिय्यते इब्राहीम (अ.स.) , याक़ूब (अ.स.) यूसुफ़ (अ.स.) यहां तक कि कायनात अरज़ो समा को भी शामिल किया है लेकिन इसके साथ साथ यह भी ऐलान कर दिया है कि सरकारे ख़़तमी मरतबत अव्वल मुस्लेमीन हैं। आप उस वक़्त भी साहबे इस्लाम थे जब इस कायनात का वजूद भी न था।

लेकिन इन तमाम बातों के बवजूद इस्लाम और इस्लामी तारीख़ का सबसे बड़ा अलमिया यह है कि दुनिया परस्तां ने मुरसले आज़म (स.अ.व.व.) की वफ़ात के बाद अपने मुफ़ाद की ख़ातिर इस्लाम को तहस नहस करने और शरियते मुहम्मदी को तबाह व बरबाद करने में कोई दक़ीक़ा उठा नहीं रखा। यहां तक कि इस्लामी तारीख़े नवीसी के फ़न पर भी बड़ी बड़ी ज़ालिब व जाबिर हुकूमतों की मोहरें लगी हुई हैं और उसकी नशो नुमां दौलत व इक़्तेदार के साये में हुई है। इस्लाम की तारीख़े मुखालेफ़ीन व मुनाफे़क़ीन के घरों में पली है और उन्हीं की आग़ोश मुनाफ़ेक़त में परवान चढ़ी हैं। इन अलल व असबाब के बावजूद अगर इस्लामी तारीख़ के दामन में हमारे मतलब की कोई बात मिल जाती है तो यह इस अमर की दलील है कि वह हक़ीक़त इतनी वाज़ेह और रौशन थी कि मोअर्रिख़ीन के बिके हुए क़लम भी इसकी परदा पोशी न कर सके और न ह ीवह हक़ीक़त तौज़िह व तावील की नज़र हो सकी।

इस्लाम की इब्तेदाई दौर में अहादीस , रवायात या वाक़ियात के बयान करने का जो तरीक़ा राएज था वह ज़बानी था। तसनीफ़ व तालीफ़ का सिलसिला अहदे माविया में शुरू हुआ जब उसने अबीद बिन शरिया को (जो ज़बानी हदीसो का रावी था) सनआ से बुला कर किताबों और मोअर्रिखों के ज़रिये उसकी बयान की हुई हदीसों को क़लम बन्द कराया जिसके नतीजे में मुत्ताइद किताबें आलमे वजूद में आयीं। उनमें से एक किताब का नाम ‘‘ किताबुल मुलूक व इख़बारूल मज़ाईन ’’ है।

किताबों में ग़ालेबन यह पहली किताब है जो मुआविया के हुक्म से लिखी गई। इसके बाद ‘‘ अवाना बिनुल हकीम ’’ का नाम क़ाबिले ज़िक्र है जो एख़बार व अन्साब का माहिर था और जिसने आम किताबों के अलावा ख़ास बनी उमय्या और मुआविया के हालात पर एक किताब लिखी जो पहलवी ज़बान में थी। उसका तर्जुमा अरबी ज़बान में हिश्शाम बिन अब्दुल मलिक के हुक्म से सन् 117 में और फ़ारसी ज़बान में 1260 में ईरान से हुआ।

143 हिजरी में जब तफ़सीर व फ़िक़ा और हदीसों की तदवीन का बाज़ाबता काम शुरू हुआ तो दीगर उलूम की किताबों के साथ तारीख़ व रिजाल में भी किताबे लिखी गईं। चुनान्चे मोहम्मद बिन इस्हाक़ (अल मतूनी 151 हिजरी) ने सीरते नबवी पर एक किताब मन्सूर अब्बासी की तहरीक पर लिखी जो मेरे ख़्याल से फ़ने तारीख़ की पहली किताब है।

इसके बाद तारीख़ बतदरीज तरक़्क़ी की मंज़िलें तय करती रही और बड़े बड़े नामवर मुवर्रिख़ पैदा होते रहे। इन मोअर्रेख़ीन में नज़र बिन मुज़ाहम कूफ़ी , सैफ़ बिन अमरूल असदी , मोअम्मिर बिन राशिद कूफ़ी , अब्दुल्लाह बिन साअद ज़हरी , अबुल हसन अली बिन मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह मदायनी , अहमद बिन हारिस ख़ज़ार (मदायनी का शार्गिद) , अब्दुल रहमान बिन अबीदा और उमर बिन अलशबा वग़ैरा ख़ास तौर पर क़ाबिले ज़िक्र हैं।

अगर चे मुसन्नेफ़ीन की किताबें अब ना पैद हो चुकी हैं लेकिन दीगर किताबें जो इससे क़रीब तर ज़माने में लिखी गईं है उनमें बहुत कुछ सरमाया उन मुसन्नेफ़ीन की किताबों का मौजूद व महफ़ूज़ हैं। मसलन अब्दुल मलिक बिन हिशाम (अल मतूनी 213 हिजरी) की किताब सीरते इब्ने हश्शाम , मुहम्मद बिन सईद बसरी (अल मतूफ़ी 230 हिजरी) की किताब तबक़ात , अब्दुल्लाह बिन मुस्लिम बिन क़तीबा (अल मतूफ़ी 270 हिजरी) की किताब अल इमामत व अल सियासत , अहमद बिन दाऊद (अल मतूफ़ी 282 हिजरी) की किताब एख़बारूल तवाल , मुहम्मद बिन जरीर तबरी (अल मतूफ़ी 300 हिजरी) की किताब तारीख़े तबरी , मरूजुज़ ज़हब और किताबुल अशराफ़ुल तबनिया वग़ैरा। यह तसानीफ़ जिस दौर की हैं वह मुतक़देमीन का दौर कहलाता है।

पांचवी सदी हिजरी के आग़ाज़ से मुतवस्तीन का दौर शुरू है। इस दौर में इब्ने असीर , समआनी , ज़हबी , अबुल फ़िदा , नवेरी और सियुती वग़ैरा ने नाम पैदा किया लेकिन उन लोगों में ख़ास कमी यह थी कि तारीख़ में इज़ाफ़ा के बजाय उन्होंने जो तरीक़ इख़्तेयार किया वह यह था कि मुतक़देमीन में से किसी की तसनीफ़ सामने रख ली और उसमें तग़य्युरात पैदा करके उसकी हैयत बदल दी लेकिन इसके बावजूद उन किताबों को अवामी हलके में ख़ातिर ख़्वाह मक़बूलियत हासिल हुई। तारीख़ इब्ने असीर और तारीख़े तबरी ने तो यह शोहरत और मक़बूलियत हासिल की कि अकसर कुदमा की किताबें नापैद हो गईं। इब्ने असीर और तबरी के बाद जो मोअर्रेख़ीन पैदा हुए उन्होंने भी अपनी किताबों का माखि़ज़ इब्ने असीर और तबरी की किताबों को क़रार दिया। इस फ़ेहरिस्त में इब्ने ख़ल्दून का नाम शामिल नहीं किया जा सकता इस लिये कि इसका अन्दाज़े तहरीर सबसे अलग है।

मुख़्तसर यह कि उमवी और अब्बासी दौर में तसनीफ़ात व तालीफ़ात का काम बकसरत हुआ और झूठी अहादीस , मोहमल रिवायत और ग़लत वाक़ियात की बुनियाद पर ख़ूब किताबे लिखी गईं और चूंकि उमवी और अब्बासी हुक्मरानों ने दौलत और ताक़त का इस्तेमाल कर के ख़ुसूसी तवज्जो और दिल चस्पी के साथ किताबें लिखवाईं लेहाज़ा ज़ाहिर है कि तारीख़ का तदवीनी मरहला उन्हीं की निगरानी में तय हुआ और उन्हीं की मरज़ी के मुताबिक़ तारीख़ी वाक़ियात किताबों में मरक़ूम किये गए। इस काम में मुलूकियत , इमारत , डिक्टेटर शिप , शाही और शहनशाही के साथ उसके नाजायज़ टुकड़ों पर पलने वाले ख़ुशामदी , दरबारी , जागीरदार , ओहदेदार , क़ाज़ी , मुल्ला , मुफ़ती , रावी , ज़मीर फ़रोश ओलमा और इमान फ़रोश मोअर्रेख़ीन सभी शामिल थे। जिन्होंने मिल कर इस्लामी तारीख़ को मसख़ करने में अपनी साज़िशी कोशिशे सरफ़ रक दीं जिसका नतीजा यह हुआ कि हज़ारों की तादाद में जाली हदीसे , फ़र्ज़ी रवायतें और ग़लत व मोहमल वाक़ियात क़लम के ज़रिये इस्तेहकाम पा गये।

यह भी एक तारीख़ी हक़ीक़त है कि मुआविया और उसके बाद के इस्तेबदादी दौर में यह ना मुम्किन था कि कोई शख़्स ज़बानी या तरीरी तौर पर आले मोहम्मद (स.अ.व.व.) के फ़ज़ाएल व मुनाक़िब बयान करता। अगर वह ऐसा करने की सई करता भी तो उसकी ज़बान गुद्दी से ख़ींच ली जाती उसके हाथ पाओं काट दिये जाते और उसकी आंखों में लोहे की गर्म सलाख़ें चला दी जाती। यही सबब है कि इस दौर में सच्चाई ख़ामोश रही और तारीख़ का दामन झूटी हदीसों , जाली रवायतों और ग़लत वाक़ियात से छलक पड़ा। चुनान्चे शेख़ मुफ़ीद अलह रहमा ने जब अपनी किताब इरशाद के लिये क़लम उठाया तो वाक़ेयाते करबला को दर्ज करते हुए इब्तेदा ही में उन्होंने यह वज़ाहत कर दी कि इन बयानात का तअल्लुक़ तमाम तर अरबाबे तारीख़ व सियर से है , मैंने सिर्फ़ इस मुक़ाम पर नक़ल कर दिया है। इसका मतलब यह हुआ कि शेख़ मुफ़ीद अलैह रहमा ने तारीख़ की तहक़ीक़ व सेहत का काम अपने बाद के मोहक़्क़ेक़ीन व मोअर्रेख़ीन पर छोड़ दिया।

तारीख़ का एक इम्तेयाज़ यह भी है कि शरियत के अलूम व फ़ुनून का ताल्लुक़ फ़ने तारीख़ से नहीं बल्कि एक मक़सूस व महदूद दुनिया से है और इससे इन्सान के अक़ाएदी जज़बात वाबस्ता होते हैं और ताअस्सुब व तंग नज़री के इमकानात भी पाये जाते हैं। तारीख़ के मसाएल इससे बिल्कुल मुख़्तलिफ़ हैं। इससे अमूमन जज़बात व एहसासात का राबता नहीं होता और यह कहने की गुजांइश बाक़ी रहती है कि मोअर्रिक़ ने दयानत दारी व ग़ैर जानिबदारी से काम लिया है। चुनान्चे यही वह रास्ता है जिस पर मोहक़िक़ बसीर जनाबे फ़रोग़ काज़मी मौजूदा दौर में गामज़न हैं और तहक़ीक़ व हक़ाएक़ की रौशनी में दीनी खि़दमात अन्जाम दे रहे हैं।

मौसूफ़ का हक़ आशना व हक़ीक़त निगार क़लम इस्लामी दुनिया में मोहताजे तारूफ़ नहीं है। उनकी किताबों में अल ख़ोलफ़ा , तफ़सीरे करबला , हज़रत आयशा की तारीखी़ हैसियत , जदीद शरीयत और सैय्यदा सकीना (अ.स.) वग़ैरा वह माया नाज़ किताबें हैं जो मक़बूलियत के दर्जे पर फ़ायज़ हो कर अवाम से खि़राजे तहसीन हासिल कर चुकि हैं यहां तक कि बाज़ किताबों का तर्जुमा भी दूसरी ज़बानों में हो रहा है जो इन्शाअल्लाह जल्दी ही मंज़रे आम पर आजायेगा।

ज़ेरे नज़र किताब तफ़सीरे इस्लाम ख़ुसूसी इम्तेयाज़ात निगारिश की िंबना पर ब्रादरम फ़रोग़ काज़मी की क़लमी काविशों का वह तारीख़ी सहीफ़ा है जिसके दामन में इस्लाम व तौहीद और इब्तेदाये आफ़रेनश की झलकियों के साथ साथ आदम (अ.स.) शीश (अ.स.) इदरीस (अ.स.) नूह (अ.स.) हूद (अ.स.) सालेह (अ.स.) इब्राहीम (अ.स.) इस्माईल (अ.स.) इस्हाक़ (अ.स.) लूत (अ.स.) ज़ुलक़रनैन (अ.स.) याक़ूब (अ.स.) यूसुफ़ (अ.स.) अय्यूब (अ.स.) शुऐब (अ.स.) मूसा (अ.स.) हिज़खि़़ल (अ.स.) यूशा बिन नून (अ.स.) इलयास (अ.स.) लुक़मान (अ.स.) दाऊद (अ.स.) सुलेमान (अ.स.) शेया (अ.स.) हैक़ूक़ (अ.स.) ज़करिया (अ.स.) यहीया (अ.स.) अरनिया (अ.स.) दानियाल (अ.स.) अज़ीर (अ.स.) ईसा (अ.स.) और खि़ज़र (अ.स.) वग़ैरा के मोतबर व मुस्तिनिद हालात और उनके दौर के वाक़ियात पूरी तफ़सील के साथ जलवा गर हैं। ख़ास बात यह है कि तारीख़ की दीगर किताबों की तरह जनाबे फ़रोग़ काज़मी की यह किताब सिर्फ़ पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) के हालात व वाक़ियात तक ही महदूद नहीं है बल्कि यह तमाम आइम्मा ए अतहार (अ.स.) के हालात से गुज़र कर हज़रत वलीउल अस्र अज्जलल्लाह फ़राजा के वाक़ियात पर तमाम हुई है। इस तरह कारेईने कराम को एक ही किताब में आदम (अ.स.) से इमामे अस्र (अ.स.) तक तमाम हालात मिल जायेंगे।

दर हक़ीक़त मोहक़िक़े बसीर जनाब फ़रोग़ काज़मी का यह वह कलमी कारनामा है जो मिल्लते इस्लामिया के लिये बहुत ज़रूरी था। तफ़सीरे इस्लाम के उन्वान से यह किताब यक़ीनन क़ौम के अहम तक़ाज़ों को किसी हद तक पूरा कर सकेगी और मोअल्लिफ़ की तरफ़ से आलमे इस्लाम ख़ुसूसन मिल्लते जाफ़रिया के लिये एक गिरां क़द्र तोहफ़ा साबित होगी। मेरी दुआ है कि परवरदिगारे आलम मौलूफ़ मौसूफ़ की इस मेहनत को क़ुबूल फ़रमाये और उन्हें अजरे अज़ीम अता करे। मेरी नज़र में जनाबे फ़रोग़ काज़मी मुबारकबाद के साथ मुकम्मल तौर पर हौसला अफ़ज़यी के भी मुस्तहक़ हैं। अल्लाह करे ज़़ोरे क़लम और ज़्यादा। फ़क़ीर दरे आले मोहम्मद (अ.स.) (सैय्यद ज़ाहेद अहमद रिज़वी)

बिस्मिल्लाहिर्रहमार्निरहीम

अल्हम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन वस सलातो वस्सलामो अला सय्यदिल अम्बिया ए वल मुरसलीन मोहम्मदिंव व आलहित तय्येबीनत ताहेरीन

इस्लाम और तौहीद

अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) ने फ़रमाया तमाम हम्द उस ख़ुदा के लिये है जिसकी मदह तक बोलने वालों की रसाई नहीं जिसकी नियामतों को गिनने वाले गिन नहीं सकते न कोशिश करने वाले उस का हक़ अदा कर सकते है न बलन्द परवाज़ उसे पा सकते हैं न अक़लो फ़हम की गहराईयां उस की तह तक पहुँच सकती है उसके कमालो ज़ात की कोई हद मुअय्यन नहीं न उसके लिये तौसीफ़ी अल्फ़ाज़ है न उसकी इब्तेदा के लिये कोई वक्त है जिसे शुमार में लाया जा सके न उसकी कोई मुद्दत है जो कहीं पर ख़त्म हो सके।

‘‘ दीन की इब्तेदा उसकी मारेफ़त है कमाले मारेफ़त उसकी तस्दीक़ है कमाले तस्दीक़ तौहीद है कमाले तौहीद तनज़ियाओ एख़लास है और कमाले तनज़ियाओ एख़लास यह है कि उस से सिफ़तों की नफ़ी की जाए क्यों कि हर सिफ़त शाहिद है कि वह अपने मौसूफ़ की ग़ैर है और हर मौसूफ़ शाहिद है कि वह सिफ़त के अलावा कोई चीज़ है लिहाज़ा जिसने ज़ाते इलाही के अलावा सिफ़ात माने उसने ज़ात का एक दूसरा साथी मान लिया और जिसने ज़ात का दूसरा साथी माना उसने दुई पैदा की , जिसने दुई पैदा की उसने जुज बना डाला और जो उसके लिये अजज़ा का क़ायल हुआ वह उससे बे ख़बर रहा। ’’

इस्लाम क्या है ?

‘‘ इस्लाम एक ऐसा दीन है जिसकी असासा ओ बुनियाद हक़ व सदाक़त पर क़ायम है यह उलूम और मारेफ़त का एक ऐसा चश्मा है जो अक़्लों दानिश के दरियाओं को ज़ौलानियां अता करता है ऐसा चिराग़ जिससे मोताद्दिद चिराग़ रौशन होते हैं एक ऐसा मनारा ए नूर है जो अल्लाह की राह को रौशन व मुनव्वर करता है। यह उसूलों और अक़ाएद का ऐसा मजमूआ है जो हक़ व सदाक़त के हर मुतलाशी को सुकून और इतमिनान बख़्शता है अल्लाह ने इस्लाम को ही अपनी ख़ुश्नूदी का ज़रिया और एताअत व इबादत का बलन्द तरीन मेयार क़रार दिया है। इस्लाम ने तमाम मुसलमानों को बिला तफ़रीक़ आला एहकाम , बलन्द उसूलों मोहकम दलायल और नाक़ाबिल और नाक़ाबिले तरदीद तफव्वुक़ से नवाज़ा है। अब मुसलमानों का फ़र्ज़ है कि शानो अज़मत को क़ायम रखे उस पर पुरख़ुलूस दिल से अमल करें उसके मोतक़ेदात से इन्साफ़ करें इसके अहकाम की सही तौर पर तामील करें और अपनी ज़िन्दगियों में इसे मुनासिब मुक़ाम दे। ’’

इस्लाम

इस्लाम इन्सान को एताअत एबादत और ख़ुदा शिनासी की दावत देता है अगर ज़हने इन्सान किसी माबूद के तसव्वुर से ख़ाली हो तो न एताअत का सवाल होता है न एबादत ओ रेयाज़त का और न किसी आईन (शरिअत) की पाबन्दी का क्यों कि जब कोई मंज़िल ही सामने न होगी तो मन्ज़िल की तरफ़ बढ़ने के क्या माअनी ? और जब कोई मक़सद ही पेशे नज़र न होगा तो उसके लिये दग व दौ करने का क्या मतलब ? अल बत्ता जब इन्सान की अक़्ल व फ़ितरत उसका रिश्ता किसी माफ़ौक़ुल फ़ितरत ताक़त से जोड़ देती है और उसके ज़ौके परसतारी व जज़्बाए उबूदियत उसको किसी माबूद की तरफ़ झुका देता है तो वह मनमानी करने के बजाए अपनी ज़िन्दगी को मुख़्तलिफ़ क़िस्मों की पाबन्दियों की ज़न्जीरों में जकड़ा हुआ महसूस करने लगता है। इन्ही पाबन्दियों का नाम दीन है जिसका आग़ाज़ ख़ुदा की मारेफ़त और उसका एतराफ़ है और इसके भी मुख़्तलिफ़ मदारिज हैं।

पहला दरजा

यह है कि फ़ितरत के विजदानी एहसास और ज़मीर की रहनुमाइ से या एहले मज़हब और उलेमा की ज़बान से सुनकर इस अन देखी हस्ती का तसव्वुर ज़हन में पैदा हो जाए जो ख़ुदा कही जाती है। यह तसव्वुर दर हक़ीक़त फिकरो नज़र की ज़िम्मेदारी और तहसीली मारेफ़त का हुक्म आयद होने का अक़लन पेश ख़ेमा है लेकिन तसाहुल पसन्द और माहौल के दबाव में असीर हसतियां इस तसव्वुर के पैदा होने के बावजूद तलब की ज़हमत गवारा नहीं करती इस लिये वह तसव्वुर तस्दीक़ की शक्ल एख़्तेयार नहीं करता और वह मारेफ़त से महरूम हो जाती है और इस महरूमी पर वह मवाख़ज़ा की मुस्तेहक़ हो जाती है लेकिन जो शख़्स इस तसव्वुर की तहरीक से मुतास्सिर हो कर क़दम आगे बढ़ाता है और उस पर ग़ौरो फ़िक्र ज़रूरी समझता है इस लिये दूसरी मंज़िल फ़हमो इदराक की होती है।

दूसरा दरजा

इदराक और फ़हम का यह है कि मख़लूक़ात मसनूआत और कायनात की नैरंगियों से खल्लाक़े आलम का पता लगाया जाय क्यों कि हर नक्श नक्काश के वजूद पर और हर असर मोअस्सिर की कारफ़रमाइ पर एक ठोस और बेलचक दलील है चुनान्चे इन्सान जब अपने गिर्दों पेश का जायज़ा लेता है तो उसे कोई ऐसी चीज़ दिखाई नहीं देती जो किसी साने की कारफ़रमाइ के बग़ैर आलामे वजूद में आ गई हो यहां तक कि कोई नक़्शे क़दम बग़ैर राहरू के और कोई इमारत बग़ैर मेमार के ख़ड़ी होते नहीं देखता तो वह क्यों कर यह बावर कर सकता है कि यह नीलगूं आसमान और इसकी पहनाइयों में आफ़ताब व महताब की तजल्लियां और यह ज़मीन और उसकी वसअतों में सबज़ा व गुल की रानाईयां बग़ैर किसी साने की सनअत तराज़ी के मौजूद हो गई होगी लेहाज़ा मौजूदाते आलम और नज़मो कायनात के देखने के बाद कोई इन्सान इस नतीजे तक पहुँचने से अपने दिल और दिमाग़ को नहीं रोक सकता कि इस जहाने रंग और बूका कोई बनाने और सवारने वाला है।

तीसरा दरजा

यह कि इस माबूद का इक़रार वहदत के एतराफ़ के साथ हो बग़ैर इसके ख़ुदा की तस्दीक़ मुकम्मल नहीं हो सकती क्यों कि जिस ख़ुदा के साथ और भी ख़ुदा माने जायेंगे वह एक नहीं होगा और ख़ुदा के लिये एक होना ज़रूरी है क्यों कि एक से ज़्यादा होने पर यह सवाल पैदा होगा कि इस कायनात को एक ने ख़ल्क़ किया है या कई ख़ुदाओं ने मिलकर पैदा किया है और अगर एक ही ने ख़ल्क़ किया है तो उसमें कोई ख़ुसूसियत होना चाहिये वरना इस एक को बवजह तरजी होगी जो अक़्लन बातिल है और अगर मुख़्तलिफ़ ख़ुदाओं ने मिल कर बनाया है तो दो हाल से ख़ाली नहीं या तो वह दूसरों की मदद के बग़ैर अपने उमूर की अन्जाम देही न कर सकता होगा या उसकी शिरकत व तावुन से बेनियाज़ होगा पहली सूरत में उसका मोहताज व दस्त नगर होना और दूसरी सूरत में एक फेल के लिये कई मुस्तक़िल फ़ाएलों का कारफ़रमा होना लाज़िम आयगा और यह दोनों सूरतें अपने मुक़ाम पर बातिल की जा चुकी हैं और अगर यह फ़रज़ किया जाए कि सारे ख़ुदाओं ने तमाम मौजूदात को आपस में बांट कर बक़दरे हिस्सा व बक़दरे जुस्सा ईजाद किया है तो इस सूरत में तमाम मम्लूकात के हर वाजिबुल वजूद से यक्सा निस्बत न रहेंगी बल्कि अपने सिर्फ़ बनाने वाले से ही निस्बत होगी हालांकि हर वाजिब को हर मुम्किन से और हर मुम्किन को हर वाजिब से यकसां निस्बत होना चाहिये क्यों कि तमाम मुम्किनात असरपज़ीरी में और तमाम वाजिबुल वजूद असर अन्दाज़ी में एक से माने गये हैं तो अब उसे एक माने बग़ैर कोई चारा नहीं है क्यों कि मुताअदिद ख़ालिक़ों के मानने की सूरत में किसी चीज़ के मौजूद होने की गुंजाइश ही बाक़ी नहीं रहती और ज़मीन और आसमान नीज़ कायनात की हर शै की तबाही बरबादी ज़रूरी क़रार पाती है। ख़ुदा वन्दे आलम ने इस दलील को क़ुरआने मजीद में इन लफ़्ज़ों में पेश किया है :- ‘‘ लव काना फी हेमा इलाहातो इल्लाहे ले फ़सादता ’’ अगर ज़मीनों आसमान में अल्लाह के अलावा और भी ख़ुदा होते तो यह ज़मीनों आसमान दानों तबाह और बरबाद हो जाते।

चौथा दरजा

यह है कि ख़ुदा को हर नुक्साओ ऐब से पाक समझा जाए और जिस्मो जिस्मानियात , शक्ल व सूरत तमसीलो तशबीह मकान व ज़मान हरकत व सुकून और इज्ज़ व जेहेल से मुनज़्ज़ा माना जाए क्यों कि इस बाकमाल व बे ऐब ज़ात में न किसी नुक़्स का गुज़र हो सकता है न उसके दामन पर किसी ऐब का धब्बा उभर सकता है और उसको न किसी के मिस्ल व मानिन्द ठहराया जा सकता है क्यों कि यह तमाम चीज़े वुजूब की बलन्दियों से उतार कर मकान की पस्तियां में आने वाले हैं चुनान्चे क़ुदरत ने तौहीद के पहलू ब पहलू अपनी तनज़ीह ओ तकदीस को जगह दी है।

1. क़़ुल होवल्लाहो अहद अल्ला हुस्समद लम यलिद वल यूलद वलम या कुल्लहू कोफ़ोवन आहद।

कह दो अल्लाह यगाना है , उसकी ज़ात बे नियाज़ है , न उसकी कोई औलाद है न वह किसी की औलाद है , और न उसका कोई हम पल्ला है।

2. उसको निगाहें देख नहीं सकती अलबत्ता वह निगाहों को देख रहा है और वह हर शै से आगाह और बा ख़बर है।

3. अल्लाह के लिये मिसाले न गढ़ो बे शक अस्ल हक़ीक़त को अल्लाह जानता है।

4. लैसा कमिस्लेही व हुआ समीउल बसीर।

कोई चीज़ उसके मानिन्द नहीं है वह सुनता भी है और देखता भी है।

पांचवा दरजा

वह है जिससे मारेफ़त मुकम्मिल होती है कि उसकी ज़ात में सिफ़ात को अलग से न सिमोया जाए कि ज़ाते अहदियत में दोइ की झलक पैदा हो जाए और तौहीद अपने सही मफ़हूम को खो कर एक तीन और तीन एक के चक्कर में पड़ जाए क्यों कि उसकी ज़ात जौहर ओ अर्ज़ का मजमुआ नहीं कि उसमें सनअतें इस तरह क़ायम हो जिस तरह फूल में ख़ुश्बू और सितारों में चमक बल्कि उसकी ज़ात ख़ुद तमाम सिफ़तों का सर चश्मा है और वह अपने कमालो ज़ात के इज़हार के लिये किसी तवस्सुत की मोहताज नहीं अगर उसे आलिम कहा जाता है तो इस बिना पर कि उसके इल्म के आसार नुमाया हैं और अगर उसे क़ादिर कहा जाता है तो इस लिये कि कायनात का हर ज़र्रा उसकी क़ुदरत व कारफ़रमाई का पता दे रहा है और समी व बसीर कहा जाता है तो इस वजह से कि कायनात की शिराज़ा बन्दी और मख़लूक़ात की चारासाज़ी देखे और सुने बग़ैर नहीं हो सकती मगर उन सिफ़तो की नमूद उसकी ज़ात में इस तरह नहीं ठहराई जा सकती जिस तरह मुम्किनात में है कि उसमें इल्म आए तो आलिम हो हाथ पैरों में तवानाई आए तो वह क़ादिर व तवाना हो क्यों कि सिफ़त को ज़ात से अलग मानने का लाज़मी नतीजा दुइ है और जहां दुई का तसव्वुर हुआ तो तौहीद का अक़ीदा रूख़्सत हुआ।

इस लिये अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने ज़ाएद बरज़ात सिफ़ात की नफ़ी फ़रमा कर तौहीद के ख़द व खाल से आशना फ़रमाया है और दामने वहदत को कसरत के धब्बों से बदनुमा नहीं होने दिया इससे यह मुराद नहीं कि उसके लिये कोई सिफ़त तजवीज़ ही नहीं की जा सकती कि उन लोगों की मसलक की ताइद हो जो सुलबी तसवुरात तसवीरात के भयानक अंधेरो में ठोकर खा रहे हैं हालांकि कायनात का गोशा गोशा उसकी सिफ़तों के आसार से छलक रहा है और मख़्लूक़ात का ज़र्रा ज़र्रा गवाही दे रहा है कि वह जानने वाला है क़ुदरत वाला है सुनने और देखने वाला है और अपने दामने रूबूवियत में पालने वाला और साया ए रहमत में परवान चढ़ाने वाला है मक़सद यह है कि उसकी ज़ात में अलग से कोई चीज़ तजवीज़ नहीं की जा सकती कि उसे सिफ़त से ताबीर करना सही हो क्यों कि जो ज़ात है वही सिफ़ात है और जो सिफ़ात है वहीं ज़ात है इसी मतलब को इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की ज़बान फ़ैज़ तरजुमान से सुनिये और फिर मज़ाहिबे आलम के अक़ीदा ए तौहीद को इसकी रौशनी में देखिये और परखिये कि तौहीद के सही मफ़हूम से रूशिनास करने वाली शख़्सियत कौन थे ? आप फ़रमाते हैं :-

हमारा ख़ुदा ए बुज़ुर्ग हमेशा से इल्म आलिम रहा हालांकि मालूम अभी अदम के परदे में था और ऐन समी व बसीर रहा लाहांकि किसी आवाज़ की गूंज बलन्द थी न कोई दिखाई देने वाली चीज़ थी और ऐन क़ादिर रहा हालांकि क़ुदरत के असरात को क़ुबूल करने वाली कोई शै न थी फिर जब उसने उन चिज़ों को पैदा किया और मालूम का वजूद हुआ तो उसका इलम मालूमात पर पूरी तरह मुनतबिक़ हुआ और मक़दूर के ताआलुक से उसकी क़ुदरत नुमायां हुई।

यह वह अक़ीदा है जिस पर आईमा ए अहलेबैत का इजमा है मगर सवादे आज़म ने इसके खि़लाफ़ दूसरा रास्ता इख़्तेयार किया है और ज़ात व सिफ़ात में आलहेदगी का तसव्वुर पैदा कर दिया है चुनान्चे शहरिस्तानी तहरीर फ़रमाते हैं :- अबूल हसन अश्तरी कहते हैं कि अल्लाह क़ुदरत , हयात , इरादा , कलाम और समाओ बसर के ज़रिये आलिम , क़ादिर , ज़िन्दा मुरीद , मुताकल्लिम और समी व बसीर है।

अगर सिफ़तों को इस तरह ज़ाएद बरज़ात माना जाएगा तो दो उमूर से ख़ाली नहीं या तो यह सिफ़तें हमेशा से उसमें होगी या बाद में तारी हुई होगी। पहली सूरत में जितनी इसकी सिफ़तें मानी जायेंगी उतने ही क़दीम और मानना पड़ेंगें जो क़दामत में उसी के शरीक होगी और दूसरी सूरत में उसकी ज़ात को महले हवादिस क़रार देने के अलावा यह लाज़िम आएगा कि वह इन सिफ़तों के पैदा होने से पहले न आलिम हो न क़ादिर हो न समी हो और न बसीर। यह अक़ीदा बुनियादी तौर पर इस्लाम के खि़लाफ़ है।

अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने एक दूसरे ख़ुत्बे में मिल्लतें मुसलेमा को नसीहत करते हुए इस्लाम और तौहीद के बारे में इरशाद फ़रमाया :-

मैं तुम्हें उस अल्लाह से डरने की नसीहत करता हूं कि जिसने तुम्हें पैदा किया और जिसकी तरफ़ तुम्हें पलटना है वही तुम्हारा कामरानियों का ज़रिया और तुम्हारी आरज़ुओं की आख़री मंज़िल है तुम्हारी राहे हक़ उसी से वाबस्ता है और वही ख़ौफ़ व हिरास के लिये तुम्हारे लिये पनाहगाह है।

दिल में अल्लाह को ख़ौफ़ रखो क्यां कि यह तुम्हारे दिलों के रोग का चारा फ़िक्र व शऊर की तारीकियों के लिये उजाला है जिसमों की बिमारी के लिये शिफ़ा सीनों की तबाहकारियों के लिये इस्लाह नफ़्स की कसाफ़तों के लिये पाकीज़गी आंखों की तीरगी के लिये नूर दहशत के लिये ढारस और जिहालत के अंधेरों के लिये रोशनी है। सिर्फ़ ज़ाहिरी तौर पर अल्लाह की इताअत का जामा न ओढ़ो बल्कि उसे अपना अन्दरूनी पहनावा बनाओ न सिर्फ़ अन्दूरूनी पहनावा बल्कि ऐसा करो कि वह तुम्हारे बातिन में उतर जाए और दिल में रच बस जाए और उसे अपने मामलात पर हुक्मरान हश्र पर वारिद होने के बाद मन्ज़िले मक़सूद तक पहुँचने का वसीला , ख़ौफ़ के दिन के लिये सिपर , क़ब्र के लिये चिराग़ , तनहाई की तवील वहशत के लिये हमनवा व दमसाज़ और मंज़िल की अन्दोहनाकियों से रिहाई का ज़रिया क़रार दो क्यों कि ख़ुदा की इताअत , मसाअबो आलाम , ख़ौफ़ो दहशत और भड़कती हुई आग के शोलों से बचाती है। जो तक़वा को मज़बूती से पकड़ लेता है तो मुसीबतें उसके क़रीब होते हुए भी दूर हो जाती हैं। तमाम उमूर तल्ख़ी व बदमज़गी के बावजूद शीरी हो जाते हैं। तबाही व हलाकत की मौजें हुजूम करने के बाद छट जाती हैं और दुश्वारियां सख़तियों में मुबतेला करने के बाद आसान हो जाती हैं। क़हत और नायाबी के बाद लुत्फ़ व करम की झड़ी लग जाती है , रहमत बरगशता होने के बाद फिर झुक पड़ती है।

‘‘ उस ख़ुदा से डरो , कि जिसने पन्दोमोआज़ेमत से तुम्हें फ़ाएदा पहुँचाया , अपने पैग़ाम के ज़रियें वाज़ो नसीहत की , अपनी नेअमतों से तुम पर लुत्फ़ व एहसान किया उसकी बन्दगी और नियाज़मन्दी के लिये अपने नफ़्सो को पाक करो , उसकी फ़रमाबरदारी का पूरा पूरा हक़ अदा करो। ’’

‘‘ इस्लाम ही वह दीन है जिसे अल्लाह ने अपने पहचनवाने के लिये पसन्द किया , अपनी नज़रों के सामने उसकी देख भाल की , उसकी तबलीग़ के वास्ते बेहतरीन ख़लाएक को अन्जाम फ़रमाया , अपनी मोहब्बत पर उसके सुतून खड़े किये , उसकी बरतरी की वजह से तमाम दीनों को सरनिगू किया और उसकी बलन्दी के सामने सब मिल्लतों को पस्त किया। उसकी इज़्ज़त , अज़मत और बुज़ुर्गी के ज़रिये दुश्मनों को ज़लील और उसकी नुसरत और ताईद से मुखालेफ़ीन को रूसवा किया , उसके सुतून से गुमराही के खम्बों के गिरा दिया। प्यासों को उसी के दरियाओं से सेराब किया और पानी उलचने वालों के ज़रिये हौज़ों को भर दिया फिर उसे इस तरह मज़बूत किया कि इसके बन्धनों से शिकस्तो रेख़्त नहीं न उसके हुक़ूक़ की कड़ियां एक दूसरे से अलग हो सकती हैं न उसके क़वानीन महो हो सकते हैं , न उसके सफ़ेद दामन पर स्याही का धब्बा उभर सकता है , न उसकी इस्तेक़ामत में पेंचोख़म पैदा हो सकते हैं न उसकी कुशादा राहों में कोई दुश्वारियां हैं , न उसके चिराग़ गुल हो सकते हैं , न उसकी ख़ुशगवारियों में तल्खि़ का गुज़र होता है इस्लाम ऐसे सुतूनों पर हावी है जिसके पाए अल्लाह ने हक़ की सरज़मीन पर क़ायम किये हैं और उनकी असासा व बुनियाद को इस्तेहक़म बख़्श है। अल्लाह ने इस्लाम में अपनी इन्तेहाइ रज़ामन्दी , बलन्दतरीन अरकान अपनी एताअत की ऊंची सतह को क़रार दिया है चुनान्चे अल्लाह के नज़दीक इसके सुतून मुस्तहकम , उसकी इमारत सरबलन्द , उसकी दलील रौशन , उसकी ज़ियाए नूरपाश और उसकी सलतनत ग़ालिब है जिसकी बीख़कनी दुश्वार है , उसकी इज़्ज़त व विक़ार को बाक़ी रखो , उसके एहकाम की पैरवी करो , उसके हुक़ूक़ अदा करो और उसके हर हुक्म को उसकी जगह पर क़ायम करो। ’’ (माख़ुज़ अज़ नहजुल बलाग़ा)

अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) के अक़वाल व नसायह की रौशनी में तौहीद का जो हक़ीक़ी तसव्वुर निगाहे इन्सानी में उभरता है वह यह कि ख़ुदा क़दीम है यानि हमेशा से है और हमेशा रहेगा। ख़ुदा क़ादिर है यानि हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है। ख़ुदा आलिम है यानि हर चीज़ का जानने वाला है। ख़ुदा बसीर है यानि कोई ज़ाहिर व बातिन उससे मख़फ़ी नहीं है हालांकि वह आंख व कान वग़ैरा नहीं रखता , ख़ुदा मुताकल्लिम है यानि जिस चीज़ में चाहे क़ुव्वते गोयाई पैदा कर दे जैसे कि उसने दरख़्त मकें आवाज़ पैदा कर दी जो मूसा (अ.स.) से बातें करता था या पत्थर के संग रेज़ों से तकल्लुम पैदा कर दिया जो रसूल (स.अ.व.व.) की रिसालत की गवाही देने लगे। ख़ुदा सादिक़ है यानि उसका कलाम सच्चा और दुरूस्त है। ख़ुदा लाशरीक है वह अपनी ज़ात में किसी को शरीक नहीं करता। ख़ुदा मुरक्क़़ब नहीं यानि वह जिस्म व अरज़ और जौहर से नहीं बना। ख़ुदा ला मकान है यानि वह कोई मकान व मुक़ाम नहीं रखता बल्कि अपनी क़ुदरते कामिला से हर जगह और हर शै में मौजूद है ख़ुदा की ज़ात में हुलूल नहीं ख़ुदा हर ऐब से बरी और पाक व साफ़ है ख़ुदा को कोई देख नहीं सकता न दुनियां में और न उक़बा में। ख़़ुदा बड़ा आदिल और इंसाफ़ करने वाला है और वह किसी उमूर में किसी का मोहताज नहीं है। ख़ुदा ज़ालिम व जाबिर नहीं है यानि वह अपने बन्दों पर ज़ुल्म व जब्र नहीं करता और ख़ुदा जिस्मो जिस्मानियत से मुबर्रा है।

क़ुरआन भी कहता है कि ख़ुदा शक्ल व सूरत , जिन्स व जिस्म और तशबीह व हदबन्दी के तसव्वुर से पाक है आखें उसे देख नहीं सकतीं 1 चुनान्चे मूसा (अ.स.) ने जब दीदार की ख़्वाहिश ज़ाहिर की तो इरशाद हुआ कि तुम मुझे देख नहीं सकते।

अफ़सोस है कि अमवी दौर के इक़तेदार परस्त उलेमा के एक मख़सूस गिरोह ने अली (अ.स.) की दुश्मनी और अदावत में वहदानियत के इस हक़ीक़ी तसव्वुर को यह कर पामाल कर दिया कि ख़ुदावन्दे आलम अपनी मख़लूक के सामने जलवा अफ़रोज़ होगा और लोग उसे चौदहवी के चांद की तरह देखेंगे 3। ख़ुदा हर शबे जुमा आसमान से ज़मीन पर उतरता है और दुनियां की सैर करता है 4। ख़ुदा (हश्र के दिन) जहन्नुम में अपना पैर डाल देगा और वह भर जाएगा 5। वह अपनी पिन्डली खोल कर देखेगा ताकि मोमेनीन इसे पहचान लें। वह हंसता है तो ख़ुद हैरत में पड़ जाता है। ख़ुदा के दो हाथ दो पैर और पांच उंगलियां हैं पहली उंगली आसमानों पर , दूसरी ज़मीनों पर , तीसरी दरख़्तों पर चौथी पानी पर , और पांचवी तमाम मख़्लूक़ात पर रखी हुई है। ख़ुदा अर्श पर बैठा हुआ है और उसका जिस्म चार चार उंगल अर्श से बाहर निकला हुआ है और वह इस क़दर भारी व भरकम है कि उसके बोझ से अर्श चुर चुर करता है। हज़रत अबू बक्र बिन कहाफ़ा का क़ौल है कि ख़ुदा के ही हुक्म से इंसान ज़िना का मुरतकिब होता है। मौलवी शिब्ली नौमानी ने भी अपनी किताब इल्मे अहकाम में तहरीर फ़रमाया है कि इंसान को अपने अफ़आल पर क़ुदरत नहीं है ख़ुदा ही इंसान से नेकी भी कराता है और बदी की तरगीब भी देता है।

यही वह इक़वाल व हदीसें हैं जिन से बिरादराने अहले सुन्नत ख़ुदा की रोयेत पर इस्तेदलाल करते हैं और उन अक़वाल व हदीसों की हक़ीक़त यह है कि उन्हें सहाबा के दौर में गढ़ा गया है। काबुल एहबार जो यहूदी था और उमर बिने खत्ताब के अहद में मुसलमान हुआ उसने यहूदी मोतेकादात को बाज़ मफ़कूदुल अक़्ल रवायतों मसलन अबू हुरैरा और वहब बिने मबता के ज़रिये से इस्लाम में दाखि़ल कर दिया।

बुख़ारी व मुस्लिम में ज़्यादातर रवायतें अबू हुरैरा से मरवी हैं जो हदीसे नबवी और काबुल अहबार की हदीसों में तमीज़ नहीं रख पाते थे चुनान्चे उन्हें एक मरतबा उमर बिने ख़त्ताब ने महज़ इसी बात पर मारा कि वह यह हदीस बयान किया करते थे कि ज़मीन और आसमान को अल्लाह ने सात रोज़ में ख़ल्क किया है।

यक़ीनन वहदहू ला शरीक से मुताअल्लिक़ यह मज़हक़ खे़ज़ तसव्वुर ख़ुदा की वहदानियत अज़मत व जलालत का मज़ाक उड़ाने के मुत रादिफ़ है। इस ग़लत और बातिल अक़ीदे से मुसलमानों को गुरेज़ करना चाहिये ताकि आख़ेरत में शरमिन्दगी और निदामत का सामना न हो और उस ख़ुदा पर ईमान रखना चाहिये जो मख़लूक़ात की मुशाबेहत से बालातर , तौसीफ़ करने वालों के तौसीफ़ी कलेमात से बलन्दतर , अपने अजीब नजमो नस्क की बदौलत देखने वालों के लिये सामने आशकारा और अपने जलालो अज़मत की वजह से वहमो गुमान और फ़िक्रो आहाम की नज़रो से पोशीदा है। जो आलिम है बग़ैर उसके कि किसी से कुछ मालूम करे जो हर चीज़ जानने वाला है बग़ैर उसके किसी से कुछ पूछे न उसपे रात की तारीकियां मुहीत होती है और न वह दिन की रौशनी से क़स्बे ज़िया करता है।

इब्तेदाए आफ़रीनश और अहदे मिसाक़

न ज़मीन का ख़ाकी फ़र्श था न आसमान का नीलगू शामियाना न आफ़ताब की ज़िया बारियां थी न माहो अन्जुम की नूर पाशिया न फ़िज़ाओं की सर गोशियां थीं न हवाओं की सर मस्तियां न पहाड़ों की सर बलन्दियां थीं न सर सब्ज़ाओं शादाब घाटियां न ठहरे हुए समन्दर थे न बहते हुए दरिया न तायरों की ख़ुशनवाइयां थीं न दरिन्दों की बज़्म आराइयां , न दिन का उजाला था न रात का अन्धेरा गर्ज़ के कुछ न था फ़क़त एक ख़ुदा की ज़ात थी जो बेनियाज़ी के आलम में अपने अनवारे समदिया से अपने कमाल और जमाल का मुशाहेदा कर रही थी।

फिरएएरादए क़ुदरत से एक जौहरे नूर पैदा हुआ जिसके हिसार मे अनवार के तेरह मुरक्क़े और चमक रहे थे। इन्हीं अनवारे ताहिरा की बदौलत आदम की हमागीर ज़ुलमते वुजूद की सलाहियतो से जगमगा उठी।

अल्लमाए कुस्तेलानी का कहना है कि जब परवरदिगारे मखलूक़ात की ईजाद का इरादा किया तो नूरे मौहोम्मदी को अपने अनवारे समदियां से खल्क़ फरमाया ऐ जाबिर इब्ने अन्सारी से रिवायत है कि मैने हज़रत रसुलल्लाह से पूछा कि या रसुल्लाह सबसे पहले खुदा ने किस चीज़ को ख़ल्क़ फरमाया। हज़रत ने जवाब दिया कि सबसे पहले ख़ुदा ने तेरे नबी के नूर को अपने नूर से ख़ल्क़ फ़रमाया। अल्लामा मसूदी ने मुरव्वजुज़ जंहब मे हज़रत अली ;अण्सद्ध से रिवायत की हैं कि जब अल्लाह ने तक़दीरे मख़्लूक़ात और आफ़रीनश की खि़लक़त का इरादा किया तो आसमान और ज़मीन की पैदाइश से क़ब्ल अपने नूर से एक शोलाए नूर को पैदा किया जो हमारे रसूल हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.व.व.) की शक्ल में पैदा हुआ।

यनाबेउल मोअद्दत और कोकबदुर्री वग़ैरा में हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) से मरवी है कि मेरा और अली का नूर एक था जो खिलक़ते आदम (अ.स.) से चौदह हज़ार साल क़ब्ल ख़ुदा की बारगाह में ताअत व तक़दीस करता था यहां तक कि आदम की खि़लक़त हुई और ख़ल्लाके कायनात ने इस नूर को उनके सुल्ब में रखा फिर वही नूर एक नबी के सुल्ब से दूसरे नबी के सुल्ब में मुन्तक़िल होता हुआ अब्दुल मुत्तलिब के सुल्ब में आया उसके बाद ख़ुदा ने इस नूर को दो हिस्सों में तक़सीम कर दिया , इस तरह कि मेरा हिस्सा अब्दुल्लाह के सुल्ब में और अली का हिस्सा अबू तालिब के सुल्ब में ठहरा पस अली मुझसे और मैं अली से हूँ। हज़रत अली (अ.स.) से भी यही रिवायत है कि ख़ुदा ने हम अहलेबैत के नूर को हज़रत आदम से चौदह हज़ार साल क़ब्ल ख़ल्क़ फ़रमाया।

बहरहाल यह ख़ल्लाक़े कायनात की पहली तखलीक़ थी कि उसने अपने नूर से अपने हबीब (स.अ.) और उसके वसी के नूर को ख़ल्क़ फ़रमाया। उसूले काफ़ी में है कि ख़ुदा ने अपने नूर से मोहम्मद (स.अ.व.व.) अली (अ.स.) और फ़ातिमा (स.अ.) के नूर को पैदा किया फिर यह लोग हज़ारों किरन ठहरे रहे , उसके बाद अल्लाह ने दुनियां की तमाम चीज़ों को ख़ल्क किया , फिर इन मख़्लूक़ात की तखलीक पर अम्बिया को शाहिद बनाया और एताअत और फ़रमाबरदारी इन (अम्बिया) पर फ़र्ज़ की।

हज़रत उस्मान बिने अफ़ान ने हज़रत उमर बिने ख़त्ताब से रिवायत की है कि अल्लाह तआला ने अपने फ़रिश्तो को हज़रत अली इब्ने अबि तालिब (अ.स.) के नूरे दहन से पैदा किया है। क़ुरआन मजीद का इरशाद है कि यह मशियते खुदा है इनका कोई क़ौल या अमल ख़ुदा के हुक्म के बग़ैर नहीं होता यह वही करते हैं जो खु़दा चाहता है।

इसके बाद मशियते परवरदिगार ने क़यामत तक पैदा होने वाली मख़लूक़ की रूहों को ख़ल्क फ़रमाया और इन रूहों में से जुमला अम्बिया व मुरसलीन की अरवाहे मुक़द्देसा को एक मरकज़ पर जमा कर के उनसे अपनी रूबूबियत और पैग़म्बरे आख़ेरूज़्ज़मा की नबूवत पर इमान का अहद लिया। क़ुरआन में यह वाक़िया यूं मज़कूर है :-

तरजुमा :- ख़ुदा ने पैग़म्बरों से इक़रार लिया कि मैं तुम्हें जो किताब और हिक्मत दूं उस पर अमल करना और अगर (तुम्हारी ज़िन्दगी में) तुम्हारे पास हमारा रसूल (मोहम्मद (स.अ.व.व.)) आए और वह तुम्हारी किताबों (और नबूवत) की तसदीक़ करे तो तुम उस पर ईमान ले आना और उसकी मदद करना। फिर दरयाफ़्त किया कि क्या तुम ने इक़रार कर लिया और मेरे अहद का बोझ उठा लिया ? सब ने कहा हां ! हमने इक़रार कर लिया , तो इरशाद हुआ कि अब तुम इस क़ौलो क़रार पर एक दूसरे के गवाह हो जाओ और देखो मैं भी तुम्हारे साथ गवाह हुआ जाता हूँ।

मुफ़स्सेरीन ने क़ुरआन की आयत के बारे में अलग अलग तफ़्सीरें की हैं जिनका खुलासा यह है कि जन्नत से निकलने के 300 बरस बाद जब हज़रत आदम की तौबा क़ुबूल हुई तो उनकी पुश्त से तमाम रूहें निकाली गईं और उन से तीन तरह का वादा लिया गया। पहला यह कि तमाम इंसानों से कहा गया कि क्या मैं तुम्हारा रब नहीं हूँ ? सब ने जवाब दिया , बेशक तू हमारा रब है। दूसरा वादा आलिमों से लिया गया कि तुम अल्लाह के हुक्म की तबलीग़ करना और तीसरा वादा नबियों से लिया गया जिसका बयान ऊपर लिखी क़ुरआन की आयत में है। इस वादे और इक़रार की तफ़्सीर में ंहैं कि ख़ुदा ने अम्बिया से फ़रमाया कि अगर मैं तुम्हें किताब दे कर नबूवत का ताज तुम्हारे सर पर रख दूं और मेरे बन्दे तुम्हारे उम्मती बन जायें और तुम्हारी नबूवत का आफ़ताब पूरी तरह चमक रहा हो और उस वक़्त मेरा हबीब तुम्हारे बीच में जलवा अफ़रोज़ हो तो तुम्हारा फ़र्ज़ होगा कि तुम उस पर इमान ले जाओ क्यों कि उसके आते ही तुम्हारे दीन और किताबें मन्सूख़ हो जायेंगी। बोलो क्या तुम्हें मन्ज़ूर है ? जब तमाम नबियों ने इक़रार कर लिया तो हुक्म हुआ कि अब तुम इस पर एक दूसरे के गवाह बन जाओ और देखो मैं भी तुम्हारे साथ गवाह बन जाता हूँ।

यह बात ग़ौर करने की है कि ख़ुदा ने अपनी रूबूबियत और नबी की नुबूवत पर इमान का वादा लेते वक़्त , पैग़म्बरों के अलावा किसी को एक दूसरे का गवाह नहीं बनाया और न वह ख़ुद किसी की गवाही में शामिल हुआ , आखि़र इसकी वजह क्या थी ? इसे बस खुदा ही जाने , लेकिन यह कहना ग़लत न होगा कि परवरदिगारे आलम मुतलक़ है और उसके इल्म में यह बात थी कि आं हज़रत का ज़माना कोई नबी न पाऐगा उसके बावजूद इक़रार लिया जाना इस बात की दलील है कि यह वादा अम्बिया के गिरोह के लिये नबियों के गिरोह के लिये आखि़री पैग़म्बर पर इमान की अलामत बन जाए। चुनान्चे हर नबी अपने इस अहद पर क़ायम रहा और शबे मेराज बैतुल मुक़द्दस में रसूल अल्लाह के पीछे नमाज़ पढ़ कर इस वायदे को पूरा और सच कर दिखाया। जैसा कि अबू हुरैरा से रिवायत है कि रसूलल्लाह ने फ़रमाया कि मेराज की शब हज़रत मूसा (अ.स.) , इब्राहीम (अ.स.) , ईसा (अ.स.) के साथ तमाम अम्बिया बैतुल मुक़द्दस में जमा हो गए यहां तक कि नमाज़ का वक़्त आया और मैं उनका इमाम हुआ।

पैग़म्बर ने फ़रमाया कि अल्लाह ने मुझसे कहा कि एै मोहम्मद मैनें तमाम नबियों से अपनी रुबूबियत तेरी नबूवत और अली कि विलायत का इक़रार लिया है। इमाम बाकिर (अ.स) ने फरमाया कि परवरदीगार ने हमारे शियों से अपनी रुबूबियत , रसूले खुदा की रिसालत और हमारी विलायत का इकरार लिया है। हज़रत अली का इरशाद कि खुदा ने कलमए कुन से एक नूर पैदा किया और उस नूर से मेरे भाई मोहम्मद को और मुझे , और मेरी जुर्रियत को खल्क़ फरमाया बस हमी नुरुल्लाह है. हमी रुहुल्लाह हैं और हम ही कलमतुल्लाह है। खुदा को मखलूक़ देख नही सकती मगर हमारी वजह से उसकी ज़ात व सिफात को समझ सकती है. फिर खुदा ने सारी अहद मेरे अहद मेरे भाई रसूले खुदा के साथ इस तरह लिया है कि हम एक दुसरे की मदद और नुसरत करते रहें , इसलिए मेनें आपकी मदद और नुसरत मे कोताही नही की , कदम कदम पर आप के साथ रहा आप के दुश्मनों से जिहाद किया और उन्को क़त्ल किया। उस्मान बिन अफ़ान हज़रत उमर इब्नें ख़त्ताब से रवायत करते है कि अल्लाह ने अपने मलाएका और फरिशतों को अली इब्ने अबितालिब के नूर से ख़ल्क़ फरमाया है।

ऐसी सूरत में यह कहना ग़लत नही होगा की जिस वक्त अम्बिया और मूरसलीन से अहद लिया जा रहा था उस वक्त उन के साथ उन के अहलेबैत भी हिजाब व अनवार के परदों मे थें। और जिस वक्त आदम आबों-गिल के दरमियांन थें उस वक्त भी ये पाक हस्तियाँ इल्में लदुन्नी की मालिक थी और शायद यही वजह थी कि हज़रत अली ने दावा किया कि अगर मेरे लिए मसनदें कज़ा बिछ़ा दी जाये और मैं उस पर बैठ जाऊँ तो तौरेत वालों के लिए तौरेत से , इन्जील वालो के लिए इन्जील से , ज़बूर वालो के लिए ज़बूर से और कुरान वालो के लिए कुरान से फैसला करुगा-। और शायद इसीलिए आप ने मिम्बर से एलान किया ऐ लोगों , जो पुंछना चाहो पुछ़ लो इससे पहले कि मै तुम्हारे बीच से उठ जाऊँ , खुदा की कसम मै जमीन के रास्तों से ज्यादा आसमान के रास्तों को जानता हूँ , मेरे अन्दर तमाम इल्म बहरे ज़ख्खार की तरह मौज़े मार रहें है मैं इस्रारे नबूवत का खजाना हूँ मै ग़ूज़रे हुए लोगों के हालात जानता हूँ , और उन बातों को भी जानता हुँ , जो आइन्दा पेश आने वाली हैं , मुझसे किलाबे खुदा के बारे में सवाल करो खुदा की कसम कोई आयत ऐसी नही जिसके बारे मे मुझे इल्म न हो कि दिन के उजाले मे नाज़िल हुई या राल के अन्धेरे में पहाड़ पर नाज़िल हुई या मैदान मैं।

इन अक़वाल रवायात और आयात से ज़ाहिर होता है कि रोज़े अजल परवरदिगार ने अम्बिया से अपनी वहदानियत , ऩबी-ए-मुरसल की नबूवत और अली कि विलायत का इक़रार लिया और जब वह इस इक़रार की मन्ज़िल से ग़ुज़र चुके तो उनके लिए मन्सबे नबूवत का इन्तेखाब हूआ , इस से ज़ाहिर है कि अम्बिया के ईमान की अलामत की बूनियाद , अल्लाह की रुबूबियत , नबी की नबूवत , और अली की वलायत का इक़रार है , इसमें कमी की कोई गुंजाईश नही है। अब मुस्लमानो को ये समझ लेना चाहिए कि इन तीनों चीज़ो मे से किसी एक में भी कमी आ गयी तो ईमान नही रह सकता , और मुसलमान , मुसलमान नही रह सकता।

रुहों की ख़िलकत और अहद व पैमान के बाद माअद्दों की सूरतगरी हुई और इसके साथ ही खुदा वनदेआलम ने अपने इरादा-ए-क़ुदरत से कुशादा फैजाओं ख़लाई वसअतों की ख़ल्क़ फरमाया और उन्हे हवा और पानी से भर दिया नीचें पानी की तुफानी लहरें थी और ऊपर हवा के तेज़ व तुन्द झोकें , फिर यही हवा पानी के अन्दर चली और उसके सख्त थपेड़ो ने पानी को इल तरह मंथ दिया कि जौसे दही मथा जाता है इससे झाग और बुखारात पैदा हुए फिर यही झाग और बुखारात हवा के दोश पर वलन्द होकर फज़ाओं में मुहीत व मुन्जमिद हो गये जिन से सात आसमानों की तख़लीक हुई। परवरदिगार ने आसमान के नीचले तबक़े को इस अन्दाज़ से ठहराया कि न सुतूनों की ज़रुरत पड़ी और न बन्धों की। फिर चाँद ,सूरज , और सितारो की चमक दमक से उसे अरासता किया और सातों आसमानो के दरमियांन ख़ला पैदा करके उन्हे मलायक के वजूद से भर दिया।

यह मलायक तमाम माद्दी कसाफतो से पाक और आलाइशों से बरी है। उन का काम सिर्फ अल्लाह की इबादत व इताअत हैं चुनानचें उनमें जो मलाएक सर ब सजूद वह सजदे से सर नही उठाते , जो रुकू में है वह सीधे खड़े नही होते और जो क़याम में है वह अपनी जगह नही छ़ोड़ते। न उन पर नींद तारी होती है न सुस्ती व काहिली का ग़लबा होता है. न उनमें भूल- चूक पैदा होती है और न यह सहो व निसयात का शिकार होते हैं उनमें कुछ वही-ए-इलाही के अमीन है जो अल्लाह का पैग़ाम ले कर रसूल की तरफ आते जाते है कुछ़ बन्देगाने खूदा के निगेहबान और जन्नत के पासबान हैं और कुछ वह हैं जिनके क़दम मज़बूती से ज़मीन की तहों में जमें हुए हैं और उनकी निगाहें जलाले किबरियाई के सामने झुकी हुई है।

इन उमूर से फ़राग़त के बाद , इरादाए क़ुदरत से मौजें मारते हुए पानी की सतह पर उसी के झाग से बालाई की तरह एक मोटी सी तह जमना शुरु हुई जिसने ज़मीन की शक्ल इख्तेयार की और जहां से यह तह जमना शुरु हुई उसका नाम मक्का है मगर चुँकि ज़मीन के नीचे पानी ही पानी था जो थपेड़ो पर थपेड़े मार रहा था इसी लिए वह मताहरिंक थी उसे रोकने और मुनजमिद करने के लिए ख़ुदा ने पहाड़ो को पैदा किया जिन की मेख़े ज़मीन के सीनों में पैवस्त हो गयीं ताकि वह अपनी जगह से वह जुम्बिश न कर सकें। इन पहाड़ो से फिर पानी के चश्में फूटें जिन्हो ने आईन्दा खूश्क ज़मीनों की सेराबी का इन्तेज़ाम किया और जहां चश्मों का पानी नही पहुँच सकता था वहा के लिए बादल पैदा हुए जो पानी के ज़खीरे अपने साथ लेकर सफर करते हैं और ख़ुश्क मक़ामात को सेराब करते है।

चश्मो की आबयारी और बादलों की आबबारी से ज़मीन में नमूं की कूव्वत पैदा हूई और फर्शे गेती पर सब्ज़ा लहलहाने लगा , सरसब्ज़ व शादाब दरख्त झुमने लगें अब आलम में रंग बू की कमी न थी मगर दरियाओं की रवानी , समन्दरों का शोर और बादलों की गरज के अलावा इस दुनिया में कोई आवाज़ न थी। इस भयानक सन्नाटे को चहल पहल में बदलनें के लिए कुदरत ने हैवानात को ख़ल्क़ किया , यहां तक की चरीन्दों ,परिन्दो ,और दरिन्दों का जमघटा लग गया , लेकिन इस मख़लूक में नज्म व ज़ब्त का कोई शऊर न था और पुरी कारगाह डहकते शोलों और गरजते हुए दरिन्दो ,और ख़ौफ नाक भेड़ियों व अजदहों से महशरिस्तान बनी हुई थी। ख़ुदा वन्दे आलम ने इसकी तन्जीमकारी के लिए आग से बनी हुई मखलूक़ जिनों को खल्क़ फरमाया लेकिन इस मख़लूक ने नज़्मों ज़ब्त क़ायम करने के बजाए अपनी शोला मिजाज़ी की बदौलत रुए ज़मीन पर ग़ैज़ो ग़ज़ब की आग भड़का दी और ख़ुद ही बाहेमी ख़ूरेंज़ी और जंग और जिदल में मस्रुफ़ हो गये और परवरदिगार की इताअत से मुहँ मोड़ कर उसके एहकामात की खिलाफ़वर्जी पर उतर आए। आखिर कार यह पूरी कौम क़हरे इलाही का शिकार होकर फेना के घाट उतर गयी , बस वही रह गये जो अल्लाह की नज़र में रहमो करम के मुस्तहक़ थे , उनमें से एक जो इन्तेहाई इबादत ग़ूज़ार था अपनी इबादत और रियाज़त के नतीजे में इस तरह बचा कि उसे मलाएका की सफ़ों में जगह दे दी गयी उसका नाम इज़राइल था। जो बाद मे इबलीस और शैतान के नाम से मशहूर हुआ।