तारीखे इस्लाम भाग 3

तारीखे इस्लाम भाग 30%

तारीखे इस्लाम भाग 3 लेखक:
कैटिगिरी: इतिहासिक कथाऐ

तारीखे इस्लाम भाग 3

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: जनाब फरोग़ काज़मी साहब
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तारीखे इस्लाम भाग 3

तारीखे इस्लाम भाग 3

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

हज़रत अली अ 0 की ख़ामोशी

हज़रत अली अ 0 ने इस मजमूही ख़िलाफ़त के ख़िलाफ एलानिया एहतेजाज किया और अपने हक़ की फ़ौक़ियत इसी दलील से साबित की जिस दलील की रु से बरसरे अक़तेदार तबक़े ने अन्सार को क़ाएल किया था। यह एहतेजाज दरहक़क़त इस निज़ामे सियासत के ख़िलाफ़ था जिसके तहत इन्तेख़ाबी हुकूमत को ख़िलाफत का और मुन्तख़ब हुक्मरां को ख़लिफ़ये रसूल स 0 का दर्जा दे दिया गया था। इस एहतेजाज में न हुकूमत की हवस काऱेफ़रमां थी और न ही अक़तेदार की ख़्वाहिश मुज़मिर थी आगर अमीरूल मोमेनीन अलै 0 को हुकूमत व अक़तेदार की हवस होती तो आप भी उन तमाम हरबों को इस्तेमाल करते जो सियासी ताक़त व कूवत हासिल करने के लिये काम में लाये जाते हैं मगर आपने इस सिलसिले में हर कार्रवाई को नज़रत अन्दाज़ कर दिया और अपने मौक़फ़ पर सख़्ती व मज़बूती से जमे रहे। चुनानचे सक़ीफ़ा में जब हज़रत अबुबकर का इन्तेख़ाब अमल में लाया जा रहा था तो अमूवी सरदार अबुसुफ़ियान मदीना में नहीं था। कहीं से वापस आ रहा था कि रास्ते में उसे इस अलमनाक वाक़िये की ख़बर मिली। उसने पूछा कि रसूल उल्ला स 0 के बाद मुसलमानों का ख़लीफ़ा कौन हुआ ? बताया गया कि लोगों ने अबुबकर के हाथ बर बैयत कर ली है। यह सुन कर अरब का माना हूआ फ़ितना परदाज़ सोच में पड़ गया और एक तजवीज़ ले कर अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब के पास आया और कहा , उमर वग़ैरा ने धांधली मचाकर ख़िलाफ़त एक तमीमी के हवाले कर दी है और ये ख़लीफा अपने बाद उमर को हमारे सरों पर मुसल्लत कर जायेगा। चलो , अली अले 0 से कहें कि वह घर का गोशा छोड़ें और अपने हक़ के लिये मैदान में उतर आयें। चुनांचे वह अब्बास अलै 0 को लेकर अली इब्ने अबीतालिब अलै 0 की ख़िदमत में हाजिर हुआ और चाहा कि उन्हें अपने क़बीले के ताव्वुन का यक़ीन दिला कर हुकूमत के ख़िलाफ़ मैदान में ला ख़ड़ा कर दे। चुनांचे उसने कहा , अफसोस है कि ख़िलाफत एक सस्ततरीन ख़ानदान में चली गयी। ख़ुदा की कसम अगर आप चाहें तो मैं मदीने की गलियो और कूचों को सवारों और प्यादों से भर दूं।

अमीरूल मोमेनीन अलै 0 के लिये यह इन्तेहाई नाज़ुक मरहला था क्योंकि आप पैग़म्बरे इस्लाम स 0 के सही वारिस व जानशीन थे और अबुसूफ़ियान ऐसा कूवत व क़बीले वाला शख्स आपके सामने खड़ा था जो हर तरह की मदद पर आमदा था। सिर्फ़ एक इशारा होता और मदीने में जंग के शोले भड़कने लगते मगर अली अलै 0 के तदब्बुर ने इस मौक़े पर मुसलमानों को फ़ितना व फ़साद और कुश्त व ख़ून से बचा लिया। आपकी दूर रस नज़रों ने फ़ौरन भांप लिया कि उसकी पेश कश में हमदर्दी व ख़ैर ख़्वाही का जज़बा नहीं है बल्कि यह क़बाएली तास्सुब और नसली इम्तेयाज़ को उभार कर मुसलमानों के दरमियान ख़ूरेज़ी कराना चाहता है ताकि इस्लाम में एक ऐसा ज़लज़ला आये और ख़ून का एक ऐसा धमाका हो जो इसकु बुनियादों को हिला कर रख दे। चुनानचे आपने इसकी तजवीज को ठुकराते हुए उसे झिड़क दिया और फ़रमायाः

“ ख़ुदा की कस्म! तुम्हारा मक़सद सिर्फ़ फ़ितना अंग्रेज़ी है। तुम ने हमेशा इस्लाम की बदख़्वाही की है। मुझे तुम्हारी हमदर्दी की ज़रुरत नहीं है। ”

इस मौक़े पर अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली अलै 0 की ख़ामोशी , मसलहत बीनी और दूर अन्देशी , उनकी असाबते फ़िक्री की आईनादार थी क्योंकि इन हालात में मदीना अगर मरकज़े जंग बन जाता तो यह आग पूरे अरब को अपने लपेटे में ले लेती और मुहाजेरीन व अन्सार में जिस रंजिश की इब्तेदा हो चुकी थी वह बढ़ कर अपनी इन्तेहा को पहुंच जाती। मुनाफ़ेक़ीन की रेशा दवानियाँ अपना काम करतीं और इस्लाम की कश्ती ऐसे गिरदाब में पड़ जाती कि फिर उसको संभालना मुश्किल हो जाता।

जब यह ख़बर आम हुई कि अबुसुफियान बनि हाशिम को हुकूमत के ख़िलाफ़ उभार रहा है तो अरबाबे हुकूमत ने उसे लालच के जाल में जकड़ कर ख़ामोश कर दिया और उमर ने हज़रत अबुबकर से कहाः

“ अबुसुफ़ियान कोई न कोई फ़ितना ज़रुर खड़ा करेगा। रसूलउल्लाह स 0 इस्लाम के लिये उसकी तालीफ़े क़लब फ़रमाते थे। लेहाज़ा जो सदक़ात उसके क़बज़े में है उसी को दे दिये जायें। चुनानचे अबुबकर ने ऐसा ही किया और अबुसुफियान ख़ामोश हो गया और उसने अबुबकर की बैयत कर ली। ”

अबुसुफ़यान को सिर्फ़ सदक़ात ही से नहीं नवाज़ा गया बल्कि इस बैयत के सिले में उसके बेटे माविया को शाम की इमारत भी दे दी गयी जो अमवी इक़तेदार के लिये संगे बुनियाद साबित हुई।

क़ज़िया फ़िदक

फ़िदक पैग़म्बरे इस्लाम स 0 की ज़ाती मिलकियत में था। जब आयत “ जुलकुरबा ” नाज़िल हुई तो आपने दस्तावेज़ के ज़रिये अपनी साहबज़ादी फ़ातेमा ज़हरा स 0 के नाम मुन्तक़िल कर दिया जो आंहज़रतस 0 की ज़िन्दगी तक उन्हीं के क़बज़े व तसर्रुफ़ में रहा लेकिन हज़रत अबुबकर ने तख़्ते हुकूमत पर मुत्मकिन होने के बाद इस जाएदाद को हुकूमत की तहवील में ले लिया। इस पर जनाबे सैय्यदा स 0 ने अपने हक़ का दावा किया और असबाते दावा में हज़रत अली अलै 0 व उम्मे ऐमन की गवाहियां पेश कीं लेकिन हज़रत अबुबकर ने दावा को मुस्तरिद करते हुए कहा कि ऐ दुख़्तरे रसूल स 0! दो मर्दों या एक मर्द और दो औरतों के बग़ैर गवाही काफ़ी नहीं होती। जनाबे सैय्यदा ने जब देखा कि हज़रत अली अलै 0 और उम्मे ऐमन की गवाहियों को न तमाम क़रार देकर रसूल उल्लाह स 0 के हिबनामे से इन्कार किया जा रहा है तो उन्होंने मीरास की बिना पर फ़िदक का मितालिबा किया। मक़सद यह था कि अगर तुम इसे हिबा तस्लीम नहीं करते तो न करो मगर इससे तो इन्कार नहीं कर सकते कि फ़िदक रसूल उल्लाह स 0 की ज़ाती मिलकियत था और मैं शरअन उनकी वारिस हूँ लेहाज़ा जाएदाद मुझे मिलना चाहिये। अबुबकर ने कहा , अमवाले रसूल स 0 में विरासत का निफ़ाज़ नहीं हो सकता क्योंकि रसूल उल्लाह स 0 खुद फ़रमा गये हैं कि “ हम गिरोह अम्बिया किसी को अपना वारिस नहीं बनाते बल्कि जो छो़ड़ जाते हैं वह सदक़ा होता है। ” उस पर जनाबे फ़ातेमा ज़हरा ने फ़रमाय “ क्या अल्लाह की किताब में यह है कि तुम अपने बाप की मीरास के हक़दार बनो और मैं अपने बाप के वुरसा से महरुम रहूँ ” ?

अबुबकर के इस ग़लत फैसले पर हज़रत फ़ातेमा ज़हरा स 0 को इतना सदमा हुआ कि आपने उनसे क़ता कलाम कर लिये और हमेशा उनसे नाराज़ व क़बीदा ख़ातिर रही। यह नाराजगी व बरहमी किसी हंगामी जज़बात का नतीजा न थी बल्कि दीनी एहसासात के तहत थी कि कुर्आन मजीद के अमूमी हुक्मे मीरास को पामाल और जिन्हें पैग़म्बर स 0 ने मुबाहिले में हक़ व सदाक़त का शहकार क़रार दिया था उनकी सदक़ बयानी को मजरुह किया गया था इसलिये इस रंज व मलाल ने इतना तूल खींचा कि मरते दम तक आपने अबुबकर से कलाम नहीं किया। इमाम बुख़ारी का बयान है किः

“ फ़ातेमा स 0 बिन्ते रसूल ने रसूल उल्लाह स 0 की वफ़ात के बाद अबुबकर से मुतालिब किया कि अल्लाह ने जो माल पैग़म्बरे अकरम को कुफ़्फार से लड़े बग़ैर दिलवाया था इसकी मीरास मुझे पहुंचती है , वह मुझे दिलवाया जाये। अबुबकर ने कहा रसूल उल्लाह स 0 फ़रमा गये हैं कि हम किसी को वारिस नहीं बनाते। इस पर फातेमा स 0 ग़ज़बनाक हुईं औऱ अबुबकर से मरते दम तक क़ता ताल्लुक किये रहीं। ”

अगर थोड़ी देर के लिये यह फ़र्ज़ कर लिया जाये कि फ़िदक न हिबा था न मौरुसी मिलकियत तो उसमें क्या मुज़ाएका थ कि अबुबकर क़राबते रसूल स 0 का पास व लिहाज़ करते हुए उसे फ़ातेमा स 0 के नाम कर देते जब कि हाकिम और वली अमर का यह हक़ तसलीम किया जाता है कि वह रियासत व मुम्लिकत के अमवाल व जाएदाद मे से जो चाहे और जिसे चाहे अपनी मर्ज़ी से दे सकता है। चनानचे मुहम्मदुल ख़ज़रमीं मिस्री तहरीर फ़रमाते हैं कि शरए इस्लमा हाकिम के लिये इस अमर से माने नहीं है कि वह मुसलमानों मे से जिसे चाहे अतिया दे औऱ जिसे चाहे न दे। चुनानचे ज़बीर बिन अवाम को अबुबकर ने वादी जरफ़ में जागीर दी और उमर ने भी वाली अक़ीक़ में जागीर अता की। उस्मान ने अपने दौर अक़तेदार में फ़िदक मरवान को दे दिया तो क्या अबुबकर जनाबे फ़ातेमा स 0 को फ़िदक बतौरे जागीर नहीं दे सकते थे ताकि उनकी नाराज़गी की नौबत ही न आती जब कि फ़ातेमा स 0 की नारज़गी की एहमियत पैग़म्बरे अकरम स 0 के इस इरशाद से उन पर ज़ाहिर थीः

“ ऐ फ़ातेमा स 0! अल्लाह तुम्हारे ग़ज़ब से ग़ज़बनाक और तुम्हारी ख़ुशनूदी से खुशनूद होता है। ”

इस अमर पर हैरत होती है कि किसी हुक्म शरई की बिना पर जनाबे फ़ातेमा ज़हरा का दावा मुस्तरिद किया गया जब कि आंहज़रत स 0 क़बज़ा दे कर हिबा की तक़मील कर चुके थे। अगर क़बज़ा न होता तो अबुबकर कह सकते थे कि चूंकि क़बज़ा नहीं हे लेहाज़ा यह हिबा नामुम्किन हैं और गवाहों को तलब किये बगैर दावा मुस्तरिद कर देते। गवाहों का तलब किया जाना ही इस बात की दलील है कि वह क़बज़ा तसलीम करते थे और चूंकि दलीले िमलकियत है इसलिये बरसबूत खुद अबुबकर पर था न कि दुख़्तरे रसूल स 0 पर। क्या मासूमा के बारे में यह शुब्हा हो सकता है कि वह फ़िदक की ख़ातिर ग़लत बयानी से काम लेंगी और इस चीज़ पर अपना हक़ ज़ाहिर करेंगी जिस पर उनका कोई हक़ न था जब कि उनकी रास्त गोई मुसल्लम है जैसा कि आयशा फ़रमाती है कि रसूल उल्लाह स 0 के अलावा मैंने किसी को भी फ़ातेमा से बढ़ कर रास्त गो नहीं पाया।

फिर जनाबे सैय्यदा स 0 ने जो गवाह पेश किये उनकी गवाही को नातमाम भी नहीं कहा जा सकता इसलिये कि रसूल उल्लाह स 0 एक गवाह और क़सम पर फै़सला कर दिया करते थे। अगर अबुबकर चाहते तो हज़रत अली अले 0 से क़सम लेकर जनाबे फ़ातेमा स 0 के हक़ में फैसला कर देते। कुतुब अहादीस में ऐसे वाक़ियात भी मिलते हैं जहां गवाहों की ज़रुरत ही महसूस नहीं की गयी और सिर्फ़ मद्दई की शख़्सियत को देखते हुए उसके दावा को दुरुस्त मान लिया गया या सिर्फ़ एक ही गवाह पर फैस़ला कर दिया गया। चुनानचे फ़रज़न्दाने सहीब ने जब मरवान की अदालत में दावा दायर किया कि रसूल उल्लाह स 0 उन्हें दो मकान और एक हुजरा दे गये थे तो मरवान ने कहा , इसका गवाह कौन है ? उन्होंने कहा , इब्ने उमर है। उसने इब्ने उमर को तलब किया औऱ उनकी शहादत पर फ़रज़न्दाने सीहब के हक़ में फैसला कर दिया।

इस मौक़े पर न इब्ने उमर की गवाही को न तमाम कहा गया और न उसके कुबूल करने में पस व पेश किया गया। तो क्या हज़रत अली अलै 0 का मर्तबा इब्ने उमर के बराबर भी न था जिनकी सच्चाई द सदाक़त हर दौर में शक व शुब्हे से बालातार थी। चुनानचे मामून अब्बसी ने एक मर्तबा उलमाये वक़्त को जमा करके उनसे दरियाफ़्त किया कि जिन लोगों ने फ़िदक के हिबा होने के बारे में गवाही दी है उनके मुतालिक़ तुम लोग क्या राय रखते हो ? सभी ने बएक ज़बान होकर कहा कि वह सादिक़ और रास्ता गो थे , उनकी सदाक़त पर कोई शुब्हा नहीं किया जा सकता। याकूबी का कहना है कि जब ओलाम ने उनकी सदक़ बयानी पर इत्तेफाक़ किया तो मामून ने फ़िदक औलादे फ़ातेमा स 0 के हवाले कर दिया और एक नविश्ता भी लिख दिया।

इस तरह जनाब सैय्यदा स 0 के दावेको मुस्तर्द करने का कोई जवाज़ न था इसलिये कि हज़रत अबुबकर ने जिस हदीस से अपने अमल की सेहत पर इस्तेदलाल किया वह कुर्आन के उमामात के सरीहन ख़िलाफ़ है। कुर्आन मजीद का वाज़ेह हुक्म है कि वले कुल्लिन जाअलना मवालेया मिम्मा तराकल वालेदेन वब अक़राबून “ जो तरका मां बाप और अक़रबा छोड़ जायें हम ने उनके वारिस क़रार दिये हैं। इस आयत की रु से तरकये रसूल स 0 को सदक़ा क़रार दे कर विरासत की नफ़ी का कोई जवाज़ नहीं। अगर अमवाले रसूल स 0 सदक़ा हो तो पैग़म्बर स 0 के लिये उन पर क़ब्ज़ा जाएज़ ही न था बल्कि जिस वक़्त उनकी मिल्कियत में आते हुज़ूरे अकरम स 0 उसी वक़्त उन्हें मिल्कियत से अलैहदा करके उनके असली हक़दारों के हवाले कर देते मगर आहंज़रत उन पर मालिकाना तौर पर क़ाबिज़ व मुतसरिफ़ रहे और अबुबकर को भी मिल्कियत से इन्कार न था। अगर इन्कार होतो तो हदीस ला नूरस का सहारा ढ़ूढ़ने के बजाये यह कहते कि फ़िदक रसूल उल्लाह स 0 की मिल्कियत ही कब था ? ज़ाहिर है कि मिल्कियत के बगै़र विरासत की नफ़ी एक बै मानी चीज़ है। जब पैगम्बर स 0 की मिल्कियत साबित है तो आयाते मीरास की रु से वारिसों का हक़ भी मुसल्लम होगा और यह हक़ किसी ऐसी हदीस की रु से साक़ित नहीं हो सकता जिसे अबुबकर के अलावा न किसी ने सुनी हो और न रिवायत की हो और न फ़िदक के अलावा ममलूकाते पैग़म्बर स 0 में कहीं इसका जि़क्र आया हो। हालांकि इस हदीस के अल्फ़ाज़ के उमूम का तक़ाज़ा यह था कि पैग़म्बर स 0 की तमाम मतरुका अशिया को भी अमूमी सदक़ा क़रार दिया जाता और मनकूल व ग़ैर मनकूला साज़ व सामान में कोई तफ़रीक़ न की जाती मगर मनकूला सामान व अशिया के बारे में पैग़म्बर स 0 के वारसान से कोई मुतालिबा नहीं किया जाता बल्कि सिर्फ़ फ़िदक ही को इस हदीस का मौरुद क़रार दिया जाता है। अगर यह तसलीम कर लिया जाये कि इस हदीस की निफ़ाज़ सिर्फ़ आराज़ी व ग़ैर मनकूला आशिया पर था तो अज़वाजे रसूल स 0 से उनके घरों को भी वापस लेना चाहिये था मगर उनसे वापसी का मुतालिबा तो दर किनार उनके मालिकाना हुकूक़ तसलीम किये जाते हैं। और इसी हक़ की बिना पर आयशा ने हुजरये रसूल स 0 में इमाम हसन अलै 0 को दफ़्न करने की इजाज़त नहीं दी और कहा कि “ यह मेरा घर है और मैं इजाज़त नहीं देती कि वह इसमें दफ़्न किये जायें। ”

इन वाज़ेह दलीलों और शहादतों के बाद हदीस की आड़ लेकर यह कहना कि अन्बिया का कोई वारिस नहीं होता हकाएक़ से चश्म पोशी और अमदन गुरेज़ करना है जब कि कुर्आन के मुक़ाबिले में फ़र्दे वाहिद की बयान करदा हदीस का कोई वज़न नहीं है और इस हदीस का वज़न ही क्या हो सकता है जिसकी सेहत से बिन्ते रसूल स 0 और वसीये रसूल स 0 ने इन्कार कर दिया हो। अगर जनाबे फ़ातेमा ज़हरा स 0 इस हदीस को हदीसे रसूल स 0 समझतीं तो कोई वजह नहीं थी कि वह अबुबकर से ग़ज़बनाक होतीं और अगर हज़रत अली अलै 0 ने इस हदीस को माना होता तो जनाबे सैय्यदा स 0 की हमनवाई करने के बजाये उन्हें इस बे महल नाराज़गी से मना करते बल्कि वाक़िआत से यह मालूम होता है कि अबुबकर ख़ुद भी इस हदीस की सेहत पर यक़ीन व एतमान नहीं रखते थे और उनके बाद आने वाले ख़ोलफ़ा ने भी इस की सहत को तसलीम नहीं किया। चुनानचे इब्तेदा में अबुबकर ने जनाबे फ़ातेमा स 0 का हक़ विरासत तसलीम करते हुए वागुज़ारी का परवाना भी लिख दिया था मगर उमर के दख़ल अन्दाज़ हो जाने पर उन्हें अपना फ़ैसला बदलना पड़ा जैसा कि अल्लामा मजलिसी ने तहरीर फरमाया हैः

“ अबुबकर ने जनाबे फ़ातेमा स 0 को फ़िदक की दस्तावेज़ लिख दी इतने में उमर आये और पूछा कि है क्यों है ? अबुबकर ने कहा कि मैं ने फ़ातेमा स 0 के लिये मीरास का वसीक़ा लिख दिया है जो उन्हेंबाप की तरफ़ से पहुंचती है। उमर ने कहा फिर मुसलमानों पर क्या सर्फ़ करोगे जब कि अहले अरब तुमसे जंग पर आमादा हैं और यह कह कर उमर ने वह तहरीर फ़ातेमा स 0 के हाथ से छीन कर चाक कर दी। ”

अगर अबुकर को इस हदीस की सेहत पर यक़ीन होता तो उसी वक़्त वह फ़िदक की वागज़ारी से साफ़ इन्कार कर देते , वसीका लिखने की नौबत ही न आती और उमर माने हुए तो इस बिना पर नहीं कि जनाबे सैय्यदा स 0 का दावा ग़लत है और अन्बिया का कोई वारिस नहीं होता बल्कि मुल्की ज़रुरियात और जंगी मसारिफ़ के पेश नज़र उन्होंने फ़िदक रोक लेने का ग़लत मशविरा दिया। अगर उभर के नज़दीक यह हदीस दुरुस्त होती तो वह यह कहते कि यह दावा बुनियादी दौर पर ग़लत है और फ़िदक देने का कोई जवाज़ नहीं है। इस मौक़े पर अगर चे उन्होंने दस्तावेज़ चाक की और फ़िदक देने में सद्देराह हुए मगर अबुबकर की पेश करदा वह हदीस से उनकी हमनुवाई जाहिर नहीं हुई। अगर इस हदीस को क़ाबिले वसूक़ व क़ाबिले एतमाद समझा गया होता तो फ़िदक किसी दौर में भी औलादे फातेमा स 0 को वापस ने दिया जाता। उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ ऐसा दूसरे ख़ुलफा ने उसके कमज़ोर पहलू ही को देखकर फ़िदक से दस्तब्रदारी का एलान किया होगा वरना उनका मुफ़ाद तो इसी में था कि इस हदीस की आ़ड़ लेकर इस पर अपना कब्ज़ा जमाये रखते जिस तरह बाज़ खुलफ़ा में इश हदीस का सहारा ले कर अपना कबज़ा बरकरार रखा था।

इरतेदाद व बग़ावत

ख़लिफ़ा हो जाने के बाद जब अबुबकर की ख़िलाफ़त की ख़बर मदीने के हदूद से निकल कर अतराफ़ व जवानिब में नशर हुई तो मुसलमानों के दरमियान ग़म व गुस्सा और नाराज़गी की एक आम लहर फैल गयी। तमाम क़बाएले अरब के दिलों में बेचैनी और ज़ेनहों में ऐसा तशवीश अंगेज इज़तेराब करवटे लेने लगा जिसने अनके एहसासात को मुतासिर करके उन्हें हुकूमत से अदमें ताव्वुन पर आमाद कर दिया। चुनानचे अरबों के कुछ क़बीले मुरतदीन के परचम तले भी जमा हो गये। हर तरफ़ से मुख़ालिफ़त के तूफ़ान उमडने लगे। इस शोरिश व हंगामे में बनी सक़ीफ़ औऱ कुरैश के अलावा अरब के तक़रीबन हर क़बीले शामिल हो गया जैसा कि इब्ने असीर का बयान है।

“ अहले अरब मुरत्तिद हो गये और सर ज़मीने अरब फ़ितना व फ़साद की आग से भड़क उठी। कुरैश औऱ बनी सक़ीफ़ के अलावा हर क़बीले तमाम का तमाम या इसमें का एक ख़ास गिरोह मुरतिद हो गया। ”

अबुबकर के दौर में जिन मुरतदीन ने सर उठाया उनके सरगोह पैग़म्बरे इस्लाम स 0 की ज़िन्दगी में ही मुरदित हो चुके थे। चुनानचे असवद अनसी , मुसलेमा कज़्जाब और तलीहा बिन ख़्वैलैद ने आंहज़रत स 0 के ज़मानये हयात ही में इस्लाम से नुनहरिफ़ होकर दावये नबूवत किया।

असवद अनसी आंहज़रत स 0 की ज़िन्दगी के आख़री दिनों में फ़िरोज़ दैलमी के हाथ से मारा गया। मसलेमा अबुबकर के दौर में लड़ता हुआ वहशी के हाथ के क़त्ल हुआ और तलीहा ने उमर के दौर में इस्लाम कुबूल कर लिया , इसी तरह अलक़मा बिन अलासा और सलमा बिन्तु मालिक ने पैग़म्बर के दौर में इरतेदार अख़तेयार किय और आंहज़रत स 0 के बाद लश्कर कशी की। अलबत्ता लक़ीत बिन मालिक पैग़म्बर स 0 के बाद मुरतिद हुआ और सजाह बिन्ते हारिस ने भी आप के बाद दावाये नबूवत किया। लक़ीत ने मुसलमानों से बुरी तरह शिकस्त खाई और सजाह मुसलेमा का ज़मीमा बन कर रह गयी और इससे निकाह करके उसने बक़िया ज़िन्दगी गुमनामी में गुज़ार दी। यहन थे वह मुरतदीन जिन्होंने अबुबकर के दौर में हंगामा अराई की और जिन क़बाएल को मुनकरीन ज़कात ने नाम से याद किया जाता है वह भी मद्दई याने नबूवत और उनके मुतबईन थे। चुनानचे हज़रत अबुबकर ने तलीहा के वाफ़िद ही के बारे में यह कहा था कि “ अगर उन्होंने इस रस्सी के देने से भी इन्कार किया जिससे ऊँट के पैर बांधे जाते हैं तो मैं उनसे जेहाद करुँगा। ”

यह इरतिदाद की फ़ितना पैग़म्बर की ज़िन्दगी ही में उठ खड़ा हुआ था और बाद में चन्द कबाएल भी इसी रौ में बह गये। लिकिन यह कहना कि पैगम्बर के बाद तमाम क़बाएल मुरतद हो गये न सिर्फ़ ख़िलाफ़े वाक़िआ है इस्लाम की सिदाक़त पर भरपूर हमला भी है। यह क़रीने क़यास बात ही नहीं है कि रसूले अकरम की वफ़ात के फ़़ौरन बाद यकबारगी तमाम क़बीले इस्लाम से मुनहरिफ़ होकर मुरतद हो जायें। क्या यह क़बैएल इस्लाम के फुतूहात और मुसलमानों की बढ़ती हुई ताक़त से मरऊब होकर इस्लाम लाये थे और पैग़म्बर की रिहलत से मरऊबियत का तास्सुर ख़त्म हो गया तो इस्लाम का तौक़ अपनी गरदनों से उतार फेंका ? इससे तो उन लोगों के नज़रिये को तक़वीयत हासिल होगी जो यह कहते हैं कि इस्लाम की इशाअत रसूले अकरम की पुरअम्न तबलीग़ का नतीजा न थी बल्कि अरबों को बरोज़े शमशीर मुसलमान बनाया गयी।

हक़ीक़त यह है कि बाज़ क़बाएल से जंग छे़ड़ने और उन्हें तहे तेग़ करने के लिये इरतिदादों बग़ावत का मुरतकिब क़रार दिया गया और उन क़बाएल को भी मुरतदीन में शुमार कर लिया गया जो अल्लाह की वहदनियत और रसूल कि रिसालत पर अक़ीदा रखते थे मगर हाकिमे वक़्त को बहैसियते ख़लीफ़-ए-रसूल तसलीम करने पर आमादा न थे। इसी जुर्म पादाश में उन्हें मुरतद और बाग़ी क़रार दे दिया गया और इस्लाम से ख़ारिज कर दिया गया। चुनानचे उमरो बिन हरीस ने ज़ैद बिने सईद से पूछा कि तुम रसूलुल्लाह की वफ़ात के मौक़े पर मौजूद थे ? कहा कि हाँ मैं मौजूद था। पूछा कि अबूबक्र की बैअत किस दिन हुई ? कहा उसी दिन जिस दिन रसूल की वफ़ात वाक़े हुई। पूछा किसी ने इख्तिलाफ़ तो नहीं किया ? कहा किसी ने इख़्तिलाफ़ तो नहीं किया मगर उसने जो मुरदत था या मुरतद होने वाला था।

यह जवाब उस अम्र का ग़म्माज़ है कि जिन्होंने हज़रत अबूबक्र की बैअत से इन्कार किया था उन्हें ज़हनी तौर पर मुरतद या मुरतद होने वाला क़रार दे लिया था हालाँकि इस इन्कारे बैअत के अलावा कोई और चीज़ नज़र नहीं आती जिससे उनका इरतिदाद साबित होता हो। जहाँ तक ज़कात रोक लेने का ताल्लुक है जो उन लोगों ने जब हज़रत अबूबक्र की ख़िलाफत ही को तसलीम नहीं किया तो उन्होंने ज़कात देने से भी इन्कार किया होगा। इस एतेबार से उन्हें मानेईने ज़कात तो कहा जा सकता है मगर मुरतदीन और मुनकरीन ज़कात कहने का कोई जवाज़ नहीं क्योंकि उन्होंने ज़कात तके वुजूब और उसकी मशऊरियत से इन्कार नहीं किया बल्कि वह हुकूमत को ज़कात देने से माने हुए। उसका वाजेह सबूत यह है कि वह नमाज़े पढ़ते थे और किसी ने उन पर तारिक्स्सलात का इल्ज़ाम आयद नहीं किया। अगर वह ज़कात के मुनकिर होते तो उन्हें नमाज़ का मुनकिर भी होना चाहिए था क्योंकि कुरान ए मजीद में बयासी मवाक़े पर नमाज़ और ज़कात का ज़िक्र एक साथ हुआ है और दोनों को यकसाँ अहम्मित दी गयी है तो फिर यह क्योंकर तसव्वुर किया जा सकता है कि वह नमाज़ के वुजूब का अक़ीदा रखते हुए ज़कात की मशऊरियत और उसके वुजूब से इन्कार कर देंगे।

अलबत्ता अगर वह ज़कात के वुजूब का इन्कार करते तो ज़रुरियात ए दीन में से एक अम्र ज़रुरु के इन्कार से उन पर हुक्म इरतिदाद आयद होता। मगर ज़कात रोक लेने और उसके हुकूमत की तहवील में न देने से उन्हें मुरतद नहीं कहा जा सकता बल्कि अगर वह सिरे से ज़कात ही न अदा करते और उस फ़रीज़ ए इलाही के तारिक होते जब भी उन पर कुछ ओ इरतिदाद का हुक्म नहीं लगाया जा सकता क्योंकि किसी अम्र वाजिब के तर्क होने से इरतिदाद लाज़िम नहीं आता और न उनसे जंग का जवाज़ पैदा होता है और उनका क़त्ल मुबाह हो सकता है। इसी बिना पर हज़रत अबूबक्र ने उन लोगों के ख़िलाफ़ क़दम उठाना चाहा तो सहाबा ने अबूबक्र की राय से इख्तिलाफ़ करते हुए इस इक़दाम की मुख़ालिफत की और हज़रत उमर ने भी वाज़ेह तौर पर कहाः

“ ऐ अबूबक्र ” तुम उनसे किन बिना पर जंग करोगे जब कि रसूलुल्लाह फ़रमा गये हैं कि मुझे लोगों से इस वक़्त तक जंग की इजाज़त दी गयी जब तक वह क़लम ए तौहीद नहीं पढ़ते। ”

मगर इस मौक़े पर न सहाबा के मुत्तफ़िक़ा फ़ैसले को क़ाबिले एतना समझा गया और न हज़रत उमर की बात मानी गयी बल्कि हज़रत अबूबक्र ने अपने मौक़फ़ पर बरक़रार रहते हुए ख़ालिद बिने वलीद को क़बाएले अरब पर तबाही ओ बरबादी के लिये मुसल्लत कर दिया। चुनानचे उन्होंने मालिक बिने नवीरा और उनके क़बीले बनी पर बू का क़त्ल आम करके तारीख़े इस्लाम में एक सियाह बाब का इज़ाफ़ा कर दिया और बिला इम्तियाज़ लोगों को मौत के घाट उतार दिया।

मालिक बिने नवीरा क़बील ए बनी यर बू के एक बलन्द पाया सरदार थे। मदीन ए मुनव्वरा मैं पैग़म्बर की ख़िदमत में हाज़िर होकर इस्लाम लाये और उन्हीं से आदाबे मज़हब ओ इहकामे शरीअत की तालीम हासिल की आँहज़रत ने उनकी ईमानदारी ओ दयानतदारी पर इतिमाद करते हुए उन्हें सदाक़त की वुसूली पर मामूर फ़रमाया था। यह पैग़म्बरे इस्लाम के आख़िरी ज़माने हयात तक सताक़त जमा करके भिजवाते रहे और जब आँहज़रत के इन्तिक़ाल की ख़बर मिली तो ज़कात की जमाआवरी से दस्तबरदार हो गये और अपने क़बीले वालों से कहा कि यह माल उस वक़्त महफूज़ रखो जब तक यह न मालूम हो जाये कि मुसलमानों का इक़तिदार क़ाबिले इत्मिनान हाथों में आया है।

उन्हीं दिनों में सज्जाह बिन्ते हारिन ने चार हज़ार का लश्कर इकट्ठा करके मदीने पर हमले का इरादा किया और जब वह लश्कर की क़यादत करते हुए बनी यरबू की बस्ती पर बताह के क़रीब जरवन के मुक़ाम पर पहुँची तो उसने मालिक बिन नवीरा को सुलह का पैग़ाम भेजा और उनसे तर्के जंग का मुआहिदा किया। इब्ने असीर का कहना है किः

“ सजाह ने हज़रत अबूबक्र से जंग का इरादा किया और मालिक बिने नवीरा को पैग़ाम भिजवाया और उनसे मसालिहात ओ तर्क जंग के मुआहिदे की ख़्वाहिश की जिसे मालिक ने कुबूल किया और उसे हज़रत अबूबक्र से जंग आज़मा होने से बाज़ रखा और बनी तमीम के क़बीलों पर हमलावर होने की तरग़ीब दी जिसे सजाह ने मंजूर किया। ”

उस वक़्ती मसालिहत और मुआहिद ए तर्क जंग को किसी तरह भी इरतिदाद या बग़ावत से ताबीर नहीं किया जा सकता क्योंकि इस मसालिहत और मुआहिदे से कोई ऐसी चीज़ ज़ाहिर नहीं होता जिसे इरतिदाद कहा जा सके बल्कि इस मुआहिदे सुलह में यह मसलिहत कारफ़रमा थी कि सजाह को ग़ैर मुस्लिम क़बाएल से जंग में उलझाकर इस्लाम के मरकज़े मदीने पर हमलावर होने से रोका जा सके। चुनानचे वह इस मसालिहत के ज़रीए उसे रोकने में कामयाब हो गये और उसका रुख़ बनी तमीम की तरफ़ मोड़कर उससे अलाहिदा हो गये। अगर उसे जुर्म क़रार दिया जाये तो तन्हा मालिक ही उसके मुजरिम नहीं बल्की वकी बिने मालिक भी जो उन्हें क़बाएल में ज़काएत की जमाअवरी पर मामूर थे इस मुआहिदे सुलह में शामिल थे लेकिन उनसे कोई मुवाख़िजा नहीं किया गया। सिर्फ़ मालिक और उनके क़बीले बिने यरबू को इधर-उधर मुनतशिर कर दिया था। ख़ालिद ने उनके तआकुब में लश्कर भेजा और उन्हें गिरफ़्तार करके लाया गया। अबू क़तादा अन्सारी ने जो ख़ालिद के लश्कर में शामिल थे , उन्हें असलहों से आरास्ता देख तो कहा , हम मुसलमान हैं , उन्होंने कहा हम भी मुसलमान हैं। कहा फिर यह हथियार तुम लोगों ने क्यों बाँध रखे हैं ? उन्होंने कहा , तुम क्यों हथियार लिये घूमते फिर रहे हो ? अबू क़तादा ने कहा , अगर तुम मुसलमान हो तो हथियार उतार दो। चुनानचे उन्होंने अपने हथियार उतार दिये और अबू क़तादा के साथ नमाज़ पढी।

बनी यरबू से हथियार उतरवाने के बाद मालिक को गरिफ़्तार करके ख़ालिद के सामने लाया गया।

मालिक की गिरफ़्तारी को सुन कर उनकी बीवी उम्मे तमीम बिन्ते मिन्हाल भी उनके पीछे बाहर निकल आई। याकूबी रक़म तराज़ हैं किः

“ उनकी बीवी उनके पीछे आई ख़ालिद ने उसे देखा तो वह उन्हें पसन्द गयी। ”

मालिक जो ख़ालिद के किरदार और उनकी तीनत व तबियत से वाक़िफ़ थे उन्हें इसके तेवर बदले हुए और ख़राब नज़र आये चुनान्चे वह समझ गये कि अब उन्हें रास्ते से हटा दिया जायेगा। अल्लामा इब्ने हजर का बयान है किः

“ जब ख़ालिद ने मालिक की बीवी को देखा जो हुस्न व जमाल न यक्ता थी तो मालिक ने उससे मुख़ातिब होकर कहा कि तूने मेरे क़त्ल का इन्तेज़ाम कर दिया है। ”

चुनान्चे ऐसा ही हुआ कि ख़ालिद ने एक बहाना तलाश कर लिया जिससे क़त्ल का जवाज़ पैदा कर लिया गया और वह यह कि गुफ़्तगू के दौरान मालिक की ज़बान एक दो बार यह जुमला निकला कि तुम्हारे साहब ने ऐसा किया वैसा किया।

इस पर ख़ालिद बिग़ड गये और उन्होंने कहा कि तुम उन्हें (अबूबकर को) बार बार हमारा साहब कहते हो , क्या तुम उन्हें अपना साहब नहीं मानते और साथ ही उन्होंने ज़रार बिन अज़वर को इशारा किया , उसने तलवार चलाई और मालिक का सर तन से जुदा हो गया। उसके बाद ख़लिद का लश्कर बनी यरबू पर टूट पड़ा और क़त्ले आम का सिलसिला शुरु हो गया। देखते ही देखते बारह सौ मुसलमान मौत के घाट उतार दिये गये और उनके कटे हुए सरों के चूल्हे बनाकर उन पर देगचियां चढ़ा दी गयीं।

इस क़त्ल व ग़ारत गरी और बरबरियत के बाद ख़ालिद ने मालिक की बीवी उम्मे तमीम से ज़िना की जिससे लश्कर में उनके ख़िलाफ़ आम नफ़रत की लहर पैदा हो गयी और अबु क़तादा अन्सारी इस वाक़िये से इतना मुतासिर हुए कि ख़ालिद का साथ छोड़ कर मदीने चले आये और अल्लाह की बाहगाह में यह अहद किया कि वह आइन्दा ख़ालिद के साथ किसी जंग में शरीक हीं होंगे।

अबुक़तादा की वापसी पर जब यह अफ़सोस नाक़ ख़बर मदीने में आम हुई तो अहले मदीना ने ख़ालिद पर लानत मलामत की और उमर भी बर-अफ़रोख़ता व बहरम हुए। चुनानचे जब ख़ालिब बिन वलीद पलट कर आये और फ़ातहाना अन्दाज़ में सर की पग़ड़ी में तीर आवेज़ा किये हुए शान व शौकत के साथ मस्जिदे नबवी में दाख़िल हुए तो हज़रत अबूबकर ने बढ़ कर उनका इस्तेक़बाल किया मगर उमर ने बढ़ कर उनकी पगड़ी से तीर खींच लिये और उन्हें तोड़ कर पैरों तले मसलते हुए कहाः

“ तूने एक मुसलमान को क़त्ल किया फिर उसकी बीवी के साथ ज़िना की , ख़ुदा की क़सम मैं तुझे संगसार किये बग़ैर नहीं रहूंगा। ”

उमर चाहते थे कि ख़ालिद को ज़िना के जुर्म में संगसार किया जाये या मालिक के क़सास में उन्हें क़त्ल किया जाये मगर अबुबकर ने यह कह कर टाल दिया कि ऐ उमर! इस के बारे में लब कुशाई न करो।

इसके बाद अबुबकर ने यह हुक्म दिया कि क़ैदियों को वापस कर दिया जाये और मालिक बिन नवीरा के बेगुनाह ख़ून की दैत बैतुल माल से अदा कर दी जाये।

इन वाकि़यात को देखने के बाद इस यक तरफ़ा जंग का जेहाद से ताबीर करना इस्लामी जेहाद के मफ़हूम को बदल देने के मुतारादिफ़ है। क्या इस्लाम इसकी इजाज़त देता है कि मुसलमानों को निहत्था करके उन्हें तये तेग़ कर दिया जाये , उनके काटे हुए सरों से चुल्हों का काम लिया जाये औऱ उनकी इज़्ज़त व हुरमत को पामाल किया जाये। यह इक़दाम न सिर्फ़ इस्लामी तालीमात के मनाफ़ी था बल्कि अबुबकर के हुक्म के ख़िलाफ़ भी था क्योंकि अबूबकर ने ख़ालिद को यह हिदायत दी थी कि अगर किसी बस्ती से अज़ान की आवाज़ सुनाई दे तो उस पर हमला न करना। मगर यहां अबुक़तादा अन्सारी , अब्दुल्लाह बिन उमर और दूसरे मुसलमान बनी यरबू को अज़ान व अक़ामत कहते और नमाज़े पढ़ते देखते हैं मगर उसके बावजूद उन्हें क़त्ल कर दिया जाता है।

इन्साफ़ का तक़ज़ा यह था कि ग़लत इक़दाम को ग़लत समझा जाता और एक फ़र्द के इक़दाम को हक़ ब-जानिब क़रार देने के लिये मुसलमानों की एक बड़ी तादाद पर इस्तेदाद का ज़ोर न दिया जाता। क्या किसी मुसलमान को मुरतिद क़रार देना कोई जुर्म नहीं है ? अगर ख़ालिद सहाबिये रसूल स 0 थे तो मालिक और उनके साथी भी जुमरए सहाबा में शामिल थे। यह बात तो आसानी से कह दी जाती है कि पैग़म्बर स 0 के वाद इरतेदाद आम हो गया और क़बीले के क़बीले मुरतिद हो गये मगर यह हक़ बात हके नाम से उनके सरों पर मुसल्लत किया गया था। रहा ज़कात की अदाएगी से इन्क़ार , जब उनकी नज़र में हुकूमत ही नाजाएज़ थी तो उसकी तहवील में ज़क़ात भी देते थे और इस्लामी एहकामात पर कारबन्द भी थे।

यह इस्लाम में पहला दिन था जब तावील का सहारा ले कर एक मुजरिम की जुर्म पोशी की गयी। फिर उसके बाद तो तावीलात के दरवाज़े खुल गये और हर जुर्म के लिये तावील की गुंजाइश निकाल ली गयी। चुनानचे तारीख़ में ऐसे वाक़ियात मिलते हैं जहां ख़ताये इजतेहादी की आड़ में हज़ारों मुसलमानों का ख़ून बहाया गया , सैक़ड़ो बस्तियां नज़रे आतिश कर दी गयीं और शहर के शहर उजाड़ दिये गये मगर किसी को हक़ नहीं था कि वह इसके ख़िलाफ़ ज़बान खोल सके क्योंकि यह तमाम हवादिस ख़ताये इजतेहादी की नतीजा था और ख़ताये इजतेहादी क़तई जुर्म नहीं है ख़्वाह नसे सरीह को पसे पुश्त डाल कर महरमात की इरतेकाब किया जाये या मुसलमानों के ख़ून से होली खेली जाये।

हैरत है कि हज़रत अबुबकर ने किसी उमूल के तहत ख़ालिद के जुर्म को तावील की ग़लती का नतीजा क़रार दिया या और उन्हीं मवाख़िज़ा से बाला तर समझ लिया। क्या क़त्ल मुस्लिम के अदमें जवाज़ में और बेवा के लिये इद्दा या कनीज़ के लिये इस्तेबराये के वजूब में अक़द व राये से तावील की गुंजाइश निकल सकीत है कि इस्लाम के सरही एहकाम की ख़िलाफ़वर्ज़ी को ख़ताये इजतेहादी क़रार दे दिया जाये और शरीयत को शख़्सी रुझाहानात और ज़ाती ख़्वाहिशात के ताबे कर दिया जाये। जुर्म बहरहाल जुर्म है।

मुस्लिमा क़ज़्ज़ाब

मुस्लिम बिन हबीब बनूं हनीफा से था। सन् 6 हिजरी या 10 हिजरी में अपनी क़ौम का नुमाइन्दा बन कर मदीने आया और पैग़म्बरे इस्लाम स 0 के हाथों पर मुसलमान हुआ। लेकिन जब वह पलट कर अपने वतन वापस गया तो वहां उसने अपनी कौम के लोगों से कहा कि मुहम्मद स 0 की मदद के लिये ख़ुदा ने मुझे भी मनसबे नबूवत पर फाएज़ कर दिया है। उसने यह दावा भी किया के मुझ पर वही नाज़िल होती है ओर इसके सुबूत ेमं एक फ़र्ज़ी कुर्आन भी मुरत्तब किया जिसकी जन्द आयतें बाज़ मोअर्रिख़ीन में रक़म की है जो लगूवियात , खुराफ़ात औऱ फह़शियात पर मुबनी है।

मुस्लिमा खुश इख़लाकी , नर्म गुफ़्तारी और शोबदाबाज़ी के फ़न में माहिर था। जो शख़्स उससे एक मर्तबा मिल लेते थे वह उसका गिरवीदा हो जाता था। यही सबब था कि उसने अपने एक मोतक़दीन पैदा कर लिये थे।

पैग़म्बरे इस्लाम स 0 ने अपनी ज़िन्दगी के आख़री अय्याम में उसकी सरकूबी के लिये लश्कर भेजने का इरादा किया था लेकिन बीमारी की वजह से आप मजबूर हो गये और उसे सर का मज़ीद का मौक़ा फ़राहम हो गया।

सन् 11 हिजरी में जब अबुबकर तख़्ते हुकूमत पर मुत्मकिन हुए तो उन्होंने मालिक बिन नवीरा के वाक़िे के बाद ख़ालिद बिन वलीद को बीस हज़ार के लश्कर के साथ उसकी सरकूबी को रवाना किया। मुस्लिमा ने चालीस हज़ार का लश्कर ले कर मुक़ाबिला किया। घमासान की जंग हुई जिसमें यह वहशी (क़ातिले हमज़ा) के हाथों ड़ेढ़ सौ साल की उम्र में मारा गया। यह जंग यमामा के क़रीब मुस्लिमा के हदीक़तुल रहमान से मुलहिक़ लड़ी गयी जो बाद में हदीक़तुल मौत के नाम से मशहूर हुआ। इब्ने ख़लदून के बयान के मुताबिक़ इस ख़ूंरेज जंग में मुस्लिमा के साथ इसके बीस हज़ार हमराही मारे गये और बाराह सौ या अट्ठारह सौ मुसलमान दरजये शहादत पर फ़ाएज़ हुए जिनमे व ओहद के जलीलुल क़दर सहाबा और सत्तर हाफ़िज़े कुर्आन भी शामिल हैं।

बनु हनीफ़ा की औरतों को क़ैद करके जब मदीने लाया गया तो उनमें खूला बिन्ते जाफ़र हनफ़िया भी थीं। जब उनके क़बीले वालों को उनकी असीरी का इल्म हुआ तो वह अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली अलै 0 की ख़िदमत में हाज़िर हुए और उनसे दरख्वास्त की कि वह उन्हें कनीज़ी के दाग़ से बया कर उनकी ख़ानदानी इज़्ज़त व शराफत को बरक़रार रखें। चुनानचे अमीरुल मोमनीन अलै 0 ने उन्हें खरीद कर आज़ाद किया और फिर बाद में उनसे अक़द फरमाया। उन्हीं के बतन से मुहम्मदे हनफिया अलै 0 की विलादत वाक़े हुई।

ख़ालिद बिन वलीद ने इस जंग के दौरान अपनी हवसकारी का मुज़ाहिरा किया और बनु हनीफ़ा के एक शख़्स मजाअ की बेटी से जो यमामा भर में सबसे ज़्यादा खुबसूरत और हसीन थी , ज़बरदस्ती अक़द कर लिया जिस पर मुसलमानों में सख़्त बरहमी पैदा हो गयी थी।

तबरी , इब्ने असीर और इब्ने ख़लदून वग़ैरा ने तहरीर किया है कि यह जंग सन् 11 हिजरी में हुई और इसके इख़तेमाम तक अरब की तमाम बग़ावते फ़ेरों कर दी गयीं थी मगर साहबे तारीख़े ख़मीस का कहना है कि ये जंग माहे रबीउल अव्वल सन् 12 हिजरी में लड़ी गयी। (वल्लाह आलम)

अहले हज़र मौत की बग़ावत-

पैग़म्बरे अकरम स 0 की वफ़ात के बाद अहले बहरीन , अहले अमान और अहल़े यमन की तरह अहले हज़रत मौत ने भी अबूबकर की ख़िलाफ़त को तसलीम करने से इन्कार किया और सदाक़त व ज़कात की रक़में बैतुल माल में जमां करने के बजाये अपने पास महफूज़ कर लीं।

अहले हज़रत मौत पर ज़कात की वसूली के लिये उस वक़्त ज़्याद बिन लबीद आमिल मुकर्रर थे। एक दिन उन्होंने यजीद बिन माविया-तुल-क़री नामी एक नौजवान को ऊँट जबरदस्ती सदाक़त से मौसूम करके गल्लए शुतराने बैतुलमाल मे शामिल कर लिया। यज़ीद ने ज्यादा से खुशामद बरामद की और कहा , यह ऊँट मुझे बहुत अज़ीज है लिहाज़ा इस के बदले आप दूसरा ऊँट मुझसे लेकर इसे मुझे वापस कर दे। ज्याद ने कहा , यह ऊँट अगर सदाक़त बैतुलमाल में दाख़िल हो चुका है लिहाज़ा हम इसे वापस नहीं करेगी। यज़ीद हारिस बिन राका के पास जो वहाँ के रईसों में थे , आया और इनसे सारा हाल बयान करने के बाद वह ऊँट मुझे दिलवा दीजिये , मैं उससे ज़्यादा क़ीमत का ऊँट देने को तैयार हूं। हारिस ने ज़्याद से सिफ़ारिश की कहा वह ऊँट इस नौजवान को वापस कर दो और उसकी जगह उस से दूसरा ऊँट लेलो लेकिन ज़्याद बिन न लबीद ने हारिस की सिफ़ारिश को ठुकरा दिया और ऊँट वापस करने से साफ इन्कार कर दिया। इस पर हारिस को गुस्सा आया वह इस नौजवान को लिये हुये ऊँटों के गल्ले में आये और इस तरह कह तुम अपना खोल लो और अगर तुमसे कोई मुज़ाहमत करेगा तो मैं तलवार से उस का भेजा बाहर निकाल दूँगा। इसके बाद ज़ियाद लबीद से उन्होंने कहा कि हम ख़ुदा के हुक्म से इस के नबी के ताबा दार फ़रमारबरदार थे। जब तक वह ज़िन्दा रहे हम उनकी इताआत करते रहे , अब इनका इन्तेका़ल हो चुका है। अगर उनके अहलेबैत में से कोई इनको जानशीन होगा तो हम उसकी इताअत करेंगे पिसर अबूक़हाफ़ा को हम पर हकूमत करने का कोई हक़ नहीं है और न हम इससे कोई वास्ता व सरोकार रखना चाहते हैं। इसके बाद हारिस ने चन्द शेर पढ़े जिसमें उन्होंने ख़ानवादे रिसालत से अपनी कुरबत औऱ हज़रत अबूबकर से बरायत व बेज़ारी का इज़हार किया।

ज़ियाद उन शेरों को सुन कर इस क़दर खाएफ़ हुये कि वहां से भाग निकले। बनी जुबैद मे आये , उन से बात चीत हुई उन्होंने कहा , महाजरीन व अन्सार ने मिल कर हक़दारों से उनका हक छीन लिया। बख़ुदा रसूल अल्लाह इस वक़्त तक दुनिया से नहीं गए जब तक उन्होंने अपने जानशीन का ऐलान नहीं कर दिया। ऐ ज़ियाद तुम यहां से भाग जाओ क़ब्ल इस के हम तुम्हारी गरदन मारदे। ग़रज़ के जिस जिस क़बीले में ज़्यादा गये सभी ने यही जवाब दिया। आख़िर कार भाग कर दरबारे ख़िलाफ़त में पहुँचे और अबुबकर से मिलकर सारी दास्तान उन्हें सुनवाई। हज़रत अबूबकर ने चार हज़ार लश्कर ज़ियाद बिन लबीद को दे कर उन्हें फिर हज़र मौत की तरफ रवाना कर दिया। काफी दिनों तक जंग होती रही मगर जब कामयाबी की सूरत नज़र न आयी तो अबूबकर ने अकरमा बिन अबूजहल औऱ मुहाजिर बिन उमय्या को कुछ फौज़ दे कर ज़्याद की मदद के लिये रवाना किया। इन लोगों ने मिलकर अहले हज़र मौत को शिकस्त दी। हज़र मौत के साथ सौ अफ़राद क़त्ल हुये। इशात बिन क़ैस कुन्दी जो वहां का रास व रईस था , मुक़ामे महजरुल ज़बरक़ान से शिकस्त खा कर भागा और एक क़िला में महसूर हो गया। आख़िरकार किला भी फतेह हुआ और वह वहां से गिरफ़्तार हो कर दीगर क़ैदियों के साथ हज़रत अबुबकर के रु-बरी पेश हुआ। उसने माज़रत के साथ इस्लाम की तजदीद कर ली। हालांकि हज़रत उमर का इसरार था कि उसे क़त्ल कर दिया जाये मगर हज़रत अबूबकर न सिर्फ़ इसकी जान बख़्शी की बल्कि उन्होंने अपनी बहिन उम्मे फ़रवा को भी उसके हवाले कर के दोबारा बनी कन्दा का सरदार बना दिया , अशअस और उम्मे फ़रवा से एक बेटी जादा और तीन बेटे मुहम्मद , इसहाक़ और इस्माईल पैदा हुए। जादा बिन्ते असाअस बाद में इमाम हसन अ 0 के अक़्द मे आई और उसने माविया से सोज़ बाज़ करके आपको ज़हर दे दिया। मोहम्मद बिन अशअस मारकए करबला में उमरे साद के साथ था जो बाद में जनाब मुख़्तार की तलवार से क़त्ल हुआ।

अहले तहामा की बग़ावत

तहामा हिजाज़ का वह हिस्सा है जो मक्का औऱ तायफ़ को अपने दामन में समेटता हुआ समन्दर के किनारे नज्द तक फैला हुआ है। चुनानचे मक्का और तायफ़ के अलावा तहामा के दिगर शहरों के लोगों ने अबूबकर की नई हुकूमत को तस्ली म नहीं किया और सरकशी व सर ताबी पर उतर आये। इसी शोरिश को दबाने और शोरिश फ़रो करने के लिये हज़रत अबूबकर ने बनी क़ज़ाआ पर उमर आस को , तायफ़ के नवाह में माअन बिन हाजज़ा को और तहामा के जुनूबी हिस्सा में स्वीद बिन मक़रान को फ़ौजें दे कर रवाना किया। अहले तायाफ़ ने भी इनकी मदद की। चुनाचे चन्द झड़पो के बाद बगावत फ़रो हो गयी और अमन व अमान क़ायम हो गया।

जम-ऐ-कुरान

कुरान की जो आयते नाज़िल होती थी रसूल अकरम उन्हें लिखवा लिया करते थे और जो मुसलमान लिखना पढ़ना नहीं जानते थे वह भी अपने तौर पर लिख लिया करते थे। इस के अलावा आपन हज़रत ना़ज़िल शुदा आयतें लोगों को हिफ़्ज़ भी करा दिया करते थे। अक़रम मख़जूमी के मकान पर आप ने एक तिलाबवत ख़ाना भी खोल रखा था जहा मुसलमान जमा हो कर तिलावत किया करते थे। कभी कभी आप खुद भी कुरान पढ़कर सुनाते थे और लोगों से सुनते भी थे। जब आप मक्के से हिजरत कर के वारिदे मदीना हुये तो अहले सफ़ा की एक ज़मात को 80 आदमियों पर मुश्तमिल थी , आप ने कुरआन याद करने और लोगों को याद कराने पर मामूर फ़रमाया।

अबदुल्ला बिन मसूद को आनहज़रत ख़ुद कुरान हुफ़्ज करते थे क्योंकि उनकी क़िराअत और खुश अलहानी आप को पसन्द थी। हज़रत अली को उन तमाम लोगों पर फ़ौकि़यत और अप़ज़लियत हासिल थी जिन्हें कुरआन हिफ़्ज़ था और इब्तेदा ही से वह तनज़ील के मुताबिक उसे तहरीर करते जाते थे। इसी तरह माज़बीन जबील , अबुलदरदा , अबू अयूब अन्सारी , बतौर खुद अपने अपने पास कुरआन लिख कर रखा था। गरज पूरा कुरान आनहज़रात की हयात में ही मुतफ़र्रिक तौर पर मुतआददिद सहाबा के पास लिखा हुआ मौजूद था और सैक़ड़ो लोगों की ज़बानी भी याद था। अल्लामा सियोती ने तारीख़े खुलफ़ा में लिखा है कि हज़रत अली ने तनज़ील के मुताबिक़ पूरा कुरआन तहरीरी शक्ल मे जमा करके रसूल की ख़िदमत मे पेश किया। न जाने उम्मत ने उसे क्यों नहीं कुबूल किया और खुलफ़ा दूसरी तरतीब के दरपै हुये।

उन रिवायतों से पता चलता है कि कूरआन की तमाम आयतें आनहज़रत की ज़िन्दगी में ही ज़ाब्तए तहरीर में आ चुकी थी मगर हज़रत अली के आलावा किताबों की शक्ल में किसी के पास मुकम्मल कुरआन नहीं था। मुमकिन है इसका सबब यह रहा हो कि उस ज़माने में फन किताबत हक़र समझा जाता था इसलिये लोगों को इस से रग़बत भी न थी , दूसरे ये कि जो लोग पढ़े लिखे होतो थे और इस काम को तकमील तक पहुँचाने की सलाहियत व अहलियत रखते थे उन्हें सामाने किताबत मयस्सर नहीं था। चुनानचे जिन लोगों नें कुर्आन लिख कर रखा ता उनके कुर्आन की कैफ़ियत वह थी कि किसी ने खजूर के पत्तों पर लिख रखा था , किसी ने लक़ड़ी की तख्तियों पर , किसी ने पत्थरों पर , किसी ने बारीक चमड़े और किसी ने ऊँट की हड्डियाँ और पस्लियाँ पर। ग़र्ज़ कि कुर्आन ऐसी हालत में न था कि उसके बक़ा और दवाम की उम्मीद की जा सकती।

रसूल उल्लाह स 0 की रेहलत के एकसाल कुछ माह बाद जंगे यमामा शुरु हुई जिसमें सत्तर हाफिज़े कुर्अान क़त्ल कर दिये गये। इस सानिहे के बाद हज़रत अबुबकर से उमर ने फ़रमाया कि अगर तन्हा हुफ़्फाज़ पर कुर्आन के तहफ़्फुज़ का इनहेसार किया गया और जंगे यमामा की तरह दीगर जंगों में भी हाफ़िज़ क़त्ल होते रहे तो कुर्आन की बक़ा का मसला पेचीदा हो जायेगा और उसमें कमी वाक़ेय हो जाने का एहतेमाल रहेगा , इसिलये कुर्आन लिखवा कर जमा करा देना चाहिये। तमाम साहाबा ने उमर की इस तजवीज़ से इत्तेफाक़ किया। चुनानचे अबुबकर ने ज़ैद बिन साबित को इस काम की तकमील का ज़िम्मेदार क़रार दिया और कुछ लोगों को उनका मददगार बनाया। गर्ज़ कि उन्होंने चमड़ों , तख़्तियों , हड्डियों और खजूर के पततों पर लिखे हुए मुन्तशिर व मुताफ़र्रिक़ कुर्आन के पहले यकजां किया। फिर लोगों के दिलों और सीनों से अख़ज़ किया और बड़ी तहक़ीक़ व जुस्तजू के बाद इन्तेहाई सेहत व एहतियात के साथ एक मरकज़ पर जमा कर दिया। यह कुर्आन ख़त कूफ़ी में क़िरतास पर लिखा गया जिसका नुसख़ा किताब की सूरत में अबुबकर के पास रहा। उनके इन्तेक़ाल के बाद उमर के इन्तेक़ाल के बाद उनकी बेटी हज़रत हफ़सा के हाथ आया।

चूंकि अहदे ख़ोलफ़ये सलासा में मुसलसल फ़तुहात ने इस्लाम को दूर दराज़ मुमालिक और इलाकों में पहुंचा दिया था इस िलये ज़बान के अन्दाज़ा होना एक लाज़मी अमर था जिसे जंगी मुहिम्मत के दौरान उस्मान के दौर में उनके आलिमों और सरदानों ने महसूस किया और हुज़ीफ़ा यमानी ने हज़रत उस्मान को यह मशविरा दिया कि हफ़सा के पास कुर्आन का जो नुसख़ा है उसे नक़ल करा के तमाम मुमालिक में उसे मुशतहिर कर दिया जाये। उस्मान ने इस काम के लिये एक चार रुकनी कमेटी तशकील दी और उसमें ज़ैद बिन साबित , अब्दुल्लाह बिन ज़बीर , सईद बिन इलियास और अब्दुल्लाह बिन हारिस को नामज़द करके ज़ैद बिन साबित को इसका इनचार्ज बनाया और उन्हें हु्क्म दिया कि कुर्आन का ऐसा मेयारी नुसख़ा मुर्त्तब किया जाये जिसकी बुनियाद कुरैश की क़सात पर हो।

इस कमेटी ने हफ़सा के पास जो नुसखा महफूज़ था उसे नीज़ दीगर हुफ़्फ़ाज़ की दी हुई आयतों से दोबारा तक़ाबुल और छान बीन करके तहक़ीक़ व तजस्सुस के बाद सात नुसख़े तैयार किये और उन्हें इराक़ व शाम , मिस्र और दीगर बलादे इस्लामिया में भिजवा दिये। यह तो तारीख़ की बातें हैं। अब इस मौक़े पर जमा कुर्आन कमेटी के बा-सलाहियत मिम्बरान के हालात और सिन व साल का जाएज़ा भी ज़रुरी है।

(1) ज़ैद बिन साबितः- ज़ैद में कुर्आन जमा करने की अहलियत व सलाहियत क़तई नहीं थी। वह इस काम को पहाड़ के सरकाने से भी ज़्यादा मुश्किल समझते थे। सन् 9 हिजरी में उनकी उम्र ग्यारह साल की थी , जमा कुर्आन का काम सन् 11 हिजरी में जंगे समामा के बाद शुरु हुआ , बिन मुस्लिम आमिश ने रवायत की है कि जब हज़रत ज़ैद बिन साबित को कुर्आन की तदवीन का हुक्म दिया तो अब्दुल्लाह बिन मसऊद ने मुसलमानों के रुबरु एक ख़ुतबा दिया जिसमें उन्होंने कहा कि उसमान मुझे हुक्म देते हैं कि मैं कुर्आन को ज़ैद बिन साबित की क़रात के मुताबिक पढ़ूं। ख़ुदा की क़सम जब मैंने रसूल ख़ुदा स 0 से सत्तर सूरतें अखज़ की तो उस वक्त ज़ैद बच्चों के साथ खेला करता था।

1 एक दिन उमर बिन ख़त्ताब ज़ैद बिन साबित के पास आये। ज़ैद उस वक़्त अपन कनीज़ के सर में कंघी करा रहे थे , उमर को देखा तो सर खींच लिया और कहा , आपने क्यों ज़हमत की , मुझे बुलवा लेते और मैं खुद हाज़िर हो जाता। इस पर उमर ने कहा , यह वही नहीं है कि तुम इसमें कमी या ज़्यादती करो , यह एक राये व मशविरे की बात है , अगर मवाफ़िक़त करो तो बेहतर है वरना कुछ नहीं। ज़ैद ने इन्कार किया तो उमर ख़फ़ा होकर चले गये।

आख़ेरुल ज़िक्र रवायत से पता चलता है कि ज़ैद बिन साबित “ वही ” के मामले में कमी और ज़्यादती करते थे और तारीख़ी अबुल फ़िदा से इस अमर की निशान देही भी होती है कि उमर कुर्आन की कुछ आयतों में तरमीम व तनसीख़ चाहते थे जिसे ज़ैद ने नामंज़ूर कर दिया।

2 अब्दुल्लाह बिन ज़बीर- यह अबुबकर के नवासे थे। सन् 2 हिजरी में पैदा हुए , जमा कुर्आन के वक़्त उसमान के दौर में इनकी उम्र 23 साल की थी।

3 साद बिन आस- यह बनी उमय्या से थेश सन् 9 हिजरी में पैदा हुए , उस वक़्त उनकी उम्र 22 साल की थी। अब्दुल्लाह बिन मसूद के क़ौल नीज़ दीगर रवायतों से साबित है कि जमा कुर्आन कमेटी के अऱाकीन ज़ैद बिन साबित , अब्दुल्लाह बिन ज़बीर और सईद बिन आस की उम्र उस वक्त 22 साल और 24 साल के दरमियान थीं। अब्दुल्लाह बिन मसूद जिन्होंने रसूले अकरम स 0 से बराहे रास्त सत्तर सूरतें अख़िज़ की थीं , उनकी मौजूदगी में नौखे़ज़ , नो उम्र और न अहल लौंडों को कुर्आन जमा करने का अहम और मोहतात काम सुपुर्द करना इन्तेहाई हैरत अंगेज़ व ताज्जुब से ख़ेज़ बात है।

हज़रत अली अलै 0 ऐसी मुफ़स्सिर और मुदब्बिर शख़्सियत भी मौजूद थीं। तदवीन का काम उन्हें क्यों नहीं सुपुर्द किया गया या जमा कुर्आन कमेंटी का ज़िम्मेदार उन्हें क्यों नहीं क़रार दिया गया था उनका जमा करदा कुर्आन क्यों नहीं तलब किया गया ? इन तमाम बातों की तह में आले रसूल स 0 बिलख़ुसूस हज़रत अली अलै 0 से बुगज़ व अनाद का जज़बा कार फ़रमा नज़र आते हैं। अगर आप का जमा करदा कुर्आन कुबूल करके नाफ़िज कर दिया जाता तो इस्लाम की तबाही व बर्बादी का मनसूबा इब्तेदा ही में दम तोड़ देता। अस्ल मक़सद तो इस्लाम में तफ़रीक़ व इन्तिशार पैदा करना था और पैग़म्बर इस्लाम स 0 अपनी ज़िन्दगी ही में फरमां चुके थे मेरे बाद इस्लाम में तिहत्तर फि़र्क़े हो जायेंगे। आपकी रेहलत के बाद अहलेबैत अलै 0 पर हुकूमते वक़्त की मुक़तदिर हस्तियों ने जो इन्सानियत सोज़ मज़ालिम तोड़े उनसे तारीख़ के औराक़ पुर हैं।

अगर हज़रत अली अलै 0 का कुर्आन कुबूल कर लिया जाता तो मज़ीद किसी तफ़सीर की ज़रुरत लाहक़ न होती और न मदनी आयतें मक्की आयतों में न मक्की आयतें मदनी आयतों में ख़िल्त मिल्त होती। इसके अलावा नासिख़ व मनसूख़ आयतों की तमीज़ में भी दुश्वारी नहीं होती। कमसिन और न अहल लोगों के ज़िम्मे यह अहम काम सुपुर्द करने का नतीजा यह हुआ कि बलहिज़े तरतीबे नज़ूल आयतों को मुत्तर्ब न किया जा सका।

हज़रत अली अलै 0 ने रसूल उल्लाह स 0 की ज़बाने मुबारक हर आयत की तफ़सीर जिस तरह सुनी थी उसी तरह आपने अपने कुर्आन के हाशियें पर मरकूम कर दी थी। इसको तर्क कर देने से हर कस व ना कस को यह मौक़ा मिला कि वह अपने क़यास पर तफ़सीर करे। यही वजह है कि एक मुफ़स्सिर की तफ़सीर दूसरे मुफ़स्सिर से नहीं मिलती। इसकाम का अंजाम यह हुआ कि अक़ीदे बदले और तिहत्तर फ़िर्के आलमें वजूद में आ गये। क्या इस्लाम में इस अमल की ज़िम्मेदारी उन ख़ोलफ़ा पर आएद नहीं होती जो हज़रत अली अलै 0 से कुर्आन न तलब करने या हज़रत अली अलै 0 के कुर्आन को मुस्तरद करने के ज़िम्मेदार हैं।

हज़रत अबुबकर औऱ उस्मान के इस कारेख़ैर का सबसे बड़ा तारीक़ पहलू यह है कि हज़रत हफ़सा के कुर्आन के अलावा चारों तरफ से तमाम कुर्आनी नुसखे इकट्ठा करा के उनमें आग लगवा दी गयी और वह जलकर ख़ाक सियाह हो गये। अब्दुल्लाह बिन मसूल ने अपना कुर्आन जब हज़रत उस्मान के हवाले से इन्कार किया तो उन्हें बुरी तरह मारा पीटा गया और उनसे ज़बरदस्ती वह नुस्खा छीन कर नज़रे आतिश कर दिया गया।

फ़तूहाते इराक़

पहली सदी हिज़री में इराक़ का जुग़राफियाई पस मंज़र यह था कि अरब की शुमाली औऱ मशरिकी सरहदों से ईरान की सलतनत शुरु होती थी जिसका दारुल सलतनत मदायन था जो बग़दाद से क़रीब दरियाये दजला पर वाक़े था। दरियाये फुरात के दाहिने किनारे पर शहर हीरात आबाद था यह शहर अरब के मशहूर ख़ानदान मंज़र का पायए तख़्त था। जो छः बरस से ईरान पर हु्क्मरानी कर रहा था और कुछ अर्से से शहाने ईरान का बाजगज़ार हो गया था और ममलेकते ईरान का एक जुज़ समझा जाता था। बाबुल औऱ कलीदिया के क़दीम इलाक़े भी इसमें शामिल थे। चनानचे उस वक़्त इराक़ के मशरिक़ में ख़जिस्तान , इसरा और कलीदिया का कोहिस्तान , शुमाल में मेसोपोटामियां (अल जरीरा) का हिस्सा , मग़रिब और जुनूब में शाम और एक हिस्सा अरब का था और यही इराक़ का हुदूदे अरबा कहलाता था दजला और फुरात के दरमियान जो दोआबा था उसका निचला हिस्सा “ इराक अरब ” और ऊपरी हिस्सा “ अलजज़ाएर ” या “ जज़ीरतुल अरब ” के नाम से मौसूम था। मुसलमानों के हमले के वक़्त ईरान की हुकूमत में “ इराक़ अरब ” मेसोपोटामिया , फ़ारस , क़िरमान , माज़िन्दरान , ख़रासान और बलख़ शामिल थे जिसकी वजह से ईरान की सरहद तातार और हिन्दुस्तान से मिलती थी मगर इन इलाक़ों में ख़ाना जंगी की वजह से कमज़ोरी , शिकस्तगी और पज़ मुर्दगी के आसार पैदा हो गये थे। इराक़ का हाकिम मंज़र बिन नोमान मर चुका था और उसकी जगह अयाज़ बिन क़बसिया ताई हाकिम था। इस कमज़ोरी को देख कर “ इराक़ अरब ” में क़बीला वाएल के दो सरदारों मुसन्ना बिन हारिस और सुवैद अजली ने थोड़ा बहुत लश्कर इकट्ठा करके “ हीरा ” और “ अबला ” पर हमला करके वहां अपनी हुकूमत क़ायम करने की कोशिश की मगर चन्द ही दिनों में उन्हें यक़ीन हो गया कि किसी बैरूनी के बग़ैर कामयाबी मुम्किन नहीं है चुनानचे चारों तरफ़ नज़र के घोड़े दौड़ाये मगर उन दिलेर हाथों के सिवा जिन्होंने बहुत ही कम अर्से में तमाम अरब पर अपना तसल्लुत जमा लिया था , कोई पुश्त पनाह नज़र न आया इस लिये मसना बिन हारिस हज़रत अबुबकर के पास आकर मुसलमान हुआ और उनसे फ़ौजी इमदाद लेकर अपने इलाक़े की तरफ़ चल ख़डा हुआ। मगर तमाम तर कोशिशों के बावजूद वह कूफ़े से आगे न बढ़ सका तो हज़रत अबूबकर ने ख़ालिद बिन वलीद के लिये “ इराक़ अरब ” का मैदान तजवीज़ किया। चुनानचे महर्रम सन् 12 हिजरी (सन् 633) में उन्होंने एक तरफ़ तो ख़ालिद बिन वलीद को इराक़ जाने का हुक्म दिया और दूसरी तरफ़ अयाज़ बिनग़नम को दूमतुलजन्दल के रास्ते रवाना किया और उसे यह हिदायत की कि वह इसी रास्ते से जाकर ख़ालिद बिन वलीद से मिल जाये।