तारीखे इस्लाम भाग 3

तारीखे इस्लाम भाग 30%

तारीखे इस्लाम भाग 3 लेखक:
कैटिगिरी: इतिहासिक कथाऐ

तारीखे इस्लाम भाग 3

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: जनाब फरोग़ काज़मी साहब
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तारीखे इस्लाम भाग 3

तारीखे इस्लाम भाग 3

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

हीरा पर हमला

ख़ालिद बिन वलीद मंजिले तय करते हुए नवाज के मुक़ाम पर मुसना से मिले और “ सवाद ” के हाकिम इब्ने सलूबा को मुतबा करते हुए हीरा पहुंचे और दस हज़ार आदमियों से शहर का मुहासिरा कर लिया। हीरा में दो शाही महल “ क़सरे ख़ूरनिक़ ” और “ क़सरे अबीज़ ” जो इनतेहाई शानदार थे , उनको ताराज व मिस्मार किया। हाकिम हीरा “ अयास ” ने मग़लूब हो कर सुलह कर ली और जज़िया देना कुबूल किया। हाकिमे हीरा पर दस हज़ार और अहले हीरा पर 60 हज़ार दिरहम जज़िया मुक़र्रर हुआ। यह पहल जज़िया है जो मुसलमानों की तरफ से ग़ैर मुल्क पर आएद हुआ।

फ़तहे उबल्ला

हीरा का मार्का सर करने के बाद ख़ालिद ने 18 हज़ार की फ़ौज लेकर उबल्ला पर चढ़ाई की जिसमें मुसना की आठ हज़ार फ़ौज भी शामिल थी। उबल्ला के ईरानी गवर्नर हरमिज़ ने शहंशाई ईरान को इस हमला की इत्तेला देते हुए फ़ौरी तौर पर कुमक बहम पहुंचाये जाने का मुतालिबा किया और ख़ुद उसने ईला के क़रीब ख़ालिद से मुक़ाबिला किया और मारा गया इसका ताज जो एक लाख की मालियत का था और हाथी ख़लीफ़ के पास मदीने भेज दिया गया। बाक़ी माल फ़ौज़ में तक़सीम कर दिया गया।

जंगे मज़ार

“ उबल्ला ” की जंग में काम आने से पहले “ हरमीज़ ” ने शहंशाहे ईरान से मदद तलब की थी जिस पर शाह ईरान ने हवाज़ के गवर्नर क़ारन को पचास ह़ार की जमीयत दे कर रवाना किया था। चुनानचे इस फ़ौज ने नहर मुसना के किनारे मज़ार के मुक़ाम पर पड़ाद डाल रखा था। जब ख़ालिद का लश्कर वहां पहुंचा तो घमासान की जंग हुई। क़ारन के साथ तीस हज़ार ईरानी मारे गये , बहुत से असीर हुए। उन्हीं असीरों में हसन बसरी का बाप हबीब भी था जो नसरानी था। जो माले ग़नीमत हाथ आया उमें से ख़ुम्स का हिस्सा दरबारे ख़िलाफ़त में भेजा गया और बक़िया लश्करियों में तक़सीम हो गया।

जंगे वलजा

मज़ार में क़ारन की शिकस्त के बाद शाहे ईरान ने एक और नेबर्द आज़मां सूरमां को जो अपनी बहादुरी की वजह से “ हज़ार मर्द ” के नाम से मशहूर था , पचास हज़ार की सिपाह के साथ ख़ालिद के मुक़ाबिले को भेजा। माहे सफ़र सन् 12 हिजरी में कसकर और हीरा के दरमियान “ वजला ’ के मुक़ाम पर मुडभेड हुई और बीस दिन तक मारका आराई जारी रहा। आख़िरकार “ हज़ार मर्द ” मारा गया और मुसलमानों को फ़तेह हासिल हुई। इस जंग में मज़ार से भी ज़्यादा ईरानी मारे गये। इस फ़तहयाबी के बाद इराक़ अरब का बड़ा हिस्सा मुसलमानों के ज़ेरे तसल्लुत आ चुका था इसिलये ख़ालिद ने जाबजा अपने आमिल मुक़र्रर कर दिये।

जंगे उल्लीस

जंगे वलजा के बाद ख़ालिद अपनी फौज़ लेकर उल्लीस की तरफ़ बढ़ा। शाह ईरान ने बहमन जादू को जो उस वक़्त मक़शिनासा में था , मुक़ाबिले के लिये लिखा। उसने जाबान नामी अपने एक सरदार को रवाना कर दिया और कहा कि मैं भी बादशाह से मशविरा करके आता हूँ। जाबान एक लश्कर कसीर ले कर उल्लीस पहुंच गया। इधर शाहे ईरान की अलालत की वजह से बहमन को तवक्कुफ़ करना पड़ा और इधर जाबान और ख़ालिद में मुडभेड़ हो गयी। दोनो तरफ़ से ऐसी तलवारें चलीं कि खू़ की नदियां बहने लगी। आखिर कार मैदान मुसलमानों ही के हाथ रहा। यह लड़ाई हज़ार बतायी है। इसके बाद ख़ालिद ने इमगेशिया को तबाह व बर्बाद किया। माले ग़नीमत जब दरबारे ख़िलाफत में पहुंचा तो अबुबकर ने फ़रमाया कि “ औरतें ख़ालिद जैसा पैदा करने से क़ासिर हैं ” ।

जंगे अनबार

जंगे उल्लीस के बाद ख़ालिद बिनवलीद ने शाहे ईरान को पैग़ाम भेजा की मुल्क तुम्हारे हाथ से निकल चुका है। अब इस्लाम कुबूल करो या जज़िया दो। अगर उन दोनों बातों में से कोई बात कुबूल नहीं है तो मैदान में निकल आओ। इस पैग़ाम से ईरानी सख़्त परेशान हुए। आज़ादविया ने जो उस वक़्त ईरानी दरबार में मौजूद था , ईरान के अफ़सरों को मुख़ातिब करते हुए कहा कि तुम लोग बाहमी अख़तेलाफ में पड़े हो , इसलिये मुसलमानों के हौसले बड़ गये हौ और फ़ातेह की हैसियत से आगे बढ़ते चले आ रहे हैं अगर तुम सब लोग मुतफ़्फिक. हो जाओ और मुत्तहिद हो कर लड़ो तो उन नंगे भूके अरबों को मार भगाना कोई बड़ी बात नहीं है। आज़दविया की इस मुख़तसर सी गुफ़्तगू ने बड़ा काम किया। ख़ालिद के पैग़ाम बर कोजंग की वारनिंग के साथ वापस कर दिया गया और बहमन जादू को एक कसीर लश्कर के साथ मुक़ाबिला पर मुक़र्रर किया गया। बहमन ने शीरज़ाद को हज़ार फ़ौज के साथ अनबार के मज़बूत व मुसतहकम क़िले की हिफ़ाज़त पर मुक़र्रर किया और मेहमान नामी एक मशहूर सिपेह सलारा को एक दूसरे क़िले ऐनुल तमर पर मामूर किया और उसके साथ ख़ुद भी वहीं मुक़ीम हो गया।

ख़ालिद ने अपने सफ़ीर से जंग का जवाब सुनकर अनबार पर चढ़ाई कर दी और चारों तरफ़ से शहर को घेर लिया शीरज़ाद ने अपनी इस आहनी फौज़ को आगे किया जो सर से पांव तक लोहे में ग़र्क थी फ़क़्त आंख दिखाई पड़ती थी। मारका कार ज़ार गर्म हुआ तो ख़ालिद ने अपनी फ़ौज को हुक्म दिया कि तीर अन्दाज़ी करो और उनकी आंखे फोड़ दो। हज़ारों तीर चिल्लये कमान से एक साथ रेहा होने लगे और हज़ार हा ईरानी आंखों से महरुम हो गये। शीरज़ाद ने घबराकर सुलह का पैग़ाम दिया। ख़ालिद ने इस शर्त पर सुलह कर ली कि सारा माल व मता छोड़कर शहर से निकल जाओ। चुनानचे वह शहर से निकल गये। इस जंग को ज़ातुल उयून भी कहा जाता है। इसके बाद गिर्दों नवाह के लोगों ने भी ख़ालिद से सुलह कर ली। इसके बाद ख़ालिद ने क़िला ऐनुल तमर पर चढ़ाई कर दी जहां ईरानियों ने इस इलाक़े के अरब क़बीलों बनी सालिब वग़ैरा को भी मिला लिया जिन का सरदार अक़्क़ा था। पहले वही ख़ालिद के मुक़ाबिले में आया लेकिन उसे पकड़ कर क़त्ल कर दिया गया। उसके लश्कर को शिकस्त हुई और बुहत से लोग गिरफ़्तार कर लिये गये। यह सूरते हाल देख महरान और बहमन अपनी अपनी जाने बचा कर भाग निकले और जो क़िला के अन्दर रह गये थे वह सबके सब मारे गये। तमाम माल व असबाब लूट लिया गया। क़िले में चालीस लड़के भी पाये गये जो इन्जील की तालीम हासिल करते थे जो लोगों में तक़सीम कर दिये गये। उन्हीं में इब्ने सीरीन का बाप मुहम्मद , मूसा फ़ातेह इन्दलिस का बाप नसीर और हज़रत उस्मान का गुलाम हमरान भी था। इसी मुक़ाम पर बशीर बिन सईद अन्सारी का इन्तेक़ाल हुआ।

जंगे दुमतुल जंदल

ख़ालिद बिन वलीद जब ऐनुल तरम की जंग से फ़ारिग़ हुए तो अयाज़ बिन ग़नम ने जो दूमतुलजंदल के अरब नसरानियों से लड़ने के लिये भेजा गया था ख़ालिद को लिखा कि वह इसकीमदद करें क्योंकि कई माह से वह दूमतुलजंदल का मुहासिरा किये हुए पड़ा था और फ़तह की कोई सूरत नज़र नहीं आती थी। चुनानचे ख़ालिद ने ऐनुल तमर में अपना आमिल छोड़ कर दुमतुलजंदल की तरफ़ रुख़ किया। अकीदर बिन अब्दुल मलिक और जूदी बिन रबीया नसरानियों के सरदार थे। अकीदर ख़ालिद के आने की ख़बर सुन कर भाग खड़े हुआ मगर रास्ते में पकड़ा गया और क़त्ल कर दिया गया। एक तरफ़ से ख़ालिद ने दूमतुलजंदल पर हमला किया और दूसरी तरफ से अयाज़ बिन ग़नम अपने लश्कर को लेकर आगे बढ़ा। दोनों तरफ़ से अरबों ने शिकस्त ख़ाकर किले में पनाह ली और इसका दरवाज़ा बन्द कर लिया। जो लोग क़िले के बाहर मिले वह क़त्ल कर दिये गये और उनका सरदार जूदी भी मारा गया। असीराने बनी कलब के अलावा जो बनी तमीम की सिफ़ारिश पर छोड़ दिये गये थे , बाकी तमाम क़ैदी क़त्ल हुए उसके बाद क़िला भी फ़तेह कर लिया गया। बहुत से क़त्ल हुए और बहुत से असीर हुए।

असीरों को फ़रोख्त कर दिया गया। जूदी की दुख़्तर को ख़ालिद ने ख़रीद लिया और कुछ दिनों तक उसके साथ दुमतुलजंदल ही में मुक़ीम रहे।

जंगे फ़राज

ख़ालिद ने माहे रमज़ान में फ़राज़ पर चढ़ाई की जहां शाम व इराक़ की सरहदें मिलती हैं। रोमिये , ईरानियों और अरब के मुख़तलिफ क़बीलों ने मिल कर ख़ालिद का मुक़ाबिला किया। घमासान की जंग हुई , रुमी भाग खड़े हुए। ख़ालिद ने अपने लश्कर को हिदायत की कि वह तलवारें न रोकें। चुनानचे मारका और ताअक़्कुब में ग़नीम के एक लाख आदमीं मारे गये।

इसके बाद ख़ालिद ईरान के पायए तख़्त मदीन पर चढ़ाई के बारे में सोच ही रहे थे कि दरबारे ख़िलाफत से उन्हें शाम की तरफ़ कूच करने का मुहर्रम सन् 12 हिजरी में इराक की मुहिम पर मामुर हुए थे और सन् 13 हिजरी की इब्तेदा में शाम की तरफ़ भेज दिये गये।

फ़तूहाते शाम

शाम उन तमाम मुमालिक का मजमूआ था जो फुरात और बहरे रोम के दरमियान वाक़े थे। फ़नाक़िया और फ़िलस्तीन इस मुल्क की दो छोटी छोटी रियासतें थीं जो कुसतुनतुनिया से इल्हाक़ की बिना पर बादशाह हरकुल के ज़ेरे हुकूमत हो गयी थीं। इल्मे जुग़राफि़या के माहेरीन का कहना है कि फ़िलिस्तीन का इलाकाइस खित्ते के जुनूब में वाक़े है जो कोहे क़रमल से तबरिया झील के हिस्से तक और उरदून से बहरे रोम तक फैला हुआ है जिसमें रोमियों के ज़ेरे तसल्लुत क़ीसारिया , अरीहा (जरीको) येरुशलम , असक़लान , जाफ़ा और ज़ग़ारिया ऐसे मज़बूत और महफूज़ इलाकें भी शामिल थे। पटपालूस का शहर और वह ख़ित्ता जो बहरे लूत से ख़लीज अक़बा तक फैला हुआ था फ़िलिस्तीन ही में था। इस ख़ित्ते के शुमाल में उरदुन का सूबा था जिसमें एकर (अक्का) और टायर (सूर) जैसे महफूज़ मुक़ामात थे। फ़िलिस्तीन के शुमाली जानिब वह ज़रखे़ज और सरसब्ज़ व शादाब ख़ित्ता था जिसको इहले रोम सीरिया और अहले अरब शाम कहते हैं। इसमें हलब , हमस और अनताकिया जैसे तारीख़ी शहर शामिल थे। उन तमाम शहरों में रोमियों की फ़ौजी छावनिया थीं जिनमें कसीर तादाद में फ़ौज रहती थी।

रोमियों का वाय सराय (गवरनर जनरल) अनताकिया में रहता था और फ़िलिस्तीन , हमस , तमिश्क और उरदुन के गदरनर इसके मातहत हुआ करते थे। मुसलमान शाम के बाशिन्दों को बनी असगर कहते थे। अबुबकर ने जब ख़ालिद बिन वलीद को इराक़ की मुहिम पर रवाना किया था तो उन्होंने उन्हीं अय्याम में ख़ालिद बिन सईद को भी एक लश्कर का सरदार मुक़र्रर करके शाम की तरफ़ रवाना करना चाहा था लेकिन वह रवाना होने से पहले ही माजूल कर दिये गये। माजूली की वजह यह बताई जाती है कि जब लोगों ने अबुबकर की बैयत की थी तो ख़ालिद बिन सईद से भी उमर ने बैयत करने को कहा था लेकिन दो महीने तक उन्होंने बैयत नहीं की और हज़रत अली अलै 0 के हमनदा रहे। चुनानचे जब अबुबकर ने उन्हें अमीर बनाया और उमर को मालूम हुआ तो उन्होंने इन्तेक़ाम उन्हें इमारात से माजूल करा दिया। इसके बाद अबुबकर ने ख़ालिद बिन सईद को हु्कम दिया कि तुम मदीने छोड़ कर ख़ैबर ओर तबूक के दरमियान वाक़े तीमा नामी एक गांव में क़याम करो और ता हु्कमे सानी वहीं रहो औऱ गिर्दे नवाह के लोगों को जेहाद के लिये आमादा करकों चुनानचे ख़ालिद बिन सईद ने तीमा में अका़मत अक़तेयार की और चन्द ही दिनो में उन्होंने जेहाद के लिये एक बड़ा लश्कर तैयार कर लिया।

जब रोमियों को ख़ालिद बिन सईद की तैयारी का हाल मालूम हुआ तो उन्होंने शाम के सरहदी अरब क़बीलों बनी कलाब , बनी ग़सान , बनीलहम और बनी हेजा़म वग़ैरा को इस इलाक़े में लूट मार करने पर उकसा दिया। ख़ालिद बिन सईद ने जब अबुबकर को इस सूरते हाल मे मुत्तेला किया तो उन्होंने ख़ालिद को आगे बढ़ने का हुक्म दिया। चुनानचे ख़ालिद ने पेश क़दमी की और जब बाग़ियों और लुटेरों के क़रीब पहुंचे तो वह लोग भाग खड़े हुए और ख़ालिद बिन सईद ने उसी मुक़ाम पर अपने ख़ेमे नसब करके छावनी डाल दी। दूसरे दिन अबुबकर का पैग़ाम मौसूल हुआ कि आगे बढ़ते रहो मगर इस बात का ध्यान रखो कि पुश्त से हमला न होने पाये। ख़ालिद बिन सईद आगे बढ़े मगर अभी कुछ ही फ़ासला तय हुआ था कि बतरीक़ माहान नामी सरदार की क़यादत में रोमियों के एक दस्ते से मुडभेड़ हो गयी। इस मुख़तसर सी लड़ाई में बहुत से रोमी मारे गये और बतरीक़ फ़रार हो गया। ख़ालिद ने अबुबकर को इस वाक़िये की इत्तेला दी और मज़ीद कुमक के ख्वास्तगार हुए। चुनानचे अबुबकर ने वलीद बिन अकबा , जुल कलाअ और अक़रमा बिन अबुजहल को मय उनके लश्कर के साथ खालिद की मदद को रवाना कर दिया। इर कुमक के पहुंचते ही ख़ालिद बिन सईद ने जल्द बाज़ी और बद-एहतियाती से काम लेते हुए दमिश्क़ पर हमला कर दिया मगर बतरीक़ माहान जो चन्द रोज़ पहले फ़रार इख़्तियार कर चुका था। लशकरे कसीर के साथ सामने आया और ख़ालिद का रास्ता रोका और मारकए क़ारज़ार गर्म हो गया जिसमे ख़ालिद बिन सईद का बेटा सईद मारा गया औऱ ख़ालिद सख़्त नुक़सान के साथ शिकस्त ख़ाकर ऐसा भागे कि मदीने के करीब वादी जि़ल मराह में आ कर दम लिया। अकरमा शाम के क़रीब ही छः हज़ार का लश्कर लिये पड़े रहे।

शाम पर हमले की तैयारियां

इस शिकस्त के बाद अबुबकर ने अहले शाम से मारका आराई का मुकम्मल तहय्या कर लिया। तारीख़ आसिम कूफ़ी और फ़तूहाते इस्लामिया में है कि जब अबुबकर ने शाम पर लश्कर कशी का फ़ैसला किया तो उन्होंने मस्जिदे नबवी मे एक तक़रीर की और कहा “ तुम लोग इस बात से आगाह हो कि तमाम अरब एक ही मां बाप की औलादें हैं। ” मैंने मुक़म्मिम इरादा कर लिया है कि अरब का लश्कर शाम की तरफ़ फेजूं और रोमियों से जंग करके उन्हें कैफ़रे किरदार तक पहुंचाओ तुममें जो शख़्स फ़तेह पायेगा वह शोहरत व दौलत से हमकिनार होगा और जो मारा जाएगा वह बेहिश्त में अपना झण्डा गाड़ेगा और जेहाद का जो अजर खुदा की तरफ़ से मुक़र्रर है उसका अन्दाज़ा ग़ैर मुम्किन है ” ।

इस मुख़्तसर सी तक़रीर के बाद अबुबकर ने हज़रत अली अलै 0, उमर , उस्मान , तलहा , ज़बार , सईद बिन विक़ास और अबुउबैदा बिन जराअ वग़ैरा को तलब करके एक हंगामी जलसा मशावरत मुनअक़िद किया जिसमें अमाएदीन व अकाबरील जलसे ने अपने अपने ख़्यालात का इज़हार किया लेकिन हज़रत अलै 0 ख़ामोश रहे। जब हज़रत अली अलै 0 से कहा , ऐ अबुल हसन! कुछ आप भी फ़रमायें , इस बारे में आपका क्या ख़्याल है ? आपने फ़रमाया , ऐ अबुबकर! तुम लश्कर रवाना करोगे तब भी फ़तेह होगी और अगर ख़ुद इस मुहिम पर जाओगे और अल्लाह पर भरोसा रखोगे तो भी कामयाबी हासिल होगी क्योंकि मैं रसूल स 0 की ज़बाने मुबारक से यह जुमला बार बार सुन चुका हूँ कि दीने इस्लाम तमाम अदयान पर ग़ालिब रहेगा। इस पर अबुबकर ने कहा ऐ अबुल हसन! आपने मेरी आंखे खोल दी , मुझे तो इस हदीसे पैग़म्बर स 0 के बारे में कोई इल्म ही नहीं था। इसके बाद ख़लीफ़ा उमर की तरफ़ मुतावज्जे हुए और उन लोगों से उन्होंने काह , याद रखो , अली अलै 0 इल्मे पैग़म्बर स 0 के वारिस हैं और जो शख़्स इनके कलाम में शुब्हा करे वह मुनाफ़िक़ है , अब इस अमर में मेरी तरफ़ से कोई कोताही मुम्किन नहीं , मुझे उम्मीद है कि इस मुहिम में तुम लोग मेरा साथ दोगे।

इसके बाद मज़मे मुशावरत बरख़ास्त हुई तो अबुबकर ने मक्के , ताएफ़ और गमन वग़ैरा के आलिमों के नाम भी मकतूब रवाना किये और रोमियों व नसरानियाँ पर फ़ौज़ कशी का इरादा ज़ाहिर किया। चारों तरफ़ से सिमट सिमट कर लोग मदीने में जमा होने औऱ एक जंगी माहौल पैदा हो गया। चुनानचे सन् 13 हिजरी की इब्तेदा में अबुबकर ने इस मुहिम को सर करने के लये एक नया लश्कर तरतीब दिया जो चार हिस्सों पर मुश्तमिल था। अबु अबीदा बिन जराअ एक दसता फौज के साथ हमस पर मुक़र्रर किये गये उनके साथ अहले मदीना और सहाबा की एक बड़ी तादाद थी। उन्होंने अपना हेडक्वार्टर जाबिया को क़रार दिया। उमरु आस को इस दस्ते का सरदार मुक़र्रर किया जो फ़िलिस्तीन की तरफ़ भेजा गया था। उन्होंने अरबा में डेरा जमाया। यज़ीद बिन अबुसुफ़ियान को एक कसीर फ़ौज के साथ दमिश्क पर तैनात किया। उन्होंने बलक़ा में पड़ाव किया। उनकी फौज में ज़्यादा तर मक्के और तहामा के अरब शामिल थे। औऱ शरजील बिन हुस्ना एक बड़े फ़ौजी दस्ते के साथ उरदुन की तरफ़ रवाना किये गये। उन्होंने बुसरा के क़रीब क़याम किया। बलाज़री का कहना है कि इब्तेदा में हर एक जनरल के पास तीन तीन हज़ार सिपाह थी लेकिन मज़ीद इमदाद के बाद साढ़े सात सात हज़ार हो गयी थी। अबुसुफ़ियान के दूसरे साहबज़ादे माविया जिन्होंने आख़िर ख़िलाफ़त ही को ग़सब कर लिया रेज़र्व फौज़ के कमाण्डर मुक़र्रर किये गये। लेकिन इ्ब्ने ख़लदून का कहना है कि माविया को अबुबकर ने उनके भाई यज़ीद का मदद के लिये भेजा था। हाशिम बिन अतबा बिन अबी विक़ास और सईद बिन आमिर भी अफ़वाज के साथ रवाना किये गये। ग़र्ज़ कि जहां जहां से भी लोग जेहाद के इरादे से वारिदे मदीना होते थे वह जत्थों और गिरोहों की शक़्ल में शाम की तरफ़ रवाना कर दिये जाते थे।

अबुबकर का हुक्म था कि अगर चारों लश्कर एक जगह जमा हो जायें तो अबुअबीदा को चारों लश्करों का सरदार समझा जाये। अबुल फिदा का बयान है कि कुल लश्कर में सहाबा की मजमुई तादाद एक हजार थी जिसमें तीन सौ बदरी सहाबा थे और उन तीन सो में सौ सहाबा ऐसे भी थे कि वह अपनी मर्ज़ी के मुताबिक जिस अफ़सर के मातहत चाहे काम करने का इख़्तियार रखते थे।

बाज़ मोअर्रिख़ीन ने लिखा है कि इब्तेदा में कुल अफ़वाज की तादाद सिर्फ़ सात हज़ार थी लेकिन बढ़ते बढ़ते बाद में 35 या 36 हज़ार हो गयी थी। इब्ने असीर ने एक रिवायत में चालिस हज़ार लिखा है। सैय्यद अमीर का कहना है कि इस सलतनत के वसाएल और ताक़त को देखते हुए जिस पर हमला की ग़र्ज़ से यह लोग बढ़े थे चालिस या छियालिस हज़ार की तादाद बहुत कम थी। क़स्तुनतुनिया की रुमी हुकूमत चन्द सूबो के निकल जाने के बावजूद अब भी निहायत ताक़तवर थी। इसके वसाएल और सामाने हरब ग़ैर महदूद थे। इसमे एशियाए कोचक का वसीय जज़ीरा , शाम , फ़नीशिया , मिस्र ओर बहरे वक़ियानूस तक तमाम मुमालिक शामिल थे।

जंगे यरमूक

बादशाह हरकुल को जब इस्लामी अफ़वाज के मुनक़सिम व मुताफ़र्रिक़ होने नीज़ उनकी तादाद का हाल मालूम हुआ तो उस वक़्त वह फ़िलिस्तीन में ता। वहां से उसने मुल्क का हंगामी दौरा किया और दमिश्क़ व हमस से गुज़रता हुआ अनताकिया में आकर क़याम पज़ीर हो गया। उस दौरे का मक़सद लोगों को जंग पर तैयार करना था जिसके नतीजे में एक जमे गफ़ीर उसके गिर्द जमा हो गया। हज़रत अबुबकर की तरह उसने अपने भी तज़ारिक को 60 हज़ार की फौज के साथ अमरु आस की तरफ़ भेजा। जर्जा बिन नोदर को चालीस हज़ार का लश्कर दे कर यज़ीद बिन अबुसुफियान की तरफ़ रवाना किया। कीतार बिन नसतूरिस को साठ हज़ार के साथ अबुउबैदा के मुक़ाबिले में भैजा और दराक़िस को पचास हज़ार के साथ शरजील की तरफ़ रवाना किया।

मुसलमान सरदारों को जब रुम फ़ौजों की नक़ल व हरकत और उनकी तादाद का हाल मालूम हुआ तो उन्होंने एक दूसरे के पास क़ासिद दौड़ाकर आपस में यह तय किया कि सारी फ़ौजों को एक मरकज़ पर जमा कर लिया जाये चुनानचे चारों दस्ते माहे अप्रेल सन् 634 में दरियाये यरमूक के नज़दीक जोलान के मुक़ाम पर इकट्ठा हो गये।

यरमूक एक छोटा सा दरिया है जो हूरान से गुज़र कर तबरिया झील से चन्द मील के फ़ासले पर दरियाये जारड़न (उरदुन) से मिल जाता है। मुक़ाम इत्तेसाल से तक़रीबन तीस मील ऊपर की तरफ़ शुमाल जानिब इसका मोड़ निस्फ़ दाएरे की शक़्ल में वाक़े है और इस निस्फ़ दाएरे में एक ऐसा मैदान घिरा हुआ है जो एक बड़ी फौज के क़याम के लिये निहायत महफूज़ व मौजूं है। इस निस्फ़ दायरे की पुश्त पर एक ग़ार भी है जिसके अन्दर से मैदान का रास्ता है। इस जगह को वाक़सा कहते हैं। रोमियों ने उसे हर तरफ़ से घिरा हुआ देख कर दरिया के इस पार लश्कर उतारने के लिये महफूज़ मुक़ाम ख़्याल किया और उनकी फ़ौज मुसलमानों की तरफ़ से किसी कि़स्म का ख़्याल किये बग़ैर उसके अन्दर घुस गयी। मुसलमानों ने अपने दुश्मन की इस ग़लती को ताड़ लिया और उन्होंने दरिया के शुमाली रुख़ की तरफ़ से उसे अबूर करके ग़ार के पहलू में अपने क़दम जमा दिये और इस ताक में लगे रहे कि रोमियों के निकलते ही उन पर हमला आवर हो जायें। चुनांचे सफ़र से रबीउल आख़िर तक तीन महीने दोनों फ़ौज़ें एक दूसरे के इन्तेज़ार में डटी रहीं। यहां तक कि रबीउल आख़िर या जमादुल ऊला की इब्तेदा में ख़ालिद बिन वलीद भी लूट मार करते हुए अपनी 6 हज़ार फ़ौज के साथ वहां पहुँच गये। उस वक़्त वाक़िसा में रुमी अफ़वाज़ की तादाद दो लाख चालीस हज़ार थी और हरकुल का भाई तज़ारिक़ इस फ़ौज का सिपेह सलारे आज़म ता।

आखिरकार 30 जमादुस सानिया सन् 93 हिजरी मुताबिक़ 30 अगस्त सम् 634 को रुमी फौज अपनी छांवनी से निकल कर मुसलमानों पर हमला आवर हुई। मुसलमान भी मुक़ाबिल हुए। सख़्त घमासान करना पड़ा। मुसलमान मारते काटते हुए ख़नदक में दाख़िल हो गये और अन्दर ही अन्दर तज़ारिक़ के ख़ेमे तक पहुंच गये। एक लाख चालीस हज़ार रुमी मौत के घाट उतार दिये गये बाकिया भाग खड़े हुए और जो बचे वह क़ैद कर लिय गये। मुवर्रेख़ीन ने क़ैदियों की तादाद चालिस हज़ार तक बताई है। इस जंग में तीन हज़ार मुसलमान भी मारे गये जिनमें अकरमा बिन अबुजहल , उसका बेटा उमर और चचा हारिस , सलमा बिन हिश्शाम , उमरु बिन सईद , अबान बिन सईद , तुफ़ैल बिन उमर , अमरु आस का भाई हिश्शाम , सईद बिन हारिस बिन क़ैस , नुज़ैर बिन हारिस और जन्दिब बिन अमरु वग़ैरा शामिल हैं। मिस्टर अमीर अली लिखते हैं कि इस लड़ाई ने तमाम जुनूबी शाम को मुसलमानों के क़दमों में सर झुकाने पर मजबूर कर दिया।

यरमूक की जंग मे इतना माल हाथ आया कि एक एक सवार को चौबीस हज़ार मिसक़ाल और प्यादों को आठ आठ हज़ार मिसक़ाल सोना बतौर ग़नीमत मिला।

अकसर मोअर्रिखीन ने लिखा है कि जब यरमूक में मारकये क़ेताल गर्म था तो महमिया बिन ज़नीम नामी एक क़ासिद अबु अबीदा के पास आया और उसने उन्हें अबुबकर के इन्तेक़ाल और उमर के ख़लीफ़ा होने के बारे में ख़बर दी। और उसने उमर का एक नामा भी दिया जो ख़ालिद बिन वलीद की माज़ूली का परवानथा मगर अबु उबूदा ने उस वक़्त तक ख़ालिद से इस परवाने को छिपाये रखा जब तक दुश्मन पर मुकम्मल फ़तेह नहीं हो गयी।

हज़रत अबूबकर की वफ़ात

सक़ीफ़ा बनी साएदा में जमहूरियत पर ख़िलाफ़त की बुनियाद रखी गयी थी लेकिन बाद में क़ायम न रह सकी और नुमाइन्दा जमहूर ही के हाथों इसका तारोपूद बिखर गया और इसकी जगह नामजदगी ने ले ली। चुनानचे अबुबकर ने बिस्तरे मर्ग पर उमर को नामज़द करने का फ़ैसला किया और अब्दुल रहमान बिन औफ और उस्मान को बुला कर उनका ख्याल मालूम किया अब्दुल रहमान यह कह कर ख़ामोश हो गये कि आपकी राये साएब है लेकिन इनमें सख्ती व दुरुश्ती का उनसुर गालिब है उस्मान ने पूरी हमनवाई की और उम्मत के लिये इसे फ़ाले नेक करार दिया। इस बात चीत के बाद अबुबकर ने उन्हें रुख़सत कर दिया और फिर तन्हाई में उस्मान को दस्तावेज़े खि़लाफ़त तहरीर करने के लिये तल किया। जब दस्तावेज ख़िलाफ़त लिखवाने के लिये बैठे तो अभी सरनामा ही लिखवाया था कि बेहोश हो गये। उस्मान तो जानते ही थे कि क्या लिखवाना चाहते हैं। उन्होंने इस बेहोशी के वक़्फा में लिख दिया कि “ मैंने उमर बिन ख़त्ताब को ख़लीफ़ा मुक़र्रर किया है ” जब ग़शी से आंखे खुली तो पूछा क्या लिखा है ? उस्मान ने जो लिखा था पढ़ कर सुना दिया। कहा तुमने नाम लिखने में जल्दी इस लिये कि कि कहीं मैं मर न जाऊँ और मुसलमानों में इन्तेशार व इफ़तेराक़ पैदा हो जायें। उस्मान ने कहा , हां यही वजह थीष कहा खुदा तुम्हें जज़ाए ख़ैर दे।

इस वसीयत नामें की तहरीर के बाद आपने उमर को बुला कर कहा कि चयह वसीयत नामा अपने पास रखो और लोगों से इस पर अमल पैरा होने का अहदो व पैमान लो। उमर ने वह वसीयत नामा ले लिया और लोगों से अहद लिया कि इस दस्तावेज़ी हुक्म के पाबन्द रहेंगे। एक शख़्स ने पूछा कि इसमें क्या लिखा है ? उमर ने कहा कि इसका इल्म तो मुझे भी नहीं है अलबत्ता जो इसमें दर्ज है उसे में बा-रज़ा व रग़बत तसलीम करुंगा। उसने कहा “ लेकिन ख़ुदा की कसम मुझे मालूम है कि इसमें क्या लिखा है। तुम गुजिश्ता साल उन्हें ख़लिफ़ा बना चुके थे और अब वह तुम्हें ख़लीफ़ा बना कर जा रहे हैं। ”

जब यह ख़बर आम हुई तो कुछ लोग ख़ामोश रहे और कुछ ने एहतेजाज किया। चुनानचे मुहाजेरीन व अन्सार का एक गिरोह अबुबकर के पास आया और उसने कहा तुमने इब्ने ख़त्ताब को ख़लीफ़ा बना कर हम पर हाकिम ठहराया है , कल जब परवरदिगार के सामने पेश होगे तो क्या जवाब दोगे।

तलहा और उनके साथियों ने भी इस पर अपनी नापसन्दगी का इज़हार करते हुए कहा “ तुम ने लोगों पर उमर को ख़लीफा और हाकिम मुक़र्रर कर दिया है तुम जानते हो कि तुम्हारे होते हुए उनके हाथों कितनी नागवार सूरतों का सामना करना पड़ा है और अब उन्हें खुली छूट मिल जायेगी। तुम अपने परवर दिगार के हुजूर जा रहे हो , वह तुमसे इस बारे में ज़रुर सवाल करेगा। ”

ज़महूरी हुकूमतों का यह शेवा रहा कि जब तक इक़तेदार हासिल नहीं होता बड़े शद्दो मद से इन्तेख़ाब का हक़ अवाम के लिये तसलीम करती है और जब इन्तेख़ाब के बाद इक़तेदार हासिल हो जाता है तो फिर अहले हुकूमत अवाम की मर्ज़ी को नज़र अंदाज़ करके इक़तेदार हासिल हो जाता है तो फिर अहले हुकूमत अवाम की मर्ज़ी को नज़र अन्दाज़ करके इक़तेदार की कूवत और ताक़त के बल पर यह हक़ अपने लिये मख़सूस कर लेते हैं और सारी ज़महूरियत सिमट कर एक फ़र्द वाहिद या चन्द अप़राद में महदूद होकर रह जाती है। सक़ीफ़ा की जमहूरियत का भी यही नतीजा निकला और दो ही ढ़ाई बरस की मुख़तसर मुद्दत मे नामज़दगी की सूरत तबदील हो गयी। अगर यह नामज़दगी सही है तो ये मानना होगा कि ख़लीफ़ा का इन्तेख़ाब जमहूर की राय का ताबे नहीं है और अगर जमहूर की राये से वाबस्ता है तो इम नामज़दगी को किसी भी सूरत में दुरुस्त क़रार नहीं दिया जा सकता। अगर यह कहा जाये कि अबुबकर नुमाइन्दा जमहूर थे और जमहूर ने उन्हें सियाह व सफ़ेद का मालिक बना दिया था। अगर इसे तसलीम भी कर लिया जाये तो जमहूर ने इस्तेख़लाफ़ व इन्तेख़ाब का हक़ उनके सुपुर्द नहीं किया था और न किसी जमहूरी हुकूमत में किसी नुमाइन्दा जमहूर को यह हक़ दिया जाता है। इस सिलसिले में यह भी इतमेनान कर लिया था कि अवाम उमर को ही मसन्दे ख़िलाफ़त पर देखना चाहते हैं। अगर ऐसा ही था तो राय आम्मा पर एतमाद करते और नाम को सेग़ये राज़ में रख कर अवाम से अहदे इताअत लेने के बजाये उन की राय पर छो़ड़ देते और लोगों को अपने यहां जमा करके एलाने आम करते और उनका रद्दे अमल देख कर फैसला करते। उन्होंने इसका इज़हार भी किया तो उस्मान और अब्दुल रहमान बिन औफ़ से क्या जिनमें ऐएक ने मुख़ालिफ़त को बे सूद समझ कर हां में हां मिला दी और दूसरे ने इक़तेदारे नो को अपनी वफ़ादारी का ताअस्सुर देने से मशविरा ही मतलूब था तो अब्बास बिन अब्दुल मुत्तालिब और हज़रत अली अलै 0 भी मौजूद थे जिन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम स 0 का हाथ बटा कर इस्लाम को तकमील की मंजिल तक पहुंचाया था और तमाम आसाइशें तर्क करके अपनी ज़ात को सिर्फ़ इस्लाम और अहले इस्लाम के मुफ़ाद के लिये वक़्फ़ कर दिया था। सफ़ीफ़ा बनी साएदा में तो उन्हें न बुलाने का उज़्र था कि पैग़म्बर स 0 की तजहीज़ व तकफ़ीन को छोड़कर कैसे आते। मगर यह मशविरा न लेने में आख़िर क्या मसलहत थी। हैरत है कि गज़वात और दूसरे मामलात में तो उनसे मशविरे लिये जाते रहे और असाबते राय और बुलन्द नफ़सी का एतराफ़ किया जाता रहा मगर इस अहम मामले में उनकी राय को ग़ैर ज़रुरी समझा जाता है। क्या इसलिये उन्हें नज़र अन्दाज़ कर दिया गया कि इरशादे पैग़म्बर स 0 की रोशनी में इसे सान सक़लैन व सफ़ीन-ए-निजात का हक़ फाएक़ था और उन्हें सितवत व इक़तेदार से मुतअस्सिर करके अपना हमनवा नहीं बनाया जा सकता था।

बहर हाल जिन लोगों ने सक़ीफ़ा की बराये नाम जमहूरियत के आगे सरे तसलीम ख़म करके अबुबकर को ख़लीफ़ा मान लिया था उन्होंने इस नामज़दगी के आगे भी हथियार डाल दिये और उमर की ख़िलाफ़त तस्लीम कर लिया।

अबुबकर दो साल तीन माह दस दिन तख़्ते हुकूमत पर मुतमक्किन रहने के बाद 22 जमादुस सानिया 13 हिजरी मुताबिक 22 अगस्त सन् 634 को दुनिया से रुख़सत हो गये और इसी दिन हज़रत उमर ने इक़तेदार संभाल लिया।

आपके दौरे ख़िलाफ़त में ख़ास बात यह थी कि तौसीय हुकूमत और हुसूले इक़तेदार के नाम पर इस्लाम का सहारा ले कर तक़रीबन दो लाख अट्ठारा हज़ार बे गुनाह इन्सानों का ख़ून बहाया गया और इस कुश्त व ख़ून की होली में ज़्यादातर ख़ालिद बिन वलीद का हाथ था।

अज़वाज व औलादें

क़तीला बिन्ते अज़ा , उम्मे रुमान बिन्ते हारिस , असमा बिन्ते उमैस और हबीबा बिन्ते ख़ारजा बिन ज़ैद अन्सारी हज़रत अबुबकर की मनकूहा बीवियां थी , कतीला बिन्ते अब्दुल अज़ा के बतन से उसामा और अब्दुल्लाह थे। अब्दुल्लाह जंगे ताएफ़ में अबु मोहजिन तक़फ़ी के तीर से ज़ख़्मी होए और इसी ज़ख़्म की वजह से शव्वाल सन् 11 हिजरी में फ़ौत हो गये। असमा का निकाह जबीर बिन अवाम से हुआ था उनसे अब्दुल्लाह बिन जबीर पैदा हुए थे। मगर मसूदी ने मुरौवजुल ज़हब में लिखा है कि असमा ने जबीर से मुता किया था और इसी से अबद्ल्ला पैदा हुए। इब्ने असीर ने लिखा है कि जब अब्दुल्लाह जवान हुए तो अपने बाग जबीर से कहा कि मेरी शान अब ऐसी नहीं है कि उसकी मां के साथ वती की जाये। लेहाज़ा ज़ुबैर ने तलाक़ दे दी थी। अब्दुल्लाह बिन ज़बीर जब मारे गये तो इसी सदमें में 60 बरस की उम्र में असमा को हैज़ जारी हुआ और कुछ दिन बाद इन्तेक़ाल हो गया। दूसरी बीवी उम्मे रुमान बिन्ते हारिस से आएशा और अब्दुल रहमान पैदा हुए। आएशा का अक़द पहले जबीर बिन मुताइम से हुआ उसके बाद उबुबकर ने जबीर से तलाक़ हासिल करके उनका अक़द रसूल अकरम स 0 से करा दिया। अब्दुल रहमान का नाम इस्लाम लाने से क़बन अब्दुल काबा था। सुलह हुदैबिया के बाद इस्लाम लाये। जंगे जमल में अपनी बहन आएशा के साथ थे सन् 53 हिजरी में उनका इन्तेक़ाल हुआ। असमा बिन्ते उमैस से मुहम्मद बिन अबुबकर हुए। यह अपने ज़ोहद की वजह से आबिदे कुरैश कहलाते थे। हज़रत अबुबकर के बाद इनकी वालिदा हज़रत अली अलै 0 के अक़द में आयीं और उन्होंने हज़रत अली अलै के दामन तरबियत में परवरिश पाई। जंगे जमल व सिफ़्फीन में हज़रत अली अलै 0 के साथ रहे। सन् 37 हिजरी में हज़रत अली अलै 0 की तरफ़ से मिस्र के वाली मुक़र्रर हुए मगर इसी साल माविया ने आपको गधे की ख़ाल में सिलवाकर ज़िन्दा जलवा दिया। हबीब बिन्ते ख़ारजा के बतन से हज़रत अबुबकर की वफ़ात के छः दिन बाद उम्मे कुलसूम पैदा हुई जो तलहा बिन अब्दुल्लाह से मनसूब हुयीं।