तारीखे इस्लाम भाग 3

तारीखे इस्लाम भाग 30%

तारीखे इस्लाम भाग 3 लेखक:
कैटिगिरी: इतिहासिक कथाऐ

तारीखे इस्लाम भाग 3

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: जनाब फरोग़ काज़मी साहब
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तारीखे इस्लाम भाग 3

तारीखे इस्लाम भाग 3

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

हज़रत उमर बिन ख़त्ताब

सन् 13 से 23 हिजरी तक

हजरत उमर का तअर्रुफ़

हज़रत उमर वाक़ए फ़ील के तेरह बरस के बाद कुरैशे मक्का की शाख़ बन अदी में एक ग़रीब लकड़हारे ख़त्ताब बिन नोफ़िल के यहां पैदा हुए। आपका असली नाम अमीर था जो अपनी शक़्ल बदल कर उमर हो गया। कुन्नियत अबुल हफ़स या अबु हफ़सा थी। लक़ब फ़ारुके आज़म मशहूर है मगर न जाने क्यों ? जब कि सरकारे दो आलम स 0 ने यह लक़ब हज़रत अली अलै 0 को मरहमत फ़रमाया था।

आपकी वालिदा हनतमा बिन्ते हाशिम बिन मुग़ीरा बिन अब्दुल्लाह अबुजहल की चचा ज़ाद बहन थीं। बाज़ ने हनतमा बिन्ते हिश्शाम यानी अबुजहल की हक़ीक़ी बहन तहरीर किया हैं और इस बारे में भी तारीख़ी श़वाहिद मौजूद हैं कि आप नसली हैसियत से हबश थीं।

आपकी हुलिया के बारे में मौलवी अब्दुल शकूर ने तहरीर किया है कि आपका रंग गोरा और सुर्ख़ी माएल था। ज़मानये क़हत में नामवाक़िफ ग़िज़ा के इस्तेमाल से काला हो गया था। रुख़सारों पर गोश्त बहुत कम था। क़द इतना लम्बा था कि जब लोगों के दरमियान ख़ड़े होते थे ऐसा लगता कि जैसे किसी सवारी पर बैठे हों। मौलवी मसीहुद्दीन काकोरवी का बयान है कि आप भींगा (एहवल) देखते थे। तरजुमा असदुल ग़ाबा में है कि आपकी सूरत क़बीलये सुदूस के लोगों से मिलती थी। क़द लम्बा औऱ दाढ़ी ऐसी घनी थी कि जब चूल्हा फूंकते थे धूंआ दाढ़ी के दरमियान से ख़ारिज होता था। इस्तियाब में है कि आपका क़द तवील , रंग सियाही माएल , सर गंजा , मूंछे लम्बी और दाढ़ी झाड़ी नुमा थी। पैरों से माक़िल थे। ऐसी मालूम होता था कि जैसे पैर बन्धे हुए हैं। बायें हाथ से काम काज करते थे। आपकी औलादों का यह कहना है कि काला पन हेमं नानिहाल से विरासत में मिला है। सीरते हलबिया में है कि आपके माकूल होने की वजह यह थी कि बचपन में खेल के दौरान ख़ालिब बिन वलीद ने आपक एक टांग तोड़ दी थी इसी दुश्मनी की बिना पर आपने ख़िलाफ़त का ओहदा संभालते ही ख़ालिद को माज़ूल कर दिया था।

आपके वालिद ख़त्ताब बचपन में आपसे ऊँट और बकरियां चराने का काम लेते थे। लेकिन इस मामले में वह कितना सख़्तगीर थे ? इसका अन्दाज़ा कामिल इब्ने असीर , अज़ालतुल ख़फ़ा , अलफ़ारुक़ और सीरत हज़रत उमर की इस रिवायत से होता है कि ज़मानये ख़िलाफ़त में आपका गुज़र एक मर्तबा ज़जनान के जंगलों की तरफ़ से हुआ तो उसे देख कर आपने फ़रमाया कि अल्लाहो अक़बर! एक ज़माना वह था कि मैं नमदे का एक कुर्ता पहन कर इस जंगल में बकरियां चराया करता था और जब कभी थक कर बैठ जाता था तो बाप के हाथ की मार खाता था।

अल्लामा इब्ने अबदरबा ने अमरु आस की ज़बानी एक रिवायत मरकूम की है जिसमें वह कहते हैं कि ख़ुदा की क़सम मैंने उमर और उनके बाप को देखा है कि दोनों के बदन पर क़तरान की अबा होती थी जिसको वह लपेटे रहते थे। अपने सरों पर लकड़ियों का बोझ लाद कर जंगलों से लाते और उसे फ़रोख्त करके अपनी गु़ज़र बसर करते थे। इब्ने अबिलहदी का कहना है कि जब आप अट्ठारह साल के हुए तो वलीद बिन मुग़ीरा के यहां नौकर हो गये थे। उसके ऊँट चराते और सामाने तिज़ारत की देख भाल करते। बाद में कुछ तरक़्की करके बाज़ारों में दलाली का पेशा करने लगे थे जो आप के ज़मानये ख़िलाफ़त तक जारी रहा। यह अमर भी मुताफ़क़्का तौर पर तसलीम शुदा है कि हालते कुफ़्र में आप इस्लाम और पैग़म्बरे इस्लाम स 0 के सख़्त तरीन दुश्मन थे यहां तक कि आपने क़त्ले पैग़म्बर स 0 का इरादा भी किया था मगर अपने मक़सद में नाकाम रहे। आपके मुकम्मल औऱ हैरत अंगेज़ ताज्जुब खेज़ वाक़ियात मालूम करने के लिये मोअल्लिफ़ की किताब अलख़ोलफ़ा हिस्सा दोयम का मुतालिया फ़रमाये।

एक नज़र में अहदे ख़िलाफ़त के वाक़िया

(1) तख़्ते ख़िलाफ़त पर मुतमक्किन होते ही ख़ालिद बिन वलीद की माज़ूली का परवाना जारी किया।

(2) सन् 13 हिजरी से सन् 15 हिजरी तक तमाम मुल्क शाम यानी दमिश्क , तबरिया , हमस , क़नसरीन , हलब , अन्ताकिया , कैसारिया , ग़ज़ा , औऱ बैयतुल मुक़द्दस पर तसल्लुत जमाया।

(3) सन् 14 हिजरी या 15 हिजरी में बसरा आबाद किया।

( 4) सन् 15 हिज़री ही में मशाहीरे इस्लाम के वज़ीफ़े मुक़र्रर किये और दफ़ातिर क़ायम किये।

( 5) सन् 16 हिजरी में हज़रत अली अलै 0 के मशविरों पर सन् हिजरी मुक़र्र किया।

( 6) सन् 17 व 18 हिजरी में जज़ीरा आरमीनिया वग़ैरा को फ़तेह किया

( 7) सन् 20 हिजरी में मिस्र औऱ सन् 21 हिजरी में असकनदरिया फ़तेह हुआ।

( 8) सन् 18 से 23 तक ईरान , आज़र बायजान , फ़ारस औऱ क़िरमान के इलाक़े फ़तेह हुए।

(9 ) आपके अहद में एक हज़ार छत्तीस शहर ममलेकते इस्लामिया में शामिल किये गये , चार हज़ार मस्जिदों की तामीर अमल में आई , एक हज़ार नौ सौ मिम्बर ख़ुतबा देने के लिये बनाये गये और जाँबजां शहरों में जामा मस्जिद की तामीर भी हुई।

( 10) तरावी का हुक्म जारी किया।

( 11) आप ही ने दुर्रा (ताज़ियाना) ईजाद किया।

( 12) क़ैदख़ाना भी आप ही की ईजाद है।

( 13) नमाज़े जनाज़ा की तकबीरें घटा कर उसे सिर्फ़ चार तकबीरों में मुनहसिर किया

( 14) मुताह को हराम क़रार दिया।

( 15) घोड़ों पर ज़कात मुक़र्रर की।

( 16) मैदानों की पैमाइश का तरीक़ा ईजाद किया।

( 17) इल्मे मीरास का हिसाब मुक़र्रर किया।

( 18) मसाजिद में क़ारी मुक़र्रर किया।

( 19) मस्जिदे नबवी की तौसी की।

( 20) अपने बेटे अबु शहमा को शराब ख़ोरी और ज़िना कारी के जुर्म में ताज़ियाने मार मार कर हलाक कर देना आपका मशहूर कारनामा है।

दमिश्क़ पर चढ़ाई

यरमूक की फ़तेह के बाद अबुअबीदा बिन जराअ ने बशीर बिन काब को अपना नाएब बना कर यरमूक में छोड़ा और ख़ुद सुफ़्फ़र की तरफ़ आगे बढ़े। वहां पहुँच कर ख़बर मिली कि शिकस्त खु़र्दा रुमी लश्कर नये साज़ो सामान और जंगी हथियारों के साथ फहल के मुक़ाम पर इकट्ठा हो रहा है। दमिश्क से मज़ीद कुक पहुंचने वाली है औऱ बादशाह हरकुल हमस में पड़ाव डाले हैं। अबुउबैदा ने हज़रत उमर को मुतला किया और सुफ़्फ़र ही में मुक़ीम रह कर जवाब के मुन्तज़िर रहे। हज़रत उमर का हुक्म मिला कि पहले शाम के दारुल हुकूमत दमिश्क पर चढाई करो और उसके साथ साथ अहले फ़हल , अहले हमस औऱ अहले फ़िलिस्तीन को भी जंग में उलझा रखो।

अबुउबैदा ने हथियार बन्द सवारों का एक दस्ता फ़हल का मुहासिरा करने के लिये भेज दिया और बक़िया फ़ौज के मुख़तलिफ़ हिस्से करके एक हिस्से को हमस और दमिश्क के दरमियान तैयनात किया और एक को दमिश्क़ व फ़िलिस्तीन के माबैन ठहरने का हुक्म दे कर ख़ुद ख़ालिद बिन वलीद को अपने साथ लेकर दमिश्क़ की तरफ़ बढ़े और उसे मग़रिब की तरफ़ से अबुउबैदा ने मशारिक़ की तरफ़ से ख़ालिद बिन वलीद ने शुमाल की तरफ़ से यज़ीद बिन अबुसुफ़ियान ने और जूनूब की तरफ़ से अम्र आस व शरजील ने घेर लिया। दमिश्क़ में उस वक़्त रोमियों का नामी गिरामी सिपेह सालार नसतास बिन नसतूस और उनका मज़हबी पेशवा बतरीक़ माहान हाकिम आला की हैसियत से मौजूद था। बाज़ रिवायतों के मुताबिक़ छः माह तक जारी रहा। इस्लामी फौज़े शहर पर मुनजनीक़ों के ज़रिये कभी पत्थर बरसातीं थी और कबी तीर बारानी करती थीं। असनाये महासिरा हरकुल ने अहले दमिश्क़ की मदद के लिये फौज़ें शहर पर मुनजनीकों के ज़रिये कभी पत्थर बरसाती थी और कभी तीर बरानी करती थीं। असनाये महासिरा हरकुल ने अहले दमिश्क़ की मदद के लिये फ़ौज की एक बहुद बड़ी तादाद रवाना की मगर जजुलकलाअ ने जो हमस और दमिश्क़ के दरमियान फ़ौज लिये पड़े थे मुज़ाहमत की और उस फ़ौज को पसपा करके दमिश्क़ में दाख़िल न होने दिया। बिलआख़िर मजबूर होकर मशरिक़ी दमिश्क के बाशिन्दों ने ख़ालिद बिन वलीद से सुलहा की दरख़्वास्त की मगर उन्होंने मंजूर न किया क्योंकि माल ग़नीमत के चक्कर में वह शहर को तलवार के ज़रिये फ़तेह करना चाहते थे। दूसरी तरफ़ मग़रिबी दमिश्क़ के बाशिन्दों में से तक़रीबन सौ आदमीं जिनमे अमाएदीन दमिश्क़ व पादरी शामिल थे , अबुउबैदा से सुलह के मुलतजी हुए। उन्होंने एक लाख दीनार पर मुहाएदा इन शराएत के साथ किया कि शहर का क़बज़ा मुसलमानों को दे दिया जाये। दमिश्क के शहरी अगर शहर को छो़ड़ना चाहें तो अपना माल व असबाब ले जा सकते हैं। सात गिरजा अहले दमिश्क के वास्ते छोड़ दिये जायेंगे बाक़ी मिस्मार कर दिया जायेंगे।

सुलह नामा जब तहरीर किया जा चुका तो अहले दमिश्क ने अबुउबैदा के लिये शहर का मग़रिबी दरवाज़ा “ बाबे जाबिया ” खोल दिया औऱ सौ आदमियों के साथ वह शहर पर तसल्लुत हासिल करने के लिये दाख़िल हो गये। मिस्टर ऐरविंग के बयान के मुताबिक मशरिकी दरवाज़े पर यह हादसा हुआ कि एक पादरी जिसका नास यसूअ था ख़ालिद के पास आया और उसने उनसे कहा कि अगर तुम मेरे ख़ानदान को अमान दो तो मैं तुम्हें शहर में दाख़िल होने का रास्ता बता दूं। उस पादरी के ज़रिये सौ अरब शहर पनाह की दीवार से अन्दर दाख़िल हुए और मश्रिक़ी दरवाज़ा खोल दिया। ख़ालिद लश्कर के हमराह शहर में दाख़िल हो गये और उन्होंने क़त्ल व ग़ारतगरी का बाज़ार गर्म कर दिया यहां तक कि ख़ूरेंजी करते हुए मरियम के गिरजा घर तक पहुंच गये। यहां उन्हें ये देख कर तअज्जुब हुआ कि अबुउबैदा और उनके साथी भी मौजूद हैं लेकिन उनकी तलवारें नयामें में है और शहर की औरतें और बच्चें उन्हें घेरे हुए हैं। ख़ालिद को ख़ूरेंजी करते देख कर अबुअबीदा ने उन्हें मना किया और कहा कि यह शहर हमने सुलहा की बुनियाद पर फ़तेह किया है , अब किसी शख़्स के क़त्ल का इक़दाम मुनासिब नहीं है। ख़ालिद ने कहा , तुमने सुलय क्यों की , पाबन्दी न की जायेगी तो मुसलमानों का एतमाद व एतबार मजरुह होगा और आइन्दा हमारे मुखालिफ़ कभी सुलहा की पेश कश नहीं करेंगे। ग़र्ज़ कि बड़ी रद्दो कद और जद्दो जेहद के बाद ख़ालिद ने क़त्ल व ग़ारतगरी और ख़ूंरेज़ी से हाथ उठाया। इस तरह सुलह की बुनियाद पर मुसलमानों ने दमिश्क़ पर फतेह हासिल की और वहां के बहुत से बाशिन्दों ने जिला वतनी इख़्तियार की।

जब फ़तेह दमिश्क़ की ख़बर दरबारे ख़िलाफ़त में पहुँची तो उमर ने अबुउबैदा को लिखा कि इराक़ से जो फौज आई थी उसे इराक़ वापस भैज दो। चुनानचे अबुउबैदा ने हाशिम बिन अतबा को इस फ़ौज का मरदार बना कर इराक़ की तरफ़ वापस कर दिया। दस हजा़र के इस लश्कर के मुक़दमतुल जैश की हैसियत से क़का़ बिन अमरु और दोनों बाज़ूओं पर अम्र बिन मालिक और रबी बिन आमिर थे।

तबरी का बयान है कि फ़तेह दमिश्क़ के बाद रजब सन् 14 हिजरी में अबुउबैदा ने ख़ालिद बिन वलीद को उनकी माजूली और अपनी इमारत से आगाह किया। उमर के हु्क्म को इतने दिनों तक उन्होंने सियासी मसलहत की बिना पर मग़फ़ी रखा था।

जंगे फहल

दमिश्क़ फ़तह करने के बाद अबुउबैदा ने यज़ीद बिन अबुसुफियान को दमिश्क़ में छोड़ा और खु़द दीगर फ़ौजी अफ़सरों और लश्करियों के साथ वहां से निकल कर फ़हल में ख़ेमा ज़न हो गये। रोमियों का सरदार सक़लार बिन मख़राक मुक़ाबिले में आया। सात दिन शब व रोज़ की लड़ाई के बाद आख़िरकार सक़लार मय 80 हज़ार रोमियों को मारा गया और बेशुमार माले ग़नीमत मुसलमानों के हाथ आया। बाज़ मोअर्रिख़ीन ने इस जंग को सन् 13 हिजरी में और बाज़ ने 14 हिजरी में तहरीर किया है। यह फ़र्क़ शायद इस लिये है कि मुहासिरा दमिश्क को बाज़ ने सत्तर दिन और बाज़ ने छः माह लिखा है।

फ़तह बेसान व तबरिया

फ़तह फ़हल के बाद अबुउबैदा और ख़ालिद ने हस पर चढ़ाई कर दी औऱ शरजील बिन हसना को कुछ फ़ौज दे कर बेसान पर और अवाला और सलमा को तबरिया पर हमला करने की ग़र्ज़ से रवाना कर दिया। चन्द झड़पों और मामूली ख़ूरेंज़ी के बाद उन दोनों शहरों के बाशिन्दों ने भी अहले दमिश्क़ की तरह सुलह कर ली। इस तरह उरदुन के शहर आसानी से मुसलमानों के क़बज़े में आ गये और उन्होंने अपनी फ़ौजी टुकड़ियों इन्तिज़ामी उमूर के लिये कज़बात व मज़ाफात में ठहरा दी। तबरी और इब्ने असीर ने फ़तेह दमिश्क , फ़तेह फ़हल और फ़तेह बेसान व तबरिया को सन् 13 हिजरी के वाक़ियात में दर्ज किया है।

जंगे मरजुल रोम सन् 15 हिजरी

फ़हल में रोमियों को शिकस्त देकर ख़ालिद औऱ अबुउबैदा अलग अलग रास्तों से हमस की तरफ़ रवाना हुए। हरकुल को जब यह ख़बर मालूम हुई तो उसने तोज़र बतरीक़ को उनके मुक़ाबिले पर भेजा जिसने दमिश्क़ के मग़रिब में मरजुर रोम के मुक़ाम पर ख़ालिद का रास्ता रोका और शग़िश रोमी ने जो क़सीर फ़ौज के साथ तोजर और अहले हमस की मदद पर मामूर था , अबुउबैदा की राह में डेरा जमाया। दमिश्क़ को मुसलमानों के हाथ से वापस लेने की ग़र्ज़ से तोज़र आगे बढ़ा। ख़ालिद को ख़बर हुई तो वह भी इसके पीछे हो लिये। यज़ीद बिन अबुसुफ़ियान को मालूम हुआ तो वह दमिश्क़ से निक़ल कर तोज़र के सामने आगाय और दोनों में जंग छिड़ गई। रोमी फौज़ यज़ीद बिन अबुसुफ़ियान से लड़ रही थी कि पिछे से ख़ालिद ने हमला कर दिया। नतीजा यह हुआ कि तोज़र की फौज़ में चन्द ही लोग बाक़ी बचे वरना सब के सब मौत के घाट उतर गये। काफ़ी माले ग़नीमत हाथ आया। आधा यज़ीद के हमराहियों ने ले लिया और आधा ख़ालिद के लश्करियों में तक़सीम हो गया। उसके बाद यजीद दमिश्क़ की तरफ़ पलट आया और ख़ालिद मरजुर रोम की तरफ़ लौट आये। यहाँ अबुअबीदा ने ख़ालिद की रवांगी के बाद शग़श से जंग छोड़ रखी थी। अभी कोई फ़ैसला न होने गाया था कि ख़ालिद भी पहुंच गये। घमासान की जंग हुई। शग़शऔर लतादाद रोमी मारे गये। मुसलमानों ने हमस तक ताकुब किया। हरकुल यह ख़बर सुनकर हमस से रोहा की तरफ़ भाग निकला।

फ़तहे हमस , हमात , सला जक़ीया और क़नसरीन वगैरा

मरजूर रोम की लड़ाई के बाद अबुउबैदा कने हमस का मुहासिरा कर लिया। हरकुल ने अहले जज़ारा को पैग़ाम भेजा कि हमस को मुसलमानो के हाथों से बचाने के लिये शाम की तरफ़ ज्यादा फ़ौज रवाना करें। चुनानचे अहले जज़ीरा की फ़ौजें शाम की तरफ़ रवाना हुई और इधर इराक से साद बिन अबी विकास ने अपनी फ़ौज के मुख़तलिफ़ दस्ते हीत और क़रक़ीसा वग़ैरा की तरफञ रवाना कर दिये कि रोमियों से वह उन शहरों को छीन लें। इसका नतीजा यह हुआ कि जज़ीरा की फ़ौज जज़ीरा की तरफ़ फिर पलट आई और जब हमस के मुहासिरे को एक माह का अरसा गुज़रा और अहले हमस को कुमक की तरफ़ से मायूसी हो गयी तो उन लोगों ने मजबूर होकर अबुउबैदा से दमिशक़् की शराएत पर सुलह कर ली। इसके बाद अबुउबैदा ने अबादा बिन सामित को हमस में अपना नाएब मुक़र्रर किया और वहां से निकल कर उन्होंने हमात , शीराज़ , लाज़क़ीया और क़नसरीन वग़ैरा को फ़तेह कर लिया। बिलाज़री और वाक़दी का बयान है कि हमस और उसके मज़ाफ़ात की फ़तेह के बाद शिकस्त ख़ुरदा रोमी इन्ताकिया में हरकुल के पास जमा हो गये। चुनानचे जोश में आकर उसने अपनी तमाम ममलेकत से फ़ौजें इकट्ठा करके मुसलमानों के मुक़ाबिले में रवाना कर दीं। अबुउबैदा ने जो मुकामात फ़तेह किये थे वहां के लोग उनके हुस्ने सुलूक के ऐसे गिरवीदा हो गये थे कि मज़हबी अख़तालाफ़ात के बावजूद वह अबुउबैदा के लिये जासूसी का काम अंजाम देने लगे। चुनानचे उन्होंने यरमूक के सामने देरुल जबम में हरकुल की फ़ौज़े जमा होने की ख़बर दी। अबुउबैदा ने अपने मातहत अफ़सरों से मशविरे के बाद मुनासिब समझा कि दमिश्क़ में जाकर और तमाम इस्लामी फ़ौजों को यक जाकर के मुक़ाबिला किया जाये। उसके बाद अबुउबैदा ने अहले हमस और आस पास के दीगर मफ़तुहा इलाक़ों के लोगों को बुलाकर जो ख़िराज उनसे वसाल किया था उसे वापस कर दिया और कहा कि इस वक़्त चूंकि हम दुश्मन से मसरुफ़े पैकार हैं औऱ तुम्हारी नुसरत व मुहाफ़िज़ नहीं कर सकते। इस पर हमस के यहूद व नसारा में कहा कि अभी तक हम पर जु़ल्म व सितम होता रहा। हम आपको अदालत व हुकूमत के मामले में यहूदियों से बेहतर समझते हैं , अगर आप अपने आमिल के साथ कुछ फौज हमस में छोड़ दें तो मुनासिब होगी। अबुउबैदा ने उनकी बात मान ली। औऱ जब मुसलमानों को मुकम्मल कामयाबी हासिल हो गयी तो उन लोगों ने ख़िराज अदा कर दिया।

फ़तेह हलब , व अनताकिया वग़ैरा

हमस , हमात और क़नसरीन वग़ैरा की मुहिम से फ़रिग़ होकर अबुउबैदा ने हलब की तरफ़ कुच किया। इस्लामी फ़ौजों के आने की ख़बर सुन कर अहले हलब क़िला बन्द हो गये। अयाज़ बिन ग़नम ने जो मुक़द्दमतुल जैश के अफ़सर थे , शहर का मुहासिरा कर लिया। वहां के लोगों ने इस शर्त पर सुलह कर ली कि ईसाई मुसलमानों को जज़िया देंगे और मुसलमान उन के मज़हबी अमूर नीज़ गिरजों के बारे में मोतरिज़ न होंगे। बाज़ मोअर्रेख़ीन का कहना है कि ईसाई हलब छो़ड़ कर अनताकिया चले गये थे और अनताकिया फ़तेह हो जाने के बाद सुलह करके वापस आये।

हलब को ज़ेर करके अबुउबैदा अनताकिया की तरफ़ बढ़े। यह शहर कुसतुनतुनिया का सानी और मशरिक़ी रोम में कैसर का दारुल हुकूमत था। यहां मुख़तलिफ़ मुक़ामात से ईसाई भीग भाग आ गये थे। मुसलमानों की आमद की ख़बर सुन कर अनताकिया से बाहर सफ़ आरा हुए मगर अबुउबैदा के हमले से पहले ही हज़ीमत उठाकर ईसाई फ़ौजें शहर के अन्दर चली गयीं। अबुउबैदा ने शहर का मुहासिरा किया। चन्द रोज़ बाद ईसाईयों ने मजबूर होकर जज़िया देने या जिला वतनी का मुहाएदा करके सुलह कर ली। जो ईसाई जज़िया न दे सका वह अनताकिया छोड़ कर किसी और सिमत चला गया लेकिन बाद में ईसाईयों ने बद अहदी की। अयाज़ बिन ग़नम और मुहम्मद बिन मुस्लिमा ने फिर जंग करके उन्हें ज़ेर किया और शराएते ऊला के मुताबिक़ फिर सुलह हो गयी।

फिर रोमियो का एक गिरोह मारा मसरीन और हलब के दरमियान मुसलमानों के ख़िलाफ़ मुजतमा हुआ। अबुऊबैदा ने अपने लश्कर को कूच का हुक्म दिया और लड़ कर उन्हें मुन्तशिर कर दिया। अवामुन नास के अलावा ईसाइयों के बहुत से मज़हबी पेशवा भी मैदाने जंग में मारे गये। बिल आख़िर अहले हलब की शराएत पर सुलह हुई औरर अबुउबैदा ने मुहायिदा तहरीर किया। इसके बाद अबुउबैदा ने चारों तरफ़ इस्लामी फ़ौजें फैला दीं और कनसरीन व अनताकिया के तमाम मज़फ़ात पर कबज़ा कर लिया। उसके बाद अबुउबैदा ने क़ोरिस , अबान , बालिस , क़ासरिन , जरहूमा बग़राज़ , ग़सान , तनुख़ , मरअश और हसनुल हदस (जिसे बनी उमय्या अपने दौर में “ वरबुल सलामा ” कहते थे) पर इस्लामी परचम लहरा दिये।

अबुउबैदा जिन जिन शहरों और इलाकों को फ़तेह करते जाते थे उनमे हज़रत उमर की हिदायत के मुताबिक अपनी तरफ़ से आमिल मुक़र्रर करके उसकी हिफ़ाज़त के लिये थोड़ी थोड़ी फ़ौज छोड़ते जाते थे।

जंगे अजनादीन

अमरु आस और शरजील ने जब बेसान के मज़ाफ़ाती इलाक़ों को भी फ़तेह कर लिया और अहले उरदुन ने डर कर मुसलिहत कर ली तो रोमी फ़ौजें ग़जा , अजनादीन और बेसान में जमा होना शुरु हुईं। अमरु आस और शरजील ने अबवाला अदर सलमा को उरदुन का ज़िम्मेदार बना कर अजनादीन की तरफ़ रुख किया जहां रोम का मशहूर सिपह सालार अरतबून अपनी फौजें लिये पड़े था और उसके अलावा उसने एक ब़ड़ी फ़ौज एलिया (बैतुल मुक़द्दस) और रमला में ठहरा रखी थी। अमरु आस ने इस मौक़े पर माविया इब्ने सुफ़ियान के ज़रिये एक तरफ़ अहले क़ीसारिया को जंगी सियासत में उलझा रखा था और दूसरी उन्होंने यह तदबीर इख़्तियार की कि अलक़मा बिन हकीम फ़ारासी और मसरुक़ अक्की को बैतुल मुक़द्दस पर हमला करने की ग़र्ज़ से रवाना कर दिया और अबु अय्यूब मालकी को रमला पर मुसल्लत कर दिया ताकि दुश्मनों की फ़ौज़ें जहां हैं वहीं उलझ कर रह जायें और अरतबून की मदद को न पहुंच सकें। गर्ज़ हर तरफ़ से मुतमईन हो जाने के बाद अम्र आस ने अजनादीन पर धावा बोल दिया। इस्लामी तलवारें चमकीं और रोमियों के सर मैदाने कारज़ार में लुढ़कने लगे। जब अरतबून की सारी फ़ौज कट गयी तो गयी तो अरतबून और उसके चन्द साथी भग कर बैतुल मुक़द्दस में पनाह गुजी हो गये। इब्ने ख़लदून का कहना है कि इस जंग का नतीजा यह हुआ कि नयाफ़ा , नाबलिस अमवनास और जबरीन अक्का , बैरुत , सैदा , लाज़क़ीया , आफ़मिया और अबनोला के लोगों ने बग़ैर जंग के मुसलमानों के लिये अपने दरवाज़े खोल दिये।

फ़तह बैतुल मुक़द्दस

मज़कूरा बाला तमाम इलाक़ों को ज़ेर करने के बाद अमरा आस ने बैतुल मुक़द्दस का मुहासिरा कर लिया और अबुउबैदा कभी क़नसरीन वग़ैरा पर इस्लामी परचम लहराते हुए इसी तरफ़ रवाना हुए यहां तक कि दोनों चरनैलों की फ़ौज़ें आपस में मिल गयीं। बैतुल मुक़द्दस के ईसाईयों ने जब यह हाल देखा और अबुउबैदा के आने की ख़बर से मुत्तेला हुए तो ख़ौफ़ व दहशत से वह हाथ पांव छोड़ बैठे। इस शर्त के साथ उन्होंने मसालेहत की ख़्वाहिश का इज़हार किया कि ख़लीफ़ये वक़्त खुद यहां आकर मुहाएदे की तकमील करें औऱ इस पर दस्तख़त करें। चुनानचे अबुउबैदा ने हज़रत उमर को पैग़ाम भेजा कि बैतुल मुक़द्दस की फ़तेह आप की तशरीफ़ आवरी पर मुनहसिर है। हज़रत उमर ने इस सिलसिले में अकाबरीन सहाबा से मशविरा किया। हज़रत उस्मान ने कहा कि आप ईसाइयों से सुलह हरगिज़ न करें क्योंकि वह लोग हिम्मत हार चुके हैं लेहाज़ा बग़ैर किसी क़ताल व जदाल के खुद ब खुद हथियार डा़ल देंगे। हज़रत अली अलै 0 ने इस राये से इख़्तिलाफ किया और कहा तुम्हें वहां जा कर सुलह कर लेनी चाहिये। हज़रत उमर ने हज़रत अली अलै 0 के मशविरे पर अमल किया और “ जाबिया ” पहुंच गये। अमाएदीन बैतुल मुक़द्दस भी वहां जमा हुए औऱ क़रारदाद सुलह पर गौ़र व ख़ौज़ के बाद सुलहनामा मुर्त्तब हुआ जिसमें यह शर्ते मरकूम हुईः

1. शहर या उसके मज़ाफ़ात में ईसाई कोई नया गिरजा तामीर नहीं करेंगे।

2. रात या दिन में किसी वक़्त गिरजा में मुसलमानों के दाख़िले पर कोई पाबन्दी न होगी।

3. कलीसाओं ओर गिरजाओं के दरवाज़े आम मुसाफ़िरों के लिये हर वक़्त खुले रखे जायेंगे।

4. ईसाई मुसलमान मुसाफ़िरों की तीन दिन दावत करेंगे और उनके साथ हुस्ने सुलूक व ख़न्दा पेशानी से पेश आयेंगे।

5. ईसाई ने अपने बच्चों को कुरआन की तालीम देंगे न अपने मज़हब का एलानिया एलान करेंगे और न किसी को ईसाई होने की तरग़ीब देंगे।

6. अगर कोई ईसाई अपना मज़हब तर्क करके मुसलमान होना चाहेगा तो उस पर कोई पाबन्दी न होगी।

7. तमाम ईसाई मुसलमानों का अदब व लिहाज़ करेंगे।

8. कोई भी ईसाई मुसलमानों का लिबास नहीं पहनेगा और न अमामा इस्तेमाल करेगा।

9. कोई भी ईसाई मुसलमानों के नाम पर अपने बच्चों का नाम नहीं रखेगा।

10. ईसाई हथियार नहीं लगायेंगे।

11. शराब फ़रोशी की क़तई मुमानियत होगी।

12. कोई भी ईसाई मुसलमानों के बाज़ार में अपना लिटरेचर फ़रोख़्त नहीं करेगा।

13. गिरजा के घण्टे ज़ोर ज़ोर से बजाने की इजाज़त न होगी।

14. कोई ईसाई किसी मुलमान को अपने यहां मुलाज़िम नहीं रखेगा।

15. किसी ईसाई का मकान मुसलमान के मकान से बुलन्द न होगा।

16. हर ईसाई शिनाख़्त के लिये अपने सर का अगला हिस्सा मुण्डवाया करेगा।

इन शिनाख़्त के साथ ईसाईयों ने जज़ीया देना कुबूल किया और शहर के दरवाज़े तमाम मुसलमानों के लिये खोल दिये गये। यह मुहाएदा सन् 15 हिजरी में हुआ और इस पर ख़ालिद बिन वलीद , अम्र आस , अब्दुल रहमान बिन औफ़ माविया बिन अबसुफियान ने भी अपनी शहादतें सब्त की। इस मुहाएदे के साथ ही अहले रमला ने भी इसी तरह का मुहाएदा कर लिया।

जब बैतुल मुक़द्दस पर मुसलमानों का मुकम्मल तसल्लुत हो गया तो अळकमा बिन हाक़िम निस्फ़ फिलिस्तीन के हाकिम मुकर्रर किये गये और उन्हें रमला में क़याम का हुक्म दिया गया। इसके बाद हज़रत खच्चर पर सवार होकर जाबिया से वारिदे बयतुलमुक़द्दस हुए। वहाँ उन्होंने एक उप़तादा मुक़ाम , सख़रा को साफ करके इस पर एक मस्जिद तामीर करने का हु्क्म दिया और दस दिन तक वहां क़याम के बाद मदीना की तरफ मराजेअत की।

हम्स पर रोमीयो का हमला

आरमीनिया और जज़ीरा के रोमामियों ने हर तरह की फ़ौजी इम्दाद देने का वायदा करके बादशाह हरकुल को हम्स पर हलमा करने के लिए उभारा। चुनानचे 17 हिजरी ( 638 ई 0) का मौसम बहार शुरु होते ही हरकुल ने आरमीनिया और जज़ीरा वालों की कमुक के भरोसे अपने बेटे की मातहती में एक लश्कर शाम की तरफ़ रवाना कर दिया। जिन शहरों को मुसलमानों ने फतेह किया थि वह भी हरकुल के लश्कर के साथ हो गये और अरब को ईसाई क़बायल ने भी अपनी हिमायत को इन से वाबस्ता कर दिया। मिस्र से जो फ़ौज आई थी इस ने शुमाली फिलिस्तीन पर क़ब्ज़ा कर लिया। इस तरह मुसलमान हर तरफ़ से नरग़े में घिर गये मगर मुस्तइदी , होशियारी , जोशे हमीयत , हरब व जरब व ज़र्ब की फ़नकारी और तवक्कुल ने इन का साथ दिया।

जब रोमियों ने हम्स पर हमले का इरादा किया तो अबू उबैदा ने भी इधर-उधर से फ़ौजे जमा करके हम्स के बाहर सफ़ें जमा जमा दी। क़िनसरीन से ख़लीद बिन वलीद भी आ गये और इन दोनों ने हज़रत उमर को तमाम हालात से मुत्तेला किया। हज़रत उमर ने चारों तरफ क़ासिद दौड़ाये। ईराक़ के सिपासलार साद बिन अबि विक़ास को लिखा कि इस हुक्म के मौसूल होते है फ़ौरी तौर पर क़ाआका बिन उमर को जो कूफ़े में मुक़ीम है चार हज़ार की फ़ौज के साथ हम्स की तरफ रवाना कर दो। सहल बिन अदी रक़ा की तरफ़ बढ़ कर जज़ीरा वालों को हम्स की तरफ बढ़ने से रोके। अब्दुल्लाह बिन एतबान नसीबैन होते हुये हेरान औऱ रुहा की तरफ़ बढ़े और वलीद बिन अक़बा आगे बढ़ कर अरब के क़बाएल रबिया और तनूख़ की रोक थाम करें जो जज़ीरा में अबाद है। जंग के मौक़े पर आयाज़ बिन ग़नम को इन सब सरदारों का सरदार समझा जाये औऱ इन के हुक्म पर अमल किया जाये। जज़ीरा वालो को जब मालूम हुआ कि इनके इलाक़े में इस्लामी फ़ौजे फैल गयी हैं तो वह रोमियों से अलहदा होकर अपने शहरों को बचाने की फ़कर में वापस चले गये और इसी असना में अबुउबैदा ने रोमियों पर हमला करके उन्हें पसपा कर दिया। मौलवी अमीर अहमद रक़म तराजड है कि मुसलमानों ने दुश्मन को सख़्त नुक़सान पहुंचाया और हरकुल का बेटा कुछ फौज़ के साथ जान बचाकर भागने में कामयाब हो गया और शाम को दोबारा मुसलमानों ने मसख़्खर कर लिया। इस वक़्त हम्स में अबुउबैदा शाम के गवर्नर जनरल थे और उनके मातहत कनसरीन में ख़ालिद बिन वलीद , दमिश्क़ में यज़ीद बिन अबू सूफ़ियान , लदन में माविया , फ़िलिस्तीन में अलक़मा और मूसल में अब्दुल्लाह बिन क़ैस गर्वनरी के ओहदों पर मामूर थे।

क़िसारया को चूकि मिस्र की तरफ़ से बराबर इमदाद मिलती रहती थई इस वजह से वह अरसे तक रोमियों के क़ब्जे में रहा लेकिन जब हरकुल के बेटे फिलीस्तीन के भागने की ख़बर पहुंची तो अहले किसारिया ने भी हाथ पांव छोड़ दिये और जान माल की हिफ़ाजत की शर्त रखी पर मुसलमानों की इताअत कुबूल कर ली और फतूहात शाम की तकमील हो गयी आखिर शिकस्त खाकर जब रोमियों को बिल्कुल मायूसी हो गयी तो उन्होंने इसी पर क़नाअत कर ली कि जब मौक़ा मिले इस्लामी इलाक़ों पर धावा बोल दिया जाय। जब यह बस भी न चला तो उन्होंने अपने और अरबों क दरम्यान नाकाबिले अबूर हद फ़ासिल क़ायम करने के लिये अपनी बाकी मान्दा एशियाई मक़बूज़ात की सरहदों पर एक वसीय व अरीज़ इलाक़े को नेसत व नाबूद और वीरान कर दिया। इस बदक़िस्मत इलाके में जितने भी शहर और क़रिया थे सब ज़मीन के बराबर कर दिये गये और क़िलों को मिसमार कर दिया गया। वहां के लोग शुमाल की तरफ़ जा कर आबाद हो गये। लेकिन यह कोताह बीनी और नाआक़बत अन्देशी की तदबीर भी कारगर न हुई। आयाज़ बिन ग़नम ने जो शुमाली शाम की कमान पर मुतअय्यन थे , कोहतारस को अबूर करके सालेशिया और तरतूस पर कब्ज़ा कर लिया और बहरे असवद तक फतेह का परचम लहराते चले गये यहां तक कि आचाज़ के नाम से एशियाए कोचक के रोमी थरथराने लगे । इसी ज़माने मुसलमानों ने अपनी सलाहियतों से काम ले कर जहाजों का बेड़ा भी तैयार कर लिया और थोड़े ही दिनों में वह समन्दरों पर भी काबिज़ हो गये।

जिस वक़्त अयाज़ बिन ग़नम एशियाए कोचक के इलाकों में फ़तेह वह कामरानी का परचम लहरा रहे थे इन के बीच मातेहत अफ़सरों ने जिन्हें साद बिन अबीविक़ास ने हज़रत उमर के हुक्म से रक़्क़ा , नसीबैन , हरान और रोहा की तरफ़ रवाना किया था , जज़ीरा और आरमीना के अकसर इलाक़ों को सुलह से और बाज़ को जंग करके फ़तेह कर लिया। इस तरह अरज़े रम , रक़्का , नसीबैन , रोहा , दारा , सम्बेसात , सरोज , रास कैफा , अरजुल बैज़ा , मनीह रास ऐन , मुबाफ़ारेक़ैन , कफ़्र तूसा , तूर अबदीन , मारदीन , मूसल , ज़ोज़ान , अरज़न , बदलीस , ख़लात और मुलतिया वग़ैरा सारे शहर और क़रिये सन् 16 हिजरी तक फ़तेह कर लिये।

ईरान से मार्काआराईयों

यह तहरीर किया जा चुका है कि मसन्ना बिन हारसा शैबानी हज़रत अबुबकर से जंगी मदद लेने की ग़र्ज़ से इराक़ से मदायन आये थे कि हज़रत अबुबकर का इन्तेकाल हो गया उनकी वसीयत के मुताबिक़ उमर ख़लीफ़ा हो गये। तख़्ते ख़िलाफ़त पर मुतमक्किन होते ही उन्होंने अबुबकर की छेडी हुई नातमाम जंगु मुहिम को मुक़द्दम समझा और लोगों को इराक़ जाने के लिये उभारना शुरु किया यहां तक कि तीन दिन तक मुताविर मुसलमानों को तरग़ीब व तहरीस के ज़रिये आमादा करते रहे लेकिन किसी ने कोई जवाब न दिया। आख़िर कार जनाबे मुख़तार के वालिद अबुअबीदा बिन मसूल कसक़फी ने इराक़ की मुहिम सर करने का बेड़ा उठाया। चुनानचे हज़रत उमर ने मुसन्ना को आगे रवाना कर दिया और उनसे कहा तुम चलो हम कुमक भेज रहे हैं। ग़र्जं अबुअबीदा को चार हज़ार फ़ौज का सरदार मुक़र्रर करके उन्होंने बाद में रवाना कर दिया। साद बिन अबीद अन्सारी और सीलत बिन कैस अन्सारी भी उनके हमराह हो लिये और एक माह बाद अबुअबीदा हीरा के मुक़ाम पर मुसन्ना के पार पहुंच गये। शाह ईरान ने रुस्तम बिन फ़रख़ज़ाद को जो बड़ा मुदब्बिर और शुजा था एक कसीरुल तादाद फ़ौज के साथ मुसलमानों के मुक़ाबिले में भेजा जिसने अबुअबीदा बिन मसूद सक़फ़ी के वहां पहुंचने से पहले ही मुसलमानों के मफ़तूहा इलाक़ों को क़बज़े में कर लिया था। नरसी और जाबान उसके दो मातहत सरदार हीरा के क़रीब तक आ गये थे। चुनानचे जाबान ने नमाज़िक में और नरसी ने कसकर में डेरा डाल रखा था। अबु अबीदा बिन मसूद ने अपनी फौज़ को अरासता करके नमाज़िक़ में मुक़ीम जाबान के लश्कर पर चढ़ाई कर दी काफ़ी ख़ूरेजी के बाद ईरानियों को शिकस्त हुई। जाबान और उसके हज़ीमत ख़ुर्दा साथियों ने भाग कर कस्कर में नरसी के पनाह ली।

जाबान की शिकस्त का हाल सुन कर रुस्तम ने बीस हज़ार की फ़ौज के साथ अपने एक सरदार जालीनूस को कसकर की तरफ़ रवाना किया जहां नरसी पहले ही से तीस हज़ार का लश्कर लिये हुए ख़ेमा ज़न था। लेकिन जूलीनूस के वहां पहुंचने से पहले ही लश्करे इस्लाम ने नरसी की फ़ौज़ को कसकर के क़रीब सक़ातिया के मुक़ाम पर तहस नहस कर दिया और जब कसकर औऱ सक़ातिया ईरानियों से ख़ाली हो गया तो मुसलमानों ने उनके शहर और क़सबात को जहां को लोगों ने इस्लाम कुबूल करने या जज़ीया देने से इन्कार किया था , तबाह व बर्बाद और वीरान कर दिया। नीज़ उनकी औरतों और बच्चों को गिरफ़्तार कर लिया। अहले सवाद ने ज़जीया के एवज सुलह कर ली।

इस कामयाबी व कामरानी के बाद अबुअबीदा बिन मसूद सक़फी जालीनूस से मुक़ाबिले के लिये आगे बढ़े और मुक़ाम मुबसियासा पर जो रुसमा के क़रीब वाक़े है , मुडभेड हुई लेकिन पहले हमले में ही जालीनूस की फ़ौज अरबी तलवारों की ताब न लाकर भाग ख़ड़ी हुई और अबुअबीदा ने कसकर पर क़बज़ा कर लिया और वहां के लोगों पर जज़िया क़ायम करके हीरा की तरफ़ वापस आ गये।

जंगे क़स नातिफ़ (जसर)

जालीनूस शिकस्त ख़ाकर मय अपने हज़ीमत खुर्दा लश्कर के जब रुस्तम के पास मदायन पुहंच तो रुस्तम ग़म व गुस्से में आपे से बहर हो गयी। उसने तीस हज़ार फ़ौज औऱ तीन सौ हाथियों की कुमक दे कर बहमन जादू को जालीनूस के साथ हीरा की तरफञ रवाना किया औऱ बहमन जादू को हुक्म दिया इस मर्तबा अगर जालीनूस भागे तो उसकी गर्दन उड़ा देना।

बहमन जादू रास्ते के शहरों और क़स्बों से भी अरबों के ख़िलाफ़ लोगों को जमा करता हुआ क़स नातिफ़ में आकर ख़ेमा ज़न हो गया। अबुअबीदा बिन मसूद सक़फ़ी बहमन जादू की आमद की ख़बर सुन कर मरुहा में आ गये। दरमियान में चूंकि दरियाये फुरात हाएल था इसलिये जंग रुकी रही।

फिर फ़रीक़ीन की राये से फुरात पर पुल बनाया गया और जब वह तैयार हो गया तो बहमन जादू ने अबुअबीदा से कहला भेजा कि पुल पाकर करके तुम हमारी तरफ़ आओ या हमें अपनी तरपञ आने की इजाज़त दो। अबुउबैदा ख़ुद फ़ौज लेकर बहमन के लश्कर पर जा पड़े और मैदाने कारज़ार गर्म कर दिया। ईरानियों ने अपने लश्कर के हाथियों को आके रखा था लेहाज़ा वह हाथियों ही पर से मुसलमानों पर तीरों की बारिश करने लगे। मुसलमान सवारों ने हाथियों पर हमला करने का इरादा किया। लेकिन उनके घोड़ों ने चूंकि कभी हाथी देखा न था इसलिये वह भड़क कर मैदान से भागे। यह हाल देख कर घोड़ों के सवार उनकी पुश्त से फांद पड़े और अबुउबैदा की क़यादत में पैदल ही हाथियों पर तलवारें लेकर टूट पड़े। ईरानियों ने तीरों से उन्हें रोकना चाहा मगर जज़बये शहादत और दस्त ब दस्त जंग होने लगी। कुछ ही देर के बाद बहमन जादू ने जब अपनी फ़ौज को मुन्तशिर होते देखा तो उसने हाथियों को आगे बढ़ाने का हुक्म दिया। अबुउबैदा ने मुसलमानों से पुकार कर कहा कि हाथियों पर हमला करो और उनकी सूंड़े काट डालों। यह कहकर अबुउबैदा आगे बढ़े और एक हाथी की सूंड उन्होंने काट दी। इसके सवार ने उन पर नेज़ा का वार किया लेकिन उसे ख़ाली दे कर दूसरे वार उन्होंने उस हाथी के दोनों अगले पांव उड़ा दिये। हाथी गिरा औऱ उसके सवार को अबुउबैदा ने बड़े आराम से ज़मीन पर हमेशा के लिये सुला दिया। अबुउबैदा की यह दिलेरी औऱ तेज़ी देखकर दीगर मुसलमानों ने भई वही रविश इख़्तियार की औऱ देखते ही देखते कई हाथी अपनी सूंड़े और पांव कटा कर ढे़र हो गये। अबुउबैदा एक हाथी के सामने पड़ गये उसने उनको पकड़ने का क़सद किया उन्होंने अपनी जान बचा कर उसकी सूंड पर वार किया। सूंड तोकट गयी लेकिन उसने आगे बढ़कर अबुउबैदा को अपने पैरों तले् रौंद डाला। अबुउबैदा की शहादत के बाद पै दर पै सात आदमियों ने इस्लामी परचम संभाला औऱ लड़ लड़ कर शहीद हो गये आठवें मुसन्ना थे जिन्होंने लवाए इस्लाम को लेकर दो बारा एक पुरजोश लड़ाई लका क़सद किया लेकिन इस्लामी फ़ौजियों की सफ़ें ग़ैर मुर्त्तब हो गयीं थी और यके बा दीगरे सात अलमब्रदारों की शहादत से लोग इधर उधर मुन्तशिर होने लगे थे। अब्दुल्लाह बिन मुरसिद ने यह हाल देख कर पुल के इस ख़्याल से तोड डाला कि मुसलमानों को भागने का रास्ता न मिलेगा तो वह ख़्वाह मख़्वाह जम कर लड़ेंगे। बहमन जादू ने अपने हमलों में और शिद्दत पैदा कर दी। नतीजा यह हुआ कि जो लोग मैदान में न ठहर सके वह फुरात में डूब गये और जो लड़ते रहे वह मारे गये। मुसन्ना , अरवा बिन के पास हीरा आया था और मुल्की जोश व ग़ैरत की वजह से मुसलमानों के साथ इस मारके में शरीक हो गया था , मारा गया और मुसन्ना बुरी तरह ज़ख़्मीं हुए। इस अर्से में पुल दोबारा दुरुस्त कर लिया गया था। चुनानचे मुसन्ना मय अपने बक़िया साथियों के साथ दुश्मनों से लड़ते हुए फुरात अबूर कर गये। इस जंग के आख़री शहीद सलीत बिन क़ैस थे जो पुल के पास लड़ते हुए मारे गये।

इस जंग में इस्लामी लश्कर 6 हज़ार आदमियों पर मुश्तमिल था। चार हज़ार लड़ने और फुरात में डूबने की वजह से ज़ाया हुए , दो हज़ार इधर उधर भाग गये औऱ तीन हज़ार बाकी बये। ईरानियों के छः हज़ार आदमीं काम आये। यह वाक़िया माहे शबान सन् 13 हिजरी का है।

जंगे बवीब

जब हज़रत उमर को अबुउबैदा बिन मसूद सक़फ़ी और दीगर मुसलमानों की शहादत व हज़ीमत की हाल मालूम हुआ तो उन्होंने मुसन्ना की मदद के लिये मुसलमानों से अपील की। सबसे पहले क़बीला बहीला ने अपनी आमदगी ज़ाहिर की मगर यह कहा कि शाम के आलावा हम और किसी तरफ़ नहीं जायेंगे। हज़रत उमर ने माले ग़नीमत के ख़ुम्स का चौथाई हिस्सा देने का वादा करके उन्हें इराक़ जाने पर राज़ी कर लिया औऱ क़बीला बहीला को जरीन बिन अब्दुल्लाह बिजली की क़यादत में मुसन्ना की इमदाद पर रवाना कर दिया। इधर मुसमा ने भी अफने जाती वसाएल से आस पास के अरब क़बिलों को खुतूत कर बहुत से आदमीं जमा कर लिये। अनस बिन हिलाल नमरी भा नसाराये बनी नम्र की एक जमीअते आज़म ले कर आ गया और कहा हम हम ईरानियों से लड़ेंगे।

रुस्तम और फ़ीरज़ान को जब यह ख़बर पहुंची तो दोनों ने मुत्ताहिदा तौर पर महरान नामी एक सरदार को भारी फ़ौज दे कर मुसलमानों के मुक़ाबिले पर रवाना किया। मुसलमानों ने कूफ़ा के क़रीब “ बवीब ” के मुक़ाम पर डेरा डाला और दूसरी तरफ़ दरिया के उस पार ईरानी लश्कर ख़ेमा ज़न हुआ। महरान ने मुसन्ना कसे कहला दिया कि दरिया अबूर करके तुम आओगे या हम आयें ? मुसन्ना ने कहा कि इस मर्तबा तुम ही आ जाओ। मरनान ने अपनी फौज़ के साथ दरिया अबूर किया और मुसलमानों के मुक़ाबिले पर आकर डट गया और उसने अपने लश्कर की तीन सफ़ों को जिनके साथ हाथी भी थे , आगे बढ़ाया। इधर से मुसन्ना पहले ही हमले में ईरानियों के कलब लश्कर तक पहुंच गये। उनके साथ अनस बिन हिलाल भी अपनी जमीयत के साथ मारते काटते आगे बढ़े। ईरानी भई जान छोड़कर लड़ते रहे यहां तक कि उनका सरदार महरान मुसन्ना के हाथ से मारा गया। उसका क़त्ल होना था कि ईरानियों के पांव मैदान से उख़ड़ गये और भगदड़ मच गयी। मुसलमानों ने घोड़े दौड़ा दौड़ा कर उन्हें कत्ल करना शुरु किया और इतने ईरानी मारे कि मुद्दतों बाद भी वहां हड्डियों के ढ़ेर नज़र आते थे। इब्ने ख़लदून और साहबे जैबुल सैर की रवायतों के मुताबिक़ तक़रीबन एक लाख आदमी मारे गये और मुसलमानों ने साबात तक ईरानियों का पीछा न छोड़ा और क़सबात व देहात को ताख़त व ताराज कर डाला नीज़ वहां के बाशिन्दों को गिरफ़्तार कर लिया।

इस लड़ाई से सवाद से दजला तक मुसलमानों का तसल्लुत हो गया और अहले फ़ारस ने मजबूरन दजला पार का इलाक़ा उनके हक़ में छोड़ दिया। इस के बाद मुसन्ना ने हीरा की तरफञ मराजेअत की। यह लड़ाई माहे रमज़ान सन् 13 हिजरी में हुई।

जंगे क़ादसिया

अमाएदीन व अकाबरीन ईरान ने मुसलमानों की मुसलसल फ़तूहात पर तशवीश का इज़हार करते हुए उसे बाहमी नाइत्तेफ़ाक़ी का समरा क़रार दिया और कुछ बुज़ुर्गों ने रुस्तम व फ़िरोज़ान को जो सलतनत के दस्त व बाज़ू थे और आपस में एक दूसरे से अख़ेतेलाफ़ रखते थे , इत्तेफाक़ व इत्तेहाद से काम करने पर आमादा कर लिया। इधर शहंशाह यज़देजुर्द ने अपने मुल्क से तमाम मरज़बानों को जमा कर लिया। इधर शहंशाह यज़देजुर्द ने अपने मुल्क से तमाम मरज़बानों को जमा करके उनसे मुल्क और रेआया की हिफ़ाज़त के बारे में सख़्त ताकीद की और बड़े बडे आज़मूदा कार सिपेहसालारों और चरनैलों को कसीरुल तादाद फौज़ों के साथ हीरा , अबला औऱ अम्बार की सरहदों पर तैनात कर दिया। मुसन्ना ने इन वाक़ियात की ख़बर दरबारें ख़िलाफ़त में दी। अभी वहां से कोई जवाब न आया था कि अहले सवाद ने अहद शिकनी करके बग़ावत कर दी। उनकी सरकूबी के लिये मुसन्ना ने ख़रुज करके ज़ीक़ार में क़याम किया और इस्लामी फ़ौज़ें तफ़ में ख़ेमा ज़न रहीं। यहां तक कि हज़रत उमर का हुक्म मौसूल हुआ कि तमाम इस्लामी अफ़वाज सिमट कर सरहदों पर चलीं जायें , अनक़रीब कुमक भी रवाना की जा रही हैं। इस हुक्म के बाद मुसन्ना फ़ौज़ों को ले कर बसरा के क़रीब मुक़ामे असी में मुक़ीम हुए।

उधर हज़रत उमर ने अपने उम्माल को एक गश्ती मुरासिला भेज कर फ़ौरी तौर पर प्यादो , सवारा और सामाने हर्ब व ज़रब तलब किया। चुनानचे जो लोग इराक़ के क़रीब थे वह वहीं से सीधे मुसन्ना के पास पहुंचे और जो इतराफ़ व जवानिब से आकर मदीने में जमा हो गये थे उनके साथ जरनैल बन कर खु़द हज़रत उमर ने इराक़ की तरफ़ जाना चाहा मगर हज़रत अली अलै 0 और बाज़ दीगर साहाब ने मना किया और कहा कि असहाबे पैग़म्बर स 0 में से किसी सहाबी को लश्कर का सिपह सालार बनाकर भेज दीजिये , अगर वह नाकाम रहा तो दूसरे को भेज दीजियेगा। इस तरह दुश्मनों पर ज़्यादा असर पड़ेगा। चुनानचे हज़रत उमर ने साद बिन अबी विक़ास को जो हवाज़िन में सदाक़त की वसूलियाबी पर मुक़र्रर थे , तलब करके जंगे इराक़ पर मामूर किया और चार हज़ार की सिपाह के साथ इराक़ की सिम्त रवाना कर दिया। फिर साद के बाद दो हज़ार यमानी और दो हज़ार नजदी जंगजू रवाना किये।

जब साद बिन अबी विक़ास “ बजूद ” के मुक़ाम पर पहुंचे तो उन्हें मालूम हुआ कि मुसन्ना बसबब उन ज़ख़्मों के कि जो उनके जिस्म पर मारका जसर में लगे थे , बशीर बिन ख़सासिया को अपना क़ायम मुक़ाम मुक़र्रर करके इन्तेक़ाल कर गये। उनके पास उस वक़्त साठ हज़ार आदमीं थे।

साद आगे बढ़े तो तीन हज़ार आदमी बनी असद के उनकी फ़ौज में शामिल हो गये। कूफ़े के क़रीब “ सैराफ़ ” के मुक़ाम पर साद का लश्कर जब पहुंचा तो अशअस बिन क़ैस कुन्दी अपने क़बीले के दो हज़ार आदमियों के साथ उनसे मिल गया।

सैराफ़ में अक़ामत के दौरान हज़रत उमर ने तलीहा बिन ख़वैलद असदी , अमरु बिन माद चकरब , आसिम बिन उमर शरजील बिन समत , औऱ ज़ात बिन हयान में से हर एक को काफ़ी-काफ़ी सिपह देकर एक दूसरे के पीछे साद की मदद के लिये रवाना किया यहां तक कि साद के पास तीस हज़ार और ब-रवायते छत्तीस हज़ार का लश्कर जमा हो गया। यहां मुसन्ना के भाई मुक़नी भी साद से आकर मिले और मुसन्ना ने बावक़्ते इन्तेक़ाल जो ज़रुरी हिदायतें दी थीं उन्होंने साद के गोशगुज़ार कीं। इसी सैराफ़ में क़याम के दौरान साद ने मुसन्ना की बेवा सलमा से जो इन्तेहाई हसीन व जमील थीं , निकाह कर लिया। इतने में साद को हज़रत उमर का हुक्म मिला कि आगे बढ़ कर क़ादसिया के मुक़ाम पर मोर्चा जमा दो।

साद ने क़ादसिया में दो माह क़याम किया मगर दुश्मनों में से किसी लड़ने वाले की सूरत तक दिखाई न दी। इश क़याम के दौरान जब रसद व ग़ल्ला की ज़रुरत होती तो लश्करी अम्बार और कसकर के दरमियान मवाज़ेआत पर धावा मारते और अपनी ज़रुरियात की चीज़ें वहां से लूट लाते थे।

ईरान के शहंशाह यज़दुजर्द को यह कैफ़ियत मालूम हुई तो उसने रुस्तम को मुसलमानों के मुक़ाबिला के लिये मामूर किया। चुनानचे उसने एक अज़ीम लश्कर के साथ साबात के मुक़ाम पर डेरा डाल दिया। साद बिन अबीविक़ास ने इस अमर की इत्तेला हज़रत उमर को दी। वहां से जवाब आया कि ख़ुदा कि ज़ात पर भरोसा रखो और चन्द ऐसे आदमियों को क़बल जंग शाह फारस के पास दावते इस्लाम के लिये भेजो जो बहस व मुबाहिसा का शऊर व सीलक़ा रखते हो।

साद ने चौदा बासलाहियत मुसलमानों को जिनमें नोमान बिन मक़रुन , जरीर बिन अब्दुल्लाह बिजली और तलीहा बिन ख़्वैलद असदी भी शामिल थे , सफ़ीर की हैसियत ये यज़दजुर्द के पास इस्लाम की दावत देने को रवाना कर दिया। जब यह लोग एवाने केसरा में दाख़िल हुए तो उस वक़्त यज़दजुर्द चांदी के सतूनों पर बने हुए एक सोने के तख़्त पर जो हीरे जवाहारात से मुरस्सा था , बैठा हुआ था और मख़सूसीन व मुलाज़मीन ज़़रक व बरक़ और जरीं लिबासेों में मबलूस उसके इर्द गिर्द जमा थे।

बेचारे सादगी पसन्द औऱ सीधे साधे मुसलमान धारीदार यमनी कपड़े पहने हुए उसकी ख़िदमत में हाज़िर हुए। उसने उन पर हेक़ारत की एक नज़र डाली औऱ पूछा क्यों आये हो ? सफ़ीरों के सरदार-नोमान बिन मुक़रिन ने कहा , हम आपको इस्लाम की तरफ़ दावत देने आये हैं। हमारा उसूल है कि हम दुश्मन से लड़ने से पहले तीन चीज़ें उसके सामने पेश करते हैं। कुबूले इस्लाम , जज़ीया , या जंग। बेहतर है कि आप इस्लाम कुबूल फ़रमां लें और तमाम झगड़ों से निजात हासिल कर लें।

यज़दजुर्द को मुसलमानों की इस जुराअत व हिम्मत पर सख़्त तअज्जुब हुआ। और वह बोला कि पहले तो तुम से ज़्यादा हक़ीर और पस्त कोई क़ौम न थी और आज यह दावे हैं। क़ैस बिन ज़रारा ने कहा , आपकी बातें दुरुस्त , मगर खुदा ने हम पर हस्ब व नस्ब में हमसे मुम्ताज़ पैग़म्बर भेजा और जो दीन हमें दिया वह सच्चा और निजात दिलाने वाला है। वही दीन हम आपके सामने पेश करते हैं। अब इसे कुबूल कीजिये वरना जज़ीया दीजिये। अगर इनमें से कोई बात क़ाबिले कुबूल नहीं है तो तलवार के फ़ैसले पर तैयार हो जाइये। यह सुन कर यजदुजर्द सख़्त नाराज़ व बरहम हुआ और मिट्टी का एक टोकरा आसिम बन अमरु के सर पर रखवा कर उन्हें वापस कर दिया। उन्होंने साद के पास वापस आकर कहा , फतेह मुबारक हो , दुश्मन ने ख़ुद ही अपनी ज़मीन हमें दे दी है।

इस वाक़िये के बाद भी रुस्तम साबात में पड़ा रहा और लश्करे इस्लाम ने जिसकी तादाद अब तस हज़ार से ऊपर हो चुकी थी कादसियचा के नवाह में लूट खसोट मचा दी। वहां की रेआया ने दरबारे ईरान में जब फ़रयाद की तो रुस्तम को आगे बढ़ने का हुक्म हुआ। चुनानचे उसने एक लाख बीस हज़ार की फ़ौज और 33 हाथियों के साथ साबात से चब कर हीरा में पड़ाव ड़ाला और वहां से कैच करके दूसरे दिन क़ादसिया आ गया। वहां उसने अपना एक क़ासिद भेज कर मुसलमानों से दरियाफ़्त किया कि अब क्या चाहते हो ? जवाब मिला , इस्लाम , जज़ीया या तलवार जैसा कि यज़दुजर्द से कहा गया था।

इस्लाम औऱ जज़ीया पर रुस्तम राज़ी न हुआ इसलिये उसके सामने जंग के अलावा कोई रास्ता न था। चुनानचे उसने जंग का एलान कर दिया। इस्लामी अफ़वाज ने भी अपनी साफ़ बन्दी की और माहे मोहर्रम सन् 14 हिजरी बरोज़ड दो शन्बा ज़ोहर के वक़्त लड़ाई शुरु हो गयी। हंगामे कारज़ार दूसरे या तीसरे दिन हज़रत उमर की हिदायत पर हाशिम बिन अतबा भी शाम से दस हज़ार का लश्कर लिये हुए आ धमके. इस मौक़े पर साद बिन अबिविकास अरकुन्निसा के मर्ज़ में मुबतिला हो गये थे लेहाज़ा उन्होंने ख़ालिद बिन अरफ़ता को अपनी जगह सिपेह सालार बना कर मुक़ाबिले के लिये फेज दिया और ख़ुद एक महल पर बैठ कर लड़ाई देखने लगे। “ एक पर एक ” की जंग में मुसलमान ईरानियों पर ग़ालिब रहे। उसके बाद जंगे मग़लूबा शुरु हुआ। मुसलमानों के घोड़े भड़के सवारों ने भी अपने घोड़ों को ख़ैरबाद कहा और तलवारें ले लेकर पैदल ही दुश्मन की सफ़ में घुस गये और मारते काटते रुस्तम के तख़्त तक पहुंच गये। उसने जब यह हाल देखा तो तख़्त छोड़ कर घोड़े पर बैठा और काफ़ी देर तक लड़ता रहा। आख़िर कार ज़ख्मों की ताब न लाकर भागा और दोपहर के वक़्त दरिया में कुद पड़ा। हिलाल नामी एक मुसलमान सिपाही उसका काम तमाम करके उसके तख़्त पर चढ गया। और पु्कार कर कहा कि हमने रुस्तम का ख़ातमा कर दिया है। यु सुनना था कि ईरानी भाग निकले। मुसलमानों ने दूर तक उनका तअक्कुब करके हज़ोरों को फ़ना के घाट उतार दिया।

सत्तर हज़ार दीनार का रुस्तम का कमर बन्द औऱ एक लाख दीनार की मालियत का उसका ताज हिलाल को दिया गया। औऱ दरफ़िश कावियानी (परचम) जो ज़रार बिन ख़ताब ने लूटा था , उससे तीस हज़ार दीनार का ख़रीदकर माले ग़नीमत में शामिल कर लिया गया। यह परचम जवाहरात से मुरस्सा था और बकौल इब्ने ख़लदून उसकी असल क़ीमत तक़रीबन दस लाख दीनार थी। साद ने माले ग़नीमत का ख़ुम्स दरबारे ख़िलाफ़त में रवाना किया जिसमें बे इन्तेहा नक़दी , जवाहारात , सोने चान्दी के बरतन , ज़रबफ़त के लिबास , घोड़े ख़च्चर औऱ हथियार शामिल थे। इस लड़ाई में साढ़े आठ हज़ार मुसलमान और एक लाख के करीब ईरानी मारे गये जिसें रुस्तम और जालीनूस दोनों शामिल थे। मौलवी अमीर अहमद का कहना है कि यह लड़ाई मार्च सन् 636 में हुई।

फ़तेह मदायन

क़ादसिया की जंग से “ कलदिया ” और “ ईराक़ अरब ’ की क़िस्मतों का अमली तौर पर फ़ैसला हो गया। कलदिया (सवाद) पर बग़ैर किसी मज़ाहेमत व मुख़ालिफ़त के फिर मुसलमानों का क़बज़ा हो गया। जंगे क़ादसिया के दो महीने बाद तक हज़रत उमर के हुक्म से साद वहीं मुक़ीम रहे और मुज़ाफ़ाते हीरा के क़रयों की तरफ़ रवाना हुए जहंक क़ादसिया से भाग कर ईरानियों ने क़याम किया था और जहां उनके नामी गिरमीं सरदार फ़ीरज़ान , रहमज़ान और महरान अपनी फ़ौजें लिये पड़े थे। बाबुल पहुंचकर ईरानियों से जंग हुई। ईरानियों ने शिकस्त खाई। मेहरान मदायन की तरफ , हरमिज़ान एहवाज़ की तरफ़ और फीरज़ान नेहादन्द की तरफ़ अपनी अपनी फ़ौजें लेकर भाग खड़े हुए।

इसके बाद साद ने कूसी और साबात फ़तेह करके मदायन पर चढ़ाई का इरादा किया और अपनी तमाम फौजें बहराशेर में मुजतमा की। मोअर्रेख़ीन ने इस फ़ौज की तादाद साठ हज़ार बताई है।बहराशेर के बारे में कहा जाता है कि यहां एक शेर पला हुआ था। जो बादशाहे ईरान से बेहद मानूस था। जब इस्लामी फौजें यहां पहुंची तो वह पड़प कर निकला मगर हाशिब बिन अतबा ने एक ही वार में इसका काम तमाम कर दिया। बहरहाल साद का लश्कर उस मुक़ाम पर दो माह दस दिन तक मुक़ीम रहा। इसका सबब यह था कि बहरा शेर और मदायन के दरमियान दरियाये दजला हाएल था और ईरानियों ने मेहरान के साथ मदायन में दाख़िले के बाद इसके पुलों को तोड़ दिया था। आख़िरकार एक दिन नमाज़ सुबह के बाद मुसलमानों ने दजला के पानी में अपने घोड़े डाल दिये और हाथ पैर मारते हुए उसे पार कर गये। ईरानी बे सर व सामानी की हालत में मदायन छोड़े कर हलवान की तरफ़ भागे। यज़दजुर्द ने माल व मता समैत अपने ख़ानदान को पहले ही हलवान की तरफ़ मुन्तक़िल कर दिया था , उसने जब मुसलमानों के आने की ख़बर सुनी तो ख़ुद भी भागकर हलवान में मुक़ीम हो हया। आख़िरकार अहले शहर ने जज़ीया देना कुबूल करके अपने को बचाया। उसके बाद साद क़सरे अबीज़ में (जहां शाही ख़ानदान के अफ़राद रहा करते थे) दाख़िल हुए और सरबराह की हैसियत से इसी शाही महल में क़याम किया। जाबजां से माले ग़नीमत इकट्ठा करके एक जगह जमा किया गया। उसमें बड़ी बड़ी नादिर व अजाएब रोज़गार चीज़ें थीं। एक सोने का घोड़ा था जिस पर चांदी का ज़ीन कसा हुआ था। उसकी पेशानी पर याकूत व ज़मर्रुद जड़े हुए थे। उसका सवार चांदी का था मगर वह भी हीरे जवाहेरात से लदा हुआ था। एक चांदी की ऊँटनी थी जिसकी पुश्त पर सोने का कजावा था और उसकी मेहार में बेश क़ीमत जवाहेरात पिरोये हुए थे। उसका सवार भी सोने का था और सर से पांव तक जवाहेरात से मुरस्सा था। मोअर्रिख़ अबुल फ़िदा का बयान है कि सोने चांदी और मुख़्तलिफ़ क़िस्म के साज़ों सामान की क़ीमत का अन्दाज़ा लगाना मुश्किल था। तबरी वग़ैरा ने लिखा है कि यह माल तीन अरब दीनार का था। खुम्स निकालने बाद साठ हज़ार फ़ौजियों में तक़सीम हुआ और हर एक के हिस्से में बाराह हज़ार दीनार आये। ख़ुम्स जो दरबारे ख़लिफ़त में भेजा गया उसमें एक फ़र्श भी था जिसका नाम थआ बहारिस्तान और जो 60x60 गज़ में अनवा व अक़साम के जवाहारात से बना हुआ था। शाहाने फ़ारस ख़ज़ां के मौसम में उससे मौसमे बहार का काम लेते थे और उसे बिछाकर उस पर शराब पीते थे। खुम्स का माल नौ सौ ऊँटों पर लाद कर बशीर बिन ख़सासिया के ज़रिये मदीना रवाना किया गया था।

तबरी वग़ैरा का कहना है कि मदायन की लूट के मौक़े पर बाज़ सिपाहियों को देखा गया कि वह सोने और चांदी में तमीज़ न कर पाते थे और बाज़ार में आवाज़ लगाते थए कि कोई शख़्स हमारे ज़र्द ताल को (जो सोने का होता था) सफ़ेद थाल जो (चांदी) से बदल ले।

उसके बाद हज़रत उमर ने साद बिन अबीविकास को मदायन की मक़बूज़ात का मुतावल्ली मुक़र्रर किया और हुज़ैफ़ा यमानी मक़बूज़ाते साहिले फ़ुरात के ख़िराज पर नीज़ उस्मान बिन हनीफ दजला के साहिल पर ख़िराज की वसूलियाबी पर मामूर किये गये।

साद बिन अबीविक़ास ने जलूला , तकरीत और मूसल के फ़तेह होने नीज कूफ़ा के बससाये जाने तक मदायन में क़याम किया। फ़तेह मदायन से दरियाये दजला का तमाम मग़रिबी इलाका मुसलमानों के क़बजे व तसल्लुत में आ गया।

जनाबे शहर बानों का वाक़िया

बाज़ मोअर्रेख़ीन मसलन वाक़दी वग़ैरा ने फ़तेह मदायन के असीरों में हज़रत शहर बानों बिन्ते यज़दोजुर्द मादरे इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलै 0 का दरबारे ख़िलाफ़त में आना भी तहरीर किया है जो मेरे नज़दीक ग़लत है। क्योंकि जिन मोअर्रेख़ीन ने फ़तेह मदायन के मौक़े पर शहर बानों का आना मरकूम किया है उन्होंने यह हिकायत भी लिखी कि “ जब हज़रत शहर बानों उमर के सामने पेश की गयीं तो आपने हुक्म दिया कि इस के तमाम ज़ेवरात उतार लो। चुनानचे एक शख़्स जब ज़ेवरात उतारने के लिये आगे बढ़ा तो जनाबे शहर बानों ने उसके मुंह पर एक ऐसा घूंसा मारा कि वह औंधे मुंह ज़मीन पर उलट गया। ” उमर ने ग़बनाक़ हो कर कहा कि इस लड़की से इस घूंसे का क़ेसास लिया जाये लेकिन हज़रत अली अलै 0 ने फ़रमाया कि उमर क्या तुझे मालूम नहीं कि रसूल उल्लाह स 0 ने तीन शख़्सों पर रहम करने को कहा हैं उमर ने पूछा किस पर ? फ़रमाया किसी क़ौम के इज़्ज़तदार पर जो ज़लील हो गया हो। दूसरे किसी क़ौम के अमरी पर जो फ़क़ीर हो गया हो और तीसरे उस आलिम पर जिससे लोग मसख़रा पर करतो हों। यह लड़की अपनी क़ौम में सबसे ज़्यादा इज़्ज़तदार औऱ अमीर है जो इस वक़्त ज़लील व फ़क़ीर की हैसियत से तेरे रुबरु खड़ी है। यक़ीनन क़ाबिले रहम है। हज़रत उमर ने माफ़ कर दिया और पूछा कि इस दुख़्तर को किसे दूं ? उस वक़्त देखा जनाबे शहर बानों दुज़दीदा निगाहों से हज़रत इमाम हुसैन अलै 0 की तरफ़ देख रही हैं। यह देख हज़रत उमर ने कहा कि इसने तो अपना शौहर ख़ुद ही पसन्द कर लिया। चुनानचे उन्होंने शहर बानों को मय ज़ेवरात के इमाम हुसैन अलै 0 के नज़र कर दी। “

यह मज़कूरा हिकायत मोअर्रेख़ीन के ज़हनी एख़्तेरा का नतीजा मालूम होती हैं क्योंकि यड़दजुर्द रबीउल सन् 11 हिजरी (सन् 632) में तख़्त नशीन हुआ। उस वक़्त उम्र अंग्रेज़ मोअर्रेख़ीन के बयान के मुताबिक़ 15 साल की और अरब मोअर्रेखीन के मुताबिक 21 साल की थीं। मदायन बइत्तेफाक़े मोअर्रेख़ीन सन् 16 हिजरी यानी सन् 636 में फ़तेह हुआ। उस वक़्त यज़दजुर्द की उम्र 20 या 26 सा से ज़्यादा नहीं हो सकती। अगर जनाबे शहर बानों को यज़दजुर्द की पहली औलाद मान लें यह भी फ़र्ज़ कर लें कि वह यज़दजुर्द की 18 या 19 बरस की उम्र में पैदा हुई तो फ़तेह मदायन के मौक़े पर उनकी उम्र 7 या 8 बरस से ज़्यादा नहीं हो सकती। इमाम हुसैन अलै , की विलादत बिलइत्तेफाक़ मोअर्रेख़ीन शाबान सन् 4 हिजरी में वाक़े हुई। इस हिसाब से फ़तहे मदायन के वक़्त आप की उम्र पौने बाराह बरस की थी। फिर इश रिवायत के मुताबिक़ जनाबे शहर बानों ऐसी थीं कि उनके एक घूंसे से एक मर्द उलट गया तो उनका ग्यारह बाहर साल के मच्चो को अपनी शौहरी के लिये के पसन्द करना क्योंकर क़रीन क़यास हो सकता है। औऱ अगर वह सात या आठ बरस की थीं तो एक नाबालिग और कमसिन लड़की से हज़रत उमर का क़ेसास लेना चे मानी दारद ? लेहाज़ा ये रिवायत ग़लत है और दुरुस्त यह है कि हज़रत शहर बानों सन् 36 हिजरी या सन् 37 हिजरी में हज़रत अली अलै 0 के अहदे ख़िलाफ़त में खुरासान से लाई गयीं थी।

जंगे जलूला

मदायन की शिकस्त के बाद ईरानियों ने जलूला में जंग की तैयारियां की और आज़र बाइजान , बाब और जबाल से फ़ौजी इमदाद हासिल करके एक बड़ा लश्कर जमा किया जिसका सरदार मेहरान राज़ी मुक़र्रर हुआ। शहर के चारों तरफ़ ख़ंदख़ें तैयार की गयी और रास्तों व गुज़रगाहों पर गोख़रु नुमा लोहे की कीलें बिछा दी गई। साद बिन अबीविक़ास ने ख़लीफ़ा को सूरते हाल मे सुत्तेला किया। जवाब आया कि हाशिम बिन अतबा को बारह हज़ार की जमीयत के साथ मुक़ाबिले पर रवाना करो औऱ मुक़द्दमुतल जैश पर क़का़ बिन अम्र को अफ़सर मुक़र्रर करो और बाद फ़तेह क़ाक़ा को सवाद व जबाल के दरमियानी इलाकों पर वाली बना दो।

हाशिम बिन अतबा ने अस्सी रोज़ तक जलूला का मुहासिरा जारी रखा। इस मुहासिरे के दौरान ईरानी वक़तन फ़वक़त निकल कर मुक़ाबिला करते रहे। आख़िरी लड़ाई इन्तेहाई सख़्त थी क्योंकि उस रोज़ ऐसी आंधियाँ चलीं कि बिल्कुल अंधेरा हो गया। अहले फ़ारस मजबूर होकर पीछे हटे लेकिन गर्दो गुब्बार की वजह से कुछ सुझाई न देता था। हज़ारों ख़ंदक़ में गिर गिर कर मर गये। ईरानियों ने जब यह हाल देखा तो उन्होंने खंदक़ पाट कर रास्ता बना लिया और अपने बचाव की तदबीर को ख़ुद ही ग़ैर मुस्तहकम कर दिया क्योंकि मुसलमानों ने इसी रास्ते से उन पर हमला कर दिया। यह हमला ऐसी सख़्त था कि ईरानियों के पांव उखड़ गये और वह उस तरफ़ भागने लगे जिस तरफ़ उन्होंने रास्तों में गोख़री नुमा कीलें बिछाई थीँ। नतीजा चह हुआ कि घोड़े ज़ख़्मी हो गये और वह प्यादा हो गये। मुसलमानों ने उन्हें गोख़रुओं पर दौड़ा दौड़ा कर मारना शुरु किया। एक लाख ईरानी मारे गये। यज़दजुर्द हलवान से रै की तरफ़ भाग खड़ा हुआ और क़ाक़ा ने हलवान पर क़बज़ा कर लिया औऱ करोड़ों का माले ग़नीमत हाथ आया।

फ़तेह तिकरीत व मूसल वग़ैरा

इस जंग के बाद तमाम अजम की आंखे खुल गयी और हर सूबे न अलग अलग अरबों के मुक़ाबिले में जंग की तैयारियां शुरु कर दें। चुनानचे सबसे पहले अहले जज़ीरा ने जिनकी सरहदें इराक़ व अरब से मुलहिक़ थीं , सर उठाया। साद ने अपने मातहत अफ़सरों की सरकिरदगी में फ़ौजें रवाना कीं। उन्होंने अबदुल्लाह बिन मोहतम को तक़रीत और मूसल पर , ज़रार बिन ख़त्ताब को मासिन्दान पर और उमर बिन मालिक को हीत व क़रकीसिया पर मुसल्लत कर दिया और उन लोगों ने यह तमाम इलाक़े फ़तेह कर लिये। उसके बाद सन् 17 हिजरी में अहले जज़ीरा ने रोमियों को हम्स फ़तेह करने की तरग़ीब देकर बुलाया तो मुसलमानों ने जज़ीरा व आमीनिया के बहुत से इलाक़े फ़तेह कर लिये।

फ़ारस पर लश्करकशी

हज़रत अबुबकर के ज़माने में अला हज़रमीं बहरैन के आमिल थे। हज़रत उमर ने उन्हें माजूल करके क़दामा बिन मज़ऊन को मामूर कर दिया था मगर सन् 15 हिजरी में अला को बहाल कर दिया। अला हर मामले में साद की तरफ़ से अपने दिल में हसद रखता था। चुनानचे क़ादसिया की जंग में साद जब कामयाब हुए तो अला को सख़्त रश्क पैदा हुआ और उसने हज़रत उमर की इजाज़त के बग़ैर अपनी फ़ौज़ें अपने मातहत अफ़सरों के जरिये समन्दर की राह से बिलादे फ़ारस में उतार दें। असतख़र के क़रीब ताऊस के मुक़ाम पर जंग हुई। अला के दो सरदार “ जारुद ” और “ सवार ” मारे गये और सख़्त फ़ौजी नुक़सान हुआ। हज़रत उमर को अला की इस हरकत का पता चला तो वह सख़्त बरहम हुए और अतबा बिन ग़रवान को जो सन् 14 हिजरी “ फ़तेह अबल्ला ” के वक़्त “ ख़रीबा ” में (जहां बाद में बसरा आबाद किया गया) मुक़ीम था , लिखा कि फ़ौरन एक लश्करे जर्रार मुसलमानों को बचाने के लिये फ़ारस की तरफ़ फेज दो , और अला को यह तहदीद हुक्म दिया कि तुम बहरैन से अपनी सारी फ़ौज ले कर सादबिन अबीविक़ास के पास चले जाओ। अथबा ने अबु सबरा बिन अबी रहम के मातहत बाराह हज़ार फ़ौज फ़ारस की तरफ रवाना कर दी। अहवाज़ क़रीब ईरानियों से जंग हुई। ईरानियों ने शिकस्त खाई। चूंकि आगे बढ़ने का हुक्म न था इसलिये मुसलमानों को रेहाई दिलाकर बसरा की तरफ़ मराजियत की।

फ़तहे अहवाज़ शोसतर वगै़रा

ईरानियों का सरदार हरमिज़ान क़ादसिया से भाग कर अहवाज़ चला आया था और उसने तसतर (शोस्तर) को अपना दारुल हुकूमत बना लिया था। चूंकि उसकी सरहद बसरा से मिली हुई थी औऱ बग़ैर उसको फ़तेह किये बसरा में अमन का क़याम मुम्किन नहीं था इसलिये साद बिन अबीविकास ने कूफ़े और बसरा से फौजें भेज कर अहवाज़ व शोस्तर पर चढ़ाई की। इस फ़ौज ने उन इलाकों को फ़तेह करके उन पर अपना तसल्लुत क़ायम कर लिया। हरमिज़ान ने इस शर्त पर अपने को हवाले कर दिया कि उसे दरबारे ख़िलाफ़त में भेज दिया जाये और हज़रत उमर जो फ़ैसला मुनासिब समझे वह करें। चुनानचे उसे अनस बिन मालिक और अहनफ़ बिन क़ैस की निग़रानी में हज़रत के पास भेज दिया गया। हज़रत उमर ने पूछा कि तुमने जो बदअहदी की है इसके बारे में हम से सज़ा की क्या उम्मीद करते हो। हरमिज़ान ने कहा कि मुझे अन्देशा है कि बताने से पहले ही तुम मुझे क़त्ल कर दोगे। हज़रत उमर ने कहा ऐसा नहीं होगा। उसने पानी मांगा जब पानी आया तो हाथ में कूजा लेकर उसने कहा कि हो सकता है कि इसे पीने से पहले तुम पानी न पी लोगे तुम्हें क़त्ल नहीं किया जायेगा। ये सुनकर कूज़ा उसने हाथ से रख दिया औऱ कहा कि अब मैं पानी नहीं पीता और इस शर्त के तहत तुम मुझे क़त्ल भी नहीं कर सकते क्योंकि जब तक मैं पानी नहीं पियूंगी तुम्हारी अमान में हूँ। अब तो हज़रत उमर सटपटाये औऱ कहने लगे तू झूठ कहता है। अनस बिन मालिक ने कहा , यह सच कहता है। आपने फ़रमाया है कि जब पानी नहीं पी लोगे उस वक़्त तक क़त्ल नहीं किये जाओगे औऱ लोगों ने भी अनस कगे क़ौल की ताईद की। तब उमर ने कहा कि तुमने मुझे धोका दिया लेकिम मैं धोका नहीं दूंगा , अब बेहतर है कि तुम मुसलमान हो जाओ। उसने कहा मैं पहले ही मुसलमान हो चुका हूं। यह कहकर उसने कलमये तौहीद पढ़ा और हज़रत उमर खुश हो गये। मदीने में रहने की उसको जगह दी और दो हज़ार दिरहम सालाना वज़ीफ़ा मुक़र्रर कर दिया।

जंगे नेहावन्द

जंगे जलूला के बाद यज़दजुर्द “ रय ” की तरफ़ भाग गया था। लेकिन वहां के रईसों ने उसकी इज़्ज़त व तक़रीम नहीं की इसिलये वह वहां ठहर न सका और असफ़हान व किरमान होता हुआ उसने खुरासान के एक मुक़ाम “ मख़ ” में उसने अक़ामत इख़्तियार की और वहां एक आतिश कदा बनवाकर इत्मेनान से रहने लगा। वह समझ रहा था कि मुसलमानों की फ़तुहात का सिलसिला सरहदी मुक़ामात पर तमाम हो जायेगा। लेकिन जब उसको यह मालूम हुआ कि इराक़ के साथ खुरासान भी हाथ से जाता रहा और हरमिज़ान जो हुकूमत का एक अहम सतून था , जिन्दा गिरफ़्तार कर लिया गया तो तैश मैं आकर लश्कर की फ़राहमीं में मसरुफ़ हुआ और इतराफ़ व जवानिब के उमराये मुमालकि से इसने इमदाद तलब की। चुनानचे दफ़तन तबरिस्तान , जरजान , सिंध , खुरासान , असफ़हान और हमदान में फिर से मुसलमानों के ख़िलाफ एक नया जोश पैदा हुआ और डेढ़ लाख की टिड्डी दल फ़ौज नहावन्द की तरफ़ बढ़ी। अब्दुल्ला बिन अतबान को गवर्नर कूफ़ा ने ख़लीफ़ा को ख़बर दी। हज़रत उमर ने अपने जाने के बारे में अकाबरीने हुकूमत का ख़्याल मालूम करना चाहा। कुछ लोगों ने जाने के लिये और कुछ ने लश्कर भेजने के लिये राये दी औऱ कुछ ने कहा कि शाम , यमन और हिजाज से फौज़ें भेजना मुनासिब होगा। सभी के मुख़लिफ़ मशविरे सुन्ने के बाद हज़रत अली अलै 0 ने फ़रमाया कि अगर अहले शाम को इस मुहिम में भेजा गया तो रोमी शाम पर हमला कर देंगे। अहले यमन को भेजियेगा तो हब्शा वाले उस पर काबिज हो जायेंगे। हिजाज़ से भेजियेगा तो इतराफ़ के अरबों से पीछा छुडाना मुश्किल हो जायेगा और अगर आप खु़द मुकाबिले के जायेंगे तो आपकी हालत देख कर उनके दिलों से आपका रोब और हैबत जाती रहेगी और वह पंजे झा़ड़ कर आपके पीछे पड़ जायेंगे बेहतर होगा कि बसरा और कुफ़े ही के लोग ईरानियों के मुक़ाबिले में सफ़ आरा हों , कसरत और क़िल्लत का ख़्याल महज बुजुदिली की दलील है। हज़रत उमर ने हज़रत अली अलै 0 ही के मशविरे पर अमल किया। चुनानचे नेमान बिन मुक़रिन जिनके साथ उस वक़्त अहले कूफ़ा का एक बड़ा गिरोह था , सरदारे लश्कर मुक़र्रर हुए और उनकी मातहती में कूफ़े व बसरा से तीस हज़ार की जमीयत ईरानियों के मुक़ाबिले में रवाना हुई। औऱ मदीने से भी अब्दुल्लाह बिन उमर की क़यादत में पांच हज़ार का एक मुसल्लह दस्ता भेजा गया। उसके अलावा हज़रत उमर ने उन फौज़ों को जो इलाक़ों अहवाज़ में थी , लिखा कि वह असफ़हान व फ़ारस के ईरानियों को मशगूल रखे़ं ताकि वह अहले नहावन्द की मदद को न पहुंच सकें। इस जंग में अब्दुल्लाह बिन अमरु , जरीर बिजली , मुग़ीरा बिन शेबा , अमरु बिन माद यकरब औऱ तलीहा वगै़रा बड़े बड़े सहाबी शामिल हुए।

गर्ज़ कि नेमान बिन मुक़रिन ने नहावन्द से 6 मील के फ़ासले पर वाक़े असीदहान नामी एक मुक़ाम पर पड़ाव डाल दिया। दूसरी तरफ से ईरानी लश्कर आगे बढ़ा और नहावन्द से मुलहिक़ कोहे अलबर्ज़ के दामन में ऐसी खूरेंज जंग हुई कि जिसने ईरान की तक़दीर का फ़ैसला कर दिया। मगर ठीक उस वक़्त जब मुसलमान फ़तेह का परचम लहरा रहे थे , नेमान बिन मुकऱिन जो ज़ख़्मों से चूर चूर हो चुका था , एक तीर खाकर घोड़े से गिरा और जां बहक हो गया और उसकी जगह हुज़ैफा यमानी सरदारे लश्कर हुए। नहावन्द के मारके औऱ तअक्कुब में एक लाख से ज़्यादा ईरानी मारे गये।

फ़तेह नहावन्द के बाद हुज़ैफ़ा ने वहीं क़याम किया। खुम्स निकाल कर जो माले ग़नीमत फ़ौज में तक़सीम हुआ उसमें सेसवारों को छः छः हज़ार औऱ प्यादों को दो दो हजार दीनार मिले। खुम्स जो दरबारे ख़िलाफ़त में भेजा गया था उसके साथ दो संदूक भई जवाहारात से भरे हुए थे जो केसरा परवेज़ ने नहावन्द के अज़ीमुश्शान आतिश कदा के मोबद हरबिज़ के पास अमानत रखवाये थे मोबिज़ ने जांबख़्शी के वादे पर हुज़ैफ़ा को बता दिया था।

फ़तहे नहावन्दे के बाद मुसलमानों ने दीनवर , हमदान , असफ़हान , रय , क़ोमस , जरजान और आज़र बाइजान वगै़ार पर मुख़्तलिफ़ जरनैलों की क़यादत में फ़तेह हासिल की और उनसे मुतअल्लिक दीगर इलाक़ों पर भी अपना तसल्लुत जमा लिया।