फ़तेह ख़ुरासान
फ़तहे जलूला के बाद यज़दजुर्रुद रय की तरफ़ चला गया था मगर वहां के मर्ज़बान आबान जादू ने उसकी तरफ़ कोई तवज्जो न दी तो वह कबीदा ख़ातिर हो कर असफ़हान गया। वहं भी फतूहाते इसलामी ने चैन से बैठने न दिया तो किरमान की तरफ़ आया और वहां से निकल कर उसने मरव में क़याम किया और यहां आतिश कदा बना कर रहने लगा। एहनिफ़ बिन कै़स ने सन् 18 हिजरी या सन् 22 हिजरी में ख़ुरासान पर चढ़ाई की औऱ तिबसीन होते हुए हरात पहुंचे और उसे लड़कर फ़तेह किया। इसके बाद वह मरव की तरफ़ बढ़े और नेशापूर की तरफ़ मुतरिब बिन अब्दुल्लाह नीज़ सरख़िस की तरफ़ हारिस बिन हसान को रवाना किया। यज़दजुर्द मुसलमानों की इस चढ़ाई का हाल सुनकर मरद शाहजान से भाग कर मरुज़ूद (मरुचक) की तरफ़ चला गया और एहनिफ़ ने बड़ी आसानी से मरव शाहजान पर क़बज़ा कर लिया। फिर उन्होंने मरुज़ूद पर चढ़ाई की। यज़दजुर्द यहां से बालिग़ भागा। एहनिफ़ बलिग़ पर भी चढ़ गये औऱ यज़दजुर्द शिकस्त खाकर वहां से भागा तो दरिया अबूर करता हुआ ख़ाक़ान तुर्क की हुकूमत में पहुंच गया। औऱ एहनिफ़ ने फ़़ौजें भेज कर ख़ूरासान को नेशापुर से तख़ारिस्तान तक फ़तहा कर लिया।
यज़दजुर्द ख़ा़क़ान तर्क के पासर पहुंचा तो उसने बड़ी आव भगत की औऱ एक फौज कसीर लेकर उसके हमराह ख़ुरासान की तरफ रवाना हुआ। यज़दजुर्द के हमराह आने का हाल मालूम हुआ तो वह अपनी फ़ौजे 7 लेकर मरुजूद पहुंच गये। ख़ाक़ान बलख़ होतो हुआ मरुजूद पहुंचा और यज़दजुर्द उससे अलाहिदा होकर मरव शाहजान की तरफ़ बढ़ा। एहनिफ़ के पास सिर्फ़ बीस हज़ार की लश्कर था लोहाज़ा उन्होंने खुले मैदान में लड़ाई को जंगी मसलहेत के ख़िलाफ़ तसव्वुर किया और नहर अबूर करके एक ऐसे मैदान में सफ़ बन्दी की और ख़ंदकें खोद कर मोर्चे क़ायम किये जिसकी पुश्त पर पहाड़ था। मोअर्रेख़ीन का कहना है कि एक मुद्दत तक फ़रीक़ीन की फ़ौज़ें अपना अपना मोर्चा संभाले पड़ी रहीं मगर जंग की नौबत नहीं आती थी। आख़िरकार एक दिन मुख़ालिफ फौज के तीन नाम गिरामीं तुर्क एहनिफ़ की ज़द में आ गये और उन्होंने उनका काम तमाम कर दिया तो ख़क़ान का जंग की तरफ़ से इरादा बदल गया और वह डेरा ख़ेमा समेट कर अपनी फ़ौज के साथ अपने वतन की तरफञ रवाना हो गये। यज़दजुर्द को जब यह ख़बर मिली तो उस वक़्त वह हारिस बिन नेमान को मरव शाहजान में महसूर किये हुए था। यह ख़बर सुनते ही उसने मुहासिरा तर्क किया और ख़ज़ाना व जवाहारात समेट कर ख़ाक़ान के पास जाने के लिये तैयार हुआ। उसके दरबारियों ने कहा कि तुर्को के एहद व पैमान का कोई भरोसा नहीं इस लिये बेहत होगा कि मुसलमानों से सलह कर ली जाये क्योंकि वह मुहाइदा औऱ वादे की पाबन्दी में तुर्कों से अच्छे हैं मगर यजदजुर्द ने उनकी बात न मानी जिसका नतीजा यह हुआ कि वह बलवा करके यज़दजुर्द पर टूट पड़े और उसका सारा माल व मता छीन लिया और वह बे सर व सामानी की हालत में दरिया अबूर करके ख़ाक़ान के पास चला गया और उससे अहद करके हज़रत उमर की ख़िलाफ़त तक तुर्कों के दारुल हुकूमत फरख़ाना में मुक़ीम रहा यहां तक कि हज़रत उस्मान के अहदे ख़िलाफ़त में अहले खुरासान ने बग़ावत की और सन् 31 हिजरी में यज़दजुर्द मारा गया।
ख़ुरासान की फ़तहायाबी के बाद हज़रत उमर ने मुसलमानों को आम लश्कर कशी का हुक्म दिया जिसके नतीजे में उन्होंने क़यामत बर्पा कर दी। तव्वज , असतख़र , किरमान सीसान , मकरान और बूरूज़ वगै़रा में जम कर ख़ून की होली खेली गयी और जो इलाका , जो शहर या जो क़रिया सामने पड़ा उसे लूट कर तबाह व बर्बाद और मिसमार कर दिया।
इऱाक़ व ईरान का बन्दोबस्त
जंगी महिम्मात के ख़ातेमे औऱ बगावतों के फ़रो हो जाने के बाद जब कुछ अमन क़ायम हुआ और मुसलमानों ने सुकून व इतमेनान की सांस ली तो उन्होंने मक़बूज़ा मुमालिक की बहाली और तरक़्की के लिये जद्दो जेहद शुरु कर दी। हज़रत अली बिन अबीतालिब अलै 0 के मशविरे पर हज़रत उमर ने ज़मीनों की पैमाइश कराई , मालगुज़ारी का नया तरीक़ा राएज किया , ज़मीनदारों पर आएद शुदा शाही टैक्स में तरमीम की , आबपाशी के लिये जाबजां नहरें खुदवायीं और काश्तकारों को वक़्त ज़रुरत तक़ावी की फ़राहमीं का इन्तेज़ाम किया। ज़मीनों औऱ जाएदादों की ख़रीद व फ़रोख़्त पर पाबन्दी औऱ उमरा की जाएदादें और उनके आतिश कदों का माल व मता जिन्हें उनके पुजारी छोड़कर भाग गये थे , सरकारी मिलकियत क़रार दिया।
फ़तूहाते मिस्त्र
सन् 18 ता 22
मिस्र का मुल्क अरसे से शाहाने कुसतुनतुनिया के ज़ेरे तसल्लुत चल आ रहा था। ईरानियों और रोमियों के दरमिया इस मुल्क की बाज़याबी के लिये कई बार जंगी झड़पें भी हो चुकी थीं और ईरानियों ने एक दफा उस पर क़बज़ा भई कर लिया था लेकिन रोमियों ने उन्हें मार भगाया। हज़रत उमर के ज़मानये ख़िलाफ़तच में मिस्र पर मकूक़स नामी एक क़िब्ती गवर्नर था। मिस्री ईसाइयों की तरह मज़हब के मामले में मकूक़स भी यूनानी गिरजा के ख़िलाफ़ याकूबी गिरज़ा का मौतकि़द था। जंग फ़ारस की अबतरी के ज़माने में उसने आज़ाद होने की कोशिश की थी। आंहज़रत स 0 ने भी इस्लाम की दावत उसे दी थी और उसने पैग़म्बरे इस्लाम स 0 की ख़िदमत में कुछ तहाएफ़ भी भेजे थे।
इसकंदरिया का मारका
सन् 18 हिजरी में शाम और उसके इतराफ़ में ताऊन की वबा फैली जिसमें मुबातिला होकर 25 हज़ार मुसलमान ज़ाया हो गये। मरने वालों में अबुउबैदा बिन जरा गवर्नर शाम और मेआज़ बिन जबल जो अबुउबैदा के बाद शाम के वाली मुक़र्रर हुए थेष शामिल थे।
ताऊन की वबा जब ख़त्म हुई तो हज़रत उमर मतूफ़ी मुसलमान का तरका तक़सीम करने की ग़र्ज़ से शाम आये। इस मौक़े को ग़नीमत जान कर अमरु आस ने जो मेआज़ के बाद शाम के गवर्नर हुए थे ख़लवत में हजरत उमर से कहा कि आप मुझे मिस्र फ़तेह करने की इजाज़त दे दीजिये। हज़रत उमर ने कहा कि अभी मफ़तूहा इलाकों में मुसलमानों के क़दम ब-ख़ूबी नहीं जमे , ताऊन ने हज़ारों जंग जू बहादुरों का काम तमाम कर दिया है और जितनी भी इस्लामी फौज़ें है वह इराक़ अरब , इराक़ अजम और शाम वगै़रा में मसरुफ़ हैं। ऐसी सूरत में किसी दूसरी तरपञ हमला करना दानिशमंदी के खिलाफ़ होगा। मगर चूंकि अम्र आस ने हज़रत उमर को पीरी तरह यक़ीन दिलाया और कहा कि मिस्र का फ़तेह कर लेना कोई बात नहीं है। इसलिये उन्होंने चार हज़ार सिपाह के साथ मिस्र की तरफञ जाने की इजाज़त दे दी मगर रवानगी के वक़्त यह भी कह दिया गया कि तुम जा तो रहे हो लेकिन जंग छिड़ने या न छि़ड़ने के बारे में हम खुदा से इस्तेख़ारा करेंगे और जो फैसला होगी उससे मुतालिक मेरी तहरीर इन्शाअल्लाह जल्द तुम्हारे पास पहुंच जायेगी। चुनानचे अम्र आस के चले जाने के बाद दूसरे या तीसरे दिन हज़रत उमर ने इस्तेख़ारा किया और उसके बाद उन्होंने ख़त लिखा कि मय हमराहियों के वापस चले आओ। क़ासिद अमरु आस के पास उस वक़्त पहुंचा जब वह शाम की सरहद से मुलहिक़ “ रफ़ा ” नामीं एक गांव में दाख़िल हो चुके थे। अमरु आस समझ गये कि ख़त का मक़सद हुक्मे वापसी के अलावा कुछ भी नहीं है इसलिये उन्होंने उस की वसूलियाबी में ताख़ीर से काम लेते हुए तेज़ क़दम आगे बढ़ाये और सरज़मीने मिस्र की बस्ती अऱीश तक पहुंच गये। वहां उन्होंने क़़ासिद से ख़त वसूल किया और तहरीर के ख़िलाफ़ मुसलमानों को धोका देते हुए कहा कि ऐ मुसलमानों ख़लीफडये वक़्त की इताअत पर आमादा रहो और क़दम आगे बढ़ाओ , अल्लाह मददगार है। ग़र्ज़ की लश्करे इस्लाम यलगार करता हुआ ” फ़रमां ” के मुक़ाम पर पहुंच गया जो मिस्र का एक सरहदी क़िला था। यहां रोमियों से मुडफेड़ हुई और एक माह तक मुक़ाबिला जारी रहा। बिलआख़िर मुसलमानों ने फ़तेह पाई और आगे बढ़े यहां तक कि वह “ बिलबीस ” के मुक़ाम पर पहुंचे। यह भी एक मुस्तहकम जंगी आमाजगाह थी। यहां भी मुसलमानों ने फ़तेह हासिल की। उस मुक़ाम पर मकूक़िस की बेटी रहती थी। अमरु आस ने उसे निहायत इज्ज़त व एहतेराम के साथ मकूक़िस के पास रवाना कर दिया। ज़ाहिर है कि अमरु आस की तरफ़ से हुस्न सुलूक का यह इक़दाम मकूकूस को मूसलमानों की तरफ़ से मुतअस्सिर के लिए काफ़ी था। उसके बाद “ ऐनुल शम्स ” को फतेह करके अम्र आस ने ख़लीफ़ा वक़्त को अपना कारनामों की तफ़सील से आगाह किया। कहां तो हज़रत उमर इस जंग के बारे में हिचकिचाहट और तज़बजुब का शिकार थे औऱ लड़ाई पर राज़ी न थे , कहां फतहेह व कामरानी का मुज़दए ख़ुशगवार सुन कर फ़ौरी तौर पर कुमक भेजने को तैयार हो गये और उन्होंने चार हज़ार सिपाहियों पर मुश्तमिल एक फ़ौजी दस्ता उजलत के साथ रवाना कर दिया। यह कुमक पहुंची तो अमरु आस ने बाबुल के क़िले को घेर लिया जो मकूक़स के दारुल हुकूमत “ मनफ़ ” का अहम जुज़ औऱ जंगी कुवतों का मरकज़े आला सतझा जाता था। मुसलमानों को इस क़िले पर बग़ैर किसी फ़ाएदे के जंग करना पड़ी औऱ इरसे तक फ़रीक़ैन की फ़ौज़ें एक दूसरे पर मौक़े व महल के हिसाब से हमला आवर होती रही। जब इस क़िले की तसखीर में ज़रुरत से ज्यादा ताख़ीर हुई तो अमरु आश ने हज़रत उमर को मज़ीद फ़ौज रवाना करने के लिये लिखा और जुबैर बिन अवाम की मातहती में चार हज़ार की सिपाह फिर आई। इश फ़ौज में मिक़दाद बिने असवद , अबादा बिने सामत और मुसलम बिने मख़लद ऐसे जांबाज़ औऱ बहादुर भी शामिल थे।
अब उमरो आस के पास बारह हज़ार की फ़ौज हो गई थी मगर रुमी अपनी होशियारी से मुसलमानों को क़िले पर दस्तरस की मोहलत नहीं देते थे। जब सात माह इसी तरह गुज़र गये तो एक दिन जुबैर बिने अवाम क़िले के एक पहलू को देख़कर फ़सील पर चढ गये। रुमी दूसरी तरफ़ मुसलमानों के हमले को रोकने में मसरुफ़ थे कि अचानक उन्हें अपनी पुश्त पर नारे तकबीर का दिल हिला देने वाला गुलगुला सूनायी दिया। पलट कर देखा तो उनके सरों पर खून आशाम तलवारें चमक रही थीं। वह जान बचाकर भागे और जुबैर ने फ़सील से उतरकर क़िले का दरवाज़ा खोल दिया। फिर तो सारी फ़ौज किले के अन्दर दाखि़ल हो गयी औऱ रुमी सिपाह क़िले के शाही महल में महसूर होकर मुक़ाबला करने लगी। मकूकस भी उस क़िले में मौजूद था वह वहां से निकल कर जज़ीरे रौज़े की तरफ़ चला गया जो दरयाए नील के वसत में था।
जब मुसलमानों को इस किले पर मुकम्मल तसर्रुफ़ हिसाल हो गया तो मक़ूक़स ने उमरो आस के पास क़ासिद भेज कर सुलह की ख़वाहिश ज़ाहिर की औऱ हस्बे ज़ैल शराएत पर सुलह नामे की तकमील अमल में आयी।
1. तमाम कि़बती दो दिरहम सालाना जज़िया अदा करेंगे।
2. इस जजि़ये से नाबालिग , सिन रसीदा बूढ़े , राहिब , औऱतें और माज़ूर अशख़ास मुसतरना होंगे।
3. हर शहर में मुसलमानों की सुकूनत के लिये एक जगह मख़सूस रखी जायेगी।
4. क़िब्ती मुसलमानों की तीन दिन तक मेहमानदारी करेंगे।
5. जो क़िबतियों की तरह उन शराएते सुलह की पाबन्दी नहीं करेगा वह सिर्फ़ उसी वक़्त तक मिस्र में रह सकता है जब तक मकूक़स क़ैसरे रोम से उस मुआहिदे के बारे में मन्जूरी या मामन्जूरी न हासिल करें। इसके बाद क़िबतियों की मर्दुम शुमारी की गयी तो साठ लाख से ज़्यादा क़िबती जज़िया अदा करने के क़ाबिल दर्ज रजिस्टर किये गये। इश लिहाज़ से फ़तेह की इब्तिदाई मरहलों में जज़िया की मजमूई रक़म एक क़रो़ड़ बीस लाख दीनार क़रार पायी।
जब मकूक़स ने उन तमाम हालात की इत्तिला क़ैसरे रोम को दी तो उसने मकूक़स पर बड़ी लानत ओ मलामत की और लिखा कि तूने ऐसी ज़लील सुलह क्यों की जब कि एक लाख से ज़्यादा रुमी फ़ौज तेरे पास थी। मैं हरगिज़ इस सुलह को तसलीम नहीं करता।
कै़सरे रोम ने इसी तरह के मलामत आमेज़ खुतूत असकंदरिया और दीगर मक़ामात के रुमी सरदारों को भी रवाना किये और उन्हें नई कुमक के साथ मुसलमानों से मुक़ाबले का हुक्म दिया।
क़ैसरे रोम का ख़त देखकर मकूकूस ने अमरु आस से कहा कि मैं तो सुलह कर चुका , अब मेरे लिये अहदे शिकनी मुम्किन नहीं है। किबती क़ौम भी मुहायिदे की पाबन्दी करेगी। उसके बाद रोमी फ़ौजें सिमट कर मुसलमानों से नबर्द आज़माई करती रही और पसपा होती रही यहां तक कि मुसलमानों में असकन्दारिया पर धावा बोल दिया। क़बती मुसलमानों के लिये रास्तो में पुल बनाने और रसद रसानी का काम अंजाम दे रहे थे।
असकन्दरीया का शहर बहरे रोम के साहिल पर वाक़े होने की वजह से बहत मुस्तहकम था। क़ैसरे रोम (हरकुल) बहरी रास्ते से यहां फ़ौजी इमदाद और सामाने जंग व रसद वग़ैरा भेजता रहता था और ख़ुद भी आने को तैयार था मगर इस्तेसक़ा के मर्ज़ में मुबतिला होने की वजह से उसी असमा में मर गया। उसके मरने से रोमियों की कमर टूट गयी और हौसले पस्त पड़ गये। बहुत से रोमी सरदार असकनदरिया छोड़ कर कुसतुनतुनिया की तरफ़ चले गये। इधर मुसलमानों ने मुहासिरे के दैरान हर तरह की सख़्तियां करके रोमियों को तंग कर रखा था औऱ जब मौक़ा मिलता शहर पर हमला आवर होकर दो चार सौ का ख़ातेमा कर देते। यहां तक कि माहे मुहर्रम सन् 20 हिजरी बरोज़ जुमा मुताबिक़ 22 दिसम्बर सन् 640 में मुसलमानों ने दुनिया का सबसे बड़ा , दौलत मन्द और आबद शहर मिस्र 14 माह के मुहासिरे के बाद फ़तेह कर लिया।
मोअर्रेख़ीन का बयान है कि मुसलमानों ने जब असकनदरिया को फ़तेह किया तो उस वक़्त शहर में चार हज़ार अज़ीमुश्शान महल , चार हज़ार हम्माम , चार सौ सैर गाहे , बाहर हज़ार सबज़ी फ़रोशों की दुकानें और चालीस हज़ार जज़िया देने वाले यहूदी मौजूद थे। साहिल पर एक सौ से ज़्यादा बड़े जहाज़ लंगर अन्दाज़ थे जिन पर रोमियों ने अपना माल व असबाब और बाल बच्चे सवार कर रखे थे। उस वक़्त शहर की आबादी का अन्दाज़ा औरतों और बच्चों को छोड़कर पांच लाख किया गया था।
असकन्दरिया का कुतुबख़ाना
अंग्रेज़ मोअऱ्रिख़ एयरविंग का बयान है कि अमरु आस बजाते ख़ुद एक अच्छा शायर और इल्म दोस्त इन्सान था। फ़तेह मसकन्दरिया के बाद वहां के ईसाई आलिम “ यहिया नहवी ” (जान दी गरमैरीन) से उसकी दोस्ती हो गयी। एक दिन यहिया नहबी ने अपने ऊपर अम्र आस का ज़्यादा इल्तेफ़ात देखकर एक ऐसे ख़जाने का पता बताया जो अब तक मुसलमानों की नज़र से पोशीदा था।
यह ख़ज़ाना किताबों का ज़खीरा था जो “ कुतुबखाना असकन्दरिया के नाम से मशहूर था। हिया नहवी ने इस कुतुब ख़ाने का पता बताते हुए अमरु आस से कहा कि यह कुतुबखाना आप मुझे मरहमत फ़रमा दें तो मैं आपका एहसान मन्द और ममनून व मुताशक्किर हूंगा। यहिया की इस दरख्वास्त पर अमरुआस मसझ गया कि यह ज़रुरी कोई बड़ी चीज़ है चुनानचे उसने यहिया से कहा कि मैं पहले ख़लीफ़ये वक़्त से इस अमर की इजाज़त ले लूं उसके बाद आपको दे दूंगा। उसके बाद अम्र आस ने हज़रत उमर को एक ख़त लिखा जिसमें यहिया नहवी की खूबियां बयान करते हुए उन्होंने वह कुतुबख़ाना उसे मरहमत किये जाने की सिफ़ारिश की। हज़रत उमर उन्होंने वह कुतुबख़ाना उसे मरहमत किये जाने की सिफारिश की। हज़रत उमर ने जवाब लिखा है कि अगर ये किताबें कुरआन की हमनवाई करती हैं तो उनकी कोई ज़रुरत नहीं है क्योंकि कुरआन काफ़ी है और अगर कुरआन से मुताबेक़त नहीं रखते तो नुक़सान देह हैं लेहाज़ा हर हाल में उन्हें जाया कर देना चाहिये।
अमरु आस ने ख़लीफ़ा के हुक्म की पूरी पूरी तामील की और अपनी इल्म दोस्ती का यह सुबूत फ़राहम किया कि उसने उन अज़ीम किताबों के अज़ीम सरमाये को शहर के चार हज़ार हम्मामों में भिजवा दिया जो छःमाह तक ईन्धन का काम देता रहा। इस अज़ीम कुतुबख़ाना का बानी टूलीमी सोटीर (बतलीमूस सोतीर) था और यह ब्रोकेवन की एक बड़ी इमारत में क़ायम किया गया था , उसके बाद हर बादशाह उसे तकक़्क़ी देता रहा यहं तक कि उस कुतुबखाने में चार लाख किताबों के नादिर व नायाब नुसख़े जमा हो गये। उसके अलावा तीन लाख किताबें सराप्यन के माबदगाह रखी गयी थीं। बरक्यून का कुतुबख़ाना तो क़ैसर की जंग में नज़रे आतिश हो गया था मगर सराप्यून वाला बाक़ी था और कलू पतरा ने “ परमगस ” का कुतुबख़ाना भी उसी में शामिल कर दिया था जो मार्क अनटोनी ने उसे दिया था औऱ जिसमें दो लाख किताबें थी। इम्तेदादे ज़माने के हाथों इस कुतुबख़ाने को बहाल कर दिया जाता था औऱ कुछ इज़ाफ़ा भी उसमें कर दिया जाता था। चुनानचे जिस वक़्त मुसलमानों ने असकन्दरिया को फ़तेह किया तो कुतुब ख़ाना इली हालत में ता जो बयान की गयी।
शहंशाह जलालुदीन मुहम्मद अकबर के दरबारी क़ाज़ी अहमद बिन नसरुल्लाह ने अपनी तसनीफ़ “ अलफ़ी ” में काज़ी साएद बिन अहमद इन्दीलीमी मतुफ़ी सन् 462 हिजरी की किताब “ तबक़ातुल उमम ” से लक़ल किया है कि हज़रत अली अलै 0 ने जब सुना कि हज़रत उमर ने उन किताबों के जलाने का हुक्म दिया तो आपने एहतेजाजन उमस से फ़रमाया कि किताबों में बेशतर के मज़ामिन कुरआन के मुताबिक हैं बस फ़र्क़ इतना है कुरआन मुजमिल है औऱ हर शख़्स उन मज़ामिन को उससे इस्तेम्बात नहीं कर सकता। और अगर बिलफ़र्ज़ वह किताबें कुरआन के ख़िलाफ़ भी हैं तो भी उनका जलाना दुरुस्त नहीं इसिलये कि हो सकता है वह साबेक़ा शरीयतों पर मुश्तमिल हों और शरीयतों का नज़रे आतिश किया जाना किसी भी तरह जाएज़ न हीं हैं। मगर जनाब उमर पर हज़रत अली अलै 0 की इस गुफ़्तगू का ज़र्रा बराबर भी असर न हुआ और आख़िरकार कितबों का यह अज़ीम ख़ज़ाना उनके हु्क़्म से जला दिया गया। इस वाक़िये को मुतक़द्देमीन में बहुत से ओलमा व मोअर्रेख़ीन ने तहरीर किया है।
फ़तूहात का तक़ीदी जाएज़ा
इस अमर में कोई शक नहीं कि हज़रत उमर के अहदे ख़िलाफत-में इस्लामी फ़तूहात के नामम पर मुल्कग़ीरी और माले ग़नीमत की हवस ने मुसलमानों को अबुउबैदा मबन जराअ , ख़ालिद बिन अबी विक़ास , अमरु बिन आ , जबीर बिन अवाम , अहनफ बिन क़ैस , हाशिम बिन अतबा और यज़ाद बिन अबुसुफियान ऐसे जरनलों औऱ कमाण्डरों नीज़ अफ़सरों की क़यादत में बड़ी बड़ी कामयाबियों से हमकिनार किया और उन्होंने जबर व इस्तेबदाद , जुल्म व तशद्दुद लूट मार , आतिश ज़नी , ख़ंरेजी और क़त्ल व ग़ारत गरी को अपना शोआर बनाकर ग़ैर मुमालिक पर हमला किया , उन्हें अपना गुलाम बनाया और उनकी ज़ाएदादों पर काबिज़ होकर ऐश व आराम की ज़िन्दगी बसरस करने लगे।
अज़ीम फ़ातेहीने आलम की फेहरिस्त में हज़रत उमर का नाम बड़े क़र्रोफ़र से लिया जाता है और फख़रिया अंदाज में कहा जाता है कि आपपके दौर में मफ़तूहा व मक़बूजा मुमालिक के हुद्दे अरबा का रक़बा तक़रीबन दो लाख पच्चीस हज़ार एक सौ तीन मुरब्बा मील पर मोहीत था औऱ आपकी बिसाते हुकूमत मक्का मोअज़्ज़मा से शुमाल की तरफ़ 483 मील , मशरिक़ की तरफ़ 1087 मील औऱ मग़रिब की तरफ़ शाम , मिस्र , इराक़ , आरमीनिया , आजर बाइजान , फ़ारस रोम , ख़ुरामान , किरमान और बिल्लौचिस्तान के कुछ हिस्सों तक फैली हुई थी लेकिन उसके बावजूद उस मफ़तूहा वुसअत पर न तो कोई अकली दलील क़ाएम हो सकती है और न ही उसे इस्लामी व शरयी ज़वियए निगाह से देखा जा सकता है। उसकी वजह है कि जब कोई हक़ पसन्द औऱ नुकता संज वाक़िया निगार उन फ़तूहात पर ग़ौर करेगा तो यह सवाल उसके ज़ेहन में उभरेगा कि हज़रत अबुबकर के बाद पहली सदी के इब्तेदाई दौर में हज़रत उमर अपने वक़्त के हलाकू नादिरशाह और महमूद ग़ज़नवी थे या नाएबे रसूल सल 0? अगर मौसूफ़ अव्वलुल ज़िक्र हैसियत के हामिल थे तो सवाल यह है कि आपके पास वह कौन सा जादू था जिसने चन्द सहरा नशीनों को उभार कर तूफ़ान की तरह फ़ारस व रोम का दफ़्तर उलटने पर मजबूर कर दिया ? आख़िर उसके अलल व असबाब क्या थे ? जब कि दौरे रिसालत के तमाम इस्लामी ग़ज़वात से आपका फ़रार साबित है।
अगर आपको ख़लीफ़यते रसूल स 0 मान लिया जाये तो सवाल ये है कि आपकी यह फ़तूहात किन उसूलों के तहत जाएज़ क़रार पायेगी ? क्या मुल्कगीरी , क़त्ल व ग़ारतगरी , फ़ितना व फ़साद और तबाही व बर्बादी के अलमनाक वाक़ियात किसी दीनी रहबर , रुहानी पेशवा और मज़हबी रहनुमा के शायानेशान हो सकते हैं ? क्या रसूले अकरम स 0 ने इन ज़ालेमाना व जारेहाना इक़दामात की हमनवाई की है ? या किसी मुल्क पर फ़ौजकशी करके उसे तबाह व बरबाद और वहां के अवाम को बेसबब क़त्ल किया है ? क्या किसी और पैग़म्बर , नबी , हादी और दीनी पेशवा ने तबलीग़ व हिदायत की मंज़िलों में मुल्कगीरी के लिये बेगुनाहों के ख़ून से अपने दामन को दाग़दार बनाया है ? क्या अल्लाह की तरफ से अन्बिया व मुरसलीन का तर्ज़े अमल यह था कि जिस मुल्क के लोग ख़ुदा को न मानें , उसकी वहदानियत का इक़रार न करें और उसके दीन को कुबूल न करें तो वह उस पर हमला करके उसे तबाह व बर्बाद कर दें और वहां के अवाम को मौत के घाट उतार दें , उनकी औरतों को बेवा और बच्चों को यतीम कर दें। अगर उन तमाम बातों का जवाब नफ़ी में है तो ग़ैरशरयी थीं और उनका इस्लाम से कोई तअल्लुक़ नहीं था।
फिर हज़रत उमर की उन फ़तूहात को मौसूफ़ का ज़ाती कारनामा भी नहीं कहा जा सकता। इसिलये कि आप फ़रमान रवा ज़रुर थे मगर दैरे रिसालत से लेकर अपने दौर तक न किसी मारके में शरीक हुए न जेहाद के लिये कभी तवलार बुलन्द की। आपने हज़रत अली अलै 0 से अकसर व बेशतर जंगी मशवीरे ज़रुर किये मगर चूं कि आपकी सुजाअत से वह अच्छी तरह वाक़िफ थे इसलिये आपने हमेशा जंग के मैदान में जाने से उनको रोका ताकि रसूल स 0 के बाद इस्लाम के माथे पर शिकस्त का टीक न लग पाये।
दरहक़ीक़त आपके अहद के जंगी कारनामे दौरे रिसलत के उनके नबर्द आज़मा और आज़मूदा कार कमाण्डरों और जरनलों के मरहूने मिन्नत है जिन्हें तक़दीर के चक्कर ने आपके दौरे हुकूमत से मुत्तसिल कर दिया था और जिन्होंने उन फ़तूहात का सेहरा आफके सर बान्ध कर हुकूमत की नमक ख़्वारी का हक़ अदा कर दिया।
इस्लामी तारीख़ के ऐवान में बाज़ मुतास्सिब मोअर्रेख़ीन की यह आवाज़ भी सुनाईदेती है कि हज़रत अबुबकर और हज़रत उमर ने बड़े बड़े मुल्क फ़तेह किये , इस्लाम को वुसअत दी और इसे बामें तरक़्क़ी तक पहुंचाया मगर हज़रत अली अलै 0 ने कोई मुल्क़ फ़तेह नहीं किया न इस्लामी मुमालिक मैं किसी जुज़ का इज़ाफ़ा किया और न ही मुसलमानों के ऐश व इश्ररत का कोई सम्मान किया।
इसका सीधा सा जवाब है कि हज़रत आदम अलै 0, हज़रत नूह अलै 0, हज़रत इब्राहिम अलै 0 यह सब कुछ करते तो हज़रत अली अलै 0 भी यक़ीनन उसकी पैरवी करते। मगर चूंकि उन हादियों और रहबरों ने ऐसा नीहं किया इसिलये हज़रत अली अलै 0 ने भी इस मामले में ख़ामोशी इख़्तियार की क्योंकि आपका शुमार भी उन्हीं हादियों में है जैसा कि आंहजरत सल 0 ने फ़रमायाः
“ जो शख़्स ” आदम अलै 0 को उनके इल्म में , नूहअ 0 को उनके फ़हम में , इब्राहिम अलै 0 को उनके हिल्म में , यहियाअलै 0 को उनके जोहद में और मूसाअलै 0 को उनकी हैबत में देखना चाहे तो उसे लाज़िम है कि हज़रत अली अलै 0 को देखे। “
इस हदीस के ज़ैल में अल्लामा फख़रुदीन राज़ी का कहना है कि “ यह हदीस साबित करती है कि उन सेफ़ात (इल्म , फ़हम , ज़ोहद और हैबत) में हज़रत अली अलै 0 मज़कूरा अन्बिया के बराबर थे। और इसमें कोई शक नहीं कि यह तमाम अन्बिया सहाबा से अफ़ज़ल थे और यह कुल्लिया है कि जो शख़्स अफ़ज़ल के बराबर होगा वह भी अफ़ज़ल होगा। “
आहंज़रत सल 0 ने भी हज़रत अली अलै 0 को अपनी ज़ात के मिसल् क़रार दिया है। फ़रमाते हैं किः
“ हर नबी की कोई मिसाल उसकी उम्मत में ज़रुर होती है और मेरी उम्मत मे मेरी मिसाल अली अलै 0 हैं। “
वाज़ेह हो गया कि हज़रत अली अलै 0 का मर्तबा चूंकि अन्बिया मुरसलीन के मसावी था इसलिया आपके लिये यह मुनासिब नहीं था कि एहकामे इलाहिया के ख़िलाफ कोई क़दम उठाते।
हज़रत अबुबकर के दौर में जो फ़तूहाते जुज़वी तौर पर अमल में आी वह उन्हें क्योंकर नसीब हुई या हज़रत उमर के दौर में सहरा नशीनों ने फ़ारस व रोम का दफ़्तर क्योंकर उलट दिया ? इसका सबब यह है कि उस वक़्त के बद्दुओं और जाहिल अरबों को जहाद का ग़लत मफ़हूम बताया गया और यह बात उनके ज़ेहन नशीं कराई गयी कि ख़लीफ़ये वक्त जिस मज़हब को फ़ना करने का हुक्म सादर करे , जिस क़ौम को तबाह व बर्बाद करने का इशारा करे वहीं दरअसल जेहाद है जिसको ख़ुदा औऱ रसूल स 0 ने हर मुसलमान पर वाजिब किया है। जो शख़्स इस पर अमल करेगा वह बेहिश्त का हक़दार होगा वरना जहन्नुम का मुस्तहक़ क़रार पायेगा। उन्हें यह बावर कराया गया कि अगर कोई काफ़िर शख़्स इस्लाम कुबूल करने से इन्कार करे तो तलवार के ज़ोर से उस पर क़ाबू हासिल करो। उस पर भी कामयाबी न हो तो उसे क़त्ल कर दो और उसका माल व असबाब लूट लो। जाहिल और सादा लोह अरबों को माले ग़नीमत के दाम में भी गिरफ़्तार किया गया और उनके ज़ेहनों पर यह अक़ीदा मुसल्लत कर दिया गया कि एक ऐसा दामे फ़रेब था कि जिसने तमाम मफ़लूकुल हाल और उसरत जडद अरबों को जकड़ लिया और वह ऐश व इशरत की ज़िन्दगी का ख़्वाब देखने लगे। इसकी दलील ईरान पर हमला के दौरान रुस्तम और मुग़ारा के दरमियान होने वाली वह गुफ़्तगू है जिसे तरीख़ ने ज़ब्त कर लिया है चुनानचे रुस्तम ने मुगीरा से पूछा कि तुम लोग हमारे मुल्क में कयों आये हो ? मुग़ीरा ने जवाब दिया कि अल्लाह ने अपने रसूल स 0 कि ज़रिये हमे बड़ी बड़ी नेमतों से सरफ़राज़ फरमाया है और उन नेमतों में से एक नेमत तुम्हारे मुल्क में पैदा होने वाला गल्ला भी है जिसके बग़ैर हम जि़न्दा भी नहीं रह सकते। रुस्तम ने कहा , इस ख़्वाहिश में तुम क़त्ल हो जाओगे। उस पर मुग़ीरा ने कहा कि हमें कोई फिक़्र नहीं है। क्योंकि हम क़त्ल होकर बेहिश्त में जायेंगे औऱ वहां की लज़्ज़तों से लुत्फ़ अन्दोज़ होंगे और अगर बच गये तो तुम हमें जज़िया दोगे।
मुग़ीरा की ग़ुफ़्तगू से साफ़ ज़ाहिर है कि इन फ़तूहात की ग़र्ज़ सिर्फ़ यह थी कि उमदा ग़िज़ायें हासिल की जायें , अच्छले लिबास पहने जायें औऱ दुनिया की तमाम लज़्ज़तों के साथ ऐश व आराम की ज़िन्दगी बसर की जाये।
मुग़ीरा के इन ख़्याल में इतनी पुख़्तगी थी कि उसने ईरानी बादशाह यज़दजर्द को भी वही जवाब दिया जो उसके सिपाह सालार रुस्तम को दिया थआ उसके साथ उसने ख़ुदा के बारे में यह भी कहाः
“ हमारे ख़ुदा ने अपने रसूल स 0 के ज़रिये हम लोगों को हुक़्म दिया है कि जो लोग मज़हब इस्लाम कुबूल न करें उनसे जज़िया लो और अगर वह जज़िया देने से इन्कार करें तो उनसे क़ेताल करो। ”
ला इकराहा फ़िद्दीने के मफ़हूम व मक़सद से बेनियाज़ व बेगाना मुग़ीरा की यह गुफ़्तगू ख़ुदा पर इफ़तरा व बोहतान के मुतरिदिफ़ नहीं है तो फिर क्या है ? इस जंगी मुहिम के दौरान अबरब के मशहूर ख़तीबों ने मैदाने कारज़ार में जो ख़ुतबे दिये उनसे भी साफ़ ज़ाहिर है कि वह मुसलमानों को यह लालच देते थे कि अगर तुम फ़तहयाब व कामयाब हुए तो तुम्हारे लिये माले ग़नीमत की इन्तेहा नहीं है और जैसा कि क़ैस ने अपनी तक़रीर के दौरान कहा कि “ लोगों। घमासान की जंग करो क्योंकि तुम्हार सामने माले ग़नीमत है और पुश्त पर जन्नत। ”
और रबी बिन बिलाद ने कहाः “ ऐ अरब वालों। अपने मजहब और माले दुनिया के लिये जो खोल कर लड़ो। ”
शोअरा भी अपनी नज़मों में उन्हीं ख़्यालात को पिरोकर मुसलमानों के जजबात को बरअगेख्ता करते रहे जिसका नतीजा यह हुआ कि लोगों ने क़स्में खा लीं और मरने मारने पर तुल गये।
यही वह कामयाबी था जो फ़तूहात में ढ़लती गयी औऱ फ़तुहात का सेलाब तमाम इस्लामी उसूलों को कुचलता हुआ आगे बढ़ता गया। फ़ारस व रोम की शिकस्त और तबाही व बर्बादी के अलल व असबाब यह थे कि हज़रत उमर के अहद में उन मुल्कों का सितारा अक़बाल गुरुब हो चुका था और दूसरा फ़रमानें रवां ऐसा नहीं था जो इस दम तोड़ती हुई हुकूमत के पैकर में तवानाईयां भर सके। दरबार के अमाएदीन व अराकीन साज़िशों में मुनहमिक़ थे और साजिशों की बदौलत तख़्ते नशीनों में बराबर तबदीलियत हो रही थीं। चुनानचे तीन ही चार साल के अन्दर छः या सात फ़रमावाओं के हाथों में ज़मामे हुकूमत आई और निकल गयी। दूसरी वजह यह थी कि नौशेरवां से कुछ पहले मजूकिया फ़िर्क़ा काफ़ी ताक़तवर था जो कुफ्र इल्हाद की तरफ़ माएल था। हालांकि नौशेरवां ने तलवार के ज़ोर से उन्हें पस्पा भी किया लेकिन उनकी कूवत में कमी नहीं आई। मुसलमानों ने जब फ़ारस की ज़मीन पर क़दम रखा तो यह फ़िर्रक़ा भी उन्हें अपना पुश्त पनाह समझ कर उनके साथ हो लिया। ईमाइयों में नसटूरीन फ़िर्क़ा जिसे किसी हुकूमत में पनाह न मिलती थी वह भी मुसलमानों के साये में आकर मुख़ालेफ़ीन के मज़ालिम से मुहफूज़ हो गया। इस तरह मुसलमानों को दो बड़े फ़िरक़ों की कुमक और हमदर्दी मुफ़्त में हासिल हो गयी। रोम की हुकूमत के साथ ईसाइयों के बाहमी इख़्तेलाफ़ात दुश्मनी की हद तक पहुंच गये थे इसलिये मुसलमान अपने मक़सद में कामयाब-रहे और फतूहात के दरवाज़े उन पर खुल गये।
अन्देशा व इन्तेबाह
सीरत , अहादीस और तफ़ासीर की किताबों से पता चलता है कि रसूले अकरम स 0 अपने बाद मुसलमानों की इस ऐश तलबी , दुनिया परस्ती और मुल्कगीरी के तसव्वुर से फिक्रमन्द और परेशान थे और चूंकि उन फ़तूहात के अंजाम और पेचो ख़म से आप बाख़बर थे इसलिये आपने बार बार अपने सहाबा को मुतनब्बेह करते हुए फ़रमाया कि तुम लोग मेरे बाद मेरी तालीमात को फ़रामोश न कर डालना , इस्लाम के मसक़सद को पामाल न करना और मुल्कगीरी की हवस में शरीयत की रुह को मजरुह न करना। चुनानचे कभा आपने फरमायाः
“ मुझे इस बात का ख़ौफ़ नहीं है कि मेरे बाद तुम मुश्रिक हो जाओगे बल्कि मुझे अंदेशा इस बात का है कि तुम दुनिया परस्ती में मुबतिला हो जाओगे। ”
कभी मिंबर से यह आगाही दी किः
“ तुम्हारे मुस्तक़बिल के बारे में मुझे यह अन्देशा है कि दुनिया की चमक दमक तुम पर अपने दरवाज़े खोल देगी। ”
कभी मतनब्बेह किया किः
“ मुझे यह डर है कि मेरे बाद तुम लोगों पर ज़मीन की बरकतें और आसइशें व जेबाइश की राहें कुशादा हो जायेंगी। ”
कभी इरशाद फ़रमायाः
“ मुझे इस का डर नहीं कि तुम फ़कर में मुब्तिला होंगे बल्कि मुझे यह डर है कि तुम पर दुनिया इस तरह कुशादा हो जायेगी जैसे कि तुम्हारे क़ब्ल वालों पर थी और तुम लोग इस दुनिया की परसतिश इस तरह करोगे जैसे तुम्हारे क़ब्ल वाले करते थे। नतीजा यह होगा कि दुनिया तुम्हें भी इसी तरह हलाक गुमराह) कर देगी जिस तरह तुम्हारे क़बल वालों को कर चुकी है। ”
कभी पैग़म्बरे अकरम सल 0 ने अपने किसी मोतबर सहाबी से फ़रमाया “ अगर तुम ज़िन्दा रहे तो देखोगे ” कि किसरा परवर दिगार से इस तरह मिलेंगे कि उनके औऱ खुदा के दरमियान कोई तरजुमा न होगा तो वह जिधर देखेंगे उन्हें जहन्नुम की आग के सिवा कुछ न दिखाई देगा। “ हुजूरै अकरम सल 0 ने अपने सहाबा को इश अंदेशे से भी मुतनब्बेह किया किः
“ देखो , मेरे बाद तुम लोग का़फ़िर न हो जाना कि बे वजह दूसरों की गर्दनें उड़ाने लगो। ”
यह तमाम हदीसें इस अमर की बय्यन दलील हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम सल 0 बेजा मफ़तूहा , हमला आवरी , मुल्कगीरी , दुनिया परस्ती और सरमायादारी को इन्तेहाई नफ़रत की निगाह से देखते थे औऱ मुसलमानों को उनसे दूर रहने की हिदायत भी फ़रमाते रहते थे लेकिन अफ़सोस कि आपके बाद खिलाफ़ते ऊला व ख़िलाफ़ते सानिया में वही हुआ जो नहीं होना चाहिये था।
इस्लामी और ग़ैर –इस्लामी फ़तूहात
इस्लामी तारीख़ का यह पहलू इन्तेहाई उजागर है कि पैग़म्बरे इस्लाम स 0 को जब इस्लाम की तबलीग़ व अशाअत औऱ मुसलमानों की अयानत व केफ़ालसत के लिये सरमाया की ज़रुरत दरपेश हुई तो आपने न तो काफ़िरों के यहां डाका डाला , न उनका माल व असबाब लूटा , न उन पर मज़ालिम किये , न उन्हें शहर बदर किया , न उनकी जाएदादें हड़प की और न उनके घरों को तबाह व बर्बाद किया। न उनके मुल्कों पर हमला आदर हो कर उन्हें तलवार या ताक़त के बल पर अपनी ग़ुलामी के लिये मजबूर किया बल्कि उसके बरअक्स उनके ज़ेहनों में वहदानियत का तसव्वुर रासिख़ करने , अल्लाह के दीन को उन तक पहुंचाने और अमन , इत्तेहाद नीज़ इन्सानियत का दर्स देने में हुस्ने इख़लाक़ के साथ हमा तन मसरुफ़ रहे।
आपका मिशन और बुनियादी नज़रिया यह था कि रंग व नस्ल की तफ़रीक़ को ख़त्म किया जाये , इन्सान को इन्सानी हुकूक से आगाह किया जाये , लोग सिफ़ाते हुसना से मुत्तसिफ़ और जेवरे इख़लाक़ से आरास्ता हों। तौहीद पर ईमान लायें , वहदानियत का क़लमा पढ़ें और उसकी बुजूर्गी व बरतरी को तसलीम करें। उसकी बारगाह में अपना सरे नियाज़ ख़म करके शराफ़त हासिल करें। चुनानचे इसी नज़रिये औऱ मिशन के तहत आपने तबलीग़े इस्लाम के इब्तेहदाई दौर में कुफ़्फ़ारे मक्का को इस्लाम की दावत भी दी और उन्हे खुदा की वहदानियत , इबादत औऱ इताअत की तरफ़ मुतावज्जे भी किया।
दुनिया की नज़रों से यह तारीख़ी हकीक़त पोशीदा नहीं है कि आंहज़रत सल 0 ने जब बुतपरस्ती की एलानिया मुख़ालिफ़त की तो आपका यह तर्ज़े अमल कुफ़्फ़रे मक्का की काफेराना फ़ितरत पर सख़्त नागवार गुज़रा। चुनानचे कुरैश की चन्द सरबरावुरदा शख़्सियतें जनाबे अबुतालिब अलै 0 की ख़िदमत में आयीं और उनसे तुर्श लहजे में इस अमर की शिकायत की कि तुम्हारा भतीजा (मोहम्मदसल 0) हमारे ख़ुदाओं की तौहीन करता है , उसे समझा लो , वरना हम हम उसे बर्दाश्त नहीं करेंगे। उस मौक़े पर जनाबे अबुतालिब ने उन्हें नर्मी से समझा बुझाकर रुख़सत कर दिया। लेकिन चूंकि बिनाये मुख़ासिम्त बरक़रार थी और आंहज़रत सल 0 अपने फ़र्ज़े मनसबी से दस्तकश न होने पर मजबूर थे इसलिये अहले मक्का को दोबारा फिर हज़रत अबुतालिब अलै 0 के पास आना पड़ा। उन्होंने फिर कहा कि तुम्हारा भतीजा अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आता और तुम उसके ख़िलाफ़ कोई क़दम उठा नहीं सकते लेहाज़ा तुम दरमियान से हट जाओ। और अगर यह भी मुम्किन नहीं तो मैदान में उतर आओ ताकि हम दोनों का फ़ैसला तलवार के ज़रिये हो जाये। इस वफ़द में कुरैश के तमाम रऊसा मसलब अबुसुफ़ियान , शीबा और अतबा वग़ैरा शामिल थे।
हज़र अबुतालिब अलै 0 के लिये यह मरहला यक़ीनन सख़्त था। एक तरफ़ नबूवत के तहफ़्फुज़ का एहसालसस और दूसरी तरफञ कुफ़्फारे मक्का की धमकियां और बदले हुए तेवर। आपकी दूरे रस निगाहें ने इस नज़ाकत को अच्छी तरह महसूस कर लिया था कि काफ़िरों का पैमान-ए-सब्र लबरेज़ हो चुका है। यह मामला किसी वक़्त भी कोई ख़तरनाक सूरत इख़्तियार कर सकता है। अगर यह लोग आमादए पैकार हुए तो उनसे तन्हा मुक़ाबिला आसान न होगा।
उन्हें ख्यालल व एहसास के रद्दो अमल में जनाबे अबुतालिब अलै 0 के चेहरे पर तरद्दुद के आसार मुरत्तब हुए पैग़म्बरे इस्लाम सल 0 ने देखा कि शफ़ीक़ व मेहरबान चाचा के पाये सबात में लग़ज़िश के इमकानात हैं तो आबदीदा हो गये और फ़रमाया “ ख़ुदा की क़सम अगर यह लोग मेरे एक हाथ पर आफ़ताब औऱ दूसरे पर माहताब लाकर रख दें तो भी मैं अपने फ़र्ज़ मनसबी से मुंह नहीं मोड़ सकता। ”
इस पैग़म्बरी आवाज़ और सदाक़त आमेज़ लहजे ने जनाबे अबुतालिब अलै 0 के दिल में एक नया जोश और नया वलवला पैदा कर दिया। चुनानचे उन्होंने फ़रमाया “ अगर तुम्हारा मौकफ़ और फ़ैसला अटल है तो तुम अपना काम अंजाम देते रहो। मैं वादा करता हूं कि जब तक मेरे जिस्म में जान है कुफ़्फा़र तुम्हारा एक बाल भी बाका नहीं कर सकते। ”
अगर पैग़म्बर इस्लाम सल 0 या आपके चचा के दिल में हुसूले ज़र , जहां बानी हुक्मरानी या मुल्की फ़तूहात का कोई जज़बा कारफ़रमा होता तो वह इस मौक़े पर कुफ़्फ़ार को आसानी से अपना हमनवा बना सकते थे। उनसे कहते कि क्यों मेरी मुख़ालिफ़त कर करम बस्ता हो , इस्लाम कुबूल कर लो ताकि दुनिया की दौलत पर क़ाबिज़ हो सको , मुसलमान हो जाओ ताक़ि दूसरे मुल्क़ों के ख़ज़ाने लू़ट कर अपना घर भर सको। मेरे कूवते बाज़ू मब जाओ इराक़ , ईरान , शाम और मिस्र वग़ैरा पर हमला करके उन्हें ताराज किया जा सके। लेकिन आपने ऐसा नहीं किया और उनके इस एहतेजाज को सख़्ती से ठुकरा दिया।
जब हालात कुछ साजगार हुए और इस्लाम की कूवत अहदे तफूलियत से गुज़र कर जवानी की सरहद की तरफ़ बढ़ने लगी तो कुफ्फ़ार मक्का के दिलों में अदावत व नफ़रात और रशक व हसद के शोले पूरी शिद्दत से भड़क उठे जिसके नतीजे रसूले अकरम सल 0 को मुतअद्दिद ग़ज़वात का सामना करना पड़ा।
पैग़म्बरे इस्लाम सल 0 के दौर में जो ग़वात हुए या जो जंगे लड़ी गयीं वह सिर्फ़ देफ़ाई और इस्लाम के मुफ़ाद में थीं। रसूल उल्लाह सल 0 की तरफ़ से किसी जंग में इ्ब्तेदा नहीं की गयी। न किसी क़िस्म का जारेहाना क़दाम अमल में आया न बरबरियत औऱ तशद्दुद का मुज़ाहिरा किया था। इसके बर ख़िलाफ़ हज़रत उस्मान से पहले हज़रत अबुबकर और उनके बाद हज़रत उस्मान के दौर में इरा़क़ , ईरान , शाम औऱ मिस्र के साथ दीगर दूर दराज़ के मुमालिक पर मुल्कगिरी के लिये हमले किये गये। उन्हें दिल खोल कर लूटा गया , वहां के अवा को तशद्दुद का निशाना बनाया गया , उन पर मज़ालिम के पहाड़ तोड़े गये , उन्हें शहर बदर किया गया औऱ उनके घरों को तबाह बर्बाद और वीरान किया गया।
इन फ़तूहात का उसूल यह नज़र आता है कि जहां तक मुम्किन हो दुनिया की दौलत हासल की जाये , मुल्कों को फ़तेह किया जाये और वहां के अवाम को मज़ालिम और तशद्दुद के ज़रिये इस अमर पर मजबूर किया जाये कि वह मुसलमान हों या जज़ीया दें। और अगर यह दो सूरतें मुम्किन न हो तो तलवार के पानी से सेराब हों। क्या इन फ़तूहात को उसूली औऱ इस्लामी कहा जा सकता है ? हरगिज़ नहीं।
दीनी व मज़हबी इस्लाहें
इस्लाम के एहकाम फ़ितरते इन्सानी के ऐन मुताबिक़ हैं और इसका कोई हुक्म ऐसा नहीं है जिसमें इन्सान के फ़ितरे तक़ाज़ों को मलहूज़े ख़ातिर न रखा गया हो। फुरुए दीन में इस्लाम के इस्तेसनाई एहकाम और मराआत ख़ुद इस बात की दलील हैं कि इस्लाम दीने फ़ितरत है। इसके एहकाम नाक़ाबिले अमल नहीं है। ख़ास सूरतों मसलन बीमारी वग़ैरा की हालत में खड़ो होकर नमाज़ पढ़ने या रोज़ा रखने के एहकाम में तबदीली भी हो जाती है जैसे बैठ कर या लेट कर इशारों में नमाज़ पढ़ना औऱ रमज़ान के रोज़े दूसरे दिनों में कज़ा रखना वगैरा। इसी तरह कोई शख़्स ख़ास वजूहात की बिना पर एक मुद्दत तक अपनी ज़ौजा से अलकग रहे और उसके कूवते बरदाश्त , शहवानी ख़्वाहिशात औऱ जज़बात की फ़रावानी के आगे दम तोड़ती नज़र आये तो क्या वह अपनी इस जिन्सी ख़्वाहिशात की तकमील के लिये ऐसा तरीक़ा इख़्तियार करे जो इस्लामी एहकाम के मनाफ़ी हो ? या वह अपने फ़ितरी तकाज़ों को पूरा करने के लिये इस्लाम ने चन्द क़यूद , पाबन्दियों और शराएत के साथ जो मराआती एहकाम दिये हैं उन पर अमल पैरा होकर ज़िना के इरतेकाब से महफूज़ रहे। उन्हीं ख़ास मराआती एहकाम में से एक हु्कम का नाम “ मुताह ’ है जिसकी तक़सीम दो हिस्सों पर मुश्तमिल है। ( 1) मुताउल हज ( 2) मुताउल निसा।
“ मुताउल हज ” को “ तमतो बिलहज ” भी कहते हैं। तमता के मानी लुत्फ़ अन्दोज़ी के हैं। इसमें इन्सान उमरा और हज के दरमियान अपनी औरतों से लुत्फ़ अन्दोज़ हो सकता है मगर यह सिर्फ़ उन लोगों के लिये है जो हुदूदे मक्का के कमसे कम 80 किलोमीटर या उससे ज़्यादा फ़ासलों पर आबाद हों।
“ मुताउल निसा ” की तारीफ़ यह है कि किसी औरत से किसी मुक़र्रर मुद्दत के लिये महर के अवज़ अक़द किया जाये और मुद्दत तमाम होने पर वह औरत अलैहदा हो जाये और इतनी मुद्दत तक इद्दे की हालम में रहे कि हमल का शुब्हा जाता रहे। मुताह के बारे में कुरआन का इरशाद है किः
“ जिन औरतों से तुमने मुताह किया हो , उन्हें उनका मोअय्यना मेहर दे दो। और मेहर के मुक़र्रर हो जाने के बाद आगर आपस में (कम व बेश पर) राज़ी हो जाओ तो उसमें तुम पर कोई गुनाह नहीं है। बेशक ख़ुदा हर चीज़ से वाकिफ़ और मसलहतों का पहचानने वााल है। ” (अलनिसा 24)
एक मुक़ाम पर इरशादे बारी हैः
“ लोगों। जो तुम्हारे परवरदिगार की तरफ़ से तुम पर नाज़िल किया गया है उसकी पैरवी करो। ”
एक दूसरे मुक़ाम पर इरशाद हुआः
“ जो शख़्स खुदा की किताब के मुताबिक़ हुक्म न दे वह काफ़िर है। ”
(माएदा 44)
और सूरा कहफ़ में इरशाद हुआः
“ खुदा अपने हुक्म में किसी को शरीक नहीं बनाता। ” (अलक़हफ़ 26)मालूम हुआ कि हुक्मे मुताह सिर्फ़ खुदा की तरफ़ से था और इस हुक्म में तरमीम व तनसीख़ का हक़ खुदा के अलावा रसूला अकरम सल 0 को भी नहीं था। आपका फ़र्ज़े मनसबी यह था कि आप इस हुक्म इलाही को मुसलमानों पर नाफ़िज़ करें। चुनानचे इशी हुक्म से मुतअल्लिक़ अब्दुल्लाह बिन मसूद की रिवायत है किः
“ हम हज़रत रसूल खुदा सल 0 के साथ जंगों में जाचा करते थे औऱ हमारे पासर कोई सामान मुक़तेज़ाये फ़ितरत को पूरा करने का नहीं होता था तो हम ने रसूल उल्लाह सल 0 से कहा कि हम क्यों न अपने आजा़ये शहवानी को क़ता करा दें। आंहज़रत ने इसकी मुमानियत फ़रमाई और हमें इस अमर की इजाज़त दी कि हम औरतों से मुनासिब मेहर प अक़द कर लिया करें। ”
“ अब्दुल्लाह बिन मसूद ने कहा हम लोग जवान थे , हमने रसूल उल्लाह सल 0 की ख़िदमत में अर्ज़ किया कि हम अपने आज़ाये शहवानी को क़ता क्यों न करा दें। ”
सही मुस्लिम में ग़ज़वात का तज़किरा नहीं है जिससे ज़ाहिर होता है कि ज़मानये अमन में भी अगर ज़ौजा न हो तो नफ़सानी ख़्वाहिशात की क़मील के लिये इस्लाम अक़दे मुताह की इजाज़त देता है और इब्तेदये इस्लाम में मुताह के जवाज़ की ओलमा व मुफ़्स्सेरीन अहले सुन्नत ने तसलीम किया है। चुनानचे अल्लामा फ़ख़रुद्दीन राज़ी तफ़सीरे कबीर में रकम तराज़ है किः
“ यह अमर मुतफ़्फ़िक़ अलैह है कि मुताह इब्तेदाये इस्लाम में राएच व जाएज़ था। इस पर तमाम उम्मत का इजामा है कि किसी को इख़्तेलाफ़ नहीं है। ”
मगर अफ़सोस कि हज़रत उमर ने अपने ज़ाती इजतेहादी की बिना पर ख़ुदा व रसूल सल 0 के इस हुक्म को अपने दौर ख़िलाफ़त में कालअदम क़रार दिया जैसा कि सहाबिये सल 0 जाबिर बिन अब्दुल्लाह अन्सारी का बयान है किः
“ हम लोग रिसालते माब सल 0 के पूरे ज़माने में और हज़रत अबुबकर के पूरे दौरे ख़िलाफ़त में नीज़ उमर के निसफ ज़माने ख़िलाफ़त तक बराबर मुताह करते थए मगर हज़रत उमर ने अपने निस्फ़ ज़माने ख़िलाफत के बाद यह कह कर मुताह की मुमानियत कर दी कि मुताउल हज और मुताउल निसा रसूल सल 0 के ज़माने में हलाल थे लेकिन मैं उन्हें हरार क़रार देता हूं औऱ अब जो शख़्स मुताह करेगा उसे मैं सज़ा दूंगा। ”
इमरान बिन हसीन से रिवायत है कि हम रसूल उल्लाह सल 0 के ज़माने में मुताह किया करते थे और आंहज़रत सल 0 ने कभी मना नहीं किया और न उसके बारे में ख़ुदा ने कोई नासिख़ आयत उतारी।
अबी नज़रा से रिवायत है किः
“ मैंने जाबरि बिन अब्दुल्लाह अन्सारी से कहा कि इब्ने ज़बीर लोगों को मुताह से रोकता है और इब्ने अब्बास इसकी इजाज़त देते हैं। जाबिर ने कहा ज़मानये रसूल सल 0 और ज़मानये अबुबकर में हम मुताह किया करते थे। जब हज़रत उमर हाकिम हुए तो उन्होंने कहा कि कुरआन है तो हुवा करे , रसूल सल 0 है तो हुआ करे , मुताउल हज औऱ मुताउल निसा दोनों ज़मानये रसूल सल 0 में जारी थे लेकिन मैं तुम लोगों को उन दोनों से मना करता हूँ। ”
सही मुस्लिम में तो यहा तक है कि हज़रत उमर ने फ़रमाया कि अल्लाह ने अपने रसूल सल 0 के लिये जो चाहा मुबाह कर दिया। अब कोई शख़्स औरतों से ताल्लुक पैदा करगा तो मैं उसे संगसार कर दूंगा। ”
इन रिवायतों से पता चलता है कि हज़रत उमर की नज़डर में न कुरआन की कोई अहमियत थी और न हुक्मे इलाही का कोई पास व लिहाज़ था। क्या हुक्मे ख़ुदा और रसूल सल 0 को ठुकराने के बाद कोई मुसलमान मुसलमान रह सकता है ?
इस मौक़े पर हज़रत आयशा की यह रिवायत क़ाबिले तवज्जो है जिसमें आप फरमाती हैः
“ रसूल उल्लाह सल 0 ने यह फ़रमाया कि जो शख़्स हमारे दीन में कोई ऐसी बात ईजाद करे या कोई ऐसा अमल करे जिसके मुतअल्लिक हमारा हुक्म न हो तो वह शख़्स मरदूद है। ”
तरावीह
तरावीह दरहक़ीक़त हज़रत उमर की ज़हनी इख़तरा का नाम है अहदे रिसालत या उसके बाद हज़रत अबुबकर के दौरे ख़िलाफ़त में तरावही का कोई वजूद नहीं था। यह बात तारीख़ी एतबार से मुस्तहकम , मुसल्लम औऱ यक़ीनी है।
रसूले अक़रम सल 0 ने नमाज़े इस्तसक़ा (वह नमाज़ जो बारिश न होने की सूरत में मख़सूस तरकीब के साथ पढ़ी जाती है) के अलावा तमाम सुन्नती नमाज़ों में जमाअत को नाजाएज़ क़रार दे दिया था। उसी पर हज़रत अबुबकर के ज़माने में भी अमब होता रहा लेकिन माहे रमज़ान सन् 14 हिजरी में हज़रत उमर ने मुसलमानों पर यह हुक्म नाफ़िज़ किया कि हर मुसलमान रात भर तरावीह में गुज़ारे और मस्जिद में खड़ा रहे।
इस अज़ीयत रसां हुक्म में क्या मसलहत कारेफ़रमां थी ? यह हज़रत उमर ही जानें। बहरहाल यह फ़रमान दूसरे शहरों में भी रवाना कर दिया गया और इस पर अमल की सख़्त ताकीद कर दी गयी। मदीनें में दो क़ारी मुक़र्रर कर दिया गये ताकि वह तमाम रात मुसलमानों को तरावही पढ़ायें।
बाज़ मोअर्रेख़ीन का कहना है कि हज़रत उमर ने एक रात मसाजिद का मुआएना किया औऱ नमाज़ियों को मुख़तलिफ अन्दाज़ में मसरुफ़े इबादत पाया तो उसी शब तरावीह का यह फ़रमान जारी किया।
बुख़ारी ने अपनी “ तरावीह ” में अब्दुल क़ारी से यह रिवायत नक़ल की है किः
“ मैं उमर के साथ था , जब वह मस्जिद में दाख़िल हुए तो उन्होंने नमाज़ियों केो मुतफ़र्रिक़ हालत में देख कर कहा कि मैं इन्हें मजमें में देखना चाहता हूँ औऱ फिर आपने तरावही का हुक्म करके अबी बिन काब को इमाम मुक़र्रर किया। जब दूसरी रात आई तो फिर गये तो इजतेमाई मंज़र देखा औऱ फ़रमाया कि क्या अच्छी बिद्अत है। ”
अल्लामा क़सतलानी का कहना है कि हज़रत उमर ने इसको बिद्अत से इसलिये ताबीर किया कि रसूल उल्लाह या हज़रत अबुबकर के ज़माने में इस क़िस्म का कोई इजतेमा न था। अल्लामा सेनन्नी लिखते हैं कि हज़रत उमर ने तरावीह ईजाद की। उम्मे वलद की बैय से मना किया। नमाज़े मय्यत में चार तकबीरें कर दीं। अमीरुल मोमेनीन का लक़ब इख़्तियार किया औऱ मुताह को हराम करार दिया।
अल्लामा अबदरबा ने इस्तेयाब में , इब्ने सादने तबक़ात में और इब्ने शहना ने रौज़तुल मुनाज़िर में सन् 23 हिजरी के वाक़ियात में हज़रत उमर की उन खुसूसियात का ज़िक्र किया है।
मौलवी वहीदुज ज़म ख़ा हैदराबादी इस बिदअत के ज़ेल में तहरीर फ़रमाते हैं कि बिदअत की दो क़िस्में हैं। हसना औऱ सय्या। बिदअत शरयी हमेशा सय्या होती है जिसकी तारीफ़ ओलमा ने यह की है कि दीन में कोई ऐसी नई बात पैदा की जाये कि जिसकी दलील किताब व सुन्नत से न हो।
इस बिदअत के बारे में बाज़ ओलमाये अहले सुन्नत का यह ख़्याल है कि हज़रत उमर ने अपनी हिकमते अमलीस से ऐसी चीज़ ईजाद की है जिससे रसूल उल्लाह स 0 ख़ुद ग़ाफिल थे। यह महज़ अक खुश फ़हमी हैं वरना हकीक़त तो यह है कि हज़रत उमर ख़ुद एहकामे रिसालत की हिकमतों से बेबहरा थे। पैग़म्बरे इस्लाम सल 0 ने नमाज़े मुसतहेब्बात को इस लिये ग़ैर मशरुअ क़रार दिया था कि नमाज़ मुस्तहब को इन्सान अपने माबूर से मुनाजात के लिये इख़्तियार तौर पर अदा करता है। उसे ऐसी तन्हाई तौबा के साथ मुनाजात कर सके और उसके साथ ही इजतेमाई फ़ाएदा यह हो कि घर के बच्चे भी मसूद ने आंहज़रत सल 0 से सवाल किया कि नमाज़ घर में अफ़ज़ल है या मस्जिद में ? तो आपने फ़रमाया कि मेरा घर मस्जिद से मुलहिक़ है लेकिन मैं गै़र वाजिब नमाज़ें घर में ज़्यादा पसन्द करता हूं।
इब्ने माजा व इब्ने ख़ज़ीमा वग़ैरा ने ज़ैद बिन साबित के ज़रिये आंहज़रत सल 0 से रिवायत की है कि बाज़ नमाज़ों के तवस्सुल से अपने घरों को बुजूर्ग बनाओ और बुख़ारी व मुस्लिम ने यह रिवायत नक़ल की है कि आंहज़रत सल 0 ने नमाज़ वाले घर को “ ज़िन्दा घर ” औऱ बग़ैर नमाज़ वाले घर को “ मुर्दा घर ” से ताबीर किया है।
हज़रत उमर ने इस बिदअत को मुसलमानों पर मुसल्लत करके उन तमाम इजतेमाई , मज़हबी औऱ तरबीयती फ़वाएद से महरुम कर दिया जिनके लिये सरकारे रिसालत ने नमाज़ मुस्तहब को फ़रादा क़रार दिया था।
चार तक़बीरें
पैग़म्बरे इस्लाम सल 0 पॉच तक़बीरों के साथ नमाज़े ज़नाज़ा पढ़ा करते थे। हज़रत उमर ने उस नमाज़ में तबदीली करके चार तकबीरों में उसे मुनहसिर कर दिया जैसा कि अल्लामा सयुती ने तारीखुल ख़ोलफ़ा औऱ इब्ने शहना ने रौज़तल मुनाजि़र में तहरीर फ़रमाया है औऱ इमाम अहमद बिन हम्बल ने अब्दुल आला से रिवायत की है कि ज़ैद बिन अरक़म ने एक जनाज़े पर पांच तकबीरों के साथ नमाज़ पढ़ी तो एक शख़्स ने एतराज़ किया कि यह हज़रत उमर के हुक्म के ख़िलाफ़ है। उन्होंने कहा कि मैंने रसूलस उल्लाह सल 0 के साथ यूं ही पढ़ी है लेहाज़ा मैं इसे क़यामत तक तर्क नहीं कर सकता। इमाम अहमद ने यह रिवायत भई नक़ल की है कि यहिया ने हुज़ैफ़ा के गुलाम ईसा के साथ नमाज़ पढ़ी , उन्होंने पांच तकबीरें कह कर यह एलान किया कि मैंने सुन्नते रसूल सल 0 पर अमल किया है।
इससे यह पता चलता है कि सुन्नते रसूल सल 0 में तबदीली को हज़रत उमर अपना हक़ समझते थे।
हज़रत उमर के फैसले
(1) हज़रत उमर ने एक मजनू औ ज़ानिया औरत को संगसार का हुक्म दिया। हज़रत अली अलै 0 को पता चला तो उन्होंने उस औरत को लोगों से छुड़कर उसकी जान बचा ली। लोगों ने हज़रत उमर से शिकायत की उन्होंने आपको तलब किया। आप गुसेसे में तशरीफ़ ले गये और फ़रमाया कि क्या तुम्हें नहीं मालूम कि मजनून , नाबालिग़ और सोता हुआ शख़्स एहकाम से मुस्तसना है। उमर ने कहा हां यह दुरुस्त है । फ़रमाया कि इस औरत का जुनून एक मशहूर बात है। इसलिये मुम्किन है कि वह वक़्ते अमल भी रहा हो। फिर यह हद किस तरह जारी हो सकती है हज़रत उमर ने अपनी इस ग़लती का एतराफ़ किया। इस वाक़िये को इमाम बेहेक़ी ने और इमाम अहमद ने अपनी मसनिद में लिखा है।
(2) हज़रत उमर के पास एक ज़िना कार औरत लाई गयी। बिला तहक़ीक आपने उसकी संगसारी का हुक्म सुना दिया। इस फ़ैसले पर हज़रत अली अलै 0 ने हज़रत उमर को टोका कि तुम्हें तहक़ीक़ करना चाहिये था , शायद इसके पास कोई उज़्र होता। हज़रत अली अलै 0 के इस मशविरे पर हज़रत उमर ने उसका बयान लिया। उसने बताया कि मुछ पर प्यास का ग़लबा था मैं ने एक शख़्स से पानी मांगा। उसने बदनियती का मुज़ाहिरा किया , मैंने हत्तल इम्कान सब्र किया लेकिन जब सब्र व तहम्मुक का दामन हाथ से छूटने लगा और मजबूर हो गयी तो इस बुरे फ़ेल पर तैयार हो गयी। यह सुनकर हज़रत उमर ने कहा , अल्लाहो अकबर! तौबा नस कुरआन हद से मुस्तसना है। इस वाक़िये को बेहेक़ी ने सनन में और इब्ने क़ीम ने अलतरीक़े हिकमत फ़िस सियासतुल शरिया में नक़ल किया है।
(3) एक ज़िनाकार औरत हज़रत उमर के पास लाई गयी और वह हामला थी लेकिन हज़रत उमर ने उसे संगसार किये जाने का हुक्म दे दिया तो मेआज़ ने तौबा दिलाई कि अगर औरत ख़ताकार है तो इसके शिकम में तो बच्चा है उसने क्या ख़ता की है ? आपने अपने हुक्म को फ़ौरन बातिल क़रार दिया और फ़रमाया कि औरतें मेआज़ड का मिस्ल पैदा करने से क़ासिर हैं। इस वाकि़ये को मुहम्मद बिन मुख़लिद अत्तार ने फ़वाएद मे नक़ल किया है।
(4) हज़रत उमर की अदालत में एक शख़्स के क़त्ल का मामला पेश हुआ जिसमें एक मर्द और एक औरत का हाथ था। हज़रत उमर ने तशवीश का इज़हार किया तो हज़रत अली अलै 0 ने फ़रमाया कि अगर एक सरक़े के मामले दो शरीक हो तो क्या दोनों के हाथ कता न होंगे ? कहा ज़रुर होंगे। आपने फ़रमाया बस यही हुक्म यहां भी जारी होगा। इस वाक़िये को अहमद अमीन ने फ़ज़रुल इस्लाम के सफ़ा 237 पर रक़म किया है।
(5) हज़रत उमर ने कुछ पूछने के लिये एक औरत को तलब किया तो डर के मारे उसका हमल साक़ित हो गया। हज़रत उमर घबराये और उन्होंने ओलमा फ़ुक़हा से मसला दरियाफ़्त किया। सब ने कहा कोई हरज नहीं है। हज़रत अली अलै 0 ने फ़रमाया कि अगर यह हुक्म रेआयतन सादर हुआ है तो धोका है और अगर अजतेहाद है तो ग़लत है। लेहाज़ा आप पर शरई फ़र्ज़ है कि आप एक गुलाम आज़ाद करें। हज़रत उमर ने इस मशविरे पर अमल किया। इस वाक़िये को इब्ने अबील हदीद ने नक़ल किया है।
(6) क़दामा बिन मज़ऊन ने शराब पी तो उन्हें पकड़ कर हज़डरत उमर के पास लाया गया। उन्होंने उस पर हद जारी करने का क़सद किया। क़दामा ने कहा कि यह कुरआन के हुक्म के ख़िलाफ़ है क्योंकि उसमें है कि ईमान और अमले सालेह वालों के लिये खाने पीने पर कोई पाबन्दी नहीं है , मैं मोमिन , मुत्तक़ी और मुज़ाहिद हूँ। यह सुन कर हज़रत उमर ख़ामोश हो गये और लोगों से मशविरा करने लगे। इब्ने अब्बास ने हुरमते शराब की आयत से इस्तदाल किया औऱ कहा कि क्या हराम काम का अंजाम देने वाला शख़्स भी मुत्तक़ी और परहेज़गार हो सकता है ? उस पर हज़रत उमर ने इस्तेफ़ता किया और अस्सी कोड़ों की सज़ा दी। इस वाक़िये को हाकिम ने मुस्तरदरिक में नक़्ल किया है।
(7) एक औरत को अन्सार के एक नौजवान से इश्क़ हो गया उसने अपनी जिन्सी प्यास बुझाने के लिये उस नौजवान को अपनी गिरफ़्त में लेना चाहा लेकिन वह किसी तरह नज़ान्द नहीं हुआ तो वह औरत इन्तेक़ाम पर उतर आई और उसने यह तरकीब की कि एक अण्डा तोड़ कर उसकी सफ़ेदी अपनी शर्मगाह पर और उसे मुलहिक़ लिबास पर मल ली और उसी हालत में हज़रत उमर के पास जाकर यह फ़रियाद कीकि फ़लां शख़्स ने मेरी आबरुरेज़ी की है। हज़रत उमर ने उस नौजवान को तलब किया और चाहा कि उस पर हद जारी करे। उसने कहा , आप मुझे सज़ा देने से पहले तहक़ीक व तफ़तीश क्यों नहीं करते कि उसके बयान में कहां तक सदाक़त है ? बिलआख़िर यह मामला हज़रत अली अलै 0 के सामने रखा गया आपने फ़रमाया कि इस औरत के लिबास को गरम पानी में डाल दिया जाये चुनानचे उसका लिबास गर्म पानी में डाला गया और अण्डे की सफ़ेदी उम पर जम गयी और उसकी बदबू से पता चल गया कि यह अण्डे की सफ़ेदी है। तनबीह पर उसने खुद भी इक़रार कर लिया और वह नौजवान हज़रत उमर के ताज़ियानों से बच गया। इस वाक़िये को भी इब्ने क़ीम ने तरीकुल हिकमता के सफ़ा 48 पर रक़म किया है।
मुग़ीरा बिन शोबा की वाक़िया
अबल्ला में जहां जंगे जलूला के बाद सन् 16 हिजरी में बसरा की आबादकारी अमल में आई , अतबा बिन ग़ज़वान सन् 14 हिजरी में सबसे पहले गवर्नर मुक़र्रर किया गये। छः माह बाद अतबा का इन्तेक़ाल हो गया तो उनकी जगह मुग़ीरा बिन शेबा गवर्नर हुए मगर दो ही बरस के बाद रबीउल अव्वल सन् 17 हिजरी में यह माजडूल कर दिया गये और उनकी जगह अबू मूसा अशरी की तक़र्रुरी अमल में आई। बाज़े मोअर्रिख़ीन ने यह भी लिखा है कि अतबा के बाद मजाशा बिन मसूद औऱ उनके बाद मुग़ीरा वगै़रा ने यह बताई है कि मुग़ीर और अबुबकर दोनों पड़ोसी थे और आमने सामने वाला खानों में रहते थे। उन दोनों के मकानों के दरमियान रास्ता मुश्तरिक था औऱ ख़िड़िकियां बिलमुक़ाबिल थी। एक दिन अबुबकर के बालाख़ाने पर उसके चन्द साथी बैठे आपस में बातें कर रहे थे कि अचानक तेज़ हवा का एक झोंका आया जिससे ख़िड़की खुल गयी। अबुबकर उसे बन्द करने उठे तो उन्होंने देखा कि मुग़ीरा के कमरे की खिड़की भी खुली है औऱ वह दुनिया व माफ़िहा से बे ख़बर एक औरत की दोनों टांगों के बीच तेज़ी से हिल रहे हैं। अबुबकर ने यह मंज़र देख कर अपने साथियों नाफ़े बिन कलदा , ज़्याद बिन अबीया और शब्बल बिन माबिद बिजली वग़ैरा से कहा , आओ भाईयों। और एक दिल चसप करिश्मा देखों। उन्होंने देखा तो पूछा कि यह औरत कौन है ? अबुबकर ने कहा यह हज्जत बिन अतीक की बीवी उम्मे जमील बिन्ते अफ़क़म है इसका ताल्लुक़ क़बीलये आमिर बिन सासिया से है। यह उमरा व शुरफ़ा के तसकीने नफ़्स का सामान फ़राहम करती है। वह बोले , हमने तो सिर्फ़ निचला हिस्सा ही देखा है। अबुबकर ने कहा , खड़े रहो अभी चेहरा भी देख लेना. चुनानचे जब मुग़ीरा ने उसे छोड़ा और वह लड़खड़ाती हुई उठी तो उन लोगों का शक व शुबहा यकीन में बदल गया और उन लोगों ने भी उसे पहचान लिया।
जब मुग़ीरा ज़ोहर की नमाज़ पढ़ने आये तो अबुबकर ने उन्हें रोका औऱ हज़रत उमर को इस वाक़िये की इत्तेला दी। हज़रत उमरने मुग़ीरा औऱ अबुबकर को मय गवाहों के तलब किया। मुग़ीरा ने अपनी सफ़ाई में यह बयान दिया कि मैं अपनी बीवी के साथ अपने घर में मुजामियत कर रहा था। इनका देखना क्यों कर जाएज़ हुआ ? अबुबकर , शब्बल औऱ नाफ़े ने गवाही दी कि हमने मुग़ीरा को उम्मे जमील ही के साथ ज़िना करते देखा है। मगर ज़्याद ने यह गवाही दी कि मैंने मुग़ीरा को एक औरत की दोनों टांगों के दरमियान हिलते देखा है उसके पैरों में मेंहदी लगी थी और वह ऊपर को उठे हुए थे। उसकी शर्मगाह खुली हुई थी औऱ ज़ोर ज़ोर से सांस लेने की आवाज़ आ रही थी। हज़रत उमर ने पूछा , क्या तुम उस औरत को पहचानते हो ? कहा नहीं , चुनानचे हज़रत उमर ने मुग़ीरा को छोड़ दिया औऱ तीनों गवाहों पर दरोग़गोई की हद जारी की।
तीरीख़े इब्ने ख़लकान तरजुमा यज़ीद बिन ज़्याद में है कि जब ज़्याद गवाही के लिेय आये तो हज़रत उमर ने कहा कि वह शख़्स आ गया जिसकी ज़बान से मुहाजेरीन में से एक शख़्स रुसवाई से बच जायेगा। तबरी ने लिखा है कि मुग़ीरा ने खुशामद दरामद करके ज़्याद को मिला लिया था और उससे कहा थआ कि वह बात न कहता जो तुमने नहीं देखी क्योंकि अगर तुम मेरे औऱ उस औरत के पेट के दरमियान भी होते भी तुम मुझे दख़ूल करते हुए न देख पाते। इब्ने ख़लकान का बयान है कि जब हज़रत उमर ने पूछा तो ज़्याद ने कहा कि मैंने मुग़ीरा को उस औरत की टांगे उठाये हुए इस तरह देखा है कि ख़ुसिये उसकी रानों के दरमियान रगड़ खा रहे थे।
शदीद धक्के और बुलन्द सांस की आवाज़ सुनी है और इस तरह नहीं देखा जिस तरह सुरमादानी में सलाई जाती है।
इस गवाही के बाद हज़रत उमर ने कहा कि ऐ मुग़ीरा उठो और इन तीनों गवाहों को हद इफ़तेरा के कोड़े मारो। चुनानचे मुग़ीरा ने अस्सी अस्सी कोड़े तीनों को मारे।
कुरआन मजीद में ज़िनाकार मर्द और औरत दोनों की “ हद ” मोअय्यन है और इसके साथ चार आदिल गवाहों की शर्त भी है मगर वह शर्त कहीं नहीं है कि गवाह इस तरह गवाही दे जिस तरह हज़रत उमर ने फ़रमाया है. जब कि दौरे रिसालत में भी कुछ सहाबा ज़िना के मुरतकिब हुए हैं और उन पर “ हद ” जारी करने के लिये गवाह भी तलब किये गये हैं मगर सुरमादानी में सलाई वाली शर्त नहीं रखी गयी सिर्फ़ मोतबर और आदिल गवाहों के चश्मदीद बयानात पर एतमाद करके फ़ैसला कर दिया।
हज़रत उमर के तजवीज़ किरदा इस ताज्जुल ख़ेज़ निसाब शहादत को आपके अव्वालियात में शामिल किया जाना चाहिए कि आपने न सिर्फ़ सुरमादानी और सलाई की शर्त रख कर मुग़ीरा को बरी कर दिया बल्कि उसके हाथों से गवाहों की पिटाई भी करा दी जिसमें अबुबकर सब से ज़्यादा ज़ख़्मी हुए।
अबु शहमा का वाक़िया
अम्र बिन आस के हलके अक़तेदार में हज़रत उमर के साहबज़ादे अबु शहा ने एक दिन शराब पी। अम्र आस ने उसका सर मुण्डवा कर उसके भाई अब्दुल्लाह के सामने उस पर शरई हद जारी की और ज़ख़्मी हालत में हज़रत उमर के पास इस ख़त के साथ रवाना कर दिया कि मैंने अबु शहमा पर तमाम शराएते इस्लामी के साथ बिला रेआयत शरई हद जारी कर दी और और अब आपकी ख़िदमत में रवाना कर रहा हूं।
अब्दुल्लाह बिन उमर भाई को लेकर बाप की ख़िदमत में पहुंचे। शफ़क्क़ते पेदरी का तक़ाज़ा तो यह था कि आप अबु शहमा को समझाते बुझाते , तसल्ली देते और ग़ैर शरई इक़दाम से आइन्दा बाज़ रहने की नसीहत फरमाते। हद जारी करने का सवाल ही पैदा नहो होता था क्योंकि वह पहले ही अम्र आस के हाथों जारी हो चुकी थी। लेकिन आपने अबु शहमा को देखते ही ताजियाना उठाया और उन्हें पीटने लगे। अबु शहमा ने फ़रयाद की कि अब्बा जान! मैं बीमार हूँ मर जाऊँगा। आपने एक न सुनी और अज़ सारे नौ हद जारी करके क़ैदख़ाने में डाल दिया जहां अबु शहमा ने दम तोड़ दिया।
यह वाक़िया उस वक़्त और ज़्यादा इबरत अंगेज़ और अफ़सोसनाक हो जाता है जब तारीख़ यह बताती है कि हज़रत उमर खु़द भी शराब के बेदह शौक़ीन थे। उनका अपने शराबी बेटे पर शराब नोशी के इल्ज़ाम में हद जारी करना कहां तक दुरुस्त है ? जब कि अम्र आस उस पर शरयी हद का ख़ातेमा कर चुका था। फिर अबु शहमा ने अपने बाप से बीमारी की उज़्र भी किया था तो क्या इस्लामी शरीयत में किसी बीमार पर हद जारी हो सकती है और क्या हद के बाद इन्सान पर क़ैद की सख़्तियां मुसल्लत की जा सकती हैं ? एहकामाते इलाहिया के बारे में अगर अमरु आस क़ाबिले एतमाद था तो दोबारा आपने हद जारी करने की ज़हमत क्यों फ़रमाई ? औऱ अगर अम्र आस का यह इक़दाम शरयी एतबार से दुरुस्त नहीं था तो ऐसे शख़्स को आपने मुसलमानों पर हाकिम क्यों बनाया ?
दीवाने अता
हज़रत उमर ने सन् 15 हिजरी में “ दीवाने अता ” का इस्तेख़ारा किया तो एक रजिस्टर की शक्ल में था। इसका मक़सद फ़ौजी निज़ाम को दुरुस्त करने के लिये फ़ौजियों की पेंशन औऱ अमाएदीन व अक़ाबरीने इस्लाम , अज़वाजे पैगम्बर सल 0, असहाबे बदर और मुहाजेरीन वग़ैरा को वज़ाएफ़ मुक़र्रर करना था। इस काम के लिये अक़ील बिन अबीतालिब अलै 0, जबीर बिन मुताम औऱ मोहज़मा बिन नोफ़िल पर मुश्तमिल एक कमेटी बनाई गयी जिसने पेंशन दारान वज़ीफ़ा कुनिन्दीगान के असमा दर्जे रजिस्टर किये। इन्द्रजात के बाद जब रजिस्टर मुरत्तब हो गया तो उसका नाम “ दीवाने अता ” रखा गया। अज़ालतुल ख़फ़ा में है कि सबसे पहले रजिस्टर में अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब का नाम दर्ज किया गया उसके बाद यके बा दीगरे क़बाएल के नामों से ग़ुज़र कर यह सिलसिला बनी अदी पर तमा हुआ। इस फ़ेहरिस्त की रु से जो तंख़्वाहें और वज़ाएफ मुक़र्रर किये गये उनकी तफ़सील मंदर्जा ज़ैल है।
(1)
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अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब
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12,000 दिरहम सालाना
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(2)
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हज़रत आयशा
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12,000 दिरहम सालाना
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(3)
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दीगर अज़वाजे पैग़म्बर
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10,000 दिरहम सालाना
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(4)
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असहाबे बदर
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5 ,000 दिरहम सालाना
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(5)
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असहाबे हुदैबिया
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4 ,000 दिरहम सालाना
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(6)
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मुहाजेरीन क़बल फ़तहे मक्का
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3 ,000 दिरहम सालाना
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(7)
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मुहाजिरीन हब्शा
|
4 ,000 दिरहम सालाना
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(8)
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शुरकाये जंग क़ादसिया
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2 ,000 दिरहम सालाना
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(9)
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क़ादसिया व यरमूक के बाद के मुजाहेदीन
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1,000 दिरहम सालाना
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(10)
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मसना की फ़ौज
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5 00 दिरहम सालाना
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(11)
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अहले यमन
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4 00 दिरहम सालाना
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(12)
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लीत की फौज
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3 00 दिरहम सालाना
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(13)
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रबी की फ़ौज
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25 0 दिरहम सालाना
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(14)
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अहले बदर की बीवियां
|
5 00 दिरहम सालाना
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(15)
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अहले हुदैबिया की बीवियां
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5 00 दिरहम सालाना
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(16)
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अहले क़ादसिया की बीवियां
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200 दिरहम सालाना
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जनाबे सलमान फ़ारसी को अहले बदर में शामिल करके उनकी भी पांच हज़ार दिरहम सालाना तंख्वाह मुक़र्रर हुई। मुहाजेरीन हब्शा में हज़रत उम्मे सलमा का नाम दर्ज रजिस्टर करके चार हज़ार तंख्वाह मुक़र्रर की गयी। असामा बिन ज़ैद का चार हज़ार और अब्दुल्लाह बिन उमर का तीन हज़ार मुक़र्रर हुआ। तलहा बिन अबीदउल्लाह अपने भाई उस्मान को लाये तो उनका भी आठ सौ दिरहम मुक़र्रर हुआ और जब नज़र बिन अनस आये तो उनके दो हज़ार दिरहम सालाना मुक़र्रर हुए। (कामिल , तर्जुमा इब्ने ख़लदून , बा तंख़्वाह परचे नवीस भी मुक़र्रर किये थए जो बात बात की इत्तेला उन्हें दिया करते एथ। तबरी ने लिखा है कि उमर के जासूस हर लश्कर के साथ रहते थे जो हर वाक़िये की इत्तेला उन्हें दिया करते थे।
वाक़ियात सन् 16 हिजरी
हज़रत उमर ने हज़रत अली के मशविरे पर यक्कुम मुहर्रम से सन् हिजरी जारी किया। अहले फ़िरंग सन् हिजरी 16 जुलाई सन् 622 से शामार करते हैं।
अब्दुल्लाह बिन उमर ने सफ़िया बिन्ते अबुउबैदा से अक़द किया।
वाक़ियात सन् 17 हिजरी
ख़ालिद बिन वलीद माज़ूल किये गये।
मस्जिदुल हराम की तौसीय अमल में आई।
कूफ़ा आबाद होकर इराक़ का दारुल हुकूमत क़रार पाया।
वाक़ियात सन् 18 हिजरी
शाम में ताऊन की वबा फैली। इस वबा में अबुउबैदा बिन जराअ , मआज़ बिन जबल , यज़ीद बिन अबुसुफि़यान , हरस बिन हश्शाम , सुहैल बिन अम्र , अतबा बिन सुहैल , और आमिर बिन ग़ीलान सक़फ़ी के हमराह 25 हज़ार मुसलमान फौत हो गये। यह बीमारी चूंकि क़रया अमवास से शुरु हुई थी इसलिये वह ताऊने अमवास के नाम से मशहूर हुआ।
यज़ीद बिन अबुसुफ़ियान की हलाकत के बाद हज़रत उमर ने माविया बिन अबुसुफ़ियान को दमिश्क़ का गवर्नर मुक़र्रर किया।
इसी साल काबुल एहबार ने इस्लाम कुबूल किया।
इसी साल हिजाज़ में ऐसा सख़्त क़हत पड़ा कि ज़मीन की मिट्ठी राख बन कर हवा में उड़ने लगी इसी सबब से इस साल का नाम आमुर-रमादा रखा गया।
वाक़दी का कहना है कि अयाज़ बिन ग़नम ने रुहा , रक़्क़ा औऱ हर्रान इसी साल फ़तेह किया।
वाक़ियात सन् 20 हिजरी
हज़रत उमर ने अपने साले क़दामा को बहरैन की गवर्नरी से माज़ूल करके उसकी शराब नोशी पर “ हद ” जारी की और इसकी जगह अबुबकर को बहरैन और यमामा का वाली मुकर्रर किया।
इसी साल साद बिन अबी विकास कूफ़े की गवर्नरी से माज़ूल हुए और उनकू जगह अम्मार यासिर वाली मुकर्रर हुए।
हज़रत उमर ने ख़ैबर के यहूदियों को जिवा वतन करके वादी-उल-कुरा में आबाद किया और नजरान के यहूदियों को कूफ़े की तरपञ जिला वतन करके उनकी रेहाइशगाहों को मुसलमानों में तक़सीम कर दिया।
इस साल अम्मार यासिर ने अपने अहदे गवर्नरी से इस्तेफ़ा दे दिया। हज़रत उमर ने उनकी जगह कूफ़ा पर जबीर बिन मुताम को गवर्नर मुकर्रर किया औपर उन्हें उस मनसबे से माज़ूल व महरुम करके उनकी जगह मुगीरा बिन शैबा को गवर्नर बनाया।
इसी साल अमरु आस के ख़ाला ज़ाद भाई अक़बा बिन नाफ़े फ़हरी ने ज़वीला व बर्का का दरमियानी इलाक़ा फतेह किया जिसमें सुलह हुई।
इस साल में अमीर बिन साद , हौरान , हमस , कंसरीन , औऱ अलजज़ाएर पर औऱ माविया दमिश्क , उरदुन , फ़िलिस्तीन , अनताकिया और मारा व मसरीन पर मुतीन थे।
इसी साल अला हज़रमीं आमिले वहरैन ने वफ़ात पाई और उनकी जगह अबुहूरैरा गवर्नर मुकर्रर हुए।
वाकियात सन् 22 हिजरी
इस साल माविया बिलाद रोम से लड़ा और दस हज़ार सवारों के साथ रोम में दाख़िल हुआ।
इसी साल यज़ीद बिन माविया और अब्दुल मलिक बिन मरवान पैदा हुआ।
हज़रत उमर का तर्ज़े हुकूमत
हज़रत उमर का तर्ज़ व निज़ामें हुकूमत अहले शूरा का मरहूने मिन्नत था। रोज़ाना मस्जिद नबवी में नमाज़ व खुतबा के बाद एक मजलिस शूरा का इनएक़ाद अमल में आता था जिसमें अकरब के अमाएदीन व अकाबरीन उमूरे सल्तनत के बारे में अपने मशविरे पेश करते थे और इन्तेहाई ग़ौर व फिक़्र के बाद उन पर अमल दरामद किया जाता था। इसके अलावा भी हर शख़्स को अपनी राये देने का हक़ हासिल था। हुकूमत के तमाम अहम मामलात इसी मजलिस में तय होते थे औऱ हज़रत उस्मान , अब्दुल रहमान बिन औफ़ , मेआज़ बिन जबल , ओबी बिन कूब , ज़ैद बिन साबित , तलहा बिन अबीदुल्लाह और ज़बीर बिन अवाम इस मजलिसे शूरा के ख़ुसूसी मुशीरकार थे। जब कोई पेचीदा मामला जेरे बहस आता और वह दुशवार तलब होता तो हज़रत अली अलै 0 से कभी कभी मशविरा तलब किया जाता था।
मजलिसे शूरा के अलावा ख़ास ख़ास मामलात के लिये एक और मजलिस “ मजलिसे मुहाजेरीन ” भी कायम थी जिसमें रोज़ मर्रा की ज़रुरियात और इन्तेज़ामात के बारे में फैसले हुआ करते थए। आम रेआया को भी इन्तेजामी उमूर में मदाख़िल का हक़ था।
मक्का , मदीना , शाम , जज़ीरा , मसरा , कूफा , मिस्र , एलिया (बैतुल मुक़द्दस) , हमस , रमला , खुरासान , आज़र बाइजान , फ़ारस , ताएफ़ , सनआ , जंद और बहरैन मुमालिक मुहरुसा के सूबे थे। हर सूबे में हाकिम (आमिल या वाली) सिक्रेट्री (कातिब या मुंशी) कलेक्टर (साहेबुल ख़िराज) पुलिस आफ़ीसर (साहबे अहदास) अफ़सर ख़ज़ाना (साहबे माल) मुक़र्रर थे उनके अलावा एक फ़ौजी अफ़सर (क़ाएद) भी होता था।
हर सूबे में कई कई ज़िले औऱ परगने थे जहां मुख़्तलिफ़ हुक्काम मुक़र्रर थे। आमिल को वक़्ते तक़र्रुरी जो फ़रमान जारी किया जाता था उसमें उस के इख़्तियार व फ़राएज़ की तफ़सील दर्ज होती था जिसे आमिल रेआया के मजमे आम में पढ़ कर सुनाता था और लोग उसके मुक़र्ररा इख़्तियारात से वाक़िफ व बाख़बर होकर उसे अपने इख़्तियार की हद से बाहर नहीं निकलने देते थे। हज के मौक़े पर तमाम मुमालिक के आमिल बुलाये जाते थे और वहां के लोग भी आते थे जिनसे आमिल के आमाल के बारे में दरियाफ़्त किया जाता थआ औऱ अगर कोई शिकायत होती तो इसका तदारुक किया जाता था। मुसलमानों से ज़कात ली जाती थी , ज़मीन पर पैदावार का तसवां हिस्सा मुक़र्रर था। जंगी ख़िदमत हर मुसलमान पर लाज़मी थी। ग़ैर मुमालिक से जो लोग ब-गरज़ तिजारत आते थे उनसे माले तिजारत पर दस फ़ीसदी टैक्स वसूल किया जाता था। माले ग़नीमत का पांचवा हिस्सा हुकूमत का हक़ था बाक़ी सब फौज में तक़सीम हो जाता था। उफ़तादा ज़मीनें आबादकारी की शर्त पर आबाद कारों को दी जाती थीं। मुमलिके मुरुसा में आबपाशी के लिये नहरें , तालाब औऱ बन्द बनवाये गयें थे। रेआया के आराम व आसाइश के लिये जाबजां सड़कों , पुलों , शफाखानों , मस्जिदों और रैन बसेरों की तामीर अमल में लाई गई थी। बड़े बड़े शहरों में मुतअद्दिद कैदख़ाने बनवाये गये थे जिनमें क़ैदियों को रखा जाता था। मौलवी सैय्यद अमीर अली अपनी तारीख़े इस्लाम में रक़म तराज़ हैं कि हज़रत उमर के अहदे हुकूमत में जितने भी काम रफ़ाहे आम के हुए वह सब के सब हज़रत अली के मशवरों के मरहूने मिन्नत हैं।
इ्ब्तेदा में मुकदमाता के फ़ैसले आमिलों के सुपुर्द थे मगर जब हुकूमत मुस्तहकम हो गयी तो जगह जगह क़ाज़ी मुक़र्रर कर दिये गये। क़ाज़ी की अदालत में फ़रीकैन मसावी तौर पर बगै़र किसी मज़ाहमत के आते जाते थे। फ़तवों के लिए खास मुसतनद फ़ाज़िल थे जिनकी निगरां ह़ज़रत आयशा थीं।
फ़ौजदारी के मुक़दमात कें इब्तेदाई तफ़तीश पुलिस करती थी फिर मुलज़िमों का चालान करके क़ाज़ी की अदालत में फेज देती थी। पुलिस के फ़राएज़ में लोगों की जान व मानल की हिफ़ाज़त , दुकानदारों के नाप तौल की देखभाल , सड़कों के किनारे दुकानों की तामीर की रोक थाम , जानवरों पर ज़्यादा बोझ लादने और शराब फ़रोख़्त करने वालों से मवाख़िज़ा भी शामिल था। मदीना , कूफ़ा , बसरा , मूसल , क़सतात , दमिश्क , हमस , उरदुन , और फ़िलिस्तीन फ़ौजी मराकिज़ थे जहां चार चार सौ घोड़ों के असतबल , फ़ौजी बैरीके , अजनास व रसद के गोदाम , फ़ौजी दफ़ातिर और मकानात थे। उनके अलावा सरहदी मुकामात पर भी फ़ौजी छांवनियां थीं जहां हम वक्त फ़ौजें पड़ी रहतीं थीं।
शूरा , वफ़ात , अज़वाज और औलादें
तख्ते हुकूमत पर हज़रत उमर को दस साल छः माह चार दिन गुज़रे थे कि मुग़ीरा बिन शेबा के गुलाम अबु लोलो फ़ीरोज़ ने किसी बात पर बिगड़ कर उनके शिकम में खंज़र उतार दिया। लोग उन्हें ज़ख्मीं हालत में घर लाये मुआलिज बुलाया गया मगर घाव इतना गहरा था कि जब नबीज़ पिलाई गयी तो वह ज़ख्म के रासते से बाहर निकल बड़ी और उनकी ज़िन्दगी की सारी उम्मीदें ख़त्म हो गयी।
मिजाज़ पुरसी के लिये आये हुए कुछ सहाबा भी इस मौक़े पर मौजूद थे। उन्होंने हज़रत उमर की हालत बिगड़ती देखकर मशविरा दिया कि उपने बाद ख़िलाफ़त के लिये किसी को नामजद कर जाइये। उन्होंने हसरत भरे लहजे में कहा , किसे नामज़द करुँ ? काश अबुउबैदा ज़िन्दा होते तो खि़लाफत उनके सुपूर्द करता और जब अल्लाह मुझ से पूछता तो मैं कहता कि उसके सुपुर्द कर आया हूँ जिसे तेरे नबी ने अमीने उम्मत कहा था। या फिर अबु हुअफ़ा का गुलाम सालिम ज़िन्दा होता तो यह मनसब उसके हवाले कर देता। जिसके बारे में पैग़म्बर सल 0 ने फ़रमाया था कि वह अल्लाह से बे हद मोहब्बत रखने वाला है। मुग़ीरा बिन शोबा ने कहा , अपने बेटे अब्दुल्लाह को नामज़द कर दीजिये। उस पर हज़रत उमर ने फ़रमाया , ख़ुदा तुझे ग़ारत करे , मैं ऐसे शख़्स को किस तरह ख़लीफ़ा बना दूं जो अपने बीवी को तलाक़ देने से भी बे खबर है।
इब्ने हजर मक्की रक़म तराज़ है कि हज़रत उमर का यह इशारा उस वाक़िये की तरफञ है कि जब अब्दुल्लाह ने अपनी बीवी को हैज़ की हालत में तलाक़ दे दी थी और जिस पर आंहज़रत सल 0 ने हज़रत उमर से फ़रमाया था कि इससे कहो कि वह इससे रुजु कर ले।
हज़रत उमर ने मुग़ीरा की बात को रद करने के बाद हाज़रीन से मुख़ातिब होकर कहा कि अगर मैं किसी को ख़लीफा मुक़र्रर करुं तो कोई हरज नहीं है इसलिये कि अबुबकर ने मुझे ख़लीफ़ा मुक़र्रर किया औऱ वह मुझ से बेहतर थे और अगर मुकर्रर न कुरुं तो उस में भी कोई मुज़ाएका नहीं है इसलिये कि पैग़म्बर सल 0 ने किसी को जानशीन मुक़र्रर किया और वह हम दोनों से बेहतर थे। इसी असना में हज़रत आयशा ने अब्दुल्लाह बिन उमर के ज़रिये उन्हें यह पैग़ाम भिजवाया कि उम्मत का इन्तेशार में छोड़ने के बजाये किसी को ख़लीफ़ा मुक़र्रर कर जायें औऱ ख़ुद अब्दुल्लाह ने भी जानशीन की नामजदगी पर ज़ोर दिया। हज़रत उमर ने कहा कि ग़ौर व फ़िक्र के बाद मैंने यह तय किया है कि अली बिन अबीतालिब अलै 0 उस्मान बिन अफ़ान , अब्दुल रहमान बिन औफ़ , साद बिन अबी विकास , ज़बीर बिन अवाम और तलहा बिन अबीदुल्लाह को नामज़द करके एक मजलिसे शुरू की तशकील करुं यह लोग इस लायक हैं। कि अपने में से किसी एक को ख़लीफ़ा मुन्तख़ब कर लें।
जब तन्हाई का मौक़ा हाथ आया तो कहा , अगर यह लोग अली अलै 0 की ख़िलाफ़त पर इत्तेफाक़ कर लेंगे तो वह उम्मत को हक़ व सदाक़त की राह पर ले जायेंगे। अब्दुल्लाह बिन उमर ने कहा , तो फिर आपको उन्हें बराहे रास्त ख़लीफ़ा मुक़र्रर कर देना चाहिये। हज़रत उमर ने कहा कि “ वह हरगिज़ मुझे गवारा नहीं है। ”
मजलिसे शूरा का ख़ाका मुकम्मल करने के बाद मुन्तख़ब अरक़ान को अपने यहां तलब किया ताकि उन्हें मजव्वेज़ा लाहए अमल से आगाह कर दें। जब अरकाने शूरा जमा हो गये तो हज़रत उमर ने कहा , मुझे ऐसा लगता है कि तुम में से हर शख़्स ख़िलाफत का तालिब है। इस पर जुबैर ख़ामोश न रह सके और उन्होंने कहा कि हमें ख़िलाफ़त की तलब क्यों न हो , हम सबक़त और क़राबत मे या मर्तबा व मुक़ाम में तुमसे कम नहीं हैं। अगर तुम ख़लिफ़ा हो सकते हो तो हमारे हाथों में भी ख़िलाफ़त की बाग डोर आ सकती है। हज़रत उमर ने कहा , ऐ जुबैर। तुम हरीस , कज ख़ुल्क़ औऱ तंग दिल हो। गुस्से में हो तो काफ़िर और खुश हो तो मोमिन। अगर तुम्हें ख़िलाफ़त मिल गयी तो तुम सेर आध सेर जौ के लिये लोगों से लड़ते फिरोगे। फिर तलहा के बारे में कहा कि तलहा ज़न मुरीद और गुरुर का पुतला है। अगर वह ख़लीफ़ा हुआ तो ख़िलाफत की अंगूठी अपनी बीवी को पहना देगा। अब्दुल रहमान बिन औफ़ के लिये कहा कि वह उम्मत का फ़िरऔन है। और उस्मान बिन अफ़ान के लिये कहा कि वह क़बीला परस्त और कुन्बा परवर हैं उन्हें अपने क़बीले वालों के अलावा दूसरा कोई नज़र ही नहीं आता।
इस एतराफ़ का तक़ाज़ा तो यह था कि आप मजलिस शूरा की तशकील के बजाये अपने इख़्तियाराते ख़ुसूसी से किसी एक शख़्स को अपनी मर्जी के मुताबिक ख़लीफ़ा नामजद कर देते जैसा कि हज़रत अबुबकर ने आपके साथ किया था। लेकिन एतराफ़ के बावजूद आपने शूरा की तशकील इस लिये ज़रुरी समझी कि इस तशकील में भी आपके मक़सद की तक़मील मुज़मिर थी और इसके अरकान , तरीक़ये कार , तरीक़ये इन्तेख़ाब और लाहए अमल में वह तमाम असबाब पिन्हा थे जिनके ज़रिये खिलाफ का ऱुख़ इसी तरफ मुड रहा था जिधर आप मोड़ना चाहते थे। चुनानचे एक मामूली सूझ बूझ रखने वाला इन्सान भी बड़ी आसानी से इस नतीजे पर पुहंच सकता है कि इस मजलिसे शूरा की तशकील और हिकसमेत अमली में हज़रते उस्मान की कामयाबी के तमाम असबाब फ़राहम थे। क्योंकि अब्दुल रहमान बिन औफ़ उस्मान का बहनोई था औऱ साद बिन अबी विक़ास अब्दुल रहमान का अज़ीज़ व हम क़बीला था लेहाज़ा उन दोनों से किसी एक को भी उस्मान के खिलाफ़ तसव्वुर नहीं किया जा सकता। तीसरे तलहा थे जो अब्दुल रहमान और उस्मान की तरफ़ इसलिये माएल थे कि वह हज़रत अली अलै 0 से मुनहरिफ़ थे क्योंकि यह तीमी थे और अबुबकर के ख़लीफ़ा हो जाने की वजह से बनी तीम और बनी हाशिम में निज़ा की दाग़बेल पड़ चुकी थी। बाक़ी रहे जुबैर , वह ब-फ़र्ज़े मोहाल हज़रत अली अलै 0 का साथ भी देते तो उनकी तन्हाई की अहमियत ही क्या थी ?
हज़रत उमर की हिकमते अमली ने इन्तेख़ाब का जो तरीक़ा तजवीज किया थी वह यह था कि अगर फ़रीक़ीन में राय हदिन्दीगान की तादाद निस्फ़ निस्फ़ हो यानी तीन एक तरफ़ औऱ तीन दूसरी तरफ़ हों तो ऐसी सैरत में अब्दुल्लाह बिन उमर को सालिस बनाया जाये औऱ जिस फ़रीक़ के मुतअल्लिक़ वह हुक़् दे वहीं फ़रीक अपने में ख़लीफ़ा का इन्तेख़ब कर ले औऱ अगर लोग इस पर रज़ामन्द न हों तो अब्दुल्लाह इश फ़रीक़ का साथ दें जिसकी तरफ अब्दुल रहमान बिन औफ़ हों और अगर दूसरे लोग इसकी मुख़ालिफत करें तो उन्हें इस मुत्तफ़िक़ा फ़ैसले की ख़िलाफ़ वर्ज़ी के जुर्म में क़त्ल कर दिया जाये।
आपने एक तरहफ ते यह किया और दूसरी तरफ यह किया कि अब्दुल्लाह को इस अमर की ताक़ीद कर दी कि इख़्तेलाफ़ की सूरत में तुम अब्दुल रहमान का साथ देना इसके बाद आपने अबु तलहा अन्सारी को हुक्म दिया कि वह बचास शमशीर जन ले कर उन छः अफराद के सरों पर मुसल्लत से जायें और उन्हें किसी दूसरे काम में मश़गूल न होने दें। सहीब को हुक्म दिया कि वह नमाज़े जमाअत पढ़ाये और जमाअत को एक घर में बन्द करके तलवारें उनके सरों पर लटका दें। और अगर अरकाने शूरा के दरमियान तीन दिन के अन्दर फैसला न हो सके तो सबकी गर्दनें उड़ा दी जायें और मामला आम मुसलमानों के सुपुर्द कर दिया जाये ताकि वह जिसे चाहे अपना ख़लीफ़ा चुन लें।
हज़रत अली बिन तालिब अलै 0 की दूर रस निगाहों ने हज़रत उमर की इस हिकमते अमली और तरीक़ये इन्तेख़ाब को क़बल अज़़ वक़्त भांप लिया कि वह ख़िलाफ़त उस्मान की हो गयी जैसा कि आपने इब्ने अब्बास से फ़रमाया
“ ख़िलाफ़त का रुख़ हमसे मोड़ दिया गया है। इब्ने अब्बास ने कहा यह क्यो कर ? फ़रमाया मेरे साथ उस्मान को भी लगा दिया गया है और कहा गया है कि अक़सरियत का साथ दो औऱ अगर दो एक पर और दो एक पर रज़ामन्द हो तो तुम उन लोगों का साध दो जिन में अब्दुल रहमान बिन औफ़ हैं। चुनानचे साद अपने चचेरे भाई अब्दुल रहमान का साथ देगा और अब्दुल रहमान तो उस्मान का बहनोई होता ही है। ”
बे हर कैफ़ हज़रत उमर की वफ़ात के बाद उनके हुक्म के बमोजिब हज़रत आयशा के हुजरे में यह इजतेमा औऱ दरवाज़े पर अबु तलहा अन्सारी पचास शमशीर बकफ़ आदमियों को ले कर खड़ा हो गया। कार्रवाई की इब्तेदा तलहा ने की और कहा कि गवाह रहना कि मैं अपना हक़ राय दहिन्दगी उस्मान के हवाले करता हूं। इस पर जुबैर ने अपना हक़ राय दहिन्दगी हज़रत अली अलै 0 को सौंप दिया। फिर साद ने अपनी राय अब्दुल रहमान के हवाले कर दी। अब अरकाने शूरा में सिर्फ़ हज़रत अली अलै 0 उस्मान और अब्दुल रहमान रह गये। अब्दुल रहमान ने कहा मैं इस शर्त पर अपने हक़ से दस्तब्रदार होने को तैयार हूं कि आप दोनों हज़रत अपने मैं से एक के इन्तेख़ाब का हक़ मुझे दे दें। या आप दोनों में से कोई एक दस्तबरदार होकर यह हक़ मुझ से ले ले। यह एक ऐसा जाल था जिसमें हज़रत अली अलै 0 को हर तरफ़ से जकड़ लिया गया था। आप या तो दस्तबरदार हो जाते या फिर अब्दुल रहमान को अपनी मन मानी करने देते। पहली सूरत आपके लिये मुम्किन ही न थी कि अपने हक से दस्तबरदार हो कर आप खुद उस्मान या अब्दुल रहमान को मुऩ्तख़ब करते। इसलिये आप जमें रहे और अब्दुल रहमान ने अपने को इससे अलैदा करके यह इख्तियार संभाल लिया औऱ हज़रत अली अलै 0 से मुख़ातिब होकर कहा कि मैं इस शर्त पर आपकी बैयत करता हूँ कि आप किताबे खुदा , सुन्नते रसूल सल 0 और सीरते शैख़ैन पर अमल पैरा होने का वादा फ़रमायें। आपने फरमाया कि मैं शैख़ीन की सीरत पर अमल नहीं करुँगा बल्कि किताबे खुदा और सुन्नते रसूल सल 0 के साथ अपने मसलक पर चलूंगा। तीन मर्तबा दरयाफ़्त करने के बाद जब हज़रत अली अलै 0 की तरफ़ से यही जवाब मिला तो हज़रत उस्मान के सामने यह शर्त रखी गयी। उनके लिये इन्कार की कोई वजह न थी। उन्होंने अब्दुल रहमान की शर्त माल ली और उनकी बैयत हो गयी।
इस तरह हज़रत उमर की सियासी हिकमतें अमली और ग़लत तरीक़ा कार ने ख़िलाफ़त की बाग डोर बनी उमय्या की एक ऐसी फ़र्द के हाथों में सौंप दी जिसकी कुनबा परवरी ने इस्लाम का बेड़ा ग़र्क़ कर दिया।
हज़रत उमर की वफ़ात
26 ज़िलहिज सन् 23 हिजरी मुताबिक़ सन् 644 को हज़रत अबुलोलो फ़िरोज़ के दो धारे खंजर से जख़्मीं हुए औऱ तीन दिन बाद यक्कम मुहर्रम सन् 24 हिजरी को उनकी वफ़ात वाक़े हुई।
अज़वाज
सात औरतों का हज़रत उमर की ज़ौजियत में आना तारीख़ी एतबार से साबित है। आपकी गपहली बीवी का नाम ज़ैनब बिन्ते मज़ऊन था। दूसरी बीवी क़रतीबा बिन्ते अबीं उमय्या मख़जूमीं तीसरी बीवी मलिका बिन्ते जरुल ख़ेज़ाई थीं जिनकी कुन्नियत उम्मे कुलसूम थी। क़रतिबा का तअल्लुक कबीलये कुरैश औऱ मलक़िया का तअल्लुक़ कबीलये ख़जाआ से था लेकिन उन दोनों बीवियों को हज़रत उमर ने सन 6 हिजरी में तलाक़ दे दी थी। सन् 7 हिजरी में महदीने आकर हज़रत उमर ने आसिम बिन साबित की साहबज़ादी जमीला (जिनका अस्ल नाम आसैब था) से अक़द गिया लेकिन बदकिस्मती से वह भी तलाक़ की जद में आ गयीं। सन् 12 हिजरी में आपने अपनी चचेरी बहन आतिका बिन्ते ज़ैद से अक़द किया। हज़रत उर की एक बीवी उम्मे हक़ीम थीं जो हारिस बिन हश्शाम की बेटी थीं और एक ज़ीजा का लमा फ़कीहायमीना था जिनके वालदैन और नसब के बारे में पता नहीं चलता।
औलादें-
आपकी औलादों में लड़कियों की तादाद ज़्याद है जिनमें हज़रत हफ़सा ज़्यादा मशहूर व मुमताज़ हैं जो अपने साबेका़ शौहर ख़नीस के इन्तेक़ाल के बाद रसूल उल्लाह सल 0 के अक़द में आ गयं थीं लेकिन कुछ ख़ास वजूद की बिना पर आंहज़रत सल 0 ने उन्हें तलाक दे दी थी और बाज़ तारीख़ी सराहत के मुताबिक़ बाद ेमं फिर रुजू कर लिया धा। हफ़सा और अब्दुल्लाह दोनों हक़ीक़ी भीई और बहन थे और उनकी मा ज़ैनब बिन्ते माज़ून थीं। बीक़ी मुख़तलिफ़ बीवियों से आपकी छः औलादें थीं जिनके नाम बिल तरतील अब्दुल्लाह , आसिम अबुशहमा , अब्दुल रहमान , ज़ैद और मजीर किताबों में मरकूम हैं।
अब्दुल्लाह फ़िक़ा और हदीस के ओलमा में शुमार होते ते। अब्दुल्लाह अपने बाप की तरहं पहलवानों के शौक़ीन थे। अबु शहमा को शराब पीने की आदत थी जिनका अंजाम गुजिश्ता सफ़हात में आप पढ़ चुके हैं।