दो शब्द
आज का युग आधुनिक युग के नाम से जाना जाता है औऱ आदमी इक्कीसवीं सदी में कदम रखने के लिए आतुर है , लेकिन धर्म किसी न किसी रुम में सदैव से है और प्रलय क़यामत तक रहेगा।
इमामिया मिशन , लखनऊ से प्रकाशित होने वाली छोटी-छोटी विभिन्न विषयों की धार्मिक पुस्तकों ने हमेशा हमें प्रभावित किया तथा विद्यार्थी जीवन से ही अवैतनिक सेक्रेटी जनाब इब्ने हुसैन नक़वी मरहूम की प्रेरणा पर उनमें से बहुत सी धार्मिक पुस्तकों का अनुवाद किया तथा उर्दू से नावाक़िफ़ लोगों ने उसका समुचित स्वागत किया , उसी समय मौलाए क़ायनात हज़रत अली (अ 0 स 0) के विचारों पर आधारित प्रसिद्ध धार्मिक पुस्तक “ नहजुल बलाग़ा ” का हिन्दी में अनुवाद करने का विचार हुआ और जनाब अली अब्बास तबातबाई के अनुरोध पर उसका अनुवाद किया।
प्रस्तुत पुस्तक “ मनाज़िले आख़िरह ” अपने विषय की एक मात्र ऐसी पुस्तक है , जिसमें आदमी के पैदा होने से मरने तक के विभिन्न अवतरणों पर भली-भांति हिकायतों सहित वर्णन किया गया है।
वास्तव में अल्लाह द्वारा पहले मनुष्य पैदा किया जाता है फ़िर उसे मौत आती है और फ़िर जि़न्दा किया जाएगा। इस तरह उसकी ज़िन्दगी के तीन भाग हैं- पहले ज़िन्दगी , फ़िर मौत और फ़िर ज़िन्दगी।
आज के व्यस्तम युग में आदमी ज़िन्दगी के दूसरे और तीसरे भाग से कम वाक़िफ़ है तथा समस्त धार्मिक पुस्तकें अरबी फ़ारसी एंव उर्दू में होने के कारण भी उसे कुछ मालूम नहीं है। इसलिए समय की आवश्यकता को देखते हुए , धार्मिक पुस्तकों का हिन्दी में होना परम आवश्यक है।
मैं समझता हूँ कि “ मनाज़िले आख़िरह ” के हिन्दी अनुवाद से सभी को विशेषकर युवा पीढ़ी और उर्दू से अनभिग्य लोगों को अत्यधिक लाभ पहुंचेगा ऐसी मुझे आशा है।
जैसा कि मज़कूरा बाला अय्ये करीमा से ज़ाहिर होता है कि इस आलमे कौनो मकां की कोई चीज़ अबस और बेकार नहीं है। इन्सान अपने इर्द गिर्द की चीज़ों और गर्दिशे लैलोनहार पर ग़ौर करे तो उस पर ये बात ज़ाहिर हो जाएगी कि इस आलमे मुमकिनात का ज़र्रा-ज़र्रा हिकमतों मसलहत से ख़ाली नहीं , इन्सान का एक बाल भी बग़ैर मसलहत के पैदा नहीं किया गया।
हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम ने मुफ़ज़्ज़ल से फ़रमाया कि बाज़ जुहला यह कहते हैं कि अगर फ़लां (अमुक) अज़ो (अंग) पर बाल न होते तो बेहतर था। वह यह नहीं जानते कि वह जगह मज़मए क़साफ़ात है और उस जगह से रुतुबात का एख़राज़ (बहाव) होता है , अगर ज़ायद मवाद और कसाफ़तें बालों की सूरत में रफ़ा न होती तो इंसान मरीज़ हो जाता। इसीलिए शरीअते मुतहरा का हुक्म है कि उनको जल्दी-जल्दी साफ़ किया करो। इसी तरह इन्सान के रगो पे , दन्दां नाखून बग़ैर हिक़मतों मसलहते परवर दिगारे आलम के पैदा नहीं होते। अगर इनमें से एक भी मफ़कूद (कम) हो तो इन्सान नाकि़स कहलाता है इन तमान चीज़ों से यह बात अच्छी तरह ज़ाहिर हो जाती है कि इस आलम को ख़लअते वजूद पहनाने वाला साहबे हिकमत है और कायनात की कोई चीज़ हिकमत से ख़ाली नहीं।
इसी तरह ईजादे इन्सान भी बेकार नहीं। अब सवाल पैदा होता है कि क्या इन्सान के पैदा करने का मक़सद यह माद्दी (मायावी) ज़िन्दगी ही है और उसके बाद वह नेस्तो नाबूद हो जाएगा। नहीं हरगिज़ नहीं। अगर ग़ौर किया जाये तो कोई इन्सान इस दुनिया में आसूदा हाल नहीं है और न ही किसी को सुकून हासिल है। तरह-तरह की तकालीफ़ मसायब व आलम बीमारियों , फ़ित्नों , ग़स्बे अमवाल और दोस्तों , व अज़ीज़ों की अमवात के मसायेब (तकलीफ़) को बरदाश्त करता है।
दिल बे ग़म दर ई आलम न माशद।
अगर बाशद बनी आदम न बाशद।
( तर्जुमा- इस आलम में कोई भी दिल ग़म से ख़ाली नहीं होगा , और अगर होगा भी तो वह आदम की औलाद से नहीं होगा)
अगर इन माद्दी वसायल को ही गरज़े ख़िलक़ते इन्सानी तसलीम कर लिया जाये जो कि मसायब व आलम से पुर है तो यह हिकमतों करम और सिफ़ाते कमालिया इलाहिया के मनाफ़ी होगा , और उसकी मिसाल ऐसी होगी जैसे कोई सख़ी किसी शख़्स को मेहमानी पर बुलाये और उसके लिए एक ऐसा मकान मुहैया करे , जिसमें तरह-तरह के दरिन्दे मौजूद हों , फ़िर उस कमरे में उसके लिए खाना चुन दिया जाय और जब वह लुक़मा उठायें तो तमाम दरिन्दे उससे वह लुक़मा छीनने के लिए हमला कर दे तो कोई अक़लमन्द ऐसी मेहमानी को मुफ़ीद और लायक़े तारीफ़ न समझेगा , बल्कि , ऐसी मेहमानी जो कि जान के लिए ख़तरा है , बेकार होगी। किसी चीज़ को बना कर बिगाड़ देना फ़ेले क़बीह है और ख़ल्लाके आलम से कोई फ़ेले (कार्य) क़बीह सरज़द होना नामुमकिन है।
बस यह बात कतई तौर पर साबित हो जाएगी कि इन्सान की मंज़िले मक़सूद यह माद्दी ज़िन्दगी नहीं बल्कि उसकी मंजिले मक़सूद ऐसी जगह है , जिसमें मौत नहीं , जिसमें हुज़्नों मलाल नहीं , जहां कि किसी चीज़ को फ़ना और ज़वाल नहीं है इन्सान जिसको अपनी मंज़िले मक़सूद समझे हुए हैं , यह तो उसकी गुज़रगाह है , और वह मन्ज़िल उस वक़्त तक पार नहीं की जा सकती , जब तक कि इन मनाज़िल के लिए बक़्द्र ज़रुरत तोशा और ज़ादे राह मुहैय्या न कर लिया जाये।
इसलिए हमें चाहिए कि हम अपनी ग़रज़े ख़िलक़त और मक़सद को समझने की कोशिश करें और उसके लिए ज़रुरी ज़ादे राह मुहैय्या करें , ज़ेरे नज़र किताब मनाज़िले आख़िरा में इन्हीं मनाज़िल का तज़किरा नेहायत दिलचस्प और उम्दा अन्दाज़ में पेश किया गया है , और इन मनाज़िल में दरपेश मुश्किलात और उनका इलाज अहादीस व अख़बारात की रोशनी मे ज़ाहिर किया गया है।
मुमकिन है कि कुछ पढ़ने वाले लोग इस किताब में दर्ज शुदा हिकायत व वाक़यात को महज़ क़िस्सा गोयी या झूठी रिवायत ख़्याल करते हुए यक़ीन न करें , इसलिए ज़रुरी समझ़ता हूं कि मरातिबे अख़बार का तज़किरा किया जाय ताकि पढ़ते वक़्त शुकूक व शुब्हात की गुंजाइश बाक़ी न रहे और ईमान व यक़ीन में इज़ाफ़ा हो।
“ हर वह चीज़ जो तेरे कानों तक पहुंचे जब तक तेरे पास उसके न होने पर अक़ली दलील न हो उसे मुमकिन ख़्याल कर। ”
मरातिबे अख़बार- हर वह ख़बर जिसके न होने पर कोई अक़ली और नक़ली दलील न हो , उस का इन्कार न करो।
दरजा दोम- इसके अलावा अगर उसके साथ दोस्ती और सिदक़ के शवाहिद भी मौजूद हों तो उसे कुबूल कर लेना चाहिए और इन्कार नहीं करना चाहिए।
दरजा सोम- अगर ख़बर देने वाला परवरदिगारे आलम की तरपञ से कोई बुरगजीदा हस्ती और सनद याफ़ता और मनसूसमिन अल्लाह मासूम हो तो वह मोजिज़ह है। इस सूरत में अगर अकेले अक़ल उसके अदम इमकान का हुक्म दे तो इसका इन्कार नहीं करना चाहिए। बल्कि बदरजा अव्वल , दरज़ा दोम की ख़बर के मुताबिक़ इसको कुबूल करते हुए मुतमईन हो जाना चाहिए।
जबकि एक मुनज्जिम या इल्मे हैय्यत का दावेदार यह दावा करे के फ़लां सय्यारे के गिर्द कई और सय्यारे या सितारे ऐसे ही चक्कर लगा रहे हैं जैसा कि चांद ज़मीन के गिर्द , तो कोई शख़्स इसका इन्कार नहीं करेगा , बल्कि मुमकिन ख़्याल करते हुए उसके दावे को तसलीम करेगा , क्योंकि जो ख़ालिक़े मुमकिनात एक चांद को पैदा कर सकता है , वह उस पर भी क़ादिर है कि , इसके अलावा भी कई चांद तख़लीफ़ (पैदा) फ़रमाये और जब इन चीज़ों की तसदीक़ अक़वाले मासूम से भी हो जाय तो इन्कार की कोई गुंजाइश बाक़ी नहीं रहती।
यही हालत उन रुयाये सादिक़ा और हिकायात की है , जो कि ज़ेरे नज़र किताब में दर्ज की गयी है। इसलिए सिर्फ़ हिकायात समझ कर इन्कार कर देना मुस्तहन नहीं है , जबकि उनका माख़ज़ सक्क़ए उल्मा की किताबें हैं।
इससे पहले मुरव्वजुल- एहकाम मौलाना गुलाम हुसैन साहब मज़हर ने पहला एडिशन पेश किया , जिसमें किताब मनाज़िले आख़िरा हाजी शेख़ अब्बास कुम्मी ताब सराह का तर्जुमा था और अस्ल किताब में बाज़ अलमनाज़िल और वाक़ियात के मफ़कूद होने के बाअस सिर्फ़ उसी के तर्जुमा को काफ़ी समझा गया।
अब ज़ेरे नज़र किताब दूसरा एडिशन बमए मुफ़ीद इज़ाफ़ा है , जिसमें इन तमाम ख़ामियों का अज़ाला कर दिया गया है , जो कि पहले एडीशन में मौजूद थे।
इस किताब की तरतीब व तालीफ़ का ज़्यादातर इन्हेसार अलमनाज़िल आख़िरा और आयत उल्ला सैय्यद अब्दुल हुसैन दस्दग़ैब मदज़िल्लूह की किताब “ अलमआद ” पर है। अलावा बरीं कुछ मुफ़ीद मतालिब और हिकायात मुन्दरजा ज़ैल किताबों से इ्कट्ठा की गयी हैं। अहसनुल फ़वायद , तफ़सीर उम्दतुल बिसयान , बहारुल अनवार , तफ़सीर अनवारुल नज़फ , ख़ज़ीनतुल जवाहर वग़ैरा। मौलाना मौसूफ़ ने इन ज़रुरी मुक़ामात पर इज़ाफ़ा फ़रमा कर इस किताब की अहमियत और ज़रुरत को और मोसर बना दिया है।
ख़ल्लाक़े आलम हमें इन मतालिब को समझ़ने और उन पर अमल करने की तौफ़ीक़ अता फरमाए और मरव्वजुल-एहकाम मौलाना गुलाम हुसैन साहब मज़हर जिन्होंने दिन-रात की कठिन मेहनत के बाद , इस को तरतीब दिया उन्हें अज्रे जज़ील अता फ़रमाए।
पेश लफ़्ज़
लेख़क विचारक अब्बास कुम्मी की पुस्तक मनाज़िले आख़िरह का हिन्दु अनुवाद “ मरने के बाद क्या होगा ” ? अब आप के सम्मुख है। हमारे समाज में विशेषकर नौजवान पीढ़ी में धार्मिक शिक्शा तथा धार्मिक ग्यान का सर्वथा अभाव सा हो गया है। जिसके अनेक कारणों में से एक कारण यह भी है कि हमारी धार्मिक पुस्तकें प्रायः अरबी , फारसी तथा उर्दू में हुआ करती हैं। अतः समय की मांग को देखते हुए हमारे कुछ उल्माओं , धार्मिक विचारकों तथा लेखकों ने धार्मिक ग्यान कोष का हिन्दी में अनुवाद करने का बेड़ा उठाया है। श्री बी.ए. नक़वी ऐसे ही जागरुक लेखकों एंव अनुवादकों में से एक हैं।
किसी रचना का मूल सृजन तो लेखक की रचनात्मक छ्मता पर आधारित होता है किन्तु किसी रचना का दूसरी भाषा में अनुवाद वह भी इतना स्वाभाविक कि वह उसी भाषा की मूल रचना प्रतीत हो , यह प्रत्येक व्यक्ति के बस में नहीं होता इसके लिए जिस महारत , कौशल तथा निपुणता की आवश्यकता होती है वह श्री बी.ए. नक़वी में पूर्णतयाः विद्यमान है।
श्री नक़वी ने केवल इसी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद नहीं किया है वरन् वह इससे पूर्व बहुत सी अन्य धार्मिक पुस्तकों का भी अनुवाद कर चुके हैं जिसमें “ नहजुल बलाग़ा ” जैसी पुस्तक का अनुवाद एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण कार्य है।
यद्यपि श्री नक़वी का पेशा वकालत है फिर भी साहित्य विशेषकर धार्मिक साहित्य तथा हिन्दी भाषा में उनकी विशेष रुचि है तथा समस्त धार्मिक पुस्तकों को आज की मांग को देखते हुए हिन्दी अनुवाद के परम हिमायती है।
चूंकि इस पुस्तक का पढ़ना समस्त मोमेनीन के लिए आवश्यक है , अतः श्री नक़वी ने इस पुस्तक को भारत में रहने वाले उन तमाम मोमेनीन तथा नौजवानों तक पहुंचाने का बेड़ा उठाया है जो उर्दू पढ़ना नहीं जानते हैं।
वास्तव में इस पुस्तक में मरने के बाद रुह को किन मनाज़िल से गुज़रना है इस पर प्रकाश डाला गया है , तथा दुनिया में रहते हुए आख़ेरत को संवारने का रास्ता भी बताया गया है , क्योंकि “ बदतरीन अमल वह है जो आख़ेरत को बरबाद कर दे ” ( मौला अली) “ बेहतरीन बात वह है जिसका दुनियां में फ़ायदा हो और आख़ेरत में इनाम मिले। ” ( मौला अली) आख़ेरत में रहना है लेहाज़ा सामाने आख़ेरत भेज दो। (मौला अली)।