पहला हिस्सा
मआद क़यामत
मआद (क़यामत) शब्द से निकला है जिसके मानी (अर्थ) लौटना है , चूंकि रुह (आत्मा) , दोबारा शरीर की और लौटती है , इसलिए इसको मआद (प्रसलय( कहते हैं। मआद उसूले दीन (धर्म के नियम) में से एक है जिस पर विश्वास (ऐतेक़ाद) करना हर मुसलमान के लिए ज़रुरी है , क्योंकि हर मनुष्य मरने के बाद दोबारा ज़िन्दा होगा और उसे अपने आमाल (कृत्यों) का फल मिलेगा।
मआद (क़यामत) का मसला जिसकी शुरुआत मौत और इसके बाद क़ब्र , बरज़ख़ (मरने के बाद से क़यामत तक का ज़माना) , क़यामते कुबरा (प्रलय) और आख़िर में जन्नत (स्वर्ग) या जहन्नम (नरक) हैं। मआद का हवासे ख़मसा ज़ाहिरा (देखने सुनने , सूंघने , चखने और छूने की पांच शक्तियां) के द्वार खोज करना असम्भव है और मआद (क़यामत) बुद्धि के तर्कों से सिद्ध है।
मरने के बाद क्या होगा ? सरकारे दो आलम ने वही (ईश्वरीय संदेश) के द्वारा इसकी ख़बर दी है। हर इन्सान का अपना मुक़ाम और आलम औऱ उसकी तलाश इस आलम और मुक़ाम की सीमाओं से आगे नहीं जाता। मिसाल के तौर पर वह बच्चा जो अपनी माँ के पेट की दुनियां और आलम में आबाद है , उसके लिए मुश्किल है कि वह पेट के बाहर आलमे बुजुर्ग के बे पायां फ़िज़ां और मौजूदात की खोज कर सके। इसी तरह असीर तबीयत व मादहे आलमे बातिर यानी मलकूत को नहीं समझ सकता , जब तक कि इस दुनियां से छुटकारा हासिल न करे। मरने के बाद आलम की खुसूसियात उस शख़्स के लिए जो इस आलम में आबाद है , ग़ैब (परोक्श) के हुक्म में है और उसकी मारिफ़त (परिचय) के लिए हुजूरे अकरम (स 0 अ 0) की अख़बार की तसदीक के सिवा कोई चारा नहीं। बस अगर कोई शख़्स यह कहे कि मेरी अक़ल से दूर है कि मरने के बाद क्या होगा तो उसकी बात बिल्कुल विश्वास के योग्य न होगी , क्योंकि उस आलम की खुसुसियात का अक़ल के साथ कोई सम्बन्ध (रब्त) नहीं है और जो कुछ हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स 0 अ 0) ने फ़रमाया है हमें उसका यक़ीने कामिल होना चाहिए , क्योंकि वह तमाम मासूम (पाक) हैं और महले नज़ूले वहीए परवरदिगार हैं।
क्या मुर्दा हर्फ़ करता है ?
यह शक जिन्होंने ज़ाहिर किया है , उनका ख़्याल है कि मुर्दा जमादात (जड़ वस्तुओं) की तरह है जैसे सूखी लकड़ी , फ़िर कब्र में सवाल व जवाब किससे होगा ?
जवाब- यह शक कम इल्मी , बेख़बरी और आख़िरत पर ईमान बिल ग़ैब न होने की दलील है। बोलना फ़क़त ज़बान का नतीजा है , अरवाह में नुत्फ़ और जुमबिश नहीं है। हैवान के अज़ा हरकत हैं। रुह जुमबिश नहीं करती। स्पष्ट उदाहरण है। आप नींद की हालत में ख़्वाब के वक़्त बातें करते हैं। मगर ज़बान औऱ होंठ हरकत नहीं करते। अगर कोई शख्स जाग रहा हो तो उसकी आवाज़ को नहीं सुनता , हालांकि वह जागने पर कहता है कि मैं अभी ख़्वाब में फलां के साथ बातें कर रहा था , इसी तरह दूर-दराज़ के मुल्कों की सैर भी कर लेता है मगर जिस्म बिस्तर पर मौजूद और महफूज़ रहता है।
ख़्वाब देखने का सबब
हज़रत मुसा बिने जाफ़र (अ 0 स 0) इरशाद फ़रमाते हैं कि दुनियां के शुरुआत में इन्सान नींद की हालत में ख़्वाब नहीं देखते थे , मगर बाद में इस दुनियां के बनाने वाले ने नींद की हालत में ख़्वाब दिखाने शुरु किए और उस की वजह यह है कि इस दुनिया के रचने वाले ने उस समय के लोगों की हिदायत के लिए एक पैग़म्बर को भेजा और उसने अपनी क़ौम को अताअत और अल्लाह की अबादत की दावत दी , मगर उन्होंने कहा अगर हम तेरे ख़ुदा की अबादत करें तो उसका बदला क्या देगा ? हालाकि तेरे पास हसमे ज़्यादा कोई चीज़ नहीं है तो उस पैग़म्बर ने इरशाद फ़रमाया कि अगर तुमने ख़ुदा की अताअत की तो तुम्हारा इनाम बेहश्त (स्वर्ग) होगी। अगर किनारा किया और मेरी बात को न सुना तो सजा़ जहन्नुम (नरक) होगी। उन्होंने पूछा दोज़ख़ और बेश्त क्या चीज़ है ? उस पैगम्बर ने दोज़ख़ और बेहश्त के अवसाफ़ (विशेषतायें) उनके सामने ब्यान किए और तशरीह (विवेचना) की। उन्होंने पूछा कि यह बेहश्त हमें कब मिलेगी। पैग़म्बर ने इरशाद फ़रमाया जब तुम मर जाओगे। कहने लगे हम देखते हैं कि हमारे मुर्दे बोसीदा होकर ख़ाक में मिल जाते हैं उनके लिए जिन चीज़ों की तूने तौसीफ़ की है , नहीं देखते और पैग़म्बर के इरशाद को झुठलाया। अल्लाह ने उनको ऐसे ख़्वाब दिखाए कि वह ख्वाब में खाते-पीते , चलते-फिरते , गुफ़तगू करते हैं और सुनते हैं , लेकिन जागने के बाद ख़्वाब में देखी हुई चीज़ों के असरात नहीं पाते। बस वह पैग़म्बर की ख़िदमत में हाज़िर हुए और अपने ख़्वाब उनके सामने बयान किए। पैग़म्बर ने इरशाद फ़रमाया कि अल्लाह ने तुम पर हुज्जत (तर्क-वितर्क) तमाम कर दी है कि मरने के बाद तु्म्हारी रुह (आत्मा) भी इसी तरह होती है , चाहे बदन मिट्टी में मिल कर मिट्टी हो जाय तुम्हारी रुह (आत्मा) क़यामत तक अज़ाब (यातना) में होगी और अगर नेक होंगे तो बेहश्त में खुदा की नेआमतों से लुत्फ़ उठाएगी। (मआद)-
मंज़िले अव्वल
इस सफ़र की पहली मंजिल मौत है।
मौत- मौत की तारीफ़ के बारे में उल्मा में एख़तलाफ़ है। कुछ मौत को अमरे वजूदी और कुछ अमरे अदमी कहते हैं। तहक़ीक़ शुदा बात है कि मौत अमरे वजूदी है और इस सूरत में इसकी तारीफ़ यह की गयी हैः-
“ मौत एक वजूदी सिफ़त है , जो हयात की ज़िद है। ” कुर्आन मजीद में हैः-
“ बाबरकत है वह ज़ात जिसके क़ब्ज़ए कुदरत में तमाम कायनात की बागड़ोर है , औऱ वह हर चीज़ पर क़ादिर है , जिसने ज़िन्दगी और मौत को इसलिए पैदा किया ताकि आज़माए कि तुममे से किसके आमाल अच्छे हैं। ”
इस आयत (सूत्र) में ज़िन्दगी और मौत की तख़लीफ़ का वर्णन किया। केवल अदम (दुनिया) की तख़लीफ़ नहीं होती अगर मौत अमरे अदमी होती तो लफ़्ज़ ख़ल्क़ कुर्आन में इस्तेमाल न किया जाता।
मौत हक़ीकतन बदन और रुह (आत्मा) के सम्बन्ध का ख़त्म होना है। रुह और बदन के सम्बन्ध को अनगिनत तशबीहात के ज़रिये ज़ाहिर किया गया है। जैसे मल्लाह और कश्ती और मौत ऐसे हैं , जैसे कश्ती को मल्लाह के एख़्तयार से अलग कर दिया जाय। रुह वह चराग़ है जो ज़ुल्मत कदाए बदन को रौशन करती है और तमाम अज़ा व जवारह रौशनी हासिल करते हैं। मौत इस चराग़ का जुदा करना है कि जब इसको जुदा किया जाय तो फिर तारीक हो जाएगा। इसके अतिरिक्त यह ताअल्लुक़ इस तरह नहीं कि रुह बदन में हुलूल करती है या बदन के अन्दर दाख़िल होती है। इसलिए दाख़िल होना या निकलना रुह के लिए ठीक नहीं है , बल्कि सिर्फ़ ताअल्लुक़ रखती है और इसी ताअल्लुक़ का टूट जाना मौत कहलाता है।
हम पर वाजिब है कि हम यह यक़ीन रखें कि मौत ख़ुदा के हुक्म से आती है। वही ज़ात जिसने मां के पेट से लेकर आख़िर दिन तक रुह का बदन से ताअल्लुक़ पैदा किया। वही रुह के बदन के साथ सम्बन्ध को ख़त्म भी करती है। वही हमें मारता है वही जिलाता है जैसे कुर्आन मजीद में हैः-
“ अल्लाह ही नफ़्स को मौत देता है। ”
बाज़ जाहिल लोग इज़राइल को बुरा कहते हैं और दुश्मन समझते हैं कि वह हमारी औलाद को और हमें औलाद से छीनता है औऱ यह नहीं समझते कि वह तो अल्लाह की तरफ़ से इस काम पर मामूर है औऱ वह उसके हुक्म के सिवा कुछ भी नहीं करता।
रुहे (आतमाएँ) कैसे क़ब्ज़ होती हैं ?
अहादीस मेराज के ज़िम्न में रुह के क़ब्ज़ होने की क़ैफ़ियत यह ब्यान की गयी है कि हज़रत इज़राईल के सामने एक तख़्ती मौजूद है जिस पर तमाम नाम तहरीर हैं , जिसकी मौत आ जाती है , उसका नाम तख़्र्ती से साफ़ हो जाता है।
फ़ौरन इज़राईल उसकी रुह क़ब्ज़ कर लेता है। आने वाहिद में यह मुमकिन है कि हज़ारहा इन्सानों के नाम साफ़ हो जांए और इज़राईल जैसा कि एक ही वक़्त में हज़ारों जिराग़ गुल किए जा सकते हैं इसलिए आश्चर्य नहीं करना चाहिए दरहक़ीक़त मारने वाला खुदा है , जैसा कि क़ब्ज़े रुह की निस्बत खुदा की तरफ़ दी गयी है।
“ तुम्हे मौत मलकुल मौत (इज़राईल) देता है , जो कि तुम पर मोवक्किल है। ”
एख और जगह इरशाद फ़रमाया-
“ जिन लोगों की फ़रिश्तों ने रुह कब्ज़ की उस वक़्त वह अपने आप पर जुल्म कर रहे थे। ”
इन्सान को मारने वाले इज़राईल और उसके अवान व अन्सार फ़रिश्ते हैं , ये तीनों दुरुस्त हैं क्योंकि इज़राईल और उसके अवान व अन्सार फरिशते अल्लाह के हुक्म से ही रुह को क़ब्ज़ करते हैं जैसा कि लश्कर बादशाह के हुक्म से दूसरी हुकूमत को फ़तह किया। दर हक़ीक़त फ़तूहात बादशाह की सूझ बूझ और हुकमरानी की वजह से होती है ये तमाम मिसालें हक़ीक़त को समझाने के लिए हैं वरना हक़ीक़त इससे बालातर है , दर हक़ीक़त ज़िन्दा करने वाला और मारने वाला ख़ुदा ही है।
ख़ुदा ने जैसा कि इस दुनिया को दारुल असबाब (परेशानियों का घर) क़रार दिया है , इसी तरह मौत के लिए भी वजह तै कि है , जैसे मरीज़ (रोगी) होना , क़त्ल होना , हादिसा (दुर्घटना) में मरना , गिर कर मरना वग़ैरह। यह तमाम मौत की वजह और बहाने हैं वरना कई लोग ऐसे हैं कि शदीद बीमारियों में मुबतिला होते हें और अच्छे हो जाते हैं , बस बैठे-बैठे मौत हो जाती है। यह वजह अकेले मौत का कारण नहीं अगर उम्र का वक्त पूरा हो गया तो अल्लाह उसकी रुह (आत्मा) क़ब्ज़ कर लेता है।
कुछ लोगों की रुह आसानी के साथ और कुछ की सख़्ती के साथ क़ब्ज़ की जाती है। रवायात (ब्यानों) में मौजूद है कि मरने वाला महसूस करता है , गोया (मानो) की उसके बदन को कैन्ची से काटा जा रहा है या चक्की में पासी जा रहा है और कुछ लोगों को ऐसा महसूस होता है मानों फूल सूंघ रहे हैं।
“ यह वह लोग हैं जिन की रुहें (आत्माए) फ़रिश्ते (देवता) उनसे कहते हैं सलाम अलैकुम , जो नेकियां तुम दुनियां में करते थे , उसके सिले (बदले) में जन्नत में बेख़टके चले जाओ। ”
यह भी समझ लेना ज़रुरी है कि यह भी कोई क़ायदए कुल्लिया (व्यापक नियम) नहीं है कि हर मोमिन (आस्तिक) की जान आसानी के साथ कब्ज की जाती है , बल्कि अक्सर मोमनीन कुछ गुनाहों की वजह से जान सख़्ती से निकलती है , ताकि मोमिन दुनिया में ही गुनाहों की कसाफ़तों (गन्दगी) से पाक (पवित्र) हो जाय। कफ़फारे (प्रायश्चित) के लिए यह सख़्ती अज़ाब (यम यातना) की ज़्यादती और आख़िरत (परलोक) के अज़ाब (यम यातना) का मुकद्दमा होती है।
“ तो जब फिरश्ते उन की जान निकालेंगे उस वक़्त उनके चेहरों और पुश्त पर मारते जायेंगे। ”
कभी कुफ़्फ़ार व फ़ासिक लोगों की जान आसानी से क़ब्ज़ होती है क्यों कि यह लोग अहले अज़ाब (यमयातना योग्य) में से हैं लेकिन अपनी ज़िन्दगी में कुछ अच्छे काम किए जैसे यतीम पर ख़र्च औऱ मज़लूम (असहाय) के दुख-दर्द को सुना , इसलिए उसका हिसाब उसी जगह बेबाक़ करने के लिए जान आसानी से निकलती हैं ताकि आख़रत में उसका कारे ख़ैर के मुआवज़ा का मुतालबा ख़त्म हो जाए।
वास्तव में क़ब्ज़े रुह काफ़िर (नास्तिक) के लिए पहली बदबख़्ती है , चाहे जान आसानी से निकले या सख़्ती के साथ और मोमिन (आस्तिक) के लिए मौत न्यातम और सआदत होती है। जांकनी में सख़्ती हो या आसानी इसी वजह से मोमिन (आस्तिक) या काफ़िर (नास्तिक) की निस्बत से आसानी से सख़्ती को कुल्लिया (नियम) क़रार नहीं दिया जा सकता (मआद)
दुनिया के साथ मोहब्बत
मौत से कराहत (घृणा) औऱ दुनियां से दोस्ती इस वजह से होती है कि इन्सान दुनियावी खुशी से लाभ उठाने वाला है जैसा कि अकसर लोगों का हाल है ग़लत और अक़ल के अनुसार बेजा है। दुनियां ब हज़ार दिक़्क़त हासिल होती है और हज़ारों मुसीबतें और सख़्तियां साथ लेकर आती है और फ़ना और ज़वाल है , बका़ और दवाम और वफ़ा नहीं है।
क्या ख़ूब शायर ने कहा हैः
दिलवर जहां मवन्द कि ई बेवफ़ा उरुस।
वाहेच कस शबे व मुहव्वत बसर न करद।
( अनुवाद – अपने दिल को दुनिया से न लगाओ क्यों कि यह बह बेवफ़ा उरुस (यानी दुल्हन) है जिसने किसी शख़्स के साथ भी एक रात मुहब्बत से बसर नहीं की।)
अलावा बरीं कुर्आन मजीद में दुनियां की मुहब्बत को कुफ़्फ़ार (नास्तिकों) की सिफ़ात में शुमार किया गया है।
“ कि कुफ़्फ़ार दुनियावी ज़िन्दगी पर राज़ी हो गये और उन पर मुतमइन (संतुष्ठ) हो गये। ”
दूसरी जगह इरशाद फ़रमाया-
“ क्या तुम आख़िरत को छोड़ कर दुनियावी ज़िनद्गी पर राज़ी हो गये हो। ”
यहूदियों के लिए फ़रमाया-
“ तुममें से हर एक की ख़्वाहिश है कि काश हज़ार साल दुनियां में उम्र पाता। ”
इस बारे में आयात और रवायाते कसीरा मौजूद हैं यहां पर मशहूर हदीसे नबवी दुनियाँ की दोस्ती तमाम गुनाहों की जड़ है का नक़्ल करना काफ़ी है।
मौत के साथ दोस्ती
महत्वपूर्ण बात यह है कि इन्सान अल्लाह से मिलने के महबूब समझ़े और मोमिन मौत को बुरा न समझे , और मौत की वहशतनाकी से डरता रहे , न कि मौत की ख़्वाहिश करता रहे। या करे , अपने नफ़्स की इस्लाह करे और ख़ैरात ज़्यादा करे और जब भी ख़ुदा उसके लिए मौत नियुक्त करे उसी हालत में उसको न्यामते खुदावन्दी समझे कि कितना जल्दी उसने दारुस्सवाब में पहुंचा दिया , अगर गुनहगार है तो यह समझे कि मौत के वसीले से गुनाहकारी के रिश्ते को ख़त्म कर दिया और सज़ा का काम मुस्तहक़ हुआ।
ख़ुलासा यह है कि मौत में ख़ुदा की रज़ा पर राज़ी रहे और दुरुलगुरुर से दारुल सुरुर में पहुंचे और दोस्तों के बसाल यानी मोहम्मद (स 0 अ 0) व आले मोहम्मद (स 0 अ 0) और आले अतहार और नेक रुहों की मुलाक़ात से खुश हो। इसी तरह जब तक परवरदिगारे आलम चाहे ताख़ीरे मौत और तूले उम्र पर राज़ी रहे ताकि इस दारुल फ़ना में आख़िरत की तुलानी सफ़र के लिए ज़्यादा तोशए सफ़र जमा कर सके , क्योंकि इस मंजिल तक पहुंचने के लिए घाटियां पेचीदा औऱ मुक़ामात दुश्वार हैं। इस जगह हम उनमें से कुछ मुक़ामात की तरफ़ इशारा करते हैं। (मआद)।
उक़बए (यमलोक) अव्वल
सकरात मौत (मरते समय की तक़लीफ)
और जान की सख़्ती के बारे में
“ और मौत की बेहोशी हक़ के साथ आ गयी यह वही तो है जिससे तुम किनारा करते थे। ”
यह उक़बा (यमलोक) बहुत कठिन है , जिसमें हर तरफ़ तो मर्ज़ (रोग) और दर्द की ज़्यादती , बंदिशे ज़बान , शरीर के अंगों की कमज़ोरी और दूसरी तरफ़ अहलो अयाल (परिवार) की चीख़ पुकार उनकी जुदाई , बच्चों की बेकसी और यतीमी (अनाथ होना) का ग़म , और उस पर यह ज़ुल्म की अपनी दौलत , मकानात जागीरों और उन नफ़ीस चीज़ों के ज़ख़ीरों की जुदाई का ग़म जिनके पाने के लिए उसने अपने बेशुमार वसायल से काम लेकर अपनी जि़न्दगी के मताए अज़ीज़ को सर्फ़ किया था , बल्कि अकसर ऐसा भी हुआ कि अकसर माल लोगों के जुल्म के ज़रिए ग़सब (अपभोग) किया था और जिस क़द्र माल से ताअल्लुक़ और क़ब्ज़ा होता गया वह मारगंज (सापों का ख़ज़ाना) बनता गया और वापस न किया , अब ऐसे वक़्त में अनपे बिगड़ते हुए कामों की तरफ़ मुतवजेह हुआ जबकि वक़्त गुज़र चुका और इस्लाह (सुधार) के रास्ते बन्द हो गये , जैसा कि अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अलै 0 स 0) ने की परवाह न की जो उसे जमा करने में दर पेश आते रहे , यहां तक कि अब वह इस दौलत से जुदा होने लगा औऱ वह माल उसके वारिसों के लिए बच रहा , जो उससे फ़ायदा उठा रहे हैं पस उसकी तकलीफ़ ग़ैरों के लिए और फ़वाएद पिछलों के लिए थे। ”
एक तरफ़ इस दुनिया से आलमे सानी (दूसरी दुनियां) में मुंतक़िल होने के ख़ौफ़ से उस की आंखे ऐसी ख़ौफ़नाक़ चीज़ें देखती हैं , जो उसने इससे पहले न देखी थीं।
“ हमने तेरी आंखों से पर्दा हटा दिया , पस तेरी नज़र तैर हो गयी। ”
वक़्ते एहतेज़ार (मौत का आख़िरी वक़्त) मरने वाला मलाएका के ग़ज़ब (प्रकोप) को अपने पास देखता है और फ़िक्रमन्द होता है कि उसके बारे में क्या हुक्म और सिफ़ारिश की जाती है
अक्सर रवायात में आया है कि रसूले अकरम (स 0 अ 0) और आइम्माए ताहरीन (अ 0 स 0) वक़्ते एहतेज़ार हर शख़्स के सिराहने नूरानी और मिसाली बदनों के साथ हाज़िर होते हैं इमाम रज़ा (अ 0 स 0) अपने असहाब में से एक मरने वाले शख़्स के पास तशरीफ़ ले गये , उसने आपके चेहरे पर निगाह की और अर्ज़ करने लगा कि अब रसूले खुदा (स 0 अ 0), हज़रत अली (अ 0 स 0), हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स 0 अ 0), इमाम हसन (अ 0 स 0) और इमाम हुसैन ता हज़रत मूसा बिन जाफ़र (अ 0 स 0) तमाम लोग हाज़िर हैं और आपकी सूरते नूरिया भी हाज़िर है। (बहार जिल्द सोम)।
यह बात मुसलमात में से है कि हर शख़्स एहतेज़ार के वक़्त अपनी मोहब्बत और मारिफ़त के अन्दाज़े के मुताबिक सरवरे क़ायनात पर आले अतहार (अ 0 स 0) से मुलाक़ात करता है चाहे काफ़िर (नास्तिक) हो या मोमिन (आस्तिक)। यह मुलाक़ात मोमेनीनके लिए न्यामते परवर दिगार औऱ मुनाफ़िक़ व काफ़िर के लिए क़हरे जब्बार।
एै गु़फ़्त फ़मई समुत यरेनी
जाँ फ़िदाई कलाम दिल जोयत।
काश सेज़ी हजार मर्ताबा मन
मरदमी ता बदीद मी रौयत।।
दूसरी तरफ़ शयातीन अपने आवान व अन्सार के साथ मोहतज़र को शक में डालने के लिए उसके पास जमा होते हैं जिस के ज़रिए उसका इमान छिन जाय और वह दुनिया से मुनकिर (निवर्ती) उठे , इस पर जुल्म यह कि मलकुल मौत की आमद का ख़ौफ़ कि वह किस हैयत (सूरत) में होगा और वह उसकी रुह (आत्मा) को किस तरह क़ब्ज़ करगा। आसानी के साथ या सख़्ती के साथ। हज़रत अली (अ 0 स 0) ने फ़रमायाः-
“ इस पर सकरात मौत जमा हो गये , जिनका वसफ़ ब्यान नहीं किया गया कि वह क्या लेकर उतरेंगे। ”
शेख़ कलीनी (र 0 अ 0) हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ 0 स 0) से रवायत करते हैं कि एक मरतबा हज़रत अमीरुल मोमनीन (अ 0 स 0) को आँखों का दर्द का आरज़ा हुआ हज़रत रसूले अकरम (स 0 अ 0) आपकी अयादत के लिए तशरीफ़ लाए देखा कि हज़रत अली (अ 0 स 0) दर्द की वजह से फ़रयाद कर रहे हैं। आपने पूछा कि यह फ़रयाद बेताबी और बेक़रारी की वजह से है , या दर्द की ज़्यादती की वजह से। अमीरुल मोमनीन ने अर्ज़ किया , या रसूल अल्लाह! मुझे अब तक इस शिद्दत का आरज़ा (रोग) कभी नहीं हुआ। हज़रत ने फ़रमाया ऐ अली! जब मलकुल मौत काफ़िर (नास्तिक) की रुह कब्ज़ करने के लिए आता है तो वह अपने साथ आग का एक गुर्ज़ लाता है , जिसके ज़रिए उसकी रुह को खींचता है , पस जहन्नुम उसे पुकारती है। जब अमीरुल मोमनीन (अ 0 स 0) ने यह बात सुनी तो उठ बैठे और अर्ज़ किया या रसूल अल्लाह (स 0 अ 0) इस हदीस का अआदा (पुनरावृत्ति) फ़रमाएं क्योंकि मुझे दर्द की तक़लीफ़ महसूस नहीं हो रही हैं औऱ पूछा आक़ा क्या आपकी उम्मत (अनुयायी) में से भी किसी की रुह इस तरह क़ब्ज़ की जाएगी। फ़रमाया हां तीन अश्ख़ास (लोगों) की जान मेरी उम्मत में से इस तरह क़ब्ज़ की जाएगी-
(1) ज़ालिम हाकिम।
(2) जिस शख़्स ने यतीमों का माल बज़रिए जुल्म ग़स्ब किया हो।
(3) झूठी गवाही देने वाले की।
इन्सान अपने आमाल नेक व बद का नतीजा जांकनी की आसानी और सख़्ती में भी देख लेता है कुछ तो ऐसे होते हैं कि अपनी बन्द आमाली की बिना पर मरते वक़्त काफ़िर (नास्तिक) हो जाते हैं।
रवायाते क़सीरा इस बात की शाहिद हैं कि सकरात मौत के वक़्त और बाद में हैज़ वाली , नफास वाली और जनाबत वाली लोगों का मोहतज़र (मरने वाले) के पास रहना मलाएकए रहमत के मुतनफ़्फ़िर और मैय्यत के लिए तक़लीफ़ का बयास है।
अललशराए मैं बा असनाद सदूक़ (र 0 अ 0) इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ 0 स 0) से रवायत है कि आपने फ़रमाया-
“ हायज़ा और जुनबी सकरात मौत के वक़्त (मोहतज़र के पास) न रहें , क्यों कि मलाएका इनसे मुतनफ़्फिर होते हैं। ”
किताब दारुसलाम में सैय्यद जलाल सिक़ा सैय्यद मुर्तज़ा नजफ़ी से मंकूल है कि उन्होंने फ़रमाया कि मैं इस साल जब कि इरब व इराक़ में ताऊन की वबा (बीमारी) आम थी। सनदुलउल्मा अलरासीख़ीन सैय्यद मोहम्मद बाक़र कज़वीनी के साथ सहने-अमीरुल मोमेनीन के दरमियान बैठा था और लोग इर्द-गिर्द जमा थे और आप हर एक के ज़िम्मे अमवात की ख़िदमत सुपुर्द कर रहे थे , कि एक अजमी नौजवान ज़व्वार उस मजमें के आख़िर में खड़ा था , जो सैय्यद मरहूम की ख़िदमत में हाज़िर होना चाहता था , लेकिन लोगों की कसरत हायल थी। उस नवजानव ने रोना शुरू किया और सैय्यद मरहूम मेरी तरफ़ मुतवजेह हुए और फ़रमाया जाकर उस नवजान से रोने का सबब मालूम करो। मैंने उसके पास जाकर रोने की वजह पूछी उसने कहा मेरी ख़्वाहिश है कि सय्यद मौसूफ़ मेरी तन्हा मैय्यत पर नमाज़े जनाज़ा पढ़ें। मैं देखता हूं कि बाज़ अवक़ात (कभी-कभी) बीस , तीस जनाज़े जमा होने पर एक ही बार नमाज़ पढ़ते हैं। मैंने उसकी हाजत सैय्यद मौसूफ़ की ख़िदमत में अर्ज़ की और आपने शरफ़े क़बूलियत बख़्शा। दूसरे दिन एक बच्चा मजमें के आख़िर में रोता हआ देखा पूछने पर मालूम हुआ कि यह बच्चा उस नौजवान अजमी का है , जिसने कब मुनफ़रद नमाज़े जनाज़ा की दरख़्वास्त की थी , आज वह ताऊन में मुबतिला है , और हालते एहतज़ार में हैं , उसने आक़ा की ख़िदमत में क़दम रंजा फ़रमाने की दरख़्वास्त की है ताकि शरफ़े ज़ियारत मुक़र्रर करने के बाद एयादत के लिए रवाना हुए मैं और चन्द असहाब भी साथ हो लिए। रास्ते में एक मर्द सालेह घर से निकला औऱ सैय्यद मौसूफ़ को देखकर खड़ा हो गया पूछा
क्या मेहमानी है ? मैंने कहा नहीं।
बल्कि मरीज़ की एयादत के लिए जाता हूँ उस मर्द ने कहा मैं भी आप के साथ चलता हूँ ताकि सयह सआदत हासिल करूं। जब हम मरीज़ के कमरे में पहुंचे तो सैय्यद मौसूफ़ पहले दाख़िल हुए और फ़िर हम एक-एक करके दाख़िल हुए। मरीज़ ने कमाले मुहब्बत और शऊर के साथ मुलाक़ात की और बैठने के लिए निशान देही की। जब वह मर्दे सालेह जो रास्ते में साथ हो लिया था , दाख़िल हुआ तो मरीज़ का चेहरा तब्दील हो गया औऱ तुर्शरु होकर देखा और हाथ से बाहर निकल जाने का इशारा किया और अपने बेटे को बाहर निकाल देने को कहा और उस मरीज़ की बेचैनी और अज़तराब बढ़ गया , हालांकि मरीज़ उससे वाकि़फ तक न था , चेजाए कि अदावत होती , वह मर्द बाहर चला गया। कुछ देर के बाद वह दोबारा दाख़िल हुआ और सलाम किया। मरीज़ उसकी तरफ़ मुतवज्जेह हुआ और बड़े ख़ुलूस और मोहब्बत के साथ ख़िताब किया और तआर्रुफ़ किया। थोड़ी देर के बाद हम सैय्यद मौसूफ़ के साथ उठ खड़े हुए और वह मर्दे सालेह भी साथ-साथ उठ खड़ा हुआ। रास्ते में मैने उससे मोहब्बत और अदावत का राज़ पूछा। उसने बुलाया कि मैं हालते जनाबत में घर से निकला ताकि हम्माम में जाऊँ। मगर वक़्त की वुसअत के पेशे नज़र पलट कर आप के साथ हो गया। हुजरे में दाख़िल होते ही जो कुछ मरीज़ से मुशाहदा किया उससे मैं समझ गया कि यह नफ़रत और एज़तराब मेरी हालते जनाबत की वजह से है। पस मैं अपने इतमिनान के लिए गया और गुस्ल (स्नान) करने के बाद दोबारा आ गया। अब की बार उसने कमाले खुलूस औऱ मोहब्बत का इज़हार किया। मुझे यक़ीन हो गया कि वह मेरी हालत जनाबत को समझ गया था जो कि मलाएकए रहमत औऱ मोहतज़र की बेचैनी का सबब है। (खज़ीनतुल जवाहर)
वह अमाल जिन की वजह से सकरात में आसानी होती है।
शेख़ सदूक़ ने इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ 0 स 0) से रवायत की है कि आपने फ़रमाया जो शख़्स चाहे कि अल्लाह ताला उसे सकरात मौत से बचाए उसे चाहिए कि वह रिश्तेदारों से सिला रहमी करे औऱ वाल्दैन से नेकी करे , जो शख़्स भी ऐसा करेगा , अल्लाह ताला उससे मौत की सख़्ती आसामन कर देगा औऱ वह अपनी ज़िन्दगी में कभी मुफ़लिस नहीं होगा।
रवायत में है कि रसूले अकरम (स 0 अ 0) एक नौजवान के एहतज़ार के वक़्त उसके पास पहुंचे और उसे लाइलाहा इल्लल्लाह पढ़े को कहा , लेकिन उसकी ज़बान बंद थी औऱ वह न कह सका। आपने दोबारा पढ़ने को कहा , मगर वह न कह सका , आपने तीसरी बार पढ़ने को कहा , वह फ़िर भी न कह सका। आँ हज़रत ने उस नौजवान के सिरहाने बैठी हुई औरत से मालूम किया इसकी माँ मौजूद है , उस औरत ने बताया मैं ही इसकी माँ हूँ आपने पूछा कि क्या तू इससे नाराज़ है , उसने कहा कि या हज़रत मैं इसकी रज़ा के साथ हूँ ज्यूँ ही उसने अपनी रज़ामन्दी के इज़हार के लिए अपने बेटे से कलाम किया तो फ़ौरन उसकी ज़बान खुल गयी। आँ हज़रत ने उसे कलमए तौहीद पढ़ने की तलक़ीन फ़रमाई तो उसने कलमा लाइलाहा इल्लल्लाह अपनी ज़बान पर जारी किया। फिर आपने उससे पूछा तू क्या देखता है , उसने अर्ज़ किया कि मैं एक क़बीहुलमंज़र आदमी को देखता हूँ , जिसकी लिबास गंदा औऱ बदबूदार है , मेरे पास आया और मेरे गले को दबोच लिया , फ़िर आँ हज़रत ने उसे यह कलमात पढ़ने को फ़रमाया-
“ या मई-यक़बलुल यसीरा व याफू अनिल-कसीर अक़बिल मिन्निल यसीर , वाफ़ो अन्निल-कसीरा इन्नका अनतल ग़फूरुर-रहीम! ”
जब उस नौजवान ने यह कलमात अपनी ज़बान पर जारी किए तब आँ हज़रत ने फ़रमाया-अब तूने क्या देखा है , उसने अर्ज़ किया कि मेरे पास एक खूबसूरत और खुश वज़ा आदमी आया है और वह सियाह (काला) शख़्स पुश्त फ़ेर कर जा रहा है आँ हज़रत ने यह कलमात दोबारा पढ़ने को कहा जब उसने इन कलमात को दोहराया तो आपने मालूम किया कि अब तू क्या देखता है। जवान ने बतलाया कि अब वह स्याहरु आदमी मुझे नज़र नहीं आता और नूरानी शक्ल मेरे पास मौजूद है , फ़िर इसी हालत में उस नौजवान ने वफ़ात पायी।
इस हदीस पर अच्छी तरह ग़ौर किया जाए तो मालूम होगा कि हकूक़े वाल्दैन के असरात किस क़द्र सख़्त हैं बावजूद ये कि इस शख़्स का शुमार आपके सहाबा (साथी) मैं था औऱ हुजूर जैसा करे पैकरे रहमत उसकी अयादत के लिए तशरीफ़ लाया औऱ उसके सरहाने बैठ कर ख़ुद उसे कलमए शहादत की तलक़ीन फ़रमायी , मगर वह उस वक़्त तक कलमए शहादत ज़बान पर जारी न कर सका , जब तक उसकी वाल्दा ने अपने बेटे से रज़ामन्दी का इज़हार नहीं किया।
इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम से मर्वी है कि सर्दियों और गर्मियों में अपने मोमिन (धर्मनिष्ठ) भाई को लिबास जन्नत अता करे औऱ मौत की सख़्ती आसान फ़रमाए औऱ तंगिए क़ब्र को फ़राख़ी व कुशादगी में तब्दील करें। हज़रत रसूले अकरम (स 0 अ 0) से मंकूल है कि जो शख़्स अपने मोमिन भाई को शीरीनी खिलाएगा , ख़ल्लाक़े आलम उससे मौत की सख़्ती को दूर फ़रमाएगा।
वह आमाल जो मरने वाले के लिए जल्द राहत का सबब है।
“ ला इलाहा इल्लल्लाहु हलीमुल करीम ला इलाहा इल्लल्लाहुल अलीयुल अज़ीम , सुबहानल्लाहे रब्बिस्समावातिस सबअे इल्लल्लाहु अलीयुल अज़ीम , सुबहानाल्लाहे रब्बिस्समावातिस सबअे व रब्बिल आरज़ीनस सबअे वमा-फ़ीहिन्ना वमा बैनहुन्ना वमा-फ़ौक़ हुन्ना वमा तहतहुन्ना वहुआ रब्बुल अरशिल अज़ीम वलहम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन ”
का मोहतज़र के करीब पढ़नाः-
शेख़ सद्दूक़ (र 0 अ 0) हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ 0 स 0) से रवायत करते हैं कि जो शख़्स माह रजब के आख़िरी दिन रोज़ा रखेगा हक़ ताला उसे सकराते मौत के बाद के खौफ़ से महफूज़ रखेगा।
24 रजब को रोज़ा रखना मोज़िबे सवाबे अज़ीम है। उनमें से एक यह है कि उसके पास मलकुल मौत खुबसूरत औऱ पाकीज़ा लिबास में मलबूस जवान की शक़्ल में शराबे तहूर का जाम हाथ में लिए रुह कब्ज़ करने के लिए आएगा और वह शराब जन्नत लबरेज़ जाम वक़्ते एहतज़ार उसे पीने के लिए देगा ताकि सकराते मौत उस पर आसान हो।
हज़रत रसूले अकरम (स 0 अ 0) से मर्वी है कि जो शख़्स सातवीं रजब की शब को चार नमाज़ इस तरह पढ़े कि हर रकत में सूरए हम्द एक मर्तबा सूरए तौहीद तीन मर्तबा , औऱ सूरए फ़लक़ औऱ सूरए वन्नास पढ़ें और फ़राग़त के बाद दुरूद शरीफ और तसबीह अरबआ , दस-दस मर्तबा पढ़े तो ख़ल्लाक़े आलम उसे अर्श के साए में जगह देगा और माहे रमज़ान के रोज़ादार के मुताबिक़ सवाब अता करेगा और उसके फ़ारिग होने तक मलाएका उसके लिए अस्तग़फ़ार करते रहेंगे और उसके लिए सकराते मौत को आसान औऱ फ़िशारे क़ब्र दूर फ़रमाएगा औऱ वह दुनिया से उस वक़्त तक नहीं उठेगा , जब तक कि वह अपनी जगह जन्नत में अपनी आंखों से न देख ले और महशर (प्रलय) की सख़्ती से महफूज़ रहेगा।
शेख़ कफ़अमी (र 0 अ 0) हज़रत रसूलसे अकरम (स 0 अ 0) से रवायत करते हैं कि जो शख़्स इस दुआ को हर रोज़ दस बार पढ़ेगा अल्लाह ताला उसके चार हज़ार गुनाहे कबीरा माफ़ फ़रमाएगा। और सकराते मौत , फ़िशारे कब्र और रोज़े क़यामत की एक लाख हौलनाकियों से नजात देगा शैतान औऱ उसके लश्कर से महफूज़ रखेगा और उसका कर्ज़ अदा होगा औऱ उससे रंजो ग़म दूर रहेगा। वह दुआ यह है-
“ आद्दतो लेकुल्ले हौलिन ला इलाहा इल्लल्लाहो व लेकुल्ले ग़म्मिन व हम्मिन माशाअल्लाह वलेकुल्ले नेअमतिन अलहम्दो लिल्लाहे वलिकुल्ली रुख़ाइन अश्शुकरो लिल्लाहे वलिकुल्ली ओजूबतीन सुब्हानाल्लाहे वलिकुल्ली ज़नबिन असतग़फिरुल्लाह वलिकुल्ली मुसीबतिन इन्नालिल्लाहे व इन्ना इलैहि राजिऊन वलिकुल्ली ज़ैकिन हसबियल्लाहो वलिकुले कज़ाइन व क़दरिन तवकल्तो ताअतिन वमासियतीन लाहौला वला कुव्वत इल्ला बिल्लाहिल अलीइल अज़ीम। ”
“ या असमअस्सामेइना , व या अब्सरल मुब्सेरीन व या अस्राअल हासिबिना वया अहकमल हकिमीन। ”
शेख़ कुलैनी (र 0 अ 0) हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ 0 स 0) से रवायत करते हैं कि आपने फ़रमायाः-
“ इज़ाजुलज़िलातिल अरज़ो ज़िलज़ालहा। ”
को नमाज़ नाफ़ला में पढ़ने से दिल तंग नहीं करना चाहिए , क्योंकि हक़ ताला ऐसे शख़्स को ज़लज़ला , बिजली और आफ़ते अरज़ोसमां से महफूज़ रखता है औऱ इस सूरे को एक मेहरबान फ़रिश्ते की शक्ल के पास भेजता है , जो उसके एहतज़ार के वक्त उसके पास बैठ जाता है मलकुल मौत से मुख़ातिब होकर फ़रमाता है कि ऐ मलकुल मौत इस वली अल्लाह के साथ मेहरबानी से पेश आना क्यों कि यह अक्सर मुझे पढ़ा करता था।