मनाज़िले आख़ेरत

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मनाज़िले आख़ेरत कैटिगिरी: क़यामत

मनाज़िले आख़ेरत

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

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मनाज़िले आख़ेरत

मनाज़िले आख़ेरत

हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

फ़स्ल हफ़तुम (सात)

मीज़ाने आमाल

हर तबक़ए फ़िक्र ने अपने-अपने ख़्याल के मुताबिक़ मिज़ाने आमाल के बारे में क़यास आराई की है। कुछ कहते हैं कि नामए आमाल का वज़न किया जाएगा। कुछ आमाल की सूरते जिस्मिया के वज़न के क़ायल हैं और तीसरा क़ौल यह है कि आमाले हसनेा को एक ख़ूबसूरत शक्ल में लाया जाएगा औऱ बुरे आमाल को बदसूरत शक्ल में। अल्लामा रहमतुल्ला जज़ायरी अनवारे नामानियां में फ़रमाते हैं कि अख़बार मुस्तफ़ीज़ा बल्कि शुरू से जो अम्र सराहतन साबित होता है , वह यह है कि आमाल मुजस्सम हो जायेंगे और खुद ही आमाल क़यामत के रोज़ वज़न किए जायेंगे। (अहसनुल फ़वायद)

कुछ रवायात में अधिकतम वज़न की जो हद (सीमा) यह की गयी है , जिसके मुताबिक़ आमाल को तौला जाएगा। वह अम्बिया और औसिया के आमाल हैं। चुनांचे एक जगह ज़ियारत में है अस्सलाम अला मिज़ानिल आमाल और हज़रत अली (अ 0 स 0) को मीज़ाने हक़ कहा गया है अव्वलीन व आख़रीन की नमाज़ का मीज़ान (तराज़ू) हज़रत अली की नमाज़ है। हज़रत जाफ़रे सादिक़ (अ 0 स 0) आले मोहम्मद (स 0 अ 0) से मर्वी है कि आपने फ़रमाया-

“ वह मीज़ान जिस पर मख़लूक़ात की इबादात व अफ़आल तौले जायेंगे वह अम्बिया व औसिया औऱ आले मोहम्मद (स 0 अ 0) हैं। ”

क़यामत के दिन देखा जायेगा कि उनकी नमाज़ हज़रत अली (अ 0 स 0) की नमाज़ के मुशाबेह है , वह खुशू और खूज़ू औऱ सिफ़ाते कमालिया जो हज़रत अली (अ 0 स 0) की नमाज़ में पाये जाते हैं हमारी नमाज़ में भी मौजूद हैं या नहीं। हमारी सख़ावत , शजाअत , रहमों करम , इन्साफ़ उनके अफ़आल (कार्य) से मिलते-जुलते हैं या नहीं। हमारे कार्य उनके कार्य के मुख़ालिफ़ हों , कि मीज़ाने हक़ अली से फ़िरकर उनके दुश्मनों ,, माविया व यज़ीद के किरदार (चरित्र) को अपना लें या अपने आपको उन रास्ते पर चलाएं , जिन्होंने फ़िदके जनाबे सैय्यदा को ग़सब किया (मआद)।

ख़ल्लाक़े आलम सूरए आराफ़ में फ़रमाते हैं-

“ क़यामत के दिन आमाल का तौला जाना बरहक़ है , जिसकी नेकियों का पलड़ा भीरा होगा , वही लोग , फ़लाह पाने वाले होंगे और जिसकी नेकियों का पलड़ा हल्का होगा यह वही लोग होंगे जिन्होंने हमारी आयत पर जुल्म करते हुए अपने आपको ख़सारे में डाल दिया। ”

और सूरए क़ारआ में फ़रमायाः-

“ शुरू अल्लाह , रहमान व रहीम के नाम से। खड़खड़ा डालने वाली क्या है ? ख़ड़ख़़डा डालने वाली , और तुझे क्या इल्म की खड़ाखड़ा डालने वाली क्या है ? जिस दिन लोग बिखरे हुए पत्तिगों की तरह हो जाएंगे और पहाड़ धुनी हुई रंगीन रुई की तरह हो जाएंगे। बस वह शख़्स जिसकी नेकियां वज़नी होंगी। वह पसंदीदा जि़न्दगी गुज़ारेगा और जिसकी नेकियों का वज़न का मोक जाएगा , उनका ठिकाना , हावया होगा और तुझे क्या इल्म की हावया क्या है ? वह भड़कती हुई आग है। ”

मीज़ाने आमाल को वज़नी करने के लिए मोहम्मद व आले मोहम्मद (स 0 अ 0) पर सलवात और हुस्ने ख़ल्क़ से बेहतर कोई अमल नहीं है। मैं इस मुक़ाम पर सलवात की फ़ज़ीलत में चंद रवायात नक़ल करता हूं। तीन रवायात मय हिकायात हुस्न खुल्क़ लिखकर अपनी किताब की फ़ज़ीलत देता हूं।

1- अव्वल (पहला)- शेख़ कुलैनी (र 0) बसनद मोतबर रवायत (कथन) करते हैं कि इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ 0 स 0) या इमाम मोहम्मद बाक़र (अ 0 स 0) ने फ़रमाया कि मीज़ाने आमाल मोहम्मद व आले मोहम्मद (अ 0 स 0) पर सलवात से बढ़कर कोई चीज़ वज़नी नहीं। एक शख़्स के आमाल का वज़न किया जाएगा , जब वह हल्के नज़र आएंगे तो सलवात लाकर रखा जाएगा तो मीज़ान वज़नी हो जाएगी।

2- दोम (दूसरा)- रसूले अकरम (स 0 अ 0) से मर्वी है कि क़यामत के दिन मीज़ाने आमाल के वक़्त मैं मौजून हूंगा। जिस शख़्स का बुराइयों का पलड़ा भारी होगा। मैं उस वक़्त उसकी सलवात को जो उसने मुझ पर पढ़ी होगी , लाऊँगा , यहां तक की नेकियों का पलड़ा वज़नी हो जाएगा।

3- सोम (तीसरा)- शेख़ सद्दूक (र 0) हज़रत इमाम रज़ा (अ 0 स 0) ने नक़ल फ़रमाते हैं कि आपने फ़रमाया जो शख़्स अपने गुनाहों को मिटाने की ताक़त न रखता हो , उसे चाहिए कि वह मोहम्मद व आले मोहम्मद (स 0 अ 0) पर बहुत ज़्यादा दुरूद व सलवात पढ़ा करे , ताकि उसके गुनाह (पाप) ख़त्म हो जाएं।

4- चहारुम (चार)- दावाते रावन्दी से मनक़ूल (उद्धृत) है कि रूसले अकरम (स 0 अ 0) ने फ़रमाया जो शख़्स हर शबो रोज़ तीन-तीन बार मेरी हुज्जत और शौक़ के सबब मुझ पर सलवात पढ़े तो अल्लाह तआला पर यह हक़ हो जाता है कि वह उस शख़्स के दिन औऱ रात के गुनाहों को बख़्श दे।

5- पंजुम (पांच)- आं हज़रत (स 0 अ 0) से मर्वी है कि आपने फ़रमाया कि मैंने अपने चचा हमज़ा बिने अब्दुल मुतलिब औऱ अपने चचाज़ाद भाई जाफ़र बिने अबी तालिब (अ 0 स 0) का ख़्वाब में देखा कि उनके सामने सदर (बेर) का एक तबक़ पड़ा है। थोड़ी देर खाने के बाद वह बेर अंगूरों में तब्दील हो गये , जब थोड़ी देर खा चुके तो वह अंगूर आला किस्म के खजूर बन गए। वह लोग उनको खाते रहे। फिर मैंने उनके क़रीब पहुंचकर मालूम किया। मेरे मां बाप आप पर कुर्बान हों। वह कौन-सा अमल आपने किया है , जो सब आमाल से बेहतर है और जिसकी वजह से आपको यह नेआमतें मिली। उन्होंने अर्ज़ किया कि हमारे मां-बाप आप पर कुर्बान हों। वह अफ़ज़ल आमाल आप पर सलावत और हाजियों को पानी पिलाना औऱ मोहब्बते अली (अ 0 स 0) बिने अबी तालिब है।

6- शश्शुम (छः)- आं हज़रत (स 0 अ 0) से मर्वी है कि जिस शख़्स ने मुझ पर किताब में तहरीर करके सलवात भेजी तो जब तक इस किताब में मेरा नाम मौजूद रहेगा उस वक़्त तक फ़रिश्ते उसके लिए इस्तेग़फ़ार करते रहेंगे।

7- हफ़तुम (सात)- शेख़ कुलैनी (र 0) हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ 0 स 0) से रवायत करते हैं कि आपने फ़रमाया कि जब भी पैग़म्बर का ज़िक्र ख़ैर हो तो तुम्हें आप (स 0 अ 0) पर सलवात पढ़ना चाहिए। इस तरह जो शख़्स एक बार आं हज़रत पर सलवात पढ़ेगा , अल्लाह तआला फ़रिश्तों की हज़ार सफों में उस पर हजार बार सलवात भेजता है अल्लाह तआला और मलायका की सलवात की वजह से तमाम मख़लूक़ात उस पर सलवात भेजेगी। बस जो शख़्स इस तरफ़ रग़बत नहीं करता वह जाहिल और मग़रूर है और खुदा व रसूल और उसके अहलेबैत ऐसे शख़्स से बेज़ार हैं।

मआनी अल अख़बार में हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ 0 स 0) से आया “ इन्नल्लाह वमलायकतहू युसल्लूना अलन्नबीय ” के मानी में रवायत की गयी है। उन्होंने फ़रमाया। अल्लाह तआला की तरफ़ से सलवात का मतलब रहमत है औऱ मलायका की तरफ़ से तज़किया (बचाव) है और लोगों की तरफ़ से दुआ है। इसी किताब मे है कि रावी ने कहा कि हम मोहम्मद (स.अ.व.व. ) व आले मोहम्मद पर कैसे सलवात भेजे तो फ़रमाया तुम कहोः-

“ सलवातुल्लाह व सलवातो मलाएकतिही वअन्बेयाएही व रुसुलिही व जमिअ ख़लक़िही अला मोहम्मदिन व आले मोहम्मदिन वस्सलामो अलैहि व अलैहिम वरहमतुल्लाहे व बरकातोह। ”

रावी कहता है मैंने पूछा कि जो शख़्स यह सलवात रसूले अकरम (स.अ.व.व. ) पर भेजे उसके लिए कितना सवाब है। आपने फ़रमाया वह गुनाहों (पापों) से इस तरह पाक हो जाता है जैसै कि वह अभी मां के पेट से पैदु हुआ हो।

8- हश्तुम (आठ)- शेख़ अबुल फतूह राज़ी हज़रत रसूले अकरम (स.अ.व.व. ) से रवायत करते हैं , आपने फ़रमाया कि शबे मैराज जब मैं आसमान पर पुहंचा तो वहां पर मैंने एक फ़रिश्ता देखा , जिसके हज़ार हाथ और हर हाथ की हज़ार उंगलियां थीं और वह अपनी उंगलियों पर किसी चीज़ का हिसाब कर रहा था मैने जिबरईल से पूछा कि यह फ़रिश्ता कौन है ? और किस चीज़ का हिसाब कर रहा है ? जिबरईल ने कहा कि यह फ़रिश्ता क़तराते बारिश को शुमार करने पर मामूर है ताकि मालूम करे कि आसमान से ज़मीन पर कितने क़तरात (बूंदे) गिरे हैं। मैंने उससे पूचा क्या तू जानता है कि जब से अल्लाह तआला ने ज़मीन को पैदा किया है अब तक कितने क़तरे (बूंदे) आसमान से ज़मीन पर गुरे हैं तो उसने कहा कि ऐ रसूले खुदा (स.अ.व.व. ) मुझे उस ख़ुदा की क़मस जिसने आपको हक़ के साथ मख़लूक की तरफ मबऊस फ़रमाया है। मैं आसमान से ज़मीन पर नाज़िल होने वाले तमाम क़तराते बारिश की तफ़सील भी जानता हूं कितने क़तरात (बूंदे) जंगलों में और कितने आबादी में , कितने बागों में , कितने क़तरात शोरे ज़मीन पर औऱ कितने क़ब्रिस्तान में गिरे हैं। हज़रत (स 0 अ 0) ने फ़रमाया मुझे इसके हिसाब में कुव्वते याद्दाश्त पर हैरानी हुई तो उस फ़रिश्ते ने कहा या रसूल अल्लाह! (स.अ.व.व. ) इस कुव्वते याद्दाश्त और हाथों और इन उंगलियों के बावजूद एक चीज़ का शुमार (गिनती) मेरी ताक़त और कुव्वत से बाहर है। मैंने पूछा वह कौन-सा हिसाब है। उसने कहा कि आप की उम्मत के लोग जब एक जगह इकट्ठे बैठकर आपका नाम लेते हैं और फ़िर आप पर सलवात भेजते हैं तो उनकी इस सलवात का सवाब मेरी ताक़त और शुमार से बाहर होता है।

9- नहुम (नौ)- शेख़ कुलैनी (र 0) रवायत करते हैं कि जो शख़्स इस सलवात “ अल्लाहु्म्मा सल्लेअला मोहम्मदिव वआले मोहम्मदेनिल अवसियाअल मरज़ीयीन बेअफ़ज़ले सलवातिका वबारिक अलैहिम बेअफज़ले बरकातिका वबस्सलामो अलैहे व अलैहिम वरहमतुल्लाहे वबरकातोह ” की हर जुमा की अस्र के वक़्त सात बार पढ़े तो अल्लाह तआला हर बन्दे की तादाद के मुताबिक़ नेकियां जारी करता है और उसके उस रोज़ के आमाल कुबूल फ़रमाता है और यह भी वारिद है कि इस क़द्र सवाब होगा , जिस क़द्र तमाम लोगों की आंखों में नूर होगा।

10- दहुम (दस)- मर्वी है कि जो शख़्स नमाज़े सुबह औऱ नमाज़े ज़ुहर के बाद “ अल्लाहुम्मा सल्लेअला मोहम्मदिन वआले मोहम्मदिन व अज्जिल फ़राजहुम ” ।

पढ़े। वह उस वक़्त तक न मरेगा , जब तक वह ज़माना (अ 0 स 0) को न देख ले।

रवायाते हुस्ने ख़ुल्क

पहली रवायत (कथन)

अनस बिने मालिक से मनकूल (उद्धृत) है कि एक दफ़ा मैं रसूले अकरम (स.अ.व.व. ) की ख़िदमत में मौजूद था और आं हज़रत के जिस्म पर बुरदी (यमनी चादर) थी जिसके किनारे ग़लीज़ और फ़टे हुए थे। अचानक एक आराबी ने आकर आपकी चादर को इस क़द्र सख़्त खींचा कि उस चादर के किनारे ने आपकी चादर पर सख़्त असर किया और कहने लगा , ऐ मोहम्मद (स.अ.व.व. )! इन दोनों ऊँटों को इस माल से लाद दो , क्योंकि यह माल माले ख़ुदा है न कि तेरे बाप का। आं हज़रत सल्लम ने इसके जवाब में ख़ामोशी इख़्तियार की औऱ आं हज़रत (स.अ.व.व. ) ने फ़रमाया कि यह माल माले ख़ुदा का है और मैं खुदा का बन्दा हूं। फ़िर फ़रमाया कि ऐ आराबी क्या में तुझसे क़सास (बदला) न ले लूं। आराबी ने इन्कार किया। आं हज़रत ने फ़रमाया क्यों ? उस बद्दू ने अर्ज़ किया। या हज़रत बुराई का बदला बुराई से लेना आपका शेवा (चरित्र) नहीं है आं हज़रत ने मुस्कुरा कर हुक्म दिया , इसके एक ऊँट पर जौ और दूसरे पर खजूरें लाद दो औऱ इस पर रहम फ़रमाया।

मैंने इस मुक़ाम पर इश रवायत (कथन) को केवल मिसाल के तौर पर और तबरुकन ज़िक्र किया। न कि आं हज़रत और आइमए हुदा का हुस्ने ख़लक़ ब्यान करना मक़सूद था , क्योंकि ख़ल्लाक़े आलम ने जिस हस्ती को कुर्आन पाक में ख़ुल्के अज़ीम के लक़ब (पद) से याद फ़रमाया हो , और उल्माए फ़रीक़ैन आप की सीरत और स्वभाव आदि के मुत्तालिक़ बड़ी-बड़ी किताबें लिख चुके हों औऱ उन्होंने आपकी विशेषताओं के अशरे अशीर का भी तज़किरा न किया हो तो मेरा इस बारे में ज़िक्र करना समाहत होगी।

तर्जुमा अशआऱ

1- हज़रत मोहम्मद (स.अ.व.व. ) कोनैन और अरब व अजम के सरदार हैं।

2- वह ख़ल्क़ व ख़ुल्क़ में सभी अम्बिया से अफ़ज़ल हैं और इल्मों फ़ज़ल मे इनका कोई हमसर (बराबर) नहीं है।

3- तमाम दुनियां रसूले अकरम (स.अ.व.व. ) की ममनून हैं , क्योंकि आप ही की बदौलत वह खुश्की (सूखे) औऱ समुन्द्र से वाकिफ़ (परिचित) हुए।

4- वह ऐसे रसूल हैं जो सूरी (ज़ाहिरी) और मानवी (बातनी) हर लिहाज़ से कामिल हैं , जो अल्लाह तआला ने आपको अपना हबीब नियुक्त फ़रमाया।

5- आपके हुस्न का जौहर न तक़सीम होने वाला है और न ही आपके मोहासिन में आपका कोई शरीक है।

6- आपके मुत्तालिक़ इल्म की बारयाबी यहां तक है कि बशर (इन्सान) हैं और ऐसे बशर (इन्सान) कि तमाम मख़लूक़ात से आला और अफ़ज़ल (श्रेष्ठतम) हैं।

दूसरी रवायत (कथन)

अस्साम बिने मुतलक़ शामी से मनकूल (उद्धृत) है , वह कहता है कि जिस वक़्त मैं मदीनए मुनव्वरा में दाख़िल हुआ तो मैंने हज़रत इमाम हुसैन (अ 0 स 0) बिने अली (अ 0 स 0) को देखा। मैं आपके चरित्र और नेक किरदार से अत्यधिक आशचर्य चकित हुआ और मेरे अन्दर हसद (ईष्य्रा) पैदा हुआ कि मैं अपनी इस दुश्मनी को ज़ाहिर करूं जो उनके बाप अली (अ 0 स 0) से थी। बस मैं आपके नज़दीक पहुंचा और कहा कि क्या तू ही अबुतुराब का बेटा है ? तुझे मालूम होना चाहिए कि अहले शाम हज़रत अमीरूल मोमनीन (अ 0 स 0) को अबुतुराब से ताबीर करते थे और वह इस नाम से आं जनाब अली (अ 0 स 0) की बुराई करते थे और हर वक़्त अबुतुराब कहा करते थे , गोया कि हल्ली व हलल (मुराद लिबास) आं जनाब को पहनाते। अलमुख़्तस (संक्शेप में) अस्साम कहता है कि मैंने इमाम हुसैन (अ 0 स 0) से कहा कि तू ही अबुतुराब का बेटा है। आपने फ़रमाया हाँ।

“ पस मैंने इमाम हुसैन और उनके वालिद को गालियां देने में कोई कसर न छोड़ी। ”

“ पस आप ने मुझ पर रहमत व मेहरबानी की निगाह दौड़ायी। ”

और फ़रमाया-

तर्जुमाः- “ तू दर गुज़र और नेक़ी का हुक्म दे और जाहिल लोगों से किनारा कर। ”

इस आयए करीमा मैं आं हज़रत (स.अ.व.व. ) के मकारिम एख़लाक़ की तरफञ इशारा है। अल्लाह तआला ने पैग़म्बरे इस्लाम को लोगों को बुरे एख़लाक़ पर सब्र करने का हुक्म दिया औऱ बुराई का बदला बुराई के साथ देने से मना फ़रमाया और बेवकूफ़ लोगों से किनारा कश रहने का हुक्म दिया और वसवसए शैतानी से खुदा की पनाह का हुक्म दिया , फ़िर आपने फ़रमायाः-

“ (ऐ अस्साम) अहिस्तगी एख़्तियार कर औऱ अपने काम को आसान और हल्का बना और अल्लाह से मेरे और अपने लिए बख़शीश तलब कर। ”

अगर तू मदद चाहेगा त मैं तेरी इमदाद करूँगा , अगर तू बख़शिश का तलबगार है तो मैं तुझे अता करूंगा। अगर नसीहत (उपदेश) का तालिब (इच्छुक) है तो मैं तुझे नसीहत करुंगा। हज़रत इमाम हुसैन (अ 0 स 0) ने चूंकि अपनी फ़रासत और इल्मे इमामत से इसकी शर्मिन्दगी को मालूम कर लिया और इरशाद फ़रमायाः-

तर्जुमाः- “ आज के दिन तुम पर कोई मलामत नहीं , अल्लाह तआला तुम्हें माफ़ करे और वह सबसे ज़्यादा रहम करने वाला है। ”

( सू 0 युसूफ़ , आ 0-92)

यह आयए करीमा हज़रत यूसुफ़ के कलाम की हिकायत है जो उन्होंने अपने भाईयों से उनकी तक़सीरात (ग़ल्तियों) की माफ़ी के वक़्त इऱशाद फ़रमायी थी।

पस हज़रत इमाम हुसैन ने फ़रमाया कि क्या तू शाम का रहने वाला है ? मैंने अर्ज़ किया हां- तो आपने फ़रमाया “ शशनातून अरफ़ोहा मिन अख़ ज़मिन ”

यह एक जर्बुल मिस्ल है , जिससे आपने मिसाल दी , जिसका मतलब यह है कि अहले शाम का हमें गालियां देना आदत है , जिसको माविया उनके दर्मियान (बीच) सुन्नत छोड़ गया है , फ़िर आपने फ़रमायाः- “ हय्यनल्लाहो व इयाका ”

“ अल्लाह हमें और उसे ज़िन्दा रखे ” तेरी जो हाजत है , खुले दिल और खुशी से मां , वह पूरी होगी तू मुझे इन्शाल्लाह , इस बारे में अच्छा पाएगा। अस्साम ने कहा कि मैं अपनी बेबाकी औऱ इन गालियों के बदले इमाम हुसैन का यह नेक अख़लाक़ देखकर सख़्त शर्मिन्दा हुआ और ज़मीन मेरे लिए तंग हो गयी और चाहता था कि ज़मीन जगह दे तो गड़ जाऊँ। पस धीरे-धीरे खिसकने लगा ताकि दूसरे लोगों के बीच छिप जाऊँ और आप मेरी तरफञ मुतवज्जेह न हों और मुझे न देख सकें , लेकिन उस दिन के बाद आप और आपके वालिद से ज़्यादा औऱ कोई मेरा दोस्त न था।

साहबे कश्शाफ़ ने आयए शरीफा जिसको हज़रत सैयदुस शोहदा (अ 0 स 0) ने हज़रत युसूफ़ के हुस्ने ख़ल्क की तमसील के तौर पर ब्यान फ़रमाया है उसका यहाँ पर पूरी तरप ज़िक्र करना मुनासिब और सही है और वह यह रवायत (कथन) है कि जब बरादराने युसूफ (अ 0 स 0) ने आपको पहचान लिया तो आपने वालिदे बुर्जुग़वार की तरफ़ अपने भाईयों को पैग़ाम दिया। बरादराने युसुफ़ ने कहा जिस वक़्त तू हमें सुबह व शाम अपने दस्तरख़्वान पर बुलाता है तो हमें इस गुनाह (पाप) और कुसूर की वजह से जो हमने तेरे साथ किया शर्म आती है , तो हज़रत युसुफ़ फ़रमाने लगे तुम मुझसे क्यों शर्माते हो। तुम ही तो मुझे इस इज़्ज़त व शरफ़ पर पहुंचाने का सबब हो। अगरचे अब मैं मिस्र वालों पर हुकमत कर रहा हूं। मगर वह अब भी मुझे पहली निगाह से देखते हैं और कहा करते हैं-

“ पाक है वह ज़ात जिसने बीस दिरहमों से ख़रीदे हुए गुलाम को इस बलन्द मर्तबा (मुक़ाम) पर पहुंचाया। ”

हक़ीक़त यह है कि मैंने यह इज्ज़त आपही की वजह से पायी है और लोगों की नज़रों में आप ही की वजह से इज़्ज़तदार हूं क्योंकि उन्होंने अब पहचान लिया है कि मैं तुम्हारा भाई हूं और गुलान नहीं हूं बल्कि हज़रत इब्राहिम ख़लीलउल्लाह की औलाद से हूं और मर्वी है कि जब हज़रत याकूब (अ 0 स 0) और हज़रत युसुफ़ (अ 0 स 0) एक दूसरे से मिले तो , हज़रत याकूब ने पूछा , ऐ मेरे बेटे! मुझे बता कि तेरे सिर पर क्या गुज़री तो हज़रत युसुफ़ ने अर्ज़ किया , ऐ अब्ब जान! आप मुझसे न पूछें कि मेरे भाईयों ने मेरे साथ क्या सुलूक किया , बल्कि आप पूछें कि अल्लाह तआला ने मरेे साथ क्या किया।

तीसरी रवायत (कथन)

शेख़ सद्दूक (र 0) और दूसरों से मर्वी है कि मदीनए मुनव्वरा में ख़लीफ़ा दोयम की औलाद में से एक शख़्स मूसा काज़िम (अ 0 स 0) को बराबर तकलीफ़ देने के लिए तैयार रहात। आपको मोमनीन (अ 0 स 0) को गालियां देता। एक दिन एख शख़्स ने अर्ज़ किया , अगर आप इजाज़त दें तो हम उस फ़ासिक़ फ़ाजिर को मार डालें। हज़रत ने उनको इस काम से मना किया और सख़्त नाराज़ हुए और पूछा वह कहां है ? उन लोगों ने कहा कि वह मदीना के क़रीब एख जगह खेती तकरता है हज़रत अपने गधे पर सवार होकर उस जगह पहुंचे जहां वह आराम कर रहा था। आप गधे पर सवार खेद में दाख़िल हुए। उस शख़्स ने आवाज़ देकर कहा मेरी खेती को ख़राब न करो। आप उसी हालत में चलते गए यहां तक की उसके पास पहुंचे और उसके पास बैठ गए और खुश होकर खंदा करने लगे कि इस खेती पर कितना ख़र्च आया। उसने कहा कि एक सौ अशर्फ़ी। फ़िर आपने पूछा , इस खेत से तुझे कितना फल मिलने की उम्मीद है , उसने कहा मैं ग़ैब तो नहीं जानता। फ़िर इमाम (अ 0 स 0) ने फ़रमाया़ मैं तुझे बताऊं कि तेरा कितना अन्दाज़ा है , जो तुझे पहले हासिल करता हूं। बस हज़रत ने रुपयों की थैली निकाली , जिसमें तीन हज़ार अशर्फियां थीं , उश शख़्स के हवाले कीं और फ़रमाया , इसे ले और अबी तेरी खेती बाक़ी है। अल्लाह तआला तुझे जब तक तू ज़िन्दा रहेगा , रोज़ी देता रहेगा।

उस शख़्स ने आपके सिर को बोसा दिया और आपसे दरख़्वास्त की कि आप मुझे बख्श दें और माफ़ फ़रमाएं। इस पर आप मुस्कुराए औऱ घर वापस लौट आए। फ़िर उस दिन के बाद लोग उस शख़्स को मस्जिद में बैठा हुआ पाते और जब कभी भी उसकी निगाह आपके चेहरे पर पड़ती तो कह उठता।

“ अल्लाहो आलमो हैसो यजअलो रिसालताहु। ” ( इनआम- 153)

उसके साथियों ने उससे पूछा तेरा वाक़या क्या है ? तो उसने कहा , मैं पहले जो कुछ कहा करता था , तुम सुनते रहते थे और अब जो कुछ कहता हूँ उसको सुनो। फ़िर उसने आपको दुआएं देना शुरु कर दी इस पर उसके साथी , उससे झगड़ने लगे और वह भी उनसे झग़ड़ने लगा। बस हज़रत न उन लोगों से फ़रमाया कि जो इरादा तुम इस शख़्स के बारे में रखते थे , वह बेहतर था या जो कुछ मैंने इरादा किया है , वह बेहतर है। मैंने थोड़ी सी रक़म के बदले , उसकी इस्लाह कर दी और उस बुराई को मिटा दिया।

हिकायत हुस्ने ख़ुल्क़

एक दिन मालिक बिने अश्तर बाज़ारे कूफ़ा से गुज़र रहे थे उनके जिस्म पर खद्दर का लिबास था और अमामा भी खद्दर का था। एक बाज़ारी शख़्स ने जो आप को नहीं पहचानता था। नफ़रत की नज़र से देखा और ठट्ठा मज़ाक करते हुए आपकी तरफ़ गुलैल से एक ढेला फ़ेंका। हज़रत मालिक ख़ामोशी से गुज़र गए और कोई बात तक न कही। लोगों ने उस बाज़ारी से कहा , क्या तू नहीं जानता की तूने किस शख़्स के साथ ठट्ठा मज़ाक किया है ? उसने कहा मैं नहीं पहचानता। तब उन्होंने उसे बताया कि यह शख़्स अमीरुल मोमनीन का दोस्त मालिक बिने अश्तर था। यह सुनते ही उस शख़्स पर लरज़ा तारी हो गया और मालिक के पीछे दौड़ा की उनसे माफ़ी मौंगे। मालिक उस वक़्त मस्जिद में नमाज़ पढ़ रहे थे जब आप नमाज़ से फ़ारिग़ हुए तो वह शख़्स आपके क़दमों पर गिर पड़ा और क़दम चूमने लगा। हज़रत मालिक ने उससे वजह मालूम की तो उसने कहा कि मैं इस गुस्ताख़ी और बे अदबी की माफ़ी चाहता हूँ जो मुझसे आपके बारे में सरज़द हुई। मालिक बिने अश्तर ने कहा कोई बात नहीं। खुदा की क़सम मैंने मस्जिद में दाख़िल होने से पहले आपके लिए अल्लाहतआला से इस्तेग़फ़ार की है।

मालिक बिने अश्तर ने हज़रत अमीरूल मोमनीन से इस क़द्र एख़लाके हस्ना की तालीम हासिल की कि सालारे लश्कर औऱ बहादुर तरीन आदमी होने के बावजूद भी उस शख्स की बदतमीज़ी पर उसे कुछ न कहा , बल्कि उसके लिए दोआए मग़फ़िरत की।

हज़रत मालिक इस क़द्र बहादुर और शुजा थे कि इब्ने अबी अल हदीद कहता है कि अगर अरब औऱ अजम के अन्दर कोई शख़्स कसम उठा कर कहे कि अमीरुल मोमनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम के सिवा मालिक बिने अश्तर से ज़्यादा कोई शख़्स बहादुर औऱ शुजा नहीं है , तो मेरा ख्याल है कि उसकी यह बात सच्ची होगी। मैं इसके अलावा और क्या कहूं ? कि उसकी ज़िन्दगी ने अहले शाम को मिटा दिया और उसकी मौत ने अहले ईराक़ को! और हज़रत अली अलैहिस्सलाम उनके बारे में इरशाद फ़रमाते हैं कि अश्तर का मेरे नज़दीक वही मर्तबा है जो मेरा रसूल अकरम (स.अ.व.व. ) के नज़दीक था (यह मेरा ऐसा ही कुव्वते बाज़ू है , जैसा में रसूले खुदा का था) और हज़रत ने अपने दोस्तों को मुख़ातिब करके फ़रमाया। काश! तुममे एक या दो आदमी मालिक बिने अश्तर की तरह होते। मालिक का दुश्मनों पर रोब व दबदबा हुज़ूर के इन अशआर से मालूम होता है-

तर्जुमा अश्आर (अनुवाद कविता)

1- मैं अपने माल कसीर (अधिक) को बाक़ी रखूं (बख़ील हो जाऊँ) और बलंदनामी के कामों से इनहराफ़ करूं और अपने मेहमान से रूखेपन के साथ मुलाक़ात करूं।

2- अगर मैं माविया पर ऐसी लूट बरपा न करूं जो जानों को लूटने से किसी दिन भी ख़ाली न हों।

3- वह गा़रतगरी ऐसे घोड़ों के ज़रिए हो जो भूतों की तरह पतली कमर वाले हैं , जो घमासान की जंग रोशन रौ नवजवानों के साथ सुबह करते हैं।

4- और इन नवजवानों के लिए हथियार इस तरह गरम हो चुके हैं , गोया वह बिजली की चमक है या आफ़ताबो (सूरज) की किरणें (इतनी तेज़ी औऱ फुर्ती से तलवार चलाते हैं) , जैसे बिजली।

अलमुख़्तसर (संक्शेप में) मालिक बिने अश्तर की जलालत , बहादुरी , शानो शौकत , और हुस्ने अख़लाक़ ने आपको बलन्द दर्ज़े पर पहुंचा दिया , क्योंकि एख बाज़ारी आदमी के इस्तेहज़ा करने से आपकी तबियत पर ज़र्रा बराबर भी फ़र्क़ न पड़ा और न ही आप नाराज़ हुए बल्कि वह मस्जिद में पहुंचकर , इस आदमी के लिए नमाज़ औऱ बख़शीश की दुआ मांगते हैं। अगर आप उनकी बहादुरी को अच्छी तरह देखें तो आपको मालूम होगा कि उनका अपने नफ़्स (ज़मीर) और ख़्वाहिशात पर इस क़दर कंट्रोल था कि उनकी यह बहादुरी उनकी जिस्मानी बहादुरी से कहीं ज़्यादा थी , और हज़रत अली अलैहिस्सलाम का फ़रमान है-

“ सबसे ज़्यादा बहादुर वह शख़्स है , जो ख़्वाहिशाते नफ़सानी पर ग़ालिब है। ”

हिकायत

शेख़ मरहूम मुस्तदरक के ख़ात्मे में अफ़ज़लुल्हुक्काम व अलमुतकलमीन वज़ीर आज़म जनाब ख़्वाज़ा नसीरुद्दीन तूसी कदस सरा ने नक़ल करते हैं कि एक दिन ख़्वाजा साहब के हाथ में एक कागज का टुकडा पहुंचा , जिसमें आपके मुत्तालिक़ सब्बो शतम में एक बदतरीन फ़िकरा यह भी था , “ ऐ कल्ब बिने कल्ब ” ख़्वाजा नसीरुद्दीन (र 0) ने उस कागज़ को पढ़ा तो संजीदगी और मतानत के साथ उसका जवाब लिखा , जिसमें किसी क़िस्म का बुरा फ़िक़रा न थाष अपनी इबारत में तहरीर किया कि “ ऐ शख़्स तेरा मुझे कुत्ता कहना ठीक नहीं ” क्योंकि उसके चार टांगे होती हैं , जिन पर वह चलता है , और उसके पंजों के नाख़ून लम्बे-लम्बे होते हैं , लेकिन इसके बर ख़िलाफ़ मैं सीधे क़द वाला इन्सान हूं औऱ यह बात बिल्कुल रौशन है कि न तो मेरे कुत्ते की तरह पंजे हैं , बल्कि मेरे नाख़ून तो पोशीदा हैं और मैं तो बोलने और हंसने वाला इन्सान हूं और मरे यह ख्वास (विशेषता) कुत्ते के ख्वास के बर ख़िलाफ (विरुद्ध) है। ” यह जवाब लिख कर दिया और उसकी अदम मौजूदगी में उसे अपना दोस्त ज़ाहिर किया।

इतने बड़े जलीलुल क़द्र मोहक्क़िक़ से यह अज़ीम ख़ुल्क कोई अनोख़ी बात नहीं। अल्लामा हिल्ली (र 0) ख़्वाजा नसीरुद्दीन तूसी (र 0) के मुत्तालिक़ फ़रमाते हैं , यह शेख़ अपने ज़माने के ओल्मा से अफ़ज़ल तरीन थे , औऱ उलूमे अक़लिया व नक़लिया , व इल्मो हिकामत औऱ अहकामे शरीआ , मज़हबे हक़्क़ा के बारे में बहुत सी कितबे लिखीं हैं और यह साहबे एख़लाक के लिहाज़ से उन तमाम बुजुर्गों से अफ़ज़ल व अरफ़ा थे , जिनको मैंने मुशाहिदा किया है , मैं आपके एख़लाक़ को इस शेर से वाज़े करता हूं-

हर बुए कि अज़ मुश्क व क़रनफल शनोई।

अज़ दोस्त आं ज़ुल्फ़ चूं सुम्बुल शनोई।।

“ जो खुशबू मुश्क और क़रनफ़ल (लोंग) से आती है , वह महबूबा की सुम्बुल जैसी ज़ुल्फ़ों की खुशबू का भला क्या मुक़ाबला कर सकती हैं। ”

र ख़्वाजा तूसी (र 0) ने यह तमाम एख़लाक़े हसना अमल किरदारे आइम्मा से लिए हैं , क्या आपने यह बात नहीं सुनी कि हज़रत अमीरुल मोमनीन अलैहिस्सलाम ने किसी शख़्स को क़म्बर को गालियां देते हुए सुना और क़म्बर ने भी वैसी जवाब देना चाहा तो हज़रत अमीर अलैहिस्सलाम ने क़म्बर को पुकार कर फ़रमाया महलन या क़म्बरो “ ऐ क़म्बर ख़ामोश रहो। ” यह गालियां देने वाले हमारी ख़ामोशी से ख़्वार (ज़लील) होगा और अपनी ख़ामोशी से अल्लाह तआला को खुश रख और शैतान को ग़लबा दिलाकर दुश्मन को शिकंजा में फंसा। मुझे उस ख़ुदा की क़सम जिसने दाने को फाड़ कर पौधे को उगाया और जिसने इन्साम को पैदा किया। मोमिन के लिए अपने हिल्म से बढ़कर ख़ुदा को राज़ी करने वाली कोई चीज़ नहीं और मोमिन अपनी ख़ामोशी के अलावा औऱ किसी चीज़ से शैतान को गुस्सा नहीं दिला सकता। बेवकूफ़ को क़ब्ज़े में लाने के लिए जवाब में ख़ामोशी से बढ़कर औऱ कोई हथियार नहीं।

अलमुख़्तसर मुख़ालिफ़ और मुवाफ़िक़ तमाम लोग ख़्वाजा तूसी (र 0) की तारीफ़ करते हैं। जरजी ज़ैदान आदाब कलज़ातुल अऱबिया के तरजुमों में तहरीर करते हैं कि आपके कुतुबख़ाने में चार लाख किताबें मौजूद थीं। आप इल्मे नुजूम और फ़लसफ़ा के इमाम थे। इसी फ़ारसी के हाथ में बलादे मुग़लिया के बहुते से अवक़ाफ़ इल्म की ख़ातिर वक़्त किए गए थे और आप घटाटोप अंधेरे में रौशनी का मीनार थे।

मैंने किताबे फ़वायदे रिज़विया में जो तराजुम (अनुवाद) उल्माए इमामिया में से एक है का तर्जुमा भी अपनी बिसात के मुताबिक किया , जिसमें मैंने लिखा कि शैख़ तूसी (र 0) का ख़ानदान जबरुद के बादशाहों में से वशाहर नामी ख़ानदान से ताल्लुक रखता है , जो कुम से दस फ़रसख़ के फ़ासले पर आबाद है , लेकिन आपकी विलादत बासआदत तूस के शहर में “ 11” जमादिउल अव्वल सन् 597 हिजरी में हुई और आप की वफ़ात बरोज़े इतवार 18 ज़िल हिज 672 हिजरी को बक़आ मुनव्वरा काज़मिया में हुई और आपकी क़ब्र पर यह अल्फाज़ तहरीर हैं।

“ यानी उनका कुत्ता अपने बाज़ू फ़ैलाए बैठा है। ”

कुछ लोगों ने आपकी तारीख़े वफ़ात को इस तरह नज़्म किया है ,

नसीर मिल्लते दीं पादशाह किश्वरे फ़ज़ल।

यगाना ऐ कि चे ओ मादरे ज़माना नज़ाद।

बसाल शशसदो हफ़तादो दू बज़िलहिज्जा।।

बरोज़े हजदहुम दर गुज़श्ते दर बग़दाद।

“ वह मिल्लत औऱ दीन के नसीर ममलकते फ़ज़ल के बादशाह ” थे।

जमाने में उनका जैसा बेमिसाल कोई पैदा नहीं हुआ। वह ज़िल हिज़ 672 हिजरी को बग़दाद में दफ़न हुए। ”

हिकायत

एक रवायत (कथन) में है कि एक दिन शेख़ अलफुक़हा हाजी शेख़ जाफ़र साहब कशफुल गतआ असफ़हान में नमाज़ शुरू करने से पहले ग़रीबों में ख़ैरात तक़सीम कर रहे थे। जब माल बांद चुके तो नमाज़ में मशगूल हो गए। सादात में से एक आदमी नमाज़ के बाद उठा और शेख़ साहब के पास आकर कहा कि मेरे दादा का माल मुझे दो। आपने फ़रमाया तू देर से पहुंचा अब मेरे पास कोई माल नहीं , जो मैं तुझे दूं। वह सैय्यद ग़जबनाक हुआ और शेख़ साहब के मुहं पर थूक दिया आप उठे औऱ दामन फ़ैलाकर सफ़ों में फ़िरने लगे और फ़रमाने लगे , तुममें से जो भी मेरी दाढ़ी को अज़ीज़ रखता है वह इस सैय्यद की मदद करे। बस लोगों ने शेख़ के दामन को रक़म से भर दिया और आपने वह तमाम रक़म सैय्यद के हवाले कर दी और फ़िर नमाज़ में मशगूल हो गए।

ग़ौर कीजिए शेख़ किस क़द्र एख़लाके हमीदा के मालिक थे। यह वह बुजुर्गवार हैं , जिन्होंने हालते सफ़र में कशपुलग़ता , जैसी किताब फ़िक़ा में तहरीर फ़रमायी औऱ आप फ़रमाया करते थे कि अगर फ़िक़ा की तमाम किताबें बरबाद हो जाये तो मैं अपनी याद्दाश्त की बदौलत बाबुल तहारत से लेकर बाबुल दय्यात तक लिख सकता हूं और आपकी सारी औलाद में बड़े-बड़े ज़लीलुल क़द्र उल्मा और फुक़्हा थे। सक़अतुल इस्लाम नूरी (र 0) पके हालात के बारे में फ़रमाते हैं अगर कोई शख़्स शेख़ जापञर को सुबह के वक़्त की मुनाजात और आदाबे सनन और खुशूअ व खुज़ूअ में ग़ौरो फ़िक़्र करे तो उस पर आपकी अज़मत (श्रेष्ठता) ज़ाहिर हो जाएगी। आप अपने मुख़ाताबात में अपने नफ़्स से मुख़ातिब होकर फ़रमाते थे कि तू पहले जअीफ़र यानी छोटी नदी था , फ़िर दरिया बन गया। शेख़ जाफ़र कश्ती और समन्दर बन गया , फिर ईराक़ और उसके तमाम मुसलमानों का सरदार बन गया। उनका अपने नफ़्स से यह ख़िताब इसलिए था कि इतनी बुजुर्गी औऱ इज़्ज़त मिलने पर भी मैं अपने शुरु के तकलीफ़ और मुसीबतों का ज़माना नहीं भूला। आप उन्हीं लोगों में से हैं , जिनके बारे में हज़रत अमीर (अ 0 स 0) ने अहनफ़ बिने क़ैस को अवसाफ़ बताते थे।

वह एक लम्बी हदीस है , जो हज़रत अली (अ 0 स 0) ने अपने असहाब की शान में जंगे जमल के बाद अहनफ़ बिने क़ैस से फ़रमायी थी , उसके जुमला फुक़रात यह हैं-

“ ……….अगर तुम उनको रात के उस वक़्त देखो जबकि आंखों में नींद ग़ालिब होती है। हर कि़स्म की आवाज़े बन्द होती हैं , परिन्दे अपने आशियानों में आराम कर रहें होते हैं तो यह लोग क़यामत औऱ वादागाह के डर से जाग रहे होते हैं , जैसा कि अल्लाहतआला ने अपने कलाम पाक में इरशाद फ़रमाया है , “ क्या अब इन बस्ती वालों को अमन है ? ” नहीं , हम उन पर उस वक़्त अज़ाब नाज़िल करेंगे जब यह सो रहे होंगे। बस यहग लोग क़यामत के ख़ौफ़ की वजह से शब्बेदारी करते हैं। कभी उठकर ख़ौफ़े ख़ुदा से रो-रोकर नमाज़ पढ़ते हैं और कभी रो-रोकर मेहराब में तसबीह व तक़दीसे ख़ुदा ब्यान कर रहे होते हैं और वह तारीक रातों में गिड़गिड़ा कर हम्दो सना कर रहे होते हैं। ऐ अहनफ , अगर तू इनको रात के वक़्त ख़ड़े हुए देखे तो उनकी कमरें झुकी हुई और कुर्आन मजीद की सूरतें नमाज़ में पढ़ते नज़र आएंगे औऱ ज़्यादा रोने और फ़रियाद की वजह से वह इस तरह मालूम होंगे यानी आग ने उनको घेर लिया है और वह उनके हलक़ तक पुहंच गयी है और जब यह रोएंगे तो तू यह शक करेगा कि उनकी गर्दने जंज़ीरों में जकड़ी हुई हैं , अगर तू उनको दिन के वक़्त देखे तो वह एक ऐसी क़ौम नज़र आएगी जो ज़मीन पर आहिस्ता चलते हैं और लोगों से अच्छा कलाम करते हैं और जब जाहिल लोग उनसे मुख़ातिब हो तो उनको सलाम करते हैं उनका जब लग़ोयात के नज़दीक से गुज़र होता है तो वह उनके पास से बाइज्ज़त गुज़र जाते हैं और अपने क़दमों को तोहमत से बचाते हैं , और उनकी ज़बाने गूंगी होती हैं कि वह लोगों की इज्ज़त के ख़िलाफ़ कोई बातें करें और अपने कानों को फुज़ूल बातें सुनने से रोके रखते हैं और अपनी आंखों को गुनाहों की तरफ़ निगाह न करने के सुरमा से सजाए हुए होते हैं और वह दारुल सलाम में दाख़िले का इरादा रखते हैं , जिसमें जो शख़्स दाख़िल हो गया , वह शक व शुब्हा और ग़म से मामून रहा।

यहां पर एक राहिब के अज़ीमुश्शान कलाम में से कुछ नक़ल करना मुनासिब है और वह यह है कि जो क़सम ज़ाहिद से नक़ल किया गया है। उसने कहा मैंने एक राहिब को बैतुल मुक़द्दस के दरवाज़े पर ख़स्ता हाल देखा। मैंने उससे कहा मुझे वसीयत कर। उसने कहा तो उस आदमी की तरह बन जिनको दरिन्दों ने वहशतनाक कर रखा हो और माज़ूर व ख़ायफ़ हो और डर रहा हो कि अगर वह हरकत करे तो वह उसे फाड़ डाले या नोच डाले। उसकी रात ख़ौफ़नाक होती है , जबकि उसमें बहादुर खुश होते हैं। फ़िर उसने पुश्त फ़ेरी और मुझे छोड़ दिया मैंने उससे कहा कुछ और ब्यान फ़रमाएं तो उसने कहा कि प्यासा थोड़े पानी पर भी क़नाअत कर लेता है।

हिकायत

मनकूल (उद्धृत) है कि एक रोज़ काफ़उल क़फ़ात साहब बिने अबाद ने शरबत तलब किया तो उसके एक गुलाम ने उसे शरबत का प्याला हाज़िर किया। साहब ने जब पीने का इरादा किया तो , उसके ख़्वास में से एक ने कहा , कि इस शरबत को न पी , क्यों कि इसमें ज़हर मिला हुआ है। जिस गुलाम ने साहब को वह प्याला पकड़ाया था , वह अभी पास खड़ा था। साहब ने कहा , तेरे इस क़ौल (कथन) की दलील क्या है ? उस आदमी ने कहा , उस गुलाम को जो यह प्याला लाया है , पिलाकर तर्जुबा कर लिजिए मालूम हो जाएगा। साहब कने कहा मैं इसकी इजाज़त नहीं देता और न ही जायज़ मसझता हूं। फ़िर उसने कहा किसी हैवान कगो पिला दीजिए। साहब ने कहा कि मैं हैवान को ज़हर पिला कर ख़त्म करना और सज़ा देना जायज़ नहीं समझता। उन्होंने प्याला वापस किया और ज़मीन पर फ़ेक देने का हुक्म दिया और उस गुलाम को नज़रों से दूर हो जाने को फ़रमाया कि आइन्दा मेरे घर में दाख़िल न होना , लेकिन शहर में रहने की इजाज़त है और इससे क़तए ताअल्लुक (सम्बन्ध विच्छेद) न किया जाय और फ़रमाया कि शक व शुबहात पर यक़ीन नहीं करना चाहिए और रोज़ी रोक कर सज़ा देना भी अच्छी बात नहीं।

साहब बिने अबाद आल बोया के वज़ीरों में से एक वज़ीर था जो मलजाय ख़्वास व अवाम और मरजए मिल्लत व दौलत और मोअज़्ज़ि व मोकर्रम था और यह वह शख़्स था , जो शायरी में फज़लों कमाल और अरबियत में यकताए ज़माना और दुनिया में अजूबा था।

मलक़ूल है कि जब यह इमला लिखने के लिए बैठता तो बहुत से लोग उससे इस्तेफ़ादा करने के लिए उसके गिर्द जमा हो जाते और इतनी ज़्यादा तादाद हो जाती की छः आदमी तो सिर्फ़ उसके इमले को लोगों को पढ़ कर सुनाने में मशगूल रहते। उसके पास लुग़त की इतनी ज़्यादा किताबें थी कि जिससे साठ ऊँट बार हो सकते थे और उल्मा , फज़ला उलूईन और सादात कराम की इज़्ज़त व तौक़ीर किया करता था और उनको तसनीफ़ व तालीफ़ का शौक़ दिलाता था। इन ही की ख़ातिर शेख़ फ़ाज़िले ख़बीर जनाब हसन बिन मोहम्मद कुम्मी ने तारीख़े कुम तालीफ़ की और शेख़ अजल रईसुल मोहद्दसीन जनाब सद्दूक (र 0) ने किताब ओयून अक़बारुर्ज़ा तसनीफ़ फ़रमायी और उन्हीं की वजह से शआलबी ने यतुमतुद्दहर को जमा किया और उल्मा व फुकहा और सादात व शोअरा (कवि) पर उसका एहसान व फ़ज़ल बहुत मशहूर था। हर साल बग़दाद के फुकहा के पास पांच हज़ार अशर्फियां भेजता। और जो शख़्स भी माहे रमज़ान में अस्र के बाद उसके पास जाता तो उसे रोज़ा अफ़्तार किए बग़ैर वापस न आने देता। तक़बरीबन हर शब माह रमज़ान को एक हज़ार आदमी उसके घर पर रोज़ा अफ़तार करते और माह रमज़ान में वह इस क़द्र सदक़ात व ख़ैरात पर रक़म ख़र्च करता , जितना वह बाक़ी साल में ख़र्च करता था और उसने अमीरुल मोमनीन (अ 0 स 0) की तारीफ़ में बहुत से अश्आर लिखे और आप (स.अ.व.व. ) के दुश्मनों की हजों ब्यान की।

उनकी वफ़ात 24 सफ़र 385 हिजरी में रेके मुक़ाम पर हुई और उनके जनाज़े को उठा कर असफ़हान में लाकर दफ़न किया गया। आपका मज़ार अब भी असफ़हान में मशहूर है।

“ वससलाम व रहमतुल्लाह अलैहा। ”