तारीखे इस्लाम 2

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तारीखे इस्लाम 2 लेखक:
कैटिगिरी: इतिहासिक कथाऐ

तारीखे इस्लाम 2

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: जनाब फरोग़ काज़मी साहब
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तारीखे इस्लाम 2

तारीखे इस्लाम 2

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

मजम-ए-आम में एलाने रिसालत

जब दावते अशीरा के मौक़े पर महदूद तबलीग़ के मराहिल तय हो गये तो हुक्म आया कि (फासदेह बेमा तूमरू आरिज़ अनिल मुशरेकीन) (तुम्हें जिस दावत का हुक्म दिया गया है उसे मुशरेकीन की परवा किये बग़ैर ज़ाहिर कर दो)

इस हुक्मे रब्बानी के तहत आप कोहे सफ़ा पर तशरीफ़ ले गये और एक एक क़बीले का नाम लेकर आवाज़ दी कि या मुआशरे कुरैश , या बनी फहर या बनी , ग़ालिब , या बनी लवी , या बनी अदी आओ मेरी बात सुनो।

यह आवाज़ सुनकर लोग कोहे सफ़ा की तरफ़ दौ़ड़ पड़े क्योंकि उस वक़्त मक्का का दस्तूर था कि जब कोई अहम मुआमला दपरपेश होता तो पहाड़ पर चढ़कर आवाज़ दी जाती थी और लोग उस आवाज़ पर अपना तमाम काम काज छोड़कर जमा हो जाते थे। चुनानचे जब हदे निगाह तक एक बड़ा मजमा इकट्ठा हो गया तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने उसे ख़िताब करते हुए फरमाया कि अय्योहन नास! अगर मैं तुम्हें ख़बर दूँ कि इस पहाड़ के अकब में तुम पर हमला करने के लिये लश्कर छिपा हुआ है तो तुम लोग क्या मेरी इस बात का यक़ीन करोगे ?

मजमे से एक साथ सैकड़ों आवाज़े बुलन्द हुयीं , क्यों नहीं! आप हमारे अमीन हैं और हमने आपके मुँह से कभी कोई झूट नहीं सुना।

जब आप अवाम से यह अहद व इक़रार ले चुके तो फ़रमाया , अगर तुम लोग मुझे सादिक़ और अमीन समझते हो तो सुनो कि अल्लाह ने मुझे अपना रूसल बनाकर इस बात पर मामूर किया है कि मैं तुम्हें हिदायत करूँ , हक़ की तरग़ीब दूँ और यह बता दूँ कि तुम लोग जो बुत परस्ती करते हो और बाद आमालियों में मुबतला हो उसका नतीजा जहन्नुम का अज़ाब है।

यह पूरी कौ़म के लिये एक पैग़ामे इन्क़ेलाब था लेकिन बद बख़्तों की समझ मे न आया चुनानचे वह लोग हंसने और कहकने लगे और आपस में तरह तरह की चेमिगोईयां करने लगे। आप अपनी बात कह कर पहाड़ से नीचे उतर आये मगर उसी वक़्त से आप और कुरैश के दरमियान हक़ व बातिल की कशमाकश शुरी हो गयी जिसमें आपको सख़्त मुश्किलात व मसाएब का सामना करना पड़ा।

आन हज़रत (स.अ.व.व.) पर मज़ालिम

अवामी सतह पर एलाने रिसालत के बाद अहले मक्का की तरफ से रसूले अकरम (स.अ.व.व.) पर एक लामुतनाही मज़ालिम का सिलसिला शुरू हो गया। जिन लोगों ने आपको सादिक़ व अमीन का ख़िताब दिया था वही लोग मजनून , काहिन , जादूगर और न जाने क्या क्या कहने लगे।

जब आप घर से बाहर निकलते तो कुरैश आपकी रहगुज़र में कांटे बिछाते , आप पर कूड़ा करकट और गंदगी फेंकते , आपका मज़ाक उड़ाते और तरह तरह की सऊबतें और तकलीफ़े पहुँचाते लेकिन आप सब्र से काम लेते और खामोश रहते और जब पैमाना लब्रेज़ होता तो बस ज़बान से सिर्फ इतना कहत कि क्या यही हक हमसायेगी है ?

इस ईज़ा रसानी , अदावत और दुश्मनी में जो लोग ज़्यादा सरगर्मे अमल थे उनमें अबुसुफियान , अबुलहब , अबुजहल , वलीद बिन मुग़ीरा , आस इब्ने वायल , अतबा बिन रबिया , अक़बा बिन अबीमोईत , अबुलबख़तरी , उमय्या बिन हलफ , असूद बिन अबदे यगूस , नसर बिन हरस और अख़निस बिन शरीक वगै़रा का नाम मशहूर है। यह कुरैश की बाअसर , मुक़तदर और ताक़तवर हँस्तियां थी लेकिन उनकी जाहेलियत और तहजी़ब व तमद्दुन से नाशिनासी का यह आलम था कि जब सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) मसरूफे नमाज़ होते तो यह बदबख़्त आवाज़ें करते , बेहूदा और लग़ो कलेमात बकते , मुत्ताहिद होकर तालियां और सीटियां बजाते नीज़ अरकाने नमाज़ की नक़लें उतारते। उन मूज़ियों के नज़दीक यह बड़ी मामूली और ख़फफ बातें थीं। लेकिन इन हरकात से भी जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) के सब्रो तहाम्मुल और इस्तेक़लाल व सिबात में कोई फर्क़ न आया तो यह लोग आपको जिस्मानी आज़ार व तकलीफें पहुँचाने पर मुतफ़्फ़िक़ व मुत्ताहिद हो गये चुनानचे तबरी का कहना है कि एक मर्तबा आन हज़रत (स.अ.व.व.) ख़ान-ए-काबा में नमाज़ पढ़ रहे थे कि अक़बा इब्ने अबीमईत अमूमी आया और उसने अपनी चादर को बल देकर रस्सी की तरह बना लिया , जब आप सजदे में गये तो उसने वह चादर आपकी गर्दन में डाल दी और पेंच कर पेंच देने लगा यहाँ तक कि गुलुए मुबारक पर चादर का हलक़ा इस क़दर तंग हो गया कि आपका दम रूकने लगा , इतने में अबुबकर कहीं से आ गये और यह हाल देखा तो अपने दोनों हाथ उस चादर के हलके में डाल कर उसे आपकी गर्दन से जुदा कर दिया और कहा , ऐ क़ौम के लोगों! अफसोस है कि ऐसे शख़्स की जान चाहते हो जो कहता है कि खु़दा मेरा परवरदिगार है।)

इस रिवायत में इमाम इब्ने कय्युम इतना इज़ाफ़ा और फ़रमाते हैं कि इस हमदर्दी के नतीजे में चन्द शरीर हज़रत अबुबकर पर टूट पड़े और उन्हें जूतों , लातों और घूंसो से बुरी तरह मारी पीटा।

एक दिन रउसाए कुरैश ख़ान-ए-काबा में मौजूद थे कि हुजूर (स.अ.व.व.) तशरीफ लाये और नमाज़ पढ़ने लगे। अबुजहल ने कहा , काश इस वक़्त निजासत भरी ऊँट की ओझड़ी होती तो मुहम्मद (स.अ.व.व.) की गर्दन में डाल दी जाती। अक़बा ने काह में अभी लात हूँ चुनानचे वह गया और कहीं से ऊँट की ओझडी उठा लाया। आप जब मसरूफे सजदा हुए तो उसने वह ओझड़ी आपकी गर्दन में डाल दी। खुशी के मारे कुरैश एक दूसरे पर गिरे पड़़ते थे। किसी ने जाकर हज़रत फात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) को ख़बर की , अगर चे वह उस वक़्त सिर्फ पाँच परस की थीं लेकिन दौड़ी हुयी आयीं और ओझड़ी हटा कर अक़बा को बुरा भला कहा और बद्दुआयें दी।

जब उन मसाएब पर भी रिसालते माअब (स.अ.व.व.) ने अपनी तबलीग़ी उमीर और दीनी तालीम के नशर व अशाअत में कोई कमी नहीं की तो कुफ्फारे कुरैश ने आपस में मशवरा करके दुनियावी माल व सरवत की तरग़ीब व तहरीस की बुनियाद पर एक दूसरा रास्ता आख़तियार किया चुनानचे अतबा बिन रबिया कुरैश का नुमाइन्दा बन कर आन हज़रत (स.अ.व.व.) के पास आया और उसने कहा कि ऐ मुम्मद (स.अ.व.व.) ! अगर तुम हमारे खुदाओं की तौहीन से बाज़ आओ और अपने मौक़फ़ से दस्तबरदार हो जाओ तो जो मांगोगे हम तु्म्हें देने को तैयार हैं अगर तुम कुरैश के किसी बड़े घराने की हसीन व जमील औरत से निकाह के खुवाहिश मन्द हो तो हम उसका इन्तेजाम कर दें , अगर माल व दौलत मन्द हो जाओ , अगर बादशाहत की ख्वाहिश है तो हम तुम्हें अपना बादशाह तसलीम कर सकते हैं और अगर यह सब कुछ नहीं है तुम्हारा वाहमा तुम्हारे इख़तियार से बाहर है तो हम किसी माहिर तिब से तुम्हारा मुआलेज़ा कराने पर तैयार हैं ख्वाहा इस काम में कितनी ही दौलत क्यों न खर्च हो।

जब अतबा अपनी गुफ़तगू ख़त्म कर चुका तो आपने फ़रमायाः-

(हा 0 मीम- तनज़ीलुम) मिनर रहमानिर रहीम , किताबुन फुस्सेलतु आयातहु कुरानन अरबीयन लेक़ौमिन यालामून -------- जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) फाइन्ना आराज़ू फक़ुल अनज़रतोकुम साएका मिसले साएक़ा आदिन व समूद) तक पहुँचे तो अतबा ने कहा , ऐ मुहम्मद (स.अ.व.व.) ! बस! और वापस आकर उसने कुरैश के सरदारों से कहा कि वल्लाह मैंने मुहम्मद (स.अ.व.व.) की ज़बान से ऐसा कलाम सुना है कि जिसकी मिसाल मुम्किन ही नहीं है। शायरी , सहर या कहानत से उसका कोई ताल्लुक़ नहीं। मेरा ख़्याल तो यह है कि तुम लोग मुहम्मद (स.अ.व.व.) का जादू तुम पर भी चल गया। अतबा ने कहा जो कुछ मैंने देखा और सुना था वह बता रहा हूँ अगर नहीं मानते तो न मानों। इब्ने हश्शाम की तहक़ीक़ के मुताबिक़ इस गुफत व शुनीद की मोहर्रिक खु़द अतबा बिन रबिया था और यह वाक़ियात हज़रत हमज़ा बिन अब्दुल मुत्तालिब के इस्लाम इख़्तियार करने के बाद के हैं।