तारीखे इस्लाम 2

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तारीखे इस्लाम 2 लेखक:
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तारीखे इस्लाम 2

तारीखे इस्लाम 2

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.


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शक़क़ुल कमर का वाक़िया

अल्लामा दयार बक़री ने तारीख़े खमीस में लिखा है कि बेइस्त के नवें साल शकुल क़मर का मोज़िज़ा वाक़े हुआ। मवाहिब लदुनिया में है कि यह वाक़िया हिजरते नबुवी से पाँच बरस पहले का है।

इब्ने अब्बास से मरवी है कि हज के ज़माने में चौदहवीं शब को अबुजहल एक यहूदी और कुछ मुशरेकीन के साथ हज़रत रसूले खुदा (स.अ.व.व.) के पास आया और कहने लगा तुम अअपनी नबूवत का कोई सरीही मोजिज़ा दिखाओ ? आपने पूछा आखिर तू क्या चाहता है ? तो उसने यहूदी से मशविरा करके कहा , इस चाँद को दो टुकड़े करके दिखाओ ? आपने दुआ की और उँगली से इशारा किया चाँद दो टुकडे हो गया और दोनों टुकड़ों के दरमियान इस क़दर फासला हुआ कि कोहे हिरा बीच में नज़र आने लगा। थोड़ी देर तक यही कैफियत बरक़रार रही तो अबुजहल कहने लगा कि ऐ मुहम्मद (स.अ.व.व.) ! यह नज़र बन्दी है। मक्के से जो लोग बाहर गये हैं वह वापस आ जायें तो उनसे पूछूँ ? अगर वह तसदीक़ करेंगे तो मानूगा। जब बाहर से कुछ लोग वापस आये और उन्होंने भी शकुल क़मर की तस्दीक़ की तो कहने लगा कि मुहम्मद (स.अ.व.व.) ने सारी दुनिया की नज़र बन्दी की थी।

इस वाक़िये को इब्ने मसऊद , अनस बिन मालिक हुजै़फ़ा इब्ने उमर और जबीर इब्ने मुतीम वगैरा ने भी ब्यान किया है और आइम्मा मासूमीन (अ.स.) ने भी इसकी सराहत की है , सहाबये कराम भी इसके मज़हर हैं और तमाम ओलमा का भी इत्तेफाक़ है कि यह वाक़िया हुआ। बाज़ कज फहमों का कहना है कि यह वाकिया असारे क़यामत में से है और आइन्दा ज़हूर पज़ीर होगा अगर होता तो दूसेर मुमालिक के लोग भी उसे देखते हालाँकि उन्हें यह ख़बर नही है कि हिन्दुस्तान में भी यह मोजिज़ा देखा गया था , उस वक़्त यहाँ मदारियों की हुमूमत थी और बहारे दारूल सल्तनत था। तारीख़ फरशिता में यह वाक़िया मरक़ूम है।

अहले यसरब की बेदारी

वह हक़ का पेगा़म बर तो तलबगाराने हक़ की तलाश में था , वह अबरे रहमत जो प्यासों की जुस्तजू में था और वह दस्ते गीर जो इस फिक्र मे था कि कोई इसका सहारा लेने पर तैयार हो जाये आख़िर कार कुछ तलबगारों , प्यासों और सहारा लेने वालों को पा ही गया। चुनानचे साद का ब्यान है कि

(वह वक़्त आ गया कि अल्लाह की मशीयत मुक़त़ी हुई कि वह अपने दीन को नुमाया करले , अपने रसूल की मदद करे और अपने वादे को पूरा करे तो उसने आपको अन्सार के उस गिरोह तक पहुँचा दिया जिसके हक़ में इज़्ज़त और सरफराज़ी लिखी थी।)

आज का मदीना उस दौर में यशरब कहलाता था। यहाँ के दो ताक़त वर क़बीले उस और ख़ज़रिज थे जो बुत परस्ती और बाहमी जंग व जदाल में मसरूफ थे। बहुत से यहूदी भी यहाँ मुद्दत से आबाद थे जो तौरेत के मन्दरजात से वाक़िफ थे और उन्होंने अपने बुजुर्गों से भी हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) के ज़ाहिर होने और उस सर ज़मीन पर आकर आबाद होने की बशारत सुन रखी थी चुनानचे वह लोग इन क़बायल ऊस व ख़ज़रिज के सामने पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के बारे मे अक्सर व बेशतर तज़किरे किया करते थे और उन से कहा करते थे कि जब ख़ुदा का आख़िरी रसूल (स.अ.व.व.) इस शहर में तशरीफ लायेगा तो तुम्हारी यह बुत परस्ती ख़त्म हो जायेगी और तुम्हें उसके सामने सारे इताअत ख़म करना होगा। इन ख़बरों से अहले मदीना के ज़ेहनों में भी आन हज़रत (स.अ.व.व.) की आमद को एक तसव्वुर पैदा हो गया था।

हज़रत रसूले खु़दा (स.अ.व.व.) चूँकि मौसमे हज में हर क़बीले के लोगों से मिलने की सायी करते थे लेहाज़ा इसी ज़ेल में आप यशरब से आने वाले अफ़राद की तरफ़ भी पुहँच गये जो उस वक़्त अपना सर मुड़वा रहे थे। इब्ने साद का कहना है कि आप उनके पास बैठ गये और उन्हें इस्लाम की दावत दी और कुरान पढ़कर सुनाया जिस पर उन लोगो ने लब्बैक कही और ईमान लाये। फिर हज से फारिग़ होकर यही लोग मदीने गये और उन्होंने अपनी क़ौम के अफराद को इस्लाम की तरफ रुजू किया जिससे काफी लोगों ने कुबूल किया। रफ्ता रफ्ता अन्सार का कोई घर ऐसा न रहा जहाँ पैग़म्बरे इस्लाम का तज़किरा न हो।

इब्ने साद का ब्यान है कि अहले मदीना सबसे पहले इस्लाम लाने वाले असअद बिन ज़रार और ज़कवान बिन अब्दे क़ैस थे। इस वाक़िया की असल हक़ीक़त यह है कि असअद बिन ज़रारा और अबुलहसीम बिन तय्येहान दो एसे शख़्स यसरब में थे जो अपनी अक़ल सलीम की रहनुमायी से खुदा के लाशरीक होने के बारे मे आपस में गुफ़्तगू किया करते थे। चुनानचे यह असअद और ज़कवान दोनों एक बाहमी झगड़े के सिलसिले में अतबा बिन रबिया के पास मक्के गये तो अतबा ने कहा आज -कल एक शख़्स हमारे लिये मुसीबत बना हुआ है जिसकी वजह से किसी और बात की फुरसत नही है। उसका दावा है कि वह अल्लाह का रसूल (स.अ.व.व.) है। वह आसमान की बातें करता है और बुत परस्ती से लोगों को मना करता है। अतबा से यह सुनकर यह लोग उठे तो ज़कवान ने असअद से कहा कि यह तो वही दीन मालूम होता है जिसके बारे में तुम अपना ख़्याल ज़ाहेर किया करते हो। चलो , इस सिलसिले में उस शख़्स से कुछ बात करें जो अपने को रसूल (स.अ.व.व.) कहता है। इस तरह यह दोनों आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाजिर हुए आप ने उनके सामने इस्लाम की अफ़ादियत और उसूलों पर रौशनी डाली और दोनों ने उसी वक़्त इस्लाम कुबूल कर लिया। फिर यह दोनों मदीने वापस आये तो असअद ने अबुलहसीम से सारा वाक़िया ब्यान किया जिसे सुनकर अबुलहसीम ने कहा कि मैं भी तुम्हारे साथ यह गवाही देता हूँ कि वह अल्लाह के रसूल हैं। इश तरह वह भी इस्लाम लाये। यह अबुलहसीम वही हैं जो अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) के बड़े गहरे और मुख़लिस दोस्त थे जिनका ज़िक्र नहजुल बलाग़ा में मौजूद है।

अल्लामा तबरी ने आलामुल वरा में मुफ़स्सिरे क़ुरान अली बिन इब्राहीम अलेहुर रहमा के हवाले से इस वाकिये का पस मंजर बड़ी तफसील व तशरीह के साथ मरकूम किया है। फरमाते हैं कि ऊस व ख़ज़रिज़ में मुद्दत दराज़ से ऐसी जंग थी कि दिन और रात में किसी वक़्त यह लोग अपने जिस्म से हथियार जुदा नहीं करते थे चुनानचे उनके दरमियान जो आख़िरी मारका हुआ वह बग़ास का था जिसमें क़बीला ऊस , ख़ज़रिज के मुक़ाबले में फतहयाब हुआ था। असअद बिन ज़रारा और ज़कवान बिन क़ैस दोनों का ताअल्लुक़ ख़ज़रिज से था यह लोग माहे रजब में उमरे के दौरान इस मक़सद के तहत मक्के गये कि अहले मक्का को क़बीलये ऊस के ख़िलाफ अपना हलीफ बनायेंगे। असअद बिन ज़रारा और अतबा बिन रबिया में पुरानी दोस्थी थी इसिलए असअद ने अतबा ही के यहाँ क़याम किया और अपना मक़सद बयान किया। अतबा ने कहा अव्वल तो तुम्हारा शहर हम से दूर है दूसरे यह कि आज कल हमें एक ऐसी फिक्र है कि जिसकी वजह से किसी दूसरी मुहीम में हम हाथ नहीं डाल सकते इस पर असअद ने तफ़सील पूछी तो अतबा ने जनाबे रिसालत माब (स.अ.व.व.) और उनकी दावते इस्लामी का हाल ब्यान किया।

यह लोग अपने यहाँ के यहूदियों से आखिरी रसूल (स.अ.व.व.) और उनकी दावते तौहीद के बारे में सब कुछ सुन चुके थे लेहाज़ा उन्होंने पूछा कि वह इस वक़्त कहाँ है ? कहा , हुजरए इस्माईल (अ.स.) में बैठे हैं मगर उनके पास न जाना और न उनका कलाम सुना वरना वह जादूगर हैं तुम पर सहर का असर ज़रुर हो जायेगा। असअद ने कहा , मैं उमरे का एहराम बाँधे हुए हूँ , तवाफ की ग़र्ज से मेरा उधर जाना लाज़मी है। अतबा ने कहा , अच्छा , तो फिर जाओ मगर अपने कान बन्द रखना ताकि उसकी बातें तुम न सुन सको।

उस वक़्त तो असअद ने मेज़बान से कहने पर अमल किया और अपने कानों में रूई रख ली मगर दौराने तवाफ उसने सोचा कि मुझसे बढ़कर जाहिल कौन होगा कि मैं मक्का से अपने शहर वापस जाऊँ और इस अहम वाकिये के मुतालिक़ जो मक्के में रुनूमा है कुछ न मालूम करूँ ? यह तो इन्तेहाई हिमाक़त है। यह ख़्याल आते ही उसने रूई कानों से निकाली और आन हज़रत (स.अ.व.व.) के क़रीब आकर उसने दस्तूरे अरब के मुताबिक सलाम किया। रसूले अकरम (स.अ.व.व.) ने सर उठाकर उसे देखा और फरमाया अल्लाह ने हमको इससे बेहतर सलाम का तरीक़ा बताया है जो अहले बेहिश्त का सलाम है यानि सलामुन अलैकुम! असअद ने कहा और क्या चीज़ें हैं जिनकी तरफ़ आप दावत देत हैं ? आपने फरमाया ,

(इस अमर की गवाही कि अल्लाह के सिवा और कोई माबूद नहीं है और यह कि मैं अल्लाह का पैग़म्बर हूँ और मैं उस अमर की दावत देना चाहता हूँ कि किसी भी शय को अल्लाह के साथ शरीक न करो। माँ बाप से हुस्ने सुलूक और एहसान करो और फक़रो फाक़े के ख़ौफ से अपनी औलाद को क़त्ल न करो क्योंकि परवरदिगार का इरशाद है कि हम तुम्हें रिज़्क पहुँचाने वाले हैं। फहश कामों से परहेज़ करो ख़्वाह वह ज़ाहिर में हो या बातिन में। किसी वे गुनाह को क़त्ल न करो किसी यतीम के माल पर नज़र न डालो। नाप तोल में इन्साफ से काम लो और अल्लाह के अहद को पूरा करो। यह सब हिदायतें तुम्हारे लिये हैं शायद तुम इन्हें कुबूल कर लो।)

एक तरफ आन हज़रत (स.अ.व.व.) की तक़रीरी गुफ्तगू आगे बढ़ रही थी और दूसरी तरफ़ सुनने वाले के दिलो दिमाग़ में हक़ की रौशनी पैदा हो रही थी चुनानचे इधर आपकी तक़रीर का सिलसिला ख़त्म हुआ और उधर असअद की ज़बान से बेसाख़्ता कलेमात निकले कि मैं गवाही देता हूँ , बेशक अल्लाह के सिवा कोई दूसरा ख़ुदा नहीं है और आप यक़ीनन अल्लाह के पैग़म्बर हैं।

इसके बाद असअद ने कहा या रसूल उल्लाह मैं यसरब के क़बीले ख़िज़रिज़ से हूँ और हमारे नीज़ क़बीला ऊस के दरमियान ब्रादराना तालूक़ात मुनक़ेता हैं अगर आपकी वजह यह तअल्लुक़ात इस्तवार हो जाये तो यक़ीनन हम पर आपका बहुत बड़ा एहसान होगा।

इस गुफ्तगू के बाद असअद रुख़सत हुए और उन्होंने आकर अपने साथी ज़कवान को तमाम हालात से मुत्तेला किया और कहा कि यह वही आख़िरी रसूल हैं जिनके बारे मे यहूदी ओलमा हमें बताया करते थे , चलो तुम भी इस्लाम कुबूल कर लो। चुनानचे ज़कवान भी रसूले अकरम (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाज़िर हुए और उन्होंने भी इस्लाम कुबूल कर लिया फिर दोनों ने मदीने में आकर तबलीग़ की जिस के नतीजे में बहुत लोग मुसलमान हुए।

मेराज ए नबी (स.अ.व.व.)

अल्लामा ज़ीशान हैदर जव्वादी रक़म तराज़ है-

(27 रजब की शब आलमे इस्लाम में वह अज़ीर रात है जिसे (शबे मेराज) कहा जाता है। मेराज की दास्तान कुरान मजीद में दो मुक़ाम पर तफसील के साथ ब्यान हुई है। एक मर्तबा सूरये असरा में और दूसरी मर्तबा सूरये वननज्म में। बाज़ ओलमाये कराम ने उन्हें खुसूसियात के पेश नज़र यह रास्ता इख़तियार किया है कि सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) को कम अज़ कम दो मर्तबा मेराज हुई है। एक का हाल सूरये असरा में ब्यान हुआ है जिसका ज़ाहिर सफ़र मस्जिदे अक़सा पर तमाम हो गया था और दूसरी का तज़किरा सूरये वननज्म में है जहाँ सिदरतुल मुनतहा और क़ाबा क़ौसैन तक तजकिरा है। इस सिलसिले में यह इहतेमाल भी पाया जाता है कि यह दो सफर हों और यह इहतेमाल भीहै कि एक ही सफर दो मरहलों में हों। एक मरहला मस्जिदे अक़सा पर तमाम हुआ और दूसरा मरहला मस्जिदे अक़सा से शुरू हुआ हो और अरशे आज़म पर तमाम हुआ हो। बहर हाल सूरते वाक़िया कुछ भी हो। न सरकार (स.अ.व.व.) की मेराज में कोई शक हो सकता है और रवायात के पेशे नज़र तादाद में कोई शक किया जा सकता है।)

तारीख़े अबुलफ़िदा में है कि जनाबे अबुतालिब की वफात से क़बल मेराज हुई जबकि जौज़ी का ख्याल है कि हज़रत अबुतालिब की वफाक ते बाद नबूवत के बारहवें साल मेराज हुई। तफसीर सेयवती में अम्र बिन शुऐब से मरवी है कि हजिरत से एक साल पहले सत्तरवीं रबीअव्वल की शब में आन हज़रत (स.अ.व.व.) मर्तबे मेराज पर फायज़ हुए। मुल्ला अली क़ारी शरहफिक़ए अकबर में फरमाते हैं कि वाक़िया मेराज जसदि यानि रसूले मक़बूल का बहालत बेदारी समावत व मुक़ामाते आलिया की सैर फरमान हक़ है और उसकी हदीसें तारीख़े मुत्ताइदा से साबित है बस जो शख़्स कि मेराजे जिस्मानी की तरदीद कर ले और उसकी सेहत पर ईमान न लाये वह गुमराह और बिदअदी है। इब्ने इसहाक़ और इब्ने जरीर ने हज़रत आयशा से रवायत की हैकि शबे मेराज रसूल (स.अ.व.व.) का जसदे अक़दस अपनी जगह पर बरक़ारर रहा और अल्लाह ताला ने अपनी रूहें अतहर को आसमानों की सैर करायी।

मुनदर्जा बाला तहरीरों से यह बात वाज़ेह और आशकार हो जाती है कि मेराजे पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के सिलसिले में ओलमा , मोअर्रेख़ीन और मुहद्देसीन ने क़दम क़दम पर इख़तेलाफ़ किया है मेराज की इब्तदा कहाँ से हुई ? कब हुई ? किस शक्ल मे हुई ? जिस्मानी हुई या रूहानी ? वह कौन सी तारीख़ और कौन सा साल था ? चौदह सौ बरस के अरसे में ओलमा तय न कर सके। इस ज़ैल में जानबीन के ओलमा की तरफ़ से ख़ूब ख़ूब ख़ामा फरसाइयां और मार्का आराइयां हुयीं हैं और मोहकि़क़ तूसी , इमाम ग़ज़ाली हैं और हर तरीक़ें से हुजूरे अकरम (स.अ.व.व.) की मेराजे जिसमानी और उसकी माकूलियत के तमाम असबाब व मुशाहेदात को एन इमकानी क़रार दिया है और यही दुरूस्त भी है क्योंकि आंहज़रत की ख़िलक़ते नूरी थी और नूर की रफ्तार का अन्दाज़ा इसस हो सकता है कि इन्सानी आँख का नूर एक सेकेण्ड से भी कम वाक़फ़े में चाँद और सितारों का जायेज़ा ले लेता है तो जो नूरे मुजस्सम हो उसका आसमान पर जाना , वहाँ की सैर करना और इस वक़फ़े में पलट आना कि जज़ीरे दर हिलती रहे , ताज्जुब खेज़ हरगिज़ नहीं हो सकता।

शिया ओलमा ने मेराज की जो हक़ीक़त ब्यान की है वह यह है कि 27 रजब सन् 216 बेइस्त की रात को ख़ल्लाक़े आलम ने अपने हबीब हज़र मुहम्मद मुस्तफा (स.अ.व.व.) को जिबरील और बुर्राक़ के ज़रिये क़ाबा क़ौसैन की मंजि़ल पर तलब फरमाया और वहाँ हज़रत अली इब्ने अबुतालिब (अ.स.) की ख़िलाफत व इमामत से मुतालिक़ हिदायतें दी। इसी मुबारक और इरतेक़ायी सफर को मेराज के नाम से याद किया जाता है। यह सफर उम्मे हानि बिन्ते जनाबे अब्दुल मुत्तालिब के घर से शुरू हुआ था। आप पहले बैतुल मुक़द्दस गये और वहाँ से आसमान पर रवाना हुए। तमाम आसमानी मनाज़िल को तय करते हुए जब आप सिदरतुन मुनतहा तक पहुँचे तो जिबरील ने कहा या रसूल उल्लाह अगर इसके आगे मैं एक क़दम बढ़ा तो जल जाऊँगा। चुनानचे वहाँ आप ने जिबरील को छोड़ा और रफरफ पर बैठकर आगे बढ़े। रफरफ एक नूरी तख़्त था जो नूर के दरिया में रवां दवां था। यहाँ तक कि आप इस मंज़िले मक़सूद तक पुहँच गये जहाँ से आप और हिजाबात व अनवारे इलाही के दरमियान सिर्फ दो कमानों का फासला रह गया , वहाँ परवर दिगार ने आपसे अली (अ.स.) के लहजे में बातें कीं और आप वापस आये। आपकी वापसी के वाद उम्मते इस्लामिया पर पाँच वक़्त की नमाज़ वाजिब की गयी।

मदीना और अन्सार

मदीने का असली नाम यसरब था। बनि अमालेक़ा में यसरब नामी एक रईस क़बीले ने इस शहर को अपने नाम से आबाद किया था। रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ने जब यहाँ क़याम फ़रमाया तो उसका नाम मदीनतुल नबी हुआ और कसरते इस्तेमाल की वजह स मदीना कहा जाने लगा।

बख़्ते नसर ने जब बैतुल मुक़द्दस पर हमला करके उसे तबाह व बरबाद और यहूदियो का क़त्ले आम किया तो वह परेशानी के आलम में वहाँ से मुनतशिर हो कर इधर उधर भागे और मुख़तलिफ़ मुक़ामात पर पनाह गुज़ीर हुए। उन्हीं अय्याम में कुछ यहूदी यहाँ भी आकर आबाद हुए और रफ्ता रफ्ता उनकी नस्लों ने यसरब के पूरे इलाक़े पर अपना तसल्लुत जमा लिया और वहाँ के क़दीम बाशिन्दों से हुकूमत भी छीन ली जिसके नतीजे में उनकी अमारत व इक़तेदार का असर वादिउल क़ुरा तीमा और ख़ैबर तक फैल गया।

अन्सार-क़हतान (जुरहुम ऊला) की औलाद से यमन के बाशिन्दे थे। यमन में जब सेले अरम का वाकिया रुनूमाहुआ तो यह लोग भी वहाँ से निकल कर मदीने में आबाद हुए। (ऊस और ख़ज़रिज़)। यह दोनं भाई थे और तमाम अन्सार उन्हीं दोनों भाईयों की नस्ल से हैं। जब यह खानदान मदीने में आबाद हुआ उस वक़्त वहाँ यहूदियों का इक़तेदार व असर था। आस पास के तमाम इलाक़े उनके क़बज़े में थे और वह लोग दौलत से माला माल थे और चूँकि औलाद की कसरत से उनकी तादाद काफी बढ़ चुकी थी इसलिए उनके मुख़तलिफ़ क़बीले बन गये थे और उन लोगों ने दूर दूर तक बस्तियां बसा ली थी।

अन्सार कुछ ज़माने तक अलग रहे लेकिन उनका इक़तेदार व असर देखकर बिल आख़िर उनके हलीफ़ बन गये और एक मुद्दत तक ह हालात बरक़रार रही लेकिन अब अन्सार का ख़ानदान भी फैलता जाता था और इक़तेदार हासिल करता जाता था इसलिए यहूदियों ने दूर अन्देशी के तहत उनसे अपने तमाम मुहायिदे जो बाहमी मराआत के बारे में थे , तो़ड दिये। फिर यहूदियों में फैतून नामी एक रईस पैदा हुआ जो इन्तेहाई बदकार और अय्याश था। उसने यह हुक्म दिया कि जो भी दोशीज़ा लड़की ब्याही जाये वह पहले उसके शाबिस्ताने ऐश में लायी जाये। यहूद ने तो इसको गवारा कर लिया जब अन्सार की नौबत आयी तो उन लोगों ने सरताबी की उस वक़्त अन्सार का सरदार मालिक इब्ने अजलान नामी एक शख़्स था। उसकी बहन की शादी हुई तो ऐन शादी के दिन घर से वह बे पर्दा निकलकर मालिक इब्ने इजलान के सामने से गुज़री तो मालिक को ग़ौरत आयी वह उठकर घर में आया और बहन को ड़ाँटा फटकारा। उसने कहा , कल फैतून के इशरत क़दे में जो होगा वह इस पेबर्दगी से कहीं ज्यादा है। मालिक ने कहा तू इसकी परवाह न कर मैं देख लूंगा।

दूसरे दिन जब हस्बे दस्तूर मालिक की बहन दुल्हन बनकर फैतून की ख़लवतगाह में गयी तो मालिक भी औरतों की लिबास पहनकर सहेलियों के साथ वहाँ गया और फैतून को क़त्ल करके शाम की तरफ भाग खड़ा हुआ। शाम में ग़सानियों की हुकूमत थी और अबुहीला नामी एक शख़्स वहाँ का हुक्मरान था उसने जब यह हालात सुने तो एक लश्कर ले कर वह मदीने आय़ा वहाँ उसने यहूदियों की दावत की और दावत के बाद एक एक क़त्ल कर दिया इस तरह यहूदियों का इक़तेदार ख़त्म हो गया और अन्सार ने पूरी कुवत हासिल कर ली। उन्होने मदीने और उसके गिर्द नवाह में छोटे छोटे किले बनाये और एक ज़माने तक मुत्ताहिद रहे लेकिन फिर अरब की सख़्त खूँरेज़ लडाईयाँ हुयी। सबस आखिरी लड़ाई जो तारीख़ में बेग़ास के नाम से मशहूर है इस तरह हुई कि ऊस और खिज़रिज दोनों खानदानों के तमाम नामवर अफ़राद लड़ ल़़ कर मर गे और यह हालात हो गयी कि उन्होंन कुरैशे मक्का के पास सिफारिश भेजी कि हम को अपनी हलीफ बना लीजिये बुत परस्त थे ताहम यहूदियों से मेल जोल था इसलिए वह नबूवत और कुतबे आसमानी से गोश आशना थे। यहूदियों ने मदीने में जो मदारिस क़ायम किये थे उन्हें बैतुल मदारिस कहा जाता था और उनमें तौरैत की तालीम दी जाती थी। उससे यहूद के इल्मो तफ़वुक़ का इसर अनसार की तबियतों पर पड़ता था यहाँ तक कि अन्सार में जिसकी औलाद जि़न्दा नहीं रहती थी वह मन्नत मानता था कि बच्चा ज़िन्दा रहेगा तो वह उसे यहूदी बनायेगा। यहूदी अमूमन बा यक़ीन और अक़ीदा रखते थे कि एक पैग़म्बर अभी और आने वाला है। इस बिना पर अन्सार में पहला शख़्स जो इस्लाम से मुशर्रफ हुआ वह सुवैद बिन सामित था जिसके बारे में मोअर्रेख़ीन तहरीर किया है कि वह एक बहुत बड़ा शायर , दानिश्वर , शुजा और दिलेर था। और इल्मी फ़ज़ल व कमाल में आफाफ़ी शोहरत का मालिक था अपने क़ौम व क़बीले मे वह कामिल के लक़ब से पुकारा जाता था।

अल्लामा शिबली रक़म तराज़ है कि सुईद बिन सामित को इमसाल लुक़मान का एक नुसख़ा मिल गया था जिसको वह आसमानी सहीफा समझता था। वह एक दफा हज को गया। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने उसके हालात सुने तो खुद उसके पास तशरीफ ले गये उसने इमसाल लुक़मान पढ़कर सुनाया आपने फरमाया मेरे पास इससे बेहतर चीज़ है। यह कह कर कुरान मजीद की चन्द आयतें पढ़ीं। सुईद ने तहसीन की। अगर चे वह मदीने वापस आकर जंगे बगा़स में मारा गया लेकिन इस्लाम का मोतेकि़द हो चुका था।

बईते अक़बा औला

(अहले यसरब की बेदारी) के ज़ेल में असअद बिन ज़रारा और ज़कवान बिन क़ैस के मुतालिक़ हम यह तहरीर कर चुके हैं कि क़बीलयते ख़िज़रिज के यचह दोनों हज़रात अव्वलन रसूले अकरम (स.अ.व.व.) की मुलाक़ात से शरफयाब हुए , इस्लाम लाये और फिर मक्के से मदीने में वापस आकर उन्होंने इस्लाम की तबलीग़ की और दीगर लोगों को मुसलमान किया। और हक़ीक़तन वाक़िया भी यही है लेकिन बाज़ मोअर्रिक़ ने इस पहली जमात को जिसके ज़रिये इस्लाम मदीने में पहुँचा , छः अफराद पर मुशतमिल बताया है।

इसके बाद इब्ने सईद का ब्यान है कि दूसरे साल फिर मौसमें हज में मदीने से बारह आदमी मक्के मोअज़्ज़मा गये और उन्होंने हज़रत रसूले खु़दा (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाज़िर हो कर आपको हाथों पर बैअत की और इसलाम कुबूल किया। फिर यह लोग मदीने वापस हुए और उनकी तबलीग़ से इस्लाम हर तरफ मदीने में फैल गया। अभी तक अशद बिन ज़रारा मुसलमानों को नमाज़े जमात पढ़ाते थे इस के बाद क़बीले ऊस व ख़िज़रिज़ ने मिल कर आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में एक अर्ज़दाश्त पेश की कि कोई हाफिज़े कुरान हमारी तरफ भेज दें ताकि वह हमें नमाज़ पढ़ाये और कुरान हिफज़ कराये चुनानच आपने उनकी इस दरख़्वास्त पर मसअब बिन उमैर को रवाना किया। यह असद बिन ज़रारा के मकान पर फरोकश हुए और लोगों को कुरान की तालीम देने लगे। लेकिन तबरी की रवायत यह बताती है कि असद और ज़कवान ही ने आन हज़रत (स.अ.व.व.) से यह दरख़्वास्त की थी कि हमारे साथ एक आदमी भेज दें जो हमें कुरान पढ़ाये और इस्लाम की तबलीग़ करें उस पर आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने मुसाब बिन अमीर को रवाना किया)

(मुसाब एक कम उम्र नौजवान थे। जिन्होने अपने दौलतमंद वालैदेन के घर में बड़े नाज़ व नेअम से परवरिश पायी थी और अपने तमाम भाई बहनों में सबसे ज़्यादा माँ बाप के चहीते थे। कभी मक्के से बाहर क़दम न निकाला था मगर उन्होंने जब इस्लाम इख़तियार किया तो उनके वालदैन ने उन पर बड़ी सख्तियां की और घर से निकाल दिया चुनानचे यह रसूल अल्लाह (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में आ गये और उन्होंने आन हज़रत (स.अ.व.व.) के साथ शोअबे अबुतालब में रहकर मुहासिरे की सख़्तियाँ भी झेली। उस वक़्त तक जितना भी कुरान नाज़िल हुआ था वह सब उन्होंने हिफज़ कर लिया था और रसूल (स.अ.व.व.) के साथ रहकर मसाएले शरिया से वाक़िफ हो गये थे। पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने उन्हें हुक्म दिया कि वह मदीने जायें चुनानचे वह मदीने पुहँचे और असद के यहाँ क़याम किया। रोज़ान यह क़बीले खिज़रिज के लोगों के पास जाते थे और उन्हें इस्लाम की दावत दिया करते थे। ज़्यादा तर नौजवान तबके उनकी तबलीग़ से मुतासिर होकर इस्लाम कुबूल करने पर आमादा होता था।

उन बारह आदमियो ने पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) के हाथों पर जहाँ बैअत की और इस्लाम इख़तेयार किया वह अक़बा यानि पहाड़ की एक खाई थी जो मक्के से थोड़े फासले पर शुमाल की जानिब वाक़े है। मोअर्रिख़ अबुल फिदा का कहना है कि इस अहद के सात बैयत हुई कि ख़ुदा का कोई शरीक न करो , चोरी न करो , ज़िनाकारी से बचो और अपनी औलाद को क़त्ल न करो। यही वह बहैयत है जो बैयते अक़बा ऊला के नाम से मशहूर है।

बैयते अक़बा सानिया

माह ज़िलहिज सन् 12 बइस्त में मसअब बिन अमीर 75 आदमियों का एक क़ाफिला जिसमें दो औरतें भी शामिल थीं लेकर मदीने से मक्के आये और उन्होंने रसूले अकरम (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में पेश किया। चूँकि उश वक़्त किसी तफसीली गुफ़्तगू का मौक़ा नहीं था इसिलए आपने फरमाया कि हज से फराग़त के बाद 12 ज़िलहिज को जब रात की तारीकी छा जाये और सन्नाटा हो जाये तो कामोशी से मुक़ामे अक़बा के निचले हिस्से मे स लोग आकर जमा होना तो वहाँ तफसील से गुफ्तगू होगी। चुनानचे वह लोग मोअय्यना वक़्त पर अब्बास इब्ने अब्दुल मुत्तालिब की क़यादत में वहाँ पहुँच गये। लेकिन बकौ़ल अल्लामा तबरी आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने अक़बा के मुक़ाम पर गुफ्तगू मुनासिब न समझी और उन्हें ख़ान-ए-अब्दुल मुत्तालिब में जमा होने का हुक्म दिया और पूरी बात चीत वहाँ हुई इस मौक़े पर जनाबे हमज़ा और हज़रत अली (अ.स.) भी मौजूद थे। अहले मदीना में ज़्यादा तर ऐसे थे जो मसअब बिन अमीर की तहरीक पर इस्लाम कुबूल कर चुके थे और कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अभी तक यह शरफ हासिल नहीं किया था उनमें अब्दुल्लाह इब्ने अबी भी शामिल थे।) गुफ्तगू का आगाज़ जनाबे अब्बास बिन अब्दुल मुत्तालिब की एक फसीह व बलीग़ तक़रीर से हुआ जिसके बाद अहले मदीने की तरफ़ से बरा बिन मारूर खड़े हुए और उन्होंने कहा-

(जो कुछ आपने फरमाया वह हम ने सुना। हम आपको इत्मेनान दिलाते हैं कि हमने खूब सोच लिया है और तय कर लिया है कि सच्चाई और वफादारी में किसी तरह की कोई कमी न करेंगे और पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) की नुसरत में अपनी जानें कुर्बान करने में कोई दरेग़ न करेगें)

यह सुनकर आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने चन्द आयते कुरानी की तलावत फ़रमायी और बैअत के लिये हाथ बढ़ाया। जिस पर सबसे पहले बर्रा इब्ने मारूर और मक़ौले अबुल हसीम बिन तबहान ने बैयत की। उसके बाद बाक़ी आदमियों ने बैयत की और जो उनमें से मुलमान न थे उन्होंने उसी वक़्त इस्लाब कुबूल किया।

अल्लामा तिबरसी का कहना है कि बैयत के बाद आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने अहले मदीने से फरमाया कि तुम लोग अपने में से बाहर नक़ीबों (ज़िम्मेदार मुमाइन्दों) को मुनतख़ब करके उनके नाम बताओ जो तुम्हरी तरफ़ से जवाब देही के जिम्मेदार हो। चुनानचे क़बीलये ख़िज़रिज में से नौ आदमी असद बिन ज़रारा , बर्रा इब्ने मारूर , अबुद्लालह बिन हाज़म (जनाबे जाबिर के वालिद) सफ़े बिन मालिक , साद बिन अबादा , मंज़र बिन अम्र , अब्दुल्लाह इब्ने रवाहा , साद बिन रबी और एबादा बिन सामित नक़ीब मुकर्रर हुए नीज़ क़बीले ऊस से तीन आदमी अबुल हसीम बिन तीहान , असीद बिन हजीर और साद बिन ख़ीमसा मुक़र्रर हुए। उसके बाद उन लोगों ने आन हज़रत (स.अ.व.व.) से मदीने चलने के लिये इसरार किया तो आपने फरमाया कि अभी हुक्मे इलाही का मुन्तज़िर हूँ। इस्लाम की तारीख़ में यह बैयत , बैयते अक़बा सानिया के नाम से मौसूम है।

असहाब की रवानगी

जब किसी मिशन की तकमील के लिये एक पूरी जमियत तैयार हो चुकी हो तो ऐसी हालत में महज़ अपनी जान की तहाफ़्फुज़ के ख़ातिर मरकज़ छोड़ कर किसी दूसरी जगह मुनतक़िल हो जाना फरार के मुतरादिफ है। फ़रार करने वाला यह नहीं सोचता कि दूसरों का क्या हाल होगा। मगर मिशन के मक़सद की ख़ातिर किसी मुनासिब मरकज़ की तलाश करके अपनी जगह से हरकत करना हिजरत करने वाला पूरे साज़ो सामान और इन्तेजा़म के साथ हिजरत करता है उसके सामने फक़्त अपनी जान का मसला नहीं होता बल्कि पूरी जमाअत के मुफाद का मसला होता है। अगर रसूले अकरम (स.अ.व.व.) को सिर्फ अपनी जान बचा कर जाना होता तो मदीने वालों की इतनी बड़ी जमाअत मौजूद थी जो आपको अपनी मय्यत में ले जाना चाह रही थी मगर आपने उनकी दरख़्वास्त कुबूल नहीं किया और यह कह दिया कि (आभी मैं हुक्मे इलाही का मुन्तजिर हूँ)

यह हुक्मे इलाही क्या था ? इन तमाम इन्तेज़ामी ऊमूर की तकमील जो जमाअत के तहाफुज़ और इख़लाक़ी जिम्मेदारियों के तक़ाज़ों को पूरा करने के लिये बहर हाल ज़रुरी थी। चुननचे अहद व पैमान के बाद अहले मदीना तो वापस चले गये मगर कुफ्फारे मक्का को जब यह हाल मालूम हुआ तो उन्होंने अज़ सरे नौ मुसलमानों पर मज़ालिम और तशद्दुद की बारिश कर दी यहाँ तक कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) के क़त्ल का मनसूबा भी तैयार कर लिया। इन्हीं नासाज़गार और जान लेवा हालात की नज़ाकत के पेशे नज़र आपने तमाम मुसलमानों को यह हुक्म दिया कि वह लोग रफ़्ता रफ्ता मदीने की तरफ रवाना हो।

तीरख़ी की यह सराहत है कि इस हुक्मे पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के बाद मक्के में चार छः आदमियों के अलावा कोई मुसलमान नहीं रह गया। या तो वह लोग रह गये जो क़ैद थे या फिर वह हर गये जो दरमांदा और बीमार थे जिनका जाना किसी तरह मुम्किन ही न था।

पैग़म्बर इस्लाम (स.अ.व.व.) की हिजरत

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) की हिजरत के पस मन्ज़र में आम इन्सान ज़ेहन सतही तौर पर यह सोचता है कि मुशरेकीन मक्का ने चूँकि आपके क़त्ल का इरादा कर लिया था इसलिये आपने हिजरत फरमायी। इससे यह महसूस होता है कि आनहज़रत (स.अ.व.व.) की हिजरत महज़ जान बचाने की ख़ातिर थी। हालाँकि तारीख़ यह निशान देही करती है कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने हिजरते हब्शा के मौक़े पर ही अपनी हिजरत का मनसूबा ज़ेहनी तौर पर मुर्त्तब कर लिया थआ और अब अमली हैसियत से यह हिजरत इसी मनसूबे की तकमील थी।

ज़ाहिर है कि कुफ्फारे कुरैश को आनहज़रत या मुसलमानों से ज़ाती अदावत या दुश्मनी होती तो वह लोग हिजरत से खुश होते कि सर का दर्द गया। मगर उन्हें तो इस मक़सद और मिशन से दुश्मनी थी जिसकी तरक़्क़ी से वह ख़ुद अपने लिये खतरा महसूस कर रहे थे लेहाज़ा जब उन्होंने यह देखा कि मुसलमानों को अहले यसरब की हिमायत और पुश्त पनाही हासिल हो गया है तो उन्हें यह फिक्र लाहक़ हुई कि जिस तरह तमाम मुसलमान तरके वतन करके मदीने की तरफ जा रहे हैं उसी तरह अगर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) भी चले गये तो यही जमाअत एक दिन हमारे ख़िलाफ उठ खड़ी होगी। इस लिए उन्होंने फैसला किया कि मक्का छोड़ने से पहले ही आन हज़रत (स.अ.व.व.) की शम्मे हयात गुल कर दें ताकि आइन्दा कोई गुंजाइश ही न रह जाये। इससे साफ़ ज़ाहेर है कि क़त्ल के अन्देशे की बिना पर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की हिजरत नहीं हुई बल्कि इरादा-ए-हिजरत के बाद आपके क़त्ल का मनसूबा तैयार किया गया। जैसा कि इब्ने साद का बयान है किः- (जब मुशरेकीन ने दैखा कि असहाबे पैग़म्बर (स.अ.व.व.) अपने साथ औरतों और बच्चों को भी ऊस व ख़िज़रिज की तरफ ले गये हैं तो वह यह समझे कि वह उनके लिये का़बिले इत्मेनान और महफूज़ मुक़ाम है और वह एक ताक़तवर जमात है तो उन्हें अन्देशा हुआ कि रसूल (स.अ.व.व.) भी वहाँ पहुँच जायेंगे लेहाज़ा यह लोग दारूल नदवा में जमा हुए तो आपके बारे में बाहम मशविरा करें।)

अल्लामा तबरिसी का बयान है कि दारूल नदवा में अशराफे कुरैश में से चालिस अफराद का मजमा था और शुरका पर यह पाबन्दी थी कि चालीस बरस से कम उम्र का कोई आदमी शरीक न हो सिर्फ एक अतबा बिन रबिया (मुआविया का नाना) ऐसा था जिसकी उम्र चालीस साल से कुछ कम थी।

अल्लामा दायर बकरी का कहना है कि (इस मजलिसे मुशवरत में बनी हाशिम के अलावा तमाम क़बीलों के सरकिरदा अफराद ने शिरकत की। बनि अब्दुल शमस से अतबा , शीबा और अबुसुफियान। बनि नौफिल से तईमा इब्ने अदी व जबीर इब्ने मोतम व हारिस बिन आमिर। बनि अब्दुल दार से नफ़र बिन हारिस , बनि असद से अबुल बख़तरी , इब्ने हष्शाम , ज़मआ इब्ने असवाद से नबिया और मुनबा पिसराने हज्जाज। बनि जमा से उमय्या इब्ने ख़लफ। इन अमाएदीन व शयूख़ के अलावा और लोग भी शरीक हुए और नज्द का एक बूढ़ा भी उनमें आकर शामिल हो गया।)

उनमें से एक शख्स ने कार्रवायी का आग़ाज़ करते हुए कहा कि तुम लोगों को मालूम है कि मुसलमानों ने बाहर के लोगों से राबता क़ायम कर लिया है और वह किसी वक़्त भी बड़ी ताक़त बन कर उभर सकते हैं। हमें इस मसले पर ग़ौर व फिक्र करने की ज़रुरत है। अगर इसकी रोक थाम न की गयी तो क़वी अन्देशा है कि वह एक न एक दिन मुहम्मद (स.अ.व.व.) की क़यादत में हम पर चढ़ायी कर देंगे लेहाज़ा कोई ऐसी तदबीर करना चाहिये कि इस्लाम का किस्सा तमाम हो जाये और मुहम्मद (स.अ.व.व.) को ऐसी इबरतनाक सज़ा दी जाये कि आइन्दा किसी को हमारे दीन व मज़हब के ख़िलाफ़ लब कुशाई की जसारत न हो। आस इब्ने वायल उमय्या बिन ख़लफ़ और अबी बिन ख़लक़ ने कहा कि हमारी राय यह है कि मुहम्मद (स.अ.व.व.) को तौक़ व जंज़ीर में जकड़ कर किसी कोठरी में बन्द कर दिया जाये यहाँ तक कि क़ैदे तन्हाई में वह भूक और प्यास से तड़प तड़प कर मर जायें। उस पर शेख़ नजदी ने कहा कि यह इक़दाम मुनासिब न होगा , अगर ऐसा किया गया तो उनके क़ौम क़बीले और मानने वाले हमला करके उन्हें निकाल ले जायेंगे और तुम मुँह देखते रह जाओगे। अतबा , शीबा और अबुसुफियान ने कहा कि उन्हें जिला वतन कर देना चाहिये ताकि हमारे ख़ुदाओं के खिलाफ कोई आवाज़ हम तक न पहुँचे। शेख़ नजदी की इस राये से भी इख़तेलाफ़ किया और कहा वह जहाँ भी जायेंगे अपनु कुवते लिसानी से लोगों को अपना हमनवा बना कर तुम्हारे ख़िलाफ उठ खड़े होंगे , फिर न तुम उन्हें रोक सकोगे और न उनका मुक़ाबला कर सकोगे। अबुजहल ने कहा कि मेरी राय यह है कि हर क़बीले से मज़बूत और ताक़तवर जवावन मुनख़तब किये जायें और वह सब मिल कर उन्हें क़त्ल कर दें। इस सूरत में किसी एक क़बीले या एक फर्द को मुलाज़िम क़रार न दिया जा सकेगा बल्कि तमाम क़बाएल उसमें शरीक समझे जायेंगे और बनि हाशिम के इम्कान से यह बाहर होगा कि यह तमाम क़बायले अरब से जंग छेड़े या ख़ून का बदला खून चाहें लेहाज़ा वह क़सास के बजाये दैत पर राज़ी हहो जायेंगे और हम सब मिलकर बड़ी आसानी से दैत अदा कर देंगे। यह राय सबने पसन्द की और शेख़ नजदी ने भी उसे सराहा।

इस क़रार दाद को अमली जामा पहनाने के लिये यह तय किया गया कि सरे शाम आन हज़रत पर कड़ी नज़र रखे ताकि हमले कु सुन गुन पाकर इधऱ उधर न हो जायें और जब अँधेरा छा जाये तो तमाम नौजवान घऱ के अन्दर घुस कर उन्हें क़त्ल कर दें।

इधर कुफ्फारे कुरैश सरवरे कायनात (स.अ.व.व.) के क़त्ल का मनसूबा तैयार कर रहे थे और उधऱ नापाक अज़ाएम से पैग़म्बर (स.अ.व.व.) को बाख़बर कर दिया चुनानचे कुराने मजीद में इरशादे इलाही है किः-

(ऐ रसूल (स.अ.व.व.) ! वह वक़्त याद करो जब कुफ्फार तुम्हारे ख़िलाफ मनसूबा तैयार कर रहे थे कि तुम्हें किसी जगह बन्द कर दें या कत्ल कर डालें या जिला वतन कर दें। वह अपना मनसूबा तैयार कर रहे थे और अल्लाह अपना मनसूबा बना रहा था और अल्लाह से बढ़कर किसी का मनसूबा नहीं हो सकता) (इन्फाल आयत 30)

इब्ने सईद का ब्यान है कि जिबरीले अमीन रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) के पास आये और आपको वाकि़ये की इत्तेलाह दी और यह हुक्मे इलाही पहुँचाया कि आज की रात आप अपने बिस्तर पर आराम न फरमायें।

उसके बाद आपने हज़रत अली (अ.स.) को तलब किया और कहा ऐ अली (स.अ.व.व.) ! कुरैश ने यह फैसला किया है कि वह आज की रात मुझे क़त्ल कर दें और मेरे अल्लाह ने मुझे यह हुक्म दिया है कि मैं मक्का छोड़करस मदीने चला जाऊँ और तुम्हें अपने बिस्तर पर सुला दूँ लेहाज़ा तुम मेरी सबज़ चादर ओढ़कर मेरे बिस्तर पर सो जाओ तुम्हें दुश्मनों से महफूज़ रखेगा।

हज़रत अली (अ.स.) ने बजाये इसके कि अपने बारे में मज़ीद इत्मेनान किया हो या यह कहा हो कि आख़िर मेरी जीन भी तो ख़तरे में पड़ जायेगी या किसी और को सुलाने का मशविरा दिया हो या कोई उज़्र व बहाना तलाश किया हो , यह पूछा कि या रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ! क्या मेरे सोने से आपकी जान बच जायेगी ? फरमाया , हाँ अगर तुम मेरे बिस्तर पर सो जाओ तो मैं मुशरेकीन की गिरफ्त से आज़ाद होकर निकल जाऊँगा। यह सुन कर अली (अ.स.) ने सजदये शुक्र के लिये अपनी पेशानी ज़मीन पर रख दी। इब्ने शहर आशोब माजि़न्दरानी का कहना है कि अली (अ.स.) वह हैं जिन्होंने सबसे पहले सजदये शुक्र अदा किया और सबसे पहले अपना चेहरा ख़ाक पर रखा।

सजदे से सर उठाने के बाद फरमाया , या रसूल अल्लाह! आप हुक्मे इलाही की तामील करें और तशरीफ ले जायें मैं आपके बिस्तर पर सोऊँगा। पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) ने एक मुट्ठी ख़ाक ली और कुफ्फारे कुरैश की आँखों में झोंकते हुए ग़ारे सूर की तरफ इधर रवाना हुये और उधर अली (अ.स.) आपकी चादर ओढ़कर बे खटके उनके बिस्तर पर सो गये। जब ख़ल्लाक़े कायनात ने यह मंज़र देखा तो मलायेका से फरमायाः- तुममें कुछ मेरे बन्दे ऐसे हैं जो मेरी खुशनूदी की ख़ातिर अपनी जान तक बेच देते हैं और ख़ुदा ऐसे बन्दों पर बड़ा ही मेहरबान और शफक़्कत करने वाला है) (अल बक़रा आयत 207)

अल्लामा दयार बकरी लिखते हैः-

(हिजरत की शब जब अली इब्ने अबुतालिब (स.अ.व.व.) बिस्तरे रसूल पर सोये तो अल्लाह ने जिबरील व मीकाईल की तरफ़ वही की कि मैंने तुम दोनों में रिश्तये उख़ूवत क़ायम किया है और एक की ज़िन्दगी दूसरे से दराज़ की है। तुम में कौन है जो अपनी ज़िन्दगी दूसरे को दे दे। ये ख़ामोश रहे तो खु़दा ने फरमाया कि तुम अली (अ.स.) के मिस्ल क्यों न हुए मैंने उन्हें मुहम्मद (स.अ.व.व.) का भाई बनाया वह अपनी जान पर खेल कर मेरे हबीब के बिस्तर पर सो रहे हैं तुम दोनों जाओ और जाकर दुश्मनों से अली (अ.स.) की हिफाज़त करो चुनानचे जिबरील सरहाने और मीकाईल पांयती की जानिब बैठ गये और कहना शुरू किया कि ऐ फ़रज़न्दे आबुतालिब! तु्म्हें मुबारक हो कि अल्लाह आज की रात तुम पर फख़र कर रहा है)

एक तरफ़ तो जिबरईल और मीकाईल की निगरानी और हिफाज़त में शाने बेनियाज़ी के साथ बिस्तरे पैग़म्बर (स.अ.व.व.) पर महवे ख़्वाब थे और दूसरी तरफ़ ख़ुदा का हबीब अपने माबूद की निगरानी में अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ रहा था।

हुदूदे मक्का से बाहर निकल कर रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ने यह महसूस किया की जैसे कोई नाक़ा सवार आपका ताअक़्कुब कर रहा है। आपर तेज़ी से आगे बढ़ने लगे तेज़ रफ़्तारी के सबब से आपक पाये अक़दस पहाड़ी इलाक़े की नाहमवार ज़मीन पर पड़े हुये एक पत्थर से इस तरह टकराया कि सारी ऊँगलियाँ लहूलुहान हो गयीं। लेकिन नाक़े सवार का पुर इसरार ताअक़्कुब बराबर जारी रहा। आख़िर कार पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने आते हुए नाक़े सवार को बग़ौर देखा तो अन्दाज़ा हुआ कि शायद अबुबकर हैं। आप ठहर गये। पैग़म्बरी अन्दाज़ा ग़लत नही था , आने वाले हज़रत अबुबकर ही थे। इस अन्देश के तहत कहीं दुश्मनों को ख़बर न हो जाये पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने हजरत अबुबकर को भी अपने साथ ले लिया और मुख़तसर सा सफर तय करके ग़ारे सूरे तक पहुँचे और ब-हुक्मे इलाही उसमें दाख़िल हो गये)

इसके बाद ब - हुक्मे ख़ुदा मकड़ी ने ग़ार के दहने पर जाला तान दिया , कूतरों ने अण्डे दे दिये और बबूल का एक दरख़्त भी रूईदा हो गया ताकि ग़ार के अन्दर पैग़म्बर ( स अ व व .) की मौजूदगी पर दुश्मनों को शक व शुबा न हो सके।

(कुफ़्फ़ारे कुरैश रात भर घर का मुहासिरा किये पड़े रहे और अन्दर झाँक कर जब पैगम़्बर (स.अ.व.व.) की ख़्वाब गाह देखते तो यह समझ कर मुत्मईन हो जाते कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) चादर ओढ़े सो रहे हैं। जब सुबह हुई तो तलवारें सौंत करस अन्दर दाख़िल हुये। हज़रत अली (अ.स.) ने आहट पाकर चादरस उलट दी। चेहरों के रंग उड़ गये। घबराकर पूछा , मुहम्मद (स.अ.व.व.) कहाँ है ?आपने फरमाया कि क्या मेरे सुपुर्द कर गये थे जो मुझसे पूछ रहे हो ? अल्लाह बेहतर जानता है कि वह कहाँ है। कुफ्फार इस जवाब पर नाकाम हो चुके थे और पैगम़्बर (स.अ.व.व.) उनके हाथों से बच कर जा चुके थे।)

(अपनी इस नाकामी के बाद कुफ्फारे कुरैश के मशविरे पर अबुजहल ने यह ऐलान किया कि जो शख़्स मुहम्मद (स.अ.व.व.) का सर काट कर या ज़िन्दा गिरफ्तार कर लायेगा उसे सौ ऊँट इनाम में दिये जायेंगे। यह ऐलान सुन कर बहुत से लोग आन हज़रत (स.अ.व.व.) को तलाश करते हुए इधर उधर निकले। सब तो नाकाम रहे लेकिन सराक़ा इब्ने मालिक नाम का एक शख़्स खोज लगाता हुआ ग़ार तक पहुँचा उसकी आहट पाकर अबुबकर रोने लगे। ऐसे नाज़ुक वक़्त पर अबुबकर का यह गिरया पैग़म्बर (स.अ.व.व.) को क़त्ल करा देने के लिये काफी ता लेकिन जब पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने यह फरमाया कि रोता क्यों है अल्लाह हमारे साथ है तो वह चुप हो गये।)

(यक्कुम रबी अव्वल चौदह बेइस्त को पंजशन्बा की शब में कुफ्फार ने आन हज़रत (स.अ.व.व.) के घर का मुहासेरा किया दो रबी अव्वल यौमे जुमा आग़ाज़े सहर से कुछ पहले आप ग़ारे सूर में फरोक्श हुये और चार रबी अव्वल यकशंबा तक वहाँ क़याम पज़ीर रहे। चौथे दिन हज़रत अली (अ.स.) जब कुफ्फारे कुरैश की तरफ से कुछ मुतमईन हुये तो अब्दुल्लाह बिन अरक़ीत और आमिर बिन फहीरा के हमराह सवारी ले कर रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाज़िर हुए और उन्होंने ग़ार से निकल कर मय अबुबकर के मदीने की तरफ रवाना कर दिया। एक हफ़्ते मुसलसल सफ़र की सऊबतें बर्दाश्त करने के बाद बारह रबी अव्वल को आप मदीने पहुँचे और तीन मील के फासले पर बनि अम्र इब्ने औफ की बस्ती क़बा में क़यामक किया)

रसूले अकरम (स.अ.व.व.) की हिजरत के बाद अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) तीन दिन तक मक्के में रहे और जिन लोगों की अमानतें आन हज़रत (स.अ.व.व.) की तहवील में थी उन्हें वापस की और चौथे दिन फात्मा बिन्ते मुहम्मद (स.अ.व.व.) , फात्मा बिन्ते असद फात्मा बिन्ते जुबेर को महमिलों पर सवार करके मदीने की तरफ रवाना हुये। कुरैश को ब यह मालूम हुआ कि अली (अ.स.) भी मक्का छोड़कर जा चुके हैं तो उन्हें अपनी ज़िल्लत का एहसास हुआ और उन्हें रोकने के लिये आठ सवारों का एक दस्ता उनके ताअक़्क़ुबमे रवाना किया ताकि वह उन्हें रास्ता ही में रोक लें और मजबूर करके वापस लायें। जब अली अव मक्के से पच्चीस मील के फासले पर कोहे ज़जनान के क़रीब पहुँचे तो यह लोग भी पहुँच गये। उन लोगों को देख कर आपने औरतों की महमिलें पीछे की जानिब दामने कोह में ठहरा दीं और खुद आगे बढ़कर खड़े हो गये। उन्होंने आपको घेरे में लेकर सख़्त लेहज़े में कहा कि आप मक्के वापस चलें और अगर आप वापसी के लिये तैयार न हुये तो हम ज़बरदस्ती ले जायेंगे। हज़रत ने सुनी अनसुनी कर दी और हिसार तोड़कर आगे बढ़े। हरब बिन उमय्या के गुलाम जेनाह ने तलवार खींच ली और रास्ता रोक कर ख़डा हो गया। असद उल्लाह के तेवर बदले , क़बज़ये शमशीर पर हाथ रका और क़दम आगे बढाया। जेनाह ने हमला किया। आपने उसका वार ख़ाली देकर उसके दो टुकड़े कर दिये। उसके साथियों ने यह मंज़र देखा तो भाग खड़े हुए और जिधर से आये थे उधर ही वापस चले गये

अमीरूल मोमेनीन ने वह रात कोहे ज़जनान के दामन मे बसर की और सुबह होते ही मदीने की तरफ चल दिये। गर्मी का मौसम , बादे समूम के थपेड़े। झेलते हुए रेगज़ारों और तपते हुए सहराओं का पापियादा सफर पैरों में छाले पड़ पड़ के खाल उधड़ गयी थी मगर एक लगन थी जो आगे बढ़ाये लिये जा रही थी एक वलवला था जो खींचे लिये जा रहा था। आख़िर मंजिलें तय करते हुए मुक़ामे क़बा में आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में बारेयाब हुए। रसूले खुदा (स.अ.व.व.) ने आगे बढ़कर उन्हें सीने से लगाया आँखों में आँसू छलक आये अपने हाथों से जिस्म पर पड़ी हुयी गर्द झाड़ी पैरों के ज़ख्मों में अपना लोआबे दहन लगाया और उन्हें साथ लेकर मदीने में वारिद हुये

मु्फ्ती जाफ़र हुसैन क़िबला फ़रमाते हैं- (हज़रत अली (अ.स.) ने बिस्तरे रसूल (स.अ.व.व.) पर सोकर जिस सरफरोशी व जॉबाज़ी का मुजाहिरा किया वह तारीख़ों मे अपनी मिसाल नहीं रखता। उन्हें पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की ज़बानी मालूम हो चुका था कि कुफ्फारे कुरैश आन हज़रत (स.अ.व.व.) के क़त्ल का फैसला कर चुके हैं और वह आज ही की रात है जिस में वह अपने नापाक इरादों की तकमील करेंगे। ऐसे पुरहौल व पुर ख़तर मौक़े पर जबकि चारों तरफ खून के प्यासों का नरगा था , खिंची हुई तलवारों का घेरा था और हर आन दुश्मनों के हमले आवर होने का अन्देशा था। आप इत्मेनान क़लब और सुकूने ख़ातिर के साथ पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की चादर ओढ़कर उनके बिस्तर पर सो गये। न दुश्मनों के अज़ाएम से ख़ौफ़ज़दा हुये। न तलवारों की चमक से हेरासॉ। न किसी क़िस्म का हुज़्न व करब था न ख़ौफ़ व इज़तराब। अगर कुछ भी खौफ़ व ख़तरा महसूस करतो त समो को बजाये चौकन्ना होकर बैठ जाते या सिर्फ आँखें बन्द करके लेटे रहते। मगर आज की रात अपनी जान से बे नियाज़ होकर तहफ़्फुज़े रिसालत का फ़रीज़ा अदा करना थआ और जागने के बजाये सोकर इत्मेनान बेख़ौफी और अज़्मे जॉसिपारी की झलक दिखाना थी। उन्हें कोई तशवीश थी तो बस यह कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की ज़िन्दगी पर आँच न आपने पाये और वह दुश्मनों के नरग़े से निकल कर सही व सालिम मंज़िलें मक़सूद पर पहुँच जायें अपनी जान रहे या जाय।

इस मौक़े पर ---------- अली (अ.स.) बिस्तरे रसूल (स.अ.व.व.) पर न सोते ----------- या बिस्तर छोड़कर किसी गोशे में छुप जाते तो कुफ्फार बिस्तरे रसूल (स.अ.व.व.) को खाली पाकर उसी वक़्त ताअक़्कुब में निकल खड़े होते और ग़ार में पनाह लेने से पहले अपनी गिरफ़्त में ले लेते इसका नतीजा साफ ज़ाहिर है कि या तो पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की ज़िन्दगी ख़त्म कर दी जाती या ज़ाहिरी असबाब की बिना पर हिजरत का इरादा पायए तकमील को न पहुँचता और इस्लाम के नशरो करोग़ की राहें जो हिजरत के नतीजे में खुलीं न खुलती और वह फतुहात जो इस हिजरत के बाद हासिल हुए कभी हासिल न होते। हज़रत अली (अ.स.) ही ने तलवारो के साये में सो कर फ़तेह व नुसरत की राहें हमवार कीं और परचमे इस्लाम की सर बुलन्दी का सामान किया बिला शुबहा इस्लाम का फरोग़ व इस्तेहकामे हिजरत का समरा है और हिजरत की तकमील हज़रत अली (अ.स.) के जान पर खेलने का नतीजा है)

आन हज़रत (स.अ.व.व.) का इस्तेक़बाल

मोअर्रिख़ इब्ने साद का ब्यान है कि मदीने में यह ख़बर आम हो चुकी थी कि सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) मक्के से रवाना होकर यहाँ पहुँचने ही वाले हैं लेहाज़ा आपके इस्तेक़बाल को अहले मदीना बेचैन व मुज़तरिब थे उनका यह हाल था कि सैकड़ों की तादाद में लोग शहर से बाहर निकल कर आ जाते और जब धूप की शिद्दत नाक़ाबिले बर्दाश्त हो जाती तो मायूस होकर लौट जाते।

अल्लामा तबरसी ने लिखा है कि सिर्फ मर्द ही नहीं बल्कि औरतें और बच्चे भी रोज़ाना सुबह घर छोड़ शहर से बाहर निकल जाते और ज़ेरे आसमान आफताब की गर्मी और धूप की शिद्दत के बावजूद खड़े होकर इन्तेज़ार करते। चुनानचे जिस रोज़ हुजूर (स.अ.व.व.) वारिदे मक्का हुये उस दिन भी वहाँ के लोग सुबह से दोपहर तक इन्तेजा़र करने के बाद वापस जाने ही वाले थे कि एक यहूदी ने जो किसी टीले पर खड़ा था पुकार कर कहा , ऐ अहले मदीना! जिसके इन्तेज़ार में तुम लोग बेचैन थे , वह आ गया! यह सुनते ही सब दौड़ पड़े और तकबीर की आवाज़े चारों तरफ गूँजने लगी। इस मौक़े पर अहले मदीना की खुशियों का कोई ठिकाना नहीं था , कनीज़ें और औरतें तक एक दूसरे को मुबारकबाद दे रही थीं और हर ज़बान पर यह कलमा था कि रसूले खुदा (स.अ.व.व.) आ गये। यह वाक़िया 12 रबी अव्वल 14 बेइस्त मुताबिक़ 6 सितम्बर 622 का है।

बैरूने मदीना पहले आप जिसके मकान में फरोकश हुये , उसकने नाम में इख़तेलाफ़ है , बाज़ का कहना है कि क़बीलये बनी अम्र बिन औफ के एक बुजुर्ग कुलसूम इब्ने हदम के मकान में क्याम फरमा हुये और बाज़ का कहना है कि साद इब्ने ख़ेशमा के यहाँ ठहरे। मगर तबरी का कहना है कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) कुलसूम बिन हदम ही के मकान पर ठहरे थे लेकिन चूँकि साद की बीवी बच्चे नहीं थे और उनका मकान मर्दाना था इसलिये दिन में आप वहाँ लोगों से मुलाक़ात के लिये तशरीफ ले जाते थे जिसकी वजह से लोगों ने समझा होगा कि आपका क़याम साद बिन ख़ेमशा के यहाँ है।

मस्जिदे क़बा का संगे बुनियाद

कुलसूम बिन हदम के यहाँ सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) का क़याम तक़रीबन दो हफ़्ते रहा। इसी क़याम के दौरान आपने वहाँ एक मस्जिद का संगे बुनियाद रखा जो मस्जिदे क़बा के नाम से मशहूर है इसको ज़ूकिबलातैन और कुवते इस्लाम भी कहते हैं क्योंकि बाज़ रवायात के मुताबिक़ इसी मस्जिद में तबदीले क़िबला का हुक्म आया और इस्लाम को यहीं से कुवत मिली। बाज़ मोअर्रेख़ीन का कहना है कि मदीने आने के बाद हुजूर (स.अ.व.व.) ने सबसे पहले जिस मस्जिद में नमाज़ पढ़ी वह यही है। आपको इस मस्जिद से इतनी मुहब्बत थी कि जब तक हयात रहे हर हफ्ते मदीने से आकर उसमें एक मर्तबा नमाज़ ज़रुर पढ़ते थे। शायद इसी वजह से हदीस में है कि इस मस्जिद में दो रकत नमाज़ का सवाब एक उमरे के बराबर है। (इस मस्जिद का तज़किरा कुरान में मौजूद है।

साबेक़ीने इस्लाम पर कुरैश के मज़ालिम

साबेक़ीन इस्लाम की फहरिस्त मज़लूमीन में पहला नम्बर आले यासीर का है। जनाबे यासीर यमन के रहने वाले थे। गुरबत और नन्गदस्ती से परेशान होकर मक्के में आये और अबुहज़ीफा की कनीज़ समिय्या से शादी करके वही आबाद हो गये। समिय्या के बतन से दो बेटे जनाबे अम्मार अब्दुल्लाह और एक साहबज़ादी मुतवल्लिद हुयीं। ज़हूरे इस्लाम के बाद पैग़म्बर असालम (स.अ.व.व.) की दावत पर यह पूरा घराना मुसलमान हुआ लेकिन घर मे दौलते ईमान के सिवा कुछ न था। उनकी गुरबत , नादारी और बेचारगी की वजह से इसलाम लाने की पादाश में कुरैश उन पर तरह तरह के ज़ुल्म करते थे। अल्लामा दयार बकरी रक़म तराज़ है। कि जब इस्लाम को ख़ुदा ने ज़ाहिर फरमाया तो यासिर , उनके साहबज़ादे अम्मार और अब्दुल्लाह नीज़ उनकी बीवी समिय्या मुसलमान हुए। उनका इस्लाम इब्तेदाये इस्लाम ही से क़दीम था और यह वह बुर्जगवार थे। जिन पर ख़ुदा की राह में ज़ालिमों की तरफ से बे हिसाब जुल्म ढ़ाया गाय। एक दिन जब कुरैश उन पर मज़ालिम के पहाड़ तोड़ रहे थे तो इत्तेफाक़ से आन हज़रत (स.अ.व.व.) भी उधर से गुज़रे। जब आपने उस घराने का यह हाल देखा तो बेचैन हो गये और फरमाया कि ऐ परवरदिगार! तू आले यासिर को उनके आमाल के बदले में बख़्श दे।

इब्ने शहाब और तबरी की रिवायत के मुताबिक अबुजहल अबुलहब ने जनाबे यासिर और सुमिय्या के जिस्मों को नैज़े की अनी से छेद छेद कर उन्हें मार डाला रसूल अल्लाह सल्लललाहो अलैहे वआलेही वसल्लम ने ताज़ियत फ़रमाई और अम्मार यासिर से फ़रमाया कि आले यासिर सब्र करो बेहिश्त तुम्हारी वादगाह है।

अल्लामा दयार बकरी फ़रमाते हैं कि अबुजहल कमबख़्त ने यासिर की बीवी समिया को नैज़े की अनी से कोंच कोंचकर मार डाला ग़रीब यासिर का भी एसी शदीद ज़बों से ख़ातमा कर दिया मुवर्रिख़ ज़ाकिर हुसैन का कहना है कि यह इसलाम के शहीदे अव्वल हैं। हज़रत अम्मार यासिर के बारे में मुवर्रेख़ीन का बयान है कि कुफ़्फ़ारे कुरैश उन्हे जलती हुई रेत पर बरहना लेटा कर उनके जिस्म पर गरम पत्थर रखते थे , लोहे की गरम ज़ेरह पहनाते थे , दुर्रे मारते थे और खाना पानी बन्द कर देते थे लेकिन इन तमाम मज़ालिम के बावजूद आप इस्लाम से मुनहरिफ़ न हुए और न ही आपके पाये इस्तेक़लाल मे कभी कोई जुमबिश और लग़जिश पैदा हुई आपके मुतअल्लिक़ इरशादे पैगम़्बर है कि ईमान अम्मार के गोश्त व ख़ून का जुज़ है।

(2) ख़बबा बिन अरस-क़बीलये तमीम से थे- ज़मानये जाहेलियत में गुलाम बना कर फरोख़त किये गये और एक खातून ने उन्हें ख़रीद लिया। यह उस वक़्त इस्लाम लाये जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) अरक़म के घर में मुक़ीम थ और सिर्फ छः या सात अशख़ास इस्लाम ला चुके थे। कुरैश ने उन्हें तरह तरह की तकलीफें. दीं। एक दिन .दहकते हुए अँ.गारों पर उन्हें चित लिटाया गया और एक शख़्स उनकी छाती पर पाओं रख कर खड़ा हो गया ताकि करवट न बदलने पायें। यहाँ तक कि अँगारे पीठ के नीचे सर्द होकर कोयला बन गये। ख़ब्बाब ने यह वाकिया मुद्दतों बाद हज़रत उमर से ब्यान किया और अपनी पीठ खोल कर उन्हें दिखाई जिस पर जाबजां अँगारों से जलने के निशानात वाज़ेह थे।

ख़ब्बाब ज़मानये जाहेलियत में नज्जारी का काम करते थे। बाज़ड लोगों ज़िम्मे उनकी मज़दूरी बक़ाया थी। मांगते तो जवाब मिलता कि जब तक तुम ख़ुदा की वहदानियत और मुहम्मद (स.अ.व.व.) की नबूवत से इन्कार न करोगे एक कौड़ी न मिलेगी।

(3) हज़रत बिलाल-यह वही बिलाल हैं जो मोअज़्जि़न मशहूर है। उमय्या बिन ख़लफ़ के गुलाम और हब्शउल नसल थे। आप पोशीदा तौर पर इब्तेदा ही में ज़ेवरे ईमान से आरास्ता हो चुके थे और हसबे इरशाद पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ख़ुफिया तरीक़े से अल्लाह की इबादत किया करते थे। रफता रफता यह ख़बर उमय्या इब्ने ख़लफ को मालूम हुई तो उसने गुलामों को हुक्म दिया कि सुबह सूरज निकलते ही उनके तमाम जिस्म में बबूल के काँटे पेवस्त कर दिये जायें और जब आफताब की हरारत से जमीन खूब गर्म हो तो उन्हें धूप में चित लिट कर उन पर जलते हुए वज़नी पत्थर रख दिये जायें ताकि यह हिल न सकें फिर उसके चारों तरफ आग रौशन कर दी जाये काति उसकी गर्मी से उनका बदन झुलसता रहे और जब शाम हो जाये तो हाथ पैर बाँधकर कोठरी में डाल दिया जाये और बारी बारी उन्हें ताज़याने लगाये जायें यहाँ तक कि फिर सुबह हो और फिर यही अमल जारी रखा जाये।

हज़रत बिलाल को इस जॉ कनी के आलम में एक मुद्दत गुज़री।

ईमान का नूर आपके दिल में जगमगाता रहा और आप ज़बान से अल्लाह की रबूवियत और रसूल (स.अ.व.व.) की रिसालत का इक़रार करते रहे। जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) को उन अन्दोहनाक वाक़ियात की ख़बर हुई तो आप ने अब्बास के जरिये उनके मालिक से उन्हें ख़रीद लिया।

(4) सहीब रूमी- यह रूमी मशहूर ज़रुर हैं लेकिन दरहक़ीक़त रूमी नही थे. उनके वालिद सनाने किसरा की तरफ से अब्बला के हाकीम थे और उनका ख़ानदान मूसल में आबाद था। रूमियों ने मूसल पर हमला किया और जिन लोगों को क़ैद करके ले गये उनमें सहीब भी थे यह रोम ही में पले बढ़े और जवान हुए इसलिए अरबी ज़बान से नावाक़िफ थे। एक अरब ने उन्हें खरीद लिया था। इसलिए यह मक्का में आये यहाँ आने के बाद अब्दुल्लाह बिन जदआन ने उन्हें खरीद कर आज़ाद कर दिया। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने जब इस्लाम की तबलीग़ शुरू की तो जनाबे अम्मार बिन यासिर के साथ यह भी मुसलमान हुए कुफ्फारे कुरैश उन पर इतना तशद्दुद करते थे कि उनके होश व हवास मुअत्तिल हो जाते थे। जब उन्होंने मदीने को हिजरत कहना चाही तो कुरैश ने कहा कि जाना है तो अपना सारा माल व मताअ छोड़कर जाओ चुनानचे आप खाली हाथ मक्के से रवाना हुए और मदीने आ गये।)

(5) अबु फकीह- आपका अस्ल नाम अफ़लह और कुन्नियत अबूफ़कीह थी सफ़यान बिन उमय्या के गुलाम थे हज़रत बिलाल के साथ मुसलमान हुए सफ़वान को जब मालूम हुआ तो उसने चन्द सख़्त दिल लोगों को इस बात पर मामूर किया कि वह आपके पांव में रस्सी बाँद कर तपती हुई रेत पर बरहना घसीटा करें चुनानचे जब आप घसीटे जाते तो खाल उधड़ जाती थी और सारा जिस्म लहुलुहान हो जाता था। एक दिन आपके सीने पर इतना वज़नी पत्थर रखा गाय कि ज़बान बाहर निकल पड़ी थी।

(6) .हज़रत अबुबकर बिन कहफ़ा-तारीख़े खमीस में (मुन्तक़ी) के हवाले से मरकूम हैं कि इस्लाम अबी इब्तेदाई मराहिल में थआ कि हज़रत अबुबकर ने रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) से इसरार किया कि अब आप खुफिया तबलीग़ के बजाये एलानिया कार तबलीग़ अन्जाम दें। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने उन्हें समझाया कि ऐ अबुबकर नासमझी की बातें न करो अभी इसका मौक़ा नहीं है क्योंकि हम क़लीलुल तादाद हैं मगर हज़रत अबुबकर ने जि़द की और किसी तरह न माने बिल आख़िर आन हजरत (स.अ.व.व.) मजबूर होकर एक नवाही मस्जिद में तशरीफ ले गये। कुफ्फारे कुरैश को ख़बर हुई तो वह भी वहाँ जमा होना शुरू हो गये। हज़रत अबुबकर खुतबा देने की ग़र्ज़ से खड़े हुए उस पर इस क़दर इन्तेशार व हैजान पैदा हुआ कि सारे मुशरेकीन आप पर टूट पड़े और मारने लगे। अतबा बिन रबिया भी उनमें शामिल था उसने पाँव से जूते निकाले जो पेवन्द दार थे और इस तरकीब से मारना शुरी किया कि जिधऱ पेवन्द होता था उसी को चहरे की तरफ घुमा देता था हज़रत अबुबकर का मुँह ऐसा सूज गया था कि चेहरे पर नाक नहीं मालूम होती थी। रसूले अकरम (स.अ.व.व.) ने बीच बचाओ की बड़ी कोशिश की मगर मुशरेकीन बाज़ न आये इतने में इत्तेफाक़ से बनि तीम के कुछ लोग वहां पहुँच गये और अबुबकर को उनके हाथों से छुडाकर एक चादर में लिटाया और बेहोशी की हालत में घर ले गये। शाह वली उल्लाह मोहददिस ने तहरिर किया है कि हज़रत अबुबकर का इश्लाम काहिनो और नुजुमियों का मरहूने मिन्नत है क्योंकि आपने सुन रखा था कि यह मज़हब अनक़रीब तक़र्की करके दुनिया भर में फैल जायेगा इस लिए वह मुसलमान हो गये थे।

मोहददिस देहलवी की तहरीर से पता चलता है कि इस्लाम के मुहासिन और उसकी अफादियत की बिना पर हज़रत अबुबकर ने उसे कुबूल नही किया बल्कि काहनों और नुजूमियों के कहने से किसी मुफाद को नज़र में रखते हुए दायरए इस्लाम में दाख़िल हुए थे।

(7) हज़रत उसमान बिन अफ़ान- हज़रत उसमान के मुसलमान होने की ख़बर जब उनके चचा को हुई तो वह बदबख़्त आपको खजूर के पेड़ में करता था। इसी तरह जुबैर बिन अवाम का चचा च़टाई में लपेट कर उनकी नाक में धुआ दिया करता था। इसी तरह ज़ुबैर बिन अवाम का चचा चटाई में लपेट कर उनकी नाक में धुआँ दिया करता था। मसअब बिन उमैर के इस्लाम लाने पर उनकी काफिरा माँ ने उन्हें घर से निकाल दिया था। साद इब्ने अबीविक़ास अगर चे अपने क़बीले में मोअजिज़ व मुक़तदिर थे मगर वह भी कुरैश के मज़ालिम से न बच सके। हज़रत उमर के चचा ज़ाद भाई सईद बिन ज़ैद जब इस्लाम लाये तो उमर उन्हें रस्सी से बाँधकर पीटा करते थे।

मुसलमान औरतें भी मज़ालिम से मुसतसना न थीं हज़रत उमर अपनी कनीज़ लबीना को इस क़दर मारते थे कि थक जाते और थोड़ी देर दम लेकर फिर मारना शुरू कर देते थे। अबुजहल ने अपनी कनीज़ ज़नीरा को इतना मारा कि वह अँधी हो गयी। नहदिया और उम्मे जबीस भी कनीजें थीं उनका भी यह हाल था।

साबेक़ीन इस्लाम की यह दर्द अंगेज़ दास्तां एक ऐसी रौशन और ताबिन्दा हक़ीक़त है जिस से इन्कार मुम्किन नहीं है।

हिजरते हब्शा ( 5) पाँच बेइस्त

आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने जब यह देखा कि मुसलमानों पर कुफ्फारे कुरैश के मज़ालिम का सिलसिला बतदरीज बढ़ता जा रहा है और मक्के में उन ग़रीबों पर तंग होती जा रही है तो उनके तहाफुज़ को नज़र में रखते हुए आपने उन्हें हिजरत का हुक्म दिया और फरमाया कि तुम्हारे लिये बेहतर है कि तुम लोग यहाँ से हिजरत करके हब्शा की तरफ चले जाओ क्योंकि वहाँ का बादशाह रहमदिल और इन्साफ पसन्द है इसलिए हुकूमत में कोई शख़्श किसी शख़्स पर जुल्म नहीं करता लेहाज़ा जब तक मक्के के हालात साज़गार न हों तुम लोग वहीं क़याम करो।

इस हुक्मे पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के मुताबिक ग्यारहं मर्दों और चार औरतों पर मुश्तमिल पहला क़ाफिला मक्के से हब्शा की तरफ रवना हुआ उसमें हज़रत उसमान और उनकी ज़ौजा रूक़य्या , जुबैर बिन अवाम , आमिर बिन रबिया और उनकी ज़ौजा लैला अबु सलमा और उनकी ज़ौजा उम्मे सलमा अबु हुज़ैफ़ा बिन अतबा और उनकी ज़ौजा सहल बिन्ते सहील , अब्दुल्लाह बिन मसऊद , अब्दुल रहमान बिन औफ , मआसब बिन उमैर , सुहैल इब्ने बैज़ाअ , हातिब बिन अम्र और उसमान बिन मज़ऊन शामिल थे। यह नबूवत के पाँचवे साल माहे रज़ब का वाक़िया है।

जब यह क़ाफिला हबशा पहुँचा तो वहाँ के बादशाह नजाशी ने उन महाजिरींन का ख़ैर मकदम किया , हुस्ने सुलूक व कशादा दिली के साथ पेश आया और उन्हें अमान व मज़हबी आज़ादी दी। इब्ने हश्शाम , उम्मुल मोमेनीन उम्मे सलमा का क़ौल ख़ुद उनकी ज़बानी नक़ल करते हैः-

(जब हम लोग हब्शा में वारिद हुए तो वहाँ के बादशाह हमारे साथ नमीं और रहम दिली से पेश आया हम लोग अमन व चैन से अपने दीन पर क़ायम रहे और आज़ादी से ख़ुदा की इबादत करत रहे न हमें कोई सताने वाला था और न हम मकरूहात सुनते थे।)

पन्द्रह इन्सानी पर मुबनी महाजिरीन की इस मुख़तसर सी जमात को हब्शा में रहते अभी दो ही माह गुज़रे थे कि किसी ने यह मशहूर कर दिया कि मक्के में सारे कुरैश मुसलमान हो गये। ज़ाहिर है कि इस ख़बर के बाद मुहाजिरीन को अपने मरकज़ की तरफ पलट आना चाहिये था चुनानचे यही हुआ कि यह जमाअत हब्शा से मक्के के लिये फिर रवाना हो गयी मगर जब इस जमाअत के लोग मक्के के क़रीब पहुँचे तो उन पर यह हक़ीक़त आशकार हुई कि कुफ्फारे कुरैश पहले से ज़्यादा दुश्मनी पुर उतर आये हैं। यक़ीनन एक हौसला शिकन और परेशान कुन ख़बर थी जिसे सुन कर अब्दुल्लाह इब्ने मसऊद तो हब्शा की तरफ फिर पलट गये और बाकी़ लोगों ने मग़फी तौर पर ऐसे लोगों के यहाँ क़याम किया जो मुसलमान हो चुके थे या उनके दिलों में इस्लामी जज़बा पैदा हो चुका था।

इधर मक्के में खुफिया तौर पर लोग कसमापुर्सी और बेचारगी की हालत में रह कर अपने ईमान व इस्लाम की हिफाज़त कर रहे थे और उधर कुफ्फ़ार की तरफ से रोज़ ब रोज़ जुल्म व सितम का बाज़ार गर्म होता जा रहा था लेहाज़ा मुसलमानों की इज़्ज़त , जान , माल और विक़ार को ख़तरे में देखर नबूवत के सातवें साल सरवरे दो आलम (स.अ.व.व.) ने फिर हिजरत का हुक्म सादिर फ़रमाया।

इस मर्तबा बच्चों के अलावा 33 मर्द और 18 औरतें मुताफर्रिक़ तौर पर हब्शा गये और आखिर में जाफर इब्ने अबुतालिब की क़यात में एक बड़ा क़ाफिला रवाना हुआ जिसमें औरतों और मर्दों की तादाद पचास बतायी गयही है। इस तरह मुहाजिरीन की मजमूयी तादाद 101 तक पहुँच गयी।

इब्ने हष्शाम ने मुहाजिरीन के नामों की जो फेहरिस्त तरतीब दी है उसमें उन्होंने छियासी नाम मर्दों के और अट्ठारा नाम औरतों के मरक़ूम किये हैं उससे मुहाजिरीन की मजमूयी तादाद 104 मालूम होती है। इब्ने साद रक़म तराज़ हैं कि कुल मुहाजिरीन की तादाद 101 थी जिसमें 83 मर्द 11 कुरैशी औरतें और 7 दीगर क़बीलों की औरतें शामिल थीं।

अकसर मोअर्रिख़ीन का ख़्याल है कि हिजरत सिर्फ उन्हीं लोगों ने की जिनका कोई हामी और मददगारी नही था लेकिन इब्ने हष्शाम या इब्ने साद ने मुहाजिरीन की जो फेहरिस्त मुरत्तब की है उसमें हर दर्जे के लोग नज़र आते हैं। हज़रत उसमान बनि उमय्या से थे जो अरब में सबसे ज़्यादा मालदार और ताक़तवर क़बीला था , हज़रत जाफर इब्ने अबुतालिब ख़ुद रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) के ख़ानदान से थे। अब्दुल रहमान बिन औफ और अबुसीरा वग़ैरा मामूली शख़्सियत के लोग नहीं थे इस बिना पर ज़्यदा क़यास यह है कि कु़रैश के मज़ालिम सिर्फ़ ग़रीबों और नादारों तक महदूद नहीं थे बल्कि बड़े लोग भी उनके जुल्म व सितम से परशान थे। अजीब बात यह है कि जो लोग ज़्यादा मज़लूम थे और जिन्हें अँगारों के बिस्तर पर सोना पड़ा था मसलन यासिर , अम्मार और बिलाल वग़ैरा उन लोगों के नाम फेहरिस्ते मुहाजिरीन में नहीं है या तो उनकी बे सरो सामानी इस हद तक पहुँची हुई थी कि सफर करना ही दुश्वार था या फिर यह लोग ईमान व इरफान की इस बुलन्दी पर थे जहाँ मज़ालिम और तशद्दुद की परवा नहीं रह जाती।

कुफ़्फ़ारे कुरैश को उन मुहाजिरीन से कोई ज़ाती अदावत नहीं थी बल्कि उन्हें इस (तहरीक) से अदावत थी जो उनके बातिल नज़रियात और ख़ुद साख़ता खुदाओं के खिलाफ तदरीज फैलती जा रही थी। पहली हिजरत के दौरान हब्शा के हालात व वाक़ियात यह सुन चुके थे अब उन्हें यह अन्देशा पैदा हो गया था कि कहीं वहाँ इस तहरीक को फलने फूलने का मौक़ा न मिल जाये लेहाज़ा इस मर्तबा उन्होंने मुहाजिरीन का पीछा किया मगर कुफ्फार के पहुँचने से पहले यह लोग किश्तियों पर सवार हो चुके थे और किश्तियां रवाना हो चुकीं थी इसलिए वह कुफ्फार के पन्जों से निकल कर हिफ़ज़ों अमान के साथ हब्शा पहुँच गये।

नज्जाशी के दरबार में हज़रत जाफर का तबलीग़ी कारनामा

साबिक़ा मुराअत खुसूसी की तरह हब्शा में मुहाजिरीन को इस मर्तबा भी अमान मिला , आज़ादी नसीब हुची और यह लोग खुशगवार फज़डा में सुकून व इत्मिनान की ज़िन्दगी बसर करने लगे। मुसलमानों का यह इत्मिनान व सुकून कुफ्फार को कब गवारा था ? लेहाज़ा उन्होंने अम्र बिन आस और अब्दुल्लाह बिन रबिया को अपने नुमाइन्दों की हैसियत से तोहफे तहाएफ देकर नज्जाशी के दरबीर में भेजा इस दोरूकनी वफ़द ने बादशाह के रूबरु हाजि़र होकर अपने मारूज़ात पेश किये और कहा कि मक्के के कुछ शर पसन्द लोग भाग कर आपके मुल्क में पनाह ले चुके हैं। हमारा मुतालिबा है कि उन्हें हमारे हवाले कर दिया जाये। नज्जाशी ने कहा , जब तक हम दूसरे फरीक़ की बातें न सुन लें उस वक़्त तक कोई फैसला नहीं कर सकते।

चुनानचे हज़रत अली 0 (अ.स.) के भाई महाजिरीन ने सलारे आज़म हज़रत जाफर इब्ने अबुतालिब दरबार में तलब किये गये और जब मुहाजिरी की जमाअत के साथ वह दरबार मे तलब में हाज़िर हुए तो नज्जाशी ने पूछा कि आप लोगों के उसूल व अक़एद क्या हैं ? और कुरैश मक्का आपके खिलाफ क्यों हैं ? इन सवालों के जवाब मे हज़रत जाफर ने अपनी तक़रीर इस तरह शुरु कीः-

(ऐ बादशाह! हमारे मुल्क के लोग जाहिल और तहज़ीब व तमद्दुन से नाआशन थे। मुरदार जानवरों का गोश्त उनकी ख़ुराक और बेहूदा गुफतनी उनका शेवा था। इन्सानियत , हमदर्दी , मेहमान नवाज़ी और हमसायग़ी के हुकूक से बिल्कुल) ही नाबलद थे न किसी आईन का पास व लिहाज़ था और न किसी क़ानून व ज़ाबत के पाबन्द थे हमारे पूरे मुल्क पर जाहेलियत पूरी तरह मुसल्लत थी कि इन हालात में ख़ुदा ने अपने फज़ल व करम से हमारे दरमियान एक रसूल भेजा जिस की अमानत व दयानत सिदक़ व सफ़ा , हसब व नसब और ज़ाहद व तक़वा से हम अच्छी तरह वाक़िफ थे , उसने हमे शिरक व बुत परस्ती की गुमराही से निकाला , मुकारिमे इखलाक़े व उसवए हस्ना का दर्स दिया , तौहीद की दावत दी , गुनाहों से बचने , नमाज़ पढ़ने रोज़ा रखने ज़कात अदा करने और सच बोलने की तलक़ीन फरमायी। हामारा कुसूर सिर्फ यह है कि हम उस नबी की नबूवत और ख़ुदा की वहदानियत पर ईमान लाये। बस इसी जुर्म में हमारी क़ौम हम सख़्ती और तशद्दुद करने पर तुले गय है वह चाहती है कि हम अल्लाह की इबादत तर्क करके लकड़ी , मिट्टी और पत्थरों से बने हुए बुतों की परस्तिश करें। लेहाज़ा उनके जुल्म और तशद्दुद से बचने के लिये हमने आपके मुल्क में पनाह ली है।)

इस तक़रीर का नज्जाशी के दिल पर गहरा असर पड़ा और उसने उस कलामे ख़ुदा को सुनने की तमन्ना का इज़हार किया जो रसूल अल्लाह (स.अ.व.व.) पर नाज़िल हुआ था हज़रत जाफर ने सुरये मरियम की तिलावत फरमायी जिसे सुन कर बख़्खाशी की आँखों में आँसू आ गये। उसने आन हज़रत की सदाक़त व नबूवत का एतराफ किया और कहा बे शक यह वही रसूल है जिनके तशरीफ लाने की ख़बर हज़रत ईसा मसीह ने दी है , खुदा का शुक्र है कि मैं उनके ज़माने में हूँ।

इसके बाद बादशाह ने कुरैश के भेजे हुए तहाएफ़ वापस कर दिये और मुहाजिरीन को उनके हवाले करने से साफ इन्कार कर दिया बिल आख़िर कुरैश के दोनों नुमाइन्दे मायूसी की हालत में मक्के वापस आ गये , और मुसलमान एक अरसे तक हब्शा में रह कर निहायत चैन व सुकून की ज़िन्दगी बसर करते हैं।

दारूल अरक़म में आन हज़रत (स.अ.व.व.) का क़याम

मुहाजिरीने हब्शा के मक्के से चले जाने के बाद भी आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने अपनी तबलीगी सरगर्मियां बादस्तूर जारी रखीं और नये नये लोग दायरये इस्लाम में दाख़िल होते रहे। यह देखकर कुफ़्फार ने आप को और ज़्यादा सताना शुरू कर दिया यहाँ तक कि हुजूर (स.अ.व.व.) को मजबूर होकर अपने बाक़ी मांदा साथियों के साथ अक़रम बिन अबी अरक़म के घर में पनाह लेना पड़ा। यह मकान कोहे सफ़ा पर वाक़े था वहाँ आप एक माह दो दिन मुक़ीम रहे और लोगों को दावते इस्लाम देते रहे। बाज़ मोअर्रिख़ीन का कहना है कि इसी मकाम में कयाम के दौरान हज़त हमज़ा और उनके तीन दिन बाद हज़रत उमर ने इस्लाम क़ुबूल किया। लेकिन तारीख़े ख़मीस में अल्लाह दयार बकरी ने इस बात को ग़लत क़रार दिया है वह कहते हैं कि हज़रत हमज़ा ने 2 बेइस्त में इस्लाम कुबूल किया था लेकिन मसलहतन उन्होंने अपने इस्लाम को पोशीदा रखा और बिल आख़िर अबुजहल की बत्तमिज़ियों की वजह से 6 बेइस्त मे उसे ज़ाहिर कर दिया। मेरे नज़दीक यही दुरुस्त भी है।

हज़रत उमर का मुसलमान होना

हज़रत उमर ने इस्लाम क्यों कर कुबूल किया ? इसकी तफसील का इजमाल यह है कि रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) के बदतरीन दुश्मन और हज़रत उमर के मामू अबूजहब ने कुफ्फारे मक्का के एक मजमे में यह ऐलान किया कि जो शख़्स मुहम्मद (स.अ.व.व.) का सर काट कर लायेगा उसे सौ ऊँट या चालीस हज़ार दिरहम इनाम में दिये जायेंगे

हज़रत उमर भी अपने मामू अबुजहल की तरह पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) के बदतरीन दुश्मन थे चुनानचे उन्होंने काह यह काम मैं अन्जाम दूँगा। घर आये , तलवार ली और दारूल अरक़म की तरफ जहाँ रसूले अकरम (स.अ.व.व.) मुक़ीम थे , चल पड़़े। रास्ते में नईम इब्ने अब्दुल्लाह अदवी से मुलाक़ात हुई जो अपने को मग़फी रखे हुए थे। उन्होंने पूछा ऐ उमर! तलवार लेकर कहाँ चले ? कहा मुहम्मद (स.अ.व.व.) को क़त्ल करने। उन्होंने कहा कि फिर तो तुम्हें बनी अबदे मनाफ़ ज़िन्दा नहीं छोडेंगे। उस पर उमर ने तलवार निकाल ली और कहने लगे कि मालूम होता है कि तू भी दीन से निकल गया। नईम ने कहा , पहले अपनी बहन फ़ात्मा और बहनोई सईद बिन ज़ैद की ख़बर ले कि वह भी मुसलमान हो गये हैं। यह सुनना था कि ग़ैज़ व ग़ज़ब का बिफरा हुआ तूफ़ान बहनोई के घर की तरफ़ मुड़ गया। जिस वक़्त यह दरवाज़े पर पहुँचे उस वक़्त दोनों मियां बीवी सूरये ताहा की तिलावत कर रहे थे आवाज़ सुनकर घर में घुसे और बहनोई पर टूट पड़े दोनों मे खूब जमकर मारपीट हुई। बहन ने बीच बचाओ की कोशिश की तो उस बेचारी की नाक पर एक ज़ोरदार घूँसा जड़ दिया जिससे वह लहू लुहान हो गयी इस हरकत पर आपके बहनोई ने वह ज़बरदस्त ख़ातिर की कि दिन में तारे दिखायी देने लगे आख़िर कार जान बचाकर भागे और सीधे अरक़म के घर पहुँचे। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने आपकरे ख़तरनाक इरादों को भाँप लिया , आगे बढ़े , कलाई पकड़़ी और फिशार देना शुरू किया। यह मुहम्मदी फिशार कुछ ऐसा था कि आप घुटनों के बल ज़मीन पर बैठ गये। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने फरमाया , ऐ उमर अब बता तेरा क्या इरादा है ? फिशार कि शिद्दत ने जब आपको यह यक़ीन दिला दिया कि अब जान का मुश्किल है तो कहने लगे कि हुजूर (स.अ.व.व.) मैंतो इस्लाम कुबूल करने की ग़र्ज़ से हाजिर हुआ था। मुख़तसर ये कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) एक तरफ हज़रत उमर की कलाई थामें हुए फिशार दे रहे थे और दूसरी तरफ़ हज़रत उमर क जबान पर अशहदों अन ला इलाहा इल्ललाह मुहम्मदन रसूल उल्लाह के कलेमात जारी हो रहे थे। इब्ने असीर का कहना है कि आपने 26 मर्दों और 23 औरतों के बाद इस्लाम कबूल किया।

कुछ मोअर्रेख़ीन का कहना है कि हज़रत उमर जब वलीद बिन मुग़ीरा के तिजारती क़ाफिले के सात रोम के सफर पर थे तो वहाँ के राहीबों ने यह पेशीनगोई की थी कि इस्लाम के तवस्सुल से आपको हुकूमत मिलेगी इस वजह से आप मुसलमान हुए। यह वाकिया अज़ालतल ख़िफा में भी है , मसऊदी ने भी लिखा है और तबरी ने भी यही वाकिया ब्यान किया है। बहर हाल वाकिया कुछ सही , यह बात तवातुर से साबित है कि हज़रत उमर का इस्लाम खुलूस और अक़ीदत से आरी था।

बैतुल्लाह में एलानिया पहली नमाज़

अल्लामा दयार बकरी का ब्यान है कि मुसलमान होने के बाद हज़रत उमर ने पैग़म्बे इस्लाम (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में यह अर्ज़दाश्त पेश की किः- या रसूल अल्लाह! जब हम हक पर और कुफ़्फार बातिल पर हैं तो क्या वजह है कि हम अपने दीन को छुपायें फिरें ? आप आज मुशरेकीन की परवा किए बग़ैर हमारे साथ खान-ए-काबा में तशरीफ ले चलें , हम नमाज़ वहीं पढ़ेंगे।) आन हज़रत ने फरमाया कि मुसलमानों की तादा कुफ्फार के मुक़ाबिल में अभी बहुत कम है और जो हालात हैं उन्हें तुम देख रहे हो लेहाज़ा अभई ज़ब्त व सब्र से काम लो इन्शाअल्लाह तुम्हारी यह खुवाहिश भी एक दिन पूरी होगी। मगर हज़रत उमर अपनी ज़िद के आगे भला कब मानने वाले थे ? इसरार करके आन हज़रत (स.अ.व.व.) को खान-ए-काबा तक इस तरह ले गये कि ख़ुद शमशीरे बकफ आगे आगे थे , दाहिने और बायें हज़रत अबुबकर व दीगर असहाब चल रहे थे। जब यह लोग खान-ए-काबा में दाखिल हुए तो मुशरेकीन ने मज़ाहमत करना चाही। हज़रत अली (अ.स.) हमज़ा , उमर , अबुबकर और असहाब भी आसतीने सूत कर आगे बढ़े। आख़िरकार मुशरेकीन खौफ व दहशत की वजह से भाग खड़े हुए और आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने एलानिया नमाज़ पढ़ी। (तारीख़े ख़मीस)

इसमें शक नहीं कि हुजूरे अकरम (स.अ.व.व.) को हज़रत उमर ने बिल ऐलान नमाज़ पढ़वा दी मगर उसका अन्जाम यह हुका कि कुफ्फारे कुरैश की आतिशे अदावत इस तरह भ़ड़की कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) को तमाम बनि हाशिम समेत तीन बरस तक मुसलसल शोअबे अबुतालिब में महसूर रहना पड़ा जिसकी मुकम्मल तफसील अबुतालिब (अ.स.) के हालात में मरकूम हो चुकी है।

ताएफ़ का सफ़र

हज़रत अबुतालिब (अ.स.) की वफात के बाद मक्के की सर ज़मीन का चप्पा चप्पा पैगम्बर इस्लाम (स.अ.व.व.) के लिए खारज़ार बन गया था और मुशरेकीन की ईज़ारसानियों में एक दम से शिद्दत पैदा हो गयी थी। आपने सोचा कि कुछ दिनों के लिए उनकी नज़रों से ओझल हो जाना ज़्यादा मुनासिब होगा , इससे उनका वक़्ती जज़बा मुख़ालिफ भी कुछ कम हो जायेगा और इस्लाम के हलक़ए तबलीग़ में उसअत भी पैदा हो जायेगी। चुनानचे इसी ख़्याल के तहत आप ज़ैद बिन हारसा को अपने हमराह ले कर ताएफ़ की तरफ़ रवाना हो गये। इब्ने साद का कहना है कि यह माहे शव्वाल की आख़िरी तारीखों में बेइस्त से दसवी साल का वाक़िया है।

ताएफ़ मक्के मोअज़्जमा से पचास साठ मील की दूरी पर एक सर सबज़ व शादाब मुक़ाम है जहाँ के मेवे दुनिया भर में तमशहूर हैं। ख्वाजा मुहम्मद लतीफ़ फरमाते हैं किः- (ताएफे मक्का से तबरी का ब्यान है कि वहाँ क़बीले सक़ीफ़ का मुसतक़र ताएफ में आन हज़रत (स.अ.व.व.) दस दिन तक क़्याम पज़ीर रहे। वहाँ के मक़सूसीन से मिले और उन्हें दावते इस्लाम दी मगर उन लोगों ने कुबूल करने से इन्कार कर दिया बल्कि उन्होंने इस अन्देशे के तहत कि कहीं हमारी क़ौम के नौजवानों पर इस तबलीग़ का असर न हो जाये , आपसे यह तक कह दिया कि आप हमारे शहर से चले जाये और कहीं दूसरी जगह क़्याम करें। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि उन लोगों ने अपनी क़ौम के जाहिलों और ऊबाशों को आपकी ईज़ा रसानी के लिए उभार दिया और वह लोग आपको पत्थर मारने लगे। उन पत्थरों के मुक़ाबले में ज़ैद बिन हारसा तनहा आपकी सिपर बनते थे जिसकी वजह से उनके सर में बहुत से ज़ख़्म आ गयचे और आन हज़रत (स.अ.व.व.) के पाये मुबारक से खून जारी हो गया।

इस हालत में आप ताएफ से रुख़सत होकर मक्के की जानिब फिर वापस हुए। मगर यह आलम था कि अब हरम में भी आपके लिए कोई जाये पनाह न थी। आप कोहे हिरा तक पहुँचे तो आपने दस्तूरे अरब के मुताबिक़ मुतीम बिन अदी को जो जनाबे अबुतालिब के क़दीम दोस्तों में थे , पैग़ाम भेजा कि मैं तुम्हारी पनाह में आना चाहता हूँ , पुराने तालुक़ात की बिना पर मुतीम ने सब मनजूर कर लिया और अपनी औलादों नी़ ख़ास अज़ीज़ों से कहा कि तुम सब मुसल्लह हो जाओ इसलिए कि मैंने मुहम्मद (स.अ.व.व.) को अपनी पनाह में ले लिया है। चुनानचे वह सब हथियारों से लैस होकर खान-ए-काबा के इर्द गिर्द जमा हो गये। जिसके बाद ज़ैद बिन हारसा के साथ आप मस्जिदुल हराम तक तशरीफ लाये , रुकन के पास पहुँचे , इस्तेमाल किया , दो रकत नमाज़ पढ़ी और फिर मुतीम बिन अदी और उनकी औलादों के घेरे में अपने घर तक तशरीफ लाये।

मसाएब की शिद्ददत

हज़रत रसूले खुदा (स.अ.व.व.) की जिस्मानी ईज़ा रसानियों के जितने भी वाक़ियात हैं जैसे पत्थरों की बारिश और सरे मुबारक पर खस व ख़ाशाक वग़ैरा का डाला जाना , यह सब इसी दौर से मुतालिक़ हैं , जब आपके सर से जनाबे अबुतालिब (अ.स.) का साया उठ चुका था। मगर यह आन हज़रत (स.अ.व.व.) का सब्रों इस्तेक़लात था कि चचा की वफात के बाद , आप सिर्फ चन्द रोज़ गोशा नशीन रहे फिर ताएफ का सफर इख़तियार करके तल्ख़ तजुर्बा किया और उसके बाद पलटे तो मुतीम इब्ने अदी से पनाह ले कर मक्के में दाखिल हुए , मगर इस अमर हक़ीक़त से आप अच्छी तरह वाक़िफ थे कि मैं पनाह लेने दुनिया में नहीं आया बल्कि गुमराहियों के सेलाब में डूबी हुई इस दुनिया को अपने साये रहमत में पनाह देने आया हूँ। इसिलए आपने घर पहुँच कर मुतीम बिन अदी का शुक्रिया अदा किया और फरमाया कि बस अब आपकी ज़िम्मेदारी ख़त्म हुई आप अपनी पनाह के बार से शुबकदोश कर दीजिये।

इसके बाद आप मक्के की गलियों , सड़कों और बाज़ारों में निकलते तो ज़्यादा तर हज़रत अली (अ.स.) आपके साथ होते मगर तन्हा वह भी क्या करते जब मशियते खु़दा वन्दी नहीं चाहती थी कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) फिलहाल किसी माद्दी कूवत को बरुये कार लाकर मुशरेकीन का मुक़ाबला करें।

चढ़ती हुई जवानी के आलम में हज़रत अली (अ.स.) का यह ज़ब्ते तहम्मुल , उनके लिये यक़ीनन एक सख़्त इम्तेहानी मरहला था मगरवह भी इस हक़ीक़त से बेगाना न थे कि उनका जिहाद पर बिनाये मसलहत इसी अमर का मुतक़ाज़ी है कि वह सब्रों इस्तेक़लाल से काम लें। ताकि तबलीग़े हक़ की राह में कोई रुकावट पैदा न हो।

अकसर ऐसा भी होता था कि किसी ख़ास सबब की बिना पर हज़रत अली (अ.स.) या ज़ैद बिन हारसा पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) के साथ न होते तो उस वक़्त कुफ्फार के हौसले और भी बुलन्द हो जाते और दिल खोलकर वह आपको तकलीफें पहुँचाते मगर आपको सब्रों सबात का यह हाल था कि आप दुश्मनों की तरफ मुड़कर भी नहीं देखते थे। और जब भी मौक़ा हाथ आता कारे तबलीग़ में कोताही न करते , ख़ुसूसन जब हज का ज़माना आता और लोगों की तलवारें नयामो में चली जाती तो आप इधर उधर से आने वाले क़बाइल के ख़ेमों तशरीफ ले जाते और हर एक को दावते हक़ देते मगर उसका नतीजा भी क्या होता ? इब्ने साद का कहना है कि अरब का हर एक क़बीला आपकी दावत पर लब्बैक न कहता था बल्कि आपको आज़ार पहुँचाता था, पत्थर मारता था और गालियां देता था।


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