तारीखे इस्लाम 2

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तारीखे इस्लाम 2 लेखक:
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तारीखे इस्लाम 2

तारीखे इस्लाम 2

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हिंदी

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तहवीले क़िबला सन् 2 हिजरी

दुनिया की हर क़ौम , हर गिरोह और हर मज़हब का एक इन्तियाज़ी शेआर होता है जिसके बग़ैर उस क़ौम की मुस्तक़िल हस्ती नहीं क़ायम रह सकती। इसलाम ने यह शेआर नमाज़ के क़िबले को क़रार दिया है। जो असल मक़सद के अलावा और बहुत से एहकाम व असरार का जामा है। इस्लाम का खुसूसी और नुमाया वस्फ़ , मसावात , जमहूरियत और अम्ल है यानि तमाम मुसलमान यकसां और मुत्ताहिद नज़र आयें। मज़हबे इस्लाम का रूकने आज़म नमाज़ है जिससे रोज़ाना पाँच वक़्त साबक़ा पड़ता रहता है नमाज़ की असली सूरत यह है कि जमाअत के साथ अदा की जाये। इसी बिना पर नमाज़े जमाअत में एक इमाम होता है इसलिए ज़रुरी है कि सबका मरजए अमल भी एक नज़र आये। यही वह उसूल है कि जिसकी बिना पर नमाज़ के लिये एक ख़ास क़िब्ला क़रार पाया और इस शआर का दायरा इस क़दर वसी किया गया कि क़िबले की तरफ रूख करना ही कुफ्र के दायरे से निकल आना है।

क़िबला किस सिम्त क़रार दिया जाये ? यह इस्लाम और पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) के सामने एक अहम मसला था। यहूदी और ईसाइ बैतुल मुक़द्दस को क़िबला समझते थे क्योंकि उनकी कौ़मी और मज़हबी हस्ती बैतुल मुक़द्दस से वाबस्ता थी। इस उसूल के तहत बुतशिकन इब्राहीम (अ.स.) के जॉनशीन का क़िबला सिर्फ काबा हो सकता था जो इस मुवहिदे आज़म की यादगार और तौहीद का सबसे बड़ा मज़हर है।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) जब तक मक्के में थे दो मसले एक साथ दरपेश थे। मिलल्ते इब्राहीम की तासीस व तजदीद के लेहाज़ से काबे की तरफ रूख करने की ज़रुरत थी , और , शक्ल ये थी कि क़िबले की जो अस्ली गर्ज़ थी यानि इम्तियाज़ व एख़तेसारा , वह नहीं हासिल हुई थी क्योंकि मुशरेकीन और कुफ़्फ़ार भी काबे ही को अपना क़िबला समझते थे। इस बिना पर आन हज़रत (स.अ.व.व.) मुक़ामे इब्राहीम पर नमाज़ पढ़ते थे जिसका रूख बैतुल मुक़द्दस की तरफ था। इस तरह दोनों ही क़िब्ले सामने आ जाते थे।

मदीने में दो गिरोह आबाद थे मुशरेकीन जिनका क़िबला काबा था , और अहले किताब जो बैतुल मुक़द्दस की तरफ रूख करके नमाज़ अदा करते थे। शिरक के मुक़ाबले में यहूदियत और नसरानियत दोनों को तरजीह थी इसिलए आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने एक मुद्दत यानि तक़रीबन 16 महीनों तक बैतुल मुकद्दस की तरफ़ नमाज़ अदा की लेकिन जब मदीने में इस्लाम ज़्यादा फैल गाय तो अब कोई ज़रुरत न थी कि अस्ल किबला को छोड़कर दूसरी तरफ़ रूख़ किया जाता। चुनानचे यह आयत नाज़िल हुई कि तुम अपना मुँह मस्जिदुल हराम की तरफ़ फेर दो और जहाँ कहीं रहो उसी तरफ़ फ़िरो। मुफसेरीन का कहना है कि आयत का नाज़िल होना था कि दफ़तन क़िबला तबदील हो गया। इब्ने हष्शाम और तबरी का ब्यान है कि क़िबले की तहवील शाबान के महीने में मंगल के दिन मदीने में आन हज़रत (स.अ.व.व.) की तशरीफ आवरी के अट्ठारा माह बाद वाक़े हुई और इब्ने साद के मुताबिक़ 15 शाबान थी।

मदाहिबे लदुनिया , तारीख़ मदीना और शहरे ज़रक़ानी में है कि तहवील क़िबला का वाक़िया मस्जिद क़िबलतैन में वाक़े हुआ। सराकरे दो आलम नमाज़ पढ़ ही रहे थे कि तीसरी रकत में तबदीले क़िबले का हुक्म नाज़िल हुआ और उसी वक़्त आपने नाम रूख़ काबे की तरफ फेर दिया जब कि ख़ुदा फरमाता है कि मैंने तुझ को इस क़िबले की तरफ फेर दिया जिससे तू राज़ी था।) 2

एक रवायत में है कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) मस्जिदे कुबा में जो मदीने में से डेढे कोस के फासले पर है नमाज़ ज़ोहर में मशगूल थे और दो रसकते पढ़ चुके थे कि तबदीले क़िबला का हुक्म नाज़िल हुआ और आन हज़रत (स.अ.व.व.) बैतुल मुक़द्दस की तरफ से खान-ए-काबा की तरफ़ रुख करके पढ़ी इसी लिए मस्जिद को जूक़िबलतें यानि दो क़िबले वाली मस्जिद कहते हैं।

जिहाद का हुक्म

बेइस्त के बाद तेरह बरस तक सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) , मुशरेकीने मक्का के मज़ालिम सहते रहे। और जब मक्के से हिजरत करके मदीने में तशरीफ फरमां हुए तो कुफ्फार व मुशरेकीन के ख़िलाफ इन्तेक़ामी कार्रवाई का कोई तसव्वुर आपके ज़ेहन में नहीं था लेकिन कुरेश जो अपने मनसूबों की नाकामी पर पेच व ताब खा रहे थे और आन हज़रत (स.अ.व.व.) के जान बचाकर निकल जाने पर कफे अफसोस मल रहे थे फितना व शोरिश के लिये उठ खड़े हुए और मुसलमानों को घकर से बेखर करने के बाद इस्लाम की तौसीय व तर्क़ी को रोकने के लिये हरब व पैकार पर उतर आये और मुसलमानों को अपनी तागूती ताक़त से कुचलने का फैसला कर लिया। पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) जिन्होने मक्के में पुर अमन तरीक़े से ज़ेहनी इन्क़ेलाब पैदा करना चाहा था और क़बायेल यहूद से मदीने में सुलह व अम्न का तहरीरी मुहायिदा किया ता वह कुरैश की शरअंगेज़ियों के बावजूद यह नहीं चाहते थे कि जंग की नौबत आये और कुश्त व खून की गर्म बाज़ारीहो मगर कुरैश की शरपसन्दी व फितना अंगेज़ी ने जब मुसलमानों के सुकून व इत्मिनान को दरहम बरहम कर दिया और उनके सरों पर जंग मुसल्लत करस दी तो इसके अलावा कोई चारा न था कि जारेहाना हमलों के ख़िलाफ मुदाफेआना क़दम उठाया जाये। चुनानचे आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने उस वक़्त तक जंग का नाम नहीं लिया और न किसी को लड़ने की इजाज़त दी जब तक कुरैश व यहूद ने आपको जंग के लिये मजबूर नहीं कर दिया और कुदरत ने कुफ़्फ़ार के बढ़ते हुए जुल्म व तशद्दुद को रोकने के लिये इजाज़त नहीं दे दी। चुनानचे अल्लाह ताला का इरशाद हुआः-

(जिन (मुसलमानों) के ख़िलाफ़ (काफिर) लड़ा करते हैं अब उन्हें भी जंग की इजाज़त है। इस बिना पर कि उन पर मज़ालिम हुए हैं और यक़ीनन अल्लाह उनकी मदद पर क़ादिर है। (कुरआन मजीद सूरये हज आयत 36)

यह बात ढ़की छुपी नहीं है कि कुफ़्फार ने पहले मुसलमानों को जिला वतन किया और फिर उनके ठिकानों पर हमला आवर होकर उन्हें ख़त्म करने की ठान ली। इस सूरत में उनके ख़िलाफ़ अगर एलाने जंग न किया जाता तो खुद मुसलमानों की बक़ा ख़तरे में पड़ सकती थी। बेशक इस्लाम अमन व सलामती मुहाफिज़ और सुलहा व आशती का पैग़म्बर है मगर उसके यह मानि नहीं है कि दुश्मन की चीरा दस्तीयों और फित्ना अंगेज़ियों को देखते हुए जान बूझकर खामोश राह जाये और उन्हें मन मानी की खुली छूट दे दी जाये। अल्लाह ने मज़लूम व सितम रसीदा लोगों को हक़ दिया है कि वह दुश्मन की बढ़ती हुई सतीज़ा करियों के इन्सदाद और अपनी जान व माल के तहाफुज़ के लिये इमकानी जद्दो जहद करें। ज़ाहिर है कि जिस जमाअत से जीने और साँस लेने का हक़ छीन लिया जाये उसके लिए जंग के अलावा चारा कार ही क्या रह जाता है। अगर जंग मज़मूम और क़ाबिले नफरत शै है तो उसके इरतेक़ाब का इल्ज़ाम उस पर आयद होगा जिसने अज़खुद जंग छेड़कर इन्सानी हुकूक पर दस्तदराज़ियां की हों और कमज़ोर व नातवां को अपने मज़ालिम का निशाना बनाया हो लेकिन जो मज़लूम की हिमायत , फितने के इन्सदाद , जमाअती हुकूक़ के तहाफुज़ और एतक़ाद व अमल की आज़ादी के लिये दुश्मन से टकराये वह हरगिज़ मूरिदे इल्ज़ाम नहीं क़रार दिया जा सकता।

इस्लाम , (सलम) से मुश्तक़ है जिसके मानी सुलह के है। इस नाम ही से ज़ाहिर है कि इस्लाम बुनियादी तौर पर खूँरेज़ी का मुख़ालिफ़ , हरब व पैकार का दुश्मन और सारी दुनिया के लिये अमन व सलामती का पैग़ाम है और इसमें रंग व नस्ल और क़ौम व वतन के तास्सुब और अक़ाएद के इख़तेलाफ़ की बिना पर फौजकशी व सफ आराई की क़तअन गुंजाइश नहीं है और न मुल्कगीरी को इस्लाम और इस्लामी तालिमात से दूर का वास्ता है। इस्लाम सिर्फ़ दो सूरतों में जंग की इजाज़त देता है एक यह कि दुश्मन मुसलमानों के इस्तेहाद के लिये मरकज़े इस्लाम पर हमला आवर हो और बगै़र जान व माल और नामूस का तहाफुज़ ग़ैर मुम्किन हो। दूसरी सूरत यह है कि दुश्मन जंगी तैयारियों में सरगर्मे अमल हो और ढ़ील देने की सूरत में उसकी असकरी कूवत व मादरी वसायल के बढ़ जाने का अन्देशा हो चुनानचे उन्हें दो सूरतों में जब कि जंग नागुज़ीर थी , पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) ने अलमे जंग बुलन्द किया और मुसलमानों को इजाज़त दी कि वह हिफ़ाज़त खुद अख़ितयारी और इस्लाम की बक़ा के लिये दुश्मनों से लड़ें।

अगर चे इब्तेदा में मुसलमान कुफ़्फार के मुक़ाबले में हर लिहाज़ से कमज़ोर थे मगर दुश्मन की कसरत व कूवत और अपनी बे सरो सामानी के बावजूद मैदाने हरब व ज़र्ब में उतर आये कभी बदर के कुँओं पर उनसे टकराये , कभी औहद की पहाडियों में लड़े और कभी मदीने के हुदूद में रह कर मदाख़ेलत की। यह मुक़ामात महले वक़ू के लिहाज़ से (दारूल) इस्लाम (मदीने से क़रीब और (दारूल कुफ्र) मक्के से फासले पर वाक़े है। उन जंगी मेहाज़ों का नकशा देख कर हर बाबसीरत इन्सान बाआसानी फैसला कर सकता है कि जारेहाना इक़दाम किस की तरफ से हुआ और मदाफआना क़दम किसने उठाया। अगर इस्लाम का एक़दाम जारेहाना होता तो जंगों के जाएवक़ू को दुश्मन के मसकन के करीब होना चाहिए था और मुसलमानों के महल व मुक़ाम से दस्तूर लेकिन हर महाज़े जंग इस्लाम के मरकज़ के क़रीब नज़र आता है और कुफ़्फ़ार के मरकज़ से दूर। जो इस अमर की वाज़े दलील है कि पेशक़दमी दुश्मन की जानिब से हुई और मुसलमान इस पेशक़दमी को रोकने की ग़र्ज़ से सफ आरा हुए। अलबत्ता ख़ैबर एक ऐसी जगह है जो इस्लाम के मरकज़ से दूर यहूदियों की जाये क़रार थी मगर अमर वाक़िया यह है कि यह वही लोग थे जो अहद शिकनी के नतीजे में मदीने से निकाले गये थे और अब एक गरां लश्कर शिकनी के नतीजे में मदीने से निकाले गये थे और अब एक गरां लश्कर के साथ मुसलमानों पर हमला आवर होने के लिये पर तोल रहे थे और गिर्दवनवाह के क़बीलों से मुहायिदा करके जंगी तैयारियाँ मुकम्मल कर चुके थे अगर पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) पेशक़दमी न करते और आगे बढ़ कर उनका रास्ता न रोकते तो वह पूरी तैयारी के साथ मदीने पर हमाल आवर होते और मुसमलानों के लिये इस उमजे हुए सेलाब का रोकना मुश्किल हो जाता।

इस हक़ीकत से इन्कार नहीं किया जा सकता कि पैगम़्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) के बाद इस्लाम के नाम पर कुछ जारेहाना जंगे भी लड़ी गयीं जिन में इख़लाक़ी हुदूद और जेहादे इस्लामी के शराएत व आदाब को नज़र अन्दाज़ किया गया। अगर चे एक तबक़े ने क़हर व ग़लबे को हक़ का मेयार क़रार दे कर इस क़िस्म की जांगो को भी जेहादे इस्लामी में शामिल कर लिया है और क़त्ल व खूँरेज़ी के ज़रिये हासिल होने वाली कामयाबी को हक़ व सदाकत की कामयाबी का नाम दिया है मगर इस्लाम न ऐसे इक़दामात का हामी है और न उन जंगो की ज़िम्मेदारी इस्लाम पर आयद होती है इसलिये कि न वह इस्लामी तालीमात के ज़ेरे असर लड़ी गयीं और न उनमें कोई इस्लामी मुफ़ाद मुज़मिर था। इस्लाम का वाज़े ऐलान है। ला इकराहा फिद्दीन। दीन के मामले में कोई ज़बरदस्ती नहीं है और कुरआने मजीद में जिस क़दर भी आयतें जिहाद के मुतालिक़ वारिद हुई हैं वह उन्हीं मवाक़े के लिये है जहाँ दुश्मने इस्लाम की आवाज़ को कूवत व ताक़त से दबाने और मुसलमानों की जमीअत को कुचलने के लिये लश्कर कशी करता है। इस्लाम की तरफ से न जारहाना इक़दाम की इजाज़त है और न ज़बरदस्ती किसी पर अपने अक़ाएद को मुसल्लत करने की हिदात है। उन जंगों की जि़म्मेदारों उन शहंशाहों पर आयद होती है जिन्होंने मुल्कगीरी व किशवर कुशाई के लिये फौज कशी की और गिर्दोपेश के अमन पसन्द मुल्कों को जेहाद की आड़ में पामाल किया। इस तरह अमने आम्मा में ख़लल डाल करस इस्लाम की सुलह जूई और अमन पसन्दी को दाग़दार कर दिया और अपने ज़ालिमाना तर्ज़ेअमल से कुछ लोगों को यह कहने का मौका़ फराहम कर दिया कि इस्लाम का फैलाओ तलवार और दबाव का मरहून है।

इक़सामे जेहाद

दौरे रिसालत में जेहाद दो तरह के होते थे। एक वह जिस में पैग़म्बर इस्लाम (स.अ.व.व.) खुद बा नफ्से नफ़ीस शिरकत फरमाते थे , इसको मोअर्रिख़ीन की इस्तेलाह में गजवा कहते हैं। दूसरा वह जिसने आन हज़रत (स.अ.व.व.) ख़ुद नहीं जाते थे बल्कि किसी दूसरे को अपने क़ायम मुक़ाम की हैसियत से भेजते थे इसकोसरया कहा जात है। इस्लामी ग़जवात की तादाद 16 से 27 तक और सरयो की तादाद 56 बतायी जाती है।

मज़वात की इस फेहरिस्त में जंगे ओहद , जंगे बद्र , जंगे बनि क़ुरैजा , जंगे मरयसी , जंगे ख़ैबर , जंगे वदिउल क़ुरा , फ़तहे मक्का और जंगे हुनैन बहुत मशहूर हैं जिनमें क़िताल वाक़े हुआ।

ग़ज़वा अबवा (सन् 2 हिजरी)

अबुवा मक्के की जानिब मदीने से तीन मील के फासले पर वाक़े है। इज़ने जेहाद का पहले अमलदरामद इसी मुक़ाम पर हुआ। सबब यह बय्ान किया जाता है कि यहाँ कुफ़्फ़ारे कुरैश क़बीलये बनि सरवर को अपना हरीफ बना कर मुसलमानों कर हमला आवर होने की ग़र्ज़ से जमा हुए थे। आन हज़रत (स.अ.व.व.) दो सौ आदमी लेकर मुक़ाबिले को निकले मगर लड़ाई की नौबत नहीं आयी और कुरैश भाग खड़े हुए। क़बीलये बनि सरवन ने आन हज़रत (स.अ.व.व.) से यह मुहायिदा किया कि न हम कुरैश का साथ देंगे और न मुसलमानों के मामले में दख़ल अन्दाजी़ करेंगे। इब्ने खलदून का कहना है कि इसी गज़वे में हज़रत हमज़ा अलमबदार थे और हज़रत हमज़ा का अलम पहला अलम है जो इस्लाम में तैयार किया गया।

सरया राबिग़ (सन् 2 हिजरी)

मक्के से कुछ कुरैश मसला होकर निकले थे , उनके मुक़ाबले में साठ मुहाजरीन अबुअबीदा बनि हारिस की सरबराही में रवाना किये गये। मुक़ामे वतन राबिग़ पर सिर्फ तीरों से मुक़ाबला हुआ। कुफ़्फार भाग गये। इस सरया में बरवायत हबीबुल सैर मुसता बिन असासा अलमबदार थे और कुरैश की तरफ से उनका सरदार अबुसुफियान बिन हरब था।

सरया सैफुल बहर (सन् 2 हिजरी)

अबुजहल की क़यादत में कुछ मुशरेकीन कुरैश जंगी इमदाद के लिये मक्के से शाम की तरफ जा रहे थे कि यह ख़बर मदीने पहुँची। 30 मुहाजिरीन के साथ हज़रत हमज़ा उनके मुक़ाबले के लिये भेजे गये। समुन्द्र के किनारे सैफुल बहर के मुक़ाम पर मुडभेड़ हुई मगर मजदी बिन उमर जहनी ने जो मुसलमानों और कुफ्फ़ार दोनों का हलीफ़ था बीच में प़ड़ कर लड़ाई न होने दी। उस वक़्त अबु मुरसिद ग़नवी अलमब्रदार था।

सरया खुरार (सन् 2 हिजरी)

साद बिन अबी विक़ास 20 मुहाजरीन के साथ एक क़ाफिले की ख़बर पर मामूर हुए। खुरार तक गये क़ाफिला न मिला तो वापस पलट आये।

ग़जूवा जुलअशीरा (सन 2 हिजरी)

आन हज़रत (स.अ.व.व.) को यह मालूम हुआ कि अबु सुफियान के साथ बहुत से कुफ़्फ़ारे कुरैश तिजारत की ग़र्ज़ से शाम की तरफ जा रहे हैं। आप (स.अ.व.व. ) दो सौ साथियों को लेकर उनकी तलाश में निकले। हज़रत अली (अ.स.) और हज़रत हमज़ा भी आपके साथ थे। जुलअशीरा के मुक़ाम पर पहुँचे तो यह मालूम हुआ कि क़ाफिला निकल चुका है। आपने मराजियत फरमायी और उसी सफ़र में बनि मुदलेज और बनि हमजा के साथ मुहायिदा फरमाया।

अल्लामा दयार बकरी का ब्यान है कि इसी सफर में अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) एक दरख़्त के नीचे जब आराम करने के बाद आन हजरत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में आये तो आपने देखा कि जिस्म ख़ाक आलूद है। आपने प्यार से अबुतराब कह कर पुकारा उसी दिन से हज़रत अली (अ.स.) की कुन्नियत अबुतुराब हुई 1। इस सफर में अलमदार हमज़ा बिन अब्दुल मुत्तालिब थे।

हज़रत सलमान फारसी

हज़रत सुलमान फारसी एक ग़रीब किसान के यहाँ असफहान में पैदा हुए थे। ईसाइयों की सोहबत में रह कर उनके ख़्यालात ईसाइयत से मुतासिर हो गये थे लेकिन दिल उसे कुबूल नहीं करता था। चुनानचे हक़ की तलाश में निकले और शाम गये , वहाँ एक अरसे तक छः राहबियों की सोहबत में यके बा दिगरे रहे , जब एक राहिब मरता तो वह उन्हें दूसरे के सुपुर्द कर जाता था , यहाँ तक कि आख़िरी राहिब ने यह बताया कि अब तुम अरब चले जाओ वहाँ नबी आख़िरूल ज़मा (स.अ.व.व.) का ज़हूर हुआ है और उनकी पुश्त पर मोहरे नबूवत है। ग़र्ज़ जनाबे सलमान फारसी एक अमीर क़ाफिले के साथ वादीउल कुरा तक पहुँचे। वहाँ उसने उन्हें एक यहूदी के हाथ फरोख़्त कर दिया। उसने अपने एक रिश्ते के भाई के हाथ बेच डाला वह आपको मदीने ले आया।

जब रसूल (स.अ.व.व.) मक्के से हिजरत करके मदीने में तशरीफ ले आये तो उसी साल माहे जमादुल अव्वल में हुजूर (स.अ.व.व.) की पुश्त मुबारक पर किसी तरह मोहरे नबूवत देखकर ईमान ले आये। उस वक़्त आपकी उम्र ढ़ायी सौ या साढ़े तीन सौ साल की थी। सन् 5 हिजरी में दो ओक़िया सोना देकर आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने आपको उस यहूदी से आज़ाद करा लिया। कहा जाता है कि जनाबे सलमान फ़ारसी , आन हज़रत (स.अ.व.व.) तक पहुँचने से पहले दस जग बिके थे।

जंगे खंदक में ख़ंदक खोद कर लड़ने का तरीक़ा आप ही ने बताया था और ख़ंदक खोदने में सबसे दुगना काम भी किया था। बाद में उमर बिन ख़त्ताब ने अपने दौर में आपको मदाइन का हाकिम बनाया था मगर यह मज़दूरी करके अपनी गुज़र बसर करते थे। मोहताज नवाज़ , फकीर दोस्त और अहले सफ़ा से थे। सन् 35 हिजरी में वफात हुई।

अब्दुल्लाह इब्ने अबीसलूल मुनाफिक़

अब्दुल्लाह इब्ने सलूल नामी सरदार को क़बीलयें ख़िज़रिज के लोग अपना फ़रमारवा बनाना चाहते थे मगर जब आनहज़रत (स.अ.व.व.) वारिदे मदीना हुए तो उन लोगों के ख़्यालात बदल गये।

अब्दुल्लाह एक खुश इख़लाफ़ व वज़नदार इन्सान था। बज़ाहिर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के साथ वह इन्तेहाई अदब व एहतराम और खुश इख़लाक़ी व वज़ादारी से पेश आता था मगर दिल ही दिल में आपसे हसद भी रखता था। उसने कुछ लोगों को अपा हम ख़्याल बना लिया था और कभी कभी उनके साथ मुसलमानों की मजलिसों और नाशिस्तों मे आ जाता था। आन हज़रत (स.अ.व.व.) को जब उशके दरपर्दा हसद और अदावत की ख़बर हुई तो आपने उसका और उसके साथियों का नाम मुनाफ़िक़ रखा। यह लोग एक अरसे तक मदीने में आन हज़रत (स.अ.व.व.) की मुख़ालेफ़त करते रहे। इब्ने ख़लदून का कहना है कि उनके अलावा मुनाफ़िकों के सरदार ख़िज़रिज़ से जद बिन क़ैस , क़बीला ऊस से हरस बिन सुहैल , इबाद बिन हनीफ़ और मरबा बिन क़ीज़ी वग़ैरा भी थे और यहूदियों में से जो बज़ाहिर इस्लाम के हमनवा और उसकी पनाहगाह में थे मगर कुफर में डूबे हुए थे , साद बिन ख़नीस , ज़ैद बिन लसीत , राफे बिन ख़जीमा रफाआ बिन ज़़ैद और कनाना बिन ख़बूरा वग़ैरा थे।

मवाख़ात (भाई-चारा)

हिज़रत के बाद , मदीने में मुहाजिरीन और अनसार बाहम इस तरह घुल मिल गये थे गोया उनके दरमियान वतनी व क़ौमी तफरिक़ा कभी था ही नहीं। उनके रहन सहन और बाहमी तालूक़ात से ऐसा महसूस होता था कि यह सब एक ही कुनबे के अफराद हैं और एक ही खानदान से वाबस्ता हैं। उनका माले मुशतरक , इज़्ज़त व आबरू मुशतरक और दुख सख मुशतरक था और पूरी ज़िन्दगी मुकम्मल इत्तेहाद , यगानिगत और यकजहती का बेमिसाल नमूना थी। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने इस मुहब्बत व उख़ूवत को मज़बूत तर करने के लिये जिस तरह मक्के में मुसलमानों के दरमियान मुवाख़ात क़ायम की थी इसी तरह मदीने में भी मुहाजिरीन और अन्सार के दरमियान भाई चारा क़ायम किया और एक को दूसरे का भाई बनाया ताकि रंग व नसल और क़ैमियत व वतनियत के इम्तेयाज़ात ख़त्म करके उनमें मसावात और बराबरी का एहसास पैदा करे ताकि तालूक़ात की खुशगवारी को क़ायम रखते हुए वह एक दूसरे के दुख दर्द में शरीक हों। मुहब्बत व ईसार के तकाज़ों पर अमल करें और इत्तेहाद यकजहती का नमूना क़रार पायें।

हुक्मा के नज़दीक उख़ूवत के रवाबित इत्तेहाद पसन्द अफराद में ही मुसतहकम हो सकते हैं और अगर मिज़ाज़ों में इ्त्तेहाद पसन्द अफराद में ही मुस्तहकम हो सकते हैं और अगर मिज़ाज़ों में इत्तेहाद पसन्दी न हो तो वक्ती तौर पर किसी ग़र्ज़ या मसलहत की बिना पर उख़ूवत का रिश्ता जोड़ा भी जाये तो उसमें दवाम व इस्तेहकाम पैदा नहीं हो सकता। पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) ने इसी इत्तेहाद पसन्दी और मिज़ाज की यकरंगी पर उख़ूवत की बुनियाद रखी और बाहमी रिश्ते क़ायम करने से पहले मुख़तलिफ़ अफ़राद के तबई रूझान व ज़ेहनी मिलान का जाएज़ा ले लिया होगा और जिन दो फरदों के एख़लाक़ व आदात में मुमासिलत देखी उन्हें आपस में एक दूसरे का भाई बनाया होगा चुनानचे मक्के में आपने अबुबकर व उमर के दरमियान उसमान और अब्दुल रहमान इब्ने औफ़ के दरमियान , और तलहा व जुबैर के दरमियान भाई चारा क़ायम किया। उनकी हम आहंगी व यकरंगी खिलाफ़त शूरा और जमल के वाक़ियात से नुमायां व आशकार है। इसी तरह मदीने में ज़हनी व तबयी रूझानात को देखते हुए हज़रत अबुबकर को ख़ारज़ा बिन ज़ैद का , हज़रत उमर को अतबान इब्ने मालिक का , हज़रत उसमान को ऊस इब्ने साबित का , अबुअबीदा को साद इब्ने मुआज़ का , अब्दुल रहमान इब्ने औफ को साद इब्ने रबिया का , जुबैर को सलमा इब्ने सलामा का , तलहा को काब इब्ने मालिक का , अम्मार यासीर को क़ैस इब्ने साबित का और सलमान फारसी को अबुदर्दा का भाई क़रार दिया। ग़र्ज़ उफ़तादे तबआ के लिहाज़ से जो जिससे मेल खाता नज़र आया उसे उसका भाई बनाया और जो पचास अन्सार के दरमियान रिश्तये उख़ूवत क़ायम किया उन्हें भाईचारे के मज़बूत बन्धनों से जोड़ा! मगर ऐसा कोई शख़्स नज़र न आया जिससे हज़रत अली (अ.स.) का रिश्तये अखूत जोड़ा जाता। और किसी के साथ यह रिश्ता जोड़ा भी नहीं जा सकता था , इसलिये कि दावते जुलअशीरा के क़ौल व क़रार की रू से अली (अ.स.) पैगम्बर (स.अ.व.व.) के भाई क़रार पा चुके थे। फिर फी आपने इस अहदे उखूवत की तजदीद के लिये जिस तरह मक्के में सिलसिलए उख़ूवत क़ायम करते हुए उन्हें अपना भाई क़रार दिया था , मदीने में भी अली (अ.स.) ही के शरफे उख़ूवत से सरफ़राज़ फरमाया।

अल्लामा अब्दुल बर तहरीर फरमाते हैः-

(रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ने एक दफा मुहाजरीन के दरमियान भाई चारा क़ायम किया और दूसरी दफा मुहाजरीन व अन्सार में और दोनों मर्तबा अली (अ.स.) से फरमाया कि तुम दुनिया व आख़रत में मेरे भाई हो।)

इस उख़ूवत से मुराद आम इस्लामी उख़ूवत हरगिज़ नहीं है जो आयए इनमल मोमेनीन उख़ूवतुन (अहले ईमान आपस में भाई भाई) की रू से सभी अहले ईमान को हासिल थी बल्कि ऐसी उख़ूवत मुराद है जो अवामी उख़ूवत की सतह से बुलन्द तर और इन्तेहाई कुरबत व वाबस्तगी की आईनदार है। अगर उससे आम अखूत मुराद होती तो मोमिन होने के एतबार से हज़रत अली (अ.स.) को पहले ही से हासिल थी और उसके साथ ही इब्ने अम होने की वजह से नसली उख़ूवत भी हासिल थी फिर इस मुज़ाहिरए उख़ूवत की ज़रूरत ही क्या थी ? कोई वजह न थी कि हज़रत अली (अ.स.) शुरू में उख़ूवत के लिये मुन्तख़ब न होने पर आज़रदा ख़ातिर होते और पैगम़्बर (स.अ.व.व.) से गिला करते। चुनानचे आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने सहाबा को जब एक दूसरे का भाई बनाया और अली (अ.स.) को अखूत के लिए मुन्तख़ब न फरमाया तो हज़रत के दिल को ठेस लगी और आँखों में आँसू लिये हुए पैगम्बर (स.अ.व.व.) की ख़िदम में हाज़िर हुए और अर्ज़ की कि या रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ! आपने मुहाजरीन व अन्सार को एक दूसरे का भाई बनाया है मगर मुझे नज़र अन्दाज़ कर दिया है और किसी उख़ूवत के क़ाबिल मसझा ही नहीं। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने यह शिकवा सुना तो अली (अ.स.) को गले से लगाया और फरमाया , (ऐ अली तुम दुनिया में भी मेरे भाई हो और आख़रत में भी)

इस उख़ूवत ने न सिर्फ अखूत पर जेला की बल्कि तमाम मुहाजरीन व अन्सार के मुक़ाबले में हज़रत अली 0 (अ.स.) की फज़ीलत व बरतरी और इख़लाक़ व किरदार में पैग़म्बर (स.अ.व.व.) से मुमासिलत को भी वाज़े कर दिया। इसलिये कि ये इन्तेख़ाब इशका सुबूत है कि सिर्फ अली (अ.स.) ही आन हज़रत (स.अ.व.व.) के सिफात के आईनादार और शरफ़े उख़ूवत के सज़ावार थे और उनके अलावा कोई दूसरा इस उख़ूवत का अहल न था। अगर होता तो पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की नज़र उस पर पड़़ती इस लिये कि इस इन्तेख़ाब का ताल्लुक नस्बी क़राबत से नहीं है बल्कि सिफात , अलम और किरदार से है। शायद यही वजह थी कि हज़रत अळी (अ.स.) मिम्बर से फरमाया करते थे कि (मैं अल्लाह का बन्दा और उसके रसूल (स.अ.व.व.) का भाई हूँ)

यहूदियों से मुहायिदा

मदीने में यहूदियों के मुख़तलिफ़ क़बीले मुद्दतों से आबाद थे जिमें बनि क़ीनक़ा बनी कुरेज़ा ख़रीज़ला और बनि नज़ीर मुम्ताज़ और नुमाया हैसियत के मालिक थे। यह लोग क़दीम आसमानी किताबों के मुन्दरजात पर यकीन रखते थे और इसी बिना पर पैग़म्बर आख़रूल ज़मा (स.अ.व.व.) के आने की पेशिन्गोई करते थे।

रसूले अकरम (स.अ.व.व.) जब मदीने में तशरीफ लाये और आपकी कुव्वत व ताक़त बढ़ना शुरू होई तो उन यहूदियों के पेशवाओं को अपना इक़तेदार ख़तरे में दिखाई देने लगा इस लिये वह इस्लाम कुबूल करने पर आमादा न हुए। उन्होंने तय किया कि अपने मज़हब पर कायम रहते हुए पैग़म्बरे इस्लाम से ऐसा मुहायिदा कर लें जिससे उनका मौकफ़ और जान व माल महफूज हो जाये और मुस्तक़बिल में किसी ख़तरे का अन्देशा न रहे।

चुनानचे बक़ौल अल्लामा तबरसी उनका एक बफ़द आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और उसने कहा कि सरदस्त हम आपसे मुहायिदा करना चाहते हैं जिसके शरायत यह होंगे कि हम लोग किसी जंग मे न आपकी हिमायत करेंगे और मुख़ालेफ़त। हम किसी जंग में न आपको मदद देंगे और न आप के खिलाफ किसी की इमदाद करेंगे। हम आपके असहाब में किसी से कोई ताअरूज़ करेंगे और न यह चाहेंगे कि आप या आपके असहाब हम से या हमारी क़ौम के किसी आदमी से ताअरूज़ करें।

ग़र्ज़ कि हज़रत रसूले खुदा (स.अ.व.व.) ने उन्हीं शरायत की रौशनी में उनसे इस शर्त के साथ मुहायिदा किया कि अगर उन्होंने इस अहद नामों की कोई ख़िलाफवर्ज़ी की तो हम उनकी जान व माल के ज़िम्मेदार नहीं होंगे। यहूद के तीनों मुम्ताज़ क़बीलों में हर क़बीले के लिये एक एक दस्तावेज़ लिखी गयी जिसकी तहरीर के वक़्त बनि नज़ीर से हयी बनि अखतब , बनि कुरैज़ा से काब बिन असीद और क़बीला बनि क़ीनक़ा से मख़रीफ़ जो उन में सबसे ज़्यादा मालदार थे , मौजूद थे।

क़दीम व मुस्तनिद आलम अली बिन इब्राहीम बिन हाशिम ने इस तारीख़ी मुहायिदे की शराएत को बड़ी तफसील के साथ वाज़ेह फरमाया है जिसका खुलासा हस्बजैल है।

(1) यह मुहायिदा मुहम्मद (स.अ.व.व.) और उन दीगर अक़वाम के दरमियान है जो मुसलमानों से कारोबार करते हैं।

(2) बनि औफ के यहूदियों को मुसलमानों में शुमार किया जायेगा।

(3) अगर कोई बैरूनी दुश्मन इस मुहायिदे में शरीक होने वाली क़ौमों पर हमला आवर होगा तो सब मिल कर इस का दिफा करेंगे।

(4) इस मुहायिदे में शरीक होने वाली क़ौमें , समाजी व इक़तेसादी मुआमलात में एक दूसरे की मोईन व मददगार रहेंगी।

(5) ग़ैर मुहायदीन के मुक़ाबले में मुहायेदीन की एक अलाहिदा जमाअत शुमार होगी।

(6) मुहाजरीने कुरैश अपने मुजरिमों की जानिब से दैत की अदायगी के जिम्मेदार होंगे। अपने क़ैदियों को खुद ही फिदया देकर छुड़ायेंगे और यह काम उसूल व इन्साफ के तहत होगा।

(7) बनि हारिस , बनि सोयदा , बनि औफ , बनि जशम , बनि नज्जार , बनि अम्र बिन नबीत और बनि ऊस अपनी जमाअत के ख़ुद ज़िम्मेदार होंगे और हस्बे साबिक़ अपनी अपनी दैयत बाहम मिल कर अदा करेंगे। अपने क़ैदियों को फिदया देकरस आज़ाद करायेंगे।

(8) कोई मुसलमान किसी दूसरे मुसलमान के आज़ाद करदा गुलाम की मुख़ालिफ़त नहीं करेगा।

(9) मुसलमानों पर फ़र्ज़ होगा कि वह हर ऐसे शख़्स की बिल ऐलान मुख़ालिफत करे जो फितना व फसाद बरपा करता हो , ख़ल्क़े ख़ुदा को सताता हो , सरकशी इख़तेयार करता हो और दूसरों की जायदाद या माल ग़सब करना चाहता हो। ऐसे शख़्स को सज़ा देने में तमाम मुसलमान आपस में मुत्तफिक़ व मुत्ताहिद रहेंगे ख़्वाह वह शख़्स उनमें से किसी का फरज़न्द ही क्यों न हो ?

(10) किसी मुसलमान को यह हक़ न होगी कि वह किसी मुसलमान को किसी महारिब (लड़ने वाले) के बदले में क़त्ल करें या किसी मुसलमान के मुक़ाबिले में किसी महारिब की मदद करे।

(11) अगर कोई मुसलमान किसी मुसलमान को पनाह देगा तो उसकी पाबन्दी तमाम मुसलमानों पर लाज़मी होगी ख्वाह पनाह देने वालों अदना दर्जा का मुसलमान क्यों न हो।

(12) जिन यहूदियों ने हमारे साथ मुहायिदा किया है उनके मुतालिक मुसलमानों पर वाजिब है कि उनके साथ भाई चारे का बरताव करें उन पर जुल्म न करें बल्कि उनकी मदद करें।

(13) जब अल्लाह की राह में जंह हो तो कोई मुसलमान दूसरे मुसलमान को छोड़कर दुश्मन से उस वक़्त तक सुलह नहीं करेगा जब तक वह सुलह तमाम मुसलमानों के लिये क़ाबिले कुबूल न हो।

(14) जो मुसलमान जेहाद फि सबीलिल्लाह में शहीद होंगे उनके पसमुन्देगान की किफालत तमाम मुसलमानों पर वाजिब होगी।

(15) इस मुहायिदे के तहत यहूदियों पर लाज़िम होगी कि वह जंग की हालत में जब कि मुसलमान बरसरे पैकार हों उनकी माली इमदाद करें।

(16) मुहायेदीन में कोई शख़्स मुहम्मद (स.अ.व.व.) की इज़ाज़त के बगै़र फौजी इक़दाम नहीं करेगा।

(17) किसी ज़र्ब या ज़ख्म का बदला लेने में कोई रुकावट नहीं डाली जायेगी और जो अहद शिकनी करेगा वह सज़ा का मुस्तहक होगा।

(18) पहाड़ों से घिरा हुआ यसरब का मैदान मुहायेदीन के लिये हरम के मुतरादिफ होगा।

(19) अहले मुहायिदा में अगर कोई हादिसा या इख़्तेलाफ़ रुनूमा हो जिसकी वजह से नक़्से अमन का सन्देशा हो तो उसके फैसले के लिये ख़ुदा और उसके रसूल (स.अ.व.व.) से रुजू किया जायेगा।

(20) यसरब पर हमले की सूरत में हम जमाअत को इस हिस्से की मदाफियत करना होगी जो इसके बिलमुक़ाबिल होगा।

(21) मुहायेदीन में कोई जमाअत इस मुहायिदे की ख़िलाफवर्ज़ी नहीं करेगी।

यह मुहायिदा दुनिया का सबसे पहला दस्तूरे इत्तेहाद और सहीफ़ए अमन था जो ताजदारे यसरब व बतहा हज़रत मुहम्मद मुस्तफा (स.अ.व.व.) की हिक्मते अम्ली से मुर्त्तब हुआ और सन् 2 हिजरी में इसका निफाज़ अमल में आया।

हज़रत फ़ात्मा ज़हरा सलवातुल्लाह अलैहा का अक़द सन् 2 हिजरी

हज़रत फात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) जनाबे ख़दीजतुल कुबरा के बतन से पैग़म्बर इस्लाम (स.अ.व.व.) की अज़ीज़ तरीन और इक़लौती साहबज़ादी थी। बेइस्त के पाँचवे साल मक्के में विलादत हुई और अभी पाँच बरस का सिन था कि माँ का साया सर से उठ गया और आपकी परवरिश व परदाख़्त की तन्हा ज़िम्मेदारी पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) पर आ पड़ी। आप शब व रोज़ की मसरूफियातों के बावजूद इस गौहरे असमत व तहारत की देख भाल भी करते और तालीम व तरबियत पर भी पूरी तवज्जों फरमाते।

आपने अपनी इल्मी व अम्ली तालिमात से मासूमा (स.अ.व.व.) के फितरी जौहर को इस तरह निखारा कि कमसिनी में ही ज़नानें आलम के लिये नमूनये अम्ल क़रार पायीं। अगर आप एक तरफ शक्ल व सूरत में पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की तस्वीर थीं तो दूसरी तरफ़ उनके महासिन व कमालात का भी कामिल तरीन मुर्रक़ा थीं। अगर चलती थीं तो पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के चलने का शुबा होता था और बोलती थीं तो हामिले वही के बोलने का धोका होता था

जनाबे फात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) दामने रिसालत में परवरिश पाकर उस मर्तबे आलिया पर फायज़ हुई कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) उन्हें उम्मे अबीहा , अदीला मरियम और सय्यदतुल निसाइल आलामीन के लक़ब से याद फरमाते थे। और जब पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाज़िर होती तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) बे साख़्ता ताज़ीम के लिये खड़े हो जाते। हज़रत आयशा फरमाती हैं कि जब जनाबे फात्मा (स.अ.व.व.) रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) के पास आती तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) खड़े हो जाते , बोसा देते , खुश आमद कहते और हाथ थाम कर उन्हें अपनी मसनद पर बिठाते। 1

मदीन-ए-मुनव्वरा में वरूद के बाद जब जनाबे सैय्यदा (स.अ.व.व.) सिने बलूग़ को पहुँची तो कुरैश के सरकिरदा अफराद की तरफ से ख़्वास्तगारी के पैग़ाम आने लगे मगर आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने कुछ लोगों के पैग़ाम पर मुँह फेर लिया और साफ जवाब दे दिया। और कुछ लोगों से फरमाया कि फात्मा का मुआमला अल्लाह के हाथ में है वह जहाँ चाहेगा निस्बत ठहरा देगा।

जब रसूल (स.अ.व.व.) की तरफ से किसी को हिम्मत अफज़ा जवाब न मिला तो बाज़ सहाबा ने हज़रत अली (अ.स.) को मशविरा दिया कि आप पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के भाई और क़रीब तीन अज़ीज़ हैं आपका खून और खानदान एक है आप भी पैग़ाम दीजिये। कोई वजह नहीं कि आपकी दरख़्वास्त पर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) इन्कार करें। फरमाया कि मुझे आन हज़रत (स.अ.व.व.) से अर्ज़ करते हुए हिजाब महसूस होता है। उन लोगों ने इसरार किया तो कहा , अच्छा किसी मुनासिब मौक़े पर आन हज़रत (स.अ.व.व.) से अर्ज़ करूँगा। चुनानचे एक दिन ज़रुरी कामों से फारिग़ होकर आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाजि़र हुए और एक गोशे में सर झुकाकर बैठ गये। पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने आपको ख़ामोश देखा तो समझ गये कि इस ख़ामोशी में कोई अर्जदाश्त छुपी हुई है। फरमाया , ऐ अली (अ.स.) ! कुछ कहना चाहते हो ? अर्ज़ किया हाँ। फरमाया कि फिर कहो। अली (अ.स.) के चेहरे पर शर्म की सुर्खी दौड़ गयी। निगाहों को नीचा करके दबी ज़बान में कहा , या रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) आपने बचपन से मुझे पाला पोसा है मुझ पर आपके एहसानात मेरे माँ बाप से भी बढ़ कर हैं , आब मे मज़ीद एहसान का उम्मीदवार होकर हाज़िर हुआ हूँ। ये सुन कर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के चेहरे पर मुसर्रत व शादमानी की लहर दौड़ गयी। फरमाया , कुछ देर ठहरो में अभी आता हूँ। यह कह कर घर के अन्दर तशरीफ ले गये और फात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) से कहा , बेटी! अली (अ.स.) रिश्ते की दरख़्वास्त ले कर आये हैं , तुम्हारी क्या मर्ज़ी है ? फ़ात्मा (स.अ.व.व.) सर झुकाये ख़ामोश बैठी रहीं और कोई जवाब न दिया। पैग़म्बर (स.अ.व.व.) समझ गये कि ये ख़ामोशी इज़हारे रज़ामन्दी है। और फिर वापस आकर हज़रत अली (अ.स.) से फरमाया कि हाँ ऐसा ही होगी। अब तुम ज़रे मेहर का इन्तेज़ाम करो। हज़रत अली (अ.स.) ने कहा या रसूल उल्लाह! मेरे पास ज़ेरह तलवार और एक ऊँट के अलावा कुछ नहीं है। फरमाया , तलवार और ऊँट रहने दो , ज़िरा फ़रोख़्त कर डालो। आपने वह ज़ेरह हज़रत उसमान का हाथ चार सौ अस्सी दिरहम में फरोख़्त कर दी और उस रक़म से बतौरे मेहर आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में पेश कर दिया। आपने उन दिरहमों में से कुछ दिरहम , हज़रत अबुबकर को दिये और अम्मार यासीर व चन्द सहाबा को उनके हमराह किया ताकि वह घर गिरस्ती का कुछ सामान खरीद लायें और कुछ दिरहम बिलाल को दिये और फरमाया कि इस रक़म से खुशबू का सामान यानि इत्र वग़ैरा खरीद लाओ।

माहे ज़ीक़ाद सन् 2 हिजरी को मस्जिदे नबूवी में महफिले अक़द आरास्ता हुई। तमाम सहाबा ने शिरकत की। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने खुतबा पढ़ा , फसाहत की कलियाँ चिटकीं , बलाग़त के फूल खिले और तरफ़ैन से ईजाब व कुबूल हुआ और यह मुबारक तक़रीबे इन्तेहाई सादगी के साथ आन हज़रत (स.अ.व.व.) की दुआए ख़ैर व बरकत पर ख़त्म हुई।

पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने दावते वलीमे के सिलसिले में गोश्त और रोटियों का इन्तेज़ाम किया और अली (अ.स.) ने रौग़न और खजूरें मोहय्या कीं। दावत का एळाने आम था सब मुहाजिर व अन्सार शरीक हुए , ज़न व मर्द ने शिकम सेर होकर खाना खाया।

सरवरे दो आलम (स.अ.व.व.) की दुख़्तर और सरज़मीने हिजाज़ की मुतमौवल तरीन ख़ातून जनाबे ख़दीजा (स.अ.व.व.) की बेटी को जो जहेज़ दिया गया वह एक पैराहन , एक ओढ़नी , एक चादर , खजूर की रस्सी से बनी हुई एक चार पाई , दो तोशकें , एक में ऊन एक में खजूर की छाल भरी थी। चमज़े के चार तकिये। एक चटाई एक चक्की , एक मशकीज़ा , एक घड़ा , चन्द मिट्टी के प्याले और एक लगन पर मुश्तमिल था जिन की मजमूयी क़ीमत उसी दिरहम थी। जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने अपनी अज़ीज़ बेटी के जहेज़ को देखा तो आँख में आँसू आ गये। एक एक चीज़ को उलटा , पलटा और आसमान की तरफ से उठा कर फरमाया कि खुदाया , इन लोगों को बरकत दे जिनके बरतन ज़्यादा मिट्टी के होते हैं।

जब दिन ने अपना दामन समेटा , रात ने सियाह पर्दे आवेज़ा किये , अक़द परवीन ने जबीं ने फलक पर अफशों चुनी और मश्शातए फितरत ने ऊरूसे सिपहर को सितारों से आरास्ता किया तो पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने जनाबे फात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) को अपने ख़च्चरे शहबा पर सवार किया। तकबीर की आवाज़ों से मदीने की फज़ायें गूँज उठी। हर तरफ से मुबारक सलामत और ख़ैरो बरकत की सदायें बुलन्द हुई , तहमीद व तक़दीस के नग़में दरो दीवार से टकराये अन्सार व मुहाजिरीन की औरतें रजज़ ख़्वानी करती हुई साथ साथ , सलमान फारसी लजाम थामे हुए आगे आगे और पैग़म्बर (स.अ.व.व.) और तमाम बनि हाशिम तलवारें बुलन्द किये हुए पीछे पीछे। इस शानो शौकत से यह जुलूस रवाना हुआ और मस्जिद नबवी का तवाफ़ करके मंज़िले मक़सूद पर पहुँचा। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने बेटी का हाथ पकड़ कर अली (अ.स.) के हाथ में दिया और फरमाया , तुम्हें दुख़्तरे रसूल मुबारक हो फिर पानी का एक प्याला तलब किया और अली (अ.स.) व फात्मा (स.अ.व.व.) के सर व सीनें पर छिड़का और फरमाया , परवरदिगार इन दोनों को बरकत दे और इनकी नसल व औलाद में भी बरकत अता कर।

यह रिश्तये अज़वाज इस लिहाज़ से बड़ी अहमियत रखता है कि एक तरफ उससे नसले पैग़म्बर (स.अ.व.व.) का सिलसिला क़ायम रहा और दूसरी तरफ़ उन दुश्मनाने दीन की रूसियाही का सामान हुआ। जिन्होंने आन हज़रत (स.अ.व.व.) को बे औलाद का ख़िताब दे रखा था अगर चे पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की नरीना औलादें ज़िन्दा न रहीं मगर हसन (अ.स.) हुसैन (अ.स.) फरज़न्दाने दुख़्तर होने के एतबार से अबनाये रसूल (स.अ.व.व.) क़रार पाये और उन्हीं दोनों से आपकी नस्ल फूली , फली और चली नीज़ दुनिया के गोशे गोशे में जुर्रियते रसूल (स.अ.व.व.) कहलाई चुनानचे आन हज़रत (स.अ.व.व.) का इरशाद है किः

खुदावन्दे आलम ने हर नबी की जुर्रियत को उसके सुल्ब में क़रार दिया और मेरी जुर्रियत को अली इब्ने अबुतालिब (स.अ.व.व.) के सुल्म में रखा। 1

औलादे सुल्बी हो या दुख़तरी , दोनों औलाद का दर्जा रखती हैं। औलाद दुख़्तरी को औलाद न समझना ज़मानये जाहेलियत के ग़लत नज़रियात की पैदावार है। इस दौर में बाज़ अफराद इसको बर्दाश्त ही न कर सकते थे कि वह अपनी लड़कियों का अज़वाजी रिश्ता क़ायम करकते उन्हें दूसरों की कनीज़ी में दे दें यहाँ तक कि बाज़ क़बायल में लड़कियों को जि़न्दा दफ़्न कर देना इज़्ज़त का मेयार क़रार पा चुका था और जिन क़बायल में लड़कियाँ हलाक़त से बच कर ब्याही जाती थीं उनकी औलाद को औलाद नहीं समझा जाता था।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) ने बेटी के बेटों को अपना फरज़न्द क़रार देकर दौरे जाहेलियत की ग़ल्त ज़ेहनियत पर कारी ज़र्ब लगाई और इस हक़ीकत को अमलन नुमायाँ किया कि जिस तरह बेटे की औलाद , औलाद होती है उसी तरह बेटी की औलाद भी औलाद है और निस्बते मादरी भी एतबार के इसी दर्जे पर है जिस दर्जे पर निस्बते पेदरी है चुनानचे पैग़म्बर (स.अ.व.व.) जब भी फरज़न्दाने ज़हरा (स.अ.व.व.) का ज़िक्र करते तो उन्हें बेटा कह कर याद करसते और हसनैन (अ.स.) भी उन्हें बाप कह कर ख़िताब करते और अमीरूल मोमेनीन को बाप के बजाये (अबुल हसन) कह कर पुकारते अलबत्ता वफाते पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के बाद उन्हें बाप कह कर पुकारना शुरा किया और अमीरूल मोमेनीन भी उन्हें औलादे फात्मा (स.अ.व.व.) होने की बिना पर फरज़न्दे रसूल समझते थे चुनानचे जंगे सिफ्फ़ीन में जब ईमामे हसन (अ.स.) क़ेताल के लिये बढ़े तो आपने फरमाया-

मेरी तरफ़ से इस जवान को रोक लो कि इसकी मौत मुझे ख़स्ता व बे हाल न कर दे क्योंकि मैं उन दोनों नौजवान (हसन (अ.स.) और हुसैन (अ.स.) ) को मौत के मुँह में देने से इसलिए गुरेज़ करता हूँ कि कहीं उनके मरने से रसूल (स.अ.व.व.) की नस्ल न क़ता हो जाये।

मुहम्मद बिन तलहा शाफई ने मतालिबुल सऊल में तहरीर किया है कि हज्जाज बिन यूसुफ सक़फी को जब यह मालूम हुआ कि आमिर शबी हसन (अ.स.) व हूसैन (अ.स.) का जब ज़िक्र करते हैं तो उन्हें फरज़न्दाने रसूल कह कर याद करते हैं। हज्जाज इस पर बर अफ़रोख़्ता हुआ और उन्हें बाज़ पुर्स के लिये तलब किया। जब शबी उस के यहाँ पहुँचे तो देखा कि मजलिस में कूफे व बसरे के ओलमा व ऐयान जमा हैं। हज्जाज ने शोबी से मुख़ातिब होकर कहा , मैंने सुना है कि तुम हसन (अ.स.) और हुसैन (अ.स.) को फरज़न्दानें रसूल कहते हो हालाँकि वह उनके बेटे न थे बल्कि उनकी बेटी फात्मा (स.अ.व.व.) के बेटे थे और बेटी से सिलसिलए निस्बत नहीं चला करता। शेबी कुछ देर खोमोश रहे और फिर कुरान मजीद की इस आयत की तिलावत कीः-

वमिन जुर्रियते दाऊद व सुलेमान व अय्यूब व युसूफ व मूसा व हारून कज़ालेका नजज़िल मोहसनीन व ज़करिया व यहया व ईसा व इल्यास कुल मिनल सालेहीन-------------------

और इब्राहीम की नस्ल में दाऊद व सुलेमान व अय्यूब व युसूफ , मूसा और हारून को भी हिदायत की और हम यूँ ही नेकू कारों को सिला देते हैं और जक़रिया , यहया , ईसा और इल्यास को हिदायत की यह सब ख़ुदा के नेक बन्दों में से शामिल थे

इस आयत की तिलावत के बाद कहा कि इस में हज़रत ईसा (स.अ.व.व.) को भी जुर्रियते इब्राहीम में शुमार किया गया है और यह इस वजह से कि वह मादरी सिलसिला से उन तक मुनतही होते हैं। जब मरियम बिन्ते इमरान की निस्बत से हज़रत ईसा (स.अ.व.व.) को जुर्रियते इब्राहीम (अ.स.) में शुमार किया जा सकता है तो फात्मा (स.अ.व.व.) बिन्ते रसूल (स.अ.व.व.) की निस्बत से हसन (अ.स.) हुसैन (अ.स.) को जुर्रियते रसूल में क्यों नहीं समझा जा सकता जबकि सूरत यह है कि जनाबे मरियम और हज़रत इब्राहीम अ) में तीन पुश्तों का फासला है और फ़ात्मा व रसूल (स.अ.व.व.) में कोई फ़ासला हायल नहीं है। यह सुन करस हज्जाज से कोई जवाब न बन पड़ा और वह ख़ामोश हो गया।


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