तारीखे इस्लाम 2

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तारीखे इस्लाम 2 लेखक:
कैटिगिरी: इतिहासिक कथाऐ

तारीखे इस्लाम 2

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: जनाब फरोग़ काज़मी साहब
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तारीखे इस्लाम 2

तारीखे इस्लाम 2

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

(सन् 6 हिजरी)

ग़ज़वा बनि लहियान

रजी से कुछ लोगों ने मदीने में आकर आन हज़रत (स.अ.व.व.) के रूबरू इस्लाम कुबूल किया और यह ख्वाहिश ज़ाहिर की कि तबलीग़ के लिय कुछ लोगों को हमारे साथ भेज दिया जाये चुनानचे छः आदमियों को आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने उन लोगों के साथ भेज दिया। रजीय पहुँचने पर उन लोगों ने आन हज़रत (स.अ.व.व.) के आदमियो को क़त्ल कर दिया। क़सास के लिये पैग़म्बर (स.अ.व.व.) बनि लहियान पर चढ़ाई की मगर वह लोग इधऱ उधर भाग निकले और कोई हाथ न आये तो आपने 14 दिन वहाँ क़याम के बाद मराजियत फरमायी।

गज़वाऐ ज़ीक़ुर्द

ऐइना बिल हसीन फ़ज़ारी नामी एक शख़्स ने आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ऊँटनियां जंगल से पकड़ लसी थी। जेहाद की ग़र्ज़ से आप मदीने से रवाना हुए और 4 रबीउलअव्वल को जी खुर्द के मुक़ाम पर पहुँचे जो मदीने से ख़ैबर की तरफ़ 20 मील के फ़ासले पर वाक़े हैं वहाँ आपकी ऊँटनियां आपको मिल गयीं इसलिए आप वापस आ गये।

नोट- बाज़ मोअर्रेख़ीन ने ग़ज़वा बनि मुसतालिक़ और अफक का वाक़िया इसी साल लिखा है और ग़ज़वा जातुल रेक़ा का तज़किरा भी इसी साल में किया है जो मेरे नज़दीक दुरुस्त नहीं है यह तमाम वाक़ियात सन् 5 हिजरी में रुनूमा हुए और यही दुरुस्त भी है।

मारकये हुदैबिया

मक्के मोअज़्ज़मा सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) का आबाई वतन और मौलिद व मसकन था। यहीँ आपने अपनी ज़िन्दगी के तिरपन बरस गुज़ारे और यहीं पर पहले पहल वही इलाही का खुश आहंग नग़मा सुना। और फिर तेरह बरस तक यह मुबतरक सर ज़मीन वही की आवाज़ों से गूँजती रही। अगर चे अहले मक्का के रवय्ये से तंग आकरआप को घरबार चोड़ना पड़ा मगर अकसर मक्के का तज़किरा और उसे देखने का इश्तेयाक़ ज़ाहिर करते रहते थे। एक मर्तबा आपने अपने एक ख़्वाब का तज़किरा करते फ़रमाया कि मैंने देखा है कि मैं मस्जिदुल हराम में दाख़िल हुआ और खा़न-ए-काबा का तवाफ़ कर रहरा हूँ। यह ख़्वाब कर सहाबा ने आपसे मक्के चलने और उमरा व तवाफ़ बजा लाने का इसरार किया। चुनानचे आपने उनके इसरार पर मक्के जाने का इरादा किया और मदीने के गिर्द व पेश के लोगों को भी साथ चलने की दावत दी। चौदह सौ या पन्द्रह सौ पच्चीस मुसलमानों की जमीअत आपके साथ जाने पर तैयार हुई जिसे लेकर रोज़े दोशन्बा अव्वल माहे ज़ीकद सन् 6 हिजरी को आप मदीने से रवाना हुए। वादी ज़िल हलीफ़ा से सभों ने अपने हथियारों को उतार कर एहराम बाँधा ताकि कुरैश को यह इत्मेनान हो जाये कि मुसलमानों के पेशे नज़र जंग व क़ताल नहीं है बल्कि सिर्फ़ आदाब व रूसूमे ज़ियारत का बजालाना है। मगर जब यह क़ाफ़िला असफ़ान के क़रीब पहुँचा तो कुरैश काफ़िर सतादा बसर इब्ने अबु सुफ़ियान आन हज़रत (स.अ.व.व.) कि ख़िदमत में हाज़िर हुआ और उसने कहा कि आपकी आमद का ख़बर सुन कर कुरैश वादी ज़ी तवी में जमा हो चुके हैं और ख़ालिद बिन वलीद को एक दस्ता सिपाह के साथ इस ग़र्ज़ से रवाना किया है कि वह आपको आगे बढ़ने और मक्के में दाख़िल होने से रोक दें। आन हज़रत (स.अ.व.व.) रास्ता बदला और शनयतुल मुराद की तरफ़ से होते हुऔ हुदैबिया में उतर पड़े। ख़ालिद बिन बलीद ने पलट कर कुरैश को इत्तेलाह दी कि मुसलमानों ने रास्ता बदल दिया है और हुदैबिया की तरफ़ जा चुके हैं। कुरैश ने बदील इब्ने वरका़ ख़िजाई को बनि खुज़ाआ के चन्द आदमियों के हमराह आन हज़रत से गुफ़्त शुनीद के लिये भेजा। हुदैबिया पहुँच कर उसने आन हज़रत (स.अ.व.व.) से कहा कि आप यही से वापस चले जायें और मक्के में जाने का इरादा तर्क कर दें। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया , हम ख़ान-ए-काबा का तवाफ़ और मरासिमें ज़ियारत बजा लाने को आये हैं जंग के इरादे से नहीं आये लेहाज़ा कुरैश को हमारी तरफ़ से मुत्मईन रसहना चाहिये। बदील ने पलट कर आन हज़रत (स.अ.व.व.) का पैग़ाम कुरैश को पहुँचाया। उन्होंने कहा कि हम ने माना कि उनका इरादा जंग का नहीं है मगर इसके बावजूद हम उन्हें मक्के में दाखिल नहीं होने देंगे और अगर वह सीना ज़ोरी करेंगे तो हम पूरी कूवत व ताक़त से उन्हें रोकेंगे। उरवा इब्ने मसूद सक़फी ने कहा इसमें हमारा क्या नुकसान है कि वह आयें और उमरा व तवाफ़ के बाद फिर पलट जायें। कुरैश ने कहा कि अहले अरब उसे हमारी कमज़ोरी पर मामूल करेंगे। उरवा ने कहा फिर मुझे इजाज़त दी जाये कि मैं मुहम्मद (स.अ.व.व.) से बात चीत करके इस मुहायिदे को सुलझाने की कोशिश करूं। कुरैश ने उसे इजाज़त दी और पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और उनसे कहा कि ऐ मुहम्मद (स.अ.व.व.) ! कुरैश आप ही का ख़ानदान व क़बीला है में यह पहली मिसाल होगी कि किसी ने अपनी क़ौम को तबाह व बरबाद किया हो। कुरैश नहीं चाहते कि आप मक्के में दाख़िल हों और अगर आपने ज़बरदस्ती दाख़िल होना चाहा तो उसका लाज़मी और यक़ीनी नतीजा जंग है। और जब जंग छिडेगी तो यही ऊबाश लोग जो आपके इर्द मण्डला रहे हैं भागते नज़र आयेंगे। उस पर हज़रत अबुबकर ने उरवा को एक मोटी सी ग़लीज़ गाली दी। उरवा ने पूछा , यह कौन है ? उसे बताया गया कि यह अबुबकर है। उसने कहा ऐ अबुबकर! तुम्हारा एक एहसान मुझे याद है वरना इसी वक़्त तुम्हारी इस बदज़बानी का जवाब तुम्हें दे देता। उरवा के हिल्म व ज़्बत और एहसान शनासी से पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) ने उसकी मुतावाज़िन तबीअत का अन्दाज़ा कर लिया। और उसके मुन्सफ़ाना जज़बात की झिन्जोडते हुए फरमाया , यह काहँ का इन्साफ़ है कि हमें उमरा और तवाफ़ से रोका जाये जब हम न तो जंग के इरादे से आये हैं और न जंग करना चाहते हैं। उरवा आन हज़रत (स.अ.व.व.) की इस गुफ़्तगू से मुतासिर हुआ और पलट कर उसने कुरैश को बताया कि मैंने क़ैसर व किसरा और नजाशी के पुरशिकोह दरबारों को देखा है मगर जो शान व शौकत और अक़ीदत व एहतराम मुहम्मद (स.अ.व.व.) के यहाँ नज़र आता है वह कहीं नहीं है। हमें चाहिये कि उन्हें उमरा और तवाफ़ से न रोकें और पुर अमन रहते हुए उन्हें मक्के में आने की इजाज़त दे दें। मगर कुरैश ने एक न सुनी और अपनी ज़िद पर अड़े रहे। हलीस इब्ने अलक़मा ने जब उनकी हट धर्मी देखी तो कहाः-

(ऐ गिरोहे कुरैश हम तुम्हारे हलीफ़ सही मगर हमने इस बात पर तुमसे अहद व पैमान नहीं किया कि जो ख़ान-ए-काबा मुरासिम ताज़ीम बजा लाने की ग़र्ज़ से आये उसे तुम मना करो।)

जब इन सिफ़ारिशों का कोई नतीजा न निकला तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने ख़राश इब्ने उमय्या ख़िज़ायी को अपनी सवारी के ऊँट पर सवार करके कुरैश के पास भेजा मगर कुरैश कोई बातचीत करने के बजाये उनके क़त्ल पर तैयार हो गये। हलीस और उनके ज़ेरे असर क़बाएल ने जब यह देखा कि कुरैश हलीस को क़त्ल कर देना चाहता है तो वह उनके हक़ में सिपर बन गये हैं और तलवारों के नरग़े से निकाल कर वापस भेज दिया। अलबत्ता कुरैश ने अपनी ज़ेहनी शिकस्त खुरदगी का मुज़ाहिरा करते हुए आन हज़रत (स.अ.व.व.) का ऊँट काट डाला और उसके टुकड़े टुकड़े कर दिये।

इस वाक़िये के बाद आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने हज़रत उमर को कुरैश के पास रवाना करना चाहा लेकिन उन्होंने यह कहकर साफ़ इन्कार कर दिया कि (मक्के में मेरे क़बीले (बनि अदी) की कोई फ़र्द नहीं है जो मेरी हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी ले सके। मुझे उनसे अपनी जान का ख़तरा है आप उस्मान को भेज दीजिये वह मुझसे ज़्यादा बाअसर है।

हज़रत उमर के इस इन्कार से आन हज़रत (स.अ.व.व.) के दिल को यक़ीनन ठेंस पहुँची होगी और आपको उरवा की यह बात याह दाई होगी कि (मै आपको गिर्दों पेश ऐसे ऊबाश लोगों को देख रहा हूँ जो जंग छिड़ने पर भाग खड़े होंगे)

बहर हाल आपने हज़रत उस्मान को इस काम कर मामूर फरमाय और उनके अक़ब में दर मुहाजरीन का एक वफ़द और रवाना कर दिया। जब यह लोग मक्के में पहुँचे तो उस्मान ने अबुसुफ़ियान और दीगर अकाबरीने कुरैश को आन हज़रत (स.अ.व.व.) का पैग़ाम दिया कि वह तवाफ़े काबा की ग़र्ज़ से आये हैं और जंग का कोई इरादा नहीं रखते. मगर कुरैश ने उनकी बात भी न मानी और वापस भेजने के बजाये अपनी हिरासत में रोक लिया। उन लोगों के रोक लिये जाने से मुसलमानों में यह अफ़वाह फैल गयी कि हज़रत उस्मान और दूसरे मुहाजिर सब क़त्ल कर दिये गये।

चूँकि यह लोग सफ़ीर की हैसियत से वहाँ गये थे और सफ़ीरों का क़्तल आईन के ख़िलाफ़ था इसलिये मुसलमानों में ग़म व गुस्से की लहर दौजड़ गई और वह कहने लगे कि हम इस क़त्ल का बदला लिये बग़ैर मदीने वापस नहीं जायेंगे। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने मुसलमानों को जंग पर आमादा देखा तो इस ख़्याल से कहीं यह वक़्ती और हंगामी जोश न हो , उन्हों एक बबूल के पेड़ के नीचे जमा किया और उनसे इस अमर पर बैयत ली कि जंग छिड़ जाने की सरत में वह मैदान से मुँह नहीं मोड़ेंगे और जान की बाज़ी लगा कर दुश्मन का मुक़ाबला करेंगे। 3

इस बैयत को बैयते रिज़वान कहा जाता है क्योंकि ख़ुदा वन्दे आलम ने इस पर अपनी रज़ा व खुशनूदी का इज़हार फरमाया है। इस बैयत की तक़मील जब हो चुकी तो मामूल हुआ कि हज़रत उस्मान वग़ैरह के क़त्ल किये जाने की ख़बर ग़लत थी। चुनानचे क़त्ल इसके कि फ़रीक़ीन के दरमियान कोई जंगी झड़प हो वह लोग बाख़ेरियत वापस आ गये। इस वापसी का लाज़मी नतीजा यह होना चाहिये था कि मुसलमानों ने बर अंगेख़ता जज़बात में ठहराओ पैदा हो जाये। दूसरी तरफ़ मुश्रेकीन भी लड़ाई के हक़ में न थे वह लोग सिर्फ अपनी बात को बुलन्द बाला देखना चाहते थे ताकि क़बाएले अरब पर उनकी धाक जमी रहे। चुनानचे इस वाक़िये के बाद उन्होंने हौयेतब और सुहैल बिन अम्र को सुलहा की गुफ़्तगू के लिये भेजा। पैग़म्बर (स.अ.व.व.) भी जंग के रवादार न थे उन्होंने सुलहा पर अपनी रज़ा मन्दी का इज़हार किया बात चीत के लिये हज़रत अली (अ.स.) इब्ने अबुतालिब (अ.स.) को मुन्तख़ब फ़रमाया जब कि तबरी ने तहरीर किया है किः-

(कुरैश ने सुहैल इब्ने अम्र और हौयतब का सुलह के लिये इख़तेयारात दे कर भेजा और आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने हज़रत अली (अ.स.) को सुलहा की गुफ़्तगू के लिये मुन्तख़ब फरमाया) 1

जब दोनों फरीक़ में बातचीत शुरू हुई तो कुरैश के मुमाइन्दों ने यह महसूस करते हुए कि फरीक़ सानी जगं के हक़ में नहीं हे इस पर बेज़ा शराएत आयद न करना शुरू करदी चुनानचे बड़ी रद व क़दह के बाद हस्ब जेल शराएत पर समझौता हुआ।

(1) मुसलमान इस साल बग़ैर उमरा अदा किये वापस जायेंगे।

(2) आइन्दा साल उमरा की ग़र्ज़ से आ सकते हैं मगर मक्के मे तीन दिन से ज़्यादा क़याम नहीं कर सकते।

(3) मुसलमान अपने हमराह तलवार के अलावा दीगर जंगी हथियार नहीं ला सकते और तलवार भी न्याम के अन्दर रहेगी।

(4) क़बाइले अरब में हर क़बीले को इस अमर का इख़तेयार होगा कि वह फ़रीक़ैन में से किसी भी फ़रीक़ से मुहायिदा करे और हलीफ़ व मुआहिद क़बाएल पर भी इन शरायत की पाबन्दी लाज़मी होगी।

(5) मक्के वालों में से अगर कोई शख़्स मुसलमानों के यहाँ चला जायेगा तो मुसलमान इस बात के पाबन्द होंगे कि वह उसे वापस कर दें और अगर मुसलमानों का कोई आदमी कुरैश के यहाँ आ जायेगा तो उसे वापस नहीं किया जायेगा।

(6) इस मुहायिदे की मुद्दत मेयाद दस बरस की होगी इस अरसे में न किसी आने जाने वाले को रोका जायेगा और न कोई लड़ाई झगड़ा होगा।

यह तमाम शराएतें क़रीब क़रीब कुरैश ही के हक़ में थी और वह इन शराएत को मनवाये बगै़र किसी तरह सुलहे पर आमादा न थे इन हालात में सुलह से उहदाबरआ होना कोई आसान काम नथा जब कि कुरैश का भी एक तबक़ा सुलह के हक़ में न था और मुसलमानों की अकसरियत भी इन शरायते सुलह पर मुतमईन न थी। अब दो ही सूरतें थी. या तो उनके मुतालिबात को तस्लीम किया जाये या उनसे जंग छेड़ दी जाये।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) की नज़रें जगं के नताएज पर भी थीं और सुलहा के फ़वाएद व मसालेह पर भी। अगर पैगम्बर (स.अ.व.व.) इन शराएत के मुक़ाबिले में जो बज़ाहिर मुसलमानों की कमज़ोरी व बेबसी का आईनादार थीं , जंग करते और बिलफ़र्ज़ फ़ातहे भी हो जाते तो इसका नतीजा यह होता कि कुरैश और मुसलमानों के दरमियान इतनी मुनाफ़ेरत बढ़ जाती कि वह कभी इस्लाम के क़रीब भी न फटकते। नीज़ जंग से यह बात भी उभर कर सामने आती है कि पैगम़्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) तबियतन सुलह पसन्द न थे। इसलिए आपने जंग पर सुलह को तरजीह दी और अमन पसन्दी का सुबूत मोहय्या किया।

अब मुहायिदे की तहरीर का मामला दर पेश हुआ सुहैल ने उसमें भी क़दम क़दम पर उलझनें पैदा की। चुनानचे जब हज़रत अली (अ.स.) दस्तावेज़ तहरीर करने लगे तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया कि पहले बिस्मिल्लाह हिर रहमानिर रहीम लिखो। सुहैल ने कहा , हम नहीं जानते कि अलरहमान क्या होता है इसके बजाए (बाइस्मकल्ला हुम्मा) 1 लिखिये जो हमारा यहाँ का दस्तूर है। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने उलढना मुनासिब न समझा। उसके बाद हज़रत अली (अ.स.) ने यह फ़िक़रा लिखा कि (यह वह मुहायिदा है जो अल्लाह के रसलू (स.अ.व.व.) मुहम्मद (स.अ.व.व.) ने सुहैल इब्ने अम्र से किया है। सुहैल ने फिर एतराज़ किया और कहा हम उन्हं अल्लाह का रसूल कब समझते हैं ? अगर रसूल ही समझते होते तो मक्के में दाख़ले से मानेय न होते लेहाज़ा इसके बजताये सिर्फ़ मुहम्मद (स.अ.व.व.) बिन अब्द्ल्लाह लिखा जाये। हज़रत अली (अ.स.) ने क़लम रोक लिया और फ़रमाया ख़ुदा की क़सम मैं लफ्ज़े रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) नहीं काटूंगा। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया लाओ मुझे दो। चुनानचे आपने ख़ुद ही लफ़्ज़े रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) पर ख़त खींच दिया और हज़रत अली (अ.स.) से मुख़ातिब होकर फ़रमाया , एक दिन तुम्हे भी इस कि़स्म की आज़माइश से दो चार होना पड़ेगा। 2

जब दस्तावेज क़लाम बन्द हो गई तो दोनं फ़रीक़ के गवाहों ने उस पर शहादते सब्त की और उसका एक नुस्ख़ा रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) के सुपुरद किया गया और एक नुस्ख़ा सहल इब्ने अम्र को दिया गया।

इस सुलह की गुफ़्तगू से लेकर तहरीरे मुहायिदे तक तमाम मराहिल आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने ख़ुद अपनी राय से तय किये। और इस पूरी कार्रवाई में न सहाबा को शरीके मशविरा किया और न उनकी राय की ज़रूरत महसूस की गई अलबत्ता एक हज़रत अली (अ.स.) थे जो शरायते सुलह की गुफ़्तगू से लेकर तहरीरे मुहायिदे तक पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) के शरीक कार थे। अकसर सहाबा सुलह और उसके शरायत के सख़्त मुख़ालिफ़ ते यह तवक़्का लिये हुए थे कि वह अलल ऐलान मक्के में दाख़िल होकर उमर और तवाफ़ से सरफ़राज़ होंगे मगर जब क़रारदाद सुलह की रू से यही से वापसी तय पा गई तो उनमें एक हैजाना सा पैदा हो गया और यह बेचैनी और हैजानी कैफ़ियत इस हद तक बढ़ी कि उनके दिलों में शकूक़ व शुबहात पैदा हो गये चुनानचे तबरी का कहनाहै किः- पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के असहाब जब मदीने से निकले थे तो उन्हें फतेह में कोई शक व शुमा न था मगर जब उन्होंने सुलह और वापसी की सूरत देखी और यह देखा कि रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ने ज़ाती तौर पर शरायत मन्ज़ूर कर लिये हैं तो उन लोगों के दिलों में एक बड़ा ख़दशा पैदा हुआ और क़रीब था कि वह हलाकत में मुबातिला हो जाते।) 1

हज़रत उमर इस सुलह पर सबसे ज़्यादा बरअफ़ोख़ता थे उनकी नाराज़गी इस हद तक बढ़ी कि वह गुस्से में पेच व ताब खाते हुए आं हज़रत (स.अ.व.व.) के पास आये और कहा क्या आप पैगम़्बर (स.अ.व.व.) बरहक़ नही हैं ? फ़रमाया कि यक़ीनन मैं अल्लाह का रसूल हूँ। कहा , क्या आपने यह नहीं कहा था कि हम ख़ान-ए-काबा का तवाफ़ करायेंगे ? फ़रमाया कि मैंने यह तो नहीं कहा कि यह इसी साल होगा। कुछ सब्र से काम लो , जो भी हुआ है वह अल्लाह के हुक्म से हुआ और इसमें उसके हुक्म की नाफ़रमानी नहीं कर सकता। पैगम़्बर (स.अ.व.व.) के समझाने के बावजूद हज़रत उमर की उलझनें कम न हुई और वह गुस्से में भरे हुए हज़रत अबुबकर के पास आये और उनसे भी वही उखड़ी उखड़ी सी बातें की जो आपने पैग़म्बर (स.अ.व.व.) से की थीँ। उन्होंने कहा , ऐ उमर! तू उनकी रकाब थामे रहो और भागने की कोशिश न करो में गवाही देता हूँ कि वह ख़ुदा के रसूल हैं। 2

हज़रत अबुबकर को पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की रिसालत की यक़ीन दहानी कराने की ज़रुरत इसलिये महसूस हुई कि हज़रत उमर की गुफ़्तगू से साफ़ ज़ाहिर था कि उनहें आन हज़रत (स.अ.व.व.) कि रिसालत मशकूक व मुशतबहा नज़र आ रही है। चुनानचे ख़ुद हज़रत उमर ने भी अपने शकूक व तज़बजुब का इहज़हार इन अल्फाज़ में किया है (ख़ुदा कि क़सम मैंने जब से इस्लाम कुबूल किया है मुझे रसूल (स.अ.व.व.) की रिसालत पर ऐसा शक नहीं हुआ।) 3

साहाबा की बरहमी और नाराज़गी का यह आलम था कि जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने मुहायिदा सुलह को अमली जामा पहनाते हुए उन्हें हुक्म दिया कि कुर्बानियां करो और सरके बाल मुण्डवाओ तो कुछ देरस पहले जो लोग पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के हर इशारे पर सरे इताअत ख़म करते थे वही नाफ़रमानी पर उतर आये और बार बार कहने के बावजूद पर मण़्डवाने और कुर्बानी करने पर आमादा न हुए. तबरी का कहना है ख़ुदा की क़सम आन हज़रत (स.अ.व.व.) के तीम मर्तबा हुक्म देने के बावजूद कोई भी तामील के लिये खड़ा न हुआ। 4

पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) ने जब इस सूरते हाल का मुशाहिदा फ़रमाया तो कबीदा ख़ातिर होकर उठे और हज़रत उम्मे सलमा के ख़ेमें में ख़ामोशी से बैठ गये। उम्मे सलमा ने चेहरये अक़दस पर जब आसारे मलाल देखे तो वजह पूछी। आपने सहाबा की नाफ़रमानी और बे-एतनाई का शिकवा किया। उम्मे सलमा ने कहा आप किसी को मजबूर न करें और ख़ुद जाकर कुर्बानी करें और सर के बाल मुण्डवा कर एहराम उतार दें।

आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने बाहर निकल कर कुर्बानी की और सर मुण्डवा कर एहराम उतार दिया। जब सहाबा ने देखा कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के फ़ैसले में कोई तबदीली मुम्किन नही है तो मजबूरन कुछ लोगों ने सर मुण्डवा दिया और कुछ ने अपने बाल छोटे करा दिये। तबरी का बयान है कि गुस्से की हालत में वह एक दूसरे का सर इस तरह मूण्ड रहे थे जैसे एक दूसरे को क़त्ल कर रहा हो। 5

इस सुलह की मसलहतों को अकसर मुसलमान अपनी कोताह नज़री को वजह से न समझ सके थे और सुलह के मौक़े पर या उसके बाद भी क़बीदा ख़ातिर रहे मगर जब उसके नतीजे में उन्हें दीनी व सियासी एतबार से वह काम्याबियां हासिल हुई जिनकी वह तवक़्के भी न कर सकते थे तो उनकी आँखे खुल गयीं और उन्हे पैगम़्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) की दूर अन्देशी , अन्जाम बीनी और हक़ीक़ती रसी का एतराफ़ करना पडा। ख़ुदा वन्दे आलम ने आन हज़रत (स.अ.व.व.) के इस इक़दाम सुलह को फ़तेह में से ताबीर किया है जिसका जिक्र कुरान में मौजूद है।

अबुजिन्दल और अबुबसीर का वाक़िया

मुहायिदे की शर्त अभी ज़ाबतए तहरीर में न आई थी कि सुहैल इब्ने अम्र का बेटा अबुजिन्दल जो इस्लाम लाने के जुर्म में कुरैश के हाथों क़ैदो बन्द की सऊबतें झेल रहा था निगेहबानों की नज़र बचा कर निकला और पा ब ज़न्ज़ीर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाज़िर हो गया और कहा , या रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ! मुझे अपने हम रकाब रहने की इजाज़त दीजिये। जब सुहैल ने अपने बेटे को देखा तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) से उसने कहा हमारे दरमियान मुहायिदा हो चुका है कि हमारा जो आदमी भाग कर आयेगा उसे वापस किया जायेगा लेहाज़ा अबुजिन्दल को वापस कीजिये। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने फरमाया , अभी मुहायिदा ख़त्म कर देंगे आख़िरकार पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने अबुजिन्दल को सब्रो तहाम्मुल की हिदायत के बाद सुहैल के हवाले कर दिया। जब अबुजिन्दल उठ कर चलने लगा तो हज़रत उमर भी उसके साथ खड़े हुए उसे अपने बाप सुहैल के क़त्ल पर उभारा। अबुजिन्दल ने कहा , (ऐ उमर! तुम हुक्मे रसूल (स.अ.व.व.) की बजाआवरी का मुझसे ज़्यादा हक़ नहीं रखते। 1

कुफ़्फारे कुरैश ने अपनी इस शर्त को अमलन मनवा कर यह समझ लिया कि उन्होंने बाजी जीत ली हालाँकि यह शर्त मुसलमानों के लिये क़तई ज़रररेसाँ न थी इसलिए कि अगर कोई शख़्स इस्लाम से मुन्हरिफ़ होकर कुरैश के यहाँ चला जाता है तो वह इरतेदाद के बाद जुमरये मुसलेमीन में शामिल किये जाने के क़ाबिल ही कब रहता है किसी भाग निकलने वाले की वापसी पर मुसिर थे तो उसे वापस कर देने में मुसलमानों का नुक़सान ही क्या था जबकि वह मक्के में रह कर भी मुसलमान रह सकता था और शराएते सुलह की रू से कोई शख़्स उसे इस्लामी आमाल व इबादात से रोकने का मजाज़ न था। अलबत्ता यह शराएत कुरैश के लिये इन्तेहाई नुक़सान दे साबित हुई और उनके जान व माल की तबाही का सबब बन गई। चुनानचे इस सुलह की तकमील के बाद कुरैश का एक शख़्स अबुबसीर अतबा इब्ने असीद मुसलमान होकर चोरी छिपे मदीने चला आया। कुरैश ने अपने दो आदमियों को ख़त देकर मदीने भेजा और उसकी वापसी का मुतालिबा किया। आन हज़रत (स.अ.व.व.) के सुलहे नामे की शर्त के मुताबिक़ अबुबसीर को बुला कर उससे फरमाया कि तुम उनके हमराह मक्के चले जाओ। अबुबसीर उनके साथ हो लिया। जब ये लोग वादी जुलहलीफ़ा में दाखिल हुए तो अबुबसीर ने उनमें से एक की तलवार की बड़ी तारीफ़ की। उसने कहा हाँ वाक़ई मेरी तलवार बहुत उमदा दहै और ये कह कर तलवार नियाम से निकाल ली। अबुबसीर ने देखने के बहाने से वह तलवार ले ली और उसी खी तलवार से उसी को मौत के घाट उतार दिया। दूसरे ने जब देखा कि उसका साथी मारा गया तो वह भी डर के मारे भाग खड़ा हुआ और मदीने पहुँच कर रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) से फ़रयादी हुआ कि अबुबसीर ने मेरे साथी को क़त्ल कर दिय है और मुझे भी उससे अपनी जान का ख़तरा है इतने में अबुबसीर भी वापस आ गया और पैग़म्बर (स.अ.व.व.) से कहा या रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) आपने मुझे इनके हवाले कर दिया था और मुहायिदा की रद से अब कोई ज़िम्मेदारी आप पर आयद नहीं होती लेहाज़ा दोबार मुझे इसके साथ मक्के जाने के लिये न कहा जाये। पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने फरमाया कि ये शख़्स जंग की आग भड़काना चाहता है अगर इसकी हिमायत की गई तो यह कुरैस से जंग के मुतरादिफ़ होगा। अबुबसीर समझ गया कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) उसे वापस किये बगै़र नहीं रहेंगे। उसने मौक़ा देखकर समुन्द्र की तरफ़ रूख़ किया और साहिल के दामन में सुकूनत पज़ीर हो गया। उधर अबजिन्दल को जो मक्के में नज़र बन्द था जब यह पता चला कि अबुबसीर साहिल की तरफ़ निकल गया तो उसने चुपके से उधर का रूख़ किया और रफ़्ता रफ़्ता यह जगह मक्के से भाग निकलने वालों की पनाह गाह ब गीई और मजी़द सत्तर मुसलमान आकर वहाँ आबाद हो गये और सबने अपनी ताक़त को यकज़ां करके एक मज़बूत जत्था बना लिया। चुनानचे जब कुरैस के क़ाफ़िले उधऱ से गुज़रते तो ये उन पर छापे मारते और उन्हें लूट लेते। कुरैश जब उनके हाथों तंग आ गये तो उन्होंने आन हज़रत (स.अ.व.व.) को यह पैग़ाम भेजा कि आप उन लोगों को अपने यहाँ बुला लें हम आइन्दा किसी ऐसे शख्स से ताअर्रूज़ नहीं करेगें जो मुसलमान होकर यहाँ से आपके पास चला जायेगा। चुनाचे आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने अबुबसीर को कहलवा भेजा कि वह मदीने चला आये। कैफ़ियत तारी थी। उसने अबुजिन्दल से कहा तुम मदीने चले जाओ ग़र्ज़ कि अबुजिन्दल मदीने चला आया और कुरैश की यह तदबीर उनकी शिकस्त में तबलीद हो गई।

मुख़तलिफ़ वाक़ियात

• बाज़ मोअर्रिख़ का कहना है कि शराब उशी साल हराम हुई जबकि अक़सर ने सन् 4 हिजरी में उसका हराम होना तहरीर किया है।

• हज़रत आयशा की वालिदा उम्मे रूमान की रेहलत वाक़े हुई।

• पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) ने उम्मे हबीबा से अक़द फ़रमाया।