तारीखे इस्लाम 2

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तारीखे इस्लाम 2 लेखक:
कैटिगिरी: इतिहासिक कथाऐ

तारीखे इस्लाम 2

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: जनाब फरोग़ काज़मी साहब
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तारीखे इस्लाम 2

तारीखे इस्लाम 2

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हिंदी

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(सन् 7 हिजरी)

तबलीग़ी मकतूबात

कुरैश की मुख़ालफतें , ख़ुफिया साज़िशें और दरपर्दा रेशा दवानाईयां अब तक इस्लाम की तौसीय व तबलीग़ और नशरो अशाअत में सुद्देराह थी लेकिन सुलहे हुदैबिया के बाद इस्लाम आज़ाद हो चुका था और उसके लिए तबलीग़ व इशाअत के रास्ते खुल चुके थे इसिलये वहाँ की वापसी पर सराकेर दो आलम (स.अ.व.व.) ने दीगर मुमालिक के ताजिरों और बादशाहों को मकतूबात के ज़रिये इस्लाम की दवात देने का फ़ैसला किया। चुनानचे सन् 7 हिजरी के अवाएल में आपने अपने नाम की एक मुहर बनवाई जिस पर (मुहम्मद रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ) कन्दा कराया। उसके बाद आपने शाहाने आलम को ख़तूत लिखे।

उन दिनों अरब के गिर्द चार बड़ी हुकूमतें क़ायम थीं ( 1) हुकूमते ईरान जिसका असर वस्त एशिया से इराक़ तक फैला हुआ था। ( 2) हुकूमते रोम जिसमें एशियाये काचिक , फिलिस्तीन , शाम और युरोप के बाज़ हिस्से शामिल थे ( 3) मिस्र ( 4) हुकूमते हबश जो मिस्री हुकूमत के जुनूब से लेकर बहरे कुलज़ुम के मग़रिबी साहिल पर हिजाज़ व यमन के मुतावाज़ी क़ायम थी और उसका असर सहराये आज़म अप़रीक़ा के तमाम आला इलाकों पर था।

आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने बादशाहे हबश नजाशी , क़ैसरे रोस हर कुल , गवर्नर मिस्र जरीह इब्ने मक़कूस , शाह ईरान खुसरू परवेज़ , गवर्नरे यमन बाज़ान और वालीए दमिश्क हारिस वग़ैरा के नाम खुतूत रवाना किये।

मुख़तलिफ़ बादशाहों पर आपके खुतूत का मुख़तलिफ़ असर हुआ। नजाशी ने इस्लाम कुबूल कर लिया। शाह ईरान इस क़द्र आपे से बाहर हुआ कि उसने आपके ख़त को पाश पाश कर दिया , क़ासिद को ज़लील करके निकल दिया और यमन के गवर्नर को लिखा कि मदीने के दीवाने को ग़िरफ़्तार करके मेरे पास भेजो। उसने कुछ सिपाही मदीने भेजे ताकि वह हुज़ूरे अकरम (स.अ.व.व.) को गिरफ़्तार करे। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया कि तुम्हें कुछ ख़बर भी है मरी गिरफ़्तारी का हुक्म जारी करने वाला मर गय। सिपाही जब यमन पहुँचे तो उन्हें मालूम हुआ कि शाहे यमन मर चुका है। चुनानचे जब यह ख़बर आम हुई तो हज़ारों काफिर मुसलमान हो गये। क़ैसरे रोम ने आपके ख़त की ताज़ीम की। गवर्नर मिस्र ने आपका ख़त अपनी आँखों से लगाया और क़ासिद की बड़ी ख़ातिर व मदारात की और बेश क़ीमत तहायफ़ के साथ रूख़सत किया। उन तोहफ़ों में मारया क़िब्तिया , उसकी बहन शीरीं (ज़ौजा हिसान बिन साबित) दुलदुल नामी एक ख़च्चर और याफूरिया माबूर नामी एक ख़्वाज़ा सरां भी शामिल था। 1 आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने अपने क़ासिदों में वही कलबी को क़ैसरे रोम , अब्दुल्लाह बिन ख़ज़ाफ़ा तसहमी को शाहे ईरान हातिब बिन बलतआ को अज़ीमे मिस्र , अम्र बिन उमय्या को हब्शा के बादशाह नजाशी , सलीत बिन अम्र को यमामा और शुजा बिन वहब असदी को शाम की तरफ़ रवाना किया था।

मारकऐ-ख़ैबर

ख़ैबर , इबरानी ज़बान में क़िला व हिसार के मानों में इस्तेमाल होता है और एक क़ौल यह भी है कि क़ौमे अमालेक़ा में ख़ैबर और यसरब नाम के दो भाई थे वह जहाँ आबाद हुए वह जगह उनके नाम से मौसूम हो गयी चुनानचे यसरब के नाम यसरब (मदीना) आबाद हुआ और ख़ैबर के नाम पर ख़ैबर आबाद हुआ जो मदीने से तक़रीबन अस्सी ( 80) मील की दूरी पर शाम व हिजाज़ की सरहदों पर वाक़े है। यह मुक़ाम अपने सरसब्ज़ व शादाब खेतों , बागों और नख़लिस्तानों की वजह से दूर दूर तक मशहूर था. मगर उसके साथ ही यह इलाक़ा यहूदियों की आमाजगहं और उनकी जंगी कूवतों का मरकज़ भी था। उन्होंने दिफ़ायी इस्तेहकाम के पेशे नज़र यहाँ छोटे बड़े सात कि़ले तामीर कर रखे थे और उन क़िलों में मजमूई तौर पर चौदह हज़ार यहूदी आबाद थे जिन में वह यहूदी भी शामिल थे जो मदीने से जिला वतन होकर यहाँ आबाद हो गये थे और उन्होंने ओहद और ख़न्दक की जंगों में मुश्रकेीन का खुल कर साथ दिया था।

सुलैह हुदैबिया के बाद यह लोग इस ग़लत फ़हमी में मुबतिला हो गये कि मुसलमानों ने कुरैश से दब कर सुलह कर ली है और अब दुश्मन से टकराने की हिम्मत उनमें नहीं है। चुनानचे उनमें ज़राएत पैदा हुई और उन्होंने मुसलमानों की सुलह पसन्दाना रविश को कमज़ोरी पर महमूल करते हुए इस्लामी मरकज़ मदीने पर हमला करके उसे ताराज व बरबाद करने का मनसूबा बनाना शुरू कर दिया ताकि अपनी जिला वतनी और ग़ज़वये एहजा़ब की निदामत व ख़िफ़्फ़त का बदला ले सकें। उन्होंने अपनी कसरत व कूवत में मज़ीद इज़ाफ़े के लिये बनि ग़तफ़ान से जो ख़ैबर से छः मील की दूरी पर आबाद थे मुहायिदा किया कि अगर वह मुसलमानों के ख़िलाफ़ जंग में उनका साथ देंगे तो उन्हें खैबर की निस्फ़ पैदावार दी जायेगी। बनि ग़तफ़ान ने उसे मन्ज़ूर किया और उनके चार हज़ार नबर्द आज़मां उन यहूदियों के परचम तले जमा होकर लड़ने मरने पर तैय्यार हो गये।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) को जब यह मालूम हुआ कि ख़ैबर के यहूदी मदीने पर हमले करने के लिये तुल रहे हैं तो आपनी तादीबी कार्रवाई ज़रूरी समझी ताकि फ़ितना परवर और शर अंगेज़ ताक़तों को कुचल कर अमन को बरक़रार रखा जा सके। चुनानचे हुदैबिया से मराजियत के बाद आपने बीस दिन मदीने में क़याम फरमाया और सोलह सौ सहाबियों के साथ जिनमें दो सौ सवार और बाक़ी पियादा थे ख़ैबर की तरफ़ रवाना हुए। जब लश्करे इस्लाम ख़ैबर के नवाह में दाख़िल हुआ तो सुबह का वक़्त था। ख़ैबरी यहूदी अपने कन्धों पर फावड़े रके और हाथों में बेलचे लिये अपने खेतों में काम करने की ग़र्ज़ से जा रहे थे कि उन्होंने इस्लामी फ़ौजों को देखे। बढ़ते हुए क़दम रुक गये। और लोग बदहवास होकर अपने क़िलों की तरफ़ भागे। मुसलमानों ने उन्हें भागते देखा तो सदाये तकबीर बुलन्द की और पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया।

(खैबर बरबाद हो गया। जब हम किसी क़ौम की सरह पर उतरते हैं तो उन पर क्या बुरा वक्त पड़ता है) 1

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) को चूँकि यह इल्म हो चुका था कि बनि ग़तफ़ान , अहले ख़ैबर के हलीफ़ व मुआहिद हैं और वह जंग में उनका साथ देंगे इसिलये आपने अहले ख़ैबर और बनि ग़तफ़ानकी आबादी के दरमियान मुक़ामे रजीय में अपना पड़ाव डाला ताकि वह अहले ख़ैबर की मदद को पहुँच न सकें। और यही हुई की जब वह लोग ख़ैबरियों की मदद के इरादे से निकले तो दरमियान में मुसलमानों का लश्कर हायल देख कर ठहर गये और अपनी तबाही के पेशे नज़र अपने अपने घरों में दबक कर बैठ गये।

मुसलमान ख़ैबर के मुहासिरे की ग़र्ज़ से आगे बढे। यहूदियों ने अपनी औरतों और बच्चों को तो क़िले कतीबा में महफूज़ कर दिया और खुद दूसरे क़िले में जमां होकर मुसलमानों पर तीरों और पत्थरों की बारिश करने लगे। दिफ़ायी कार्रवाई के नतीजे में मुख़तसर मुख़तसर झड़पों के बाद मुसलमानों ने मुतअद्दिद क़िलों पर अपना तसल्लुत जमां लिया मगर जिस क़िले पर फ़तहे , कामरानी का दारोमदार था वह इब्ने अबुल हक़ीक़का क़िला था जो कमूस नामी एक पहाड़ी की ढ़लान पर वाक़े होने की वजह से क़िलए क़मूस के नाम से मशहूर था , उसके सामने एक गहरी ख़न्दक़ थी और यह क़िला अपनी मज़बूरी व पायेदारी की वजह से नाक़ाबिले तसख़ीर समझा जाता था।

ग़जवात में सिपाह सलारी के फ़राएज़ आम तौर पर ख़ुद पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) अन्जाम देते थे और अलमबर्दारी का मन्सब ख़ास तौर पर अमीरूल मोमेनीन अली इब्ने अबुतालिब (अ.स.) के सुपुर्दा किया जाता था मगर इत्तेफ़ाक़ से इस मौक़े पर आन ह़रत (स.अ.व.व.) दर्दे शक़ीक़ा में मुबतिला थे और हज़रत अली (अ.स.) आशोब चश्म की वजह से लश्कर के साथ न आ सके थे। इससे कुछ लोगों को अपनी धाक जमाने के मौक़ा फ़राहम हुआ चुनानचे उन्होंने अज़ खुद अलम लेकर क़िले क़मूस को फ़तह करने की ठान ली। पहले हज़रत उमर ने अलम हाथो में लिया और एक फौज़ी दस्ते के साथ क़िले परहमला आवर होने के लिये आगे बढ़ा मगर उधर से मरहब व अन्तर के सात जब रेला दिया तो हज़ीमत उठाकर वापस पलट आये उनके बाद हज़रत अबुबकर को जोश आया और वह अलम लेकर बढ़े मगर उनके बनाये कुछ न बन पड़ी और नाक़ाम वापस आ गये हज़रत उमर ने फिर दोबारा अलम लिया मगर इस मर्तबा भी नाकाम पलटे और अपनी ख़िफ्फ़त मिटाने के लिय फौज को इस हज़ीमत का ज़िम्मेदार ठहराया लेकिन फौज़ ने खुद उन्हें नामर्द और बुज़दिल क़रार दिया जैसा कि अल्लामा तबरी ने तहरीर किया है किः- (हज़रत उमर कुछ लोगों के साथ उठ खड़े हुए और ख़ैबरियों से मुठभेड़ होते ही भाग निकले और रसूल (स.अ.व.व.) के पास वापस आ गये इस मौक़े पर फौज़ वाले कहते थे कि उमर ने नामर्दी और बुज़दिली दिखाई और उमर कहते थे कि फौज़ बुज़दिल निकली) 1

रसूले अकरम (स.अ.व.व.) के दर्द सर में कुछ कमी हुई तो ख़ेमे के बाहर तशरीफ़ लाये और इस मज़हका खेज़ हजी़मत से फौज़ में बुज़दिली के आसार देख कर आपने फरमायाः

(ख़ुदा की क़सम कल मैं अलम उस मर्द को दूँगा जो कर्र व ग़ैरे फ़र्रार और बढ़ बढ़ के हमले करने वाला होगा। वह ख़ुदा और रसूल को दोस्त रखता होगा और ख़ुदा व रसूल उसको दोस्त रखते होंगे। नीज़ वह मैदान से उस वक़्त तक न पलटेगा जब तक खुदा उसके दोनों हाथों को फतहा से हमकिनार न कर दें) 2

आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने सरदारे लश्कर के इस इल्जा़म के बावजूद कि फौज़ ने बुज़दिली का मुज़ाहिरा किया , फौज़ में कोई तबदिली नहीं की बल्कि सरदारे लश्कर को बदलने का ऐलान फरमाया इसलिये कि फौज़ का हौसला सरदार के सिबाते क़दम का मरहूने मिन्नत होता है। जब उसके क़दम उखड़ जायेंगे तो फौज़ के जमने का सवाल नहीं हुआ करता। और हदीस के अल्फाज़ (कर्रार ग़ैरे फ़र्रार) का भी तज़किरा करते। बहरहाल यह एलाने नबवी एक रौशन आईना है जिस में तसरीह भी है और तलमीह भी। मदहा भी और तनज़ भी। इसमें फ़तहे ख़ैबर के ख़दोख़ाल भी नज़र आते हैं और पलट कर आने वालों के चेहरे मेहरे भी दिखाई देते हैं। इबारत की गूँज में नवेदे फ़तेह भी है और अल्फाज़ के पर्दे में असबाबे शिकस्त पर तबसिरा भी नीज़ आने वाले कल के बारे में मुसलमानों को मुज़दए कामरानी भी। यह इल्म व यक़ीन महज़ वही के नतीजे में मुम्किन है क्योंकि अगर यह ऐलान अज़ खुद होता तो पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) इस तरह इत्मिनान व यक़ीन के साथ अताये इल्म को कल से वाबस्ता न करते और न इस तरह यक़ीनी कामयाबी व फ़तेह मन्दी का ऐलान फ़रमाते। जब कि उनके लिये हुक्मे ख़ुदा ये ता कि अगर वह किसी अमर को कल से वाबस्ता करें तो हतमी तौर में यह न कहें कि मैं कल ऐसा करूँगा। मगर यहाँ मशियते बारी के इसतेसना के बग़ैर पूरे एतमाद व सूख़ से आपका यह फ़रमाना कि कल ज़रुर ऐसा होगा , इश अमर का वाज़ेह सुबूत है कि अताये इल्म में कुदरत का भरपूर इशारा कार फ़रमा था और पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की ज़बान सिर्फ़ मंशाये इलाही की तरजुमानी कर रही थी।

इस हदीस के इल्फाज़ अगर चे मुख़तसर हैं मगर एक एक लफ़्ज़ मुनाकि़ब व फ़ज़ीलत का दफ़्तर और हामिले रायत की इन्फ़िरादियत व अफज़लियत का आईना है।

पहली सिफ़त यह ब्यान हुई है कि वह मर्द होगा। यह क़ैद अगर तौज़ीही है तो इस का मतलब यह है कि वह हिम्मत व मर्दानगी के जौहर से आरास्ता होगा और तेगे सिना के साये में मर्दाना वार लड़ेगा और अगर एहतराज़ी है तो यह दूसरोंकी शुजाअत व मर्दानगी पर नत्ज़ है कि मर्द होना और है और बाशक्ल मर्द होना और है। मर्द वह है जो मैदाने जंग में उतरने के बाद पीछे न हटे। और बशक्ले मर्द वह है जो जंग छिड़ने से पहले बड़े बड़े दावे करें मगर जब दुश्मन का सामना हो तो अपनी जान बचा कर भाग निकले।

दूसरी सिफ़त यह ब्यान हुई कि वह कर्रार ग़ैरे फ़र्रार होगा। क़र्रार के बाद ग़ैरे फ़र्रार कहने की बज़ाहिर कोई ज़रुरत न थी इसलिए कि क़र्रार के माने मुसलसल हमला करने वाले के हैं। और मुसलसल हमला करने वाला होगा वह मैदान छोड़कर जा नहीं सकता। ग़ालेबन यह कहने की ज़रुरत इस लिए महसूस फ़रमायी कि अलम की आस लगाने वाले खुद अपना जाएज़ा ले लें कि उनके क़दम मैदाने जंग में डगमगायें तो नहीं , अगर कदम उखड़ चुके हैं तो वह अपने दिलों को अलम की आरज़ू से खाली रखें और आगे बढ़ने की कोशिश न करें।

तीसरी सिफ़त यह ब्यान फरमाई गयी कि (वह खुदा और रसूल को दोस्त रखता हैः) यह मुहब्बत और दोस्ती ही का करिश्मा है कि इन्सान अल्लाह की राह में हर मुसीबत खुशी खुशी बरदाश्त कर लेता है और जिस क़द्र यह जज़बये मुहब्बत पायेदार होता जाता है उतना ही जोशे अमल बढ़ता है अगर कोई शख़्स मुहब्बत की आला तरीन मंज़िल पर फ़ाएज़ होता है तो बातिल कूवतों से टकराना , ख़तरों में फाँद पड़ना या जान दे देना इसके नज़दीक कोई बात ही नहीं होती और अगर दिल इस जज़बए इश्क व शैफ़तगी से ख़ाली है तो न क़दमों में सिबात आता है और न मैदाने जंग की सख़्तियां झेलने की कूवत पैदा होती है।

चौथी सिफ़त यह ब्यान हुई कि ख़ुदा और रसूल भी उसको दोस्त रखते हैं , यह इस दोस्ती का माहिस्ल है जो बन्दे को ख़ुदा और उसके रसूल (स.अ.व.व.) से होती है इसलिये कि जब उसके आमाल अल्लाह की दोस्ती और रज़ा तलबी की ख़ातिर हैं तो फिर अललाह की खुशनीदू और दोस्ती से सरफ़राज़ी भी यक़ीनी अमर है और फिर इस मौक़े के एतबार से दोखाजाये तो शुजाअत व सिफ़त हैं जिसे अल्लाह खुसूसी तौर पर दोस्त रखता है। चुनानचे एक हदीस में वारिद हुआ है कि अल्लाह शुजाअत को दोस्त रखता है ख़्वाह वह साँप के मारने ही से क्यों न ज़ाहिर हो। जब यह मामूली मुज़ाहिराये शुजाअत ख़ुदा की दोस्ती का बाअस हो सकता है तो वह शुजाअत जिसका इज़हार दुश्माने ख़ुदा और रसूल के मुक़ाबिले में हो उसे अल्लाह क्यों कर दोस्त रखेगा और कुरान भी गवाही देता है कि दुश्मनाने दीन के मुक़बिले में जुराएत व हिम्मत और सिबाते क़दम बन्दे को अल्लाह का महबूब बना देता है। चुनानचे इरशादे इलाही हैः- (इन्नल्लाह योहिब्बुल लज़ीना योक़ातेलून फ़ी सबीलिल्लाहे सफ़्फ़न कानाहुम नबियानुन मरसूस) अल्लाह उन लोगों को दोस्त रखता है जो उसकी राह में परा बाँध कर लड़ते हैं।

पाँचवी सिफ़्त यह ब्यान फ़रमायी कि ख़ुदा वन्दे आलम उसके हाथों पर क़िला फतहे करेगा। जब सिबाते क़दम हो तो खुदा की ताईद भी शामिले हाल होती है और ताईदे इलाही के नतीजे में फ़तेह व कामरानी भी ज़रुरी है। यह फ़तेह इतनी यक़ीनी थी कि हुदैबिया से पलटते हुए उसकी बशारत पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) को इन लफ़्ज़ों में दी जा चुकी थी कि (व असाबेही फ़तेह क़रबन) उन्हें जल्दी ही फ़तेह दी जायेगी) इसीलिये पैगम़्बर (स.अ.व.व.) ने भी फ़रमाया कि ख़ुदा उसके हाथों पर फ़तेह देगा यानि अल्लाह ने फ़तह की ख़ुशख़बरी दती और पैगम़्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) की भी फ़तेह होगी।

बहरहाल- पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) के इस ऐलान के बाद हर ज़बान पर इसी के तज़किरे और चर्चे होने लगे कि देखिये कल अलम किसको मिलता है ? सहाबा में कोई नुमाया शख़सियत ऐसी न थी जिसे ये तवक़्को न रही हो कि कल अलम उसी को मिलेगा बल्कि वह अफ़राद भी उम्मीदवारो की फ़हरिस्त में खुद को सबसे अफ़ज़ल व बरतर समझ रहे थे जो अलम लेकर क़िस्मत आज़माईश कर चुके थे। चुनानचे इब्ने असीर ने लिखा है किः

(कुरैश में हर एक यह उम्मीद रखता था कि कल वही अलमदार होगा) 1

अगर उन लोगों ने हदीसे पैगम़्बर (स.अ.व.व.) की लफ़्ज़ों पर गौ़र किया होता और फिर अपने माज़ी की तरफ़ मुड़कर देखा होता तो यक़ीनन इस क़ौले मुरसल (स.अ.व.व.) का एक एक हर्फ़ उनकी शम्मये उम्मीद की भड़कती हुई लौ को बुझाने के लिये काफ़ी था मगर तफावुक़ पसन्द इन्सानों की तबीअत का ख्वाह कामयाबी की उम्मीद कितनी ही मौहूम क्यों न हो। हज़रत ली (अ.स.) की तरफ़ से उन्हें इत्मिनान था कि वह आशोबे चश्म की वजह से मैदान मे नहीं जा सकते। ब हममें से ही किसी को अलम दिया जायेगा।

कल के इन्तेज़ार में सहाबा ने करवटें बदल बदल रात गुज़ारी और जब सुबह हुई तो सबके सब पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के ख़ेमे के सामने दरे ख़ेमा पर नज़रें जमा कर बैठ गये। बुख़ारी का कहना है कि वह सुबह सुबह रसूल उल्लाह के पास जमा हो गये और हर एक यह उम्मीद लगाये हुए था कि अलम उसी को मिलेगा।) सफों को चीरते हुए आगे बढ़ते , किसी ने गर्दन बुलन्द की औऐर कोई घुटनों के बल ऊँचा हुआ ताकि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की नज़र उन पर पड़ सके। यँ तो हर एक अलम लेने के लिये बेचैन व बेक़रार था मगर कुछ लोगों का इज़तेराब इस हद तक बढ़ा कि तारीख़ में उनका नाम आऐ बग़ैर न रह सका। उनमें एक हज़रत उमर भी हैं जो खुद फ़रमाते हैं किः

(मुझे उस दिन से पहले कभी सरदार की ख़्वाहिश नहीं हुई मगर उस दिन ऊँचा होकर और गर्दन लम्बी करके यह उम्मीद कर रहा ता कि रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) अलम मुझे ही देंगे)

बुरीदा असलमीजो ग़जव-ए-ख़ैबर में मौजूद थे फ़रमाते है-

(जब दूसरा दिन हुआ तो अबुबकर और उम दोनों ने अलम के लिये अपनी अपनी गर्दने बुलन्द की)

साद इब्ने अबीविकास काब्यान है कि —

(मैं पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के सामने पलथी मारे बैठ गया फिर उठा और आपके मुलमुक़ाबिल खड़ा हो गया) 4

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) से किसी के शुजआना कारनामें ढके छिपे न थे कि किसी के गर्दन बुलन्द करने या घुटनियों के भल ऊँचा होने से आप मुतासिर होते या किसी को अमदन नज़र अन्दाज़ कर देते या नज़रों से ओझल होने की वजह से भूल जाते। आपने मजमें पर एक नज़र डाली और फ़रमाया अली (अ.स.) कहाँ है ? किसी को सानों गुमान भी न था कि अली (अ.स.) का नाम लिया जायेगा। चारों तरफ शोर उठा कि उनकी आँखें दुख रही हैं। इरशाद हुआ किसी को भेजो और उन्हें बुलवाओ चुनानचे सलमा इब्ने अकवा गये और उन्हें ले कर आये। एक रिवायत से यह ज़ाहिर है कि हज़रत अली (अ.स.) बाएजाज़े इलाही पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में पहुँचे और एक रिवायत में है कि जिबरील (अ.स.) आपको लेकर हाज़िरे ख़िदमत हुए। बहरहाल , हज़रत अली (अ.स.) जब तशरीफ़ ले आये तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने आपका सर अपने जानू पर रख कर लोआबे दहन लगाया और फ़रमाया , परवरदिगार! उन्हें गर्मी और सर्दी के असरात से महफूज़ रख और दुश्मन के मुक़ाबिले में उनकी नुसरत व इमदाद फ़रमा। लोआबे दहन के लगते ही आपका आशोबे चश्म जाता रहा और आँकें इस तरह हो गई जैसे कोई तकलीफ़ ही न रही हो।

उसके बाद आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने अपने दस्ते मुबारक से अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) को ज़ेरह पहनाई , तलवार मरहमत की और अलम सुपुर्द करके ख़ैबर को फ़तेह करने का हुक्म दिया। हज़रत अली (अ.स.) अलम लेकर उठ खड़े हुए और जाते वक़्त पैगम्बर (स.अ.व.व.) से पूछा कि कब तक लडूँ ? फ़रमाया जब तक फ़तेह न हासिल हो जाये। हज़रत अळी (अ.स.) तेज़ी से कि़ले की तरफ़ बढ़े और क़रीब पहुँच कर अलम को एक पत्थर पर गाड़ दिया। एक यहूदी ने किले के ऊपर से यह मन्ज़र देखा तो मुतहैय्यर होकर उसने पूछा आप कौन हैं ? कहा मैं अली इब्ने अबुतालिब हूँ। उसने जब आपका नाम सुना और तेवर देखे तो पुकार कर कहा , ऐ यहूदियों! अब तुम्हारी शिकस्त और मौत यक़ीनी है।

क़िला क़मूस की मज़बूती पर यहूदियों को बड़ा नाज़ था और पहले परचम ब्रदारों की नाकाम से उनके हौसले बढ़े हुए थे मगर अपनी ही जमाअत में एक आदमी से जब यह हौसला शिकन अल्फाज़ सुने तो उनमें खलबली मच गई और उनके दिलों पर एक ख़ौफ़ व दहशत तारी हो गयी। अल लश्करे इस्लाम में से भी काफ़ी लोग वहाँ पहुँच गये और क़िले के सामने सफ़ बन्दी करके खडे हो गये। मरहब का भाई हारिस फ़ौज का एक दस्ता लेकर क़िले के बाहर निकला। और उसने एक दम हमला करके दो मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया। हज़रत अली (अ.स.) ने जब ये देखा तो वह तेज़ी से आगे बढ़े , बिजली की तरह तलवार चमकी और हारिस का सर तन से जुदा होकर पत्थरीली ज़मीन पर लुढ़कने लगा। मरहब ने अपने भाई का यह अन्जाम देखा तो उसकी आँखं में खून उतर आया। उसने यके बाद दीगरे दो ज़िरहें पहनी , सर पर तराशा हुआ पत्थर का ख़ौद रखा और दो तलवारें और तीन भाल का नैज़ा लेकर क़िले से बाहर आये और रजज़ ख़्वानी करता हुआ मुबारिज़ तलबह हुआ। मरहब ऐसा देवपैकर और शहज़ोर था कि उसके ललकारने पर किसी को हिम्मत न हुई कि वह उसके मुक़ाबले को निकलता। अल्लामा दयार बकरी रक़म तराज़ है कि मुसलमानों में से किसी के बस की बात न थी कि जंग में उसका मद्दे मुक़ाबिल होता। 1

हज़रत अली (अ.स.) अब्ने अबुतालिब (अ.स.) ने मरहब का रजज़ सुना तो आप भी रजज़ पढ़ते हुए उसकी तरफ़ बढ़े। अशआर का उर्दू तरजुमां यह है कि मैं वह हूँ कि मेरी माँ ने मेरा नाम हैदर रखा है मैं शेरे नर और बेशये शुजाअत का असद हूँ। मैं वह हूँ कि जिसकी कलाई शेर की तरह मज़बूत और गर्दीन मोटी है। मैं तुम पर ऐसा वार करूंगा जो जोड़ो बन्द को तोड़ दे और हरीफ़ों को दरिन्दों का लुक़मा बने के लिये छोड़ दें। मैं एक शरीफ़ , बाइज़्ज़त और ताक़तवर जवान की तरह तुम्हें मौत के घाट उतारूँगा और क़त्ल करूँगा।

मरहब ने आगे बढ़कर हज़रत अली (अ.स.) पर तलवार का वार करना चाहा मगर आप ने उसका वार खाली देकर उसके सर पर ऐसी कारी ज़र्ब लगाई कि तलवार उसके ख़ोद को काटती हुई , सर की हट्टियों को अबूर करती हुई और उसे दो हिस्सों में चीरती हुई ज़मीन पर ठहरी। मरहब पहाड़ की तरहं गिरा और गरिते ही उसने दम तोड़ दिया। मरहब के मारे जाने से यहूदियों के हौसले शिकस्ता हो गये थे। इधर हज़रत अली (अ.स.) की तलवार ने दो चार का और काम तमाम किया बस फिर क्या था भगदड़ मच गई। आप जंग करते हुए आगे बढ़ रहे थे कि भागते हुए एक यहूदी ने आपके हाथ पर वार किया जिससे आपकी सिपर छूट कर गिर पड़ी। आपने एजाज़ी कूवत व ताक़त से क़िले के दरवाज़े का एक पट उखाड़ लिया और सिपर की जगह उससे काम लेने लगे। अबु राफ़े का ब्यान है कि मेरे हमराह सात आदमी थए और मैं आठवां था हम सबने पूरी कोशिश की कि इस दरवाज़े को पलट दें मगर हम लोग उसे जुंबिश भी न दे सके 1। हज़रत उमर को भ इस पर बड़ी हैरत थी चुनानचे उन्होंने हज़रत अली (अ.स.) से पूछा कि आप कि आप ने सिपर की जगह इतना बड़ा बोझा कैसे उठाया ? आपने फ़रमाया , वह मुझे अपनी सिपर से ज़्यादा वज़नी नहीं मालूम हुआ। 2

ग़र्ज़ कि हज़रत अली (अ.स.) के हमलों की ताब न लाकर सारे यहूदी क़िले के अन्दर भाग भाग कर पनाह गुंर्जी हो गये और क़िले का मक़सूस आहनी दरवाज़ जो चालीस आदमियों की कुवत से खुलता था , बन्द कर लिया गया। अमीरूल मोमेनीन आगे बढ़े और उसे पकड़ कर झटका दिया , दोनों पट उखड़ कर आपको हाथों में आ गये और फ़तेह ने झूम कर आपके दोनों क़दम चूम लिये। यह हैरत अंगेज़ कूवत कूवते रूहानिया का करिश्मा थी। चुनानचे अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने खुद इरशाद फ़रमाया है कि मैंने ख़ैबर का दरवाज़ा अपनू कूवत से नीहं बल्कि रब्बानी कुवत से उखाड़ा है। 3

उस जंग में 63 यहूदी क़त्ल हुए , पन्द्रह मुसलान दरजए शहादत पर फ़ायज़ हुए। यहूदियों की कुछ औरतें भी असीर हुयीं जिनमें हय्या इब्ने अख़तब की बेटी सफ़िया भी थी जो आज़ाद होने के बाद रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) के हरम में दाख़िल हुई। यहूदी क़ैदियों को इस शर्त पर रेहा किया गया कि वह ख़ैबर की ज़मीनों पर काशतकार की हैसियत से काम करेंगे और पैदावार का निस्फ़ हिस्सा मुसलमानों को देते रहेंगे।

ख़ैबर का इलाक़ा बड़ी शादाब व ज़रख़ेज़ था। अहले हिजाज़ड की ग़िजाई ज़रुरियात का बेशतर हिस्सा यही से फ़राहम होता था। जब यह इलाक़ा मफतूह होकर मुसलमानों के क़ब्ज़े में आया तो उनके लिये माआशी उसअत की राहें खुल गई और वह मुहाजेरीन जो मक्का से निकलने के बाद फ़क्रों इफ़लास में मुबातिला थे , न सिर्फ मुआशी एतबार से असूदा हो गये बल्कि ज़मीनों और जगीरों के मालिक बन गये। अब्दुल्लाह इब्ने उमर का ब्यान है कि फ़तहे ख़ैबर के बाद हमें पेट भर खाना मिला। 1 और उम्मुल मोमेनीन हज़रत आयशा फरमाती हैं कि जब ख़ैबर फ़तहे हुआ तो हम खुश हुए कि अब जी भर के खजूरे खाने को मिलेगी। 2 बलाज़री ने फ़तवउल बलदान में तहरीर किया है कि ख़ैबर की पैदावर में से अज़वाजे रसूल (स.अ.व.व.) में हर एक को हर साल अस्सी वसक 3 ख़ुर्मों और बीस बीस वसक़ जौ मिलता था।

जाएदादे फ़िदक

ख़ैबर के नवाह में फ़िदक एक सरसबज़ व शादाब और ज़रखेज़ इलाका था जहाँ पहले पहल फ़िदत इब्ने हाम ने ड़ेरा डाला था और उन्हीं के नाम से यहाँ की आबादी मौसूम थी। ख़ैबर की तरह ये क़रिया भी यहूदियों का मसकन था जिन्होंने आबपाशी के वसाएल मोहय्या करके यहाँ की उफ़तादा ज़मीनों को लहलहाते हुए खेतों और हरे भरे बागों में बदल दिया था। याकूत हमूदी का कहना है कि यह गांव और उसके गिर्द व नवाहे की ज़मीन उबलते हुए चश्मों और नख़्लिस्तानों की आमा जगह थी। 4

फ़तहे ख़ैबर के बाद यहाँ के यहूदियों पर मुसलमानों का वह रोब व दबदबा तारी हुआ कि उन लोगों ने बग़ैर लड़े भिड़े पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) की इताअत कुबूल कर ली और उसी में अपनी आफ़ियत समझी कि फ़िदक की ज़मीनों से दस्तब्रदार हो कर पैदावार के निस्फ़ पर आन हज़रत (स.अ.व.व.) से मुसलेहत करें चुनानचे उन्होंने रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में यह पैग़ाम भेजा कि जिन शर्तों पर अहले ख़ैबर को उनकी ज़मीनों पर काश्त की इजाजत दी गई है उन्हीं शर्तों पर हमें भी इजाज़त मरहमत कर दी जाये ताकि आपकी तरफ़ से आइन्दा हमें कोई अन्देशा न रहे। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने उसे मन्ज़ूर फ़रमाते हुए हज़रत अली (अ.स.) को वहाँ के सरदार यूशा बिन नून के पास शराएत व तफ़सिलात तय करने के लिये भेजा। बात चीत के बाद फ़रीक़ैन के दरमियान यह तय पाया कि फ़िदक के बाशिन्दे अपनी ज़मीनों को मिलकियत से दस्तब्रदार होकर काश्तकार की हैसियत से उन पर काश्त करेंगे और उनकी कुल पैदारवार का निस्फ़ हिस्सा हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) को देंगे। इस मुसालेहात के नतीजें में फ़िदक का इलाक़ा आन हज़रत (स.अ.व.व.) की जाती मिलकियत क़रार पाया। क्योंकि इस्लामी नुक़्तये नज़र से जो इलाक़े मुसलमानों की लश्कर कशी के नतीजे में मफ़तूह होते हैं उन्हे ग़नीमत कहा जाता है और उनमें मुसलमानों का हक़ होता है और जो जंग व क़ेताल के बग़ैर हासिल होते हैं उन्हें शरयी इस्तेलाह फ़ी इन्फ़ाल से ताबीर किया जाता है और वह सिर्फ पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की ज़ाती मिलकियत क़रार पाते हैं। यह फ़िदक भी माले फ़ी था जो मुसलमानों की मुजाहिदाना सरगर्मियों के बगै़र मफ़तूह हुआ था इसलिये ये ख़ालिस रसूल (स.अ.व.व.) की मिलकियत था इसमें मुसलमानों का कोई हक़ नहीं था। जैसा कि तबरी का कहना है कि फ़िदक़ ख़ालिस रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) की मिलकियत का इस पर मुसलमानों ने न घोड़े दौड़ाये और न ऊँट। (बिल्कुल यही इबारत बिलाज़री ने फ़ुतहूल बलदान में तहरीर की है 2 । याकूत हमवी का कहना है कि ख़ुदा वन्दे आलम ने यह गांव पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) को सात हिजरी में सुलह के नतीजे में दिलवाया 3।

कुरानी सराहत और ओलमा की तसरीहात के बाद इस में क़तअन कोई गुंजाइशे शक व शुब्हा नहीं रहा जाती कि फ़िदक रसूल (स.अ.व.व.) की मिलकियत ख़ासा था। जिसमें उन्हें हर तरह का हक़ तसर्रुफ़ हासिल था चुनानचे इसी हक़ मिल्कियत व तसर्रुफ़ की बिना पर आपने यह गांव जनाबे फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) को अपनी ज़िन्दगी में एक दस्तावेज़ के ज़रिये हिबा फ़रमा दिया था। अल्लामा जलालुद्दीन सेवती ने इब्ने मरदूइया और इब्ने अब्बास से रिवायत ली है कि जब यह आयत नाज़िल हुई कि (ऐ अल्लाह के रसूल तुम अपने क़राबतदारों को उनका हक़ दे दो) तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने फ़िदक़ फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) को अता कर दिया। 4 क़ाज़ी सना उल्लाह पानी पती ने तबरानी के हवाले से यही कुच तहरीर फ़रमाया है। 5

आन हज़रत (स.अ.व.व.) की हयात तक फ़िदक जनाबे फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) के क़ब्ज़े व तसर्रूफ़ में राह लेकिन वफ़ाते पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के बाद हुकूमत की तहवील में ले लिया गया। जनाबे सय्यदा (स.अ.व.व.) ने हुकूमत के ख़िलाफ़ मुक़दमा भी किया मगर उनका दावा मुस्तरद कर दिया गया। मसला फ़िदक किन वजूह कि बिना पर यह दावा ख़ारिज किया गया।

मुहाजेरीने हब्शा की वापसी

फ़तहे ख़ैबर के दिन जाफ़र इब्ने अबुतालिब (स.अ.व.व.) , उनकी बीवी असमां बिन्ते उमैस , अबुमूसा अशअरी और उनके ख़ानदान के दीगर पांच अफ़राद हबशा से खै़बर में आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में वापस आये आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने जनाबे जाफ़र वग़ैरा को देखा तो बेहद खुश हुए और फ़रमाया कि मैं नहीं कह सकता कि जाफ़र के आने की मुझे ज़्यादा ख़ुशी है या ख़ैबर के फ़तेह होने की।

इब्ने ख़लदून ने लिखा है कि मुश्रेकीने मक्का के मज़ालिम से तंग आकर जो लोग आन हज़रत (स.अ.व.व.) के हुक्म पर हबशा की तरफ़ हिजरत कर गये थे उनमें से कुछ हिजरते मदीने से क़बल वापस आ गये थे और कुछ जंगे ख़ैबर के दो बरस क़बल मदीने में वापस आ गये मादूदे चन्द लोग बाकी रह गये थे वह ख़ैबर फ़तेह होने के बाद वापस आये। उन वापस आने वालों में जाफ़र इब्ने अबुतालिब (स.अ.व.व.) , उनकी ज़ौज़ा असमा बिन्ते उमैस उनके बेटे अब्दुल्लाह मुहम्मद , और ख़ालिद बिन सईद उनकी बीवी आमना और बेटा सईद , उम्मे खालिद , उमरू बिन आस , अबुमूसा अशरी , असूद इब्ने नौफिल , जहम बिन क़ैस उनके बेटे अम्र , ख़ज़ीमा , हारिस बिन ख़ालिद बिन सख़र , उस्मान इब्ने रबिया , मोअम्मर बिन अब्दुल्लाह और अबु अम्र मालिक बिन रबिया वग़ैरा शामिल थे. उनकी वापसी के वासते पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने अम्र बिन उमय्या ज़मरी को नज्जाशी के पास भेजा था।

रजअते शम्स (सूरज पलटना)

ख़ैबर की वापसी पर , वादिउल कुरा की तरफ़ पेश क़दमी फ़रमाते हुए पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) लश्कर समत जब सहबा के मुक़ाम पर पहुँचे और वहाँ क़्याम पजीर हुए तो गरूबे आफ़ताब से क़बल आप पर नज़ूले वही का सिलसिला शुरू हुआ जो काफ़ी देर तक जारी रहा। उस वक़्त आन हज़रत (स.अ.व.व.) का सरे अक़दस हज़रत अली (अ.स.) के ज़ानू पर था। नज़ूले का सिसिला मुनक़ता हुआ तो आपने आँखे खोलीं तो फ़रमाया ऐ अली (अ.स.) तुमने नमाज़े अस्र पढ़ी या नहीं। कहा , या रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) , आपका सरे मुबारक मेरी गोद में था और मसरूफ़े वही थे , कैसे पढ़ता ? फ़रमाया , क्या सूरज डूब गया ? कहा , हाँ! फ़रमाया तो फिर उसे पलटाओ। कहा , क्यों कर पलटाऊँ ? फ़रमाया , उसे हुक्म दो वह पलटेगा। चुनानचे आपने हुक्म दिया , सूरज पलटा और उस वक़्त तक गुरूब नहीं हुआ जब तक आपने नमाज़ नहीं पढ़ली। बाज़ रवायतों से यह भी पता चलता है कि अबुतुराब ने ज़मीन पर दोनों हाथो को टेक कर उसे इस तरह घुमाया कि सूरच नमूदार हो गया।

ग़ज़वा-ए-वादी-उल कुरा

सहबा से चलकर हुजूरे अकरम (स.अ.व.व.) वादिउल कुरा में जलवा अफ़रोज़ हुए यहाँ यहूदियों से झड़पें हुयी जिसके नतीजे में ग्यारह यहूदी मारे गये बहुत से भाग खड़े हुए बाक़ी ने हथियार डाल दिये और काफ़ी माले ग़निमत मुसलमानों के हाथ आया। बिल आख़िर उन लोगों ने जज़या देना मन्जूर किया और समझौता हो गया। इसी तरह तीमा के यहूदियों ने भी जज़या के एवज़ आन हज़रत (स.अ.व.व.) से सुलह कर ली।

उमरा-ए-कज़ा

बर बिनाये मुहायिदा माहे ज़ीक़ाद सन् 7 हिजरी में सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) , दो हज़ार इन्साम व मुहाजेरीन और सत्तर ऊँटो को लेकर उमरा की ग़र्ज़ से मक्केय मोअज़म्मा की तरफ़ रवाना हुए। आपके साथ वह लोग भी थे जो पिछले साल हुदैबिया से वापस आ गये थे। यह उमर-ए-कज़ा था। मसुलमान तीन दिन तक मक्के मे क़याम के बाद वापस आये और उस मुक़ाम के दौरान बहुत से अहले मक्का ने इस्लाम कुबूल किया।

मुख़तलिफ़ वाक़ियात

• इसी उमरे के (अय्यामे एहराम) के दौरान आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने मैमूना बिन्ते हारिस से आख़िरी अक़द फरमाया उस वक़्त मैमूना की उमर 51 साल की थी।

• उसी साल अबु हुरैरा जो यहूदी थे मुसलमान हुए और तीन साल तक अहदे रिसालत में रहे। आपने पांच हजार , तीन सौ चार हदीसें नक़ल की हैं। लेकिन अब्दुल्लाह इब्ने उमर , हज़रत आय़शा और हज़रत अली (अ.स.) वग़ैरा उन्हें काज़िव व झूटा कहते थे।