तारीखे इस्लाम 2

तारीखे इस्लाम 27%

तारीखे इस्लाम 2 लेखक:
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तारीखे इस्लाम 2

तारीखे इस्लाम 2

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.


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(सन् 7 हिजरी)

तबलीग़ी मकतूबात

कुरैश की मुख़ालफतें , ख़ुफिया साज़िशें और दरपर्दा रेशा दवानाईयां अब तक इस्लाम की तौसीय व तबलीग़ और नशरो अशाअत में सुद्देराह थी लेकिन सुलहे हुदैबिया के बाद इस्लाम आज़ाद हो चुका था और उसके लिए तबलीग़ व इशाअत के रास्ते खुल चुके थे इसिलये वहाँ की वापसी पर सराकेर दो आलम (स.अ.व.व.) ने दीगर मुमालिक के ताजिरों और बादशाहों को मकतूबात के ज़रिये इस्लाम की दवात देने का फ़ैसला किया। चुनानचे सन् 7 हिजरी के अवाएल में आपने अपने नाम की एक मुहर बनवाई जिस पर (मुहम्मद रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ) कन्दा कराया। उसके बाद आपने शाहाने आलम को ख़तूत लिखे।

उन दिनों अरब के गिर्द चार बड़ी हुकूमतें क़ायम थीं ( 1) हुकूमते ईरान जिसका असर वस्त एशिया से इराक़ तक फैला हुआ था। ( 2) हुकूमते रोम जिसमें एशियाये काचिक , फिलिस्तीन , शाम और युरोप के बाज़ हिस्से शामिल थे ( 3) मिस्र ( 4) हुकूमते हबश जो मिस्री हुकूमत के जुनूब से लेकर बहरे कुलज़ुम के मग़रिबी साहिल पर हिजाज़ व यमन के मुतावाज़ी क़ायम थी और उसका असर सहराये आज़म अप़रीक़ा के तमाम आला इलाकों पर था।

आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने बादशाहे हबश नजाशी , क़ैसरे रोस हर कुल , गवर्नर मिस्र जरीह इब्ने मक़कूस , शाह ईरान खुसरू परवेज़ , गवर्नरे यमन बाज़ान और वालीए दमिश्क हारिस वग़ैरा के नाम खुतूत रवाना किये।

मुख़तलिफ़ बादशाहों पर आपके खुतूत का मुख़तलिफ़ असर हुआ। नजाशी ने इस्लाम कुबूल कर लिया। शाह ईरान इस क़द्र आपे से बाहर हुआ कि उसने आपके ख़त को पाश पाश कर दिया , क़ासिद को ज़लील करके निकल दिया और यमन के गवर्नर को लिखा कि मदीने के दीवाने को ग़िरफ़्तार करके मेरे पास भेजो। उसने कुछ सिपाही मदीने भेजे ताकि वह हुज़ूरे अकरम (स.अ.व.व.) को गिरफ़्तार करे। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया कि तुम्हें कुछ ख़बर भी है मरी गिरफ़्तारी का हुक्म जारी करने वाला मर गय। सिपाही जब यमन पहुँचे तो उन्हें मालूम हुआ कि शाहे यमन मर चुका है। चुनानचे जब यह ख़बर आम हुई तो हज़ारों काफिर मुसलमान हो गये। क़ैसरे रोम ने आपके ख़त की ताज़ीम की। गवर्नर मिस्र ने आपका ख़त अपनी आँखों से लगाया और क़ासिद की बड़ी ख़ातिर व मदारात की और बेश क़ीमत तहायफ़ के साथ रूख़सत किया। उन तोहफ़ों में मारया क़िब्तिया , उसकी बहन शीरीं (ज़ौजा हिसान बिन साबित) दुलदुल नामी एक ख़च्चर और याफूरिया माबूर नामी एक ख़्वाज़ा सरां भी शामिल था। 1 आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने अपने क़ासिदों में वही कलबी को क़ैसरे रोम , अब्दुल्लाह बिन ख़ज़ाफ़ा तसहमी को शाहे ईरान हातिब बिन बलतआ को अज़ीमे मिस्र , अम्र बिन उमय्या को हब्शा के बादशाह नजाशी , सलीत बिन अम्र को यमामा और शुजा बिन वहब असदी को शाम की तरफ़ रवाना किया था।

मारकऐ-ख़ैबर

ख़ैबर , इबरानी ज़बान में क़िला व हिसार के मानों में इस्तेमाल होता है और एक क़ौल यह भी है कि क़ौमे अमालेक़ा में ख़ैबर और यसरब नाम के दो भाई थे वह जहाँ आबाद हुए वह जगह उनके नाम से मौसूम हो गयी चुनानचे यसरब के नाम यसरब (मदीना) आबाद हुआ और ख़ैबर के नाम पर ख़ैबर आबाद हुआ जो मदीने से तक़रीबन अस्सी ( 80) मील की दूरी पर शाम व हिजाज़ की सरहदों पर वाक़े है। यह मुक़ाम अपने सरसब्ज़ व शादाब खेतों , बागों और नख़लिस्तानों की वजह से दूर दूर तक मशहूर था. मगर उसके साथ ही यह इलाक़ा यहूदियों की आमाजगहं और उनकी जंगी कूवतों का मरकज़ भी था। उन्होंने दिफ़ायी इस्तेहकाम के पेशे नज़र यहाँ छोटे बड़े सात कि़ले तामीर कर रखे थे और उन क़िलों में मजमूई तौर पर चौदह हज़ार यहूदी आबाद थे जिन में वह यहूदी भी शामिल थे जो मदीने से जिला वतन होकर यहाँ आबाद हो गये थे और उन्होंने ओहद और ख़न्दक की जंगों में मुश्रकेीन का खुल कर साथ दिया था।

सुलैह हुदैबिया के बाद यह लोग इस ग़लत फ़हमी में मुबतिला हो गये कि मुसलमानों ने कुरैश से दब कर सुलह कर ली है और अब दुश्मन से टकराने की हिम्मत उनमें नहीं है। चुनानचे उनमें ज़राएत पैदा हुई और उन्होंने मुसलमानों की सुलह पसन्दाना रविश को कमज़ोरी पर महमूल करते हुए इस्लामी मरकज़ मदीने पर हमला करके उसे ताराज व बरबाद करने का मनसूबा बनाना शुरू कर दिया ताकि अपनी जिला वतनी और ग़ज़वये एहजा़ब की निदामत व ख़िफ़्फ़त का बदला ले सकें। उन्होंने अपनी कसरत व कूवत में मज़ीद इज़ाफ़े के लिये बनि ग़तफ़ान से जो ख़ैबर से छः मील की दूरी पर आबाद थे मुहायिदा किया कि अगर वह मुसलमानों के ख़िलाफ़ जंग में उनका साथ देंगे तो उन्हें खैबर की निस्फ़ पैदावार दी जायेगी। बनि ग़तफ़ान ने उसे मन्ज़ूर किया और उनके चार हज़ार नबर्द आज़मां उन यहूदियों के परचम तले जमा होकर लड़ने मरने पर तैय्यार हो गये।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) को जब यह मालूम हुआ कि ख़ैबर के यहूदी मदीने पर हमले करने के लिये तुल रहे हैं तो आपनी तादीबी कार्रवाई ज़रूरी समझी ताकि फ़ितना परवर और शर अंगेज़ ताक़तों को कुचल कर अमन को बरक़रार रखा जा सके। चुनानचे हुदैबिया से मराजियत के बाद आपने बीस दिन मदीने में क़याम फरमाया और सोलह सौ सहाबियों के साथ जिनमें दो सौ सवार और बाक़ी पियादा थे ख़ैबर की तरफ़ रवाना हुए। जब लश्करे इस्लाम ख़ैबर के नवाह में दाख़िल हुआ तो सुबह का वक़्त था। ख़ैबरी यहूदी अपने कन्धों पर फावड़े रके और हाथों में बेलचे लिये अपने खेतों में काम करने की ग़र्ज़ से जा रहे थे कि उन्होंने इस्लामी फ़ौजों को देखे। बढ़ते हुए क़दम रुक गये। और लोग बदहवास होकर अपने क़िलों की तरफ़ भागे। मुसलमानों ने उन्हें भागते देखा तो सदाये तकबीर बुलन्द की और पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया।

(खैबर बरबाद हो गया। जब हम किसी क़ौम की सरह पर उतरते हैं तो उन पर क्या बुरा वक्त पड़ता है) 1

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) को चूँकि यह इल्म हो चुका था कि बनि ग़तफ़ान , अहले ख़ैबर के हलीफ़ व मुआहिद हैं और वह जंग में उनका साथ देंगे इसिलये आपने अहले ख़ैबर और बनि ग़तफ़ानकी आबादी के दरमियान मुक़ामे रजीय में अपना पड़ाव डाला ताकि वह अहले ख़ैबर की मदद को पहुँच न सकें। और यही हुई की जब वह लोग ख़ैबरियों की मदद के इरादे से निकले तो दरमियान में मुसलमानों का लश्कर हायल देख कर ठहर गये और अपनी तबाही के पेशे नज़र अपने अपने घरों में दबक कर बैठ गये।

मुसलमान ख़ैबर के मुहासिरे की ग़र्ज़ से आगे बढे। यहूदियों ने अपनी औरतों और बच्चों को तो क़िले कतीबा में महफूज़ कर दिया और खुद दूसरे क़िले में जमां होकर मुसलमानों पर तीरों और पत्थरों की बारिश करने लगे। दिफ़ायी कार्रवाई के नतीजे में मुख़तसर मुख़तसर झड़पों के बाद मुसलमानों ने मुतअद्दिद क़िलों पर अपना तसल्लुत जमां लिया मगर जिस क़िले पर फ़तहे , कामरानी का दारोमदार था वह इब्ने अबुल हक़ीक़का क़िला था जो कमूस नामी एक पहाड़ी की ढ़लान पर वाक़े होने की वजह से क़िलए क़मूस के नाम से मशहूर था , उसके सामने एक गहरी ख़न्दक़ थी और यह क़िला अपनी मज़बूरी व पायेदारी की वजह से नाक़ाबिले तसख़ीर समझा जाता था।

ग़जवात में सिपाह सलारी के फ़राएज़ आम तौर पर ख़ुद पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) अन्जाम देते थे और अलमबर्दारी का मन्सब ख़ास तौर पर अमीरूल मोमेनीन अली इब्ने अबुतालिब (अ.स.) के सुपुर्दा किया जाता था मगर इत्तेफ़ाक़ से इस मौक़े पर आन ह़रत (स.अ.व.व.) दर्दे शक़ीक़ा में मुबतिला थे और हज़रत अली (अ.स.) आशोब चश्म की वजह से लश्कर के साथ न आ सके थे। इससे कुछ लोगों को अपनी धाक जमाने के मौक़ा फ़राहम हुआ चुनानचे उन्होंने अज़ खुद अलम लेकर क़िले क़मूस को फ़तह करने की ठान ली। पहले हज़रत उमर ने अलम हाथो में लिया और एक फौज़ी दस्ते के साथ क़िले परहमला आवर होने के लिये आगे बढ़ा मगर उधर से मरहब व अन्तर के सात जब रेला दिया तो हज़ीमत उठाकर वापस पलट आये उनके बाद हज़रत अबुबकर को जोश आया और वह अलम लेकर बढ़े मगर उनके बनाये कुछ न बन पड़ी और नाक़ाम वापस आ गये हज़रत उमर ने फिर दोबारा अलम लिया मगर इस मर्तबा भी नाकाम पलटे और अपनी ख़िफ्फ़त मिटाने के लिय फौज को इस हज़ीमत का ज़िम्मेदार ठहराया लेकिन फौज़ ने खुद उन्हें नामर्द और बुज़दिल क़रार दिया जैसा कि अल्लामा तबरी ने तहरीर किया है किः- (हज़रत उमर कुछ लोगों के साथ उठ खड़े हुए और ख़ैबरियों से मुठभेड़ होते ही भाग निकले और रसूल (स.अ.व.व.) के पास वापस आ गये इस मौक़े पर फौज़ वाले कहते थे कि उमर ने नामर्दी और बुज़दिली दिखाई और उमर कहते थे कि फौज़ बुज़दिल निकली) 1

रसूले अकरम (स.अ.व.व.) के दर्द सर में कुछ कमी हुई तो ख़ेमे के बाहर तशरीफ़ लाये और इस मज़हका खेज़ हजी़मत से फौज़ में बुज़दिली के आसार देख कर आपने फरमायाः

(ख़ुदा की क़सम कल मैं अलम उस मर्द को दूँगा जो कर्र व ग़ैरे फ़र्रार और बढ़ बढ़ के हमले करने वाला होगा। वह ख़ुदा और रसूल को दोस्त रखता होगा और ख़ुदा व रसूल उसको दोस्त रखते होंगे। नीज़ वह मैदान से उस वक़्त तक न पलटेगा जब तक खुदा उसके दोनों हाथों को फतहा से हमकिनार न कर दें) 2

आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने सरदारे लश्कर के इस इल्जा़म के बावजूद कि फौज़ ने बुज़दिली का मुज़ाहिरा किया , फौज़ में कोई तबदिली नहीं की बल्कि सरदारे लश्कर को बदलने का ऐलान फरमाया इसलिये कि फौज़ का हौसला सरदार के सिबाते क़दम का मरहूने मिन्नत होता है। जब उसके क़दम उखड़ जायेंगे तो फौज़ के जमने का सवाल नहीं हुआ करता। और हदीस के अल्फाज़ (कर्रार ग़ैरे फ़र्रार) का भी तज़किरा करते। बहरहाल यह एलाने नबवी एक रौशन आईना है जिस में तसरीह भी है और तलमीह भी। मदहा भी और तनज़ भी। इसमें फ़तहे ख़ैबर के ख़दोख़ाल भी नज़र आते हैं और पलट कर आने वालों के चेहरे मेहरे भी दिखाई देते हैं। इबारत की गूँज में नवेदे फ़तेह भी है और अल्फाज़ के पर्दे में असबाबे शिकस्त पर तबसिरा भी नीज़ आने वाले कल के बारे में मुसलमानों को मुज़दए कामरानी भी। यह इल्म व यक़ीन महज़ वही के नतीजे में मुम्किन है क्योंकि अगर यह ऐलान अज़ खुद होता तो पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) इस तरह इत्मिनान व यक़ीन के साथ अताये इल्म को कल से वाबस्ता न करते और न इस तरह यक़ीनी कामयाबी व फ़तेह मन्दी का ऐलान फ़रमाते। जब कि उनके लिये हुक्मे ख़ुदा ये ता कि अगर वह किसी अमर को कल से वाबस्ता करें तो हतमी तौर में यह न कहें कि मैं कल ऐसा करूँगा। मगर यहाँ मशियते बारी के इसतेसना के बग़ैर पूरे एतमाद व सूख़ से आपका यह फ़रमाना कि कल ज़रुर ऐसा होगा , इश अमर का वाज़ेह सुबूत है कि अताये इल्म में कुदरत का भरपूर इशारा कार फ़रमा था और पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की ज़बान सिर्फ़ मंशाये इलाही की तरजुमानी कर रही थी।

इस हदीस के इल्फाज़ अगर चे मुख़तसर हैं मगर एक एक लफ़्ज़ मुनाकि़ब व फ़ज़ीलत का दफ़्तर और हामिले रायत की इन्फ़िरादियत व अफज़लियत का आईना है।

पहली सिफ़त यह ब्यान हुई है कि वह मर्द होगा। यह क़ैद अगर तौज़ीही है तो इस का मतलब यह है कि वह हिम्मत व मर्दानगी के जौहर से आरास्ता होगा और तेगे सिना के साये में मर्दाना वार लड़ेगा और अगर एहतराज़ी है तो यह दूसरोंकी शुजाअत व मर्दानगी पर नत्ज़ है कि मर्द होना और है और बाशक्ल मर्द होना और है। मर्द वह है जो मैदाने जंग में उतरने के बाद पीछे न हटे। और बशक्ले मर्द वह है जो जंग छिड़ने से पहले बड़े बड़े दावे करें मगर जब दुश्मन का सामना हो तो अपनी जान बचा कर भाग निकले।

दूसरी सिफ़त यह ब्यान हुई कि वह कर्रार ग़ैरे फ़र्रार होगा। क़र्रार के बाद ग़ैरे फ़र्रार कहने की बज़ाहिर कोई ज़रुरत न थी इसलिए कि क़र्रार के माने मुसलसल हमला करने वाले के हैं। और मुसलसल हमला करने वाला होगा वह मैदान छोड़कर जा नहीं सकता। ग़ालेबन यह कहने की ज़रुरत इस लिए महसूस फ़रमायी कि अलम की आस लगाने वाले खुद अपना जाएज़ा ले लें कि उनके क़दम मैदाने जंग में डगमगायें तो नहीं , अगर कदम उखड़ चुके हैं तो वह अपने दिलों को अलम की आरज़ू से खाली रखें और आगे बढ़ने की कोशिश न करें।

तीसरी सिफ़त यह ब्यान फरमाई गयी कि (वह खुदा और रसूल को दोस्त रखता हैः) यह मुहब्बत और दोस्ती ही का करिश्मा है कि इन्सान अल्लाह की राह में हर मुसीबत खुशी खुशी बरदाश्त कर लेता है और जिस क़द्र यह जज़बये मुहब्बत पायेदार होता जाता है उतना ही जोशे अमल बढ़ता है अगर कोई शख़्स मुहब्बत की आला तरीन मंज़िल पर फ़ाएज़ होता है तो बातिल कूवतों से टकराना , ख़तरों में फाँद पड़ना या जान दे देना इसके नज़दीक कोई बात ही नहीं होती और अगर दिल इस जज़बए इश्क व शैफ़तगी से ख़ाली है तो न क़दमों में सिबात आता है और न मैदाने जंग की सख़्तियां झेलने की कूवत पैदा होती है।

चौथी सिफ़त यह ब्यान हुई कि ख़ुदा और रसूल भी उसको दोस्त रखते हैं , यह इस दोस्ती का माहिस्ल है जो बन्दे को ख़ुदा और उसके रसूल (स.अ.व.व.) से होती है इसलिये कि जब उसके आमाल अल्लाह की दोस्ती और रज़ा तलबी की ख़ातिर हैं तो फिर अललाह की खुशनीदू और दोस्ती से सरफ़राज़ी भी यक़ीनी अमर है और फिर इस मौक़े के एतबार से दोखाजाये तो शुजाअत व सिफ़त हैं जिसे अल्लाह खुसूसी तौर पर दोस्त रखता है। चुनानचे एक हदीस में वारिद हुआ है कि अल्लाह शुजाअत को दोस्त रखता है ख़्वाह वह साँप के मारने ही से क्यों न ज़ाहिर हो। जब यह मामूली मुज़ाहिराये शुजाअत ख़ुदा की दोस्ती का बाअस हो सकता है तो वह शुजाअत जिसका इज़हार दुश्माने ख़ुदा और रसूल के मुक़ाबिले में हो उसे अल्लाह क्यों कर दोस्त रखेगा और कुरान भी गवाही देता है कि दुश्मनाने दीन के मुक़बिले में जुराएत व हिम्मत और सिबाते क़दम बन्दे को अल्लाह का महबूब बना देता है। चुनानचे इरशादे इलाही हैः- (इन्नल्लाह योहिब्बुल लज़ीना योक़ातेलून फ़ी सबीलिल्लाहे सफ़्फ़न कानाहुम नबियानुन मरसूस) अल्लाह उन लोगों को दोस्त रखता है जो उसकी राह में परा बाँध कर लड़ते हैं।

पाँचवी सिफ़्त यह ब्यान फ़रमायी कि ख़ुदा वन्दे आलम उसके हाथों पर क़िला फतहे करेगा। जब सिबाते क़दम हो तो खुदा की ताईद भी शामिले हाल होती है और ताईदे इलाही के नतीजे में फ़तेह व कामरानी भी ज़रुरी है। यह फ़तेह इतनी यक़ीनी थी कि हुदैबिया से पलटते हुए उसकी बशारत पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) को इन लफ़्ज़ों में दी जा चुकी थी कि (व असाबेही फ़तेह क़रबन) उन्हें जल्दी ही फ़तेह दी जायेगी) इसीलिये पैगम़्बर (स.अ.व.व.) ने भी फ़रमाया कि ख़ुदा उसके हाथों पर फ़तेह देगा यानि अल्लाह ने फ़तह की ख़ुशख़बरी दती और पैगम़्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) की भी फ़तेह होगी।

बहरहाल- पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) के इस ऐलान के बाद हर ज़बान पर इसी के तज़किरे और चर्चे होने लगे कि देखिये कल अलम किसको मिलता है ? सहाबा में कोई नुमाया शख़सियत ऐसी न थी जिसे ये तवक़्को न रही हो कि कल अलम उसी को मिलेगा बल्कि वह अफ़राद भी उम्मीदवारो की फ़हरिस्त में खुद को सबसे अफ़ज़ल व बरतर समझ रहे थे जो अलम लेकर क़िस्मत आज़माईश कर चुके थे। चुनानचे इब्ने असीर ने लिखा है किः

(कुरैश में हर एक यह उम्मीद रखता था कि कल वही अलमदार होगा) 1

अगर उन लोगों ने हदीसे पैगम़्बर (स.अ.व.व.) की लफ़्ज़ों पर गौ़र किया होता और फिर अपने माज़ी की तरफ़ मुड़कर देखा होता तो यक़ीनन इस क़ौले मुरसल (स.अ.व.व.) का एक एक हर्फ़ उनकी शम्मये उम्मीद की भड़कती हुई लौ को बुझाने के लिये काफ़ी था मगर तफावुक़ पसन्द इन्सानों की तबीअत का ख्वाह कामयाबी की उम्मीद कितनी ही मौहूम क्यों न हो। हज़रत ली (अ.स.) की तरफ़ से उन्हें इत्मिनान था कि वह आशोबे चश्म की वजह से मैदान मे नहीं जा सकते। ब हममें से ही किसी को अलम दिया जायेगा।

कल के इन्तेज़ार में सहाबा ने करवटें बदल बदल रात गुज़ारी और जब सुबह हुई तो सबके सब पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के ख़ेमे के सामने दरे ख़ेमा पर नज़रें जमा कर बैठ गये। बुख़ारी का कहना है कि वह सुबह सुबह रसूल उल्लाह के पास जमा हो गये और हर एक यह उम्मीद लगाये हुए था कि अलम उसी को मिलेगा।) सफों को चीरते हुए आगे बढ़ते , किसी ने गर्दन बुलन्द की औऐर कोई घुटनों के बल ऊँचा हुआ ताकि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की नज़र उन पर पड़ सके। यँ तो हर एक अलम लेने के लिये बेचैन व बेक़रार था मगर कुछ लोगों का इज़तेराब इस हद तक बढ़ा कि तारीख़ में उनका नाम आऐ बग़ैर न रह सका। उनमें एक हज़रत उमर भी हैं जो खुद फ़रमाते हैं किः

(मुझे उस दिन से पहले कभी सरदार की ख़्वाहिश नहीं हुई मगर उस दिन ऊँचा होकर और गर्दन लम्बी करके यह उम्मीद कर रहा ता कि रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) अलम मुझे ही देंगे)

बुरीदा असलमीजो ग़जव-ए-ख़ैबर में मौजूद थे फ़रमाते है-

(जब दूसरा दिन हुआ तो अबुबकर और उम दोनों ने अलम के लिये अपनी अपनी गर्दने बुलन्द की)

साद इब्ने अबीविकास काब्यान है कि —

(मैं पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के सामने पलथी मारे बैठ गया फिर उठा और आपके मुलमुक़ाबिल खड़ा हो गया) 4

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) से किसी के शुजआना कारनामें ढके छिपे न थे कि किसी के गर्दन बुलन्द करने या घुटनियों के भल ऊँचा होने से आप मुतासिर होते या किसी को अमदन नज़र अन्दाज़ कर देते या नज़रों से ओझल होने की वजह से भूल जाते। आपने मजमें पर एक नज़र डाली और फ़रमाया अली (अ.स.) कहाँ है ? किसी को सानों गुमान भी न था कि अली (अ.स.) का नाम लिया जायेगा। चारों तरफ शोर उठा कि उनकी आँखें दुख रही हैं। इरशाद हुआ किसी को भेजो और उन्हें बुलवाओ चुनानचे सलमा इब्ने अकवा गये और उन्हें ले कर आये। एक रिवायत से यह ज़ाहिर है कि हज़रत अली (अ.स.) बाएजाज़े इलाही पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में पहुँचे और एक रिवायत में है कि जिबरील (अ.स.) आपको लेकर हाज़िरे ख़िदमत हुए। बहरहाल , हज़रत अली (अ.स.) जब तशरीफ़ ले आये तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने आपका सर अपने जानू पर रख कर लोआबे दहन लगाया और फ़रमाया , परवरदिगार! उन्हें गर्मी और सर्दी के असरात से महफूज़ रख और दुश्मन के मुक़ाबिले में उनकी नुसरत व इमदाद फ़रमा। लोआबे दहन के लगते ही आपका आशोबे चश्म जाता रहा और आँकें इस तरह हो गई जैसे कोई तकलीफ़ ही न रही हो।

उसके बाद आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने अपने दस्ते मुबारक से अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) को ज़ेरह पहनाई , तलवार मरहमत की और अलम सुपुर्द करके ख़ैबर को फ़तेह करने का हुक्म दिया। हज़रत अली (अ.स.) अलम लेकर उठ खड़े हुए और जाते वक़्त पैगम्बर (स.अ.व.व.) से पूछा कि कब तक लडूँ ? फ़रमाया जब तक फ़तेह न हासिल हो जाये। हज़रत अळी (अ.स.) तेज़ी से कि़ले की तरफ़ बढ़े और क़रीब पहुँच कर अलम को एक पत्थर पर गाड़ दिया। एक यहूदी ने किले के ऊपर से यह मन्ज़र देखा तो मुतहैय्यर होकर उसने पूछा आप कौन हैं ? कहा मैं अली इब्ने अबुतालिब हूँ। उसने जब आपका नाम सुना और तेवर देखे तो पुकार कर कहा , ऐ यहूदियों! अब तुम्हारी शिकस्त और मौत यक़ीनी है।

क़िला क़मूस की मज़बूती पर यहूदियों को बड़ा नाज़ था और पहले परचम ब्रदारों की नाकाम से उनके हौसले बढ़े हुए थे मगर अपनी ही जमाअत में एक आदमी से जब यह हौसला शिकन अल्फाज़ सुने तो उनमें खलबली मच गई और उनके दिलों पर एक ख़ौफ़ व दहशत तारी हो गयी। अल लश्करे इस्लाम में से भी काफ़ी लोग वहाँ पहुँच गये और क़िले के सामने सफ़ बन्दी करके खडे हो गये। मरहब का भाई हारिस फ़ौज का एक दस्ता लेकर क़िले के बाहर निकला। और उसने एक दम हमला करके दो मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया। हज़रत अली (अ.स.) ने जब ये देखा तो वह तेज़ी से आगे बढ़े , बिजली की तरह तलवार चमकी और हारिस का सर तन से जुदा होकर पत्थरीली ज़मीन पर लुढ़कने लगा। मरहब ने अपने भाई का यह अन्जाम देखा तो उसकी आँखं में खून उतर आया। उसने यके बाद दीगरे दो ज़िरहें पहनी , सर पर तराशा हुआ पत्थर का ख़ौद रखा और दो तलवारें और तीन भाल का नैज़ा लेकर क़िले से बाहर आये और रजज़ ख़्वानी करता हुआ मुबारिज़ तलबह हुआ। मरहब ऐसा देवपैकर और शहज़ोर था कि उसके ललकारने पर किसी को हिम्मत न हुई कि वह उसके मुक़ाबले को निकलता। अल्लामा दयार बकरी रक़म तराज़ है कि मुसलमानों में से किसी के बस की बात न थी कि जंग में उसका मद्दे मुक़ाबिल होता। 1

हज़रत अली (अ.स.) अब्ने अबुतालिब (अ.स.) ने मरहब का रजज़ सुना तो आप भी रजज़ पढ़ते हुए उसकी तरफ़ बढ़े। अशआर का उर्दू तरजुमां यह है कि मैं वह हूँ कि मेरी माँ ने मेरा नाम हैदर रखा है मैं शेरे नर और बेशये शुजाअत का असद हूँ। मैं वह हूँ कि जिसकी कलाई शेर की तरह मज़बूत और गर्दीन मोटी है। मैं तुम पर ऐसा वार करूंगा जो जोड़ो बन्द को तोड़ दे और हरीफ़ों को दरिन्दों का लुक़मा बने के लिये छोड़ दें। मैं एक शरीफ़ , बाइज़्ज़त और ताक़तवर जवान की तरह तुम्हें मौत के घाट उतारूँगा और क़त्ल करूँगा।

मरहब ने आगे बढ़कर हज़रत अली (अ.स.) पर तलवार का वार करना चाहा मगर आप ने उसका वार खाली देकर उसके सर पर ऐसी कारी ज़र्ब लगाई कि तलवार उसके ख़ोद को काटती हुई , सर की हट्टियों को अबूर करती हुई और उसे दो हिस्सों में चीरती हुई ज़मीन पर ठहरी। मरहब पहाड़ की तरहं गिरा और गरिते ही उसने दम तोड़ दिया। मरहब के मारे जाने से यहूदियों के हौसले शिकस्ता हो गये थे। इधर हज़रत अली (अ.स.) की तलवार ने दो चार का और काम तमाम किया बस फिर क्या था भगदड़ मच गई। आप जंग करते हुए आगे बढ़ रहे थे कि भागते हुए एक यहूदी ने आपके हाथ पर वार किया जिससे आपकी सिपर छूट कर गिर पड़ी। आपने एजाज़ी कूवत व ताक़त से क़िले के दरवाज़े का एक पट उखाड़ लिया और सिपर की जगह उससे काम लेने लगे। अबु राफ़े का ब्यान है कि मेरे हमराह सात आदमी थए और मैं आठवां था हम सबने पूरी कोशिश की कि इस दरवाज़े को पलट दें मगर हम लोग उसे जुंबिश भी न दे सके 1। हज़रत उमर को भ इस पर बड़ी हैरत थी चुनानचे उन्होंने हज़रत अली (अ.स.) से पूछा कि आप कि आप ने सिपर की जगह इतना बड़ा बोझा कैसे उठाया ? आपने फ़रमाया , वह मुझे अपनी सिपर से ज़्यादा वज़नी नहीं मालूम हुआ। 2

ग़र्ज़ कि हज़रत अली (अ.स.) के हमलों की ताब न लाकर सारे यहूदी क़िले के अन्दर भाग भाग कर पनाह गुंर्जी हो गये और क़िले का मक़सूस आहनी दरवाज़ जो चालीस आदमियों की कुवत से खुलता था , बन्द कर लिया गया। अमीरूल मोमेनीन आगे बढ़े और उसे पकड़ कर झटका दिया , दोनों पट उखड़ कर आपको हाथों में आ गये और फ़तेह ने झूम कर आपके दोनों क़दम चूम लिये। यह हैरत अंगेज़ कूवत कूवते रूहानिया का करिश्मा थी। चुनानचे अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ने खुद इरशाद फ़रमाया है कि मैंने ख़ैबर का दरवाज़ा अपनू कूवत से नीहं बल्कि रब्बानी कुवत से उखाड़ा है। 3

उस जंग में 63 यहूदी क़त्ल हुए , पन्द्रह मुसलान दरजए शहादत पर फ़ायज़ हुए। यहूदियों की कुछ औरतें भी असीर हुयीं जिनमें हय्या इब्ने अख़तब की बेटी सफ़िया भी थी जो आज़ाद होने के बाद रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) के हरम में दाख़िल हुई। यहूदी क़ैदियों को इस शर्त पर रेहा किया गया कि वह ख़ैबर की ज़मीनों पर काशतकार की हैसियत से काम करेंगे और पैदावार का निस्फ़ हिस्सा मुसलमानों को देते रहेंगे।

ख़ैबर का इलाक़ा बड़ी शादाब व ज़रख़ेज़ था। अहले हिजाज़ड की ग़िजाई ज़रुरियात का बेशतर हिस्सा यही से फ़राहम होता था। जब यह इलाक़ा मफतूह होकर मुसलमानों के क़ब्ज़े में आया तो उनके लिये माआशी उसअत की राहें खुल गई और वह मुहाजेरीन जो मक्का से निकलने के बाद फ़क्रों इफ़लास में मुबातिला थे , न सिर्फ मुआशी एतबार से असूदा हो गये बल्कि ज़मीनों और जगीरों के मालिक बन गये। अब्दुल्लाह इब्ने उमर का ब्यान है कि फ़तहे ख़ैबर के बाद हमें पेट भर खाना मिला। 1 और उम्मुल मोमेनीन हज़रत आयशा फरमाती हैं कि जब ख़ैबर फ़तहे हुआ तो हम खुश हुए कि अब जी भर के खजूरे खाने को मिलेगी। 2 बलाज़री ने फ़तवउल बलदान में तहरीर किया है कि ख़ैबर की पैदावर में से अज़वाजे रसूल (स.अ.व.व.) में हर एक को हर साल अस्सी वसक 3 ख़ुर्मों और बीस बीस वसक़ जौ मिलता था।

जाएदादे फ़िदक

ख़ैबर के नवाह में फ़िदक एक सरसबज़ व शादाब और ज़रखेज़ इलाका था जहाँ पहले पहल फ़िदत इब्ने हाम ने ड़ेरा डाला था और उन्हीं के नाम से यहाँ की आबादी मौसूम थी। ख़ैबर की तरह ये क़रिया भी यहूदियों का मसकन था जिन्होंने आबपाशी के वसाएल मोहय्या करके यहाँ की उफ़तादा ज़मीनों को लहलहाते हुए खेतों और हरे भरे बागों में बदल दिया था। याकूत हमूदी का कहना है कि यह गांव और उसके गिर्द व नवाहे की ज़मीन उबलते हुए चश्मों और नख़्लिस्तानों की आमा जगह थी। 4

फ़तहे ख़ैबर के बाद यहाँ के यहूदियों पर मुसलमानों का वह रोब व दबदबा तारी हुआ कि उन लोगों ने बग़ैर लड़े भिड़े पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) की इताअत कुबूल कर ली और उसी में अपनी आफ़ियत समझी कि फ़िदक की ज़मीनों से दस्तब्रदार हो कर पैदावार के निस्फ़ पर आन हज़रत (स.अ.व.व.) से मुसलेहत करें चुनानचे उन्होंने रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में यह पैग़ाम भेजा कि जिन शर्तों पर अहले ख़ैबर को उनकी ज़मीनों पर काश्त की इजाजत दी गई है उन्हीं शर्तों पर हमें भी इजाज़त मरहमत कर दी जाये ताकि आपकी तरफ़ से आइन्दा हमें कोई अन्देशा न रहे। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने उसे मन्ज़ूर फ़रमाते हुए हज़रत अली (अ.स.) को वहाँ के सरदार यूशा बिन नून के पास शराएत व तफ़सिलात तय करने के लिये भेजा। बात चीत के बाद फ़रीक़ैन के दरमियान यह तय पाया कि फ़िदक के बाशिन्दे अपनी ज़मीनों को मिलकियत से दस्तब्रदार होकर काश्तकार की हैसियत से उन पर काश्त करेंगे और उनकी कुल पैदारवार का निस्फ़ हिस्सा हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) को देंगे। इस मुसालेहात के नतीजें में फ़िदक का इलाक़ा आन हज़रत (स.अ.व.व.) की जाती मिलकियत क़रार पाया। क्योंकि इस्लामी नुक़्तये नज़र से जो इलाक़े मुसलमानों की लश्कर कशी के नतीजे में मफ़तूह होते हैं उन्हे ग़नीमत कहा जाता है और उनमें मुसलमानों का हक़ होता है और जो जंग व क़ेताल के बग़ैर हासिल होते हैं उन्हें शरयी इस्तेलाह फ़ी इन्फ़ाल से ताबीर किया जाता है और वह सिर्फ पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की ज़ाती मिलकियत क़रार पाते हैं। यह फ़िदक भी माले फ़ी था जो मुसलमानों की मुजाहिदाना सरगर्मियों के बगै़र मफ़तूह हुआ था इसलिये ये ख़ालिस रसूल (स.अ.व.व.) की मिलकियत था इसमें मुसलमानों का कोई हक़ नहीं था। जैसा कि तबरी का कहना है कि फ़िदक़ ख़ालिस रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) की मिलकियत का इस पर मुसलमानों ने न घोड़े दौड़ाये और न ऊँट। (बिल्कुल यही इबारत बिलाज़री ने फ़ुतहूल बलदान में तहरीर की है 2 । याकूत हमवी का कहना है कि ख़ुदा वन्दे आलम ने यह गांव पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) को सात हिजरी में सुलह के नतीजे में दिलवाया 3।

कुरानी सराहत और ओलमा की तसरीहात के बाद इस में क़तअन कोई गुंजाइशे शक व शुब्हा नहीं रहा जाती कि फ़िदक रसूल (स.अ.व.व.) की मिलकियत ख़ासा था। जिसमें उन्हें हर तरह का हक़ तसर्रुफ़ हासिल था चुनानचे इसी हक़ मिल्कियत व तसर्रुफ़ की बिना पर आपने यह गांव जनाबे फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) को अपनी ज़िन्दगी में एक दस्तावेज़ के ज़रिये हिबा फ़रमा दिया था। अल्लामा जलालुद्दीन सेवती ने इब्ने मरदूइया और इब्ने अब्बास से रिवायत ली है कि जब यह आयत नाज़िल हुई कि (ऐ अल्लाह के रसूल तुम अपने क़राबतदारों को उनका हक़ दे दो) तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने फ़िदक़ फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) को अता कर दिया। 4 क़ाज़ी सना उल्लाह पानी पती ने तबरानी के हवाले से यही कुच तहरीर फ़रमाया है। 5

आन हज़रत (स.अ.व.व.) की हयात तक फ़िदक जनाबे फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) के क़ब्ज़े व तसर्रूफ़ में राह लेकिन वफ़ाते पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के बाद हुकूमत की तहवील में ले लिया गया। जनाबे सय्यदा (स.अ.व.व.) ने हुकूमत के ख़िलाफ़ मुक़दमा भी किया मगर उनका दावा मुस्तरद कर दिया गया। मसला फ़िदक किन वजूह कि बिना पर यह दावा ख़ारिज किया गया।

मुहाजेरीने हब्शा की वापसी

फ़तहे ख़ैबर के दिन जाफ़र इब्ने अबुतालिब (स.अ.व.व.) , उनकी बीवी असमां बिन्ते उमैस , अबुमूसा अशअरी और उनके ख़ानदान के दीगर पांच अफ़राद हबशा से खै़बर में आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में वापस आये आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने जनाबे जाफ़र वग़ैरा को देखा तो बेहद खुश हुए और फ़रमाया कि मैं नहीं कह सकता कि जाफ़र के आने की मुझे ज़्यादा ख़ुशी है या ख़ैबर के फ़तेह होने की।

इब्ने ख़लदून ने लिखा है कि मुश्रेकीने मक्का के मज़ालिम से तंग आकर जो लोग आन हज़रत (स.अ.व.व.) के हुक्म पर हबशा की तरफ़ हिजरत कर गये थे उनमें से कुछ हिजरते मदीने से क़बल वापस आ गये थे और कुछ जंगे ख़ैबर के दो बरस क़बल मदीने में वापस आ गये मादूदे चन्द लोग बाकी रह गये थे वह ख़ैबर फ़तेह होने के बाद वापस आये। उन वापस आने वालों में जाफ़र इब्ने अबुतालिब (स.अ.व.व.) , उनकी ज़ौज़ा असमा बिन्ते उमैस उनके बेटे अब्दुल्लाह मुहम्मद , और ख़ालिद बिन सईद उनकी बीवी आमना और बेटा सईद , उम्मे खालिद , उमरू बिन आस , अबुमूसा अशरी , असूद इब्ने नौफिल , जहम बिन क़ैस उनके बेटे अम्र , ख़ज़ीमा , हारिस बिन ख़ालिद बिन सख़र , उस्मान इब्ने रबिया , मोअम्मर बिन अब्दुल्लाह और अबु अम्र मालिक बिन रबिया वग़ैरा शामिल थे. उनकी वापसी के वासते पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने अम्र बिन उमय्या ज़मरी को नज्जाशी के पास भेजा था।

रजअते शम्स (सूरज पलटना)

ख़ैबर की वापसी पर , वादिउल कुरा की तरफ़ पेश क़दमी फ़रमाते हुए पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) लश्कर समत जब सहबा के मुक़ाम पर पहुँचे और वहाँ क़्याम पजीर हुए तो गरूबे आफ़ताब से क़बल आप पर नज़ूले वही का सिलसिला शुरू हुआ जो काफ़ी देर तक जारी रहा। उस वक़्त आन हज़रत (स.अ.व.व.) का सरे अक़दस हज़रत अली (अ.स.) के ज़ानू पर था। नज़ूले का सिसिला मुनक़ता हुआ तो आपने आँखे खोलीं तो फ़रमाया ऐ अली (अ.स.) तुमने नमाज़े अस्र पढ़ी या नहीं। कहा , या रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) , आपका सरे मुबारक मेरी गोद में था और मसरूफ़े वही थे , कैसे पढ़ता ? फ़रमाया , क्या सूरज डूब गया ? कहा , हाँ! फ़रमाया तो फिर उसे पलटाओ। कहा , क्यों कर पलटाऊँ ? फ़रमाया , उसे हुक्म दो वह पलटेगा। चुनानचे आपने हुक्म दिया , सूरज पलटा और उस वक़्त तक गुरूब नहीं हुआ जब तक आपने नमाज़ नहीं पढ़ली। बाज़ रवायतों से यह भी पता चलता है कि अबुतुराब ने ज़मीन पर दोनों हाथो को टेक कर उसे इस तरह घुमाया कि सूरच नमूदार हो गया।

ग़ज़वा-ए-वादी-उल कुरा

सहबा से चलकर हुजूरे अकरम (स.अ.व.व.) वादिउल कुरा में जलवा अफ़रोज़ हुए यहाँ यहूदियों से झड़पें हुयी जिसके नतीजे में ग्यारह यहूदी मारे गये बहुत से भाग खड़े हुए बाक़ी ने हथियार डाल दिये और काफ़ी माले ग़निमत मुसलमानों के हाथ आया। बिल आख़िर उन लोगों ने जज़या देना मन्जूर किया और समझौता हो गया। इसी तरह तीमा के यहूदियों ने भी जज़या के एवज़ आन हज़रत (स.अ.व.व.) से सुलह कर ली।

उमरा-ए-कज़ा

बर बिनाये मुहायिदा माहे ज़ीक़ाद सन् 7 हिजरी में सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) , दो हज़ार इन्साम व मुहाजेरीन और सत्तर ऊँटो को लेकर उमरा की ग़र्ज़ से मक्केय मोअज़म्मा की तरफ़ रवाना हुए। आपके साथ वह लोग भी थे जो पिछले साल हुदैबिया से वापस आ गये थे। यह उमर-ए-कज़ा था। मसुलमान तीन दिन तक मक्के मे क़याम के बाद वापस आये और उस मुक़ाम के दौरान बहुत से अहले मक्का ने इस्लाम कुबूल किया।

मुख़तलिफ़ वाक़ियात

• इसी उमरे के (अय्यामे एहराम) के दौरान आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने मैमूना बिन्ते हारिस से आख़िरी अक़द फरमाया उस वक़्त मैमूना की उमर 51 साल की थी।

• उसी साल अबु हुरैरा जो यहूदी थे मुसलमान हुए और तीन साल तक अहदे रिसालत में रहे। आपने पांच हजार , तीन सौ चार हदीसें नक़ल की हैं। लेकिन अब्दुल्लाह इब्ने उमर , हज़रत आय़शा और हज़रत अली (अ.स.) वग़ैरा उन्हें काज़िव व झूटा कहते थे।

ग़ज़व-ए-एहज़ाब (जंगे ख़न्दख़)

जिला वतन यहूदियों की एक बड़ी तादाद मदीने से निकलकर खै़बर और उसके आसपास आबाद हो गयी थी नीज़ उनके इक़तेसादी व मआशी हालात भी एतदाल पर आ गये थे मगर मुसलमानों से इन्तेक़ाम के एहसास ने उन्हें चैन से बैठने न दिया। खुद उनमें इतना दम ख़म तो था नहीं कि यह लोग अहले इस्लाम के मुक़ाबिले में सफ़आरा होकर उनसे निपटने में कामयाब हो जाते लेहाज़ा उन्होंने तय किया कि कुरैश और दीगर क़बाएल से फौज़ी इमदाद हासिल करके मदीने पर चढ़ाई की जाये। चुनानचे कुनाना बिन रबयी सलाम बिन मिशकम , हयी इब्ने अख़तब और बनि वायल के चन्द सरदारों के साथ बीस आदमियों की एक जमाअत मक्के आयी और उसने कुरैश के सरदारों से जंग के बारे में बात चीत की। इस्लाम दुश्मनी में कुफ़्फ़ारे कुरैश यहूदियों से कम न थे। दोनों ने अपने सीने दीवारे काबा से मस करके बाहम यह अहद व पैमान किया कि हम मुसलमानों के ख़िलाफ़ उस वक़त तक जंग जारी रखेंगे जब तक उनका इस्तीसाल नहीं हो जाता।

जब कुरैश से सारे मुआमलात तय हो चुके और क़ौल व क़रार हो चुका तो यहूदियों ने बि ग़तफ़ान का रुख़ किया और उन्हें भी अपने साथ मिलाने में कामयाब हो गये इसी तरह बनि कनाना और दूसरे क़बाएल से साज़बाज़ करके उन्होंने चार हज़ार की जमाअत फ़राहम कर ली और मदीने पर हमला करने के लिये निकल खड़े हुए। रास्ते मे बनि मुर्रा , बनि असद , बनि फ़ज़ारा और बनि अशजआ के लोग भी आकर शामिल होते रहे इस तरह रफ़्ता रफ़्ता उनकी तादाद दस हज़ार तक पुहँच गयी। उन लोगों के पास चार हज़ार ऊँट तीन सौ घोड़े , आलाते जंग और रसद का सामान फ़रावानी से था और यह हर तरह मज़बूत व मुस्तहकम थे।

बनि ख़ज़ाआ के दो चार लोगों ने पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) को जब उन तमाम कैफियात व हालास से आगाह किया तो दुश्मन कीकसरत व ताक़त को नज़र में रखते हुए आपने भीसहाबा को जमा करके दिफ़ा के तरीक़े कार के बारे में मशविरा किया। सलमाने फ़ारसी ने कहा कि अहले अज़म का दस्तूर है कि जिधर से दुश्मन के हमला आवर होने का अन्देशा होता है उधर ख़न्दक़ खोद लेते हैं। हमें भी इस पर अमल करना चाहिए। यह तजवीज़ इत्तेफ़ाक़ राय से मन्जू़र की गयी और आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने इस पर अम्लदरामद का हुक्म दे दिया।

पहाड़ों , नख़लिस्तानों और मकानों की वजह से मदीना तीन तरफ़ से बिल्कुल महफूज़ था अलबत्ता पूरब की तरफ़ से आने वाले के लिये कोई रूकावट न थी और उधर ही दुश्मन के हमलावर होने का ख़तरा भी था लेहाज़ा आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने उसी रूख़ पर ख़त खींच कर हद क़ायम की और ख़न्दक़ की तैयारी के लिये मुहाजरीन व अन्सार के दस दस आदमियों पर चालीस चालीस हाथ ज़मीन तक़सीम कर दे और पूरी मेहनत व कूवत से खुदायी का काम शुरू हो गया। अपने असहाब के साथ सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) खुद भी इस काम में लगे रहे। हज़रत सलमाने फ़ारसी इस मुस्तैदी से खुदायी करते कि तन्हा उनका काम दस आदमियों के बराबर होता था। इसी तेज़ रफ़्तारी को और महारत को देख कर मुहाजरीन व अन्सार ने उन्हें अपने अपने गिरोह में शामिल करना चाहा और हर गिरोह ने यह कहना शुरू कर दिया कि सलमान हममें से हैं लेकिन आन हज़रत (स.अ.व.व.) न दो गिरोह को यह कहकर ख़ामोश कर दिया कि सलमान मेरे अहले बैत में से शामिल हैं।

बहर हाल , रात दिन एक करके मुसलमानों ने एक सिरे से दूसरे सिरे तक 3 मील लम्बी , 5 गज़ चौड़ी और 5 गज़ गहरी ख़न्दक़ खोद कर तैयार कर ली तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) तीन हज़ार मुसलमान जॉबाजो के साथ कोहे सलाअ के दामन में क़ायम फ़रमा हुए। आप (स.अ.व.व.) ने ख़न्दख़ के अन्दरूनी किनारे पर आठ हिफाज़ती चौकियां क़ायम कीं और हर चौकी पर एक एक दस्ता मुक़र्रर किया ताकि मुशरेकीन ख़न्दक़ पार करके अन्दर आने की कोशिश करे तो दस्ता उन पर पत्थराव करके उन्हें आगे बढ़ने से रोक द। चुनानचे यहूद व मुशरेकीन जब नवाबे मदीना में पहुँचे तो ख़न्दक को देख हक़्का बक्का रह गये और कहने लगे ख़ुदा की क़सम यह तदबीरी चाल ऐसी है जो अरबों की समझ और बिसात से बाहर है।

यहूद व कुरैश अपनी फौजी बरतरी और हथियारों की फरावनी की बिना पर यह यक़ीन रखते थे कि वह मदीने पहुँचते ही मुसललमानों पर टूट पड़ेंगे और उन्हें अपनी तलवारों की बाढ़ पर रख लेंगे मगर इस नयी जंगी तदबीर ने न सिर्फ़ उनके बढ़ते हुए क़दम रोक दिये बल्कि उनकी कसरत व कूवत के मुक़ाबले में मुसलमानों की क़िल्लत व कमज़ोरी का बड़ी हद तक तदारुक भी कर दिया।

पैगम़्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) ने मदीने में जिन क़बायल से मुहाइदा किया थाकि यह दुश्मन के ख़िलाफ़ मुसलमानों से ताऊन करेंगे उनमें यहूदियों का एक बड़ा क़बीला बनि कुरैज़ा भी था। अबुसुफ़ियान को यह फ़िक्र हुई कि अगर यह क़बीला मुसलमानों के साथ जंग में शामिल हो गया तो उनकी कूवत बढ़ जायेगी चुनानचे उसने क़बीला बनि नज़ीर के एक सरदार हयी बिन इख़तब को बनि कुरैज़ा के सरदार काब इब्ने असद के पास भेजा कि वह उसे कुरैश की मदद पर आमादा करें। ग़र्ज़ कि हयी काब के घर आया , दस्तक दी , काब ने पूछा कौन है ? कहा मैं हयी इब्ने इख़तब हूँ। काब समझ गया कि वह किस मक़सद से आया है। उसने मिलने से पहले तो इन्कार किया मगर बाद में हायी के भर्रे में आकर बात चीत पर तैयार हो गया और दोनों में बहस छिड़ गयी। नतीजा यह हुआ कि यही ने अपनी चर्ब ज़बानी से फुसलाकर उसे अपना हम ख़्याल बना लिया। पैगम़्बर (स.अ.व.व.) से किया हुआ तहरीरी मुहाइदा चाक कर दिया गया और कुरैज़ा एलालिया तौर पर कुरैश के मददगार बन गये।

जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) को बनि कुरैज़ा की अहद शिकनी व बद अहदी का इल्म हुआ तो साद इब्ने माअज़ को आपने उनके यहाँ भेजा कि वह समझा बुझा कर उन्हें राहे रास्त पर लायें। साद ने उन्हे बहुत समझाया बुझाया मगर उनकी तमाम कोशिशें नाकाम हो गयीं और मुहायिदे के ख़िलाफ़ अपनी ज़िद पर अड़े रहे।

इन परेशान कुन और हिम्मत शिकन हालात में मुसलमानों के दरमियान घबराहट और बेचेनी का पैदा हो जाना कोई ताअजुब ख़ेज़ अमर नहीं था क्योंकि एक तरफ़ दुश्मन की दल बादल फौजें घेरा डाले हुए थीं दूसरी तरफ़ शहर के अन्दर बनि कुरैज़ा घात लगाये बैठे थे और तीसरी तरफ़ खुद .मुसलमानों में एक अच्छी ख़ासी तादाद मुनाफ़ेकीन की थी जो खुद भी डरे सहमें जा रहे थे और दूसरों में भी बददिली और बेहौसलगी पैदा कर रहे थे। चुनानचे उन्होंने हीले बहाने करके मैदान से खिसकना शुरू कर दिया और पैग़म्बर (स.अ.व.व.) से कहा कि हमारे घर अकेले औरतें तन्हा और लूट मार का अन्देशा है लेहाज़ा हमें वापस जाने दिया जाये।

यहाँ तक कि एक शख़्स मआतब इब्ने क़शीर ने जो बदरी होने का इम्तेयाज़ भी रखता था यह कह दिया किः-

(मुहम्मद (स.अ.व.व.) तो हमसे यह वायदा कर चुके थे कि हम क़ैसर व नक़सरा के ख़ज़ानों पर हाथ साफ करेंगे और अब यह हालात है कि हममें कोई रफ़ाये हाजत के लिये जाता है तो वह अपनी जान को महफूज़ नहीं समझता।)

अलबत्ता मुसलमानों में कुछ अहले ईमान ऐसे भी थे जो न तो दुश्मनों की कसरत व ताक़त को ख़तरे में लाते थे और न ही परेशानियों और सख़्तियों से घबराते थे बल्कि वह ऐसे थे कि मसाएब व आलाम की शिद्दत में उनका ईमान व हौसल और बढ़ता था , खुद एतमादी का जौहर और निखरता था। चुनानचे उनके बारे में कुरान कहता है किः-

(जब सच्चे ईमानदारों ने कुफ्फार के जमघटों को देखा तो कहने लगे कि यह वही चीज़ है जिसके लिये अल्लाह और उसके रसूल (स.अ.व.व.) ने वादा किया था और ख़ुदा और रसूल (स.अ.व.व.) ने सच कहा था। और उससे उनका ईमान और जज़बाये और ज़्यादा हो गया।

मुसलमानों के लिये यक़ीनन यह एक सख़्त इम्तेहानी और आज़माइशी मौक़ा था क्योंकि मुहासिरे को सत्ताइस दिन गुज़र चुके थे और वह सर्दी की शिद्दत व रसद की अदम फ़राहमी की वजह से ख़सताहाल हो चुके थे। दरमियान ख़न्दक़ हायल थी जिसकी वजह से दस्त व दस्त जंग की नौबत नहीं आती थी सिर्फ पत्थरों और तीरों का तबादला होता रहता था। आख़िरकार उन लोगों ने फ़ैसला किया कि किसी तरह पहरेदारों की नज़रों से बच कर ख़न्दक़ पार करें और मुसलमानों पर टूट पड़ें। चुनानचे उनके सरदार देखते भालते हुए ख़न्दक़ के एक ऐसे हिस्से पर पहुँचे जिसकी चौड़ाई कम थी और वहहाँ हिफ़ाज़त का भी कोई ख़ास इन्तेजा़म न था। उन्होंने खड़े होकर अन्दाज़ा लगाया कि यहाँ से घोड़ों को महमेज़ करके ख़न्दख़ को उबूर किया जा सकता है। इश काम के लिये कुरैश के मशहूर शहसवार और अरब क माने हुए देव पैकर शमशीर ज़न उमरी बिन अब्देवुद आमरी , अकरमा बिन अबुजहल , हसल बिन अमरी , मुन्बा इब्ने उसमान , ज़रार बिन ख़ताब फ़हरी , नौफ़िल इभ्ने अब्दुल्लाह और हीरह बिन अबी वहब को मुन्तखब किया गया। उन्होंने आगे बढ़कर घोड़ों को एड़ लगायी और ख़न्दक़ उबूर करने में कामयाब हो गये। यह मरहला सर होनाथा कि कुरैश के पज़मुर्दा हौसला में अज़ सर नौ तवानाई आ गई और अबु सुफ़ियान व ख़ालिद बिन वलीद ने फ़ौरन लश्कर की सफ़ बन्दी कर दी ताकि उन शहसवारों को अन्जाम देखने के बाद वह फौजों को ख़न्दक़ के उस पार उतार दें और जंग मग़लूबा शुरू कर दें।

ख़न्दक़ फाँदने वालों में यूँ तो सभी आमज़मूदा कार और जंग आज़डमा थे मगर उनमें अम्र इब्ने अब्द वुद सबसे ज़्यादा मशहूर व बहादुर था जो अमादे अरब के नाम से पुकारा जाता था। उसने (हल मिन मुबारिज) की आवाज़ बुलन्द की जिसे सुन कर बाज़ अकाबरीने सहाबा के होश व हवास उड़ गये। हज़तर उमर ने पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) से फ़रमाया , या रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ! इससे कौन लड़ सकता है ? एक मर्तबा मैं उसके साथ तिजारती क़ाफ़िला लेकर शाम की तरफ़ जा रहा था कि रास्ते में यलील के मुक़ाम पर एक हज़ार रहज़नों ने रात के वक्त क़ाफिले पर हमला कर दिया। तमाम अहले क़ाफ़िला अपना सामान छोडकर भाग खड़े हुए। अम्र उस वक़्त सो रहा था उसकी आँख खुली तो जल्दी में उसने ढ़ाल की जगह एक ऊँट का बच्चा उठा लिया और रहज़नों पर हमला करके सबको भगा दिया।

उस मौक़े पर मुसलमानों में अज़म व हिम्मत और जोश व वलवला पैदा करने की ज़रुरत थी मगर हज़रत उमर के इस ब्यान ने उन्हें ख़ौफ़ व दहशत में मुबतला कर दिया। अल्लामा दयार बकरी का कहना है कि तमाम असहाब बेहिस व हरकत थे और ऐसा मालूम होता था जैसे कि उनके सरों पर तायर बैठे हों। 1

ग़र्ज़ कि अम्र बिन अब्दवुद आगे बढ़ा और उसने मुसलमानों को ललकारते हुए कहा कि तुममें कौन है जो मेरे मुक़ाबले को निकले ? मगर किसी तरफ़ से कोई जवाब न मिला और न ही किसी को उसके मुक़ाबले मे आने की हिम्मत हुई। पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने भी मुसलमानों से फ़रमाया कि इस कुत्ते को जवाब देने कौन जाता है ? हज़रत अली ख़न्दक़ का किनारा छोड़कर हाज़िरे ख़िदमत हुए और कहा या रसूल उल्लाह! मैं इससे लडूंगा। आन हजरत (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया , अभी ठहरों और यह देखो कि कोई और भी तैयार होता है या नहीं। अम्र ने फिर आवाज़ दी। हज़रत अली (अ.स.) ने फिर इजाज़त चाही। पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने फिर फ़रमाया कि अभी ठहो। जब अम्र ने तीसरी मर्तबा ललकारा और तन्ज़ करते हुए उसने कहा कि मुसलमानों! तुम्हारी वह जन्नत क्या हुई जिसमें मरने के बाद तुम्हें जाना है और वह दोज़ख क्या हुआ जो तुम्हारे कहने के बमूजिब हमारा ठिकाना है। आओ या तुम जन्नत में जाओ या मुझे दोज़ख में भेजो।

अम्र के बार बार ललकारने के बावजूद लश्करे इस्लाम मुसलसल सन्नाटा छाया रहा। लोग एक दूसरे को कनखियों से दखते थे और चुप साध लेते थे किसी को हिम्मत व जुराअत न होती थी कि वह आगे बढ़कर उस दुश्मने इस्लाम को जवाब देता और उसका गुरूर तोड़ता। हज़रत अली (अ.स.) ने जब उस क़ाफिर की मुबारिज़ तलबी और मुसलमानों की खामोशी देखी तो पेच व ताब खाते हुए उठे और पैग़म्बर (स.अ.व.व.) से फ़रमाने लगे या रसूल उल्लाह! अब मुझे बदबख़्त से दो दो हाथ कर लेने दीजिये। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने हज़रत अली के अज़म व इस्तेकलाल , खुद एतमादी और हिम्मत व शुजाअत के जौहर को परखने के लिये फ़रमाया , या अली (अ.स.) , यह अम्र इब्ने अब्दोवुद है। हज़रत अली (अ.स.) ने कहा , वह अम्र है तो हुवा करे मैं भी अबुतालिब का बेटा हूँ।

हज़रत अली (अ.स.) के इस जवाब के बाद पैग़म्बर (स.अ.व.व.) चन्द लम्हों तक खामोश रहे जैसे वही का इन्तेज़ार कर रहे हों। फिर आप ने अपना अमामा सहाब उनके सर पर रखा , अपनी ज़िरा ज़ातुल फुज़ूल पहनायी कमर में जुलफ़ेख़ार बाँधी और , बारगाहे अहदियत में हाथ उठा कर अर्ज़ किया कि परवरदिगार! तूने उबैदा को बदर के दिन और हमज़ा को ओहद के दिन उठा लिया , अब सिर्फ़ अली (अ.स.) रह गये हैं , पालने वाले! तू उनकी हिफ़ाज़त फ़रमाना और मुझे अकेला न छोड़ना।

ग़र्ज़ कि पैग़म्बरी दुआओं के साये में हज़रत अली (अ.स.) ने इधऱ मैदा का रुख किया और उधर मुरसले आज़म की ज़बान से निकले हुएये अल्फ़ाज़ फज़ाओं में गूँजने लगे (आज कुल्ले ईमान कुल्ले कुफ्र के मुक़ाबले की तरफ़ बढ़ रहा है)

हज़रत अली (अ.स.) आगे बढ़कर अम्र के बिल मुक़ाबिल हुए और उसके रजज़िया अशआर के जवाब में अपने दो शेर पढ़े जिसमें फ़रमायाः

( 1) ऐ अम्र! होशियार होजा कि तेरी ललकार का जवाब देने वाला आ गया जो कमज़ोर नहीं बल्कि बड़ी कूवत व बसीरत वाला और रास्तबाज़ है और सच्चाई ही हर रूस्तगार के लिये वजहे कामरानी है।

(2) ऐ बदबख़्त! मुझे उम्मीद है कि मैं एक ऐसी ज़र्ब से तेरे लिये बैन करने वाली औरतों का इन्तेज़ाम कर सकूँगा जिसका तज़किरा हमेशा होता रहे।

अम्र ने दस्तूरे अरब के मुताबिक़ पूछा कि मेरा हरीफ़ व मद्दे मुक़ाबिल कौन है ? अमीरूब मोमेनीन (अ.स.) ने फ़रमाया कि मैं। अली इब्ने अबुतालिब हूँ। अम्र ने कहा क्या लश्करे इस्लाम में तुम्हारे सिवा और कोई नहीं जो मुझसे मुक़ाबले के लिये आता ? तुम तो मेरे दोस्त के बेटे हो मैं नहीं चाहता कि तुम पर हाथ उठाऊँ लेहाज़ा तुम वापस चले जाओ। हज़रत अली (अ.स.) ने फ़रमाया , लेकिन मैं तुम्हारा ख़ून बहाना पसन्द करता हूँ।

अहले सुन्नत के मशहूर आलिम मसदिक़ इब्ने शबीब का कहना है कि अम्र ने अबुतालिब से अपनी दोस्ती का इज़हार महज़ इस बिना पर किया कि वह अपनी जान बचाना चाहता था क्योकि वह जंगे बदर में देख चुका था कि जो भी अली (अ.स.) के मुक़ाबले में गया वह बचकर न आया इसलिये उसने चाहा कि अली (अ.स.) से लड़ने की नौबत न आये और उनके बजाये मुक़ाबला किसी दूसरे से हो। मैदान में उतरने के बाद पहलू तही तो कर नहीं सकता था इसलिये उसने अबुतालिब (अ.स.) की दोस्ती की आड़़ ली ताकि अली (अ.स.) से लड़ाई न हो और उसकी कमज़ोरी पर पर्दा भी पड़ा रहे।

जब अम्र ने देखा कि हीले बहाने से जान छुड़ान मुश्किल है तो वह आमादए पैकार हो गया। हज़रत अली (अ.स.) प्यादा थे और प्यादा हमेशा सवार की ज़द में होता है लेहाज़ा आपने चाहा कि उसे भी घोड़े से नीचे उतरवा लें। चुनानचे फ़रमाया ऐ अम्र मैंने सुना है कि हरीफ़ अगर मैदान में तुम सी तीन बातों की दरख़्वास्त करता है तो उनमें से एक बात तुम ज़रुर मान लेते हो। उसने कहा हाँ। फ़रमाया कि फिर मेरी पहली दरख़्वास्त यह है कि इस्लाम कुबूल कर लो। उसने कहा कि यह नहीं हो सकता कि मैं अपने आबाई दीन को छोड़़ दूँ। आपने फ़रमाया कि दूसरी दरख़्वास्त तुमसे यह है कि तुम मैदान छोड़कर भाग लो और अपने लश्कर के मुँह पर थूक कर अपने घर की राह पकड़ो। उसने कहा कि मैदान से भागना मर्दो का शीवा नहीं होता मैं यह गवारा नहीं कर सकता कि कुरैश की औरतें मेरे फ़रार पर मुझे ताने दें। फ़रमाया कि अगर तुम ये भी नहीं मानते तो फिर घोड़े से नीचे उतर आओ। यह सुनकर अम्र ताब खाता हुआ घोड़े से कूद पड़ा और उसके अगले पिछले चारों पैर काट दिये।

घोड़े की कोंचे काट देना बज़ाहेर एक बेमानी सी बात लगती है मगर ऐसा नहीं है। इसका मक़सद यह ताअस्सुर देना था कि मैंने घोड़े के पैरों को क़ेता करके अपने लिये राहे फ़रार बन्द कर दी है अब क़त्ल किये या क़त्ल हुए बगै़र मैदान से हटने का सवाल पैदा नहीं होता और मुम्किन है कि वह ग़र्ज़ भी रही हो कि इस तरह अपनी कूवत व ताक़त और तेग़ज़नी का मुज़ाहिरा करके वह अपने मुक़ाबिल को मरऊब व मुतासिर करे ताकि वह मुक़ाबले से पहेल ही हिम्मत हार बैठे क्योंकि नफ़सियाती हैसियत से अगर हरीपञ को अपनी ताक़त व तवानाई से मुतासिर कर लिया जये तो उसकी कूवते मदाफ़ियत मुज़महिल पड़ जाती है और उस पर आसानी से क़ाबू किया जा सकता है मगर हज़रत अली (अ.स.) कया मरऊब व मुतासिर होते जो बड़े बड़े बहादुरों और सूरमाओंको ख़ातिर में न लाते थे और ईमान की यह शान है कि वह कुफ्र के मुक़ाबिले में कमज़ोर पड़ जायें लेहाज़ा आपने अम्रल के इस मुजा़हरे शमशीर ज़नी को कोई अहमियत नहीं दी और उसे मौक़ा दिया कि वह पहले हमला करें। चुनानचे वह हमला आवर हुआ और आपने ढ़ाल पर उसका वार उचटता हुआ आपके सर पर लगा और पेशानी ख़ून से रंगी हो गयी।

अब कुल्ले ईमान की तलवार कुल्ले कुफ्र का सर काटने के लिये नियाम से बाहर निकली। और आप जवाबी हमले के लिये शेर की तरह झपटे और उसके पैरों पर इस तरह तलवार मारी कि दोनों टाँगें कट कर अलग हो गयीं। अम्र लड़खड़ा कर ज़मीन पर गिरा। और आपने तक़बीर का नारा बुलन्द किया और उसके सीने पर सवार होकर सर काट लिया। सहाबा गर्दो गुब्बार की वजह से यह मंज़र तो न देख सके थे लेकिन तकबीर की आवाज़ से मझ गये अली 0 (अ.स.) फ़ातेह व कामरां हुए और अम्र मारा गया। इतने में गुबार का दामन चाक हुआ तो लोगों ने देखा कि हज़रत अली (अ.स.) एक हाथ में खून आलूद तलवार लिये और दूसरे हाथ में अम्र का सर लिये इस तरह झूमते हुए चले आ रहे हैं जिस तरह शेर हल्की फुवार में झूमता और बल खाता हुआ चलता है।

हज़रत अली (अ.स.) को इस तरह आते देख कर अकाबरीने सहाबा में से किसी ने कहा कि अली (अ.स.) तो रऊनत आमेज़ क़दम उठा रहे हैं। पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने सुना तो फ़रमाया कि मैदाने जंग में अल्लाह को यही चाल पसन्द है। ग़र्ज़ जब कुफ्र का मारका सर करके हज़रत अली (अ.स.) पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में बारयाब हुए तो आपने उन्हें सीने से लगाया और उनकी इस अज़ीम ख़िदमत का एतराफ़ करते हुए फ़रमाया कि आज यौमें ख़न्दख़ अली (अ.स.) की एक ज़रबत इबादते सक़लैन से बेहतर है। 1

हज़रत उमर शायद बड़ी अमीक़ व ताअज्जुब खेज़ नज़रों से इस जंग का मुशाहिदा फ़रमा रहे थे चुनानचे उन्होंने जब यह देखा कि अरबों के आम दस्तूर के मुताबिक़ अली (अ.स.) ने तो अम्र की ज़िरा उतारी है और न ही उसकी तलवार वग़ैरा पर क़ब्ज़ा किया है तो आपने पूछा या अली (अ.स.) ! आपने अम्र कि ज़िरा क्यो नहीं उतारी ? फ़रमाया , मुझे शर्म दामन गीर हुई कि मैं उसकी लाश को बरहना करके उसकी ज़िरा उतारूँ.।

यह थी हज़रत अली (अ.स.) की सेर चश्मी व कुशादा नज़री की जहाँ माले ग़नीमत मुजाहिद की सबसे बड़ी कमज़ोरी हो वहाँ अली (अ.स.) की बुलन्द किरदारी व आला ज़रफ़ी का यह आलम कि न तो जज़बये जेहाद में दुनयावी तमा की आमेज़िश होने पाई और न मक़तूल की बेश क़ीमत ज़िरा पर नज़र पड़ी चुनानचे हज़रत की इस आला ज़रफ़ी का एतराफ़ खुद अम्र की बहन ने इन अल्फाज़ में किया कि मेरे भाई का क़ातिल कोई शरीफ़ और आला ज़रफ़ इन्सान है। लोगों ने बताया कि तेरा भाई अली इब्ने अबुतालिब के हाथों क़त्ल हुआ है तो उसने बरजस्ता दो शेर बढ़े जिन का मफ़हूम यह है किः-

(1) अगर अम्र का क़ातिल अली (अ.स.) के अलावा कोई और होता तो रहती दुनिया तक मै इस पर गिरया करती।

(2) मगर इसका क़ातिल तो वह है जिसमें कोई ऐब और बुरायी नहीं है और जिसका बाप सरदारे मक्का के नाम से पुकारा जाता था।

अम्र के मारे जाने के बाद उसके साथियों के क़दम उखड़ गये और फिर किसी को मुबारिज़ तलबी की हिम्मत व जुराअत न हुई। सबके सब बदहवासी के आलम में ख़न्दक़ की तरफ़ भागे। हज़रत अली (अ.स.) ने फिर आगे बढ़कर घेरा डाला और अम्र के बेटे हसल पर तलवार का एक वार करके उस वहीं ढेर कर दिया। नौफ़िल इब्ने अब्दुल्लाह ख़न्दक़ फाँदते हुए उसमें गिरा हज़रत अली (अ.स.) भी उसमें कूद पड़े और एक ही वार मे उसके दो टुकडे कर दिये। मुन्बा इब्ने उसमान ख़न्दक़ अबूर करते हुए किसी के तीर से ज़ख़्मी हुआ जो मक्के पुहँच कर मर गया। अकरमा अपना नैज़ा फेंक कर हीरा के साथ भागा और ख़न्दक़ फाँकर अपने लश्कर में पहुँच गया। ज़रार इब्ने ख़त्ताब फ़हरी को हज़रत उमर ने भागते देखा तो उन्हें भी जोश आया और वह उस के पीछे दौड़े उसने पलट कर आप पर हमला करना चाहा फिर न जाने क्या सोच कर हाथ रोक लिया और यह कहता हुआ आगे बढ़ गया कि ऐ उमर! इस एहसान को याद रखना।

इन नामवर सूरमाओं के मारे जाने से कुफ़्फ़ार के हौसले टूट चुके थे और हिम्मतें पस्त हो गयीं थी , अब वहाँ प़ड़े रहना मौत को मज़ीद दावत देने के मुतरादिफ़ था चुनानचे वह मुहासिरा उठाने के बारे में सोच ही रहे थे कि दूसरी रात मे बादोबारां का सख़्त तूफान आया जिसने कुफ़्फ़ार के ख़ेमों को उखाड़ कर फेंक दिया ऊँटों और घोड़ों को इधर उधऱ मुन्तशिर कर दिया , चूल्हों पर चढ़ी हुई पतिलियाँ और देंगें उलट गईं। खुला मैदान , आँधी और झक्कड़ का ज़ोर , सख़्त सर्दी और तारीकी का आलम , एक को एक सुझाई न देता था और न किसी को किसी का होश था। अब इसके सिवा कोई चारा न था कि वह मुहासिरा उठाकर अपनी राह लें। अबु सुफ़ियान नेकहा अब यहाँ ठहरना बेसूद है इतने दिन हम मुहासिरा डाले पड़े रहे मगर नुक़सान के सिवा कुछ हाथ न आया। यह कह कर वह उठ खड़ा हुआ दूसरों ने उसे जाते देखा तो वह भी उसके साथ भाग निकले और रातों रात मैदान साफ़ हो गया। सुबह को मुसलमानों ने जब मैदान ख़ाली देखा तो सजदये शुक्र अदा करके फ़तेह व कामरानी के नारे लगते हुए अपने घरों की तरफ़ लौट पड़े।

इस मारके मुशरेकीन के चार आदमी मारे गये जिन में से अम्र इब्ने अब्दवुद , नौफिल इब्ने अब्दुल्लाह और हसल बिन अम्र हज़रत अली (अ.स.) के हाथ से क़त्ल हुए। मुन्बा बिन उस्मान ज़ख़्मी हो कर भागा और मक्के में जा कर मर गया। हज़रत उमर ने ज़रार इब्ने ख़त्ताब का पीछा ज़रुर किया मगर एक तरह से उन्हें ख़ुद ही उस काफ़िर का ममनूने एहसान होना पड़ा। दुनिया इस हक़ीक़त से इन्कार नहीं कर सकती कि इस जंग व कामरानी तन्हा ज़ाते अली (अ.स.) के गिर्द तवाफ करती हुई नज़र आती हैं। यह जंग माहे ज़ीक़दा सन् 5 हिजरी मुताबिक़ मार्चे या अप्रैल सन् 627 में लड़ी गयी।

जंगे ख़न्दक़ और महारब-ए-तालूत व जालूत में मुमासेतल

ग़ज़वाये ख़न्दक़ और महारबये तालूत व जालूत में बड़ी हद तक मुशाबेहत व मुमासलत पाई जाती है। जिस तरह ख़न्दक़ मे मुसलमानों की सिपाह कम और कुफ़्फ़ार की तादाद कई गुना ज़्यादा थी उसी तरह तालूत की फौज़ मुख़तसर और उसके मुक़ाबिले जालूत का लश्कर पूरे सहराये उरदुन पर मुहीद था। जिस तरह मुसलमान दुश्मन की कसरत व कूवत से हरासां थे उसी तरह तालूत के लश्कर पर खौफ़ व हरास छाया था। जिस तरह अम्र इब्ने अब्दवुद असलहे से लैस घोड़े पर सवार होकर मुबारिज़ तलब हुआ उसी तरह जालूत ज़िरा बख़तर से आरास्ता होकर और हाथी पर सवार होकर मैदान में आया। जिस तरह अमरी के मुक़ाबिले में हज़रत अली (अ.स.) के अलावा किसी को हिम्मत न हुई उसी तरह जालूत के मुक़ाबिले में हज़रत दाऊद (अ.स.) के अलावा किसी को जुराअत न हो सकती। जिस तरह हज़रत दाऊद (अ.स.) दुश्मन के मुक़ाबिले में प्यादा थे उसी तरह हज़रत अली (अ.स.) अम्र के मुक़ाबिले में प्यादा थे। जिस तरह हज़रत दाऊद (अ.स.) के जिस्म पर हज़रत मूसा (अ.स.) की ज़िरा ठीक उतरी उसी तरह हज़रत अली (अ.स.) के जिस्म पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) की ज़िरा पूरी उतरी। जिस तरह हज़रत दाऊद (स.अ.व.व.) अपने भाईयों में सबसे छोटे थे उसी तरह हज़रत अली (अ.स.) अपने भाईयों में सबसे छोटे थे , जिस तरह हज़रत अली (अ.स.) औलिया में जंगजू और बहादुर थे। शेख़ अली अलावुलदीन फ़रमाते हैं कि अन्बिया में दाऊद अलैहिस्सलाम और औलिया में हज़रत अली रज़ी उल्लाह अना जंग आज़माओं के इमाम व सरख़ील थे। 1

जिस तरह पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) ने अम्र को कुत्ते की लफ़्ज़ से याद किया उसी तरह हज़रत दाऊद ने जालूत को कुत्ते से बदतर क़रार दिया था। जिस तरह जालूत के मारे जाने से तमाम लश्कर भाग खड़ा हुआ था उसी तरह अम्र के क़त्ल होने से मुशरेकेीन के क़दम उखड़ गये और रातों रात मैदान ख़ाली करके फ़रार हुए। जिस तरह जालूत का क़ातिल लालूत की सल्तनत का वारिस और उसका दामाद क़रार पाया उसी तरह अम्र का क़ातिल भी दामादे पैग़म्बर (स.अ.व.व.) और वारिसे मसन्दे ख़िलाफ़त था। इस मुमासिलत व मुशबिहत पर नज़र करने के बाद हाफ़िज़ यहिया इब्ने आदम के इस क़ौल की हक़ीक़त नुमाया हो जाती है किः

(हज़रत अली (अ.स.) के अम्र को कत्ल करने की तशबीह किसी वाक़िये से दी जाती है तो उससे जिस का ज़िक्र कुरान मजीद की इस आयत में है (फिर उन लोगों ने अल्लाह के हुक्म से दुश्मनों को शिकस्त दी और दाऊद (अ.स.) ने जालूत को क़त्ल किया।)

बनि क़ुरैज़ा सरकूबी

जांगे एहज़ाब जब यहूद व मुश्रेकीन के मुशतरका महाज़ की शिकस्त व हज़ीमत पर ख़त्म हुई तो मदीने में कदम रखते ही पैगम़्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) ने क़बीला बनि कुरैज़ा की सरकूबी के लिये फ़ौजी़ अक़दाम का इरादा किया जिन्होंने हयी इब्ने अख़तब की बातों मे आकर मुहायिदा की खिलाफ़ वर्ज़ी और मुसलमानों से ग़द्दारी करके हमला आवरों का एलानिया साथ दिया था। चुनानचे हुज़ूरे अकरम (स.अ.व.व.) ने हज़रत अली (अ.स.) की क़ेयादत में तीस ( 30) ख़िज़रिजियों का एक हरावल दस्ता उनकी तरफ़ रवाना किया। तबरी का कहना है कि पैगम्बर (स.अ.व.व.) ने अली (अ.स.) को रायते जंग दे कर बतौर मुक़द्दमतुल जैश बनि कुरैजा की तरफ भेजा।

बनि कुरैजा , समझ 20 थे कि अहद शिकनी की पादाश में उनसे मुवाख़िजा ज़रुर होगा इसिलये ख़न्दक में कुफ़्फ़ार की पसपाई के बाद ही वह अपने घरों को छोड़कर एक क़िले में मुन्तक़िल हो गये थे। उनका ख़्याल था कि इस कि़ले का सर करना मुसलमानों की ताक़त व कूवत से बाहर है।

जब हज़रत अली (अ.स.) इस क़िले के पास पहुँचे और ज़मीन पर अलम गाड़ा तो किले की दीवारों पर चढ़कर यहूदियों ने आन हज़रत (स.अ.व.व.) को बुरा भला कहना शुरी किया और गालम गलौज पर उतर आये। हज़रत अली (अ.स.) ने पैगम्बर (स.अ.व.व.) के ख़िलाफ़ जब उनके नाशाइस्ता कलेमात सेने तो इस ख़्याल से वापस पलने कि आन हजरत (स.अ.व.व.) को वहाँ जाने से रोक दें और खुद ही उन लोगों से निमट लें। अभी आप कुछ दूर चले थे कि देखा हुज़ूरे अकरम (स.अ.व.व.) तशरीफ़ ला रहरे हैं। आपने कहा या रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ! आप क़िले के क़रीब न जायें। फ़रमाया , वह मुझे देखर बदज़बनी व मदक़लामी की हिम्मत नहीं करेंगे। गर्ज़ कि आप वहाँ तशरीफ ले गये और किले के सामने ही अपना ख़ेमा नसब करने का हुक्म दिया। ख़ेमए रिसालत का नसब होना था कि मुसलमानों ने चारों तरफ से किले को घेर लिया और आमदो रफ़्त के तमाम रास्ते बन्द कर दिये। महसूरीन में हयी इब्ने अख़तब भी था।

बनि कुरैश के रईस काब इब्ने असद ने जब यह देखा कि मुसलमानों का मुहासिरा सख़्त होता जा रहा है तो उसने अपने क़बीले वालों से कहा कि मुहम्मद (स.अ.व.व.) की नबूवत का तज़किरा आसमानी किताबों में मौजूद है। लेहाज़ा बेहतर है कि हम उनकी नबूअत का एतराफ़ करके इस्लाम कुबूल कर लें। उन्होंने काब की बातों को ठुकरा दिया और इस्लाम कुबूल करने से इन्कार कर दिया। काब ने कहा अगर तुम लोग इस्लाम कुबूल करने पर तैयार नहीं हो तो अपनी औरतों और बच्चों को ठिकाने लगाओ और बाहर फ़िक्र से ख़ाली होंगे और तुम पूरी यकसूई व तन्देही से लड़ सकोगे। उन्होंने कहा , वहा , यह क्यों कर मुम्किन है कि हम अपने बच्चों और औरतों के खून से अपने हाथों को रंगीन करें। काब ने कहा फिर तुम लोग अक़ल व ख़ेरद से खाली और अपने बारे में खुश फ़हमी में मुबतिला हो।

यहूद को मुहासिरा में घेरे हुए पच्चीस दिन हो चुके थे वह इतने दिनों तक तीर और पत्थर बरसाते रहे मगर मुसलमानों का हिसार तोड़ने में कामयाब न हो सके। जब मुहासिरा की शिद्दत से तंग आ गये तो उन्होंने निबाश इब्ने क़ैस के ज़रिये पैग़म्बर (स.अ.व.व.) से दरख़्वास्त की कि हम हथियार डालने पर तैयार हैं बशर्त कि हमारी जान बख़्शी की जाये और हमें अपना माल असबाब ले जाने की इजाज़त दी जाये। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया , यह हमें मन्ज़ूर नहीं है। कहा , फिर हम अपना सारा माल व असबाब यही छोड़ देते हैं , सिर्फ़ औरतों और बच्चों को लेकर निकल जाने की इजाज़त दे दी जाये। आप (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया यह भी नहीं हो सकता , बल्कि गैर मशरूत तौर पर अपने आपको हमारे सुपुर्द करना होगा और जो हम मुनासिब समझेंगे वह फ़ैसला करेंगे। निबाश ने पलट कर बनि क़ुरैजा को आन हज़रत (स.अ.व.व.) के जवाब से आगाह किया। उन्होंने रसूल ख़ुदा (स.अ.व.व.) के पास पैग़ाम कहलवाया कि अबुलबाबा अन्सारी को हमारे पास भेजिये ताकि हम उनसे बात चीत करके कोई आख़री फ़ैसला कर सकें। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने अबुलबाबा को भेज दिया। उन लोगों ने अबुलबाबा से कहा तुम्हारी क्या राय है क्या ग़ैर मशरूत तौर पर हम अपने को मुहम्मद (स.अ.व.व.) के सुपुर्द कर दें ? अबुलबाबा ने अपने गले पर हाथ फेर कर इशारे से बताया कि क़त्ल कर दिये जाओगे। चुनानचे अबुलबाबा का इशारा पाकर उन्होंने अपने आपको पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के हवाले करने से साफ़ इन्कार कर दिया। तबरी रक़म तराज़ है कि जब बनि कुरैज़ा को यह एहसास हुआ कि ग़ैर मशरूत तौर पर आन हज़रत (स.अ.व.व.) के फ़ैसले पर इनहेसार कर लेने का नतीजा क़त्ल होगा तो उन्होंने कहा , हम साद इब्ने मआज़ को सालिस तस्लीम करते हुए उनके फ़ैसले को मान लेंगे। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने भी साद इब्ने मआज़ को सालिस बनाये जाने की इजाज़त दे दी और फ़रमाया कि दोनों फरीक़ के लिये उनका जो भी फ़ैसला होगा वह क़ाबिले तस्लीम होगा।

साद इब्ने मआज़ जंगे एहज़ाब में तीर से ज़ख्मी हो कर मस्जिद नबूवी के क़रीब रफ़ीदा अन्सारिया के ख़ेमे में पड़े थे। उन्हें सवारी पर लाया गया। उन्होंने यह फ़ैसला किया कि बनि कुरैज़ा के मर्दों को क़त्ल कर दिया जाये। औरतों , कनीजों और बच्चों को गुलाम बना लिया जाये और उनके अहवाल व इम्लाक को मुसलमानों मे तक़सीम कर दिया जाये।

इस फ़ैसले पर अम्लदरामद हुआ। उनके मर्दों को क़त्ल कर दिया गया। औरतों और बच्चों को असीर कर लिया गया और उनका माल व मताअ तक़सीम कर दिया गया।

यह सज़ा बज़ाहिर बड़ी सख़्त और हौलनाक ज़ाहिर होती है मगर हालात का जाएज़ा लिया जाये और उसका पस नज़र देखा जाये तो यह एतराफ़ करना पड़ेगा कि वह हक़ीक़तन इसी सज़ा के मुस्तहक़ थे। वह कौन सा हुस्ने सुलूक था जिससे पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने उन्हें महरूम रखा हो , वह कौन सी रेआयत और नेकी थी जो उनके साथ रवाना रखी गयी हो। मदीने में क़याम फ़रमां होने के बाद पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) ने उनके साथ ख़ुसूसी मराआत बरतीं। अमन व सुलह का मुहायिदा किया और उसका पूरा एहतराम मलहूज़ रखा , मज़हबी आज़ादी दी , जान व माल की हिफ़ाज़त का ज़िम्मा लिया और उनके मोआशी व मोआशरती हुकूक़ का तहाफुज़ किया और जब बनि नज़डीर ने मुहायिदा शिकनी की और उन्हें मदीने से जिला वतन होना पड़ा तो उनसे मुहायिदा की तजदीद करके आन हजरत (स.अ.व.व.) ने उनके साबेका़ हकूक बरक़रार रखे लेकिन उसके बावजूद उन्हें जब भी मौक़ा मिला यह लोग दग़ व फ़रेब से बाज़ न आये और दुश्मनों के दस्त व बाज़ू बनकर इस्लाम की तबाही व बरबादी पर तुले रहे चुनानचे जंगे बद्र में उन लोगों ने दुश्मनों से साज़बाज़ की और उन्हें हथियार बहम पहुँचाये उसके बाद जंगे एहज़ाब में मुसलमानों के ख़िलाफ़ यहूद व मुश्रेकीन से फिर पूरा तआवुन किया और उन नाशइस्ता हरकत पर नादिम व शर्मसार होने के बजाये खुल्लम खुल्ला बग़ावत पर उतर आये और बद फितरती का सुबूत देते हुए पैग़म्बर (स.अ.व.व.) को दुशनाम तराज़ियों का निशाना बनाया। इन हालात में अगर उन्हें ज़िन्दा छोड़ दिया जाता तो यह लोग यक़ीनन अहले मदीना के लिये एक मुस्तक़िल दर्द सर और ख़तरा बन जाते और बनि नज़ीर की तरह यह भी दुश्मनाने इस्लाम से साज़बाज़ करके मुसलमानों पर फौज़ कशी करते और मदीना व इतराफ़े मदीना के अमन आमा को गारत व बरबाद करते रहते।

जो सज़ा उनके लिये तजवीज़ की गई वह कोई नयी और अनोखी सज़ा न थी। अगर दुनिया की तारीख़े बग़ावत और उस पर मुरत्तब होने वाली सज़ाओं पर नज़र की जाये तो उन अहद शिकन , सरकश और ख़तरनाक बागियों की सज़ाये क़त्ल पर कोई ताज्जुब न होगा। तारीख़ बताती है कि बागियों को ऐसी ऐसी सज़ायें दी जाती थीं जिन्हें सुन कर अब भी इन्सान लरज़ा बर अन्दाम हो जाता है। कोल्हू में पिसना , शिकन्जे में कसना , आग में झोकना हाथों और पैरों में मेंखे ठोक कर उलटा लटकाना। बस्तियों की बस्तियाँ जला देना , क़ब्रों से लाशें निकाल कर उन्हें पामाल करना वग़ैरा बागियों की आम सज़ायें थी। इसके बावजूद बनि कुरैज़ा के लिये क़त्ल की सज़ा तो तजवीज़ की जाती है मगर उसमें कोई करब अफ़ज़ा पहलू पैदा नहीं किया जाता बल्कि एक आम तरीक़े से उन्हें मौत के घाट उतारा जाता है। चुनानचे इस बग़ावत का मोहर्रिक अव्वल और इस्लाम का दुश्मने आज़म हयी इब्ने अकतब जब क़तल के लिये अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) की ख़िदमत में पेश किया जाता है तो वह एतराफ़ करता है कि यह एक शरीफ़ाना क़्तल है जो एक शरीफ़ के हाथों अन्जाम पा रहा है) और फिर वह अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) से यह फ़रमाइश करता है कि जब आप मुझे क़त्ल करें तो मेरा लिबास उतार कर मुझे बरहैना न करें। जिस पर हज़रत ने फ़रमाया कि दुश्मन को क़त्ल करने के बाद उसे उरयां करना हमारा शीवा नहीं है। चुनानचे आपने अपने मामूल के मुताबिक़ उसे क़त्ल करने के बाद उसका लिबास नहीं उतारा। वाक़दी का कहना है कि इस मारके में मक़तूलीन की तादाद 750 तक थी और उन औरतों , कनीज़ों और बच्चों की तादाद जिन्हें गुलामों की हैसियत से फ़रोख़्त कर दिया गया , एक हज़ार थी। 1

मुक़तलिफ़ वाक़ेयात

• साद बिन एबादा की वालिदा अम्र बिन्ते मसऊद ने रेहलत इख़तेयार की।

• माहे जमादुल आख़िर में चाँद ग्रहन हुआ और आन हज़रत स ने नमाज़े ग्रहन पढ़ी।

• अरब के कई क़बीले आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाज़िर हो कर मुशर्रफ़ बाइस्लाम हुए

• माहे ज़ीक़ाद में आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने जै़नब बिन्ते हज़श से अक़द फ़रमाया। और आयते हिजाब नाज़िल हुई

• औरतों को पर्दे में रखने का इसी साल हुक्म हुआ।

• मुबतना लड़के की मनकूहा से आज़ाद हो जाने और इद्दत की मुद्दत पूरी होने के बाद निकाह की इजाज़त दी गयी।

• इसी साल पानी की अदम फ़राहमी पर तयम्मुम का हुक्म आया और नमाज़े ख़ौफ़ की दाग़बील भी इसी साल पड़ी।


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