तारीखे इस्लाम 2

तारीखे इस्लाम 27%

तारीखे इस्लाम 2 लेखक:
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तारीखे इस्लाम 2

तारीखे इस्लाम 2

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.


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यमन में इस्लाम की तबलीग़

सन् 8 हिजरी में आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने ख़ालिद बिन वलीद को सहाबा की एक जमाअत के साथ त.बलीग़े इस्लाम के लिये यमन भेजा जहां यह लोग छः माह तक क़याम पज़ीर रह कर लोगों को इस्लाम की दावत देते रहे मगर उनकी तबलीग़ी कोशिशें बारआवर न हुई। बरा इब्ने आज़िब जो इस जमाअत में शरीक थे कहते हैं कि ख़ालिद बिन बलीद की बात किसी ने न मानी। जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) को ख़ालिद बिन वलीद की क़यादत में इस मिशन की नाकामी का इल्म हुआ तो आपने हज़रत अली (अ.स.) को इस फ़रीज़े की अदायगी पर मामूर फ़रमाया और उन्हें हिदायत दी कि अगर कोई अपनी मर्ज़ी से तुम्हारे साथ रहना चाहे तो वह रह जाये वरना ख़ालिद और उसकी पूरी जमात को मीदने वापस भेज दो। बरा इब्ने अज़िब का बयान है कि मैं भी अळी (अ.स.) के साथ रूक गया। जब अहले यमन को यह मालूम हुआ कि ख़ालिद यहां से चला गया है और तबलीग़ की हैसियत से हज़रत अली (अ.स.) आयें है तो वह सब एक जगह पर जमां हो गये। हज़रत अली (अ.स.) नमाज़े सुबहा से फ़ारिग़ होकर उनके पास गये। रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) का वह ख़त जो अहले यमन के नाम था पढ़ कर सुनाया उसके बाद इस्लाम के मुहासिन पर एक फ़सीह व बलीग़ खुतबा दिया। उसका असर यह हुआ कि जो लोग ख़ालिद की छः माह की तबलीग़ से टस सेमस न हुए थे इस्लाम की ख़ूबियों के मोतरिफ़ होकर हलक़ा बगोशे इस्लाम हो गये। तबरी का कहना है कि तमाम बनि हमदान एक ही दिन में मुसलमान हो गये। हज़रत अली (अ.स.) ने आन हज़रत (स.अ.व.व.) को जब मुज़दा भेजा तो और आपने सजदये शुक्र अदा किया। इसके बाद तीन मर्तबा फ़रमाया कि अहले हमदान पर मेरा सलाम हो। 2

क़बीलये हमदान के इस्लाम लाने के बाद , यमन में इस्लामी तरक़्की की , राहें खुल गई और जूक़ दर जूक़ लोग दायरये इस्लाम में दाख़िल होने लगे। देखते ही देखते कुफ़्र की घटायें छट गयी और इस्लाम का सूरज वहां भी अपनी आब व ताब के साथ चमकने लगा।

मुख़तलिफ़ वाक़ेयात

• माहे ज़िलहिज में मारिया क़बतिया के बतन से आन हजरत के फ़रज़न्द इब्राहीम पैदा हुए जो एक साल तीन माह तक ज़िन्दा रहने के बाद इन्तेक़ाल फ़रमां गये।

• अबुसुफ़ियान , अरवा बिन मसूद सख़फ़ी , अकरमा इब्ने अबुजहल , शीबा बिन अस्मान ऐदी , हज़रत अबुबकर के वालिद अबुक़हाफ़ा , हकीम बिन हिज़ाम , मालिक बिन औफ़ नसरी और अबु सुफ़ियान के दोनों बेटे यज़ीद माविया मुसलमान हुए।

• सन् 8 हिजरी के आख़िर में आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने आला हज़रमी को हाकिमे बहरैन के पास भेजा , वह मुसलमान हुआ और उसने यहूदियों , मजूसियों पर ज़ज़िया आयद किया।

• मक्के और हुनैन की फ़तहा के बाद हज़रत अली (अ.स.) ने कुर्ब व जवार के बुतों को तोड़ा और मिस्मार किया।

(सन् 6 हिजरी)

बनि तमीम की सरकूबी

सन् 6 हिजरी में इस्लामी हुकूमत मुसतहकम हो चुकी थी और पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) उसके सरबराह व फ़रमांरवा तस्लीम किये जा चुके थे। दीगर इस्लामी वाजेबात के साथ मुसलमानं पर ज़कात भी वाजिब क़रार पा चुकी थी और हर मुतमउल मुसलमान वाज़िबउल अदारक़म बैतुल माल में जमा करता था। जो लोग मुसलमान नहीं थे वह भी जज़या देते थे। और यही ख़िराज था जौ पैगम़्बर (स.अ.व.व.) के अहद में रेआया से वसूल किया जाता था चुनानचे आपने उन मुतालेबात की वसूलियाबी के लिये कुछ आमिल मुक़र्रर फ़रमाये और एक आमिल को क़बीला बनि काब की तरफ़ भी रवाना किया। मगर क़बीला बनी तमीम के कहने सुनने और बरगलाने भड़काने से बनि काब के लोग मुसलमान और मुतवौल्लम होने के बावजूद ज़कात की अदायेगी से मुन्हरिफ़ हो गये। और नौबत यहां तक पहुँची कि आमिल को अपनी जान बचाकर वहां से भागना पड़ा वह मदीने आया और आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़दिमत में बारयाब होकर उसने आपको तमाम हालात से मुत्तेला किया। हुज़ूरे अकरम (स.अ.व.व.) ने अय्यना बिन हसन अन्फ़रारी की क़यादत में पचास मुसल्लह सवारों का एक दस्ता मुख़ालेफ़ीन की सरकूबी के लिये रवाना किया मगर जंग की नौबत नहीं आई और वह लोग भाग निकले अलबत्ता कुछ क़ैदी हाथ आये जिन्हें अय्यना ने आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाज़िर किया। अभी कोई सज़ा तजवीज़ न हो पाई थी कि बनि तमीम के कुछ सरदार आये और माफ़ी तलाफ़ी के बाद उन्हें छोड़कर ले गये।

सरया वादी-उल-रमल

वादीउल रमल में जमा होकर कुछ शरपसन्दों ने मदीने पर शबख़ून मारने का मन्सूबा तैयार किया लेकिन वह अभी मुनासिब मौक़े की तलाश ही में थे कि किसी के ज़रिये पैग़म्बर (स.अ.व.व.) को इसकी इत्तेला हो गई. यह लोग मुनज्ज़म और बाक़ायदा फौज़ की सूरत में न थे बल्कि रहज़नों और क़ज्ज़ाकों का एक जत्था ता जो लूट मार और क़त्ल व ग़ारत गारी की ग़र्ज से रमल के मुक़ाम पर जमा हो गया था। आन हज़रत सल 0 ने उन्हें मुन्तशिर व मुतफ़र्रिक़ करने के लिये हज़रत अबुबकर की क़यादत में एक फ़ौजी दस्ता रवाना किया। चुनानचे जब ये लोग वहां पहुँचे तो वह इधर उधर छुप गये। मुसलमान यह समझे कि वह उन्हें देखकर फ़रार हो गये हैं लेहाज़ा रात बसर करने के लिये वहीं उतर पड़े और बेखटके आराम से सो गये। जब निस्फ़ शब गुज़री तो दुश्मनों ने कमिनगाहों से निकल कर अचानक हमला कर दिया जिससे मुसलमानों में सर सररासीमगी फैल गई वह हड़बड़ा कर उठे , हथियार टटोले और फिर संभलकर कुछ देर लड़े मगर नतीजे में कुछ मारे गये , कुछ ज़ख्मी हुए और कुछ भाग खड़े हुए। हज़रत अबुबकर की इस शिकस्त व हज़ीमत के बाद आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने हज़रत उमर को दुश्मनों की सरकूबी पर मामूर किया। यह अब एक दस्ता फौज़ लेकर गये मगर दुश्मनों के हौसले बढ़े हुए थे जब उन्होंने इस इस्लामी दस्ते को आते देखा तो दाहने बायें से यकबारगी टूट पड़े और इस तरह ताबड़ तोड़ हमले किये कि मुसलमानों के क़दम जम न सके चुनानचे सबसे पहले सिपहसालार दस्ता हज़रत उमर ने राहे फ़रार इख़तेयार की उनके पीछे दस्ता भागा और उन लोगों ने सीधे मदीने में आकर दम लिया।

उन दिनों हज़ीमतों के बाद आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने हज़रत अली को सिपेहसालार की हैसियत से भेजा और उन शिकस्त ख़ुरदा लोगों को भी उनके साथ जाने का हुक्म दिया। हज़रत अली (अ.स.) जब रवाना हुए तो आपने दो मुख़तलिफ़ तदबीरों इख़तियार की अव्वल ये कि आपने वह रास्ता बदल दिया जिस रास्ते से हज़रत अबुबकर व हज़रत उमर वग़ैरा गये थे दूसरे यह कि आपने दिन में आराम किया और रात में सफ़र किया यहां तक कि ख़ामोशी से आगे बढ़ते हुए दुश्मनों के सरों पर पहुँच गये और अभी सूरज की किरनों ने पहाड़ों को छुवा भी न था कि उनके सरों पर तलवारें चमकने लगीं। वह लोग इस नागहानी हमले की ताब न ला सकें ग़र्ज़ कि कुछ मारे गये और कुछ भाग निकले। और मुसलमान फ़तहा व कामरानी का परचम लहराते हुए मदीने की तरफ़ पलट पड़े।

सरया बनि तय

फ़तहे मक्का के बाद ख़ान-ए-काबा से बुतों का सफ़ाया हो चुका था। नज़वा ताएफ़ के दौरान बनि सक़ीफ़ व बनि हवाज़िन के बुत तोड़े जा चुके थे और मुख़तलिफ़ क़बीलों और इलाक़ों में सनम कदे वीरान हो चुके थे मगर बनि तय का बुतख़ाना अबी ज्यों का त्यों बाक़ी था जिसमें फ़लस नाम का एक बुत उनकी अक़ीदत व इरादत का मरकज़ था। पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) ने उसे भी मुन्हदिम करने का इरादा किया और रबीउल आख़िर 26 हिजरी में हज़रत अली (अ.स.) को बनी तय की बस्तियों की तरफ भेजा ताकि वह उनके बुतखानों को मिसमार करें और सनम परस्ती की ज़ंजीरों में जकड़े हुए इन्सानों को वहदउ लाशरीक की परस्तिश की तरफ़ माएल करें।

हज़रत अली (अ.स.) ने डेढ़ सौ अन्सार की जमीअत के साथ बनि तय की बस्तियों का रूख किया। बनि तय का सरदार अदी इब्ने हातिम लश्करे इस्लाम की आमद पर अपने अहल व अयाल को लेकर शाम की तरफ़ निकल गया और वहां उसने पनाह ले ली। हज़रत अली (अ.स.) ने मुहल्ला आले हातिम पर हमला करके उनके बुतख़ाने को मिसमार कर दिया। जिससे तीन क़ीमती ज़िरहें और तीन तलवारें रसूब , मुख़ज़ूम और यमानी दस्तयाब हुयीं। यह अरब की मशहूर तलवारें थी जिन्हें हारिस इब्ने अबी शिमर ने बुतख़ाने की नज़र किया था। उसके अलावा बहुत सा माले ग़नीमत चन्द क़ैदी और भेड़ बकरियं के गल्ले मुसलमानों के हाथ लगे। हज़रत अली (अ.स.) ने ग़नीमत और असीरों को लेकर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाज़िर हुए। उन असीरों में हातिम की बेटी सफ़ाना भी थी जिसे मस्जिद से मुत्तासिल एक जगह जहां कनीज़ें ठहराई जाती थी ठहराया गया। उन्हीं अय्याम में पैग़म्बर (स.अ.व.व.)उधऱ से हो के गुज़रे तो उसने कहा , यहा रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ! मेरा बाप मर चुका है और कोई पुरसाने हाल नहीं है , मुझपर एहसान कीजिये और मुझे छोड़ दीजिये। फ़रमाया तुम कौन हो ? कहा मैं अदी इब्ने हातिम की बहन सफ़ाना हूँ। फ़रमाया वही अदी जो अल्लाह और रसूल (स.अ.व.व.) से मुँह मोड़कर चला गया है और यह कह कर आप आगे बढ़ गये। दूसरे दिन फिर गुज़र हुआ तो उसने फिर रेहाई की इलतेजा की आपने वही जवाब दिया जो दे चुके थे और आगे निकल गये। सफ़ाना कहती हैं कि अब रेहाई से न उम्मीदी हो गई। तीसरे दिन जब रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) उधर से गुज़रने लगे तो मुझे कुछ कहने की हिम्मत न हुई क्योंकि दो दफ़ा मेरी इलतेजा ठुकराई जा चुकी थी। मैं अभी सोच ही रही थी कि कुछ अर्ज़ करूं या ख़ामोश रहूं कि आन हज़रत (स.अ.व.व.)ने अक़ब से एक शख़्स ने मुझे इशारा किया कि मैं उनसे रेहाई के बारे में फिर कहूँ! मेरी हिम्मत बन्धी और मैंने अर्ज़ किया कि या रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) मुझे मेरी क़ौम में रूसवा न कीजिये मैं बनि तय के सरदार हातिम की बेटी हूँ मेरा बाप फ़य्याज़ और सख़ी था। फ़रमाया इसे आज़ाद कर दिया जाये यह उस बाप की बेट है जो करीमुल नफ़्स और बुलन्द इख़लाक़ का मालिक था। फिर सवाना की तरफ़ मुतावज्जे हुए और फ़रमाया , तुम चन्द दिन सबर करो जब क़ाबिले एतमाद लोग मिल जायेंगे तो तुम्हें उनके साथ ब-हिफाज़त तुम्हारे अजीज़ों तक पहुंचा दिया जायेगा। सफ़ाना कहती है कि मैंने लोगों से दरयाफ़्त किया कि वह कौन था जिसने मुझसे इशारे से कहा था कि मैं पैग़म्बर (स.अ.व.व.) से रेहाई कि फिर दरख़्वास्त करूं तो मुझे बताया गया था कि वह रसूल उल्लाह के इब्ने अम हज़रत अली (अ.स.) इब्ने अबीतालिब (अ.स.) थे। चन्द दिनों के बाद बनि क़ज़ाआ का एक क़ाफ़िला मदीने आया सफ़ाना ने पैगम्बर (स.अ.व.व.) से अर्ज़ किया कि मुझे उसके साथ जाने की इजाज़त दी जाये पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने उसके ज़ाद राह का इन्तेज़ाम किया और उन लोगों के साथ रवाना कर दिया।

सफ़ाना जब वहां पहुँची तो उसने अपने भाई अदी से सारा वाक़िया ब्यान किया और ये मशविरा दिया कि वह भी इस्लाम कुबूल करे चुनानचे यह मदीने आये और पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाज़िर होकर इस्लाम से मुशर्रफ़ हुए और वह कभी हज़रत अली (अ.स.) के असहाब मुख़लिसिन में शामिल होकर जमाल व सिफ़्फ़ीन और नहरवान के मारकों में आपके हमरेकाब रहा।

ग़ज़वा तबूक

शाम के तिजारती क़ाफ़िले के ज़रिये मदीने में यह ख़बर फैली की क़ैसरे रोम (हक़ुल) अपनी फ़ौजों के साथ मुसलमानों पर हमला आवर होने के लिये आगे बढ़ रहा है और तमाम ईसाई क़बाएल , बनि ग़सान बनि लहम औऐर बनि आमला वग़ैरा उसके परचम के नीचे जमा हो गये हैं। पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) ने इत्तेलात की बिना पर मुक़ाबिले की तैयारियां शुरू कर दीं और मुसलमानों को हुक्म दिया कि वह दुश्मनों की पेश क़दमी को रोकने के लिये तैयार हो जायें।

अब तक मुसलमानों ने जितनी भी लड़ाइयां लड़ी थी वह उन्हीं के मुल्क तक महदूद थी किसी बाहरी मुल्क से सफ़आराई की नौबत नहीं आयी थी चुनाचे यह पहला मौक़ा था कि यह जंग मुल्क के बाहर और उस दौर की सबसे बड़ी हुकूमत से मुतावक़्के थी जिसके फ़तुहात का सिलसिला बिलाद फ़रस तक फैला हुआ था।

मुसलमानों ने जब पैग़म्बर (स.अ.व.व.) का हुक्म सुना तो जोश व ख़रोश के बजाये वह सुस्ती व बददिलों का मुज़ाहेरा करने लगे। इस बददिली की एक वजह ये भी थी कि कुछ अर्से से ख़ुश्क साली के बाअस पैदावार कम हो रही थी लेकिन इस साह हर वक़्त और ज़रूरी मिक़दार में बारिश हो जाने की वजह से फ़सल अच्छी और तैयार खड़ी थी इसलिये वह उसे छोड़ कर जाना नहीं चाहते थे और दूसरी वजह यह थी कि इन्तेहाई शिद्दत की गर्मी पड़ रही थी , दूर का सफ़र था और सवारियों की क़िल्लत , लेहाज़ा उन सब्र आज़म हालात में मुसलमान हिम्मत हार कर जंग से बचने के लिये हीले बहाने करने लगे। उनके बारे में कुरान का इऱशाद है किः-

ऐ ईमान वालों! तुम्हें क्या हो गया है कि जब तुमसे कहा जाता है कि ख़ुदा की राह में जेहाद के लिये निकलो तो तुम्हारे पाओं ज़मीन में गड़ जाते हैं। क्या तुम आख़ेरत के बजाये दुनिया की चन्द रोज़ा जि़न्दगी को पसन्द करते हो ? याद रखो कि दुनियावी जि़न्दगी का साज़ व सामान आख़ेरत के मुक़ाबिले में बहुत थोड़ा है।) (सूरा तौबा आयत 38)

जब तहदीदी आयतों के ज़रिये मुसलमानों पर दबाओं पड़ा और उन्हें क़दम आगे बढ़ाये बग़ैर कोई चारा कार नज़र न आया तो वह मारे मदीने व इतराफ़े मदीने से माली व फ़ौज़ी कुमक हासिल करके तीस हज़ार का लश्कर तरतीब दिया और माहे रजब सन् 6 हिजरी में मदीने से निकल पड़े और सनयतुल विदा मे पहला पड़ाव डाला। अब्दुल्लाह इब्ने अबी भी अपने गिरोह को लेकर सनयतुल विदा के नशेबी इलाक़े में ख़ेमा ज़न हुआ मगर जब रसूल उल्लाह सब लश्कर लेकर आगे बढ़े तो वह अपनी जमात समेत वापस आ गया।

मुसलमानों की इस अज़ीम अकसरियत के चले जाने के बाद उन मुनाफ़ेकीन से जो मदीने में रह गये थे या रासते से पलट आये थे वह अन्देशा था कि अगर लश्करे इस्लाम को शिकस्त हुई या सफ़र की मुद्दत तवील हुई तो वह आन हज़रत (स.अ.व.व.) का घर बार लूट लेंगे और उनके अहल व अय़ाल को शहर से बाहर निकाल देंगे। चुनानचे इस सूरते हाल के पेशे नज़र तदबीर और दूर अन्देशी का तक़ज़ा ये था कि मदीने के अन्दर एक ऐसे शख़्स को निगरां के तौर पर छोड़ा जाये जो बहादुर , बे ख़ौफ़ और दुश्मनों के अज़ाएम को कुचलने पर क़ादिर हो। इसी ज़रूरत की बिना पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) ने हज़रत अली (अ.स.) इब्ने अबीतालिब (अ.स.) को अपना नायब और क़ायम मुक़ाम बनाकर मदीने में छोड़ा ताकि कुफ्र व निफ़ाक़ की तागूती ताक़तों को सर उठाने का मौक़ा न मिल सके और अगर कुछ फ़ितना दिया जाये। मदीने में मुनाफ़ेकीन को हज़रत अली (अ.स.) की यह मौजूदगी बुरी तरह ख़ली और जब उनका कोई बस न चल सका तो वह कहने लगे कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) उन्हें बार ख़ातिर समझ कर अपना बोझ हलका करने के लिये यहाँ छोड़ गये हैं। 1

हज़रत अली (अ.स.) ने मुनाफ़ेकीन की ज़बान से जब इस क़िस्म की तन्जिया बातें सुनी तो आपकी ग़ैरत उसे बर्दाश्त न कर सकी। हथियार लगाये और लश्कर के पीछे चल दिये और मदीने से कुछ फ़ासले पर जरफ़ नामी एक मुक़ाम पर पैगम़्बर (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाज़िर हुए। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने पूछा ऐ अली (अ.स.) कैसे आये ? अर्ज़ किया! या रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ! मीदने के कुछ मुनाफ़िक ये कहते हैं कि आपने बरे ख़ातिर समझ कर मुझे वहां छोड़ा है। आपने फ़रमाया वह झूट बोलते हैं , मैंने तु्म्हें मीदने में इसलिये छोडा है कि वहां की हालत मेरे या तुम्हारे रहने ही से दुरुस्त रह सकती है। 2 और तुम ही मेरे अहलेबैत और मेरी उम्मत में मेरे जॉनशीन और क़ायम मुक़ाम हो। और क्या तुम इस पर राज़ी नहीं हो कि तुम्हें मुझसे वही निसबत है जो हारून को मूसा (अ.स.) से थी , यह और बात है कि मेरे बाद कोई नबी नहीं होगा। 3

हज़रत अली (अ.स.) यह नवेद मसर्रत सुनकर खुश खुश मदीने वापस आ गये और लश्करे इस्लाम शाम की तरफ़ कूच कर गया। जब यह लश्कर तबूक के मुक़ाम पर पहुँचा और वहां ख़ेमा ज़न हुआ तो दुश्मनों की तलाश शुरू हुई मगर दूर दूर तक तो रूमी फौज़ें नज़र आई और न ही ऐसे आसार दिखाई दिये जिनसे दुश्मन के जंगी अज़ाएम का पता चलता। आन हज़रत बीस दिन तक वहां क़याम फ़रमा रहे मगर किसी तरफ़ से दुश्मन की नक़ल व हरकत की कोई ख़बर सुनाई न दी और शामी तिजारती क़ाफिले की फैलाई हुई अफ़वाह ग़लत साबित हुई।

बीस दिन तक वहां अपने क़याम के दौरान आन हज़रत (स.अ.व.व.) इत्तराप व जवानिब के सरदारों के पास वफूद भेजे कि वह इसलाम कुबूल करें या जज़िया देकर इस्लामी रेआया में शामिल हों चुनानचे ईला का सरदार योहना इब्ने रूबा हाजिर हुआ और उसने तीन सौ दीनार जज़िया पर मुसालेहत कर ली इसी तरह जरबा इज़रा और मक़ना के ईसाइयों ने भी जज़िया के एवज़ पैगम़्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) से अमान हासिल कर ली।थ जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) दुश्मनों की तरफ़ से मुतमईन हो गये तो आपन मराजेअत का हुक्म सादिर फ़रमाया और लश्कर मदीने की तरफ़ पलट पड़ा।

वाक़िया उक़बा

यह इस्लामी तारीख़ का वह शर्मनाक और इबतर अंगेज़ अलमिया है जो पैगम़्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) के क़त्ल की साजिश पर मबनी है। इसका अलमनाक पहलू है कि गज़वा तबूक की वापसी पर पैगम़्बर (स.अ.व.व.) की सवारी को। ज़ी फ़तक नामी पहाड़ की एक ख़तरनाक खाई से गुज़रना था चुनानचे लश्कर में यह ऐलान कर दिया गया कि जब तक आन हज़रत (स.अ.व.व.) का नाक़ा बाख़ैरियत गुज़र न जाये कोई शख़्स खाई में कदम न रखे। कुछ लोगों ने मन्सूबा बनाया कि पैगम़्बर (स.अ.व.व.) के नाक़े को भड़का दिया जाये। जब वह भड़क कर किसी गहरी खड़ में गिरेगा तो खुद बख़ुद उनका काम तमाम हो जायेगा।

रात तारीक थी , हुजूरे अकरम (स.अ.व.व.) का नाक़ा तन्ग रास्तों की ढलानों से आहिस्ता आहिस्ता उतर रहा था कि अचानक बिजली चमकी जिसकी रौशनी में बाराह सवार दिखाई दिये जो पने चेहरों की नक़ाबों में छिपाये आन हज़रत (स.अ.व.व.) की तरफ़ तेज़ी से बढ़ रहे थे। हुज़ूरे अकरम (स.अ.व.व.) ने उन्हें डांट कर भगाया फिर आपने नाक़े की मोहर थाम हुए हुज़ैफ़ा यमानी नीज़ नाक़े को हांकने हुए अम्मार यासीर को उनके नामों से आगाह किया और उसके साथ ही यह ताकीद भी फ़रमा दी कि उन मुनाफ़ेक़ीन के नामों को पोशीदा रखना वरना उम्मत में फ़ितना फ़साद का अन्देशा है। मगर इस ताक़ीद के बावजूद उन लोगों के नाम परदये ख़फ़ा में न रह सके और मौक़े व मौक़े ज़ाहिर होते रहे चुनानचे एक मर्तबा इमाम हसन (अ.स.) ने माविया से फ़रमाया (क्या तुझे वह दिन याद नहीं कि जो बारह आदमी रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) के नाक़े को भड़काने के लिये खाई में जमा हुए थे उनमें तेरा बाप अबुसुफ़ियान भी था। 1

सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) की रेहालत के बाद हज़रत उमर भी हुज़ैफ़ासे बार बार पूछा करते थे कि ऐ हुज़ैफा! क्या उन साज़िशियों में मेरा भी नाम शामिल है ? हज़रत उमर के इस इस्तेफ़सार पर हुज़ैफा ख़ामोश रहते आख़िर कार एक दिन ज़हनी कचोंको और दिली टहोकों से मजबूर होकर हज़रत उमर ने भी यह एतराफ़ कर लिया कि (या हुज़ैफ़ा बिल्लाहे अनामिनल मुनाफ़ेकीना) ऐ हुजैफ़ा ख़ुदा की क़सम मैं भी मुनाफ़ेकीन मे।

मस्जिद ज़रार का इन्हेदाम।

क़बीला ख़िज़रिज़ का अबूआमिर नामी एक शख़्स जो तौरैत व इन्जील का आलिम था मदीने में रहा करता था और वह बराबर लोगों से आन हज़रत (स.अ.व.व.) की तारीफ़ करता और औसाफ़ व मुहासिन ब्यान किया करता था मगर जब आप मक्के से हिजरत करके मदीने में सकुनत पज़ीर हुए और लोग आपकी तरफ़ मुतावज्जे होने लगे तो वह रशक व हसद की आग में जलने लगा और आन हज़रत (स.अ.व.व.) का दुश्मन हो गया यहां तक कि जंगे बदर के बाद वह मदीने से भाग कर कुफ़्फ़ारे मक्का से जा मिला और उन्हीं की तरफ़ से ओहद की जंग में शरीक हुआ और सबसे पहले लश्करे इस्लाम पर उसी ने तीर मारा उसके बाद जंगे हुनैन में भी शरीक रहा और जब कुछ न बन बड़ा तो बादशाहे रोम हरकुल के हशिया बदारों में शामिल हो गया और वहां से उसने मुनाफ़ेक़ों को लिखा कि मस्जिदे कबा के पास तुम लोग मस्जिद बनाओ ताकि जिस वक़्त में मदीने में आऊँ तो दरस व तदरीस में मशगूल हो जाऊँ मगर हक़ीक़तन उसकी ग़र्ज़ तामीर कुछ और ही थी चुनानचे सालेबा बिन हातिब वग़ैरा बाराह मुनाफ़ेकों ने एक मस्जिद तैयार की और जब हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) तबूक की मुहिम पर जाने लगे तो उन मुनाफ़ेकों ने आपसे उस मस्जिद में नमाज़ पढ़ने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की ताकि उसकी हैसियत मुसलमानों की नज़र में क़ाबिले एहतराम बन जाये। आपने तबूक की वापसी पर उस मस्जिद में नमाज़ पढ़ने का वादा फ़रमाया और ख़ातमये मुहिम पर जब वापसी अमल में आई तो हस्बे वादा आपने उस में नमाज़ पढ़ने का क़सद किया ही था कि परवरिदगार का हुक्म हुआ कि ऐ रसूल (स.अ.व.व.) ! इस मस्जिद में नमाज़ न पढ़ना बल्कि इसके क़रीब भी न जाना , इसे मिस्मार करके उसकी जह मज़बला बनवा दो क्योंकि इसकी तामीर में इबादत का जज़बा शामिल नहीं है। हुक्म की तामील हुई और वह मस्जिद ढ़ा दी गई और वहां मज़बला क़ायम कर दिया गया। आम तौर पर मोअर्रिख़ीन और मुफ़स्सेरीन का ख़्याल यह है कि मुनाफ़ेकीन ने इस मस्जिद को इस्लाम के ख़िलाफ़ साज़िशों का मसकन और क़िला बनाने की ग़र्ज़ से तामीर किया था।

वाक़िया ईला

पैग़म्बर इस्लाम (स.अ.व.व.) ने उम्मुल मोमेनीन हज़रत खदीज़तुल कुबरा की हयात में कोई दूसरा अक़द नहीं फ़रमाया अलबत्ता उनकी वफ़ात के बपाद एक के बाद दीगर उन्नीस औरतें आपकी ज़िन्दगी में दाख़िल हुई जिसमें मारिया किब्तिया और रेहाना कनीज़ें थीं और उम्मे शरीक व उम्मे सुहैल ने अपना नफ़्स आपको हिबा कर दिया था। उन चार औरतों के अलावा उम्मे सलमा , मैमूना , सौदा , ज़ैनब बिन्ते हजश , जवेरिया , उम्मे हबीबा , आयशा , हफ़सा , ज़ैनब बिन्ते हज़ीमा , ज़ैनब बिन्ते उमैस , खूला और मसनारा वग़ैरा से आपने अक़द किया था। उन औरतों में अव्वलिल ज़िक्र दोनों औरतों हज़रत ख़दीजा के बाद तमाम अज़वाज़ में सबसे अफ़ज़ल थी और आख़ेरूल ज़िक्र दोनों औरतें आन हज़रत (स.अ.व.व.) की सोहबत से फैज़याब न हो सकीं।

पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) ने हर बीबी के लिये अलग अलग हुजरे बनवाये थे और सब की बारी के दिन मुक़र्रर कर दिये थे। आपके मामूल था कि हर एक के पास एक एक रात बसर करते थे मगर रोज़ाना सुबहा को थोड़ी थोड़ी देर के लिये हर एक के पास हो लेते थे।

रोम के बादशाह मकूक़िश ने मारया क़िब्तिया को तोहफ़े में कनीज़ की हैसियत से आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में पेश किया था चुनानचे जब वह वारिदे मदीना हुई तो पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने तमाम अज़वाज से अलग अबुअय्यूब अन्सारी के घर में उन्हें उतारा जहां ख़ुद आपने हिजरत के बाद सबसे पहले क्याम फ़रमाया था। मारिया की इताअत , फ़रमां बर्दारी ख़िदमात , हुस्ने इक़लाक़ और हुस्ने सलूक की वजह से आन हज़रत (स.अ.व.व.) का इलतेफ़ात उनकी तरफ़ से ज़्यादा था इसलिये आयशा और हफ़सा जो हज़रत उमर की बेटियां थीं मरारिया की तरफ़ से अपने अपने दिलों मे नफ़रत , अदावत , बुग़ज़ और रशक व हसद रखती थीं और आन हज़रत (स.अ.व.व.) का वहां आना जाना उस पर बेहद शाक़ गुज़रता था।

एक मर्तबा आन हज़रत (स.अ.व.व.) के पास कहीं से शहद आया आपने उसे मारिया के सुपुर्द कर दिया और जब वहां तशरीफ ले जाते तो थोड़ी देर तक ठहर कर शहद नोश फ़रमाते और मारिया से बातें करते। आयशा और हफसा को जब आपकी शहद नोशी का हाल मालूम हुआ तो दोनोंम ने बाहम मशविरा करके यह मनसूबा बनाया कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) की शहद नोशी ख़तम की जाये ताकि आपका वहां जाना छूटे। चुनानचे एक दिन मारिया के घर से शहद नोशी के बाद जब आप आयशा के याहं तशरीफ़ लाये तो उन्होंने आपरकी नाक बन्द की। आप सख़्त मुतअज्जिब हुए और फ़रमाया कि मैने तो सिर्फ शहद पिया है! कहा , फिर शहद की मक्खियों ने मग़ाफ़ीर के फूल चूसे होंगे। उसके बाद आप हफ़ास के यहां गये तो उन्होंने भी यही हरक तकी और आन हज़रत (स.अ.व.व.) लसे लड़ने झगड़ने लगीं। आपने फ़रमाया , अच्छा मैं आज से वह शहद नहीं पियूंगी। मगर यह मारिया को न मालूम हो वरना उसकी ख़ातिर शिकनी होगी। हफ़सा अपनी हमराज़ हज़रत आयशा से कब यह बात छिपाने वाली थीं , जैसी ही आन हज़रत तशरीफ ले गये फ़ौरन उठीं और जा कर हज़रत आयशा से सब कुछ जड़ दिया और यह मुज़दा सुनाया कि आज से पैग़म्बर (स.अ.व.व.) का शहद के बहाने मारिया के यहां जाना छूटा।

इस वाक़िये के दो ही चार दिन बाद एक दूसरा वाक़िया ज़ूबहर पजीर हुआ और वह यह कि जनाबे हफ़सा अपनी बारी के दिन अपने मैके चलीं गयीं आन हज़रत (स.अ.व.व.) तमाम ज़रूरी अमूर से फ़ारिग़ हो कर रात में जब हफ़ासा के घर आये तो आपने वही आराम फ़रमाया और मारियो को अपनी ख़िदमत में तलब कर लिया। हफ़सा दूसरे दिन जब पलट कर आयी तो आयशा की ज़बानी उन्हें पैगम़्बर (स.अ.व.व.) और मारिया के इस्तराहात का हाल मालूम हुआ। फिर क्या था ? वह आन हज़रत (स.अ.व.व.) पर चढ़ दौडी और थिरक धिरक गुस्ताख़ाना लहजे में कहने लगीं कि आपने मेरी इज्ज़त व हुरतमत का भी ख़्याल न किया और एक कनीज़ को मेरे बराबर कर दिया। गज़ब ख़ुदा का मेरा ही घर , मेरा ही बिस्तर मेरी ही बारी और वह कनीज़! ग़र्ज़ की आपने ऐसा हंगामा बरपा किया कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) को यह कहना पड़ा कि मै आइन्दा मारिया की तरफ़ से मोहतात रहूँगा मगर तुम इस राज़ को किसी पर ज़ाहिर न करना। यह कहकर पैग़मबर (स.अ.व.व.) घर से बाहर निकले उधऱ आप आयशा के घर पहुँचे और उनसे सारा हाल ब्यान कर दिया कि आज मैंने यह कारे नुमाया अन्जाम दिया है।

हज़रत हफ़सा की इस हरकत से आन हज़रत (स.अ.व.व.) को इस क़दर दिली सदमा पहुँचा कि आपने उन्हें तलाक दे दी और उन्तीस दिन तक जौजा के क़रीब नहीं गये यहां तक कि साहाब में यह ख़बर मशहूर हो गयी कि हुज़ूरे अकरम (स.अ.व.व.) ने तमाम अज़वाज को तलाक़ दे दी। 1 कुरान मजीद में सूरये तहरीम का नूज़ुल उन्हीं वाक़ियात का नतीजा है 2।

जंगे मौता

इस जंग की इजमाली क़ैफियत यह है कि रसूले अकरम (स.अ.व.व.) ने इस्लाम दावत देने के लिये दीगर सलातीन व उमरा की तरह शाम के ईसाइ फ़रमानंरवां शराजील बिन अम्र के पास भी हारिस इब्ने अमीर को अपना सफ़ीर बना कर भेजा जिसे शराजील ने मौता के मुक़ाम पर क़त्ल कर दिया। शराजील का यह जारहाना इक़दाम इस्लामी तौहीन के साथ साथ बैनुल अक़वामी कानून की ख़िलाफ़वर्ज़ी पर मुबनी था इसलिये आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने उसकी तरफ़ एक लश्कर भेजने का फ़ैसला किया और तीन हज़ार मुस्लम जाँबाज़ों को अपने गुलाम ज़ैद की क़यादत में मौता की तरफ़ रवाना कर दिया नीज़ उसके साथ यह ताकीद व हिदायत भी फ़रमा दी कि अगर ज़ैद इस लड़ाई में शहीद हो जायें तो उनके बाद जनाबे जाफ़र इब्ने अबुतालिब (अ.स.) फिर उनके बाद अब्दुल्लाह इब्ने रवाहा अलमब्रदारी व सिपेह सलारी के फ़राएज़ अन्जमा दें। चुनानचे जब यह मुख़तसर सी इस्लामी फौज़ मौता पहुँची तो मालूम हुआ कि शराजील ने तीन हज़ार के मुक़ाबले में एक लाख का लश्कर जमा कर रखा है लेकिन चूँकि हुक्मे रसूल था इस लिये क़सरत का लिहाज़ न करते हुए ज़ैद ने जंग की और चालिस दुश्मनों को मौत के घाट उतारने के बाद दर्जे शहादत पर फ़ाएज़ हुए। उनके बाद हस्बे ताक़ीद पैग़म्बर (स.अ.व.व.) हज़रत जाफ़रे तय्यार ने लश्कर का अलम संभाला और दुश्मनों पर टूट पड़े। सत्तर आदमियों को क़त्ल करने के बाद आपका दाहिना हाथ क़लम हुआ। अलम को आपने दांतो से थाम कर बायें हाथ से हमला किया और फिर कुछ को ठिकाने लगाया बिल आख़िर बायां हाथ भी क़ता हो गया और चूंकि सर से पांव तक आपके जिस्म पर तीरों , तलवारों और भालों के नब्बे ज़ख़्म कारी लग चुके थे और काफ़ी खून बह चुका थे इसलिये नातवानी कि बिना पर आप फ़ऱ्शे ख़ाक कर बैठ गये और एक शकी ने तलवार मार कर आपके दो टुकड़े कर दिये। मोअर्रिख़ीन का कहना है कि आपकी पुश्त पर कोई ज़ख्म नहीं थी। यह इस बात का सुबूत है कि वक़्ते आख़िर तक आपने मैदान से मुहं नहीं मोड़ा। आपके बाद अलमदारी के फ़राएज़ अब्दुल्लाह इब्ने रवाहा ने अन्जाम दिये और बहोतों को मार कर वह भी शहीद हुए। जब मुसलमानों ने यह हाल देखा तो वह एक दम से लश्करे ग़नीम पर टूट पड़े और इस तरह लड़े कि उन्हें पसपा कर दिया। अल्लामा दयार बकरी का कहनाहै कि ख़ातमये जंग पर अहले इस्लाम हज़रत जाफ़रे तय्यार की लाश को अपने साथ मदीने ले आये थे जो बादे नमाज़ वहीं पर दफ़्न कर दी गयी। वक़्ते शहादत हज़रत जाफ़रे तय्यार की उमर 41 साल की थी। आन हज़रत (स.अ.व.व.) का क़ौल है कि ख़ुदा ने दोनों हाथों के एवज़ जाफ़रे तय्यार को ज़मर्रूद के दो पर अता फ़रमाये हैं और वह मलाएका के साथ बेहिश्त में परवा़ किया करते हैं। यह जंग मुसलमानों ने जमादुल अववल सन् 8 हिजरी में लड़ी और बारह सहाबी दर्जें शहादत पर फ़ाएज़ हुए।

फ़तहे मक्का

हुदैबिया में कुरैश और अहले इस्लाम के दरमिया जो मुहायिदा हुआ थआ उसमें यह शर्त भीथी कि दोनों फ़रीक़ दस बरस तक जंग व क़ताल से किनारा कश रहेंगे और उनकेसाथ उनके हलीफ़ भी इस मुहायिदे की पाबन्दी करेंगे और अगर किसी फ़रीक़ या उसके हलीफ़ ने कोई ख़िलाफ़वर्ज़ी की तो दूसरी फ़रीक़ मुहायिदे सुलहा का पाबन्द नहीं रहेगा।

कुरैश के हलीफ़ क़िबला बनुबकर और मुसलमानों के हलीफ़ बनुख़ज़ाआ में पहले से रंजिश व चुपक़लिश चली आ रही थी और दोनों क़बीले आपस में लड़ते भिड़ते रहते थे। मगर कुरैश और मुसलमानों की बाहमी जंगो की वजह से उनकी आपस की लड़ाइयां कुछ अरसे तक मुलतवी थी और दोनों अपने अन्दरूनी अख़तेलाफ़ात को नज़र अन्दाज़ करके मुसलमानों के मुक़ाबले के मुत्ताहिद हो चुके थे।

क़ुरैश और अहल इस्लाम के दरमिया जब एक तवील अरसे के लिये मुहायिदा हो गया तो एक रात बनुबकर ने बनुख़ज़ाआ पर हमला करके उन काएक आदमी मार डाला जिसकी वजह से दबी हुई रंजिश फिर उभर आई और दोनों क़बीलों के दरमियान जंग के शोले फिर भड़कने लगे। अगर चे बनुख़ज़आ किसी तरह कमज़ोर न थे और बनुबकर के लिये बहुत काफ़ी थे मगर कुरैश ने बनुबकर को हथियार बहम पहुँचाये और अकरमा बिन अबुजहल , सफ़वान इब्ने उमय्या और सहल इब्ने अम्र , जिन्होंने कुरैश की तरफऱ़ से सुलेहनामा पर दस्तख़त किये थे , बनुबकर के साथ शामिल होकर बनुख़ज़ाआ से जंग करते रहे। यहां तक कि बनुख़ज़ाआ ने अपनी जानें बचाने के लिये ख़ान-ए-काबा में पनाह ली मगर हरम की ज़मीन भी उनमें से चालिस आदमियों का एक वफ़द अम्र बनि सालिम की सरबराही में मदीने आया और पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) को कुरैश की बदअहदी और अपनी तबाही व बरबादी का हाल सुनाया।

बनुख़ज़ाआ की फ़रयाद पर आँहज़रत (स.अ.व.व.) ने उनकी मदद का वादा फ़रमाया और कुरैस को पैग़ाम भिजवाया कि वह बनुख़ज़ाआ के मक़तूलीन का ख़ून बहा अदा करें या बनुअकरमां की हिमायत से दस्तबरदार हो जायें और अगर इन दोनों बातों सेकोई बात उनके लिये क़ाबिले कुबूल न हो तो मुहायिदे सुलहा को ख़त्म समझें। कुरैस ने उन दोनों बातों के मानने से इन्कार कर दिया और साफ़ साफ़कह दिया कि हम न ख़ून बहा अदा करेंगे और न बनुबकर की हिमायत से दस्तबर्दार होगें। कुरैश की शोरिदा सरी के नतीजे में आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने ऐलान कर दिया कि अब हमारे और कुरैश के दरमियन कोई मुहायिदा नहीं रहा।

इस ऐलान के बाद कुरैश में ख़लबली मच गई और अहद शिकनी के हौलनाक नताएज उनकी नज़रों के सामने रक्स करने लगे। यह देखते हुए कि मुसलमानों से मुक़ाबिला उनके बस से बाहर है उन्होंने मुहायिदा सुलह को बऱरार रखना चाहा चुनानचे उन्हों अबुसुफ़ियान को मदीने भजा ताकि वह हिकमते अलमी से काम लेकर मुहायिदे की तजदीद करायें।

जब अबुसुफ़िान मदीने आया तो वह सबसे पहले अपनी बेटी उम्मे हबीबा के घर गया जो रसूल (स.अ.व.व.) के हरम में दाख़िल थी। उम्मे हबीबा ने अपने बाप को देखा तो पैग़म्बर (स.अ.व.व.) का बिस्तर तह कर दिया। अबुसुफ़ियान ने बेटी के इस तर्ज़े अमल को देखा तो कहा , क्या में इस बिस्तर पर बैठने के क़ाबिल नहीं हूँ ? उम्मे हबीबा ने कहा यह पैग़म्बर (स.अ.व.व.) का बिस्तर है और तुम मुशरिक हो लेहाजा़ मुझे यह गवारा नहीं कि तुम इस बिस्तर पर बैठो। अबुसुफ़ियान मुंह बिसूर कर रह गया और वहां से चल कर आन हड़रत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और तजदीदे मुहायिदा की ख़्वाहिश का इज़हार किया। जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया तो वह अबुबकर के पास आये और कहा आप रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) से हमारी सिफ़ारिश कीजीये। अबुबकर ने अपनी माज़ूरी ज़ाहेर की। तो वह हज़रत उमर के पास आया मगर उन्होने भी उसे कोई उम्मीदे अफ़ज़ां जवाब नहीं दिया। बहरहाल जब वह हर तरफ़ से मायूस हो गया तो हज़रत अली (अ.स.) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और उनसे कहा कि आप पैग़म्बर (स.अ.व.व.) से हमारी सिफ़ारिश कर दें। हज़रत अली (अ.स.) ने कहा , रसूल उल्लाह जो इरादा कर चुके हैं उसमें दख़ल अन्दाज़ी का हक़ किसी को नहीं हे लेहाज़ा हम उनसे कुछ नहीं कह सकते। जनाबे फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) भी उस मौक़े पर वहाँ तशरीफ़ फ़रमां थी , अबुसुफ़ियान ने उनसे कहा ऐ दुख़्तरे रसूल (स.अ.व.व.) ! अगर आप अपने बेटे हसन (अ.स.) को हुक्म दें कि वह पैग़म्बर (स.अ.व.व.) से इतना कह दे कि मैंने दोनों फ़रीक़ में बीच बचाव करा दिया है तो वह रहती दुनियां तक सरदारे अरब कहलायेंगे। जनाबे फ़ात्मा (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया कि हसन (अ.स.) अभी बच्चे हैं और एक बच्चे की बातों से क्या सरोकार है ? अबुसुफ़ियान को जब कामयाबी की कोई सूरत नज़र न आई तो उसने हज़रत अली (अ.स.) से कहा कि अगर आप कुछ नहीं कर सकते तो मुझे मशविरा दीजिये कि मैं क्या करूँ ? फ़रमाया , तुम खुद ही एक तरफ़ा तजदीदे सुलह का ऐलान करके मक्के वापस चले जाओ। उसने कहा इस ऐलान से हमें कुछ फ़ायदा होगा ? फ़रमाया कुछ नहीं कहा जा सकता! कहा अच्छा , मैं फिर यह ऐलान किये देता हूँ। चुनानचे उसने मस्जिद नबवी में खड़े होकर कहा (मै दोनों फ़रीक़ीन के दरमियान मुहायिदे सुलहा की तजदीद करता हूँ। यह कहकर वह मक्के वापस चला गाय।

जब अबुसूफियान मक्के पहुँचा तो कुरैश ने पूछा , क्या कारनामा अन्जाम दे कर आये हो ? उसने सारा वाक़िया ब्यान किया और कहा कि अली (अ.स.) के मशविरे पर मैने तजदीदे मुहायिदे का ऐलान कर दिया है। कुरैश ने पूछा , क्या मुहम्मद (स.अ.व.व.) ने भी उसे तस्लीम किया है ? कहा नहीं। उस पर लोगो ने कहा कि तुम कितने लड़े बेवकूफ हो , होशो हवास रखते हुए भी यह न समझ सके कि यकतरफ़ा ऐलान कोई मने रखता है जब तक दूसरा फ़रीक़ उसे तस्लीम न करे। अली (अ.स.) ने तुम्हारे साथ बड़ा शाइस्ता मज़ाक़ किया है जिसका कोई फ़ायदा हमेंनहीं पहुँच सकता।

कुरैश और बनुबकर के मज़ालिम , तशद्दुद , खूँरेज़ी और बदअहदी से पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) बहुत मुतासिर और कबीदा ख़ातिर थे। और मुहायिदेकी रू से इस बात के पाबन्द थे कि आप बनुख़ज़ाआ की मदद फ़रमाते चुनांचे आपने अहले मदीने को जंग की तैयारी का हुक्म दिया और बैरूने मदीने के मुसलमानों को भी यह पैग़ाम भिजवाया कि वह जंगी हथियारों के साथ फ़ौरी तौर पर मदीने पहुँचे।

चारों तरफ़ से लोग सिमट कर मदीने में जमा होने लगे मगर किसी को यह नहीं मालूम था कि कौन सी मुहिम दरपेश है , कहाँ जाना है और किससे मोर्चा लेना है ? क्योंकि आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने इस अमर का पूरा एहतराम किया था कि अहले मक्का को ख़बर न होने पाये और मुसलमान यकबारगी उनके सरों पर पहुँच जाये। सहाबा में जिन्हें मालूम हो चुका था कि मक्के पर चढा़ई का इरादा है उन्हें भही आन हज़रत (स.अ.व.व.) की तरफ़ से यह ताक़ीद फ़रमां दी गई थी कि वह उसे मुक़म्मल तौर पर पोशीदा रखें और किसी से इसका तज़किरा न करें। मगर हातिब इब्ने बलता नामी एक शख़्स ने जिसके बाल बच्चे मक्के में थे सुराग़ लगाया और उसने अम्र इब्ने अब्दुल मुत्तालिब की एक कनीज़ सारा को एहले मक्के पर हमले की तैयारियों से मुतालिक़ एक ख़त लिख दिया और कहा कि वह इस ख़त को कुरैश तक पहुँचा दे। आन हज़रत (स.अ.व.व.) को वही के ज़रिये उसकी इत्तेला बहम पुहँचायी गयी। आपने फ़ौरन हज़रत अली (अ.स.) और जुबैर बिन अवनाम को उस कनीज़ के ताअक़्कुब में रवाना किया कि वह उसे जहां पायें गिरफ़्तार करके ले आयें। अभी वह वादी हलाफ़ तक पुहँची थी कि गिरफ़्तार कर ली गई। दरयाफ़्त करने पर उसने बताया कि मेरे पास कोई तहरीर नहीं है। जुबैर ने उसके सामान को देखा भाला मगर उसमें कुछ न निकला। हज़रत अली (अ.स.) ने फ़रमाया कि हमें रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ख़बर दे चुकें है इसलिय ऐसा हो ही नहीं सकता कि इसके पास कोई ख़त न हो ये कह कर आपने सख़्ती के सात उससे ख़त का मुतालिबा किया और कहा कि तुम ने ज़रा भी हील व हुज्जत से काम लिया तो हम तुम्हारी जामा तलाशी लेने पर मजबूर होंगे। इस धमकी का नतीजा यह हुआ कि उसने अपने बालों के जूड़े से एक ख़त निकाल कर पेश कर दिया। हज़रत अली (अ.स.) उसे ख़त समैत लेकर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाज़िर हुए और उसने आन हज़रत (स.अ.व.व.) से सारी सरगुज़श्त ब्यान कर दी। हुजूरे अकरम (स.अ.व.व.) ने तमाम असहाब को जमा करके फ़रमाया कि मैंने तहक़दन कह दिया था कि इस इक़दाम को मग़फ़ी रखा जाये मगर तुममें से एक शख़्स ने इस राज़ को फ़ाश करने की नाका़म कोशिश की है लेहाज़ा जिसने यह नामुनासिब हरकत की है वह ख़ुद ही बता दे वरना वह रूसवा हुए बग़ैन नहीं रह सकेगा। हातिब ने यह सुना तो वह लरज़ता कांपता खड़ा हुआ और उसने अपनी इस ग़लती का एतराफ़ कर लिया। ऐसे ही मवाक़े हुआ करते थे कि हज़रत उमर की ग़ैरते ईमानी जोश मे आती थी चुनानचे उस मौक़े पर भी आपने फ़रमाया (या रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ! मुझे इजाज़त दीजिये कि मैं इसकी गर्दन उड़ा दूँ क्योंकि ये मुनाफ़िक है। 1 मगर पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) ने दरगुज़र से काम लिया और उसे माफ़ कर दिया।

दसवीं माहे रमज़ान सन् 8 हिजरी को हज़रत रसूले खुदा (स.अ.व.व.) दस हज़ार मुसल्लह मुसलमानों के साथ मदीने से निकल खड़े हुए। चा सौ सहाबा घोड़ों पर सवार आपके इर्द गिर्द थे बाक़ी लोग पैदल चल रहे थे। जब मंज़िल व मंज़िल बढ़ते हुए (सनितुल एक़ाब) तक पहुँचे तो उम्मे रसूल (स.अ.व.व.) , अब्बास इब्ने अब्दुल मुत्तालिब अफन अहले अयाल के साथ पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाजिर हुए , उन्होने अपने मुतालेक़ीन को मदीने भिजवा दिया। और खुद आन हज़रत (स.अ.व.व.) के साथ हो गये। आगे बढ़कर मक्के से बाहर मील की दूसीर पर आन हज़रत अ(स.अ.व.व.) ने पड़ाव डाला।

उसके बाद अब्बास , आन हज़रत (स.अ.व.व.) के ख़च्चर पर सवार होकर इस ख़्याल से बाहर निकले कि अगर कोई आदमी मिल जाए तो इसके ज़रिया कुरैश को यह पैग़ाम भिजवाये कि वह रसूले ख़ुदा की ख़िदमत में हाज़िर हो कर अमान की दरख़्वास्त करें और इस्लाम कुबूल करके अपनी जानों का तहफ़्फुज़ कर लें। बुसुफियान के मदीने से नाकाम आने के बाद कुरैश को यह एहसास था कि मुसलमान उन्हें अहद शिकनी की सज़ा देने के लिये कोई न कोई क़दम ज़रुर उठायेंगे इसलिये वह अक़सर रातों को मक्के के गिर्द चक्र्कर लगाते और हालात पर नज़र रखने के लिये गश्त करते थे। चुनानचे अबुसुफियान , हकीम बिन ख़राम और बदील इब्ने बरक़ा इसी मक़सद के तहत मक्के के इतराफ़ में गश्त लगा रहे थे कि वह लोग एक तरफ़ आग की रौशनी और फ़ौजियों की नक़ल व हरकत देखकर हैरत ज़दा रह गये।

अभी यह लोग क़्यास आराइयाँ कर ही रहे थे कि अब्बास से मुलाक़ात हो गयी। अबुसुफ़ियान ने पूछा कि तुम्हें मालूम है कि यह फौज़े कैसी हैं ? कहा , यह अज़ीम फ़़ौजे पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) के अलावा और किसी की हो सकती हैं , आन हज़रत (स.अ.व.व.) दस हज़ार मुसल्लह मुसलमानों के साथ मक्के की तरफ़ बढ़ रहे हैं और सुबह होते ही हमला आवर होंगे जिसके नीतजे में तुम में से कोई शख़्स ज़िन्दा नहीं बच सकेगा। ये सुनकर अबुसुफ़ियान के होश उड़ गये और वह कांपने लगा। उसने अब्बास इब्ने अब्दुल मुत्तालिब से कहा कि अब हमे बचाओ की क्या सूरत हो सकती है ? अब्बास ने कहा तुम मेरे पीछे सवारी पर बैठ जाओ और चलो , मैं आन हज़रत (स.अ.व.व.) से कह सुनकर तुम्हें अमान दिला दूँगा।

जब अब्बास इब्ने अब्दुल मुत्तालिब अबुसुफ़ियान को लिये हुए लश्करे इस्लाम के दरमियान से ग़ज़रे तो हज़रत उमर ने अबुसुफ़़ियान को देख लिया , वह भागते हुए रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) के पास गये और कहा या रसूल उल्लाह! अबुसुफ़ियान हमारे लश्कर के दरमियान है , यह मौक़ा बहुत अच्छा है अगर आप इजाज़त दें तो मैं इसकी गर्दन मार दूँ। अब्बासने हज़रत उमर की यह गुफ़्तगू सुनी तो उन्होंने कहा , ऐ उमर! अगर अबुसुफ़ियान तुम्हारे क़बीले बनि अदी से होता तो तुम कभी ऐसी बात न कहते 1। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने अब्बास से फ़रमाया कि आज की रात उसे अपने ख़ेमें में ठहराओ और कल सुबह मेरे पास ले आओ। दूसरी सुबह को उसे रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाज़िर किया गया। आपने फ़रमाया , ऐ अबुसुफ़ियान! क्या तुम्हें अब भी मालूम नहीं हुआ कि अल्लाह के सिवा कोई दूसरा माबूद नहीं है ? कहा , अगर अल्लाह के अलावा कोई और माबूद होता तो वह इस आड़े वक़्त मे मेरे काम ज़रुर आता। फ़रमाया कि क्या तुमने अब नहीं पहचाना कि मैं अल्लाह का रसूल हूँ ? कहा इसके बारे में मेरा ज़ेहन साफ नहीं है। अब्बास ने कहा ऐ अबुसुफ़ियान अगर अपनी जान की ख़ैर चाहते हो तो इस्लाम क़ुबूल कर लो वरना किसी के हाथ से मारे जाओगे।

जब अबुसुफ़ियान को मुसलमान हुए बगै़र अपनी जान बचती हुई नज़र न आई तो बा हालते मजबूरी उसने बज़ाहिर कलमा पढ़ लिया और मुसलमानों की सफ़ में शामिल हो गया। अब्बास ने सिफ़ारिश की कि या रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ! अबुसुफियान , मिज़ाजन और फ़ितरतन जाह पसन्द है इस लिये इसको कोई इम्तिया़ज़ी हैसियत देकर इसकी दिल जुई की जाये। आपने फ़रमाया , जो अबुसुफ़ियान के घर में पनाह लेगा उसे भी अमान दी जायेगी नीज़ जो अपने घरों का दरवाज़ा बन्द करेगा वह भी महफूज़ रहेगा।

अबुसुफ़ियान जब मुसलमान होकर मक्के में आया तो कुरैश ने हालात मालूम करने के लिय उसे चारों तरफ़ से घेर लिया। उसने बताया कि मुहम्मद (स.अ.व.व.) एक लश्करे ज़र्रार लेकर आये हैं तुम लोग उनका मुकाबिला नहीं कर सकते लेहाज़ा बेहतर है कि इस्लाम कुबूल कर लो वरना सब के सब मारे जाओगे। इकी बीवी हिन्द बिन्ते अतबा ने जब यह सुना तो आगे बढ़कर उसने अबुसुफ़ियान की दाढ़ी पकड़ी और कहा ऐ लोगों! इस बूढ़े अहमक़ को क़त्ल कर डालो। अबुसुफ़ियान ने कहा याद रखो अगर तुमने इस्लाम लाने में ज़रा भी पसो पेस की तो तुम्हारी भी गर्दन उड़ा दी जाएगी।

कुरैश अभी सोच ही रहे थे कि क्या करना चाहिए किचारों तरफ़ इस्लाम के परचम लहराने लगे और देखते ही देखते मक्के की फज़ा पर छा गये। हज़रत अली इब्ने अबुतालिब (अ.स.) हाथ में अलम लिये और लश्कर की क़यादत करते हुए बड़ी शाने बेनियाज़ी के साथ दाख़िले मक्का हुए।

कुरैश में इतनी ताक़त व कुव्वत न थी कि वह मुसलमानों के इस बढ़ते हुए सेलाब को रोकते लेहाज़ा अपने घरों में दबक कर बैठ गये और कल जिन लोगों के लिये मक्के के दरवाज़े बन्द किये थे आज उनके लिये फ़तह व कामरानी के दरवाज़े खुल गये। यह इस्लाम की अमन पसन्दी और हक़ व सिदाक़त की फ़तह थी जिसमें न जंग की नौबत आई और न जंग की ज़रुरत महसूस की गई। मगर हर जमाअत में कुछ अफ़राद ऐसे भी होते हैं जिनकी उफ़तादें तबियत अनम पसन्दी के ख़िलाफ़ होती है और वह ज़रुरत हो या न हो सख़्ती व तशद्दुद का मुज़ाहेरा किये बगै़र नहीं रहते चुनानचे ख़ालिद इब्ने वलीद जो फ़तहे मक्का से कुछ ही पहले मुसलमान हुए थे और हिस्से से आगे बढ़ते वक़्त अपने साथियों के साथ क़बीला बनुबकर पर हमला आवर हो गये और उन्होंने जंग छेड़ दी। कोहे हजून से गुज़रते हुए पैग़मबरे इस्लाम (स.अ.व.व.) ने जब तलवारों की चमक देखी तो सख़्त बरहम हुए और फ़रमाया कि इस कुश्त व खून को फ़ौरन बन्द किया जाये मगर इतने में बनुबकर के मुत्ताइद आदमी मारे जा चुके थे। साहबे रौज़तुल सफ़ा ने सत्तर कुफ़्फ़ार और दस मुसलमानों का मारा जाना लिखा है।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) जब मक्के के बालाई सिमत से शहर में दाख़िल हुए तो उस वक़्त आप क़सूरा नामी एक नाक़े पर सवार थे। आप सीधे ख़ान-ए-काबा के पास आये और उसका तवाफ़ किया। तवाफ़ से फ़ारिग़ हुए तो देखा कि अमाएदीने कुरैश सर झुकाये खड़े हैं। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने उन से पूछा कि तुम लोग ख़ुद ही बताओ कि तुम्हारे साथ क्या सुलूक किया जाये ? उन लोगों ने कहा कि हम आपकी नसबी शराफ़त के पेशे नज़र सिर्फ़ भलाई की उम्मीद कर सकते हैं। आपने फ़रमाया , जाओ तुम सब आज़ाद हो तुम से कोई मवाख़िज़ा नहीं किया जायेगा।

यह पैगम़्बरे अकरम (स.अ.व.व.) की आला ज़रफ़ी , बुलन्द किरदारी और कुशादा नज़री का करिश्मा था कि जो लोग आपके ख़ून के प्यासे थे और हर वक़्त दुश्मनी व अनाद पर कमरबस्ता रहते थे वही हलक़े बगोशे इस्लाम होकर आपका कलेमा पढ़ने लगे और कल का यतीन न सिर्फ उनके जिस्मों बल्कि उनके दिलों दिमाग़ और ज़मीर व विजदान पर भी हुकूमत करने लगा। कुरैस की धाक ख़त्म हो गई , कुफ़्र का शरीज़ा बिखर गया और इस्लाम का परचम सरज़मीने बतहा पर भी लहराने लगा।

मुशरेकीन का अन्जाम

फतहा मक्के के दौरान इस्लाम कुबूल करने वालों में अकसरियत ऐसे लोगों की थी जिन्होंने बेबस होकर जबरन व क़हरन इस्लाम कुबूल किया था , क्योंकि अक़ाएद व नज़रियात में यक लख़त तबदीली इन्सानी उफ़तादे तबआ के खिलाफ़ है। उन इस्लामी लवादा ओढ़ने वालों के अलावा कुछ लोग ऐसे भी थे जो अपने कुफ्र पर बज़िद थे और वक़्ती तौर पर मक्के से चले गये थे या इधर उधर रूपोश हो गये थे। यह लोग इस्लाम के लिये खतरनाक साबित हो सकते थे इसलिये ज़रुरत थी कि उन्हें संगीन सजा़यें दे कर फ़ितना व शर क उभरने से पहले उसे हमेशा के लिये दबा दिया जाये। पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) ने अगर अमूमी तौर पर अमान का ऐलान कर दिया था मगर चन्द फ़ितना परदाज़ों के बारे में यह हुक्म भी दिया था कि उन्हें जहाँ पाओ क़त्ल कर दो। चुनानचे उन अफ़राद में से अब्दुल्लाह बिन हन्ज़ल और उसकी कनीज़ जो रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) की हजो गाया करती थीं , हबेरिस इब्ने मुक़ीस इब्ने सबाबा अपने कैफ़रे किरदार तक पहुँचाये गये और कुछ लोगों की जान बख़्शी भी की गयी! जैसे कि अब्दुल्लाह इब्ने अबी सरह ने हज़रत उस्मान की पनाह हासिल कर ली और उन्हीं कि सिफ़ारिश पर उसे छोड़ दिया गया। अकरमा इब्ने अबुजहल यमन की तरफ़ भाग गया मगर उसकी बीवी उम्मे हकीम ने उसके लिये अमान की दरखरस्त की तो उसे भी अमान दे दी गई।

बुतों का अन्जाम

मुशरेकीन कुरैश के ज़ौके बुतपरस्ती ने ख़ान-ए-काबा को सनमकदा और सरज़मीने मकके को बुतोंका मसकन बना रखा था। कुरैस का सबसे बड़ा देवता हुबल था जो ख़ान-ए-काबा के अन्दर एक बुलन्द मक़ाम पर नसब था और उसके आस पास सैंकड़ों बुत एक दूसरे से जु़ड़े बन्दधे रखे थे और साल के 360 दिनों में हर एक दिन एक बुत की परस्तिश के लिये मख़सूस था। अहले मक्का की देखा देखी इतराफञ व जवानिब के लोग भी बुत परस्ती की तरफ़ माएल थे चुनानचे हज के मौसम में जब वह मक्के आते तो हरम से पत्थर उठा कर ले जाते और उन्हें बुतों की शक्ल व सूरत में तराश कर अपने यहां नसब कर लेते यहां तक कि तमाम अरब में बुत परस्ती आम हो गई और हर क़बीले ने अपने लिये अलहैदा अलहैदा बुत बना लिये। मक्के से एक मंज़िल के फ़ासले पर मुक़मे नख़ला में उज़्ज़ा की मूरती नसब थी जो कुरैश और बनि कुनान की अक़ीदत का मुश्तरिक मरकज़ थी। ताएफ में लात नसब था जो बनि सक़ीफ़ का देवता था , मदीने से कुछ फ़ासले पर मनात नसब था जो ऊस व खिज़रिज और ग़सान का देवता कहलाता था। क़बीलये हमदान नजरान में याकूक़ की पूजा करता था. यनी के अतराफ़ में बनि हज़ील का बुत सिवाअ नसब था और दूमताउल जन्दल में बनि कलब का देवता वुद था। इशी तरह मुख़तलिफ़ क़बीलों में मुख़तलिफ़ देवताओं और देवियों की पूजा होती थी। वह बुतपरस्ती उन बे जान और अक्ल व शऊर से आरीपत्थरोंको ख़ुदा का ख़ुदा का शरीकेकार समझते थे और उनके सामने गिड़गिड़ाते , झोलियां फैलाते और मुरादें मांगते थे और यह समझने से क़ासिर थे कि पत्थर आख़िर पत्थर है उसकीक्या ताक़त कि ये किीस को कुछ दे सके या किसी से कुछ ले सके।

मक्के पर फौज कशी का यह मक़सद हरगिज़ नहीं था कि पैगम़्बर अकरम (स.अ.व.व.) अपनी हुकुमत को वुसअत दें या फातेह व ताजदार कहलायें बल्कि आपका असल मक़सद बुत परस्ती को ख़त्म करके तौहीद का परचम बुलन्द करना था चुनानचे मक्के को ज़ेरे नगीं करने के बाद आपने सबसे पहले बुतों की शिकस्त व रेख़्त पर तवज्जो फ़रमायी और हजऱत अली (अ.स.) को अपने हमराह लेकर ख़ान-एकाबा में दाख़िल हुए। दरो दीवार पर बनी हुई फरिश्तों और नबियों की फ़र्ज़ी तस्वीरों को खुरच खुरच के मिटाया। फिर जहां तकहाथ पहुँच सकता था वहां तक रखे हुए बुतों को तोड़ा. हुबल और उसके साथ कई बड़े बड़े बुत एक बुलन्द मुक़ाम पर नसब थे जहां हाथ नहीं पहुँच सकता था , हज़रत अली (अ.स.) ने कहा या रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) आप मेरे कन्धों पर सवार होकर उन बुतों को नीचे उतारे , आप ने फ़रमाया ऐ अळी (अ.स.) तुम नबूवत का बोझ न उठा सकोगे लेहाज़ा बेहतर है कि तुम अपने पांव मेरे शानों पर रखकर खडे हो जाओ। ग़र्ज़ कि हज़रत अली (अ.स.) , रसूल (स.अ.व.व.) के कान्धों पर सवार हुए और ऊपर से बुतों को उठा उठा कर नीचे पटका। उस वक्त हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) ने हज़रत अळी (अ.स.) से पूछा , या अली (अ.स.) इस वक्त तुम अपने तई कैसा पाते हो ? कहा या रसूल उल्लाह! ऐसा लगता है कि तमाम पर्दे मेरी आँखों के सामने से उठ गये हैं और मेरा सर गोया अर्शे आज़म पर है और जिस चीज़ की तरफ़ हाथ बढ़ाता हूँ वह मेरे हाथ में आ जाती है। आपने फ़रमाया या अली (अ.स.) तुम्हें मुबारक हो कि तुम कारे ख़ुदा अन्जाम दे रहेहो और मुझे मुबारक हो कि मैं इस वक़्त बारे हक़ व इमामत उठाये हूँ।

हज़रत अली (अ.स.) जब सनमे अकबर हुबल को तोड़ने के बाद दोशे पैग़म्बर (स.अ.व.व.) से नीचे तशरीफ़ लाये तो आपने मुसकुराते हुए पैग़म्बर (स.अ.व.व.) से कहा , यार रसूल उल्लाह! मैं इतनी बुलन्दी से कूदा हूँ फिरभी मुझे हैरत है के मरे जिस्म पर कोई चोट तो क्या ख़राश तक नहीं आई। पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया , चोट क्यों कर आती ? अल्लाह के रसूल (स.अ.व.व.) ने तुम्हें बुलन्द किया है और जिबरील ने तुम्हें बाआफ़ियत उतारा है। दर हक़ीक़त यह अली (अ.स.) की मेराज थी जो साहबे मेराज के कान्धों पर हुई।

तहरीरे काबा के बाद आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने हज़रत अली (अ.स.) की क़यादत में चन्द लोगों को इतराफ़ व जवानिब के बुतों को तोड़ने के लिये भेजा और सारे बुत मिस्मार कर दिये गये। रफ़्ता रफ़्ता ज़ोहर का वक़्त हुआ , बिलाल ने सक़फ़े काबा पर खड़़े होकर अज़ान दी हज़रत (स.अ.व.व.) ने नमाज़े जमात पढ़ाई और खुतबा दिया।

बैयते आम

ख़ान-ए-काबा में बुत शिकनी और नमाज़े ज़ोहरैन अदा करने के बाद आन हज़रत (स.अ.व.व.) कोहे सफ़ा पर तशरीफ़ फ़रमां हुए , हज़रत अली (अ.स.) को अपने पहलू में बिठाया , हज़रत उमर नीचे खड़े हुए और बैयते आम का सिलसिला शुरू हुआ। चुनानचे पहले मर्दों ने बेयत की। एक एक शख़्स आन हज़रत (स.अ.व.व.) के सामने से गुज़रता जाता था और बैयत करता जाता था। उसके बात औरतों की बारी आई। उनकी बैयत इस तरह हुई कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने अपने देस्ते मुबारक पर कपड़ा लपेट लिया था ताकि किसी न महरम औरत का हाथ आपके हाथ से मस न हो।

मर्दों के आख़िरी सफ़ में आख़िरी शख़्स अबुसुफ़ियान का बेटा माविया था जिसने बैयत की और औरतों की आख़िरी सफ़ में हिन्द बिन्ते अतबा ज़ौज़ा अबुसुफ़ियान (जिगर ख़्वाजा हमज़ा) थी जो चन्द औरतों के साथ भेस बदल कर आई थी बेहद खौफ़ज़दा थी। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया कि मैं तुम औरतों से उन बातों के तहत बैयात लेता हूँ कि आज के बाद से तुम लोग किसी को ख़ुदा का शरीक नहीं करोगी , चोरी नहीं करोगी , जिना नहीं करोगी और किसी पर तोहमत व बोहतान नहीं लाओगी। मोअर्रिख़ज़ाकिर हुसैन ने हाशिये परतहरीर फरमाया है कि जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने हिन्द से कहा कि चोरी न करना तो उसने काह कि अबुसुफ़ियान एक बख़ी ल शख़्स है क्या उसका माल भी चोरी से न लूँ उस पर आन हजरत (स.अ.व.व.) ने उसे देख कर पहचान लिया और फ़रमाया कि क्या तू हिन्दा है ? हिन्द क़दमों में गिर पड़ी और कहा या रसूल उल्लाह! मेरा साबेक़ा कुसूर माफ़ कर दीजिये चुनानचे आपने उसका कुसूर माफ़ कर दिया।

वाक़-ए-ग़मीज़ा

फ़तेह मक्के के बाद हुज़ूरे अकरम (स.अ.व.व.) अभी मक्के ही में तशरीफ़ फ़रमां थे कि आपने मुख़तलिफ़ व फूद इतराफ़ व जवानिब इस ग़र्ज़ से रवाना किये कि वह लोगो को तालीमाते इस्लामी से आगाह करके उन्हें इस्लाम की दावत दें। इस सिलसिलेमें आप ने ख़ालिद बिन वलीद को भी तीन सौ पचास आदमियों की जमीअत के साथ बनि ख़ज़ीमा के पास भेजा और इस अमर की ताकद़ फ़रमायी कि वह किसी पर न हाथ उठायें और न किसी से लड़ाई झगड़ा करें बल्कि अपना दायराकार सिर्फ तबलीग़ तक महदूद रखें।

जहूरे इस्लाम के क़बल , ज़माने जाहेलियत में ख़ालिद का चचा फ़ाकेह इब्ने मुग़ीरा और अब्दुल रहमान का बाप औफ़ यमन से वापसी के दौरान बनि इब्ने मुग़ीरा और अब्दुल रहमान का बाप औफ़ यमन से वापसी के दौरान बनि ख़ज़ीमा के चन्द नौजवानों के हाथों मारे गये थे। कुरैश ने इन्तेक़ाम के लिये उन पर चढ़ाई की उन लोगों ने ख़ून बहा दे कर सुलह सफ़ाई कर ली थी और मामला रफ़ा दफ़ा हो गया था। ख़ालिद इब्ने वलीद वफ़िद की सरब्राही करते हुए जब वहां पहुँचे तो उनके इन्तेक़ामी जजबात एक दम से भड़क उठे चुनानचे वह मक्के से दो मंज़िल के फ़ासले पर चाहे ग़मीज़ा के क़रीब उतर पड़े। यह कुँआ बनि ख़जीमा की मिलकियत था और उसी के आस पास वह लोग आबाद थे। जब उन लोगों ने ख़ालिद को लशकर के हमराह अपने कुंओं के क़रीब पड़ाव डाले देखा तो उन्हें अन्देशा हुआ कि ख़ालिद कहीं इन्तेक़ाम के लिये जंग न छेड़ दे। लेहाज़ा उन्होंने हिफ़ाज़त खुद अख़तेयारी के तहत हथियार बांध लिये। ख़ालिद न उन्हें मुसल्लेह देखा तो पूछा तुम लोग कौन हो ? कहा , हम मुसलमान हैं , हमने अपनी आबादी में मस्जिद बना रखी है जिसमें अज़ानें देते हैं और नमाज़े पढते हैं। ख़ालिद ने कहा जब तुम मुसलमान हो तो ये हथियार क्यों बान्ध रखे हैं ? कहा हमने यह हथियार इसलिए बान्धे हैं कि साबेक़ा दुश्मनी कि बिना पर कहीं तुम जंग व क़ताल पर न उतर आओ। ख़ालिद ने ने कहा तुम लोग इत्मिनान रखो हम जंग की ग़र्ज़ से नहीं आये हैं और न जंग करेंगे. अपने यह हथियार उतार कर रख दो। उन्होंने कहा कि जब हम मुसलमान हैं तो अल्लाह और उसके रसूल (स.अ.व.व.) के ख़िलाफ़ कोई क़दम नहीं उठायेंगे। 1 यह कहकर उन्होंने हथियार उतारना चाहा तो उन्हीं में से एक शख़्स हजदम ने कहा कि ग़ैर मुसल्लह होने से पहले ये सोच लो कि ख़ालिद तुम्हें मौत के घाट उतार देगा। मगर उन लोगों ने कहा कि जाहेलियत और जंग वजदल का दौर ख़त्म हो चुका है , वह भी मुसलमान है और हम भी इस्लाम ला चुके हैं और इस हैसियत से हम एक दूसरे के भाई हैं लेहाजा़ अपनों से ख़तरा और अन्देशा कैसा। ग़र्ज़ सभों ने हथियार उतार कर रख दिये और बेदस्त व पा हो गये तो ख़ालिद ने अपने हमराहियों को हुक्म दिया कि सबको ग़िरफ़्तार कर लो और उनके हथियार छीन लो। चुनानचे उन्हे रस्सियों में जकड़ कर उनके हथियार लेलिये गये और फिर एक एक करके उन्हें क़त्ल कर दिया गया। अब्दुल रहमान बिन औफ़ जो इस मुहिम में शरीक थे ख़ालिद की इस ग़द्दारी और इक़दामे क़त्ल पर बहुत बिग़डे और दोनों के दरमियान तकरार शुरू हो गई। अब्दुल रहमान ने कहाः- तुमने दौरे इस्लाम में दौरे जाहेलियत की हरकत की है। ख़ालिद ने कहा , मैंने तुम्हारे बाप औफ़ का इन्तेका़म लिया है। अब्दुल रहमान ने कहा तू झूट कहता है मैंने ख़ुद अपने बाप के क़ातिल को क़त्ल कर दिया था यह तू ने अपने चचा फ़ाकेह इब्ने मुग़ीरा के ख़ून का बदला लिया)। 1 याकूबी का ब्यान है कि (अब्दुल रहमान इब्ने औफ़ ने कहा कि ख़ुदा की कसम ख़ालिद ने उन लोगों को तहे तेग़ किया जो इस्लाम ला चुके थे। ख़ालिद ने उन से कहा , मैंने तुम्हारे बाप औफ़ के इन्तेका़म में उन्हें क़त्ल किया है , अब्दुल रहमान ने कहा ऐसा नहीं है बल्कि तुम ने अपने चचा फ़ाकेहा इब्ने मुग़ीरा का बदला लिया है। 2

जब पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) को इस इजतेमाई क़त्ल का हाल मालूम हुआ तो आपको बहुत सदमा पहुँचा। आप क़िबलये-रू खड़े हुए और अपने हाथों को ज़ेरे आसमान बुलन्द करके तीन मर्तबा फरमायाः-

(ख़ुदा वन्दा! मैं तेरी बारगाह में ख़ालिद बिन वलीद के इस फ़ेल से इज़हारे बेज़ारी करता हूँ-

ख़ालिद इब्ने वलीद का यह इक़दाम सरासर इस्लामी तालीमात के मुनाफ़ी था। इस्लाम इसका क़तअन रवादार नहीं है कि बिला वजह किसी काफ़िर को भी क़त्ल किया जाये अगर मैदाने जंग में कोई काफिर तलवार देख कर कलमा पढ़ ले तो इस्लाम उस पर भी हमला आवर होने की इजाज़त नहीं देता चुनानचे उसमा बिन ज़ैद ने एक मुहिम में एक ऐसे शख़्स को क़त्ल कर दिया जिसने तलवार को देखकर कलमा पढ़ लिया था जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) को मालूम हुआ तो आपने उसामा की सरज़निश की। उसामा ने कहा उसने तलवार के डर से कलमा पढ़ लिया था। फ़रमाया , क्या तुमने उसके दिल में झांक कर देखा था ? यह जानके कि वह मुसलमाल जो मस्जिद तामीर करके अज़ाने देते और नमाज़ें पढ़ते हों उनसे फ़रेब कारी और ग़लत ब्यानी करके हथियार रखवाये जायें और फिर दौरे जाहेलियत के ख़ून का बदला लेने के लिये उनके ख़ून से होली खेली जाये। हालाँकि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने फ़तहे मक्के के मौक़े पर दौरे जाहेलियत के क़त्ल के इन्तेका़म को ख़त्म करते हुए साफ़ तौर पर यह फरमां दिया था कि ज़मानये जाहेलियत के ख़ून का इन्तेका़म , क़ौमी मुफ़ाख़िर और खून बहा मैंने अपने क़दमों के नीचे रौन्द डाले हैं।)

ग़र्ज़ की ख़ुदा की बारगाह में ख़ालिद बिन वलीद की तरफ़ से इज़हारे बज़ारी के बाद आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने हजरत अली (अ.स.) को तलब फ़रमाया और उनसे कहा कि तुम यमन से आया हुआ माल लेकर बनि ख़ज़ीमा के पास जाओ और एक एक आदमी का ख़ून बहा अदा करो और उनाक जो नुक़सान हुआ है उसकी तलाफ़ी करो। हज़रत अली (अ.स.) चाहे ग़मीज़ा पर गये। मक़तूलीन के वारिसों को बुला कर उनका ख़ून बहा अदा किया और उनके तमाम नुक़सानात की तलाफ़ी की जब सबका ख़ून बहा दा कर चुके तो पूछा अब किसी और का मुतालिबा बाक़ी तो नहीं रहा। कहा , अब हमारा कोई मुतालिबा नहीं है। फ़रमाया अभी मेरे पास कुछ माल बच रहा है लेहाजा़ मैं उसे वापस ले जाने के बजाये हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) की तरफ़ से तुम्हें देता हूँ। उसके बाद आप वापस तशरीफ़ लाये और पैगम़्बरे अकरम (स.अ.व.व.) से तमाम वाक़िया ब्यान किया तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया-

(मेरे माँ बाप तुम पर फ़िदा हों , तुमने जो कुछ किया है वह मुझे सुर्ख़ बालों वाले ऊँटों से ज़्यादा पसन्द हो।)

ग़ज़वा हुनैन

हुनैन , मक्के और ताएफ़ के दरमियान फेलै हुए पहाड़ों के दरमियान एक वादी का नाम है जिसके एक तरफ़ हमवार मैदान है और दूसरी तरफ़ गहरे खड़ , दुशवार गुज़ार खाइयों और पुर पेंच व डेठे मेढे रास्ते हैं।

फ़तहे मक्के के बाद तमाम क़बाएले अरब पर मुसलमानों की धाक बैठ गई थी। लेकिन बनि सकीफ़ बनि हवाज़िन और उनके हलीफ़ों की मुश्रेकाना सरगर्मियों , और मुनाफ़ेक़ाना काविशों में कोई कमी नहीं आई थी। चुनानचे यह क़बीले हस्बे दस्तूर दुश्मनी व अनाद पर तुले रहे। बनि हवाज़िन के एक सरदार मालिक इब्ने औफ़ नसरी ने बनि जशम व बनि नसर को अपने साथ मिला कर एक लश्कर तरतीब दिया और पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) से फ़ैसला कुन जंग का तहैय्या किया।

बनि सक़ीफ़ जिन्होंने रसूले अकरम (स.अ.व.व.) पर सन्गबारी करके उन्हें ताएफ़ से बहार निकाला था , वह भी उनके मुआविन व मददगार बन कर उठ खड़े हुए। मालिक इब्ने औफ़ ने बनि साद को पैग़ाम भेजा कि वह भी मुसलमानों के ख़िलाफ़ जंग में उनका साथ दें लेकिन बनि साद ने आमादगी ज़ाहिर न की और यह कहकर इन्कार किया कि मुहम्मद (स.अ.व.व.) , हमारे क़बीलें पले और बढ़े हैं हम उनके मुक़ाबिले में सफ़ आरा नहीं हो सकते मगर मालिक ने जब उन पर ज़ोर दिया तो उनके कुछ आदमी भी इस मुहिम में शरीक़ हो गये और मालिक के लश्कर की तादाद चार पांच हज़ार तक पहुँच गई। अबूजख़ल सिपहसालार मुक़र्रर हुआ और यह लोग अपनी अपनी औरतों , बच्चो , मवेशियों और भेड बकरियों को साथ लेकर बड़े ज़ोर व शोर से निकल खड़े हुए। इस लश्कर में हर्ब व ज़र्ब के फ़न का मशहूर माहिर दरीद इब्ने समा भी शामिल था। उसकी उम्र एक सौ बीस ( 120) बरस की थी और वह चलने फिरने से माज़ूर था मगर उसे हौदज में बिठा कर इस ग़र्ज़ से लाया गया था कि वक़्ते ज़रुरत उसके तजरबात से फ़ायदा उठाया जा सके। चुनानचे जब लश्कर ने वादी औतास में पड़ाव डाला तो उसने पूछा कि ये कौन सी जगह हैं ? बताया गया कि यह वादी औसात है। उसने कहा यह जगह हरब व पैकार के लिये मौज़ू रहेगी , इसलिए , कि यह न ज़्यादा पथरीली और सख़्त है और न ही ज़्यादा रेतीली और नर्म है। इतने में इसके कानों में बच्चों के रोने , औरतों के छींकने और भेड़ बकरियों के मिमयाने की आवाज़ें आई। उसने मालिक बिन औफ़ को बुलाकर पूछा यह आवाज़ें कैसी हैं ? मालिक ने औरतें बच्चे भी साथ हैं , कहा इन्हें क्यों साथ लाए हो ? कहा कि बाल बच्चों के हतो हुए कोई शख़्स मैदान छोड़ने का क़स्द नहीं करेगा। कहा , जब मैदान से क़दम उखड जाते हैं तो औरतों और बच्चों का ख़्याल उखड़े हुए क़दमों को रोक नहीं सकता। दानिशमन्दी का तक़ाज़ा तो यह था कि तुम औरतों और बच्चों को साथ न लाते। अगर शिकस्त हुई तो ऐसी रूसवायी का सामना होगा जिसे पुश्ते तक मिटाय न जा सकेगा। फिर पूछा , क्या बनि काब व बनि कलाब भी तुम्हारे साथ हैं ? कहा वह लोग शरीक नहीं हुए। कहा अगर तुम्हारा मुकद्दर यावरी करता तो वह भी शरीक होते। हमारी राय तो ये है कि हम अपनी बस्तियों में वापस चले। अगर मुसलमान हम पर हमला आवर हुए तो हम अपना बचाओ वहां आसानी से कर सकेंगे और जिन क़बीलों ने हमारा साथ नहीं दिया इस सूरत में वह भी हमारा साथ देने पर आमादा हो जायेंगे। मालिक ने उसकी राय से इत्तेफ़ाक न किया , दरिद ने कहा तुम जानों और तु्म्हारा काम , मैं आइन्दा किसी मामले में दख़ल न दूँगा।

जब पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) को यह मालूम हुआ कि बनि हवाज़िन व बनि सक़ीफ़ जंग के इरादे से निकल खड़े हुए हैं तो आपने अब्दु्ल्लाह बिन अबीहदरिद को भेजा कि उनक नक़ल व हरकत की ख़बर लायें , उन्होंने घूम फिर कर तमाम हालात का जाएजा लिया और पलट कर आन हज़रत (स.अ.व.व.) को ख़बर दी कि दुश्मन जंग का इरादा कर चुका है हमें उसकी पेशक़दमी को रोकने के लिये तैयार रहना चाहिये। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने हज़रत उमर को बुलाया और अबीहदरिद से जो कुछ सुना था उसका ज़िक्र कर दिया। हज़रत उमर से मुख़ातिब होकर कहाः- ऐ उमर! चूँकि तुम हक़ के झुटलाने के आदी हो इसलिये मुझे झुटलाते हो। 1

आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने इब्ने अबी हदरीद की इत्तेला पर एतमाद करते हुए लशर को सफ़बन्दी का हुक्म दिया। और 6 शव्वाल सन् 8 हिजरी को बारह हज़ार का एक अज़ी लश्कर लेकर चल पड़े। उन बारह हज़ार में दस हज़ार अन्सार व मुहाजेरीन जो मदीने से आपके हमराह आये थे और दो हज़ार की तादाद नौ मुस्लिमों की थी जो फ़तहे मक्के के बाद मुसलमान हुए थे।

दुश्मनों के मुक़ाबिले में मुसलमानों की तादाद तीन गुना ज़्यादा थी इस क़सरत ने बेशतर मुसलमानों में एक नख़वत की सी कैफ़ियत पैदा कर दी थी चुनानचे हज़रत अबुबकर ने इस क़सरत पर गुरुर व घमण्ड का मुज़ाहिरा करते हुए फ़रमाया कि आज तादाद की कमी की बिना पर हम शिकस्त नहीं खा सकते।

वादी हुनैन में पहुंच कर पहले सी से दुश्मन ने दर्रों और ग़ारों में मोर्चे संभाल लिये थे। चुनानचे मुसलमान सुबह होते जब इस वादी में दाख़िल हुए और तंग व ढ़लान रास्तों को तय करते हुए आगे बढ़े तो दुश्मनों ने क़मीनगाहों से निकल कर लश्करे इस्लाम पर तीरों और पत्थरों की बारिश शुरू कर दी। मुसलमान इस नागहानी हमले के लिये तैयार न थे। लश्र में आग भगदड़ मच गई। सबसे पहले मुक़देमतुल जैश ने राहे फ़रार इख़तियार की जिसके सरबराह ख़ालिद इब्ने वलीद थे। जब अक़ब में आपने वालों ने ख़ालिद को अपने दस्ते के साथ भागते देखा तो वह भी भागे यहां तक कि एक दूसरे की ख़बर न रही। जिधर जिसने मुंह उठाया उधर निकल खड़ा हुआ। भागने वालों में क़तावा भी शामिल थे चुनानचे उनका ब्यान है कि मुसलमानों ने राहे फ़रार इख़्तेयार की और मैं भी उनके साथ भागा। अचानक मैंने देखे कि उमर बिन ख़त्ताब भी तेज़ी से भाग रहे हैं , कहा ऐ उमर क्या हो गया है तुम लोगो को , तो आपने फ़रमाया कि भागते रहो रसूल उल्लाह की यही मर्ज़ी है।)

हदीस व सैर की किताबों में तो इस फ़रार का तज़किरा तफ़सील से है ही मगर कुरान ने भी इस पर खुले हुए लफ़्ज़ों में तबसिरा किया है किः-

(मुसलमानों! ख़ुदा ने कई मुक़ामात पर तुम्हारी मदद की , ख़ुसूसन जंगे हुनैन के दिन जब तुम्हें अपनी कसरत ने माज़ूर कर दिया था फिर वह कसरत तुम्हें कुछ भी काम न आई और तुम ऐसे घबराये कि बावजूद अपनी उसअत के ज़मीन तुम पर तंग हो गई और तुम पीठ फेर कर भाग निकले।) (कुरान )

रईसुल मुनाफ़ेक़ीन अबुसुफ़ियान ने जब मुसलमानों को सर पर पांव रखकर भागते देथा तो कहा , अभी क्या है यह लोग शिकस्त का सहर टूट गया है और कुछ लोगों ने कहा कि मुसलमानों से लात व हुबल ने अपनी पामाली का बदला लिया है।

यह लोग अगर चे लश्करे इस्लाम में शामिल थे मगर दिल से शरीक न थे और न उनसे यह तवक़्क़ो की जा सकती थी कि जंग का नक़शा बिगड़ने की सूरत में साबित क़दम रहेंगे मगर ताज्जुब तो इस बात पर है कि बैयते रिज़वान में शरीक होने वाले और मौत पर अहद व पैमान बांधने वाले भी साबित क़दम न रह सके। देखते ही देखते बारह हज़ार का जम्म़े ग़फ़ीर छट गया और पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) के पास सिर्फ़ चन्द आदमी रह गये। एक रवायत की बिना पर हज़रत अली (अ.स.) इब्ने अबुतालिब , अब्बास इब्ने अब्दुल मुत्तालिब , अबुसुफ़ियान बिन हारिस और अब्दुल्लाह इब्ने मसऊद , सिर्फ़ चार आदमी साबित क़दम रहे और एक रवायत की बिना पर दस आदमी यानि अली इब्ने अबुतालिब (अ.स.) अब्बास इब्ने अब्दुल मुत्तालिब , फ़ज़ल इब्ने अब्बास , अबुसुफ़ियान बिन हारिस , रबिया इब्ने हारिस , अब्दुल्लाह इब्ने जुबैर और अतबा व मआतिब पिसरान अबुलहब नीज़ ऐमन इब्ने अबीद बाक़ी रहे। पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) अपने ख़च्चर पर सवार मैदान में खड़े थे अब्बास और फ़ज़ल आपके दायें बायें इस्तादा थे। अबुसुफ़ियान अक़ब से ज़ीन पकड़े हुए थे और हज़रत अली (अ.स.) पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के सामने तलवार से दुश्मनों की चलग़ार को रोके रहे थे बाक़ी जॉबाज़ आन हज़रत (स.अ.व.व.) के इर्द गिर्द घेरा आले डाले हुए थे। दुश्मनों का ज़ोर बढ़ता जा रहा था। मालिक इब्ने औफ़ पैग़म्बर (स.अ.व.व.) पर हमला आवर होने के इरादे से आगे बढ़ा। ऐमन इब्ने अबीद ने उसका हमला रोका और दिफ़ा करते हुए शहीद हो गये।

हुजूरे अकरम (स.अ.व.व.) ने मुसलमानों को मैदान छोड़कर जाते देखा तो आवाज़ दी कि ऐ अल्लाह के बन्दों कहा जा रहे हो ? जब इस आवाज़ पर कोई पलटता नज़र न आया तो आपने अब्बास से फ़रमाया , ऐ चचा तुम्हारी आवाज़ बुलन्द है तुम्हीं उन्हें पुकारो. अब्बास ने पहाड़ी पर चड़कर उन्हें आवाज़ दी कि ऐ अन्सार व मुहाजेरीन , ऐ बैयते रिज़वान वालों , पैग़म्बर (स.अ.व.व.) को छोड़ कर कहां भागे जा रहे हो आओ और आन हज़रत (स.अ.व.व.) की नुसरत करो।

अब्बास इब्ने अब्दुल मुत्तालिब की आवाज़ पर कुछ लोग पलट आये। हज़रत अली (अ.स.) ने उन्हे अपने परचम के नीचे जमां किया और दुश्मन पर हमला करने की ग़र्ज़ से आगे बढ़े और टूट पड़े. तलवारें सरों और ढालों से टकरा टकरा कर चिन्गारियां उगलने लगीं। बनि हवाज़िन का अलमबर्दार सियाह परचम लिये ऊँट पर सवार रजज़ पढता हुआ आगे बढ़ा। हज़रत अली (अ.स.) ने पीछे से तलवार मार कर उसके ऊँट के पै कर दिया और ऊँट के साथ अबू जखल भी गिरा अभई संभलने भी न पाया था कि आप ने एक वार में उसके दो टुकड़े कर दिये अबुजहल का क़त्ल होना था कि दुश्मनों के पांच उखड़ गये और वह गिरते पड़ते मैदान से भाग खड़े हुए। दुश्मन को मुन्तशिर होते देखकर वह मुसलमान जो आस पास रूपोश थे निकल पड़े और उन्होंने काफ़िरों को तलवार की बाढ़ पर रख लिया। कुछ क़त्ल हुए कुछ क़ैद कर लिये गये. मुसलमानों ने उनके मवेशियों , भैड़ बकरियों और दूसरे साज़ों सामान को अनी तहवील में ले लिया और औरतों व बच्चों को जंगी इसीर बना लिया।

इस ग़ज़वा में जर मुसलमान शहीद हुए और सत्तर कुफ़्फ़ारमौत के घाट उतारे गये। माले ग़नीमत में चौबीस हज़ार ऊँट चालिस हज़ार से ज़्यादा भेड़ें और बकरियां। और चालिस हज़ार औक़िया चाँदी मुसलमानों के हाथ लगा। इस फ़तहे व कामरानी में सबसे बड़ा हिस्सा हज़रत अली (अ.स.) का है जिन्होंने अपनी जान की बाज़ी लगा कर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की हिफ़ाज़त की और एक लम्हे के लिये भी मैदान से हटना गवारा न किया।


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