यमन में इस्लाम की तबलीग़
सन् 8 हिजरी में आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने ख़ालिद बिन वलीद को सहाबा की एक जमाअत के साथ त.बलीग़े इस्लाम के लिये यमन भेजा जहां यह लोग छः माह तक क़याम पज़ीर रह कर लोगों को इस्लाम की दावत देते रहे मगर उनकी तबलीग़ी कोशिशें बारआवर न हुई। बरा इब्ने आज़िब जो इस जमाअत में शरीक थे कहते हैं कि ख़ालिद बिन बलीद की बात किसी ने न मानी। जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) को ख़ालिद बिन वलीद की क़यादत में इस मिशन की नाकामी का इल्म हुआ तो आपने हज़रत अली (अ.स.) को इस फ़रीज़े की अदायगी पर मामूर फ़रमाया और उन्हें हिदायत दी कि अगर कोई अपनी मर्ज़ी से तुम्हारे साथ रहना चाहे तो वह रह जाये वरना ख़ालिद और उसकी पूरी जमात को मीदने वापस भेज दो। बरा इब्ने अज़िब का बयान है कि मैं भी अळी (अ.स.) के साथ रूक गया। जब अहले यमन को यह मालूम हुआ कि ख़ालिद यहां से चला गया है और तबलीग़ की हैसियत से हज़रत अली (अ.स.) आयें है तो वह सब एक जगह पर जमां हो गये। हज़रत अली (अ.स.) नमाज़े सुबहा से फ़ारिग़ होकर उनके पास गये। रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) का वह ख़त जो अहले यमन के नाम था पढ़ कर सुनाया उसके बाद इस्लाम के मुहासिन पर एक फ़सीह व बलीग़ खुतबा दिया। उसका असर यह हुआ कि जो लोग ख़ालिद की छः माह की तबलीग़ से टस सेमस न हुए थे इस्लाम की ख़ूबियों के मोतरिफ़ होकर हलक़ा बगोशे इस्लाम हो गये। तबरी का कहना है कि तमाम बनि हमदान एक ही दिन में मुसलमान हो गये। हज़रत अली (अ.स.) ने आन हज़रत (स.अ.व.व.) को जब मुज़दा भेजा तो और आपने सजदये शुक्र अदा किया। इसके बाद तीन मर्तबा फ़रमाया कि अहले हमदान पर मेरा सलाम हो। 2
क़बीलये हमदान के इस्लाम लाने के बाद , यमन में इस्लामी तरक़्की की , राहें खुल गई और जूक़ दर जूक़ लोग दायरये इस्लाम में दाख़िल होने लगे। देखते ही देखते कुफ़्र की घटायें छट गयी और इस्लाम का सूरज वहां भी अपनी आब व ताब के साथ चमकने लगा।
मुख़तलिफ़ वाक़ेयात
• माहे ज़िलहिज में मारिया क़बतिया के बतन से आन हजरत के फ़रज़न्द इब्राहीम पैदा हुए जो एक साल तीन माह तक ज़िन्दा रहने के बाद इन्तेक़ाल फ़रमां गये।
• अबुसुफ़ियान , अरवा बिन मसूद सख़फ़ी , अकरमा इब्ने अबुजहल , शीबा बिन अस्मान ऐदी , हज़रत अबुबकर के वालिद अबुक़हाफ़ा , हकीम बिन हिज़ाम , मालिक बिन औफ़ नसरी और अबु सुफ़ियान के दोनों बेटे यज़ीद माविया मुसलमान हुए।
• सन् 8 हिजरी के आख़िर में आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने आला हज़रमी को हाकिमे बहरैन के पास भेजा , वह मुसलमान हुआ और उसने यहूदियों , मजूसियों पर ज़ज़िया आयद किया।
• मक्के और हुनैन की फ़तहा के बाद हज़रत अली (अ.स.) ने कुर्ब व जवार के बुतों को तोड़ा और मिस्मार किया।
(सन् 6 हिजरी)
बनि तमीम की सरकूबी
सन् 6 हिजरी में इस्लामी हुकूमत मुसतहकम हो चुकी थी और पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) उसके सरबराह व फ़रमांरवा तस्लीम किये जा चुके थे। दीगर इस्लामी वाजेबात के साथ मुसलमानं पर ज़कात भी वाजिब क़रार पा चुकी थी और हर मुतमउल मुसलमान वाज़िबउल अदारक़म बैतुल माल में जमा करता था। जो लोग मुसलमान नहीं थे वह भी जज़या देते थे। और यही ख़िराज था जौ पैगम़्बर (स.अ.व.व.) के अहद में रेआया से वसूल किया जाता था चुनानचे आपने उन मुतालेबात की वसूलियाबी के लिये कुछ आमिल मुक़र्रर फ़रमाये और एक आमिल को क़बीला बनि काब की तरफ़ भी रवाना किया। मगर क़बीला बनी तमीम के कहने सुनने और बरगलाने भड़काने से बनि काब के लोग मुसलमान और मुतवौल्लम होने के बावजूद ज़कात की अदायेगी से मुन्हरिफ़ हो गये। और नौबत यहां तक पहुँची कि आमिल को अपनी जान बचाकर वहां से भागना पड़ा वह मदीने आया और आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़दिमत में बारयाब होकर उसने आपको तमाम हालात से मुत्तेला किया। हुज़ूरे अकरम (स.अ.व.व.) ने अय्यना बिन हसन अन्फ़रारी की क़यादत में पचास मुसल्लह सवारों का एक दस्ता मुख़ालेफ़ीन की सरकूबी के लिये रवाना किया मगर जंग की नौबत नहीं आई और वह लोग भाग निकले अलबत्ता कुछ क़ैदी हाथ आये जिन्हें अय्यना ने आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाज़िर किया। अभी कोई सज़ा तजवीज़ न हो पाई थी कि बनि तमीम के कुछ सरदार आये और माफ़ी तलाफ़ी के बाद उन्हें छोड़कर ले गये।
सरया वादी-उल-रमल
वादीउल रमल में जमा होकर कुछ शरपसन्दों ने मदीने पर शबख़ून मारने का मन्सूबा तैयार किया लेकिन वह अभी मुनासिब मौक़े की तलाश ही में थे कि किसी के ज़रिये पैग़म्बर (स.अ.व.व.) को इसकी इत्तेला हो गई. यह लोग मुनज्ज़म और बाक़ायदा फौज़ की सूरत में न थे बल्कि रहज़नों और क़ज्ज़ाकों का एक जत्था ता जो लूट मार और क़त्ल व ग़ारत गारी की ग़र्ज से रमल के मुक़ाम पर जमा हो गया था। आन हज़रत सल 0 ने उन्हें मुन्तशिर व मुतफ़र्रिक़ करने के लिये हज़रत अबुबकर की क़यादत में एक फ़ौजी दस्ता रवाना किया। चुनानचे जब ये लोग वहां पहुँचे तो वह इधर उधर छुप गये। मुसलमान यह समझे कि वह उन्हें देखकर फ़रार हो गये हैं लेहाज़ा रात बसर करने के लिये वहीं उतर पड़े और बेखटके आराम से सो गये। जब निस्फ़ शब गुज़री तो दुश्मनों ने कमिनगाहों से निकल कर अचानक हमला कर दिया जिससे मुसलमानों में सर सररासीमगी फैल गई वह हड़बड़ा कर उठे , हथियार टटोले और फिर संभलकर कुछ देर लड़े मगर नतीजे में कुछ मारे गये , कुछ ज़ख्मी हुए और कुछ भाग खड़े हुए। हज़रत अबुबकर की इस शिकस्त व हज़ीमत के बाद आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने हज़रत उमर को दुश्मनों की सरकूबी पर मामूर किया। यह अब एक दस्ता फौज़ लेकर गये मगर दुश्मनों के हौसले बढ़े हुए थे जब उन्होंने इस इस्लामी दस्ते को आते देखा तो दाहने बायें से यकबारगी टूट पड़े और इस तरह ताबड़ तोड़ हमले किये कि मुसलमानों के क़दम जम न सके चुनानचे सबसे पहले सिपहसालार दस्ता हज़रत उमर ने राहे फ़रार इख़तेयार की उनके पीछे दस्ता भागा और उन लोगों ने सीधे मदीने में आकर दम लिया।
उन दिनों हज़ीमतों के बाद आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने हज़रत अली को सिपेहसालार की हैसियत से भेजा और उन शिकस्त ख़ुरदा लोगों को भी उनके साथ जाने का हुक्म दिया। हज़रत अली (अ.स.) जब रवाना हुए तो आपने दो मुख़तलिफ़ तदबीरों इख़तियार की अव्वल ये कि आपने वह रास्ता बदल दिया जिस रास्ते से हज़रत अबुबकर व हज़रत उमर वग़ैरा गये थे दूसरे यह कि आपने दिन में आराम किया और रात में सफ़र किया यहां तक कि ख़ामोशी से आगे बढ़ते हुए दुश्मनों के सरों पर पहुँच गये और अभी सूरज की किरनों ने पहाड़ों को छुवा भी न था कि उनके सरों पर तलवारें चमकने लगीं। वह लोग इस नागहानी हमले की ताब न ला सकें ग़र्ज़ कि कुछ मारे गये और कुछ भाग निकले। और मुसलमान फ़तहा व कामरानी का परचम लहराते हुए मदीने की तरफ़ पलट पड़े।
सरया बनि तय
फ़तहे मक्का के बाद ख़ान-ए-काबा से बुतों का सफ़ाया हो चुका था। नज़वा ताएफ़ के दौरान बनि सक़ीफ़ व बनि हवाज़िन के बुत तोड़े जा चुके थे और मुख़तलिफ़ क़बीलों और इलाक़ों में सनम कदे वीरान हो चुके थे मगर बनि तय का बुतख़ाना अबी ज्यों का त्यों बाक़ी था जिसमें फ़लस नाम का एक बुत उनकी अक़ीदत व इरादत का मरकज़ था। पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) ने उसे भी मुन्हदिम करने का इरादा किया और रबीउल आख़िर 26 हिजरी में हज़रत अली (अ.स.) को बनी तय की बस्तियों की तरफ भेजा ताकि वह उनके बुतखानों को मिसमार करें और सनम परस्ती की ज़ंजीरों में जकड़े हुए इन्सानों को वहदउ लाशरीक की परस्तिश की तरफ़ माएल करें।
हज़रत अली (अ.स.) ने डेढ़ सौ अन्सार की जमीअत के साथ बनि तय की बस्तियों का रूख किया। बनि तय का सरदार अदी इब्ने हातिम लश्करे इस्लाम की आमद पर अपने अहल व अयाल को लेकर शाम की तरफ़ निकल गया और वहां उसने पनाह ले ली। हज़रत अली (अ.स.) ने मुहल्ला आले हातिम पर हमला करके उनके बुतख़ाने को मिसमार कर दिया। जिससे तीन क़ीमती ज़िरहें और तीन तलवारें रसूब , मुख़ज़ूम और यमानी दस्तयाब हुयीं। यह अरब की मशहूर तलवारें थी जिन्हें हारिस इब्ने अबी शिमर ने बुतख़ाने की नज़र किया था। उसके अलावा बहुत सा माले ग़नीमत चन्द क़ैदी और भेड़ बकरियं के गल्ले मुसलमानों के हाथ लगे। हज़रत अली (अ.स.) ने ग़नीमत और असीरों को लेकर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाज़िर हुए। उन असीरों में हातिम की बेटी सफ़ाना भी थी जिसे मस्जिद से मुत्तासिल एक जगह जहां कनीज़ें ठहराई जाती थी ठहराया गया। उन्हीं अय्याम में पैग़म्बर (स.अ.व.व.)उधऱ से हो के गुज़रे तो उसने कहा , यहा रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ! मेरा बाप मर चुका है और कोई पुरसाने हाल नहीं है , मुझपर एहसान कीजिये और मुझे छोड़ दीजिये। फ़रमाया तुम कौन हो ? कहा मैं अदी इब्ने हातिम की बहन सफ़ाना हूँ। फ़रमाया वही अदी जो अल्लाह और रसूल (स.अ.व.व.) से मुँह मोड़कर चला गया है और यह कह कर आप आगे बढ़ गये। दूसरे दिन फिर गुज़र हुआ तो उसने फिर रेहाई की इलतेजा की आपने वही जवाब दिया जो दे चुके थे और आगे निकल गये। सफ़ाना कहती हैं कि अब रेहाई से न उम्मीदी हो गई। तीसरे दिन जब रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) उधर से गुज़रने लगे तो मुझे कुछ कहने की हिम्मत न हुई क्योंकि दो दफ़ा मेरी इलतेजा ठुकराई जा चुकी थी। मैं अभी सोच ही रही थी कि कुछ अर्ज़ करूं या ख़ामोश रहूं कि आन हज़रत (स.अ.व.व.)ने अक़ब से एक शख़्स ने मुझे इशारा किया कि मैं उनसे रेहाई के बारे में फिर कहूँ! मेरी हिम्मत बन्धी और मैंने अर्ज़ किया कि या रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) मुझे मेरी क़ौम में रूसवा न कीजिये मैं बनि तय के सरदार हातिम की बेटी हूँ मेरा बाप फ़य्याज़ और सख़ी था। फ़रमाया इसे आज़ाद कर दिया जाये यह उस बाप की बेट है जो करीमुल नफ़्स और बुलन्द इख़लाक़ का मालिक था। फिर सवाना की तरफ़ मुतावज्जे हुए और फ़रमाया , तुम चन्द दिन सबर करो जब क़ाबिले एतमाद लोग मिल जायेंगे तो तुम्हें उनके साथ ब-हिफाज़त तुम्हारे अजीज़ों तक पहुंचा दिया जायेगा। सफ़ाना कहती है कि मैंने लोगों से दरयाफ़्त किया कि वह कौन था जिसने मुझसे इशारे से कहा था कि मैं पैग़म्बर (स.अ.व.व.) से रेहाई कि फिर दरख़्वास्त करूं तो मुझे बताया गया था कि वह रसूल उल्लाह के इब्ने अम हज़रत अली (अ.स.) इब्ने अबीतालिब (अ.स.) थे। चन्द दिनों के बाद बनि क़ज़ाआ का एक क़ाफ़िला मदीने आया सफ़ाना ने पैगम्बर (स.अ.व.व.) से अर्ज़ किया कि मुझे उसके साथ जाने की इजाज़त दी जाये पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने उसके ज़ाद राह का इन्तेज़ाम किया और उन लोगों के साथ रवाना कर दिया।
सफ़ाना जब वहां पहुँची तो उसने अपने भाई अदी से सारा वाक़िया ब्यान किया और ये मशविरा दिया कि वह भी इस्लाम कुबूल करे चुनानचे यह मदीने आये और पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाज़िर होकर इस्लाम से मुशर्रफ़ हुए और वह कभी हज़रत अली (अ.स.) के असहाब मुख़लिसिन में शामिल होकर जमाल व सिफ़्फ़ीन और नहरवान के मारकों में आपके हमरेकाब रहा।
ग़ज़वा तबूक
शाम के तिजारती क़ाफ़िले के ज़रिये मदीने में यह ख़बर फैली की क़ैसरे रोम (हक़ुल) अपनी फ़ौजों के साथ मुसलमानों पर हमला आवर होने के लिये आगे बढ़ रहा है और तमाम ईसाई क़बाएल , बनि ग़सान बनि लहम औऐर बनि आमला वग़ैरा उसके परचम के नीचे जमा हो गये हैं। पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) ने इत्तेलात की बिना पर मुक़ाबिले की तैयारियां शुरू कर दीं और मुसलमानों को हुक्म दिया कि वह दुश्मनों की पेश क़दमी को रोकने के लिये तैयार हो जायें।
अब तक मुसलमानों ने जितनी भी लड़ाइयां लड़ी थी वह उन्हीं के मुल्क तक महदूद थी किसी बाहरी मुल्क से सफ़आराई की नौबत नहीं आयी थी चुनाचे यह पहला मौक़ा था कि यह जंग मुल्क के बाहर और उस दौर की सबसे बड़ी हुकूमत से मुतावक़्के थी जिसके फ़तुहात का सिलसिला बिलाद फ़रस तक फैला हुआ था।
मुसलमानों ने जब पैग़म्बर (स.अ.व.व.) का हुक्म सुना तो जोश व ख़रोश के बजाये वह सुस्ती व बददिलों का मुज़ाहेरा करने लगे। इस बददिली की एक वजह ये भी थी कि कुछ अर्से से ख़ुश्क साली के बाअस पैदावार कम हो रही थी लेकिन इस साह हर वक़्त और ज़रूरी मिक़दार में बारिश हो जाने की वजह से फ़सल अच्छी और तैयार खड़ी थी इसलिये वह उसे छोड़ कर जाना नहीं चाहते थे और दूसरी वजह यह थी कि इन्तेहाई शिद्दत की गर्मी पड़ रही थी , दूर का सफ़र था और सवारियों की क़िल्लत , लेहाज़ा उन सब्र आज़म हालात में मुसलमान हिम्मत हार कर जंग से बचने के लिये हीले बहाने करने लगे। उनके बारे में कुरान का इऱशाद है किः-
ऐ ईमान वालों! तुम्हें क्या हो गया है कि जब तुमसे कहा जाता है कि ख़ुदा की राह में जेहाद के लिये निकलो तो तुम्हारे पाओं ज़मीन में गड़ जाते हैं। क्या तुम आख़ेरत के बजाये दुनिया की चन्द रोज़ा जि़न्दगी को पसन्द करते हो ? याद रखो कि दुनियावी जि़न्दगी का साज़ व सामान आख़ेरत के मुक़ाबिले में बहुत थोड़ा है।) (सूरा तौबा आयत 38)
जब तहदीदी आयतों के ज़रिये मुसलमानों पर दबाओं पड़ा और उन्हें क़दम आगे बढ़ाये बग़ैर कोई चारा कार नज़र न आया तो वह मारे मदीने व इतराफ़े मदीने से माली व फ़ौज़ी कुमक हासिल करके तीस हज़ार का लश्कर तरतीब दिया और माहे रजब सन् 6 हिजरी में मदीने से निकल पड़े और सनयतुल विदा मे पहला पड़ाव डाला। अब्दुल्लाह इब्ने अबी भी अपने गिरोह को लेकर सनयतुल विदा के नशेबी इलाक़े में ख़ेमा ज़न हुआ मगर जब रसूल उल्लाह सब लश्कर लेकर आगे बढ़े तो वह अपनी जमात समेत वापस आ गया।
मुसलमानों की इस अज़ीम अकसरियत के चले जाने के बाद उन मुनाफ़ेकीन से जो मदीने में रह गये थे या रासते से पलट आये थे वह अन्देशा था कि अगर लश्करे इस्लाम को शिकस्त हुई या सफ़र की मुद्दत तवील हुई तो वह आन हज़रत (स.अ.व.व.) का घर बार लूट लेंगे और उनके अहल व अय़ाल को शहर से बाहर निकाल देंगे। चुनानचे इस सूरते हाल के पेशे नज़र तदबीर और दूर अन्देशी का तक़ज़ा ये था कि मदीने के अन्दर एक ऐसे शख़्स को निगरां के तौर पर छोड़ा जाये जो बहादुर , बे ख़ौफ़ और दुश्मनों के अज़ाएम को कुचलने पर क़ादिर हो। इसी ज़रूरत की बिना पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) ने हज़रत अली (अ.स.) इब्ने अबीतालिब (अ.स.) को अपना नायब और क़ायम मुक़ाम बनाकर मदीने में छोड़ा ताकि कुफ्र व निफ़ाक़ की तागूती ताक़तों को सर उठाने का मौक़ा न मिल सके और अगर कुछ फ़ितना दिया जाये। मदीने में मुनाफ़ेकीन को हज़रत अली (अ.स.) की यह मौजूदगी बुरी तरह ख़ली और जब उनका कोई बस न चल सका तो वह कहने लगे कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) उन्हें बार ख़ातिर समझ कर अपना बोझ हलका करने के लिये यहाँ छोड़ गये हैं। 1
हज़रत अली (अ.स.) ने मुनाफ़ेकीन की ज़बान से जब इस क़िस्म की तन्जिया बातें सुनी तो आपकी ग़ैरत उसे बर्दाश्त न कर सकी। हथियार लगाये और लश्कर के पीछे चल दिये और मदीने से कुछ फ़ासले पर जरफ़ नामी एक मुक़ाम पर पैगम़्बर (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाज़िर हुए। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने पूछा ऐ अली (अ.स.) कैसे आये ? अर्ज़ किया! या रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ! मीदने के कुछ मुनाफ़िक ये कहते हैं कि आपने बरे ख़ातिर समझ कर मुझे वहां छोड़ा है। आपने फ़रमाया वह झूट बोलते हैं , मैंने तु्म्हें मीदने में इसलिये छोडा है कि वहां की हालत मेरे या तुम्हारे रहने ही से दुरुस्त रह सकती है। 2 और तुम ही मेरे अहलेबैत और मेरी उम्मत में मेरे जॉनशीन और क़ायम मुक़ाम हो। और क्या तुम इस पर राज़ी नहीं हो कि तुम्हें मुझसे वही निसबत है जो हारून को मूसा (अ.स.) से थी , यह और बात है कि मेरे बाद कोई नबी नहीं होगा। 3
हज़रत अली (अ.स.) यह नवेद मसर्रत सुनकर खुश खुश मदीने वापस आ गये और लश्करे इस्लाम शाम की तरफ़ कूच कर गया। जब यह लश्कर तबूक के मुक़ाम पर पहुँचा और वहां ख़ेमा ज़न हुआ तो दुश्मनों की तलाश शुरू हुई मगर दूर दूर तक तो रूमी फौज़ें नज़र आई और न ही ऐसे आसार दिखाई दिये जिनसे दुश्मन के जंगी अज़ाएम का पता चलता। आन हज़रत बीस दिन तक वहां क़याम फ़रमा रहे मगर किसी तरफ़ से दुश्मन की नक़ल व हरकत की कोई ख़बर सुनाई न दी और शामी तिजारती क़ाफिले की फैलाई हुई अफ़वाह ग़लत साबित हुई।
बीस दिन तक वहां अपने क़याम के दौरान आन हज़रत (स.अ.व.व.) इत्तराप व जवानिब के सरदारों के पास वफूद भेजे कि वह इसलाम कुबूल करें या जज़िया देकर इस्लामी रेआया में शामिल हों चुनानचे ईला का सरदार योहना इब्ने रूबा हाजिर हुआ और उसने तीन सौ दीनार जज़िया पर मुसालेहत कर ली इसी तरह जरबा इज़रा और मक़ना के ईसाइयों ने भी जज़िया के एवज़ पैगम़्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) से अमान हासिल कर ली।थ जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) दुश्मनों की तरफ़ से मुतमईन हो गये तो आपन मराजेअत का हुक्म सादिर फ़रमाया और लश्कर मदीने की तरफ़ पलट पड़ा।
वाक़िया उक़बा
यह इस्लामी तारीख़ का वह शर्मनाक और इबतर अंगेज़ अलमिया है जो पैगम़्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) के क़त्ल की साजिश पर मबनी है। इसका अलमनाक पहलू है कि गज़वा तबूक की वापसी पर पैगम़्बर (स.अ.व.व.) की सवारी को। ज़ी फ़तक नामी पहाड़ की एक ख़तरनाक खाई से गुज़रना था चुनानचे लश्कर में यह ऐलान कर दिया गया कि जब तक आन हज़रत (स.अ.व.व.) का नाक़ा बाख़ैरियत गुज़र न जाये कोई शख़्स खाई में कदम न रखे। कुछ लोगों ने मन्सूबा बनाया कि पैगम़्बर (स.अ.व.व.) के नाक़े को भड़का दिया जाये। जब वह भड़क कर किसी गहरी खड़ में गिरेगा तो खुद बख़ुद उनका काम तमाम हो जायेगा।
रात तारीक थी , हुजूरे अकरम (स.अ.व.व.) का नाक़ा तन्ग रास्तों की ढलानों से आहिस्ता आहिस्ता उतर रहा था कि अचानक बिजली चमकी जिसकी रौशनी में बाराह सवार दिखाई दिये जो पने चेहरों की नक़ाबों में छिपाये आन हज़रत (स.अ.व.व.) की तरफ़ तेज़ी से बढ़ रहे थे। हुज़ूरे अकरम (स.अ.व.व.) ने उन्हें डांट कर भगाया फिर आपने नाक़े की मोहर थाम हुए हुज़ैफ़ा यमानी नीज़ नाक़े को हांकने हुए अम्मार यासीर को उनके नामों से आगाह किया और उसके साथ ही यह ताकीद भी फ़रमा दी कि उन मुनाफ़ेक़ीन के नामों को पोशीदा रखना वरना उम्मत में फ़ितना फ़साद का अन्देशा है। मगर इस ताक़ीद के बावजूद उन लोगों के नाम परदये ख़फ़ा में न रह सके और मौक़े व मौक़े ज़ाहिर होते रहे चुनानचे एक मर्तबा इमाम हसन (अ.स.) ने माविया से फ़रमाया (क्या तुझे वह दिन याद नहीं कि जो बारह आदमी रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) के नाक़े को भड़काने के लिये खाई में जमा हुए थे उनमें तेरा बाप अबुसुफ़ियान भी था। 1
सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) की रेहालत के बाद हज़रत उमर भी हुज़ैफ़ासे बार बार पूछा करते थे कि ऐ हुज़ैफा! क्या उन साज़िशियों में मेरा भी नाम शामिल है ? हज़रत उमर के इस इस्तेफ़सार पर हुज़ैफा ख़ामोश रहते आख़िर कार एक दिन ज़हनी कचोंको और दिली टहोकों से मजबूर होकर हज़रत उमर ने भी यह एतराफ़ कर लिया कि (या हुज़ैफ़ा बिल्लाहे अनामिनल मुनाफ़ेकीना) ऐ हुजैफ़ा ख़ुदा की क़सम मैं भी मुनाफ़ेकीन मे।
मस्जिद ज़रार का इन्हेदाम।
क़बीला ख़िज़रिज़ का अबूआमिर नामी एक शख़्स जो तौरैत व इन्जील का आलिम था मदीने में रहा करता था और वह बराबर लोगों से आन हज़रत (स.अ.व.व.) की तारीफ़ करता और औसाफ़ व मुहासिन ब्यान किया करता था मगर जब आप मक्के से हिजरत करके मदीने में सकुनत पज़ीर हुए और लोग आपकी तरफ़ मुतावज्जे होने लगे तो वह रशक व हसद की आग में जलने लगा और आन हज़रत (स.अ.व.व.) का दुश्मन हो गया यहां तक कि जंगे बदर के बाद वह मदीने से भाग कर कुफ़्फ़ारे मक्का से जा मिला और उन्हीं की तरफ़ से ओहद की जंग में शरीक हुआ और सबसे पहले लश्करे इस्लाम पर उसी ने तीर मारा उसके बाद जंगे हुनैन में भी शरीक रहा और जब कुछ न बन बड़ा तो बादशाहे रोम हरकुल के हशिया बदारों में शामिल हो गया और वहां से उसने मुनाफ़ेक़ों को लिखा कि मस्जिदे कबा के पास तुम लोग मस्जिद बनाओ ताकि जिस वक़्त में मदीने में आऊँ तो दरस व तदरीस में मशगूल हो जाऊँ मगर हक़ीक़तन उसकी ग़र्ज़ तामीर कुछ और ही थी चुनानचे सालेबा बिन हातिब वग़ैरा बाराह मुनाफ़ेकों ने एक मस्जिद तैयार की और जब हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) तबूक की मुहिम पर जाने लगे तो उन मुनाफ़ेकों ने आपसे उस मस्जिद में नमाज़ पढ़ने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की ताकि उसकी हैसियत मुसलमानों की नज़र में क़ाबिले एहतराम बन जाये। आपने तबूक की वापसी पर उस मस्जिद में नमाज़ पढ़ने का वादा फ़रमाया और ख़ातमये मुहिम पर जब वापसी अमल में आई तो हस्बे वादा आपने उस में नमाज़ पढ़ने का क़सद किया ही था कि परवरिदगार का हुक्म हुआ कि ऐ रसूल (स.अ.व.व.) ! इस मस्जिद में नमाज़ न पढ़ना बल्कि इसके क़रीब भी न जाना , इसे मिस्मार करके उसकी जह मज़बला बनवा दो क्योंकि इसकी तामीर में इबादत का जज़बा शामिल नहीं है। हुक्म की तामील हुई और वह मस्जिद ढ़ा दी गई और वहां मज़बला क़ायम कर दिया गया। आम तौर पर मोअर्रिख़ीन और मुफ़स्सेरीन का ख़्याल यह है कि मुनाफ़ेकीन ने इस मस्जिद को इस्लाम के ख़िलाफ़ साज़िशों का मसकन और क़िला बनाने की ग़र्ज़ से तामीर किया था।
वाक़िया ईला
पैग़म्बर इस्लाम (स.अ.व.व.) ने उम्मुल मोमेनीन हज़रत खदीज़तुल कुबरा की हयात में कोई दूसरा अक़द नहीं फ़रमाया अलबत्ता उनकी वफ़ात के बपाद एक के बाद दीगर उन्नीस औरतें आपकी ज़िन्दगी में दाख़िल हुई जिसमें मारिया किब्तिया और रेहाना कनीज़ें थीं और उम्मे शरीक व उम्मे सुहैल ने अपना नफ़्स आपको हिबा कर दिया था। उन चार औरतों के अलावा उम्मे सलमा , मैमूना , सौदा , ज़ैनब बिन्ते हजश , जवेरिया , उम्मे हबीबा , आयशा , हफ़सा , ज़ैनब बिन्ते हज़ीमा , ज़ैनब बिन्ते उमैस , खूला और मसनारा वग़ैरा से आपने अक़द किया था। उन औरतों में अव्वलिल ज़िक्र दोनों औरतों हज़रत ख़दीजा के बाद तमाम अज़वाज़ में सबसे अफ़ज़ल थी और आख़ेरूल ज़िक्र दोनों औरतें आन हज़रत (स.अ.व.व.) की सोहबत से फैज़याब न हो सकीं।
पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) ने हर बीबी के लिये अलग अलग हुजरे बनवाये थे और सब की बारी के दिन मुक़र्रर कर दिये थे। आपके मामूल था कि हर एक के पास एक एक रात बसर करते थे मगर रोज़ाना सुबहा को थोड़ी थोड़ी देर के लिये हर एक के पास हो लेते थे।
रोम के बादशाह मकूक़िश ने मारया क़िब्तिया को तोहफ़े में कनीज़ की हैसियत से आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में पेश किया था चुनानचे जब वह वारिदे मदीना हुई तो पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने तमाम अज़वाज से अलग अबुअय्यूब अन्सारी के घर में उन्हें उतारा जहां ख़ुद आपने हिजरत के बाद सबसे पहले क्याम फ़रमाया था। मारिया की इताअत , फ़रमां बर्दारी ख़िदमात , हुस्ने इक़लाक़ और हुस्ने सलूक की वजह से आन हज़रत (स.अ.व.व.) का इलतेफ़ात उनकी तरफ़ से ज़्यादा था इसलिये आयशा और हफ़सा जो हज़रत उमर की बेटियां थीं मरारिया की तरफ़ से अपने अपने दिलों मे नफ़रत , अदावत , बुग़ज़ और रशक व हसद रखती थीं और आन हज़रत (स.अ.व.व.) का वहां आना जाना उस पर बेहद शाक़ गुज़रता था।
एक मर्तबा आन हज़रत (स.अ.व.व.) के पास कहीं से शहद आया आपने उसे मारिया के सुपुर्द कर दिया और जब वहां तशरीफ ले जाते तो थोड़ी देर तक ठहर कर शहद नोश फ़रमाते और मारिया से बातें करते। आयशा और हफसा को जब आपकी शहद नोशी का हाल मालूम हुआ तो दोनोंम ने बाहम मशविरा करके यह मनसूबा बनाया कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) की शहद नोशी ख़तम की जाये ताकि आपका वहां जाना छूटे। चुनानचे एक दिन मारिया के घर से शहद नोशी के बाद जब आप आयशा के याहं तशरीफ़ लाये तो उन्होंने आपरकी नाक बन्द की। आप सख़्त मुतअज्जिब हुए और फ़रमाया कि मैने तो सिर्फ शहद पिया है! कहा , फिर शहद की मक्खियों ने मग़ाफ़ीर के फूल चूसे होंगे। उसके बाद आप हफ़ास के यहां गये तो उन्होंने भी यही हरक तकी और आन हज़रत (स.अ.व.व.) लसे लड़ने झगड़ने लगीं। आपने फ़रमाया , अच्छा मैं आज से वह शहद नहीं पियूंगी। मगर यह मारिया को न मालूम हो वरना उसकी ख़ातिर शिकनी होगी। हफ़सा अपनी हमराज़ हज़रत आयशा से कब यह बात छिपाने वाली थीं , जैसी ही आन हज़रत तशरीफ ले गये फ़ौरन उठीं और जा कर हज़रत आयशा से सब कुछ जड़ दिया और यह मुज़दा सुनाया कि आज से पैग़म्बर (स.अ.व.व.) का शहद के बहाने मारिया के यहां जाना छूटा।
इस वाक़िये के दो ही चार दिन बाद एक दूसरा वाक़िया ज़ूबहर पजीर हुआ और वह यह कि जनाबे हफ़सा अपनी बारी के दिन अपने मैके चलीं गयीं आन हज़रत (स.अ.व.व.) तमाम ज़रूरी अमूर से फ़ारिग़ हो कर रात में जब हफ़ासा के घर आये तो आपने वही आराम फ़रमाया और मारियो को अपनी ख़िदमत में तलब कर लिया। हफ़सा दूसरे दिन जब पलट कर आयी तो आयशा की ज़बानी उन्हें पैगम़्बर (स.अ.व.व.) और मारिया के इस्तराहात का हाल मालूम हुआ। फिर क्या था ? वह आन हज़रत (स.अ.व.व.) पर चढ़ दौडी और थिरक धिरक गुस्ताख़ाना लहजे में कहने लगीं कि आपने मेरी इज्ज़त व हुरतमत का भी ख़्याल न किया और एक कनीज़ को मेरे बराबर कर दिया। गज़ब ख़ुदा का मेरा ही घर , मेरा ही बिस्तर मेरी ही बारी और वह कनीज़! ग़र्ज़ की आपने ऐसा हंगामा बरपा किया कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) को यह कहना पड़ा कि मै आइन्दा मारिया की तरफ़ से मोहतात रहूँगा मगर तुम इस राज़ को किसी पर ज़ाहिर न करना। यह कहकर पैग़मबर (स.अ.व.व.) घर से बाहर निकले उधऱ आप आयशा के घर पहुँचे और उनसे सारा हाल ब्यान कर दिया कि आज मैंने यह कारे नुमाया अन्जाम दिया है।
हज़रत हफ़सा की इस हरकत से आन हज़रत (स.अ.व.व.) को इस क़दर दिली सदमा पहुँचा कि आपने उन्हें तलाक दे दी और उन्तीस दिन तक जौजा के क़रीब नहीं गये यहां तक कि साहाब में यह ख़बर मशहूर हो गयी कि हुज़ूरे अकरम (स.अ.व.व.) ने तमाम अज़वाज को तलाक़ दे दी। 1 कुरान मजीद में सूरये तहरीम का नूज़ुल उन्हीं वाक़ियात का नतीजा है 2।