अबु आमिर का वाक़िया
अबु आमिर , बदवी , और सहराई क़बीलये आमिर बिन तुफ़ैल का सरदार और एक वजीह व ख़ुबसूरत और आन बान का इन्सान था। अकाज़ 1 के मेल में इस की तरफ़ से यह ऐलान किया जाता था कि जिसके पास बार बरदारी के लिये जानवर न हों , जो शख़्स नंगा भूका हो या जिसे किसी ज़ालिम की तरफ़ से ख़तरा लाहक़ हो वह अबु आमिर के पास आये और उससे राबता क़ायम करे। वह उसे जानवर देगा , खाना खिलायेगा , उसकी सतर पोशी का इन्तेज़ाम करेगा और उसे तहाफुज़ देगा। अपनी इसी फ़य्याज़ी की बदौलत वह मुश्रेकीन के दरमियान बहुत मशहूर और हर दिल अजीज़ हो गया था।
इस्लाम का उरूज और पैगम़्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) का जाहो हमश देख कर वह रशक व हसद में मुबतिला हुआ और अदावत ने उसके दिल में इस तरह सर उठाया कि एक दिन वह अपने चचा अरबद के साथ इस इरादे से आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ कि मौक़ा मिले तो उन्हें क़त्ल कर दें 2। मगर जब यह अमर उसके लिये नामुम्किन नज़र आया तो उसने पैगम़्बर (स.अ.व.व.) से कहा आप मुझ से दोस्ती कर लें। फ़रमाया , जब तक तू मुसलमान नहीं होता उस वक़्त तक़ मैं तेरी तरफ़ दोस्ती का हाथ नहीं बढ़ा सकता। अब आमिर ने कहा कि अगर मैं मुसलमान हो जाऊँ तो क्या आप उस पर क़ेनाअत करेंगे कि सहराई अरबों पर मेरी और शहरी लोगों पर आप की हुकूमत रहे ? आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया , यह मुम्किन नहीं। अब आमिर ने कहा फिर मेरे मुसलमान होने से क्या फ़ायदा ? हुज़ूर (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया सारे मुसलमान तेरे भाई हो जायेंगे। उसने कहा , मैं ऐसे भाईयों से बाज़ आया और मुंह बनाकर अपने मसकन की तरफ़ रवाना हुआ मगर रास्ते में उसे ताऊन की बीमारी ने घेरा और वह हलाक हो गया। बाज़ मोअर्रिख़ीन ने इस वाकिये को सन् 6 हिजरी के वाक़ियात में शामिल किया है।
सरया बनि ज़ुबैद
क़बीला बनि मज़जह की एक शाख़ बनि जुबैद का सरदार अम्र बिन मोइद यकरब मदीने आया और पैगम़्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) की ख़दिमत में हाज़िर हुआ। आपने उसे इस्लाम की दावत दी। उसने और उसके क़बीले के आदमियों ने जो उसक साथ थे इस्लाम कुबूल कर लिया। अम्र का बाप माद यकरब दरे जाहेलियत में मारा गया था , उसने आन हज़रत (स.अ.व.व.) से अपने बपाप के क़ातिल से क़सास लेने का इरादा ज़ाहेर किया। हुज़ुरे अकरम (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया कि जाहेलियत के खून का क़सास ख़तम किया जा चुका है। उस वक़्त तो वह ख़ामोश रहा मगर वहां से पलट कर बग़ावत व सरकशी पर उतर आया और बनि हारिस इब्ने काम पर हमला करके उन्हें क़त्ल किया और इस्लाम से मुन्हरिफ़ होकर मुस्तरद हो गया।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) को जब उसके शर व फ़साद की इत्तेला हुई तो आपने हज़रत अली (अ.स.) को तीन सौ मुसल्लेह अफ़वाज़ के साथ यमन जाने का हुक्म दिया ताकि वह उन शोरिशों को दबायें। मगर उसके साथ ही यह ताक़ीद भी फ़रमा दी कि अगर वह लोग लड़ाई छेड़ें तो लड़ना वरना ख़ुद इब्तेदा न करना।
इस लश्कर के साथ एक लश्कर और आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने ख़ालिद इब्ने वलीद की मातहती में क़बीलये बनि जाफ़ी की तरफ़ रवाना किया और ख़ालिद को हिदायत दी कि अगर किसी मुक़ाम पर दोनों लश्कर यकजां हो जायें तो दुश्मन से जंग छिड़ने की सूरत में दोनों लश्करों के सरदार अली इब्ने अबुतालिब होंगे।
हज़रत अली (अ.स.) ने फ़ौज के अगले हिस्से का सरदार ख़ालिद इब्ने सईद को और ख़ालिद इब्ने वलीद ने अबुमूसा अशरी को मु़क़र्रर किया और दोनों लश्कर अपनी अपनी मंज़िल की तरफ़ रवाना हो गये। जब ख़ालिद बिन वलीद जाफ़ी की तरफ़ बढे और उन्हें लश्करे इस्लाम की आमद का पता चला तो वह दो गिरोहों में बट गये एक गिरोह यमन चला गया और एक गिरोह बनि जुबैद से जा मिला। हज़रत अळी (अ.स.) को बनि ज़ाफ़ी की इस तक़सीम का हाल मालूम हुआ तो आपने ख़ालिद को पैग़ाम भेजा जिस मुका़म पर मेरा क़ासिद तुम्हें मिले वहीं रूक जाओ , मगर ख़ालिद ने इस ख़्याल से कि अगर दोनों फौज़ों का इलहाक़ हो गया तो अफसरी जाती रहेगी कि ठहरने से इन्कार कर दिया और बज़ोमे ख़ुद आगे बढ़ गया। हज़रत अली (अ.स.) ने ख़ालिद इब्ने सईद से कहा कि फौजड़ का एक दस्ता ले कर जाओ और ख़ालिद बिन वलीद जहां मिले वहीं रोक दो ख़ालिद बिन सईद ने आगे बढ़कर उन्हें पेशक़दमी से रोक दिया अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) जब वहां पहुँचे तो हुक्म अदूली पर ख़ालिद बिन वलीद की सरज़निश की और दोनों लश्करों को एक एकर ककरे चल दिये। जब कसर के मुक़ाम पर पहुँचे तो बनु जुबैद से मुडभेड़ हुई। अम्र इब्ने मोइद यकरब अगर चे अरब का मशहूर जंग आज़मा और तेग़े ज़न था मगर हज़रत अली (अ.स.) को अपने मुक़ाबले में देख कर भाग खडा हुआ। उसका भतीजा और भाई मारा गया और उसकी बीवी सलमा और बच्चे असीर कर लिये गये और बहुत सा माले ग़नीमत हाथ आया।
हज़रत अली (अ.स.) ने माले ग़नीमत के खुम्स में से एक क़नीज़ ले ली थी। ख़ालिद इब्ने वलीद ने बरा इब्ने आज़िब के हाथ एक ख़त पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में भेजा जिसमें हज़रत अली (अ.स.) के इस इक़दाम की सख़्त लब व लहजे में शिकायत की। जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने वह ख़त पढ़ा तो आपके चेहरे का रंग मुताग़य्यर हो गया और बरा से मुखाति़ब हो कर फ़रमायाः- तुम इस शख़्स के बारे में क्या राय रखते हो जो अल्लाह और उसके रसूल (स.अ.व.व.) को दोस्त रखता है और अल्लाह व रसूल (स.अ.व.व.) उसको दोस्त रखते हैं।
बस ने पैगम़्बर (स.अ.व.व.) के चेहरें पर जब ग़ैज़ के आसार देखे तो कहा या रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) मैं अल्लाह और उसके रसूल (स.अ.व.व.) के ग़जब से पनाह मांगता हूँ। मैं तो सिर्फ़ एक पैगम़्बर की हैसियत से हाज़िर हुआ हूँ। ये सुन कर आन हज़रत (स.अ.व.व.) ख़ामोश हो गये।
हज़रत अली (अ.स.) को इस माल में हर तरह का हक़ तसर्रूफ़ हासिल था और उनका हिस्सा भी एक ख़ादेमा से कहीं ज़्यादा था मगर वह लोग जो अपने दिलों में अनाद लिये हुए थे ऐस ही मौक़े की तलाश में रहते थे कि कोई ऐसी बात हाथ लगे जिससे पैग़म्बर (स.अ.व.व.) को उनके ख़िलाफ़ किया जा सके चुनानचे उस मौक़े पर भी पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के जज़बात को उनके ख़िलाफ़ भड़काने की कोशिश की गई मगर हज़रत अली (अ.स.) को मोरिदे तान बनाने की कोशिश करने वाले खुद ही आन हज़रत (स.अ.व.व.) के गैज़ व गज़ब का हदफ बन गये।
मुबाहिला
यमन के शुमाली कोहिस्तान में सनआ से दस मंजि़ल के फ़ासले पर तेहरान एक जरख़ेज़ मुक़ाम था जो छोटी बड़ी तिहत्तर बस्तियों पर मुशतमिल था और उन बस्तियों में कम व बेश चालीस हज़ार ईसाई बस्ते थे जो पहले तो अहले अरब की तरह बुतपरस्त थे मगर फ़ेमियून नामी एक मसीही राहिब जो अपा वतन रोम छोड़ कर यहां आबाद हो गया था , ने यहां के बाशिन्दों कीो दीन ईसवी की तालीम दी और थोड़े दिनों में उसकी तबलीग़ के नतीज़े में तमाम आबादी ने ईसाइयत कुबूल कर ली और नज़रान ईसाईयों का एक अहम मरकज़ बन गया। उन्होंने मज़हबी मुरासिम अदा करने के लिये एक कलीसा बनवाया जो ऊँट की खालों से मढ़ी हुई एक बुलन्द व बाला इमारत थी और उसे काबे नजरान कहा जाता था। इस कलिसा की औक़ाफ़ की सालाना आमदनी दो लाख से ज़्यादा थी जिससे राहिबों और मज़हबी पेशवाओं की परवरिश होती थी।
जब इस्लाम को उरूज हासिल हुआ और मुतहारिब गिरोह सरनिगू हो गये तो आन हज़रत (स.अ.व.व.)ने नजरान के नसारा को भी एक ख़त लिख कर इस्लाम कुबूल करने या जज़िया देने की दावत दी। जब नजरान के असक़िफे आज़म ने आन हज़रत का मकतूब पढ़ा तो उसने इलाक़े के तमाम सरबरा-वुर्दा लोगों को जमा करके सूरते हाल से उन्हें मुतला किया और कहा हमें ग़ौरे फिक्र के बाद कोई हल तजवीज़ करना चाहिये। आख़िर कार बड़ी रदोकद्र के बाद ये तय हुआ कि अहले इल्म का एक वफ़द मदीने जाये और पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) से गुफ़्तगू करे। अगर बात चीत से कोई हल निकल आये तो बेहतर वरना कोई और तदबीर सोची जायेगी। चुनानचे चौदह आदमियों का एक व फ़द आकिब , सईद और अबुहारिस के ज़ेरे क़यादत मदीना रवाना हुआ उनमें अबुहारिसा ईसाई दुनिया का असक़िफ़े आज़म और मशहूर आलिम था और सईद और आक़िब दोनों तदबीरों फ़रास्त और मुआमला फ़हमी में मुम्ताज़ थे। जब ये वफ़िद मदीने मे दाख़िल हुआ तो अहले मीदने उनके ज़र्क व बर्क़ लिबास रेश्मी अबायें और सज धज देखकर हैरत में पड़ गये क्योंकि उससे पहले कोई वफ़द इस आन बान से यहां नहीं आया था। जब वह बने ठने मस्जिद में दाख़िल हुए तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने उनके हाथों में सोने की अँगूठियां और जिस्मों पर दीबा व हरब के लिबास देख कर उनकी तरफ़ से मुंह फेर लिया। और बात नहीं की। वह तेवरियों पर बल डाले हुए मस्जिद से बाहर निकले तो देखा कि हज़रत अस्मान और अब्दुल रहमान बिन औफ़ सामने चले आ रहे हैं। उन्होंने हज़रत उस्मान को मुख़ातिब किया और शिकवा आमेज़ लहज़े में कहने लगे कि मुहम्मद (स.अ.व.व.) ने हमें पैग़ाम भेजा और जब हम हाज़िर हुए तो मुहं फेर लिया और सलाम का जवाब तक नही दिया। हज़रत उस्मान ने कहा मेरी समझ में नहीं आता कि रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ने ऐसा क्यों किया ? आप हज़रत अली (अ.स.) के पास चले आयें वही उसका असल सबब बता सकेंगे। चुनानचे यह लोग हजरत अली (अ.स.) की ख़िदमत में हाज़िर हुए और पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की बे इल्तेफ़ाती का शिकवा किया। आप ने फ़रमाया कि तुम लोग यह सोने की अँगूठियाँ और रेशमी लिबास उतार कर सीधे सादे कपड़े पहन कर जाओ रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) तुम्हें बारयाब होने का मौक़ा ज़रुर देंगे। चुनानचे उन्होंने ऐसा ही किया और सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) ने नमाज़े अस्र से फ़ारिग़ होकर मुख़्तलिफ़ मसाएल पर उनसे गुफ़्तगू की और जब उन्हें इस्लाम की दावत दी तो वह कहने लगे कि हम तो पहले ही से मुसलमान हैं। फ़रमाया , तुम मुसलमान क्यों कर हो सकते हो ? सुअर का गोश्त खातो हो , सलीब की परस्तिश करते हो और हज़रत ईसा इब्ने मरयम को ख़ुदा का बेटा कहते हो। उन्होंने कहा बेशक मसीह इब्ने अल्लाह हैं। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया हज़रत ईसा की मिशाल अल्लाह के नज़दीक हज़रत आदम (स.अ.व.व.) की सी है जिसे मिट्टी से ख़ुदा ने पैदा किया और कहा हो जा और वह हो गया।
हज़रत ईसा (स.अ.व.व.) के बारे में यहूद नसारा दोनों तज़बजुब में मुबतिला थे। यहूद आपकी नस्बत बेहूदा बदगुमानिया रखते थे और नसारा मुबतिला थे। यहूद आपकी नस्बत बेहूदा बदगुमानिया रखते थे और नासा आपको ख़ुदा का बेटा कहते थे। आन हज़रत (स.अ.व.व.) के इस क़ौल का मतलब यह था कि जब ख़ुदा ने अपनी कुदरते कामेला से हज़रत आदम (स.अ.व.व.) को मिट्टी से पैदाकरदिया तो ईसा (स.अ.व.व.) को बग़ैर पाग के सिर्फ़ माँ के पेट से पैदा कर देना क्या ताज्जुब ख़ेज़ है और अगर ईसा (अ.स.) का बग़ैर बाप के पैदा होना खुदा का बेटा होने की दौलत है तो आदम (स.अ.व.व.) के माँ बाप दोनों नहीं थे इस लिये बदर्जा ऊला उन्हें ख़ुदा का बेटा होना चाहिये।
हुजूरे अकरम (स.अ.व.व.) ने उन्हें लाख समझाया कि ईसा मसीह को ख़ुदा का बेटा न कहो मगर वह न माने और कज हसी पर उतर आये। चुनानचे ख़ुदा का हुक्म हुआ किः-
(ऐ रसूल (स.अ.व.व.) ) जब तुम्हारे पास इल्म (कुरान) आ चुका है उसके बाद ये लोग ईसा (अ.स.) के बारे में तुम से हुज्जत करें तो उनसे कहो कि आओ इस तरह फ़ैसला करें कि हम अपने बेटों को लायें तुम अपने बेटों को लाओ , हम अपनी औरतों को लायें तुम अपनी औरतों को लाओ हम अपने नफ़सों को लायेंत तुम अपने नफ़सों को लाओ और फिर अल्लाह के सामने गिड़गिड़ायें और झूटों पर लानत के बाद ख़ुदा से अज़ाब के ख़्वास्तगारहों।) (आले इम्रान आयत 61)
ग़र्ज़ की बात क़सम क़समी और मुबाहिला पर ठहरी। जिस दिन वह मुबाहिला होने वाला था उस दिन अकाबरीने साहाबा नहा धो कर और बन संवर के हुजूर (स.अ.व.व.) के दरे दौलत पर सुबहा तड़के ही से इस आस के साथ जमा हो गये कि शायद आन हज़रत (स.अ.व.व.) की निगाह इन्तेख़ाब उनकी तरफ़ उठे और वह अपने साथ ले लें मगर आपने सुबह की नमाज़ से फ़ारिग़ होकर हज़रत सलमान फ़रसी को एक सुर्ख़ कम्बल और चार लक़़डियां देकर मैदाने मुबाहिले की तरफ़ रवाना किया कि वह वहां इस कम्बल का शामियाना खड़ा कर दें और ख़ुद इस शान से बरामद हुए कि इमामे हुसैन (स.अ.व.व.) को गोद में उठाया , हज़रत इमाम हसन (अ.स.) का हाथ थामा , हज़रत फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) को अपने पीछे किया और हज़रत अली (अ.स.) को आगे। गोया आपने बेटों की जगह नवालों को , औरतों की जगह अपनी पारए जिगर हज़रत फ़ातमा (स.अ.व.व.) को और नफ़सों की जगह हजरत अली (अ.स.) को लिया। फिर आपने यह दुआ फ़रमायी कि ख़ुदा वन्दा! हर नबी (स.अ.व.व.) के एहलेबैत होते हैं , यह भी मेरे एहलेबैत हैं इन्हें हरबुराई से महफूज़ और पाकों पाकीज़ा रख।
अलग़र्ज़ जब आप इस शान से मैदान में वारिद हुए तो नसारा का सरदार आक़िब उन्हें देखकर कहने लगा कि ख़ुदा की क़सम मैं एसे चेहरे देख रहा हूँ कि अघर यह पहाड़ को अपनी जगह से हट जाने को कहें तो यक़ीनन वह हट जायेगा। बस इसमें ख़ैरियत है कि मुबाहिले से हाथ उठाओ वरना क़यामत तक नस्ले नसारा मं कोई शख़्स ज़िन्दा न बचेगा। आख़िरकार अहले नज़रान ने मुबाहिले से दस्तबर्दार होकर जज़िया देना कुबूल कर लिया और मैदान से हट गये। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया कि ख़दी की क़सम अगर ये लोग मुबाहिला करते तो ख़ुदा वन्दे आलम उन्हें सुअर और बन्दर की शक्लों में मसख़ कर देता और यह मैदान आग बन जाता और नजरान का एक मुतन्नाफ़िस हत्ता कि चिडियां तक न बचती। यह हज़रत अली (अ.स.) की आला फज़ीलत है कि ख़ुदा के हुक्म से नफ़से रसूल क़रार पायें और तमाम अन्बिया से अफ़ज़ल ठहरे। 1
ये फ़तहे व सरफ़राज़ी तीरख़े आलम में अपनी नौवियत के लेहाज़ से मुनफ़रिद है कि एक तरफ़ गिने चुने सिर्फ़ पाँच अफ़राद हैं जिनमें एक ख़ातून और दो कमसिन बच्चे हैं न जिस्मों पर ज़िरहें हैं और न हाथों में तलवारें है। वह सिर्फ़ यक़ी की कुवत और एतमाद की ताक़त से बहरान के नुमाइन्दा वाफ़िद को बे-दस्त व पा करके अपनी सदाक़त का लोहा मनवा लेते हैं और उनके तमरिद व शिकवा को कुचल कर उनकी गर्दनों में बाजिगुज़ारी का तौक़ डाल देते हैं। यह वाक़िया है कि ईसाईयों ने मुबाहिले से इन्कार करके अपनी शिकस्त और इस्लाम की फतेह का अमलन एतराफ कर लिया। अगर उन्हें अपने मस्लक की सेहत और अक़ीदे की सदाक़त पर एतमाद होता तो कभी मुबाहिले से गुरेज़ न करते और जज़िया गुरेज़ करके अपने अक़ायद की न पुख़ती का सुबूत न देते।
हुज्जत विदा
हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) 25 ज़ीक़द सन् 10 हिजरी को हज़ारों मुसलमान के साथ मदीने से हज के लिये रवाना हुए। इस सफ़र में तमाम ऊमेहातुल मोमेनीन और हज़रत फातमा ज़हरा (स.अ.व.व.) भी आपके हमराह थी। जब ज़ोहर के करीब वादी जुलहलीफ़ा में पहुँचे तो आपने गुस्ल के बाद एहराम बाँधा। सहाबा ने भी एहराम बाँधे और सबने मिलकर तलबिया किया तो (लब्बैक अल्लाहुम्मा लब्बैक) की सदाओं से दश्त व सहरा गूँज उठे।
हज़रत अली (अ.स.) यमन में थे। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने उन्हें ख़त भेजा कि वह वहां से सीधे मक्के पहुँच कर हज में शरीक हों। आप अपने दस्ते के साथ वहां से रवाना हुए और रास्ते में लश्कर की क़यादत एक शख़्स के सुपुर्द करके आगे बढ़े और वादी यलमिल से एहराम बाँधकर आन हज़रत (स.अ.व.व.) के पहुँचने से पहले मक्के पहुँच गये। पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने आपको देखा तो चेहार फ़रते मसर्रत से खिल उठा। पूछा कि ऐ अली (अ.स.) तुमने किस नियत से एहराम बाँधा है ? कहा इशके लिये आपने कुछ तहरीर नहीं फ़रमाया था इसलिये मैंने अपनी नियत से वाबस्ता कर दिया था कि जो आपकी नियत होगी वही मेरी नियत होगी। मैं अपने पीछे कुर्बानी के चौबीस ऊँट छोड़ आया जो लश्कर के साथ यहाँ पहुँचेंगे , आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया मेरे साथ हमराह कुर्बानी के छियासठ ऊँट हैं और तुम मुनासिके हज और कुर्बानी के ऊँटों में मेरे साथ हो। इसके बाद हज़रत अली (अ.स.) ने यमन में तमाम रूदाद , जज़िया और ग़नायम की तफ़सील बयान की और अर्ज़ किया कि मैं अमवाले ग़नीमत और जज़िया वग़ैरा लश्कर के सुपुर्द करके शाम ज़ियारत में पहले चला आया हूँ। फ़रमाया कि तुम अपने हमराइयों के पास जाओ और उन्हें लेकर जल्द मक्के पहुँच जाओ। हज़रत अली (अ.स.) पैग़म्बर (स.अ.व.व.) से रूख़सत होकर वापस पलटे अभी थोड़ा सा रास्ता तय किया होगा कि लश्कर को आते देखा , जब वह लोग क़रीब पहुँचे तो आपने मुशाहिदा किया कि सभों ने इजाज़त के बग़ैर यह पारचे क्यों तक़सीम किये हैं ? कहा , कि उन लोगों ने इसरार किया था कि ये पारये उन्हें दिये जायें और फिर बाद में वापस ले लिये जायें। फ़रमाया , इन्हें आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में पेश करने से पहले इस्तेमाल में नहीं लाया जा सकता। ग़र्ज़ की लोगों ने वह पारचे उतार दिये और जब पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में पहुँचे तो हज़रत अली (अ.स.) की इस सख़्त गीरी का शिकवा किया। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने खड़े होकर फ़रमाया , ऐ लोगों! अली (अ.स.) का गिला न करो वह अल्लाह के मुहायिदे में सख़्त गीर हैं। 1
हुज्जतुल विदा से पेश्तर दो तरह के हज हुआ करते थे , एक हज अफ़राद और दूसरा हज कुरान। उन दोनों में उमरा एक जुदागाना और मुस्तक़िल अमल की हैसियत रखता है जो आमाले हज बजा लाने के बाद किया जाता है। फ़र्क सिर्फ इतना है कि हज कुरान में कुर्बानी के जानवर साथ होते हैं और हज अफ़राद में कुर्बानी के जानवर साथ नहीं होते। इस मौक़े पर आया (वतमलुज हज वल उमरतुल्लाहे) अल्लाह के लिये हज और उमरा पूरा करां , नाज़िल हुआ तो हज में एक तीसरी क़िस्म का इज़ाफ़ा हो गया जिसे हज तमतओ कहा जाता है। हज तमतओ में उमरा हज हही का एक जुज़ होता है जो अय्यामे हज में हज से पहले अदा किया जाता है। चुनानचे उसकी सूरत ये है कि पहले उमरा करके एहराम खोल दिया जाता है और आठ ज़िलहिज को यौमे तरविया के मौके पर एहराम बान्ध लिया जाता है उसके बाद आमाले हज अदा किये जाते हैं। उसे हज तमत्तो इस लिये कहते हैं कि उमरा और हज के दरमियानी वक़फ़ा मे एहराम के क़यूद उठ जाते हैं और जो चीज़ें ऐहराम की हालत में जाएज़ नहीं हैं उनसे तमत्तो हुआ जा सकता है यह हज सिर्फ़ उन लोगों के लिये है जो मक्के से अड़तालिस मील से ज़्यादा के फ़ासले पर आबाद हों।
पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) के साथ इस सफ़र में ज़्यादातर वह लोग थे जिनके साथ कुर्बानी के जानवर नहीं थे। आन हजरत (स.अ.व.व.) ने उन्हें हुक्म दिया कि वह हज की नियत को उमरे की नियत से बदल लें और उमरे के बाद एहराम उतार दें और हज तमत्तों बजा लायें और जिन लोगों के साथ कुर्बानी के जानवर हैं वह एहराम बान्धे रखें। आन हज़रत (स.अ.व.व.) के साथ चूँकि कुर्बानी के ऊँट थे इसलिये आपका हज , हज कुर्बान था और हज़रत अली (अ.स.) की नियत चूँकि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की नियत हज की ताबे थी इसिलये दोनों ने एहराम नहीं खोले जब लोगं ने पैग़म्बर (स.अ.व.व.) और हज़रत अली (अ.स.) को एहराम बान्धे देखा तो यह आपने एहराम खोलने में पसो पेश करने लगे , और साबेक़ा तीरीक़े हज से मानूस तबीयतों पर यह अमर इन्तेहाई शाक़ गुज़रा चुनानचे वह बदस्तूर एहराम बान्धे रहे पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने उन्हें तामीले हुक्म से पहलू तही करते देखा तो सख़्त रंजीदा हुए और ग़ैज़ व ग़ज़ब की शिकनें माथे पर उभर आयीं। हज़रत आयेशा का ब्यान है कि रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ज़िलहिज्जा की चौथी या पांचवी तारीख़ को ग़ैज व ग़ज़ब की हालत में मेरे पास आये मैने कहा या रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) किसने आपको ग़ज़बनाक किया है ? ख़ुदा उसे वासिले जहन्नुम करे। फ़रमाया क्या तुम्हें ख़बर नहीं है कि मैने लोगों को एक हुक्म दिया था मगर वह तरद्ददु व तज़ुबज़ुब में प़ड़ गये हैं अगर मुझे मालूम होता कि सूरते हाल यह पेश आयेगी तो मैं कुर्बानी के जानवर अपने साथ लाने के बजाये यहाँ से ख़रीद लेता और इन लोगों के साथ एहराम खोल देता। 1
जिस तरह आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ज़िन्दगी में कुछ लोगों ने हज तमत्तो की मुख़लिफ़त की उसी तरह आन हज़रत सल 0 के बाद भी उसकी मुख़ालेफ़त करते रहे और हुकम शरयी के मुक़ाबिले में अपनी राय को तरजीह देते रहे चुनानचे इमरान इब्ने जसीन का कहना है कि हज तमत्तो की आयत कुराने मजीद में नाज़िल हुई है और हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) ने हमें इसका हुक्म दिया था और बाद में कोई ऐसी आयत नाज़िल नहीं हुए जो पहली आयत को मनसूख़ करती और न रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ने आख़िरी सांस तक मना फ़रमाया अलबत्ता एक शख्स ने अपनी ज़ाती राय से जो चाहा वह कह दिया।) 1
शरेह मुस्लिम नूदी ने तहरीर किया है कि इस मुराद उमर बिन ख़त्ताब है इसलिये कि सबसे पहले उन्होंने हजे तमत्तो से मना किया था बाक़ी रहे वग़ैरा तो वह लोग उस मसले में उन्हीं के ताबे थे। 2
बहर हाल 8 जिलहिज बरोज़े पंचशन्बा आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने हुक्म दिया कि जिन लोगों ने उमरे के बाद एहराम खोल दिये थे वह एहराम बान्ध लें। जब एहराम बान्धे जा चुके तो आप मक्के से मिना में तशरीफ़ लाये और दूसरे दिन नमाज़े सुबह के बाद मिना से अरफात की तरफ़ रवाना हो गये। क़बले इस्लाम कुरैश ने ये दस्तूर बना रखा था कि वह मशअरल हराम तक पहुँच कर रूक जाते और कहते कि हम अहले हरम हैं , हरम के बाहर नीहं निकलेंगे अलबत्ता दूसरे लोग अरफ़ात में चले जाते। कुरैश का ख़्याल था कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) भी मिना से निकल कर मशअरूल हराम में रूक जायंगे और आगे नहीं बढ़ेंगे मगर हुक्मे कुरानी की बिना पर आप अरफ़ात की तरफ़ चल दिये और वहां पहुँच कर नमरा में ख़ेमा ज़न हुए। ज़ोहर व अस्र की नमाज़ एक साथ अदा की गुरूबे आफ़ताब तक वकूफ़ फ़रमाया और बाद गुरूबे आफ़ताब वहां से चल कर मशअरूल हराम में तशरीफ फ़रमा हुए और मग़रिब व इशा की नमाज़ एक साथ पढ़ी। मशअरूल हराम में रात गुजरने के बाद ईद के दिन सुबह के वक़्त मिना में आये र तीस ऊँट अपने हाथ से नहर किये और बक़ीया ऊँटों को नहर करने पर हज़रत अली (अ.स.) को मामूर फ़रमाया। कुर्बानी से फ़ारिग़ होकर सर मुण्डवाया और एहराम खोल दिया और उसी दिन मक्के मोज्जमां पहुँच कर खान-ए-काबा का तवाफ किया और सफ़ा मरवा की सई से फ़राग़त हासिल करके मिना में वापस आ गये जहां आपने 13 ज़िलहिज तक क़याम फ़रमाया और रमी जमरात का फरीजा अदा किया। जब तमाम अरकान व आमाले हज से फ़ारिग हो चुके ते 14 जिलहिज को मुसलमानों की कसीर जमीअत के साथ अपने मदीने की तरफ़ मराजिअत फरमायी।
ग़दीरे ख़ुम
मदीने की तरफ़ वापसी के दौरान आपके साथ तक़रीबन एक लाख चौबीस हज़ार का मजमा था जो मुख़तलिफ़ शहरों और बस्तियों से सिमट कर जमा हो गया था और अब फरीजें से सुबक दोशी के बाद खुश खुश अपने घरों को पलट रहा था। कुछ लोग मदीने पहुँच कर अलग होने वाले थे और कुछ लोगों को रास्ते ही से अलग हो जाना था। जैसे जैसे उनकी बस्तियां करीब आती जाती थी उनकी रफ़्तार में तेज़ी आती जा रही थी चुनानचे कुछ आगे बढ़ गये थे। कुछ पीचछे चले आ रहे थे कि मुक़ामे हजफ़ा से तीन मील के फासले पर एक पुरख़ार वादी में जो ग़दीरे ख़ुम कहलाती थी उन्हें ठहर जाने का हुक्म दिया गया। यह हुक्म इतना अचानक और नागाहानी था कि लोग हैरत से एक दूसरे का मुंह तकने लगे कि यहां मंज़िल कैसी ? क्यों कि ये जगह न तो क़ाफ़िले के ठहरने के लिये मौज़ूं थी न गर्मी से बचने का कोई सामान था और न धूप से बचाओ के लिये साया और न ही उधर से गुज़रते हुए अरबों को इस मुक़ाम पर मंज़िल करते देखा गया था।
यहां अहले क़ाफिले को रोकने का मक़सद ये था कि पैग़म्बर इस्लाम (स.अ.व.व.) मुसलमानों को ख़ुदा के एक अहम फ़ैसले से आगाह करना चाहते थे और उसके उमूमी ऐलान के लिये मुनासिब मौक़े व महल के मुन्तजिर थे और इसके मुनासिब तर कोई और मौक़ा नहीं हो सकता था क्योंकि थोड़ी देर के बादे ये मजमा मुताफ़र्रिक़ और परागन्दा होने की बज़ाहिर कोई सूरत न थी। आलमे इस्लाम के हर कोने और हर ख़ित्ते के लोग जमा थे और उनके मुन्तशिर होने से पहले यह हुक्म उनके गोशगुज़ार कर देना ज़रूरी था। फिर इस बेआब व गियाह सहरा में क़ाफिले को रोकने की एक वजह यह भी हो सकती थी कि अगर मामूलन इस मुक़ाम पर काफ़िला ठहरा करते तो यह मसझा जा सकता था कि आराम और सफ़र की थकान दूर करने के लिये मंज़ील की गई है और जिमनन एक ऐलान भी कर दिया गया है जिससे इस ऐलान की एहमियत कम हो जाती। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने इसकी इहमियत को बरक़रार रखने के लिये ऐसी जगह का इन्तेख़ाब फ़रमाया जो कभी काफ़िलों की आराम गाह न बनी थी ताकि ये वाज़ेह हो जाए कि यहां ठहरने का मक़सद आराम व इस्तेराहत नहीं है बल्कि मामले की एहमियत का तक़ाज़ा यह है कि ख़्वाह कितनी ही ज़हमतों और तक़लीफ़ों का सामना क्यों न करना पड़े इस जलते हुए मैदान में चलते हुए क़ाफिले को रोक लिया जाये और सबको कारसाज़े मुतलक़ के फैसले स आगाह कर दिया जाये। और फैसला आन हज़रत (स.अ.व.व.) की नियाबत व जॉनशीन से मुतालिक़ था।
इससे बेशतर दावते अशीरा के एक महदूद दायरे में और ग़ज़वये तबूक व तबलीग़े सूरये बरात के मौक़े पर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की ज़बान से मुख़तिलफ़ पैराओं , इशारों और कनायों में ऐसे कलेमात सुने जा चुके थे जिन से एक इन्साफ़ पसन्द और ग़ैर जानिबदार इन्सान यह नतीजा अक़ज़ करने पर मजबूर था कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) हज़रत अली (अ.स.) को अपना नायब व जॉनशीन मुक़र्रर करना चाहते हैं और दूसरी तरफ़ यह भी देखने में आता था कि कुछ लोगों की ज़बाने अली (अ.स.) के ख़िलाफ ख़्वाह मख़ाह शिकवा रेज़ रहती हैं और उनके मामूली मन्सब पर भी उनकी दिली कदूरतें चहरों से आशकार हो जाती हैं वह भला इसे क्यों कर ठण्डे दिल से गवारा करेंगे और उसे अमली जामा पहनाने देंगे। पैग़म्बर (स.अ.व.व.) भी इन बातों से बेख़बर न थे। वह बाज़ चेहरों के उतार चढ़ाव से उनकी दिली कैफियतों को भाँप रहे थे और उनके हरकात व सकनात से उनके इरसादों को समझ रहे थे कि यह मुख़ालिफ़त किये बग़ैर नहीं रहेंगे और हर मुम्किन तरीक़े से रोड़े अटकायेंगे। इसलिये मिजाज़ शिनास कुदरत यह चाहता था कि कुदरत की तरफ़ से उन लोगों के शर से तहाफुज़ का जि़म्मा ले लिया जाये तो फिर उसका अमूमी ऐलान किया जाये चुनानचे अल्लाह की तरफ़ से तहाफुज़ की ज़िम्मेदारी के साथ ये हुक्म हुआ किः-
(ऐ रसूल (स.अ.व.व.) ! तुम्हारे परवरदिगार की तरफ़ से जो हुक्म तुम्हें दिया गया है उसे पहुँचा दो अगर तुमने ऐसा न किया तो गोया तुमने कोई पैग़ाम पहुँचाया ही नही और अल्लाह हर हाल में तुम्हें लोगों के शर से महफूज़ रखेगा।)
(मायदा आयत- 67)
अल्लामा काज़ी शूकानी रक़म तराज़ है।
(अबु सईद खजरी कहते है कि आयत (या अय्योहर रसूल बल्लिग़ मा उन्ज़ेला अलैका) ग़दीरे ख़ुम में हज़रत अली (अ.स.) इब्ने अबोतालिब (अ.स.) के बारे में नाज़िल हुई। 1
इस तहदीदी हुक्म के बाद ताख़ीर की गुंजाइश।. न थी। पैग़म्बर (स.अ.व.व.) सवारी से उतरे। साथ वाले भी उतर पड़े हय्या अला ख़ैरिल अमल की आवाज़ पर आगे बढ़ जाने वाले पलटे और पीछे रह जाने वाल तेज़ी से बढ़े और तमाम मजमा सिमट कर यकजा हो गया। दोपहर का वक़्त , गर्म हवाओं के थपेड़े झुलसा देने वाली गर्मी , जलता हुआ रेगिस्तान और आफ़ताब की शोलगी , चन्द बबील के दरख़्तों के अलावा न कहीं साया न सबज़ा। सहाबा ने अबायें कन्धों से उतार कर पैरों के गिर्द लपेट लीं और इस जलती हुई ज़मीन पर हमा तन गोश होकर बैठ गये। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने बबूल के दो दरख़्तों के दरमियान ऊँटों के कजाओं का मिम्मबर तैयार कराया और उस पर जलवा अफरोज़ हुये। जै़द बिन अरक़म कहते हैं-
(रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) मक्के और मदीने के दरमियान खुम के मुक़ाम पर ख़ुतबा देने के लिये खड़े हुए और ख़ुदा की हमद व सना के बाद फ़रमाया कि ए लोगों! वह वक़्त क़रीब है कि मेरे परवरदिगार की तरफ़ से पैग़़ाम आ जाये और उस पर लब्बैक कहूं लेहाज़ा इस से क़बल में तुम्हारे दरमियान दो गरांकद्र चीज़े छोड़ जाता हूँ एक अल्लाह की किताब जिसमें नूर व हिदायत है और दुसरे मेरे अहलेबैत , अगर तुम इन दोनों से तमस्सुक रखोगे तो कभी गुमराह न होंगे। 2
इन कलेमात के बाद तीन मर्तबा बुलन्द अवाज़ से फ़रमाया कि (अलसत ऊला बेकुम मिनकुम बे नफ़सेकुम) क्या मैं तुम पर खुद तुमसे ज़्यादा हक़ तसर्रूफ़ नहीं रखता ? सबने हम आवाज़ होकर कहा , बेशक आप हमसे ज़्यादा हमारे नफ़सों पर हक़ तसर्रूफ़ रखते हैं। अपनी हाकमियत का इक़रार लेने के बाद आपन ने हज़रत अली (अ.स.) को अपने हाथों पर बुलन्द किया और फरमायाः- ऐ लोगों! अल्लाह मेरा मौला है औ मैं तमाम मोमेनीन का मौला हूँ और मैं उनके नफ़सों से ज़्यादा उन पर हाकि़म व मुतसर्रिफ़ हूँ याद रखो कि जिस का मैं मौला हूँ उसके यह अली भी मौला हैं खुदाया उसे दोस्त रख जो इन्हें दोस्त रखे और उसे दुश्मन रख जो इन्हें दुश्मन रखें। 1
इब्ने अब्दुल बर ने तहरीर किया है किः-
(पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने ग़दीरे खुम के दिन फ़रमाया कि जिसका
मैं मौला उसक अली मौला हैं ऐ अल्लाह जो इन्हें दोस्त
रखे तू उसे दोस्त रख और जो इन्हें दुश्मन रखे तू उसे
दुश्मन रख।) 1
इस ऐलान के बाद आन हज़रत (स.अ.व.व.) फ़राज़े मिम्बर से नीचे तशरीफ़ लाये और नमाज़े ज़ोहर बा बाजमात अदा की नमाज़ से फ़ारिग़ हो कर अपने ख़ेम में तशरीफ़ ले गये और लोगों को हुक्म दिया कि वह अली (अ.स.) के पास जायें और उन्हें इस मन्सबे आलिया पर फाएज़ होने की खुशी में मुबारक बाद दें चुनानचे सहाबा ने तबरीक व तहनियत के कलेमात अपनी ज़बानवों से अदा किये उम्मेहातुल मोअमेनीन और दूसरी ख़्वातीनव ने भी इज़ाहरे मसर्ररत करते हुए मुबारकबाद दी और हज़रत उमर के अल्फ़ाज़े तहनियत तो अब तक इस्लामी तारीख़ के औराक़ पर मौजूद हूं किः- मुबारक हो ऐ फ़रज़न्दे अब तालिब (अ.स.) आज से आप हर मोमिन और हर मोमिना के मौला हो गये। 3
इधर मुबारक बाद का सिलसिला जारी था और उधर जिबरईल अमीन ने पैगम़्बरे अकरम (स.अ.व.व.) को तकमीले दीन व इतमामे नेअमत का रूह परवर मुज़दा सुनाया कि (अलयौम अकमलत लकुम दीनकुम व अत्तमतो अलैकुम नेअहमती व रज़ीयत लकुमुल इस्लाम दीना) आज मैंने तुम्हारे दीन को हर लेहाज़ से कामिल कर दिया और तुम पर अपनी नेअमतें तमाम कर दी और तुम्हारे लिये दीने इस्लाम को पसन्द किया। जलालुद्दीन सेवती अब सईद खजरी से रवायत करते हैं कि जब रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ने ग़दीरे ख़ुम के दिन हज़रत अली (अ.स.) को अपनी जगह नसब कर दिया और उनकी विलयत का ऐलान कर दिया तो जिबरीले अमीन आयत अलयौम अक़मलतो लकुम दीनाकुम लेकर आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में नाज़िल हुए। 4
इमामुल मोहद्देसीन हाफ़िज अब्दुर्राब ने ग़दीरे ख़ुम के सिलसिले में सौ सहाबये कराम से हदीसें नकल की हैं इमाम राजी़ और इमाम शाफई ने अस्सा सहाबियों से इमाम अहमद बिन हम्बल ने तीस सहाब से और तबरी ने पचहत्तर ( 75) सहाबा से हदीसे नक़ल की हैं उनके अलावा अल्लामा ज़हबी और नेसाई वग़ैरा ने उसे मुतावातिर माना है लेहाज़ा इस वाक़े मे शक व शुबहा की कोई गुंजाइश नहीं है। इसमें तावीलात से तो काम लिया जाता रहा है लेकिन अस्ल वाक़िये को झुटलाया न जा सका और न अल्फाज़े हदीस की सेहत से इन्कार किया जा सका क्योंकि इस हदीस की कसरत पर नज़र करने के बाद वही शख़्स इस वाक़िये से इन्कार कर सकता है जो मुशाहिदात व बदीहात के इन्कार का आदी हो। इल्मुल हुदा में सैय्यद मुर्तज़ा ने फ़रमाया है कि वाक़ए ग़दीर से इन्कार चाँद सूरज से इन्कार के बराबर है। अल्लामा मुक़बली ने कहा है कि अगर वाक़ए ग़दीर यक़ीनी नहीं तो फिर दीन की कोई बात यक़ीनी नहीं है।
फ़रीक़ैन के ओलमा व मोहद्देसीन का इस पर इत्तेफ़ाक है कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने एक अज़ीम इजतेमा के अन्दर अपनी हाकिमयत और अव्वलियत का इक़रार लेने के बाद फ़रमाया कि जो मुझे अपना मौला समझता है वह अली (अ.स.) को भी अपना मौला समझे मगर लफ़्ज़े मौला का मन पसन्द माने पहना कर हक़ीक़त को निगाहों से ओझल करने की कोशिश की गई इस लिये कि अगर ये तसलीम कर लिया जाता कि इस हदीस की रू से जो हैसियत रसूल की उम्मत से है वही हैसियत अली (अ.स.) की है तो सक़ीफ़ा बनि साअदा की कार्रवाई का कोई जवाज़ न रह जाता चुनानचे कभी ये कहा गया की इसके माने दोस्त के हैं और कभी यह तावील की गई कि इसके माने नासिर व मददगार के हैं। लेकिन सोचने , समझने और ग़ौर करने की बात यह है कि एक जलते हुए सहरा में लाखों मज़में में जो अपने घरों में पहुँचने के लिये बेचैन था सिमटना जबकि क़ाफिले का हिस्सा अ़ब में रह गया था और अगला रला तीन मील आगे निकल गया था , कांटों को हटा कर सुलगती हुई ज़मीन पर जगह बनाना , ऊँटों के कजावों को जमा करके मिन्बर बनाना और पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) का अपने हाकिम व ऊला बित-तसर्रूफ़ होने का इक़रार लेना क्या सिर्फ़ ये बताने के लिये था कि जिसका मैं दोस्त हूँ उसके अली (अ.स.) भी दोस्त हूँ ? या जिसका में मददगार हूँ उसके अली (अ.स.) भी मददगार हैं ? कोई भी साहबे अक़ल ये बावर नहीं करेगा कि ये एहतमाम व इनसेराम महज़ इतनी सी बात के लिये था। क्यों उन लोगों से अली (अ.स.) की रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) से दोस्ती और वाबस्तगी पोशीदा थी ? या अवाएले उम्र से इस्लाम व अहले इस्लाम की नुसरत में हज़रत अली (अ.स.) के कारनामे ढ़के छिपे और तारूफ के मोहताज थे ? या अल्लाह का इऱशाद कि मोमेनीन क्या मर्द क्या औरतें आपस मे एक दूसरे के दोस्त हैं , इस दोस्ती के इज़हार के लिये काफी नहीं था और क्या पैग़म्बर (स.अ.व.व.) अपनी हाकिमाना हैसियत मनवाये बगै़र इस मक़सद में कामयाब नहीं हो सकते थे ? बिला शुबहा दोस्त व नासिर के माने मुराद लेने से यह तमाम चीज़ें बेमाने व बेहक़ीक़त होकर रह जायेंगी और फिर इस पर भी नजर डालिये कि पैगम़्बर (स.अ.व.व.) को नुसरत व दोस्ती का ऐलान से क्या ख़तरा हो सकता था कि कुदरत को ये कहना प़ड़ा कि (ख़ुदा तुम्हें लोगों के शर से महफूज़ रखेगा) और फिर यह ख़तरा बैरूनी ख़तरा भीनहीं हो सकता इसलिये कि तमाम बैरूनी ख़तरो का इन्साद किया जा चुका था। अभ अगर ख़तरा था तो अन्दरूनी ख़तरा था और ये इसी सूरत में मुम्किन था जब पैग़म्बर (स.अ.व.व.) का ऐलान एक तबक़े के सियासी मसालेह से मुतसादिम होता।
यह तमाम क़राईन व शवाहिद इस बात का सुबूत हैं कि इस मुक़ाम पर मौला के माने हाकिम व मुतसर्रिक़ के हैं और जिस तरह आन ज़रत (स.अ.व.व.) की विलायत व हाकिमयत का इक़रार ज़रूरी है इसी तरह अली (अ.स.) की विलायत व हाकिमयत का इक़रार भी लाज़मी है और इसी माने की तौज़ी के पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने अपनी हाकिमाना व मुतसर्रेफ़ाना हैसियत का इक़रार लिया था वरना इसकी ज़रूरत ही न थी। हज़रत उमर ने भी मुबारकबाद कुछ मसझ कर ही पेश की होगी। अगर इसमें कोई नुमायां पहलू न होता तो फिर तहनियत या मुबारकबाद की ज़रूरत ही क्या थी ? अगर इन्साफ़ व हक़ पसन्दी से काम लिया जाये तो कोई शुब्हा बाक़ी नही रहता कि ये ऐलान इसी ऐलान की सदाये बाज़गश्त था जो वाकि़ये ग़दीर से बीस बरस पहले दावते अशीरा के एक महदूद हलक़े में किया गया था कि (ये मेरा भाई मेरा वली अहद और मेरा जॉनशीन है इसकी सुनों और मानों) 1
इस ग़दीरी ऐलान से न सिर्फ़ मसअले ख़िलाफ़त में इस मसअले की अहमियत व बुनियादी हैसियत भी नुमायां हो जाती है अगर चे सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) ने बेइस्त से हिजरत तक और हिजरत से हुज्जतुल विदा तक उन तमाम एहकाम की तबलीग़ की जो वक़तन फ़वक़तन आप पर नाज़िल होते रहे और मुसलमान उन एहकाम पर अमल भी करते रहे चुनानचे वह नमाज़े पढ़ते , रोज़े रखते , ज़कात देते और जेहद में शरीक होते थे और हज के मौक़े पर भी चारों तरफ़ से सिमट कर जमा हो गये थे मगर कुरान की आयत (अगर तुमने ये न किया तो गोया कोई पैग़ाम पहुँचाया ही नहीं) से ज़ाहिर है कि इस आख़िरी तबलीग़ के बग़ैर तमाम एहकाम की तबलीग़ न तमाम बल्कि क़लअदम थी। अल्लाह ने किसी हाकिम की तबलीग़ को किसी दूसरे हुक्म की तबलीग़ पर मौक़ूफ़ नहीं रखा मगर यहां पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) की तेईस साला तबलीग़ को सिर्फ़ इस तबलीग़ पर मुन्हसिर किया गया है इस तरह कि अगर यह तबलीग़ न होती तो दीन नातमाम रह जाता और कारे रिसालत पाये तकमील को न पहुँचता। इससे दो चीज़ों का सुबूत मिलता है एक तो यह कि हज़रत अली (अ.स.) की हाकमाना हैसियत इस्लाम में अस्ल व असास की है और दूसरे आमाल व एहकाम की हैसियत फुरू की है जिस तरह बुनियाद के बग़ैर कोई इमारत रस्तेहकाम नहीं पा सकती उसी तरह इस आख़री ऐलानके बग़ैर रिसालत न तमाम रहती और दीने इस्लाम तमाम व कमाल की मंज़िल तक न पहुँचता। (लेहाज़ा रिसालत को अगर उसूल में शुमार किया जा सकता है तो जिसे तकमिलये तबलीग़े रिसालत क़रार दिया गाय है उसे भी उसूल में शामिल होना चाहिये।
गवर्नरों की तक़रूरी
हुज्ज़तुल विदा से वापसी कर पैग़म्बरे अक़रम (स.अ.व.व.) को ख़ुदा मौसूल हुई कि हाकिमे यहम बाजा़न का इन्तेक़ाल हो गया जो मुसलमान होने की वजह से यमन की हुकूमत पर बदस्तूर व बिला शिरकत ग़ैर बहाल रखा गया था। उसकी वफ़ात पर आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने यमन को मुक़़तलिफ़ सूब में तक़सीम करके हर सूबे के लिये गवर्रनरों की तक़र्रूरी की चुनानचे सनआ में तकसीम करके हर सूबे के लिये ग़वर्रनरों की तक़र्रूरी की चुनानचे सनआ में बाज़ान के बेटे शहर को गवर्नर बनाया , हमदान में आमिर बिन शहर हमदानी को मुक़र्रर किया , मारब में अबु मूसा अशरी , जनिद में यला बिन उमय्या , अक और अशर में ताहिर इब्ने अबी हाला , नजरान , जमआ और जबीदे के दरमियानी इलाकों में सईद बिन आस , नजरान में अम्र बिन हजम , हज़र मौत में ज़्याद बिन अबदी और सकासिक में अकाशा बिन सूर को गवर्नरी के ओहदों पर फायज़ किया। इब्ने ख़लदून का ब्यान है कि इस वाक़िये से पहले अदी बिन हातिम बिन तय के , असद और मालिक बिन नवीरा बिन हज़ला के , हज़रत अली (अ.स.) बनि नजरान के और आला हज़रमी बहरैन के सदक़ात व जज़ियात की वसूलियाबी पर मुक़र्र थे और बनु सईद का सदक़ा उन्हीं में से दो आदमियों पर तक़सीम कर दिया गया था। हज़रत अली (अ.स.) नजरान का सदक़ा व जज़िया वसूल करके हुज्जतुल विदा में आकर शरीक हो गये थे।
असूद अनसी का वाक़िया
अस्ल नाम अबहला बिन काब , लक़ब जुलखेमार और कुन्नियत असूद थी। कहफ़ हिनाद नामी एक क़रिये में पैदा हुआ और वहीं पल पढ़ कर जवान हुआ। शोबदा बाज़ी में मुम्ताज़ और इल्म कहानत का बड़ा आलिम था। उसके हुस्ने इख़लाक़ और शीरीं कलामी की बिना पर बहुत जल्द लोग उससे मानूस हो जाते थे। सन् 6 हिजरी में मुसलमान हुआ उसके बाद मुरतिद होकर उसने अपनी नबूवत का दावा किया। मज़हिज और नजरान के लोगों ने इसकी इताअत कुबूल कर ली और अहले नजरान नवे मुत्ताहिद होकर पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) की तरफ़ से मुक़र्रर करदा मुसमलान आमिलों अम्र बिन हज़म और ख़ालिद सईद को अपने यहां से निकाल बाहर िकया और ङसर का नज़म व नस्क़ मुकम्मल तौर पर असूद के हवाले कर दिया दूसरी तरफ़ कै़स इब्ने यागूस ने हमला करके फ़रदा बिन मुसीक को जिला वतन कर दिया जो बनि मुराद पर आन हज़रत (स.अ.व.व.) की तरफ़ से आमिल थे। उसके बाद असूद अनसी ने सात सौ सवारों को लेकर सनआ पर चढ़ाई की और शहर बिन बाज़ान को क़त्ल कर दिया नीज़ इसकी बीवी से अक़द कर लिया इस तरह वह सनआ , हज़रमौत , ताएफ़ और अदन के तमाम दरमियानी इलाक़ों पर काबिज़ व मुतसर्रिफ़ हो गया। और बहरैन का भी कुछ हिस्सा उसने अपने क़ब्ज़े में ले लिया। इस वाक़िये से उन इलाक़ोंके अकसर मुसलमान मुरतद हो गये। अम्र बिन माद यकरब भी जो मुसलमान हो गया था ख़िलद बिन सईद से अलहैदा होकर असूद से मिल गया और असूद ने उसे मज़हिज की सरदारी दे दी। ग़र्ज़ कि यमन में जब आम बग़ावत फैल गई तो अम्र बिन सईद से अलहैदा होकर असूद से मिल गया और असूद ने उसे मज़हिज की सरदारी दे दी। ग़र्ज़ कि यमन में जब आम बग़ावत फैल गई तो अम्र बिन हज़म और ख़ालिद बिन सईद ने मदीने मं आकर आन हज़रत (स.अ.व.व.) से सारा वाक़िया ब्यान किया। पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने एक क़ासिद की मारफ़त एक मकतूब अबुमूसा अशरी , मआज़ और तहिर के पास रवाना किया जो इस हंगामें की वजह से रूपोश थे। इस में आपने तहरीर फरमाया कि अगर तुम लोगों से मुम्किन हो सके तो असूद अनसी को क़त्ल करे दो।
शहर की बीवी जिसे असूद ने शहर के क़त्ल के बाद अपनी बीवी बना लिया था फिरोज़ नामी एक शख़्स की चचा ज़ाद बहन थी जो सन् 10 हिजरी में मुसलमान हुआ था असूद से अपने बहनोई शहर के ख़ून का क़सास लेना चाहता था उधऱ क़ैस इब्ने यागूस असूद के गुरूर व नख़वत की वजह से पेच व ताब खाता था , आन हज़रत (स.अ.व.व.) के आमिलों अबुमूसा अशरी वग़ैरा ने उन दोनों को मिला लिया। असूद का फ़िरोज़ और क़ैस का हाल मालूम हुआ तो उसने उन्हें क़त्ल करना चाहा। वह लोग अपनी जान के ख़ौफ से छिप गयेमगर उन लोगों ने असूद की बीवी से जो दरपर्दा रखा। एक रात मौक़ा पाकर फ़िरोज़ और क़ैस असूद के घर के अन्दर घुस गये और उसे ज़बह कर डाला। गर्दन पर खन्जर चलते वक़्त जब असूद के नरखऱ़रे से ग़रगराहट की आवाज़ बुलन्द हुई तो दरबानों ने उसकी बीवी से पूछा कि क्या मामला है उसने कहा कि नबी पर वही नाज़िल हो रही है।
सुबह हुई तो शहर पर इस्लामी परचम लहरा रहा था। और यह ऐलान किया गया कि असूद मारा गया। इस ऐलान को सुन कर सनआ व नजरान के तमाम इलाक़े मुरतदीन से ख़ाली हो गये। आन हज़रत (स.अ.व.व.) आमिल हस्बे साबिक़ अपने अपने इलाक़ों में फिर वारिद हुए और सनआ के आमिल मआज इब्ने जबल मुकर्रर हुये।
दीगर मुदईयाने नबूवत
हुज्जतुल विदा की वापसी के बाद जब सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) की अलालत का सिलसिला शुरू हुआ और उसकी ख़बर इतराफ़ व जवानिब में आम हुई तो इस मौक़े से फ़ायदा उठाते हुए मुख़तलिफ़ क़बाएल में मुतअददिद लोगों ने नबूवत का दावा किया मसलन बनि हनीफ़ा में मुस्लिमा कज़ाब यमामा बनुअसद में तलीहा बिन ख़ुवैलद./सजआ बिन हारिस तभी मा वग़ैरा इब्ने ख़लेदून का बयान है कि हुज्जतुल विदा के बाद असूद केज़मानए खुरूज में मुसलेमा क़ज़्ज़ाब यमामा में और तलीहा बिन ख़्वैलद बनूअसद में नबूवत के मुद्दई हुए लेकिन उनकी सरकूबी को हर तरफ़ से इस्लामी लश्कर निकल पड़ा। मुसलेमा का एक ख़त आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में इस मज़मून का आया कि मैं तुम्हारे काम में तुम्हारा शरीक हूँ इसलिये ममलिकते इस्लामिया की निसफ़ जम़ीने मेरी और निसफ़ आपकी हैं। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने जवाब में तहरीर फ़रमाया कि सारी ज़मीन अल्लाह की है वह जिसे चाहे उसका वारिस व मालिक बनाये और भलाई आख़ेरात से डरने वालों के लिये है। आन हज़रत (स.अ.व.व.) का यह ख़त लेकर हबीब बिन ज़ैद बिन आसिम गये थे लेकिन मुस्लिमा ने उनके दोनों हाथ और पांव कटवा दिये।
मुख़तलिफ़ वाक़ियात
• रमज़ान सन् 10 हिजरी मे बनी ग़सान और बनि अमीर के लोगों ने इस्लाम कुबूल किया। शव्वाल में सलमान , आजुद और जरश के वफूद मदीने आये और मुसलमान हुए।
• इसी साल हज़रत अली (अ.स.) के हाथ पर बैयत करके हमदान का पूरा क़बीला एक ही दिन में मुसलमान हुआ। इसी साल बनि मुराद और अबदे कैस मुसलमान हुए इसी अशअस बिन क़ैस कन्दी का वफ़द आया और कन्दा के बहुत से लोग मुसलमान हुए और इसी साल कनाना , हज़रमौत , बनि महारिब , बनि मज़हिज , ख़ूलान और तय वग़ैरा के लोगों ने इस्लाम कुबूल किया। तबरी का कहना है कि अदी बिन हातिम का वफ़द भी इसी सन् में आया।
(सन् 11 हिजरी)
जैश उसामा
पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) ने दावते इस्लाम के सिलसिले में हारिस बिन अमीर अज़दी को अफना सफ़ीर बना कर हाकिम मसरा के पास भेजा था मगर रास्ते में बलक़ा के हाकिम शरजील बिन अम्र ग़सानी ने उन्हें ग़िरफ़्तार करके क़त्ल करा दिया आन हज़रत (स.अ.व.व.) के इसकी इत्तेला हुई तो आपने ती न हज़ार का एक लश्कर ज़ैद इब्ने हारिसा , जाफ़र इब्ने अबीतालिब और अब्दुल्लाह इब्ने रवाहा की सरकरदगी में तरतीब दिया और फ़रमायाकि अगर ज़ैद शहीद हो जायें तो अब्दुल्लाह इब्ने रवाहा सिपेह सलाह होंगे। जब यह लश्कर मआन में पहुँचा तो मालूम हुआ कि हरकुल रोम , रोम व शाम की फ़ौजों के साथ बलक़ा में छावनी डाले प़डा है। मुसलमानों को दुश्मनों की कसरत व कूवत का पता चला तो हरासां होकर मेआन में रूक गये और कहने लगे हमें मदीने से मज़ीद कुमक तलब करना चाहिये मगर अब्दुल्लाह इब्ने रवाहा ने लश्कर का हौसला बढ़ाया और कहा कि हमें दुश्मनों की कसरत से मरऊब नहीं होना चाहिये और आगे बढ़कर मुक़ाबिला करना चाहिये। मुसलमानों की हिम्मत बन्धी और उन्होंने क़दम आगे बढ़ा दिये जब बलक़ा के एक क़रिया मशारिफ़ में पहुँचे तो दुश्मन की नक़ल व हरकत को देख कर मौता की तरफ़ मुड़ गे ताकि किसी मुनासिब मुक़ाम पर दुश्मन से बरसरे पैकार हो सकें। जब मौत में पहुँचे तो एक मैदान में सफ़ बन्दी की , दुश्मन ने भी वहां पहुँच कर सफें जमा दीं और मारका कार ज़ार शुरू हो गया। ज़ैद बिन हारसा अलम लेकर लड़ने निकले और शहीद हो गये। उनके बाद ज़ाफर इब्ने अबीतालिब अलम लेकर मैदान में उतरे , किसी की तलवार पड़ी और आप का दाहिना हाथ क़लम हो गया आपने बायें हाथ से अलम संभाला जब वह भी क़ता हो गया तो अलम को सीने से लगाया और ज़ख़्मों से चूर चूर होकर मनसबे शहादत पर फ़ायज़ हुए फिर अब्दुल्लाह इब्ने रवाहा ने अलम संभाला और जंग करते हुए वह भी शहीद हो गये। अब्दुल्लाह के बाद लोगों ने ख़ालिद बिन वलीद को सरदार मुक़र्रर किया उन्होंने थोड़ी देर लडाई को जारी रखा लेकिन जब रात का अंधेरा फेला और जंग रुक गई तो उन्होंने मौका ग़नीमत जानकर रातों रात मैदान खाली कर दिया और सीधे मदीने का रूख़ कर लिया। जब यह शिकस्त ख़ुर्दा लश्कर मदीनामें पहुंचा और लोगों को उनके फ़रार का हाल मालूम हुआ तो मर्द तो मर्द औरतों ने भी मिट्टी उठा उठा कर उनके मुंह फर फेंकना शूरू की और उन्हें भगोडों के नाम से याद किया। यह लोग शर्म के मारे मुंह छिपाते फिरते थे। सलमा बिन हिशाम ने जो इस लश्कर में शरीक थे मस्जिद में आना छोड़ दिया था इसलिय कि जब वह मस्जिद में आते तो लोग कहते कि तुम हो जो अल्लाह की राह से भाग निकले थे। 1
ये वाक़िया जमादुल अव्वल सन् 8 हिजरी मे रूनुमा हुआ था जिसका इजमाली हाल सन् 8 हिजरी के वाक़ियात में आप पढ़ चुके हैं। लेकिन अभी तक शोहदाये मौता के क़ेसास के लिये कोई क़दम नहीं उठाया गया था। शायद पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) किसी मसलेहत की बिना पर उसे अपनी ज़िन्दगी के आख़िरी दिनों के लिये उठा रखना चाहते थे चुनानचे अपनी बीमारी के अय्याम में एक अट्ठारा साला नौजवान उसामा बिन ज़ैद के ज़रे क़यादत आप ने एक लश्कर तरतीब दिया और तमाम मुहाजेरीन व अन्सार को उनकी मातहती में हुकूमते रोम से मुक़ाबिले के लिये जाने पर मामूर किया। इब्ने साद का कहना है किः-
(मुहाजेरीन व अन्सार अव्वलीन में कोई नुमाया फ़र्द ऐसी न थी जिसे इश जंग में शिरकत के लिये न कहा गयचा हो उन लोगों में अबुबकर , उमर बिन ख़त्ताब , अबीदा इब्ने जराह , साद इब्ने अबी विक़ास , साद इब्ने ज़ैद , क़ताबा इब्ने नोमान और सलमा इब्ने असलम इब्ने हुरैश भी शामिल थे।) 1
पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) ने अपनी अलालत के बावजूद अपने हाथों से अलम सज कर उसामा को दिया थो उनके साथ जाने के बजाये मुसलमानों ने उनकी अफ़सरी पर अन्छर बाजियां शूरी कर दीं और खुल कर एतराज़ात करने लगे। किसी ने कहा ये अभी नौ उम्र व नातजुर्बा कार हैं और किसी ने उन्हें गुलाम का बेटा कह कर अपनी फ़ज़ीलत और बरतरी का इज़हार किया। हुजूरे अकरम (स.अ.व.व.) के कानों में जब उनकी नुकता चीनियों की सदायं पहुँची तो आप बुख़ार की हालत में सर पर पट्टी बाँधें हुए बाहर आये और फ़रमाया-
अगर तुम लोगं उसामा की अमारत पर मोतरिज़ हो तो
उस से पहले भी उसके बाप की अमारत पर तानाज़नी कर
चुके हो ख़ुदा की क़सम वह अमारत का सज़ावार था और
मेरी नज़रों में दूसरों से ज़्यादा पसन्दीदा था और उसके बाद
ये भी मेरी नज़रों में दूसरों से ज़्यादा पसन्दीदा और अज़ीज़ है। 2
उसके बाद घर के अन्दर तशरीफ़ ले गये और आप पर मर्ज़ को ग़लबा हुआ मगर इस हालत में भी आपकी ज़बाने मुबारक पर यही फ़िक़रा था कि उसामा के लश्कर को जल्दी भेजो , जल्दवा रवाना करो।
उसामा आपकी मिज़ाज़ पुरसी के लिये आये और उन्होंने कहा या रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ! आपकी सेहत के बाद लश्कर की रवानगी बेहतर होगी , फ़रमाया तुम लश्कर को लेकर फ़ौरन चले जाओ इस अरम में ज़रा भी ताख़ीर मुनासिब नहीं है। उसामा वहां से उठ खड़े हुए और जाने की तैयारियों में लग गये। उधर पैगम़्बर (स.अ.व.व.) पर मर्ज़ का मज़ीद दवाब बढ़ गया और ग़शी की क़ैफियत तारी हो गीई। मगर जब तबियत क़दरे संभली तो फिर यही पूछा कि क्या लश्कर रवाना हो गया ? बताया गया कि अभी जाने की तैयारियां हो रही हैं। ये सुनकर हुजूर की पेशानी पर नागवारी की शिकनें उभरी और फ़रमाया कि उसामा के लश्कर को जल्द रवाना करो , खुदा लानत करे उन पर जो इस लश्कर में शरीक न हों।)
आन हज़रत (स.अ.व.व.) की मुसलसल ताक़ीद व तहदीद पर उसामाका लश्कर रवाना तो हुआ मगर मदीने से तीन मील की दूरी पर जर्फ़ नामी एक मुक़ाम पर उसे ठहर जाना पड़ा क्योंकि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की सख़्त ताकी़द के बावजूद हज़रत अबुबकर और हज़रत उमर वग़ैरा इस में शरीक नहीं हुए थे। इतने में उसामा को हज़रत अयशा का ये पैग़ाम मिला कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) की हालत नाजुक है लेहाज़ा लश्कर को पलट आना चाहिये।
पैग़म्बर (स.अ.व.व.) का हुक्म अहले इस्लाम के नज़दीक हुक्मे इलाही का तरजुमान होता है और उसकी मुख़ालेफ़त हुक्मे इलाही की मुख़ालेफ़त है मगर उसके बावजूद यह ताक़ीदी फ़रमान हवा में उड़ा दिया जाता है और मामूरीन में से कोई इस पर अमल पैरा होता नज़र नहीं आता। काग़ज़ व क़लम के तलब करने पर तो हिज़यान की आड़ में ख़िलाफ़ वर्ज़ीं का जवाज़ पैदा कर लिया गया मगर इश हुक्म की मुख़ालेफ़त का क्या जवाज़ है ?
इस जैश की तशकील की मसलहत और उसके जेल में ख़िलाफ़ वर्ज़ी के अलल व असबाब को समझने के लिये ज़रुरी है कि इस वाक़िये के पस मन्ज़र का जाएज़ा लिया जाये और इन हालात का जाएज़ा लिया जाये जिन हालात के तहत हज़रत रसूल खुदा (स.अ.व.व.) ने मुहाजेरीन व अन्सार को उसामा के ज़ेरे क़यादत मदीने से रवानगी का हुक्म दिया था।
तारीख़ बताती है कि हुज्जातुल विदा के बाद से पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की तबीयत नासाज़ रहने लगी थी और यही बीमारी मौत का पेशे ख़ेमा बनी। आन हज़रत (स.अ.व.व.) हुज्जातुल विदा और ग़दीरे खुम के खुतबों में यह ख़बर दे चुके थे कि मेरी रेहलत का ज़माना क़रीब है और उसके बाद भी अक़सर व बेशतर आपकी ज़बान से यह कलेमात सुने गये जो एक तरह से मौत का वाज़े ऐलान थे और सहाबा भी समझ रहे थे कि रहमतों का वह आसमान को तेईस साल से उनके सरों पर सायाफ़ेगन था पेवन्दे ख़ाक होने वाला है। चुनानचे अब्दु्ल्लाह इब्ने मसऊद कहते हैं कि हमारे पैगम़्बर (स.अ.व.व.) ने क महीने पहले अपने रेहलत की ख़बर दे दी थी। 2
सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) एक तरफ़ अपने सफ़रे आख़ेरत की ख़बर दे रहे थे और दूसरी तरफ़ ऐसे फ़ितनों के रूनुमा होने की पेशिनगोईयां भी फरमां रहे थे जो शबे तारीक की तरह उफ़क़े इस्लाम की तरफ़ बढ़ रहे थे और दीने हक़ की नूरानी फ़ज़ा पर मोहीत हो जाना चाहते थे चुनानचे अपनी ज़िन्दगी के आख़िरी अय्याम में एक रात जन्नतुल बकी में तशरीफ़ ले गये , अहले कुबूर के हक़ मं दुआये मग़फ़ेरत की और उन पर सलाम के बाद फ़रमाया- (जिस हाल में जिन्दा लोग हैं उसे देखते हुए यह हाल तुम्हें मुबारक हो , अब तू काली रातो की तरह फ़ितने पै दर पै बढ़ते चले ा रहे हैं और जो फ़ितना उठेगा वह पहले फ़ितने से बत्तर होगा। 1
इन हालात में कि एक तरफ़ सफ़र आख़रत का वक़्त क़रीब तर है और दूसरी तरफ़ फ़ितने सर उठाते नज़र आ रहे हैं , उन फ़ितनों का इन्सेदाद ज़रुरी था या मौता के उन शहीदों का क़ेसास , जिन्हें शहीद हुए दो ढ़ाई साल का अरसा गुज़र चुका था और इस अर्से में इधर कोई तवज्जो की गयी और न कोई अमली इक़दाम किया गाय अगर दुश्मन हमला आवर होता तो फ़ौजी इक़दाम बहरहाल ज़रुरी था मगर उनमें से कोई एक बात भी न थी। न दुश्मन ने चढ़ाई की थी न मुल्क गीरी की हवस का सवाल था अचानक उसकी अहमियत का इतना एहसास क्योंकि जब ग़शी से आँख खुलती है तो बारबार यही फ़रमाते हैं कि जिस तरह बन पड़े लश्कर को भेज दो और मैं अपनी ज़िन्दगी में इस बात से मुतमईन हो जाऊँ कि लश्कर जा चुका है। फिर इश ताकीद ने तहदीद की सूरत इख़तेयार कर ली और फ़रमाया कि जो लश्कर में शरीक होकर जाने से गुरेज़ करे वह अल्लाह की लानत का सज़ावार है। तारीख़ गवाह है कि इससे पहले हुजुरे अकरम (स.अ.व.व.) ने यह तहदीद लेहज़ा इख़्तेयार नहीं किया था बल्कि जंग व जेहाद जाने मे अगर किसी ने उज्र किया तो उसका उज्र। मन्ज़ूर कर लिया और अगर किसी ने कोई मजबूरी ज़ाहिर की तो उसे फ़ुर्सत दे दी , मगर यहां तो बस एक ही अटल फैसला है कि मदीना खाली करो और चले जाओ। इस फ़ेसले में न तो रद्दो बदल की गुँजाइश है और न तरमीम की हालाँकि ज़िन्दगी के आख़िरी लम्हात में हर इन्सान की यह ख़्वाहिश होती है कि इसके एहबाब व असहाब और अजीज़ व अक़रूबा सब इसके गिर्द जमा रहे , तज़हीज़ व तकफ़ीन में हिस्सा लें और नमाज़ जनाज़े में शरीक हों।
इसकी वजह सिर्फ़ यह थी कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) अपने हल्क़े बगोशों की तरफ़ से मुतमईन न थे क्योंकि कुछ लोग आपकी ख़बर अलालत सुन कर इस्लाम से मुनहिरफ़ हो रहे थे और कुछ लोगों के तौर तरीक़े यह बता रहे थे कि वह इक़तेदार की राहे हमवार करने की फ़िक्र में लगे हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) मुख़तलिफ़ मौक़े पर और खुसूसन ग़दीरे खुम के मौक़े पर यह ऐलान कर चुके थे कि उनके बाद अली (अ.स.) ख़लीफ़ा और वलीए अमर होंगे मगर इसके साथ कुछ मुश्किलात भी आपके पेश नज़र थीं , आप देख रहे थे कि कुछ लोगों की नज़रों में अली (अ.स.) का मामूली इम्तेया़ज़ भी कांटे की तरह खटकता है और वह बात बात पर शिकायतों का दफ़्तर खोल देते हैं। यक़ीनन यह लोग दावते जुलअशीरा के अहद व पैमान और ग़दीरे ख़ुम के ऐलानको अमली शक्ल में देख कर मजाहिम होंगे और जिनका बूढों ने आपकी ज़िन्दगी में उसामा की क़यादत को उनकी नौ उम्री की वजह से तस्लीम नहीं किया वह हज़रत अली (अ.स.) को किस तरह बिलाचून व चरा नुमाइन्दा इस्लाम और ख़लीफ़ा रसूल तसलीम करेंगे ? क्या उनकी कम उम्री पर एतराज़ न होगा ? हालाँकि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने एक नौजवान को उन बुजुर्गों पर अमीर व क़ायद मुक़र्रर करके इस एतराज़ की गुंजाइश ख़त्म कर दी थी फिर भी हज़रत अली (अ.स.) इससे बच न सके और कहा गाय कि वह अभी जवान है और ख़िलाफ़त व अमारत के लिये कोई उम्र रसीदा और बूढ़ा आदमी ही मजूं हो सकता है।
अगर ग़ौर व फ़िक्र की निगाहों से देखा जाये तो इस इमर में कोई हक़ व शुबहा नहीं रहता कि लश्करे उसामा की तशकील में जहां यह मक़सद कार फ़रमां था कि शोहदाये मौता का इन्तेका़म लिया जाये वहां यह अहम मक़सद भी मुज़मिर था कि जिन लोगं से यह अन्देशा हो सकता था कि वह हज़रत अली (अ.स.) की ख़िलाफ़त की अमली तक़मील में मज़ाहिम होंगे उन्हें इतने अरसे के लिये मदीने से बाहर भेज दिया जाये कि जब वह पलट कर आयें तो ख़िलाफ़त अपने असल मरकज़ पर मुस्तक़र हो चुकी हो और तमाम रख़ना अन्दाजियों का सद्देबाब हो चुका हो। हालाँकि सराकेर दो आलम (स.अ.व.व.) बखूबी इस अमर से भी वाक़िफ थे कि यह लोग जाने वाले नहीं है मगर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) होने की हैसियत से बहरहाल आपका यह फ़र्ज़े मनसबी था कि ख़ामोश रहने के बजाये मुसलसल जद्दो जहद करते रहें और लोगों की नाफ़रमानी व ख़िलाफ़वर्ज़ी से घबरा कर सिपर अन्दाख़्ता न हों। चुनानचे आन हज़रत (स.अ.व.व.) का यह इसरार रायेगा नहीं गया कम अज़ कम इससे अतना तो ज़रुर हुआ कि लोगों के दिलों में छिपी हुई वहसे इक़तेदार नुमांया होकर सामने आ गयी और उनके इस इक़तेदार की शरयी हैसियत भी वाज़े हो गयी। इस तरह यह एक आसाबी जंग थी झो अन्दर ही अन्दर लड़ी जा रही थी। उधऱ पैग़म्बर (स.अ.व.व.) उन्हें लश्कर के साथ जाने के लिये कहते थे इधर वह लोग जाते और कभी मिजाज़ पुरसी के हीले से , कभी सामाने जंग की फ़राहमी के बहाने से फिर पलट आते। ग़र्ज़ की पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने तमाम कोशिशें सर्फ कर दीं मगर उन्हें न जाना था न गये। यहां तक कि हुजुरे अकरम (स.अ.व.व.) इस दुनिया से रूख़सत हो गये।
पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) की ज़िन्दगी में तो उनका हुक्म हवस हुक्मरानी के बोझ तले दब कर रह जाता है और बार-बार ताक़ीद व तहदीद के बावजूद बोझल क़दमों में जुन्बिश पैदा नहीं होती मगर जब ख़िलाफ़त का मसला हल कर लिया जाता है तो सब से पहले लश्करे उसामा की रवानगी का इन्तेजाम किया जाता है ताकि इस तरह हुक्मे रसूल (स.अ.व.व.) की नाफ़रमानी का धब्बा भी धुल जाये और यह तअस्सुर भी दिया जा सके कि हुक्मे रसूल (स.अ.व.व.) का इस कद्र पास व लेहाज़ था कि इक़तेदार की बाग डोर हाथ में लेते ही फ़ौरन लश्कर रवाना कर दिया गया। अगर चे एक कसीर तादाद ने इसकी मुख़ालेफ़त भी की थी मगर हज़रत अबुबकर का इसरार था कि लश्कर को ज़रुर रवाना होना चाहिये और जिसे चन्द दिन पहले इमारत व सरदारी का अहल नहीं समझा गया था उसे अहल समझ लिया गया। अन्सार की राय ये थी कि लश्कर की रवानगी मुलतवी कर दी जाये और अगर मुलतवी न की जाये तो उसामा के बजाये किसी मोअम्मर शख़्स को लश्कर की अमारत व सरदारी सुपुर्द कर दी जाये चुनानचे हज़रत उमर ने अन्सार के ख़्यालात की तरजुमानी करते हुए हज़रत अबुबकर से कहा कि उसामा को बर तरफ़ कर दिया जाये जिस पर अबुबकर ने उमर की दाढ़ी पर हाथ डाल दिया और झिटकते हुए कहा किः (ऐ पिसरे ख़त्ताब! इसे रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ने सरदार मुक़र्रर किया है और तू कहता है कि मैं उसे अलहैदा कर दूँ।)
अगर लश्कर की रवानगी में हुक्मे रसूल (स.अ.व.व.) का एहतराम मलहूज़ था तो एहतराम का तक़ाज़ा यह भी था कि उसामा की माज़ूली का मुतालिबा न किया जाता इस लिये कि वह रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) के मुन्तख़ब करदा थे और रसूल (स.अ.व.व.) ने उन लोगों से ख़फ़गी का भी इज़हार कियचा धा जिन्होंने उनकी अमारत पर नुक्ता चीनी की थी। अगरचे हज़रत उमर अन्सार के पैग़म्बर थे मगर इस माज़ूली में वह भी उनके हमनवा थे। इसलिये कि वह अगर हमनवा न होते तो वह अन्सार के पैग़ाम्बर बन कर आने के बजाये खुद उनसे यह कह देते कि उसामा रसूल (स.अ.व.व.) के मुक़र्रर करदा हैं तुम लोग उनकी माज़ूली का मुतालिबा करने वाले कौन हो ? या यह भी कह सकते थे कि तुम लोग ख़ुद अबुबकर के पास चले जाओ और उनसे कहो कि उसामा बो बर तरफ़ कर दें और हज़रत अबुबकर भी हज़रत उमर की दाढ़ी पर हाथ साफ़ करने के बजाये अन्सार पार बिगड़ते।
बहर हाल अबुबकर के कहने सुनने से उसामा की अमारत तो कर ली मगर फिर भी कुछ लोग उनसे किनारा कश रहे। जाहिर है कि हज़रत अबुबकर हुकूमत की ज़िम्मे दारियों की वजह से न गये होंगे कि क्या उसामा को यह हक़ हासिल था कि जिन लोगों के रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ने नाम ले लेकर मामूर फ़रमाया हो वह उन्हें इजाज़त दे कर रूखसत कर दें ? जबकि उनकी हैसियत सिर्फ़ एक सिपेहसलार की थी और वह क़तअन इस के मजाज ने थे कि जिसे चाहें साथ लें जिसे चाहें छोड़ दें।