हाशिम इब्ने अबदे मनाफ़
अबदे मनाफ़ के चार बेटे थे , जिनमें सबसे बड़े हाशिम और अब्दुल शमस थे क्योंकि यह दोनों तव्वम (जुड़वां) पैदा हुए थे इस तरह कि एक की ऊँगली दूसरे की पेशानी से चस्पा थी जिसे तलवार के ज़रिये अलहैदा किया गया और बे इन्तेहा खून बहा , जिसे नजूमियों ने बाहमी खूँरेज़ जंग से ताबीर किया। यह पेशिन गोई सही साबित हुई और दोनों खानदानों के दरमियान हमेशा मारकये कारज़ार गर्म रहा जिसका इख़तेताम बनि उमय्या का चिराग़ गुल होने के बाद सन् 133 हिजरी में हुआ।
आतिका बिन्ते मर्राह वह खातून है जिनका बतने मुताहर उस गौहरे नायाब का सदफ़ बना , अबदे मनाफ के सबसे छोटे बेटे मुत्तलिब थे जो हाशिम के साथ सुल्बी व बतनी इत्तेहाद रखते थे। आप (हाशिम) का अस्ल नाम (उमरूलउला) और कुन्नियत अबु नज़ला थी। क्योंकि तीर अन्दाज़ी में आपको कमाल हासिल था और यह फन हज़रत इस्माईल (स.अ.व.व.) से विरासतन मिला था।
हाशिम अपने किरदार की बदौलत दिलों पर छा गये , आपके ज़ाती औसाफ ने तमाम कुरैश की अज़मत को सिर्फ मक्का और हिजाज़ में नहीं बल्कि अरब और उसके मज़ाफ़ाती इलाक़ों में भी इस्तेक़लाली हैसियत अता की। अरबों की सोई हुयी मुआशरत को बेदार किया और उनके नज़र के धारे को मोड़ने में अहम रोल अदा किया। आपका हर तारेनफस इस्माईली रिश्ते का मज़हर था और अकसर किसी बशीर की आवाज़ आपके कानों से टकराती थी कि ऐ हाशिम! तुम्हें मुबारक हो कि अशरफे मौजूदात का ज़हूर तुम्हारी ही नस्ल से होगा। ऐसा भी होता था कि तारीकी में आपके जिस्म से शुआयें निकलती थीं।
बरहना जिस्मों को लिबात अता करना , भूकों को शिकम सेर करना , मर्राह सलीमा से हुई थी।
बरहैना जिस्मों को लिबात अता करना , भूकों को शिकम सेर करना , तंगदस्तो की दस्तगीरी करना और क़र्ज़दारों का क़र्जा अदा करना आपका शेवा और मामूल था। इन्तेहा यह थी कि जब आप कोई दावत करते या ख़्वान बिछड़ते तो मेहमानों से जो कुछ बच जाता था वह घर वापस नहीं जाता था बल्कि ग़रिबों और मिस्कीनों में तक़सीम करस दिया जाता था। यही वह ख़त व खाल थे जिन्हें एक नज़र देखने के लिए क़ैसरे रोम और शाहे हबश की गर्दनें बुलन्द रहती थी और वह लोग अपने यहाँ अक़्द के ख़्वासतगार थे मगर आपकी अज़मत ने उसे पस्त समझा।
कुरैश का दौरे इरतक़ा अगर चे क़ुसई इब्ने कलाम के जमाने से शुरू होता है लेकिन वह इब्तेदा थी। उसूल इरतेका के मुताबिक एक ही वक्त में मुम्किन नहीं होती बल्कि कतरसे को गुहर होने तक बहुत से तूफान देखने पड़ते हैं। क़ुसई की लियाकत , सलाहियत और अहलियत का हर साहबे नज़र मोतरिफ़ है उन्होंने अपनी कारगुज़ारी के दौर में गुजिशता गुमशुदा अजमतों को पाने के लिए मुल्क व क़ौम की बहबूदी पर मुनहसिर , तरतीबे निजाम की ख़ातिरस बहुत की कारआमद तदबीरें सोची और बेशतरस को जामेए अमल पहनाने में कामयाब भी हुए लेकिन हक़ीक़त यह है कि आपकी सारी तदबीरे और तजवीज़े हाशिम के हाथों नुक्तए कमाल तक पहुँचीं।
हरम के इन्तेज़ामी मुआमलात के बारे में हाशिम के दादा क़ुसई ही के ज़माने से कुछ शिकायतें चली आ रहीं थीं , अब्दुल दार के दौर में भी शिक़ायते ब-दस्तूर रहीं और रफ्ता रफ्ता जब उनमें अबतरी पैदा हुई तो जनाबे हाशिम ने मदाख़लत ज़रुरी समझी। अगर रहम का मुआमला न होता तो शायद आप यह इक़दाम न करते चुनानचे एक दिन आपने सब भाईयों को जमा किया और जो क़ाबिले इस्लाह उमूर थे उन्हें उनके पास रखा। चूँकि इस इकदाम मे हरम की खिदमत का बे लौस जज़बा कारेफरमां था इसलिए किसी ने मुख़ालिफत नहीं कि बल्कि सब इस बात पर मुतफ्फिक ग़र्ज़ कि हाशिम ने अपनी जमात को रिश्तए इत्तेहाद में मुन्सलिक करने के बाद , बनि अब्दुलदार को हरम की ख़िदमतों से दस्तबरदार होने का पैगा़म भेजा , उन लोगों ने इन्कार किया जिसकी बिना पर बाहम इख़तेलाफ़ात रुनूमां हुए यहाँ तक कि मारकए कारजार गर्म होने की सूरत पैदा होने लगी तो इन शरायत पर मुसालिहात हुई कि सक़ायत , रिफादत और दारूल नदवा के मनासिब हाशिम के पास रहे और हिजाबत व लिवाअ के मुआमलात को बनि अब्दुलदार देखें। इन तीनों ख़िदमतों को जिस खुश असलूबी से जनाबे हाशिम ने अन्जाम दिया वह इस्लाम की तारीख़ में यादगार है।
जनाबे हाशिम की क़ौमी ख़िदमात
कौन नाहमवार ज़हन ऐसा होगा जिसको अरब की बे सरो सामानी और बे माएगी का इल्म न हो। दुनिया जानती है कि इस दौर में यह वह इन्तेहाई मुफ़लिस और नादार थे और अपनी नादारी व बेनवाई की इस्लाह उनके बस की बात न थी और जब तक नादारी दूर न हो तमद्दुन व मुआशरती तरक़्क़ी हासिल नहीं हो सकती। यही वह हालत थी , जिसने जनाबे हाशिम जैसे हमदर्द को खड़े होने पर मजबूर कर दिया। आपने जंग खुरदा ज़ेहनों और दिलों को इकदाम व अमल से आशन किया। सूमसार ख़ौर क़ौम के दिल में नई उमंगों ने अंगड़ाई ली। अरसे दराज के बाद मज़बलों और गन्दगी के खण्डहरों मे नशोनुमा पाने वाले खयालात ने शाहीन के बाल व पर पैदा किये पस्ती , बुलन्दी की तरफ मायल हुई और रफ्ता रफ्ता मफ़लूकुलहाल क़ौम कारोबारी बन गयी। तमाम मशरिक़ी व मग़रीबी मुवर्रेख़ीन का इस अमर पर इत्तेफाक़ है कि परेशान हाल अरबों के दिलों दिमाग में व्योपार का शौक़ जनाबे हाशिम ने पैदा किया उससे क़ब्ल तिजारत बनि कतूरा , बनि सियारा और असहाब मदीन के दरमियान महदूद थीं।
यहाँ यह अमर काबिले तवज्जो है कि जनाबें हाशिम ने इस तारिकी के दौर में क़ौमी इस्लाह व बहबूद के लिए जो शाहराह तजवीज़ की वह आज के दौर में भी रहरवाने रह तर्की के पेशे नज़र हैं लेहाज़ा आसानी से यह नतीजा अख़ज़ किया जा सकता है कि क़ौमी ख़िदमत के लिए तक़रीबन ढेढ़ हज़ार साल क़लब हाशिमी नज़रियात इतने ही बुल-थें जितने कि आज किसी रिफारमर के हो सकते हैं।
अपनी क़ौम को तिजारत के रास्ते पर लाने के लिए जनाबे हाशिम ने अपना सरमाया भी लगाया और उनकी मुन्तशिर जमाअत को रिश्तेए इत्तेहाद में मुनसलिक ककरसे इन्सानियत का गुलदस्ता तैय्यार किया। तिजारत क़ाफिले तरतीब देने के बाद उनकी नक़ल व हरकत के उसूल मुय्यन किये। साल में दो बार मुख़तलिफ़ सिमतों में तिजारती सफर का दस्तूर मुरत्तब किया चुनानचे यह काफिले जाड़ों के दिनों में यमन व हब्शा जाते थे और गर्मियों में शाम और मज़ाफ़ात में तिजारत करते थे। इसी बिना पर जनाबे हाशिम को (ईलाफे कुरैश) कहा जाने लगा। यानि उनकी कोशिशों से बेजान क़ौम रेंगने और दौड़़ने लगी। कुरान ने भी इन समाईये जमीलो को महफूज किया और सूरये कुरैश यह कहता हुआ नाज़िल हुआ कि रसूल (स.अ.व.व.) के जद की बदौलत तुम को आज यह देखना नसीब हुआ , उसके बाद जद्दे हाशिम ने तुममें कुवते अमल बैदा की , सर्दी व गर्मी के दो सफर मुकर्रर करके तुम्हें सर्द व गर्म माहौल से रुशनास कराया , नशेब व फराज़ की ज़िन्दगी से आशना किया , बहशते सरां को मामूरए उलफ़्त बनाया , मुफलिसी व नादारी को शेर शिकमी से बदला , फिर इस कारसाज़ की तरफ क्यों नहीं झुकते ? जबीने अबुदियत को उसकी चौहकट पर ख़म क्यों नहीं करते ? दादा की बदौलत तुम को माद्दी राहत नसीब हुयी है तो उसके पोते के रूह पर परवर पैगा़म से नफ़से मुतमयिन्ना की मंज़िल पर क्यों नहीं पहुँचते ?
इसमें कोश शक नही कि जनाबे हाशिम की कोशिशों का नतीजा यह हुआ कि थोड़े ही दिनों मे कुरैश के हालात में नुमायां तौर पर तर्की और सुधार हुआ और उसके बाद वह लोग ख़ुद ही कारोबार में हमातन मसरूफ हो गये मगर उशके बावजूद हाशिमी करम उनका कफील व निगरां रहा। तबकाते इब्ने साद में है कि मक्का में कई साल मुतावातिर कहत पड़ा यहाँ मुसीबत को टालने के लिए हाशिम ने शाम का सफर इख़ितयार किया और वहाँ से गल्ला ख़रीदा , रोटियां पकवायी और उन्हं ऊँटों पर लाद कर मक्का की उस मख़लूक के सामने लाये जो मौत के साये में अपनी साँसे गिन रही थी। जिन ऊँटों पर फाख़ा काशों की ज़िन्दगी की बज़ाअत लद कर आयी थी उन्हें ज़िबह किया और उनके गोश्त से क़ोरमा तैयार कराके शाम से लायी हुई रोटियों को उसमें भिगवाया इस तरह सरीद तैयार हुयी जो अहले मक्का की शिकम सेरी का सबब बनी। यही ईसार था जिसने आपको हाशिम का ख़िताब दिया। हशम के माने तोड़ने के हैं और चूँकि आपने रोटियां तुड़वा कर सरीद तैयार कराया था इसलिए हाशिम कहलाये।
ख़ुदा ने आपकी नस्ल को गै़रफानी बुलन्दी अता की , चुनानचे बुख़ारी , मुस्लिम और तिरमिज़ी वग़ैरा में हज़रत आयशा से मरवी है कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने फरमाया , जिबरील का कहना है कि मैंने तमाम आलम छान डाला मगर किसी को ख़ुदा के हबीब से बेहतर व अफ़ज़ल नहीं पाया और ज़मीन का चप्पा चप्पा देख डाला मगर बनि हाशिम से बेहतर कोई खानदान नहीं मिला। क़ाज़ी अयाज़ ने (शिफाअ) में लिखा है कि ख़ुदा ने औलादे इब्राहीम में इस्माईल को , इस्माईल में कुरैश को और कुरैश में बनि हाशिम को पसन्द किया।
जनाबे हाशिम ने अपनी शादी अपने ही खानदान की एक ख़ातून से की थी मगर जब ज़िन्दगी के अवाखिर मे जब मदीने गये तो वहां क़बीले बनि अदी मेंम नजार की एक खातून से अक़द किया और वहीं अब्दुल मुत्तलिब (शीबा) की विलादत हुई। अब्दुल मुत्तलिब अबी आगोशे मादर ही में थे कि 510 में जनाबे हाशिम ने दुनिया को खैराबाद कहा और शाम में ग़ज्ज़ा के मुक़ाम पर दफ्न हुए।
हज़रत अब्दुल मुत्तलिब
आप हाशिम के जलीलुल क़दर साहब ज़ादे थे , सन् 467 में पैदा हुए वक्ते पैदाइश चूँकि आपके सर में जॉबजां सफेद बाल थे इसलिए आपकी मादरे गिरामी ने आपका नाम शीबा रका जो बाद में शीबतुल हम्द हुआ शीबा को अमद से इसलिए मुज़ाफ किया गया कि आपमें ममदूह होने की बे इन्तेहा अलामतें और सलाहियतें आशकार थीं।
आपके अलक़ाब आमिर , सैय्यदुल बतहा , साक़ियुल हज , साक़ियुल नीस , ग़ैसुल वरा , अबुल सादतुल अशरा और हफिरे ज़मज़म वग़ैरां हैं जो आपकी अज़मत और बुलन्द कारनामों के आईनये दार हैं।
आपका मशहूर व मारूफ नाम अब्दुल मुत्तलिब है जिसकी वजह तसमिया के बारे में कहा जाता है कि जब आप छः बरस या सात साब के थे तो खानदाने अबदे मनाफ का एक शख्स मदीने आया वहाँ उसने देखा कि कुछ नौ उम्र बच्चे तीर अन्दाज़ी में मसरूफ हैं उनमें एक ख़ूबसूरत बच्चा जब तीर चलाता है और वह निशाने पर पड़ता है तो वह कहता है कि मैं रईस बतहा का बेटा हूँ मैं हाशिम का फरज़न्द हूँ। यह सुनकर वह शख़्स क़रीब आया और बच्चे से पूछा कि तुम कौन हो ? जवाब मिला कि मैं शीबा बिन हाशिम बिन अबदे मनाफ हूँ। चुनानचे जब वह शख्स मदीने से मक्का आया तो उसने हाशिम के हक़ीक़ी भाई मुत्तलिब से सारा वाक़िया ब्यान किया मुत्तलिब उसी वक़्त एक तेज रफतार नाक़े पर सवार हो कर मदीने आपये और अपने भाई की यादगार को देखा तो तक़ाज़ा-ए-मोहब्बत की बिना पर बे अख़तियार रो पड़े। एक दिन वहाँ क़याम किया और दूसरे दिन अपने भावज की इजाज़त से भतीजे को साथ लेकरस मदीने वापस आये। अहले कुरैश ने शीबा को देखा तो कहने लगे मुत्तलिब अपने हमराह मदीन से गुलाम ले कर आये हैं। गर्ज़ कि उसी दिन से शीबा का नाम अब्दुल मुत्तलिब हुआ जो इस क़दर मशहूर हुआ कि लोग असल मान को भूल गये।
अब्दुल मुत्तलिब की वालिदा सलमा बिन्ते अम्र बिन ज़ैद बनि निजार के क़बीले ख़िज़रिज की एक मुम्ताज़ व पाकबहाज़ खातून थीं जिनकी अज़मत व शरफ के बारे में इब्ने हुश्शाम का कहना है कि (सलमा बिन्ते उमरू अपनी क़ौम में इन्तेहाई शरफ व अज़मत की मालेका थी इसीलिए वह कहा करती थी कि मैं उस वक़्त शादी नहीं करूँगी जब तक मेरा शौहर मेरी यह शर्त कुबूल नहीं करेगा कि वह मुझे मेरे उमूर में खुदमुख़्तार रहने वाले और मेरे मुआमलात में बेजा दखल अन्दाज़ा न करे।)
अल्लामा हलबी तहरीर फरमातें है कि हाशिम अपने एक तिजारती सफर के दौरान मदीने गये तो आप ने सलमा बिन्ते अम्र से इस शर्त पर शादी की कि जब विलादत का मौक़ा आयेगा तो वह अपने मैके में रहेगी। शमसुल ओलमा नज़ीर अहमद साहब फरमाते हैं कि उन्हीं खातून के बतन से एक वावाक़ार लड़का पैदा हुआ जो लोग आगे चलकर शीबतुल हमद और अब्दुल मुत्तलिब के नाम से मशहूर हुआ। यह लड़का अभी दूध पीता था कि हाशिम का पैमानए हयात छलक गया और वह अपने होनहार फरज़न्द को माँ की गोद में छोड़कर आलमे आख़रत का सफर इख़तियार करस गये।
मुवर्रेख़ीन का कहना है कि सात बरस तक अब्दुल मुत्तलिब अपनी वालिदा की आगोशे तरबियत में रहे उसके बाद वह अपने चचा मुत्तलिब के सायए आतफत में पले बढ़े और जवान हुए। ग़र्ज़ उम्र की इब्तेदायी मंज़िलें तय करके जब आप सिनेशऊर को पहुँचे तो फ़ज़ाएल व कमालात और शरफ व बुजुर्गों में अपने बाप हाशिम का आईना बन गये। कहा जाता है कि आप मुजीबुल दवात भी थे। आपने अपने ऊपर शराब समेत तमाम मुनशियात को हराम कर लिया था।
अब्दुल मुत्तलिब पहले शख़्स हैं जिन्होंने इबादत के लिए कोहे हरा का इन्तेख़ाब किया। सियर की किताबों में हैं कि आप माहे रमज़ान में गर छोड़कर कोहे हरा पर चले जाते थे और आलमें तन्हाई में ख़ुदा की वहदानियत , जलाल व अज़मत और सिफात व कमालात पर ग़ौर व फ़िक्र किया करते थे गुरबा व मसाकीन में निहायत व कमालात पर ग़ौर व फ़िक्र किया करते थे गुरबा व मसाकीन में निहायत कुशादा दिली और सेर चश्मी से खाना तक़सीम करते यहाँ तक कि आप के दस्तर ख़्वान से परिन्दों के लिये भी खाना उठाया जाता और पहाड़ की बुलन्दी पर फैला दिया जाता। इसीलिए आप को (मुत्तइमुल तैर) भी कहा जाता था।
तजदीदे ज़मज़म
जनाबे अब्दुल मुत्तलिब की ज़िन्दगी में एक बड़ा वाक़िया दोबारा चाहे ज़मज़म का बरामद होना है। इसके बारे में मोवर्रेख़ीन ने बड़ी बड़ी ज़मज़म का बरामद होना है। इसके बारेमं मोबर्रेख़ीन ने बड़ी बड़ी मूशिगाफ़ियां की हैं मगर असल वाक़िया यह है कि अब्दुल मुत्तलिब को इस अम्र की बशारत हुई कि इस्माईल (अ.स.) की याद को ताज़ा करो और उनके फैज़ को फिर जारी करसो बशारत देने वाले ने इस जगह की निशानदेही भी करस दी जो हवादीसे ज़माने से तहे ख़ाक हो चुकी थी तो आप अपने फरज़नद हारिस को लेकर वहाँ पहुँचे , उस वक़्त आपके यही एक फरज़न्द थे जिनकी वजह से आपकी कुन्नियत अबुल हारिस क़रार पायी। ग़र्ज़ कि आपने अपने फरज़न्द की मदद से उस मुक़ाम को ख़ोदना शुरू किया जब आसारे ज़मज़म नज़र आये और कुरैश को ख़बर हुई तो उन्होंने उस काम मे आपकी इनफ़रादियत को पसन्द नहीं किया , अपनी इशतेराकियत का सवाल उठाया और आमादा फसाद हुए। एक तरफ़ कुल कुरैश थे और दुसरी तरफ जनाबे अब्दुल मुत्तलिब तन्हा। चुनानचे मौक़े की नज़ाकत को नज़र में रखते हुए आपने यह तजवीज़ पैश की कि किसी को हकम बना लो जो वह कहे उस पर हम दोनों अमल करं। फैसला हुआ कि सईद बिन ख़ीसमा काहिन के पास चलो , जो शाम में रहता है वह जो कुछ भी तय कर देगा हम लोग उस पर अमल करेंगे। ग़र्ज़ कि कुरैश के हर क़बीले से एक एक करके 70 आदमी मुनतख़िब हुए दूसरी तरफ आले अबदु मनाफ से तेरह आदमी जनाबे अब्दुल मुत्तालिब के हमराह हुए और यह क़ाफ़िला चश्मों क़दम के साथ मक़्का से शाम की तरफ रवाना हुआ। अभी दो ही मंज़िलें तय हुयी थीं कि शाम व हिजाज़ के दरमियानी सहरा मे अब्दुल मुत्तालिब और उनके हमराहियों के पास अचानक पानी का ज़खीरा ख़त्म हो गया। हौलनाक सहरा में न तो कोई कुआँ था और नहीं कोई चश्मा था कि पानी की फराहमी मुम्किन हो सकती। प्यास की शिद्दत ने रफ्ता रफ्ता जनाबे अब्दुल मुत्तलिब और उनके साथियों को मौत के दहाने पर लाकर खड़ा कर दिया। अब ज़िन्दगी और मौत का सवाल था इसलिए जनाबे अब्दुल मुत्तालिब (अ.स.) ने मजबूरन फीरक़े मुख़लिफ़ से पानी तलब किया मगर उन लोगों ने साफ इन्कार कर दिया। इस मायूसी के बाद , जब अब्दुल मुत्तालिब ने यह महसूस किया कि अब मौत यकीनी है तो उन्होंने अपने साथियों से फरमाया कि अब तुम लोगों की क्या राय है ? लोगों ने कहा हम आपके हुक्म के पाबन्द है , जो बेहतर हो वह तरीक़ा इख़ितयार करें। फरमाया , मेरे ख़्याल में मुनासिब होगा कि तुम लोगों में हर शख़्स अपने लिए एक क़ब्र तैयार करे और मरने के बाद तमाम साथी उसको उस कब्र में दफ्न करें यहाँ तक कि आख़िर में एक शख़्स रह जायेगा तो उसकी मय्यत का ज़ाया होना तमाम मय्यतों के ज़ाया होने से बेहतर है। इस हुक्म की सब लोगों ने तामिल की और जब कब्र तैयार हो गयी तो मौत की मुन्तज़िर प्यासों की यह जमाअत लबे गोर बैठ गयी। जनाबे अब्दुल मुत्तलिब ने कहा कि कब्र में पाओं लटका कर बैठने से बेहतर है कि पानी फराहमी की एक आख़िरी कोशिश हम और करें , अगर पानी मयस्सर नहीं होता तो यह कब्रें मौजूद ही हैं। इक़दाम जुस्तुजू का यह आख़िरी क़दम उठाना था कि मसलहते ऐज़दी में आयी और सहरा का जिगर पसीज गया। देखन वालों ने देखा कि जनाबे अब्दुल मुत्तालिब सवार होके चले ही थे कि नाक़े के पाओं के नीचे से आबे हयात उबल पड़ा , पानी का निकलना था कि आपने नारए तकबीर बुलन्द किया। किश्ते ज़िन्दगानी में जान आ गयी , डूबी हुयी नबज़ें उभरने लगी , बैठा हुआ दिल जवान हो गया सभी ने खूब जी भर के पिया और अपनी मशकें भरी। अब्दुल मुत्तालिब ने कुरैश से भी कहा कि तुम लोग भी सेराब हो लो और अपनी मशकें भर लो क्योंकि मंज़िल अभी दूर है और उसके बाद इस सेहरा में पानी का अब सवाल नहीं। (ग़र्ज़ कि उन लोगों ने भी पिया और मशकें भरी लेकिन इस एजाज़े ख़ुदा वन्दी ने उनकी आँख़ें खोल दी उन्होंने कहा , ऐ अब्दुल मुत्तालिब! आबे ज़मज़म के बारे में तुम से झग़ा फुजूल है , ख़ुदा ने ख़ुद फैसला तुम्हारे ही हक में कर दिया और तुम्हें फ़तेह दे दी लेहाज़ा यही से वापस चलो और चाहे ज़मज़म पर शौक़ से क़ब्ज़ा करो हम लोग इससे दस्तबरदार होते हैं। चुनानचे दोनों फ़रीक़ उसी मुक़ाम से पलट आये और चाहे ज़मज़म जनाबे अब्दुल मुत्तालिब के हक़ में छोड दिया गया।
वापस आने के पाद आपने फिर ख़ुदाई शुरू की। यहाँ तक कि पानी के साथ साथ उसमें से दो अदद सोने की हिरनियां दो जिरेहं और दो तलवारें भी बरामद हुयीं जो क़बीलए जरहम मक्का से तर्क वतन करते वक़्त उसी में छोड़ कर कनकारों और पत्थरों से उसे पाट गया था। हिरनियों , ज़िरहों और तलवारों को देखकर अहले मक्का ने आप पर फिर हुजूम किया और कहा , इसमें हमारा भी हिस्सा है , जनाबे अब्दुल मुत्तालिब ने इन्कार किया मगर जब यह लोग न माने तो आपने फरमाया कि इसका फैसला कुरा या फाल के ज़रिये करलो। उन्होंने पूछा किस तरह ? फरमायाः कि दोनों हिरनियां अलग , जिरहें अलग और तलवार अलग रख दी जाये फिर दो तीर खान-ए-काबा की तरफ से , दो तुम्हारी तरफ से और दो हमारी तरफ से उन पर चलाये जायें जिसका तीर जिन चीज़ों पर लगे वह उसे ले जाये। ग़र्ज़ कि इस तजवीज़ पर सब राज़ी हुए चुनानचे जब तीर चलाये गये तो खान-ए-काबा की तरफ से फेंके गये दोनों तीर दोनों हिरनियों पर लगे और जनाबे अब्दुल मुत्तालिब के दोनों तीर ज़िराह और तलवार पर लगे , मुख़ालेफ़ीन ने जितने तीर चलाये वह सब खाली गये इस तरह उन्हें अब्दुल मुत्तालिब के मुक़ाबले में दूसरी शिकस्त का मुंह देखना पड़ा।
अब्दुल मुत्तालिब ने दोनों तलवारें खान-ए-काबा में बैरूनी फाटक पर लटका दीं और दोनों हिरनियों को तोड़कर उसके टुकड़े खान-ए-काबा के अन्दर आवेज़ान कर दिये। यह पहला सोना था जो जनाबे अब्दुल मुत्तालिब के हाथों हराम की ज़ीनत बना। तारीख़े कामिल में है कि दोनों हिरनिया उसी तरह खान-ए-काबा में रख दी गय जो बाद में चोरी हो गयीं।
ग़र्ज़ कि चाहे ज़मज़म की तजदीद हयाते अब्दुल मुत्तालिब का बहुत अज़ीम कारनामा है जिसे तारीख़ नज़र अन्दाज़ नहीं कर सकती। इसके ज़ैल में रूनुमा होने वाली मुख़ालिफ़त से जनाबे अब्दुल मुत्तालिब ने यह भी महसूस किया था कि बात बात पर कुरैश आपसे परसरे पैकार होने की कोशिश करते हैं तो आपने ख़ुदा का बारगाह में यह दुआ की कि ऐ पालने वाले! अगर तू मेरी हिमायत के लिये मुझे दस फरज़न्द अता कर दे तो मैं एक को तेरी राह में कुर्बान कर दूँगा।
यह कलेमात अब्दुल मुत्तालिब की दिल की गहराइयों से निकले थे इस लिए ख़ुदा ने उन्हें शरफे कुबूलियत से सरफराज़ करते हुए आपको दस औलादें अता करस दी जिन्हें तारीख़ हारिस , जुबैर , हजल , ज़रार , मुक़ीम , अबुलहब , अब्दुल्लाह , अबुतालिब , हमज़ा और अब्बास के नामों से याद करती है। यह औलादें मुख़तलिफ़ अज़वाज़ से थी जबकि अबदुल्लाह और अबुतालिब की वालिदा फात्मा बिन्ते उमरू थी।
जनाबे अब्दुल्लाह की कुर्बानी
फरज़न्दाने अब्दुल मुत्तालिब जब जवानी की सरहदों में दाखिल हुए तो आपको ख़ुदा की बारगाह में किये हुए अपने वायदे को वफा करने का ख़्याल आया , चुनानचे आपने अकाबरीने मक्का को जमां किया और उनके सामने अपने फरज़न्दों को तलब ककरे उनसे फरमाया कि तुम सब लोग मुझे दिल व जान से अज़ीज़ हों लेकिन खुदा का हक़ मुक़द्दम है मैंने अपने परवरदिगार से दुआ की थी कि अगर उसने मुझे दस फरज़न्द अता किय तो उनमें से एक को मैं उसकी राह में कुर्बान कर दूँगा। मेरी दुआ उसने कुबूल कर ली है , अब मुझे अपना वादा भी वफा करना है , लेहाज़ा तुम लोगों का इस बारे में क्या ख़्याल है ? यह सुनकर सभों ने सुकूत इख़तियार किया लेकिन एक में नूरे रिसालत अब्दुल्लाह जिनकी उम्र अभी सिर्फ ग्यारह साल की थी अपनी जगह से उठ खड़े हुए और उन्होंने वही जवाब दिया जो उनके जद इस्माईल (अ.स.) ने अपने वालिद हज़रत इब्राहीम (अ.स.) को दिया था , फरमायाः बेशक ख़ुदा का हक़ मुक़द्दम है और हम इसके अदा करने पर साबिर व शाकिर और रज़ामन्द हैं।
कमसिन शहज़ादे का यह जज़ब-ए-ईसार देखकर खुद जनाबे अबदुल्लाह का दिल भर आया यहाँ तक कि आपकी रेशे मुबारक आँसूओॆ से तर हो गयी। फिर आपने दीगर फरज़न्दों से दरयाफ्त किया कि तुम लोग इस सिलसिले में क्या कहते हो ? सभों ने एक ज़बान हो कर तसलीम व रज़ा का मुज़ाहेरा किया और कहा हम तहे दिल से राज़ी हैं , आप हमसे जिसे चाहे बारगाहे ईज़दी में कुर्बान कर दें। आपने इज़हारे शुक्र किया और फरमाया कि तुम लोग अपनी माओं से रूख़सत हो लो और उन्हें हक़ीक़ते हाल से आगाह भी कर दो।
ग़र्ज़ कि तमाम साहबज़ादे अपनी अपनी माओं से रूख़सत हो करस इकट्ठा हुए। और जनाबे अब्दुल मुत्तालिब उन्हें लेकर खाना-ए-काबा में आये कुरानदाज़ी के ज़रिये अपने ज़बीह का इन्तेख़ाब करना चाहा तो जानिबे आसमान हाथ बुलन्द करके फरमायाः- पालने वाले! तू जानता है कि मैने तेरी बारगाह में दुआ की थी कि अगर दस फरज़न्द मुझे अता हुए तो एक को तेरी बारगाह में कुर्बाह करूँगा , लेहाज़ा अब वक्ता आ गया है , अपने नूर से तारीकी का पर्दा चाक कर दें और नविश्तए वाज़ेह कर दे , मेरे माबूद! तेरी जुमला अमानतें तेरी बारगाह में मौजूद है जिसे चाहे अपने लिए मुन्तखब फरमा ले।
इसके बाद कुरान्दाजी हुई और कुरा जनाबे अब्दुल्लाह के नाम निकला। अब्दुल मुत्तालिब की आँखों में अँधेरा छा गया , सब औलादें गिरया व ज़ारी करने लगीं , सबसे ज़्यादा असर जनाबे अबूतालिब (अ.स.) पर था क्योंकि उनके हक़ीक़ी भाई थे चुनानचे आपने अब्दुल मुत्तलिब से कहा , बाबा जान , क्या यह नहीं हो सकता कि मेरे भाई अब्दुल्लाह के बजाये आप मुझे ज़िबह कर दें ? जनाबे अब्दुल मुत्तालिब ने जवाब दिया , बेटा! हुक्मे इलाही के खिलाफ मैं कुछ नहीं कर सकता।
अकाबरीन व अमाएदीने मक्कासे भी यह दर्दनाक मन्ज़र न देखा गया चुनानचे उन लोगों ने भी सैय्यदुल बतहा जनाबे अब्दुल मुत्तालिब से दरख़्वास की कि फिर एक बार कुरानदाज़ी कीजिए शायद किसी और के लिए निकले लेकिन दूसरी बार जब फिर अब्दुल्लाह ही के नाम कुरा निकला तो जनाबे अब्दुल मुत्तालिब (अ.स.) ने मज़ीद ताखीर को अज़्म व इस्तेकलाल के मुनाफी समझा और हामिले नूर रिसालत को ले कर कुर्बान गाह की तरफ रवाना हुए , आपके पीछे पीछे एक अज़ीम मजमा भी चला , कुर्बानगाह में पहुँचकरस आपने जनाबे अब्दुल्लाह को ज़िबह करने की ग़र्ज से लिटाया ही था कि चारों तरफ से फ़रयाद व फुग़ां की आवाजे बुलन्द होने लगीं इतने में मजमे को चीरता हुआ एक बुजुर्ग सामने आया जिस का नाम अकरमा बिन आमिर था। पहले उसने मजमे को इशारे से खामोश किया फिर अर्ज़ किया कि ऐ अब्दुल मुत्तालिब! आप सैय्यदुल बतहा है अगर आप कने अब्दुल्लाह को जबह कर दिया तो यह सुन्नत बन जाएगी और अन्जाम की ज़िम्मेदारी आप पर होगी। जनाबे अब्दुल मुत्तलिब ने फरमाया कि क्या मैं अपने परवरदिगार को नाराज़ करूँ ? अकरमा ने कहा हरगिज़ नहीं। मैं चाहता हूँ कि आप इस मसअले में किसी काहिन से बी मशविरा फरमा ले , शायद अब्दुल्लाह के बचने की कोई तरकीब निकल आये। अकरमा की इस बात पर तमाम हाजेरीन में इत्तेफाक किया और जनाबे अब्दुल मुत्तालिब को मजबूर किया कि इ्कदामें ज़बीह से कबल आप अकरमा की राय पर अमल ज़रुर करें।
शायद मसलेहतन और मशीयते इलाही का तकाजा भी यही था कि आप अकरमा के मशविरे को नजर अन्दाज न करें। बहरहाल एक बड़े मजमे के साथ अकरमा जनाबे अब्दुल मुत्तालिब और जनाबे अब्दुल्लाह को लिए हुए एक काहिन के पास आया और उसको तमाम हालात से मुत्तेला किया। उसने जनाबे अब्दुल्लाह को देखकर कहा इस लड़के का मर्तबा तमाम आलम पर बुलन्द हो कर रहेगा मैं इसकी रेहायी का तरीक़ा बतात हूँ , यह बताओ कि तुम्हारे यहाँ दैत कितनी है ? अकरमा ने कहा दस ऊँट। उसने कहा कि जाओ और दस ऊँट पर कुरा डालो और बराबर दस दस ऊँटों का इज़ाफ़ा करते रहो यहाँ तक कि सौ ऊँट पर कुरानदाज़ी करो , अगर उस पर भी कुरा अब्दुल्लाह ही के नाम निकले तो फिर उन्हें जबहे करना।
दूसरा दिन नमूदार हुआ , हज़रत अब्दुल मुत्तालिब फरज़न्द को साथ लेकर खान-ए-काबा में फिर तशरीफ लाये , सात मर्तबा तवाफ किया , तकमीले मक़सद की दुआ और जो वहाँ मौजूद थे उन्हें मुतावज्जे करते हुए फरमाया कि आज आप लोग मेरी कुर्बानी में दख्ल न दें।)
कुरा की कार्रवायी शुरू हुई पहले दस ऊँटों और अब्दुल्लाह के दरमियान कुरा डाला गया नतीजा जनाबे अब्दुल्लाह के हक़ में रहा , फिर दस दस ऊँटों का इज़ाफ़ा होता रहै और कुरा अब्दुल्लाह ही के नाम निकलता रहा , यहाँ तक कि सी का अदद मुकम्मल हुआ , मशियतें ईज़दी का रूख बदला , हैवानी कसरत इन्सानी वहदत का फ़िदयां नबी , कुरा ऊँटों के नाम निकला लेकिन अब्दुल मुत्तलिब का जज़ब-ए-कुर्बानी अभी मुतमईन नहीं हुआ आपने फरमाया , एक बार और कुरा डाला जाये , शायद कोई फरोगुज़ाश्त हो गयी हो , दूसरी बार फिर कुरा ऊँटों ही पर निकला तो इत्मिनान हासिल हुआ और बारगाहे ईजदी में जनाबे अब्दुल्लाह के बदले सौ ऊँटों की कुर्बानी पेश कर दी गयी। इस कुर्बानी ने इन्सानियत के दर्जे को दस गुना बुलन्द करस दिया क्योंकि पहले दैत दस ऊँटों की थी , अब सौ की हो गयी।
ख़ान-ए-काबा पर हमला
ख़ान-ए-काबा पर अबरहा की फौज कशी , हज़रत अब्दुल मुत्तालिब के अहद का अहम तरीन वाक़िया है। उसके बारे में मवर्रेख़ीन का ब्यान है कि-अबरहतुल अशरम (यमन का ईसाइ बादशाह) एक हासिद व मुतासिब इन्सान था उसने हसद और तास्सुब की बिना पर खान-ए-काबा की अज़मत व जलालत को कम करने नीज़ उसके विकार को घटाने के लिये यमन के दारूल हुकूमत सनआ में कुलीस नामी एक बहुत बड़ा गिर्जा बनवाया था , अब्ने साद का कहना है कि इस इमारत की तामीर मे सुर्ख , सफेद , जर्द और सियाह पत्थरों का इस्तेमाल हुआ था और यह इबादत गाह सोने चाँदी से मुजल्ला और हीरे जवाहरात से मुरस्सा थी। उसके दरवाजों पर सोना मढ़ा हुआ था जिन पर ज़रीं गुल मेखें जड़ी थीं और उसके सहन में एक बहुत बड़ा याकूत नसब था जो दुआओं का मरकज़ था। इस अजीमुश्शान इमारत की तैयारी के बाद अबरहा ने अहले यमन को हुक्म दिया था कि तमाम लोग मौसमें हज में खान-ए-काबा के बजाये इसी इबादत गाह का हज और तवाफ किया करेंगे चुनाचे अकसर क़बाएले अरब कई साल तक उसका हज और तवाफ करते रहे। मुनासिक भी यही अदा होते थे और इबादत व रियाज़त के लिए मुतअदि्द अफराद उसमें मोअतकिफ के ओहदों पर मामूर थे।
बैतुल्लाह पर अबरहा की फौजेकशी का सबब अकसर मोअर्रेख़ीन ने यह तहरीर किया है कि क़बीलए बहनि कनान का एक शख़्स मक्के मोअज़्ज़मा से सेनआ गया और वहाँ उसने उस गिरजा घर में रिसायी करके जारूब कशी की खिदमत अन्जाम देने लगा। कुछ दिनों बाद ब उसे एक रात फ़राहम हुआ तो उसने उसमें जॉबजा पैखाना व पेशाब किया और उसके तक़द्दुस को गन्दगी व ग़लाज़त से आलूदा करके वहाँ से भाग खड़ा हुआ। जब अबरहा को ये हाल मालूम हुआ तो वह इन्तेहाई ग़ज़बनाक हुआ और उसने ख्याल किया कि अरब के लोग जिनके दिल काबा की तरफ मायल हैं उस इबादत गाह से अदावत व कदूरत रखते हैं। और जब तक काबा निसमार न होगा इस इमारत की अजमत व बुज़ुर्गी में इज़ाफा मुमकिन नहीं है। चुनानचे वह इसी फिक्र में था कि ख़ान-ए-काबा पर किस अन्दाज़ से हमला किया जाये कि इसी असना में एक वाक़िया और नमूदार हुआ वह यह कि अरबों का अक काफिला तिजारत की ग़रज़ से वहाँ पहुँचा और इत्तेफ़ाक़ से उसी गिरजा से मुलहक पज़ीर हुआ। रात में उन लोगों ने खाना पकाने की गरज से आग रौशन की , हवा तेज थी जिसकी वजह से चिन्गारियां उड़कर इबादत गाह में दाखिल हुई और सारा साज़ व सामान जल कर खाक हो गया। यह हाल देखकर क़ाफ़िला तो वहाँ से फरार हो लिया मगर चूँकि यह नुकसान भी अरबों ही कि वजह से हुआ था इसलिए अबरहा के दिल में इन्तेक़ाम के शोले भड़क उठे और उसने तहय्या कर लिया कि जब तक वह अहले मक्का की इबादत गाह (खान-ए-काबा 0 को नेस्त व नाबूद नहीं कर देगा चैन से नहीं बैठेगा। चुनानचे उसने मुकम्मल तैयारी की और एक लाख दरिन्दा सिफत इन्सानों की फौज जिसमें चार सौ जन्गजू हाथी भी शामिल थे लेकर मक्के की तरफ़ चल पड़ा। और फौज़ों का यह सियाह बदल कोह व दश्त को अबूर करता हुआ सरज़मीने बतहा पर वारिद हुआ।
फौजो की कसरत और हाथियों का जमे ग़फीर देखकर अहले मक्का इस क़दर खौफज़दा और परेशान हुए कि जाये आफियत की तलाश में पहाड़ों की तरफ भागने लगे। पासबाने रहम हज़रत अब्दुल मुत्तालिब ने उन्हें तसल्ली व तशफी देते हुए फरमाया कि तुम लोग घबराओ नहीं अल्लाह के घर को कोई नुकसान नहीं पहुँच सकता उसका वही निगेहबान है और उसकी ताक़त व तवानायी के सामने अबरहा की फौज कोई हक़ीक़त व अहमियत नहीं रखती। अगर तुम पहाड़ों के बजाये हरम ही को जाये आफियत बनालो तो तमाम आफतों से महफूज रहोगे। मगर इस तसल्ली व तशफ़्फ़ी और यकीन दहानी के बावजूद लोगों के उखड़े हुए कदम अपनी जगह जम न सके और सब बैतुल्लाह को दुश्मनों के नरग़े में छोड़कर भाग खड़े हुए। सिर्फ किलीद बरबाद काबा अब्दुल मुत्तलिब और आपके घराने के अफ़राद रह गये।
खान-ए-काबा और उसके गिर्द व पेश के माहौल को वीरान व सुनसान देखकर हज़रत अब्दुल मुत्तलिब का दिल तड़प उठा चुनानचे आपने बारगाहे इलाही में अर्ज़ की कि ऐ पालने वाले! अब हमारा तू ही मुईन व मददगार है और खान-ए-काबा तेरा घर है तू ही इसकी हिफाज़त फरमा और तमाम आफ़तों से उसे महफूज़ रख।
इधर हज़रत अब्दुल मुत्तालिब की यह दुआ तमाम हुई और उधर पेशानिए कुदरत पर अबरहा और उसकी फौज के लिए क़हर व ग़ज़ब की शिकने नमूंदार होना शुरू हो गयी।
दूसरे दिन हज़रत अब्दुल मुत्तालिब को यह इत्तेला मिली की अबरहा के सिपाही आपके ऊँट जिनकी तादाद दो सौ थी ज़बरदस्ती अपनी फौज में हांक ले गये जो मक्के से एक मंज़िल के फासले पर खेमाज़न है तो आपने बड़े पुर एतमाद लहज़े में फरमाया कि मेरे नाक़ों में वह नाक़ें भी शामिल हैं जो अल्लाह की अमानत हैं और जायेरीन हरम की तवाज़े की ख़ातिर मख़सूस हैं मैं बहर हाल वापिस लूंगा। यह कहकर आपने दोश पर रिदा डाली और एक नाक़े पर सवार हो गये। अज़ीज़ों ने पूछा , कहाँ का इरादा है ? फ़रमाया , मैं अबरहा से मिलना चाहता हूँ जिसके सिपाहियों ने अल्लाह के माल पर क़ब्जा किया है। लोग सद्देराह हुए मगर उस मुजस्समये इस्तेक़लाल ने कहा , मैं अन्जाम से बाख़बर हूँ 1 मुझे जाने दो।
ग़र्ज कि हज़रत अब्दुल मुत्तालिब अबरहा के लश्कर की तरफ रवाना हुए और जब वहाँ पहुँचे तो मुख़ालेफ़ीन में एक हलचल मच गयी। जिसने देखा वह दम बखुद और हैरतज़दा रह गया। किसी ने पूछा , ऐ नूरे मुजस्समा! तुम कौन हो ? अपने नाम बताया और फरमाया कि मैं अबरहा से मिलना चाहता हूँ। दरबानों ने उसे मुत्तेला किया , उसने बारयाबी की इजाज़त दी लेकिन उसके साथ ही यह हुक्म दिया कि एहतियातन उनके गिर्द फौज की दीवार खड़ी कर दी जाये। चुनानचे सिपाहियों के साथ हाथियों की फौज भी दो रोया खड़ी कर दी गयी , यह हाथी मुसल्लह थे उनके सरों पर आहनी तोपे और सूंड़ों में बरहना तलवारें थी। हाशिम के नूरे नजर जब उनके दरमियान से गुजरने लगा तो उन्हें आज़ाद छोड़ दिया गया ताकि यह जनाबे अब्दुल मुत्तालिब का काम तमाम कर दें मगर अबरहा और उसका सारा लश्कर उस वक़्त मुतहैयर रह गया जब हाथियों के इस झूमते हुए पहाड़ ने हज़रत अब्दुल मुत्तालिब को बजाये गज़न्द पहुँचाने के आपके सामने सरे नियाज़ खम करके घुटने टेक दिये। नतीजा यह हुआ कि खौफ ज़दा करने वाले खुद ही खौफज़दा हो गये।
इस वाक़िये से बनि हाशिम की अज़मत व जलालत का अन्दाज़ा होता है कि उनमें हजो खिलाफते इलाहिया के मनसब पर फायज़ नहीं थे वह भी बातिल के मुक़ाबले में बहुत ही भारी भरकम थे। बहर हाल , अबरहा ने बढ़कर हज़रत अब्दुल मुत्तलि का इस्तेक़बाल किया , अपने पहलू में बैठाकर ज़हमत कशी का सबब पूछा। आपने फरमाया , तुम्हारे लुटेरे मेरे ऊँट हांक लाये हैं जो मैंने हाजियों क मेहमान नवाज़ी की ग़र्ज से फराहम किये थे , अगर मुनासिब मसझो तो उन्हें वापस कर दो अबरहा ने फौरन उनकी वापसी का हुक्म दिया और वह ऊँट वापस कर दिये गये। फिर अबरहा ने कहा , अगर कोई और हाजत हो तो ब्यान करो।
हाजत के बारे में यह सवाल गोया एक तरह शिकस्त का मुज़ाहिरा था। यक़ीनन इस मौक़े पर हज़रत अब्दुल मुत्तालिब की जगह कोई दूसरा शख़्स होता तो वह खान-ए-काबा के बहारे में ज़रुर कुछ न कुछ कहता मगर आप अपने यक़ीने कामिल के आईने में हरम का दरख़शां मुस्तक़बिल देख रहे थे और यह नहीं चाहते थे कि आइन्दा यह झगड़ा बाकी रहे लेहाज़ा खामोश रहे।
मेरा ख़्याल तो यह है कि दुश्मन के इस्तेक़लात में ख़ुद एक तज़लजुल पैदा हो चुका था और उसे अपनी फ़तेह मशकूक नज़र आ रही थी इसलिए जनाबे अब्दुल मुत्तालिब की खामोशी देखकर अबरहा ने खुद कहा कि हरम के लिए मुझसे क्यों नही कहते ? उसके जवाब मे आपने फरमाया कि उसका एक कारसाज़ है और वह मुझसे ज़्यादा बेहतर जानता है कि उसे क्या करना है ?
हालाँकि हज़रत अब्दुल मुत्तालिब का यह जवाब दरअसल अबरहा के तक़ाज़े का जवाब नहीं था बल्कि उन अल्फाज़ों के ज़रिये आपने वजूदे ख़ुदा और उसकी वहदानियत की पैयाम्बरी की थी। आख़िर में अबरहा ने कहा , अगर आप कहें तो इस शहर से वापस चला जाऊँ ?
हाशिम यादगार मुहाफ़िजे काबा का महरमे राज़ था , तक़दीरे काबा से उसके ज़मीर की आवाज़ भला क्यों कर मुतसादिम हो सकती थी , वह अगर कह देता तो अबरहा ज़रुर वापस चला जाता लेकिनअहले मक्का को उन काफिरों के बारे एहसान से दबना पड़ता और काबा की अज़मत ज़ेरे नका़ब रह जाती। ख़लीलुल्लाह की तामीर ज़बीह अल्लाह की मेहनतें दीगर तामिरात की हम पल्ला और अल्लाह की कुदरत व तवानायी मौज़ूये बहस बन जाती , इसलिए हज़रत अब्दुल मुत्तालिब यह कह कर वहाँ से वापस आ गये कि ख़ुदा अपने घर की हिफाज़त खुद करेगा उसके ख़िलाफ़ जो कुछ तुम्हारे दिल में है उसे पूरा करके अपना अन्जाम खुद ही देख लो।
हज़रत अब्दुल मुत्तालिब खुद तो चले आये मगर दबदबे हाशिमी के ग़ैरफानी नकूश कलबे दुश्मन पर छोड़ आये जिसके असरात अबरहा के इस एतराफ की शक्ल में ज़ाहिर हुए कि जब उसने कहा कि इस शख़्स की ज़बरदस्त हैबत मेरे दिल में बैठ गयी है। चुनानचे उसने अपने हमराइयों से मशविरा लिया कि तुम लोग बताओ कि अब क्या करना चाहिए ? लोगों ने तबाही व बरबादी का मशविरा दिया और कहा कि मक्के को लूट लें और खान-ए-काबा को मिसमार कर दें , यही आपके हक़ में बेहतर होगा। ग़र्ज़ अबरहा गय लश्कर अपने तख़रीबी इक़दाम को जमाये अमल पहनाने की ग़र्ज़ से आगे बढ़ा , और हज़रत अब्दुल मुत्तालिब मक्का खाली ककरे कोहे अबुक़बस पर इसलिए चले गये कि मशियते इलाही को अपना हुक्म नाफ़िज़ करने में तरद्दुद न हो , जिस तरह अन्बियाए साबेक़ीन ने इलाही क़हर व ग़ज़ब का निशाना बनाने वाली बस्तियों को छोड़ा था उसी तरह आपने भी मक्का खाली कर दिया।
अल्लाह से नुसरत का तलबगार इधर पहाड़ पर पहुँचा उधर हैवानियत के बल पर मुक़ाबला करने वाली जमाअत हरम की तरफ बढ़ी। मरज़िये कुदरत ने चाहा कि एक बार फिर ग़ाफिलों को चौंका कर इतमामे हुज्जत कर ली जाये , चुनानचे वह कोहे पैकर हाथी जो लश्कर के अलम की जगह था हरम तक पुहँचने से पहले ही एक जगह रूक गया , सारी तदबीरें नाकाम हो गयी मगर वह उस वक़्त तक आगे न बढ़ा जब तक उसका रूख काबे से दूसरी तरफ मोड़ा नहीं गया , लेकिन उसके बावजूद दुश्मनों की समझ में कुछ न आ सका और वह अपने इरादे पर कायम रहे। अलबत्ता इस दरमियान अबरहा ने मसलेहत की एक बार फिर नाकाम कोशिश की और एक मख़सूस क़ासिद जनाबे अब्दुल मुत्तालिब की ख़िदमत में भेज कर यह कहलाया कि अगर अहले मक्का हमारी इस इबादत गाह का तावान अदा कर दें जो उनकी वजह से जलकर खाक हो गयी है तो हम वापस जाने को तैयार हैं।
जनाबे अब्दुल मुत्तालिब ने फरमाया , बेगुनाह अफराद खताकारों के आमाल के जिम्मेदार नहीं ठहराये जा सकते , रहा हरम का सवाल तो उसके बारे में मैं पहले ही कह चुका हूँ कि जो उसका मुहाफिज़ है वह खुद उसकी हिफाजत करेगा , तुम अपने सरदार से कह दो कि वह हमला करे या वापस चला जाये मुझसे कोई मतलब नही है।
हज़रत अब्दुल मुत्तालिब का यह फैसला कुन जवाब सुनकर अबरहा आपे से बाहर हो गया चुनानचे उसने हुक्म दिया कि अब मसालिहत की कोशिशें बेकार हैं लेहाज़ा खाना-ए-काबा पर हमला करके उसे तबाह व बरबाद और मिसमार कर दिया जाये।
इस हुक्म के बाद , इधर अबरहा की सरकश अफवाज़ का तूफानी रेला अपने हाथियों को लेकर आगे बढ़ना शुरू हुआ , उधर अज़ाबे इलाही हरकत में आाया , और अबाबिलों के लश्कर ने अबरहा की फौज पर छोटी छोटी कनकरियां बरसा कर उसे जुगाली किया हुआ भुसा बना दिया। इस वाक़िये में क़हरे इलाही की शाने नुजूल भी अजीब व ग़रीब थी। न तो ज़मीन में शक हुयी , न आसमान में आग बरसी और न ही तेज़ व तन्द हवाओं का कोई , तूफान आया बल्कि छोटे छोटे परिन्दों ने मरकज़े ज़ुल्म पर नन्हीं नन्हीं कनकरियां इस तरह बरसायीं कि न हरम को कोई नुक़सान पहुँचा , न काबा की हुरमत पामाल हुई न कोई बेकुसूर हलाक हुआ और न ही कोई कुसूर वार बच सका। यह वाक़िया सन् 571 का है , अबरहा चूँकि महमूद नामी एक तवीलुल क़ामत हाथी पर सवार था इसलिए उसी की मुनासबत से यह साल आमुल फील कहलाया।