तारीखे इस्लाम 2

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तारीखे इस्लाम 2 लेखक:
कैटिगिरी: इतिहासिक कथाऐ

तारीखे इस्लाम 2

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: जनाब फरोग़ काज़मी साहब
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तारीखे इस्लाम 2

तारीखे इस्लाम 2

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हिंदी

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मज़लूम की हिमायत

अल्लामा इब्ने असीर रक़म तराज है कि हज़रत अब्दुल मुत्तालिब के पड़ोस में (अज़नियत) नामी एक यहूदी रहता था जो तिजारत पेशा होने की वजह से बहुत मालदार था। हरब बिन उमय्या जो जनाबे अब्दुल मुत्तालिब का मुसाहिब और मुआविया इब्ने अबु सुफियान का दादा था , महज़ इस बात पर उस यहूदी से बुगहज़ व हसद रखता था कि वह इतना मालदार क्यों है ? चुनानचे अपने हसद से मजबूर होकर उसने एक दिन कुछ सरफिरे लोगों को इस बात पर आमादा किया कि वह उस यहूदी को क़त्ल कर दें और उसका सारा माल लूट लें , उस पर हज़रत अबु बकर के दादा सगर बिन उमरू बिन काअब तीमी और आमिर बिन अबदे मनाफ ने मिल कर उसे क़त्ल कर डालाय़ वाक़िया की इत्तेला जब हज़रत अब्दुल मुत्तालिब को हुई तो आपने क़ातिलों का पता चलाने के िलए तफतीश शुरी की यहां तक कि क़त्ल में खुद हरब का हाथ है तो आप उसके पास तशरीफ ले गये और उस पर लानत व मलामत करते हुए फरमाया कि मकतूल के वारिसान को सौ ऊँटनियां बतौरे तवान अदा करो वरना क़ातिलों को मेरे हवाले कर दो। मगर हरब ने दोनों बातें मानने से साफ इन्कार कर दिया। उस पर हज़रत अब्दुल मुत्तालिब और हरब के दरमियान झगड़ा काफी बढ़ गया दोनों ने एक दूसरे को बुरा भला कहा और अपने को एक दूसरे से अफजल बताया। जब किसी तरह बात ख़त्म न हुई तो फ़रीक़ैन में मुनाजरे की ठहरी और दोनों इस बात पर रज़ा मन्द हुए कि हब्शा चल कर नज्जाशी से इस बात का फैसला कराया जाये कि दोनों में किस का शरफ व मर्तबा ज़्यादा है। चुनानचे दोनों नज्जाशी के पास पहुँचे मगर उसने उनके दरमियान पड़ने से इंकार कर दिया तब उन लोगों ने वापस आकर मक्का में हजरत उमर के दादा नुफ़ैल इब्ने अब्दुल उज्जा को मुनसिफ मुक़र्रर किया , उसने फैसला देते वक़्त हरब बिन उमय्या से कहा ति कुम एक ऐसे अज़ीमुश्शान इन्सान से अपनी हमसरी का दावा करते हो जो शरफ व बुजुर्गी , क़दो क़ामत , शान व शौकत , अज़मत व जलालत और इज़्ज़त व शोहरत में तुम पर फौक़ियत रखता है और इन्साफ की बात तो यह है कि तुम उसके मुक़ाबले में इन्तेहाई पस्त , हक़ीर और ज़लीन हो। यह सुनकर हरब बिन उमय्या को ग़ैज़ आ गया उसने कहा कि यह भी ज़माने का इन्केलाब है कि तुम्हारे ऐसा शख़्स मुनसिफ़ बनाया गया है।

इसके बाद हज़रत अबदुल मुत्तालिब ने हरब को अपनी मुसाहेबत से बाहर निकाल दिया और उससे सौ ऊँटनियाँ बतौरे तावान वसूल करके मक़तूल यहूदी के चचा ज़ाद भाई को दी नीज़ यहूदी का लूटा हुआ सामान भी वापस ले लिया।

वफ़ात व मदफ़न

वक़्ते वफ़ात हज़रत अब्दुल मुत्तालिब की उम्र क्या थी ? इसकी तहक़ीक़ एक दुशवार गुजार मरहला है , बाज़ रिवायतों में 86 साल , बाज़ में 110 साल और बाज़ में 120 साल और 140 साल तक ब्यान की गयी है। डिप्टी नज़ीर अहमद साहब ने 140 साल वाली रिवायत को इख़तियार किया है , अल्लामा मजलिसी अलैह रहमा और मौलवी शिबली नेहमानी ने 86 साल वाले क़ौल को तरजीह दी है। यही तहक़ीक़ मग़रिबी मुर्रेख़ीन की भी है चुनानचे प्रो 0 सैडयू ने खुलासा तारीख़ में हज़रत अब्दुल मुत्तालिब का साले विलादत सन् 467 तहरीर किया है और हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) का साले विलादत सन् 571 माना गया है इस तरह आपकी उम्र आन हज़रत (स.अ.व.व.) 8 साल के हुए तो गोया सन् 578 में आपने इन्तेका़ल फरमाया। अगर यह हिसाब दुरुस्त है तो 76 साल की उम्र वाली रवायत यक़ीनन दुरुस्त करार पाती है मगर मुश्किल यह है कि जनाबे हाशिम का साले विलादत उस ज़माने में लोगोंने सन् 510 माना है और यह भी तय शुदा अमर है कि इसी साल जनाबे अब्दुल मुत्तालिब की विलादत वाक़े हुयी थी इस हिसाब से आपकी उम्र 86 साल क़रार पाती है। मुम्किन है जिन लोगों ने इस ज़माने में जनाबे हाशिम की वफात का ईसवी साल 510 लिखा है अपनी तहक़ीक़ में ग़लती की हो इसलिए कि जनाबे अब्दुल मुत्तालिब की उम्र का मुसद्देक़ा क़ौल कम अज़ कम 86 साल है इस हिसाब से आपकी विलादत सनव् 467 में साबित होती है और वही जनाबे हाशिम की वफात का साल भी होना चाहिए। मेरे ख़्याल में आपकी वफात बहर हाल सन् 578 में हुयी र आप हुजून में दफन हो गये।

हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्दुल मुत्तलिब

आप हज़रत अब्दुल मुत्तालिब के छोटे साहब जादे , हज़रत हाशिम के पोते और हज़रत रसूले खुदा (स.अ.व.व.) के पदरे बुजुर्गवार थे , जिनकी कुर्बानी का तज़किरा हज़रत अब्दुल मुत्तालिब के हालात में हम कर चुके हैं।

शमशुल ओलमा तहरीर फरमाते हैं कि आप निहायत मतीन , संजीदा और शरीफ तबियत के इन्सान थे और न सिर्फ जलालत नसब बल्कि मुकारिमे एख़लाक़ की वजह से कुरैश में इम्तेयाज़ी नज़रों से देखे जाते थे। महासिने आमाल और लुत्फ गुफतार में अपना नज़ीर नहीं रखते थे।

इब्ने असीर का कहना है कि आपकी कुन्नियत अबु क़सम या अबु मुहम्मद या अबु अहमद थी , आप अपने भाईयों में सबसे छोटे मगर अपने वालिद को सबसे ज़्यादा अज़ीज़ थे।

हुस्न व जमान ऐसा था कि हज़रत युसूफ की तरह औरतें आपको देखगर अज़ खुद फ़रेफ़ता हो जाया करती थी और आपको कैफ व निशत से लुत्फ अन्दोज़ी की दावत दिया करती थीं चुनानचे इब्ने असीर एक औरत की कैफियत ब्यान करते हुए रकम तराज़ हैं कि उसने आपको अपनी तरफ रूजू करते हुए कहा कि ऐ जवान! अगर तुम इस वक़्त खुवाहिश पूरी कर दो तो उसके एवज़ तुम्हें सौ ऊँट दे सकती हूँ। उसके जवाब में आपने फरमाया कि हरमा कारी मरते दम तक मुझसे नहीं मुम्किन क्योंकि शरीफ और मोअज़िज़ शख़्स अपनी आबरू और मज़हब दोनों की हिफाज़त का जिम्मेदार होता है।

अल्लामा शिबली नोमानी तहरीर फरमाते है किः- जनाबे अब्दुल्लाह कुर्बानी से बच गये तो अब्दुल मुत्तालिब को उनकी शादी की फिक्र हुई। क़बीलए ज़हरा में हवब बिन अबदे मनाफ की साहब ज़ादी जिनका नाम आमना था क़ुरैश के तमाम खानदानों में मुम्ताज़ थी। जनाबे अब्दुल मुत्तालिब ने उनके साथ अब्दुल्लाह की शादी का पैग़ाम दिया जो मंजूर हुआ और अक़द हो गया। उस वक़्त का दस्तूर था कि दुल्हा शादी के बाद तीन दिन तक अपनी ससुराल में रहता था चुनानचे अब्दुल्लाह भी तीन दिन तक सुसराल में रहे उसके बाद वह अपने घर चले गये उस वक़्त आपकी उम्र 17 साल से कुछ ज़्यादा थी।)

उसके बाद लिखते हैं कि जनाबे अब्दुल्लाह शादी के बिद तिजारत की ग़र्ज़ से शाम की तरफ गये , वापस आते हुए मदीने में ठहरे और बीमार हो कर यही रह गय , अब्दुल मुत्तालिब को यह हाल मालूम हुआ तो उन्होंने अपने बड़े बेटे हारिस को उनकी ख़बरगीरी के लिये भेजा लेकिन जब वह मदीने पहुँचे तो जनाबे अब्दुल्लाह का इन्तेक़ाल हो चुका था , यह खानदान में सबसे ज़्यादा महबूब थे इस लिए पूरे कुनबे को बेहद सदमा हुआ। जनाबे अब्दुल्लाह ने तरके में ऊँट , बकरियाँ और एक कनीज , जिसका नाम उम्मेऐमन था छोड़ी थीं जो बाद में रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) को मिली।

अल्लाहमा इब्ने असीर का कहना है कि उस वक्त जनाबे अब्दु्लाह की उम्र 25 या 28 साल थी और हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) कि विलादत से क़बल आपने इन्तेकाल किया। तारीख़े ख़मीस में है कि मुक़ामें अबुवा में आप दफन हुए।

हज़रत अबुतालिब इब्ने अब्दुल मुत्तालिब

वाक़िये फ़ील से ( 35) पैंतीस साल क़बल मक्का मोअज़्ज़मा में मुतबल्लिद हुए। तज़किरे निगारों ने आपके नाम में इख़तेलाफ़ किया है। बाज़ का कहना है कि आपका इसमें गिरामी अपने जददे आला के नाम पर अब्दे मनाफ था , बाज़ ने इमरान और बा़ ने शीबा तहरीर किया है।

(अबु तालिब) आपकी कुन्नियत हैं जो आपके साहब ज़ादे जनाबे तालिब के नाम से माअनून व मनसूब हैं और इसी कुन्नियत से सारी दुनिया आपको याद करती है। आपके अलक़ाब शेखुल बतहा , सैय्यदुल बतहा और रइसुल बतहा वग़ैरह है।

तैंतालिस ( 43) साल तक हज़रत अबुतालिब ऐसी बरगुज़िदा , बुलन्द पाया और अज़ीमुल मर्तबत हस्ती के ज़ेरे साया रह कर अपने तालीम व तरबियत हासिल की , उलूम व मुआरिफ की वादियों को तय किया , मुकारिमे एख़लाक़ और सिफात हसना से मुतसिफ हुए , तहज़ीब व तमद्दुन की बुलन्द क़दरों को ज़िन्दगी का शअर बनाया , और इलमी व अदबी रिफअतों के नुक़तए कमाल पर फायज होकर अपने दौर में एक बुलन्द पाया अदीब , मुम्ताज सुख़न तराज़ , अज़ीम मुफक्किर , अदीमुल मिसाल दानिशवर और बेहतरीन क़ायद तस्लीम किये गये।

इलमी अदबी और फिकरी सलाहियतों के साथ आप वजीह सूरत , बुलन्द क़ामत , पुर अज़म , पुर हौसला , पुर विकार , बारोब और भारी भरकम शख़्सियत के मालिक थे। चहरे से हाशिमी जलालत व तमकनत और खदो ख़ाल से कुरैशी सितवत आशकार थी। ज़बान से फ़साहत व बलाग़त के सोते फूटते थे और ब्यान से इल्म व हिक्मत के चश्में उबलते थे , ग़र्ज़ की आप अपने इस्लाफ के आला किरदार का नमूना और औलादे अब्दुल मुत्तालिब में आदात व अतवार के लिहज़ से अपने बाप की सीरत का आईना थे।

हज़रत अबुतालिब , एतदात पसन्दी , इन्साफ परवरी और हिल्म बरदारी के जौहर से आरास्ता थे। अरबे के नामवर हुक्मा व अदबा आपसे इस्तेफादा करते और इख़लाक़े फ़ाज़िला का दर्स लिया करते थे। चुनानचे एहनिफ बिन क़ैस से जो अरब में हिलम व बुरदबारी के लिहाज़ से सहर-ए-आफाक़ था पूछा गया कि तुमने यह हिलम व बुर्दबारी किस से सीखी ? कहा कि क़ैस इब्ने आसिम मुनकरी से , और क़ैस इब्ने आसिम से पूछा गया कि तुमने हिलम व बुर्दबरी का सबक़ किस से लिया ? उसने कहा , हकीमे अर अकसीम इब्ने सैफी से , और अकसीम इब्ने सैफी से पूय़ा गया कि तूने हिकमत , रियासत , सरदारी , सरबाही और हिलम व बुर्दबारी के उसूल किससे सीखे हैं तो उसने कहा , सरदारे अरब , और सरापां इल्म व अदब अबुतालिब इब्ने अब्दुल मुत्तालिब से हासिल किये हैं।

हज़रत अब्दुल मुत्तालिब ने जिस वक़्त दुनिया से सफरे आख़ेरत किया उस वक़्त हज़रत अबुतालिब की उम्र 43 साल की थी और यही वह मौक़ा था जब खान-ए-काबा की तोलियत , मक्के की इमारत , कुरैश की सियासत और पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) की तरबियत बराहे रास्त आपसे मुतअलिक हुई।

अल्लामा दयार बकरी रक़म तराज़ हैं कि (हाशिम के बाद हाजियों को खाना देने का शरफ़ अब्दुल मुत्तालिब को हासिल हुआ और फिर अब्दुल मुत्तालिब की वफात के बाद जहूरे इस्लाम तक इस अज़ीम ख़िदमत को अबुतालिब अन्जाम देते रहे)

दौलत इस दुनिया में तकमीले मक़सद और हुसूले मनसब के लिए एक बड़ा जरिया है मगर जनाबे अबुतालिब की क़यादत , सरदारी और मन्सबी सर बुलन्दी दौलत की मरहूने मिन्नत नहीं थी बल्कि उनकी फर्ज शनासी , हुस्ने अमल और किरदार की इनफ़ेरादियत ने उन्हें इज़्ज़त व अज़मत और सरदारी के मनसब तक पहुँचाया था।

आप अपने मुआशरे में एक ऐसा निज़ाम बरुये कार लाना चाहते थे कि असासे अदल व इन्साफ पर इस्तवार हो। न किसी की हक़ तलफी हो और न किसी पर बे-जाँ ज्यादती। चुनानचे इसी जज़बे के पेशे नज़र आपने अम्र बिन अलक़मा के खून के सिलसिले में (क़सामत) का तरीक़ा राएज़ किया। इस्लाम ने भी इस तरीक़े कार की अफादियत के पेशे नज़र उसे बरक़रार रखा। इब्ने अबिल हदीद ने तहरीर किया है।

(जमान-ए-जाहेलियत में अबुतालिब ने अम्र बिन अलक़मा के खून के बारे में पहले पहल क़सामत का तरीक़ राएज किया। फिर इस्लाम ने भी उसे आपने एहकाम में जगह दे दी)

दोस्ती ही दुश्मनी , किसी मौक़े पर हज़रत अबुतालिब हक़ व इन्साफ़ का दामन नहीं छोड़ते थे और आम हालात ही में जुल्म व ज़्यादती के खिलाफ़ न थे बल्कि जंग की मारका आराइयों में भी ग़ैर ज़रूरी क़ुश्त व खून के शदीद मुख़ालिफ थे। चुनानचे क़बल इस्लाम कुरैश और कबीलए क़ैस में एक जंग हुई जो हरबे फिजार के नाम से मौसूम है , इस जंग में बनि हाशिम ने भी कुरैश की हिमायत की , हज़रत अबुतालिब जिस दिन उस जंग में शिरकत फरमाते थे उस दिन अपने दुश्मनों के मुक़ाबले में कुरैश का पल्ला भारी रहता था , इसलिए क़ुरैश उनकी शमूलियत को वजहें कामरानी समझते और कहते कि आप बड़े या न लड़ें सिर्फ हमारे दरमियान मौजूद रहें क्योंकि आपकी मौजूदगी में हमा ढ़ारस रहती है और फतहा व जफ़र के आसार नज़र आते हैं। और इल्ज़ाम तराशी से बच कर रहोगे तो मैं तुम्हारी नज़रों से ओझल नहीं रहूंगा।

यह थी हज़रत अबुतालिब की बुलन्द नज़री कि जंग व क़ताल के पुरजोश हंगामों में इन्तेक़ामी और दिमाग़ी इक़दामात के हुदूद में फर्क व फ़ासला बरक़रार रखते हुए जुल्म और ज़्यादती को मायूब नज़रों से देखते थे और सिर्फ इसी हद तक जंग के हामी थे जहाँ तक वह उसूल हर्ब व ज़र्ब के हदों के अन्दर रह कर लड़ी जाये , उसे वहशत , बरबरियत और दरिन्दगी व खूँखारी से ताबीर न किया जा सके।

जौक़े सुख़न

हज़रत-अबुतालिब अपने दौर में सिर्फ एक मुदब्बिर व मुफक्किर और मोअल्लिमे इख़लाक ही न थे बल्कि एक बुलन्द पाया शायर और सुख़नदों भी थे। एक दीवान (दीवाने शेख़उल्ला अबातेह) के अलावा आपको गिरां माया आसकार का एक अजीम ज़खीरा तारीख व सैर की किताबों में बिखरा प़ड़ा है। यूँ तो सरज़मीने अरब शेरो शायरी का गहवारा थीं और अकाज़ के बाज़ारों नीज़ मेलो ठेलो में तफ़ाखुर व ख़ुदसताई की आवाज़ें क़साएद के पैकर में ढ़ल कर गूँजा करती थी मगर मानी व मतालिब के लिहाज़ से आपकी रविश दूसरों से मुख़तलिफ थी। आपके अशआर में न खुद सताई का जज़बा था और न इब्तेदाल व बाज़ारीपन का शायबा , बल्कि रवानी , सादगी , क़नाअत और नज़म व ज़ब्त के साथ उनमें इख़लाकी तालीमात और हक़ परस्ती व हक़ नवाज़ी का दस्र होता था। इसीलिए अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) आपके अशआर को इल्मी व इख़लाक़ी सरमाया समझते हुऐ फरमाते हैं- मेरे वालिद के अशआर पढ़ो और अपनी औलादों को पढ़ाओ , इसलिए कि वह दीने हक़ पर थे और उनके कलाम में इल्म व अदब का बड़ा ज़ख़ीरा है।

यतीमे अब्दुल्लाह की परवरिश व तरबियत

इन तमाम ख़ुसूसियात व इम्तियाज़ के अलावा नस्बी व खानदानी बुलन्दी के लिहाज़ से और रसूले खुदा (स.अ.व.व.) की तरबियत और इस्लाम के गिरां कदर ख़िदमात के एतबार से भी आपकी अज़मत मुसल्लम है। पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) ने आप ही के दामने आतफत में परवरेश पायी और आप ही के ज़ेरे साया जि़न्दगी का बेशतर हिस्सा बसर किया।

आन हज़रत (स.अ.व.व.) के वालिदे बुजुर्गवार जनाबे अब्दुल्लाह , आपकी विलादत से पहले ही इन्तेकाल फरमा चुके थे और जब आप छः बरस के हुए तो आप की वालिदा हज़रत आमेना भपी दुनिया से रूख़सत हो गयी। चुनानचे आप अपने दादा हज़रत अब्दुल मुत्तालिब की आग़ोश शफक्कत में परवरिश पाने लगे लेकिन दो ही बरस गुज़रे थे कि उन्होंने भी सफरे आख़िरत इख़तियार किया मगर क़बबे रेहलत अबुतालिब से यह खुसूसी वसीयत कर गये कि वह आन हज़रत की केफालत व निगेहदाश्त में कोई दक़ीक़ा उठा न रखे हालांकि जनाबे अबुतालिब खुद अपने भतीजे से इतनी मुहब्बत व क़ुरबत रखते थे कि जिसके बाद किसी वसीयत की जरुरत न थी चुनानचे जब उन्होंने आन हज़रत (स.अ.व.व.) के बारे में अपने वालिद की वसीयत को सुना तो फरमायाः बाबा जान! मुहम्मद (स.अ.व.व.) के बारे में वसीयत की ज़रुरत नहीं वह मेरा भतीजा और बेटा है।

हज़रत अब्दुल मुत्तालिब कसीर औलाद थे और वक़्त आख़िर उनके तमाम अज़ीज़ व अक़ारिब और बेटे उनके गिर्द व पेश जमां थे और उनमें से हर एक ब-आसानी इस बारे कफालत का मुतहम्मिल हो सकता था मगर अपने इन्तेहाई ब-सीरत व दूस अन्देशी से काम लेते हुए तरबीयत व केफालत का जिम्मेदार सिर्फ अबातालिब को क़रार दिया क्योंकि उन्होंने आन हज़रत (स.अ.व.व.) के साथ अबु तालिब के तर्ज़े अमल और बरताव से बखुबी अन्दाज़ा कर लिया था कि जो मुहब्बत और उलफत उन्हें यतीमें अब्दुल्लाह से है वह किसी दूसरे को नहीं है और तरबियत की तकमील के लिए मुहब्बत व शफक्कत के जज़बात बहर हाल ज़रुरी है। लेहाज़ा उनसे बेहतर कोई दूसरा इस ख़िदमत को अन्जाम नहीं दे सकता और बाद के हालात ने यह बता दिया कि हज़रत अब्दुल मुत्तालिब के जो तवक़्क़ोआत जनाबे अबुतालिब से वाबस्ता थे वह ग़लत न थे। इसके अलावा इस अमर से भी इन्तेख़ाब को तक़वियत पहुँची होगी कि अबुतालिब और अब्दुल्लाह में सुबली व बतनी यगानियत भी है लेहाज़ा जिस हमदर्दी और ग़मगुसारी या खुलूस व ईसार की उनसे तवक्क़ों हो सकती है वह दूसरे मुख़तलिफ़ुल बत्न भाईयों से नहीं हो सकती। और यह भी मुम्किन है कि आसमानी सहीफों में आन हज़रत (स.अ.व.व.) के बारे में पेंशिनगोईयों को पढ़कर और हज़रत अबुतालिब में इस्लाम परवरी व ईमान नाज़े मसीहा को उनके सुपुर्द किया हो।

बाज़ मोवर्रेख़ीन का कहना है कि हुज़ूर सरवरे कायनात की परवरिश व परदाख़्त के लिए हजरत अबुतालिब और जुबैर इब्ने अब्दुल मुत्तालिब के दरमियान कुरानदाजी हुयी थी और कुरा हज़रत अबुतालिब के नाम निकला था। एक क़ौल यह भी है कि जब उन दोनों के दरमियान मुआमला दरपेश हुआ तो हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) ने अबुतालिब का दामन थामा और उन्हीं के किनारे आतेफत में रहने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की।

बहर हाल- यह इन्तेख़ाब किसी बिना पर हुआ हो , इस बात से इन्कार मुम्किन नहीं कि यह अल्लाह के ख़ुसूसी लुतफ़ व करम का नतीजा था और मशीयते ईजदी भी यही चाहती थी कि यह अमानत अबुतालिब ही के सुपुर्द हो और उन्हीं की पाकीज़ा आग़ोश में परवान चढ़े। चुनानचे कुदरत ने आन हज़रत पर जो एहसानात फरमाये उनमें से इस एहसान का खास तौर पर तज़किरा करते हुए फरमाया कि (अलम यज्जेदिक यतीमा फ़ाआवा) (क्या उसने तुम्हें यतीम पाकर पनाह नहीं दी ?) मुफसेरीन का इत्तेफाक है कि इस पनाह से मुराद हज़रत अबुतालिब का साया आतेफत और आग़ोशे शफ़क़्कत है।

ग़र्ज जनाबे अबुतालिब ने अपने बाप की वसियत के मुताबिक आन हज़रत (स.अ.व.व.) को अपनी आग़ोशे तरबियत में ले लिया और वह तमाम फराएज़ जो एक मुरर्बी व निगरां के हो सकते हैं इन्तेहाई हुस्न व खूबी से अन्ज़ाम दिये और इस तरह मुहब्बत व दिलसोज़ी से तरबियत की कि हर मोवर्रिख़ के क़लम ने उसका एतराफ किया है। इब्ने साद लिखते हैं कि (अबुतालिब रसूले खुदा (स.अ.व.व.) से बेइन्तहा मुहब्बत करते थे और अपनी औलाद से ज़्यादा उन्हें चाहते थे , अपने पहलू में सुलाते और जब कहीं बहर जाते तो उन्हें अपने साथ ले जाते थे)

हज़रत अबुतालिब ने इब्तेदा ही से सरवरे कोनैन (स.अ.व.व.) की ज़िन्दगी का गहरा मुतालिया किया ता आपके आदात व अतवार और सीरत व किरदार को अच्छी तरह देखा भाला था , फिर हज़रत अब्दुल मुत्तालिब की मिसाली खुददारी और रकऱखाव के बावजूद आन हज़रत (स.अ.व.व.) के साथ उनवका शफ़क़्क़त आमेज रवय्या भी धेखा लेहाज़ा वह यह सोचने पर मजबूर थे कि यह बच्चा आम बच्चों की सतह से बुलन्द तर और ग़ैर मामूली अज़मत व रिफअत का मालिक है इसलिए जहाँ आपके रगोपै में आन हज़रत (स.अ.व.व.) की मुहब्बत सरायत किये हुए थी वहाँ अक़ीदत व इरादत से भी उनके दिलका गहवारा खाली नहीं ता , और अक़ीदत व मुहब्बत के यही वह मिले जुले जज़बात थे जिन्होंने आपको हर क़िसम की कुर्बानी पर आमादा कर दिया।