करामाते मुहम्मदी और अबुतालिब
हज़रत अबुतालिब , करामाते मुहम्मदी में जिस करामत का मुशाहिदा सुबह व शाम करते थे वह यह थी कि जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) दस्तर खान पर मौजूद होते तो खाना ख़्वाह कितना ही कम क्यों न होता सब शिक्म सेर होकर खाते , फिर भी खाना बच जाता था। इसलिए आपना यह मामूल क़रार दे लिया था कि जब तक आन हज़रत (स.अ.व.व.) दस्तर खान पर तशरीफ न लाते कोई शख्स उस वक़्त तक खाना न खाता। अगर दस्तर ख्वान से कोई दूध का प्याला उठाता तो यह कहकर आप उसे रोक देते कि पहले मेरे भतीजे मुहम्मद (स.अ.व.व.) को पी लेने दो फिर पीना। चुनानचे हुजूर (स.अ.व.व.) पी लेते तो दूसरे पीते और सबके सब सेराब व शिकम सेर हो जाते। यह देखकर जनाबे अबुतालिब आन हज़रत (स.अ.व.व.) से फरमाते कि तुम बड़े ही बाबरकत हो।
हज़रत अबुतालिब एक मर्तबा आन हज़रत (स.अ.व.व.) के साथ कहीं जा रहे थे। जब मुक़ामे अरफा से तीन मील के फासले पर मुक़ाम ज़िलमिजाज़ में पहुँचे तो आपने प्यास महसूस की और आन हज़रत (स.अ.व.व.) से फरमाया कि क्या आस पास कहीं पानी मिल सकता है ? आन हज़रत (स.अ.व.व.) अपने नाक़े से उतरे और एक पत्थर पर ठोकर मारी , पानी का धारा बह निकला। फ़रमाया चचा पानी पी लीजिए। जब आप पानी से सेर व सेराब हो चुके तो पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने दोबारा ठोकर मारी जिससे उबलता हुआ चश्मा ख़ुश्क हो गया।
हज़रत अबुतालिब उन्हीं आसारे ख़ैरो बरकत को देखकर आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ज़ात अक़दस को अपनी दुआओं का वसीला बनाते और उन्हीं के तवस्सुल से बारगाहे ईजदी में अपनी अर्ज़दाश्त पेश करते। चुनानचे बारिश न होने की वजह से एक दफा मक्का में शदीद कहा पड़ गया , लोग खुशक साली से बेहद परेशान व मुज़तरिब हुए। लात व मनाफ और उज़्ज़ा के सामने फ़रयाद की तदबीरे सोची गयी मगर उनमें से एक बुजुर्ग ने कहा , कहीं भटकर रहे हो ? जबकि तुम्हारे दरमियान यादगारे इब्राहीम (अ.स.) औरफरज़न्दे इस्माईल (अ.स.) मौजूद हैं। लोगों ने कहा , क्या उस से मुराद अबुतालिब हैं ? उस बुजुर्ग ने कहा , हाँ। बस , यह सुनना था कि सब उठ खड़े हुए और खान-ए-अबुतालिब पर तशगाने हयात का मजमा इकट्ठा हो गया। लोगों ने मुद्दआ बयान किया। अबुतालिब , उठकर हरम सराये गये और कलीदे रहमत की उँगलियां थामे हुए बाहर तशरीफ लाये। फिर खान-ए-काबा का रूख किया और वहाँ पहुँचकर रूकन से तकिया करके बैठ गये , आन हज़रत (स.अ.व.व.) को अपनी गोद में बिठाया और आपकी अंगुश्ते मुबारक को आसमान की तरफ बुलन्द फरमा कर दुआ की। बारिश के कोई आसार न थे लेकिन देखते ही देखते तेज़ व तुंद हवायें चलने लगीं , अबरे रहमत झूम के उठा और इस शिद्दत से बरसा कि सूखी हुई ज़मीने सेराब हो गयी और खुशक दरखतों में हरयाली व शादाबी आ गयी। हज़रत अबुतालिब ने जोश अक़ीदत में एक क़सीदा इस मौके पर रसूले खुदा (स.अ.व.व.) की शान में फरमाया जो सौ अशआर से जायद पर मुश्तमिल है इसमे आपने फरमाया कि क्या कहना इस नूरे मुजस्सम का कि जिसके रूये अनवर की बरकत से अबरे करम बरस पड़ता है। जो यतीमों की उम्मीद गाह और बेवाओं के लिए जाये पनाह है और हलाक होने वाले जिसके दामने रहमत से मुतामस्सिक हो कर निजात पाकर फज़ले खुदावन्दी के मरकज़ बन जाते हैं।
मज़कूरा वाकियात से पता चलता है कि खानवादहे बनि हाशिम मरजाए खलाएक रहा और इसी सिलसिले इब्राहीमी व इस्माईली की कड़ियों से लोगों की मुश्किलात हल होती रहें। हुकूमत और अमारत उनके क़ब्ज़े में रही हो या न रही हो मगर यह खुसूसियत ज़रुरी थी कि तमाम आलम के लिए यह ख़ानदान चारा साज़ रहा और माद्दी कसाफत उसकी रूहानियत पर असर अन्दाज न हो सकी। खुलपा के दौर में भी उसकी मिसालें मौजूद हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) और हज़रत अबुतालिब का तिजारती सफर
हज़रत अबुतालिब , गेहूँ और इत्रयातके मारूफ ताजिर थे और कुरैश दस्तूरूल अमल के मुताबिक़ ब-ग़रज- तिजारत साल में एक मर्तबा शाम की तरफ जाया करते थे। चुनान्चे जब शाम जाने का वक्त करीब आया तो आपने आनहज़रत (स.अ.व.व.) से भी अपने सफर का तज़किरा किया मगर अपन साथ आपको ले जाने का कोई ख़्याल ज़ाहिर नहीं किया क्योंकि उस वक़्त आन हज़रत (स.अ.व.व.) की उम्र सिर्फ नौ साल की थी और वह दूर दराज़ सफ़र की सऊबतें बर्दाश्त करने क़ाबिल न थे। मगर जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने यह महसूस किया कि चचा उन्हें अपने साथ नहीं ले जाना चाहते तो आप जनाबे अबुतालिब से लिपट गये और साथ चलने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की। अबुतालिब को भी आपकी जुदाई गवारा न थी इसलिए वह आपको साथ ले जाने पर आमादा हो गये और फरमायाः- (ख़ुदा की क़सम मैं उन्हें अपने साथ ले जाऊँगा , हम कभी एक दूसरे से जुदा नहीं हो सकते।)
ग़र्ज़ कि आपने हजूरे अकरम (स.अ.व.व.) को साथ लिया और शाम की तरफ रवाना हुए। रास्ते में सरकारे दो आलम का नाक़ा आगे रहता था और अबर का एक टुकड़ा साया किये हुए आपके साथ चलता था। जहाँ पानी नायाब होता वहाँ अबरे करम बरस पड़ता और जहाँ यह काफिला क़्याम पज़ीर होता वहाँ के हौज़ व तालाब पानी से लबरेज़ हो जाते और सूखी वादियां सरसबाज़ व शादाब हो जाती। मंज़िले तय होती रहीं यहाँ तक कि यह काफ़िला वारिदे बसरा हुआ जहाँ जरजीस इब्ने रबिया ने जो बहीरा के नाम से मशहूर था ताजदारे मदीना को देखा और उन तमाम आसार का मुशाहिदा किया जो ख़ातेमुल अन्बिया के लिए मख़सूस थे।
उसने आन हज़रत (स.अ.व.व.) को और क़रीब से देखने के लिए तमाम अहले काफिला की दावत का एहतमाम किया। लेकिन कुरैश जब दावत में शिरकत के लिए वहाँ गये तो आपको साथ नहीं ले गये बल्कि सामान की निगरानी के लिए छोड़ गये। बहीरा ने जब आपको न देखा तो उसने कुरैश से पूछा कि तुम्हारे साथ और भी कोई है ? उन्होंने कहा हाँ एक बच्ची है जिसे सामान की निगरानी पर मामूर कर आये हैं। बहीरा ने कहा , उसे ज़रुर बुलवाओ। जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) तशरीफ लाये तो उसने आपको सर से पाओं तक ग़ौर से दाख फिर पैराहन हटा कर दोशे मुबारक पर मोहरे नबूवत का मुशाहिदा फरमाया , मेरा बेटा है। बहारी ने कहा , यह आपका बेटा नहीं हो सकता क्योंकि मेरे इल्म की बिना पर इसके वालिद को ज़िन्दा ही न होना चाहिये। जनाबे अबुतालिब ने फरमाया तुम ठीक कहते हो , इसके वालिद मेरे हक़ीक़ी भाई थे जिनका इन्तेक़ाल हो चुका है। बहीरा ने कहा इन्हें वापस ले जाओ और नबी मुरसल हैं। अहले क़ाफिला में से कुछ लोगों ने पूछा कि तुमने यह क्यों कर जाना कि यह नबी व रसूल हैं ?कहा , जब तुम्हारा क़ाफिला पहाड़ की बुलन्दी से नीचे उतर रहा था तो मैंने देखा कि तमाम शजर व हजर सर बा सजदा है और जिस तरफ यह बच्चा जाता है अंबर साया किये हुए चलता है , इसके अलावा उसके हस्ब व नस्ब , शक्ल व शुमाएल और खदो खाल का तज़किरा मैंने आसमानी सहीफों मे भी पढ़ा है इसलिए मैं यक़ीन की मंज़िल में हूँ। इस सफर के बाद , सरकारे रिसालत ने फिर कोई सफर नहीं किया और न जनाबे अबुतालिब तहफ्फुज़ के ख़्याल से आपको कहीं बाहर ले गये।
आन हज़रत (स.अ.व.व.) का अक़द
बचपन के हदुद से तजाउज़ करके पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने जवानी की सरहदों में क़दम रखा तो जनाबे अबुतालिब को आपको रोज़गार और मइश्त की फिक्र हुई। उस वक़्त मक्का में एक मोअज़्जि़ व मालदार ताजिर खातून जनाबे खदीजा बिन्ते खुवैलद थीं जोअपने तिजारती नुमाइन्दे मुख़तलिफ़ शहरों में भेजा करती थीं। आपने आन हज़रत (स.अ.व.व.) को खदीजा का कारसोबार सँभालने का मशविरा दिया और खुद भी जनाबे खदीजा से सिफारिश की कि वह जिन शरायत पर दूसरों को माल तिज़रत दे कर दीगर शहरों में भेजती हैं उन्हीं शरायत पर मेरे भतीजे को भी माल दिया करें। जनाबे खदीजा ने हज़रत अबुतालिब की यह बात मान ली और शरायत तय करने के बाद काफी मिक़दार में तिजारती माल आन हज़रत (स.अ.व.व.) के हवाले कर दिया। आप कुछ अर्से तक कारोबारी अमूर अंजाम देते रहे और उसमें इन्तेहाई कामयाबी हासिल की। जनाबे खदीजा भी आपको कारोबार से मुतमईन और सच्चाई व इमानदारी से बेहदत मुतासिर हुयीं। आखिर कार उन्होंने आपके पासक किसी जरिये से अक़द का पैग़ाम भिजवाया जिसे आपने अपने पचचा से मशविरे के बाद मंजूर कर लिया। इब्तेदाई मराहिल यह होने के बाद हज़रत अबुतालिब , ने हज़रत हमज़ा , अब्बास और दूसरे बनि हाशिम व अकाबरीने कुरैश को हमराह लिया और सरकारे दो आलम के साथ हज़रत खदीजा के मकान पर आये बज़में अक़द आरास्ता हुई , हज़रत अबुतालिब ने निकाह का खुतबा पढा जिसमें आपने फरमायाः
(तमाम हमद उस अल्लाह के लिये है जिसने हमें जुर्रियते इब्राहीम , नसले इस्माईल , औलादे मआद और सुल्बे मजर से पैदा किया। अपने घर का निगेहबान और हरम का पासबान बनाया और उसे हमारे लिये हज का मुक़ाम और जाये अमन करार दिया , नीज़ हमें लोगों पर हाकिम बनाया। यह मेरे भतीजे मुहम्मद (स.अ.व.व.) बिन अब्दुल्लाह है , जिस शख्स से भी उनका मवाज़ाना किया जायेगा तो शरफे निजाबत और अक़ल व फज़ीलत में उनका मर्तबा भारी रहेगा , अगर चे दौलत उनके पास कम है लेकिन दौलत तो एक ढ़लती , हुई छांव और पलट जाने वाली चीज़ है , खुदा की कसम उसका मुस्तकबिल अज़मत आफरी है और उनसे एक अज़ीम ख़बर का जहूर होगा।
यह खुतबा अगर चे मुख़तसर है मगर उससे हज़रत अबुतालिब के अक़ायद व नज़रियात और सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) के मुतालिक उनके ख़्याल का बड़ी हद तक अन्दाज़ा होता है। उन्होंने खुतबा की इब्तेदा अल्लाह ताला की हमदो सना से की है जिससे उनकी तौहीद परस्ती पर रौशनी प़ड़ती है। हमदो सना के बाद जुरियते इब्राहीमी व नसले इस्माईली से अपनी वाबस्तगी का इज़हार करके खान-ए-काबा की निगरानी , हरम की पासबानी और अमेतुन्नास पर हुक्मरानी का ज़िक्र किया है , इससे सिर्फ यही अमर वाजेह नही होता कि वह नसले इब्राहीमी में से होने की बिना पर इन मनसूबों और उहदों पर फायज़ होते चले आ रहे थे बल्कि इस अमर की भी निशान देही होती हैं कि वह हरम के ओहदों के अलावा उनकी तालिमात के भी विरसेदार थे अगर वह उनकी तालिमात से बेगाना और उनके दीन व आईन से बे तालुक़ होते तो इस इन्तेसाब पर फख़र का कोई मोरिद ही न था। इस शरफ़े इन्तेसा और खुसूसी इम्तेयाज़ के बाद आन हज़रत के कमाले फ़हम व फरासत् और बुलन्दी अक़ल व दानिश का तजकिरा किया है और उनके मुहासिन व कमालात के मुकालबे में माले दुनिया की बेक़दरी व वक़अती को वाजेह किया है इस तरह कि उसे ढ़लते हुए साये से ताबीर किया है यानि जिस तरह साया अपना कोई मुस्तक़िल वजूद नहीं रखता और उसका घटना व बढ़ना किसी दूसरी शै के ताबे होता है इसी तरह माल दुनिया भी ग़ैर मुस्तकिल और आरज़ी है लेहाज़ा इस माल के ज़रिये जो सर बुलन्दी और अज़्ज़त हासिल होगी वह साया के मानिन्द नापायेदार होगी। आख़िर में आपने आन हज़रत से दरख़शिन्दा मुस्तक़बिल , उलूये मंजेलत और आलमगीर नबूवत की तरफ़ इशारा किया है कि वह अनक़रीब आसमाने हिदायत पर न्यैरे दख़शां बनकर चमकेगें और अपनी तालिमात की रौशनी में भटकी हुई इन्सानियत को सिराते मुस्तक़ीम से हमकिनार करेंगे।
इस ख़ुतबे के बाद आपने अकद का सईफा पढ़ा और आन हज़रत को शहजादीये अरब जनाबे ख़दीजा से मुनसलिक कर दिया।
हज़रत अबु तालिब का इस्लामी नज़रिया
जब सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) कारवाने हयात की चालिस मंजिले तय कर चुके तो कुदरत ने जिस मक़सद के लिये ख़लक किया था उसकी तकमील के लिये मामूर फमाया और हिदायते आलम का बारेगिरां उनके काँधों पर रखा। आप कुफ्र व शिरक के घटा टोप अँधेरों में हिदायत का चिराग़ जलाने और इस्लाम का पैग़ाम घर घर पुहँचाने के लिये उठ खड़े हुए। बेअसत के इब्तेदायी सालों में दायरये तबलीग़ महदूद और दावते इस्लाम के इजहार में एहतियात बरती जाती थी। नमाज़ के लिए तन्हाई के मौके ढूंढ़े जाते थे। हुजूरे अकरम (स.अ.व.व.) कभी मकानों में छुप कर इबादत करते और कभी हज़रत अली (अ.स.) को हमराह लेकर पहाड़ों की घाटियों में निकल जाते और वहाँ नमाज़ अदा करते। एक मर्तबा जनाबे अबुतालिब ने उन दोनों भाईयों को पहाड़ की खाई में नमाज़ पढ़ते देख लिया। आपने हज़रत अली (अ.स.) को बुलाया और उनसे पूछा कि यह कौन सा दीन है जो तुमने अख़तियार किया है ? आपने कहा , मैं अल्लाह और उसके रसूल मुहम्मद (स.अ.व.व.) बिन अब्दुल्लाह (स.अ.व.व.) के दीन पर हूँ। यह सुन कर जनाबे अबुतालिब ने फरमाया कि (तुम उनसे चिमट रहो यह तुम्हें नेकी व हिदायत का रास्ता बतायेगा)
अगर अबुतालिब , कुफ्र पसन्द और इस्लाम दुश्मन होते तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) से यह ज़रुर कहते कि आप मुझ से पूछे बगै़र , मेरे बच्चे को अपने नये मज़हब की राह पर लगाने वाले और बाप बेटे के दरमियान जहनी व नजरयाती तफरिक़ा डलवाने वाल कौन होते हैं ? और हज़रत अली (अ.स.) भी कहते कि तुम इस झगड़े में न पड़ो और अपने बाप के दीन व आईन पर क़ायम रहो। इसिलए कि हर इन्सान अपनी औलाद को अपने ही दीन मज़हब पर देखना पसन्द करता है। मगर जनाबे अबुतालिब पैग़म्बर (स.अ.व.व.) से कुछ पूछने या हज़रत अली 0 को मना करने के बजाय उन्हें आन हज़रत (स.अ.व.व.) की पैरवी का हुक्म देते है। यह इस अमर का वाज़ेह सुबूत है कि यह कुफ्फारे मुशरेकीन के मुशरेकाना इबादात व रसूल को पसन्दीदा नजरों से नहीं देखते थे वरना बुत परस्ती के मुक़ाबले में इस तर्ज़ इबादत को अमर ख़ैर से ताबीर न करते और हजरत अली (अ.स.) से यह न कहते कि मोहम्मद (स.अ.व.व.) के मसलक पर मज़बूती से जमें रहो वह तुम्हें नेकी और भलायी के रास्ते पर ले जायेंगे। इस वाकिये से यह हक़ीकत बड़ी हद तक आशकार हो जाती है कि जनाबे अबुतालिब जेहनी तौर पर पूरी तरह इस्लाम से हमआहंग और उसकी पज़ीरायी पर हमातन आमादा थे।
आन हज़रत (स.अ.व.व.) को दरपर्दा तबलीग़ करते हुए जब तीन बरस गुज़र गये और चौथा साल शुरू हुआ तो एलानिया तबलीगे इस्लाम का हुक्म आया आप ने जनाबे अबुतालिब के मकान पर एक दावत का एहतमाम किया और अपने अजीज व अकारिब को जमा करके उन्हें अल्लाह का पैग़ाम सुनाया कि वह बुतों की परस्तिश छोड़ दें और खुदा की इबादत करें। हज़रत अबुतालिब कुरैश के तेवरों को समझ रहे थे कि वह अपने कदीम रस्में रिवाज़ के खिलाफ कोई आवाज सुनना गवारा नहीं करेगें और आप हज़रत (स.अ.व.व.) के खिलाफ उठ खड़े होंगे लेहाजा आपने यह मुनासिब समझा कि पहले ही उनके गोश गुजार कर दें कि वह इब्ने अब्दुल्लाह को तन्हा व बेसहारा न समझें बल्कि हम उनके दस्त व बाजू बनकर उनके साथ होंगे और हर लम्हा उनके सीने सिपर रहेंगे चुनानचे आपने जज़बए हक परस्ती से शुरू हो कर पुरएतमाद लहजे में फरमाया। (ख़ुदा की कसम जब तक हम ज़िन्दा दुश्ननों से उनकी हिफाज़त करेंगे।)
जब पैग़्बर (स.अ.व.व.) की आवाज़ पर घर की चार दीवारी से निकल कर मक्का की कुफ्र परवर फिज़ा में गूँजी तो रद्दे अमल के तौर पर मुख़ालफ़त के तूफान उठ खड़े हुए जो लोग आँखे बिछाते थे वह आँखे दिखाने लगे और जो फूल बरसाते थे वह आपकी राह में कांटे बिछाने लग। कुरैश ने कदम कदम पर तबलीग़े हक़ की राह में रूकावटें खड़ी की वह कौन सी मुश्किल थी जो आपके रास्ते में हायल न की गयी हो और वह कौन सा हरबा था जो इस्तेमाल न किया गया हो। मगर अज़्मे पैग़म्बर ने किसी मुश्किल को मुश्किल नहीं समझा और आप कुरैश की मवानिदान सरगर्मियों के बावजूद हमातन अपने तबलीग़ी कामों में मसरूफ रहे। कुरैश ने यह हाल देखा तो वह एक वफ़द की शक्ल में अबुतालिब के पास आये और कहा , आप अब्दुल्लाह के बेटे का तौर व तरीक़ा देख रहे हैं उसने चन्द भोले भाले लोगों को बहला फुसलाकर अपने दीन में दाख़िल कर लिया है। हम इस से रूबरू बातें करना चाहते हैं और आप भी उसे मुतनबेह करें कि वह अपना रवय्या बदल दें और इस नये दीन से दस्तबरदार हो जाये। हज़रत अबुतालिब ने कुरैश के खतरनाक तेवरों को भांप लिया। खामोशी से उठ कर आन हज़रत कहना चाहते हैं अगर मुनासिब समझें तो उनकी बात सुन ले वरना जैसा कहें मैं उन्हें जवाब दूँ। आन हज़रत (स.अ.व.व.) बाहर तशरीफ लाये और उनसे पूछा कि क्या कहना चाहते हो ? उन्होंने कहा कि हम यह चाहते हैं कि आप हमारे बुतों से न कोई सरोकार रकें न इन्हें बुरा भला कहें और न हमारे दीन पर हमला करें। अगर आपने हमारा यह मुतालिबा मान लिया तो हम आपके किसी काम में दखल अन्दाज़ी नहीं करेगे। वरना- ---------- (आपने फरमाया कि मैं यही तो कहता हूँ कि अल्लाह एक है उसी की इबादत करो और इसे छोड़कर अपने खुदसाख्ता खुदाओं की परस्तिश न करो। और यह मेरा फर्ज़े मनसबी है कि मैं बुत परस्ती की मजम्मत और ख़ुदा परस्ती की तबलीग़ करूँ। अबुतालिब की वजह से कुरैश और तो कुछ कह न सके अलबत्ता यह जरुर कहा , यह तो अजीब बात है। इसके बद सब के सब मुंह लटकाकर चले गये।
इस मौक़े पर हज़रत अबुतालिब ने अपने हुस्ने तदबीर और हिकमते अमली से ऐसा रवय्या एख़तियार किया कि कुरैश के भड़के हुए जज़बात मज़ीद न भडकने पाये। अगर नर्म रूई के बजाये सख़्त रवय्या इख़तियार किया जाता तो दुश्मनी और अनाद की आघ और भड़क उठती और कुफ्फार की तशद्दुद पसन्द तबियतें और सख्ती व तशद्दुद पर उतर आयें। इस मसलहत के अलावा दावते फिक्र का अहम मकसद भी उसकमें शामिल था कि कुरैश चिराग़ पा होने के बजाये ठण्डे दिल से आन हज़रत (स.अ.व.व.) की बाते सुनें उन पर ग़ौर करें और अपने मोतक़ेदात और उनकी तालिमात का जायेज़ा लेकर हक़ व बातिल का फैसला करे और जिस तरह दीगर मुआमलात में उनकी रास्त गोई व सच ब्यानी तस्लीम करते आये हैं , दीन के बारे में भी उनकी सच्चाई का एतराफ करे और सोचें कि जिस ने चालिस बरस की उम्र तक कभी झूठ नहीं बोला हो वह यकबारगी इतना बड़ा झूट कैसे बोल सकता है कि रिसालत और अल्लाह की नुमायन्दगी का दावा करने लगे , मगर कुरैश अपने अकीदों से दस्तबरदार होने पर तैयार न थे और न ही उनकी मुनजमिद तबियतों में बाआसानी तबदीली हो सकती थी। उन्होंने देखा कि उनके अक़ायद का तहाफ्फुज उसी वक़्त मुम्किन है जब इस दाइये हक का खातमा कर दिया जाये। मगर अबुतालिब के होते हुए उन्हें आन हज़रत (स.अ.व.व.) पर हमला करने की जुराअत भी तो न थी चुनानचे उन्होंने अबुतालिब की हिमायत व सरपरस्ती को खत्म करने के लिए यह खेल खेला कि कुरैश के एक खूबसूरत नौजवान अमारा इब्ने वलीद को अबुतालिब के पास लाये और कहा कि आप उसे अपना बेटा बना लें और मुहम्मद (स.अ.व.व.) की हिमायत से दस्तबरदार हो जायें। जनाबे अबुतालिब ने उनकी यह अनोखी फरमाइश सुनी तो फरमाया। (यह अच्छा इन्साफ है कि मैं तुम्हारे बेटे को लेकर पालू और अपना बेटा तुम्हारे हवाले कर दूँ ताकि तुम उसे क़त्ल कर दो , खु़दा की क़सम यह कभी नहीं हो सकता।)
कुरैश का यह मुतालिबा इन्सान के फितरी लगाओ , जज़बाये मुहब्बत से बे खबरी या अमदन उससे बेरूखी पर मुबनी था कि अबुतालिब अपने हक़ीक़ी भतीजे को खूँखार दरिन्दों के हवाले कर दें और अजनबी और बेगाने को लेकर उसकी परवरिश करें। एक मामूली सतह का इन्सान भी उसे गवारा नहीं कर सकता , यह जानके अबुतालिब ऐसा बाहिम्मत , इन्सान , जो पनाह मांगने वालों के लिये भी मजबूती और तन्देही से जम जाता हो , वह अपने जिगर बन्द को इस आसानी से खून आशाम तलवारों के सुपुर्द कर दे और अपनी हमीयत , मुरैव्वत और शरफ का कुछ भी पास व लिहाज़ न करे।
कुरैश की इस पेशकश से उनकी पस्त ज़ेहनियतों का अन्दाज़ा किया जा सकता है कि वह आन हज़रत (स.अ.व.व.) की दुश्मनी में किस हद तक होश व ख़ेरद के तक़ाज़ों से दूर हो चुके थे कि ऐसे बेतुकी बातों पर उतर आये। यह अमर ग़ौर तलब है कि ऐसे कमफ़िक्र लोगों को समझाना बुझाना और उनके इरादों को नाकाम बनाना कितना दुश्वार था , और इन दुशवारियों को दूर करने में क्या अबुतालिब के अलावा किसी और का भी अमल दखल था ? तारीख़ किसी और का नाम बताने से क़ासिर है। ग़र्ज़ कुरैश का यह हरबा नाकाम हो गयचा और उनकी सख़्त और सितम रानियों के बावजूद इस्लाम की आवाज़ दबने के बजाये उभरती ही गयी।
अब कुरैश को यह फ़िक्र लाहक़ हुई कि अगर आन हज़रत (स.अ.व.व.) की आवाज से मुतासिर होकर लोग इसी तरह दायरये इस्लाम में दाखिल होते रहे और यह सिलसिला यूँ ही जारी रहा तो एक दिन यह मुख़तसर सी जमाअत मक्का की सियासत पर छा जायेगी और उन्हें पैरों तले रौंद कर उनके इक़तेदार को मलिया मेट कर देगी। जब उन्हें इन्क़ेलाबे नो के जेरे असर अपना इकतेदार नज़र आया तो चन्द बड़े और बुज़ुर्ग अबुतालिब के पास फिर आये और उनसे कहा कि पहली बार हम खामोश होकर चले गये थे मगर अब पैमानए सब्र लबरेज हो चुका है , हम कहाँ तक आपकी बुजुर्गी और अज़मत का लिहाज़ करे , बिल आखिर हमें वह कद़म उठाना ही पड़ेगा जो अब तक इस तवक्कों पर नहीं उठा कि शायद यह आवाज़ दब जाये। अब आप अपने भतीजे को सख्ती से समझा दें कि वह खामोश हो जायें और आसमानी बातों का सिलसिला ख़त्म कर दें वरना आप दरमियान से हट जायें और हमें दो टूक फैसला कर लेने दें। जनाबे अबुतालिब ने जब उनके बिगडे हुए तेवर देखे तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) के पास आये और फरमाया कि सरदारे कुरैश पिर जत्था बाँध कर आये हैं , आप कोई ऐसा तरीक़ा इख़ितयार करें जिससे कि उनके जज़बात मुशतइल न हों , वरना अन्देशा है कि वह अचानक आपको क़त्ल कर देंगे। मैं तन्हा कहाँ तक उनका मुक़ाबला करूँगा। जनाबे अबुतालिब की जबान से यह अल्फाज़ सुन कर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की आँखों में आँसू भर आये और भराई हुई आवाज में आपने फरमायाः- चचा! मैं तो उन्हें नेकी और हक परस्ती की दावत देता हूँ और मेरे मनसब का तक़ाज़ा भी यही है कि मैं उन्हें अल्लाह के एहकाम व पैग़ाम से मुत्तेला करूं , खुदा की कसम , वह लोग मरेे एक हाथ पर चाँद , और दुसरे हाथ पर सूरज रख दें जब भी मैं एलाने हक़ और तबलीग़े इलाही से दस्तबदार नहीं हो सकता। यह कहकर आप वहाँ से चल दिये। अबुतालिब ने जब पैग़म्बर (स.अ.व.व.) को जाते देखा तो बूढ़े जिस्म पर लरज़ा तारी हो गया आवाज़ दे कर पैगम़्बर (स.अ.व.व.) को रोका और खुद एतमादी के साथ फरमायाः- ब्रादर ज़ादे! जाइये और जो समझ में आये वह कीजिये , खुदा की क़सम मैं आपका साथ नहीं छोड़ूंगा।
हज़रत अबुतालिब के इस जवाब से सरवरे क़ायनात (स.अ.व.व.) के आँसूओं का मदावा हो गया , दिल के हौसले बढ़ गये और तन्हाई व बेयारी का एहसास जाता रहा।
इस तजदीदे अहद के बाद हज़रत अबुतालिब ने सरदाराने कुरैश की तरफ रूख किया और उनसे कहा , आप लोग क्यों खडे हैं , जाईये और जो बन पड़े वह कीजिये , खुदा की कसम मेरे भतीजे की ज़बान कभी झूट से आशना नहीं हुई। िस जवाब से रसूले अकरम (स.अ.व.व.) की सदाक़त और इस्लाम की सच्चाई पर जनाबे अबुतालिब के यक़ीन व इमान का पता चलता है।
कुरैश के उन वफ़दों में अगर चे अबुतालिब को एक वास्ता व ज़रिया ठहराया जाता रहा है मगर वह किसी मौके पर कुफ्फारे कुरैश के मसलक व नज़रिये की ताईद व हमनुवायी करते नज़र नहीं आते अगर वह इन नज़रियात के हमनवा होते तो जहाँ पैग़म्बरे (स.अ.व.व.) को कुरैश का पैग़ाम पहुँचाते थे वहाँ यह भी कह सकते थे कि आप उनके मज़हब के खिलाफ़ कुछ न कहें न उनके बुतों की मज़म्मत करें , मगर तारीख़ यह बताने से क़ासिर है कि आपने किसी मौक़े पर भी आपकी हमनवाई की हो। कुरैश भी उनके तर्ज़े अमल से यह अच्छी तरह समझ गये थे कि उनकी तमाम तर हमदर्दियाँ अपने भतीजे के साथ हैं और उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकी कि वह आन हज़रत (स.अ.व.व.) का नुसरत व हिमायत से दस्तबदार हो कर उनका साथ छोड़ देंगे लेहाज़ा उन्होंने मजीद कुछ कहना सुनना बेसूद समझा और एक माज़ क़ायम करके पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) को तरह तरह की अजीयतें देना और सतान शुरू कर दिया। खभी ढ़ेले मारते , कभी कूड़ा फेंकते , कभी काहिन , कभी मजनून और आसेहब ज़दा कहते और जब आप मसरूफे नमाज होते तो मज़ाक उड़ाते।