ख़ून और गोबर
पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) एक दिन खान-ए-काबा के पास मसरूफे नमाज थे कि अबुजहल ने हरम में बैठे हुए कुछ लोगों से कहा कि तुम में कौन है जो उनकी नमाज़ को निजासत और गन्दगी से आलूदा कर दे। अबदुल्लाह बबिनज़बरी उठा और खून व गोर ले कर आपके चेहरए अक़दस पर मल दिया। नमाज़ से फारिग़ होकर पैगम्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) सीधे अबुतालिब के पास आये। अबुतालिब ने आपकी यह हालत देखी तो उनका खून खौलने लगा। पूछा , किसने यह हरकत की है ? फरमाया , अब्दुल्लाह इब्ने अलज़बरी की। जनाबे अबुतालिब ने तलवार हाथ में ली और खान-ए-काबा की तरफ चल पड़े। अब्दुल्लाह इब्ने जबरी और दसूरे लोगों ने जब जनाबे अबुतालिब को बरहैना तलवार के साथ देखा तो उनके होश उड़ गये। आपने गरज कर कहा कि अगर तुम में कोई भी अपनी जगह से हिला तो गर्दन उड़ा दूँगा। उसके बाद आपने खून और गोबर लेकर अबुजहल समैत एक के बाद एक के चहरों पर मला और नफरीन व मलामत करते हुए वापस आये।
आसतीनों के खंजर
एक मर्तबा ऐसा इत्तेफाक़ हुआ कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) शाम तक घर न पलटे तो हज़रत अबुतालिब को फिक्र दामनगीर हुई। क्योंकि इन हालात में यह अन्देशा था कि कुरैश आन हज़रत (स.अ.व.व.) को कहीं गायब न कर दें या कत्ल न कर डालें। जहाँ जहाँ आन हज़रत (स.अ.व.व.) के मिलने का इम्कान था वहाँ वहाँ अपने ढूण्डा मगर कहीं पता न चल सका। आपने तमाम हाशिमी जवानों को बुलाया और उनसे कहा कि तुम लोग अपनी अपनी आसतीनों में तेज़ धार वाले खंजर छिपा कर सरदाराने कुरैश में से एक एक के पहलू में बैठ जाओ और एक शख़्स अबुजहल के पास बैठ जाये। अगर यह पता चले कि मुहम्मद (स.अ.व.व.) कत्ल कर दिये गयचे हैं तो तुम लोग एक दम उन पर टूट पड़ना और सब को बे दरेग़ क़त्ल कर देना। हाशिमी जवानों ने खंजर सँभाले और कुफ्फाराने कुरैश के सरदारों को अपनी ज़द में ले लिया। जनाबे अबुतालिब इधर पैग़ाम (स.अ.व.व.) की तलाश में सरगर्दां थे कि कोहे सफ़ा की जानिब जानिब से ज़ैद बिन हारिसा आते दिखायी दिये। आपने उनसे पूछा कि तुमने मेरे भतीजे को भी कहीं देखा है ? उन्होंने कहा , हाँ मैं उन्हीं के पास से आ रहा हूँ वह कोहे सफ़ा के दामन में तशरीफ़ फ़रमा हैं। कहा उन्हें बुलाकर ले आओ , ख़ुदा की कसम जब तक मैं अपनी आँखों से उन्हें ज़िन्दा व सलामत नहीं देख लूँगा घर नहीं जाऊँगा। ज़ैद ने जाकर आन हज़रत (स.अ.व.व.) को जनाबे अबुतालिब की परेशानी का हाल बताया तो आप फौरन वहाँ से उठ कर चचा के पास आये और अपनी सलामती का उन्हें यक़ीन दिलाया।
दूसरे दिन जनाबे अबुतालिब पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) और तमाम हाशिमी जवानो को लेकर सरदाराने कुरैश की बज़म में पहुँचे और अपने जवानों से फरमाया कि कल तुम लोग जो चीज़ छिपाये हुए थे उसे उन सरदारों के सामने ज़ाहिर कर दो। सभों ने अपनी अपनी आसतीनों से खंजर निकाे और उन्हें हवा में बुलन्द कर दिया। कुफ्फारे कुरैश ने पूछा , यह खंजर किस लिए है ? हज़रत अबुतालिब ने फरमाया कल दिन भर मेरा भतीजा ग़ायब था , अन्देशा हुआ कि तुम लोगों उसे कहीं क़त्ल तो नहीं कर दिया लेहाज़ा मैंने इन हाशिमी जवानों को तुम पर मुसल्लत कर दिया था कि मुहम्मद (स.अ.व.व.) के क़त्ल की ख़बर सुनना तो किसी को भी ज़िन्दा न छोड़ना। इन तेज़ धार खंजरों को तुम लोग अच्छी तरह देख भाल लो , खुदा की कसम अगर मेरे भतीजे पर कोई आँच अयी तो मैं तुम में किसी को ज़िन्दा नहीं छोडूँगा। अबुतालिब के यह खूँखार तेवर देख कर कुफ्फारे कुरैश में भगदड़ मच गयी। सारी महफिल तितर बितर हो गयी। भगाने वालों मे अबुजहल सबसे आगे था।
शोअबे अबुतालिब
कुफ़्फ़ारे क़ुरैश और बनी हाशिम में रक़ीबाना चशमक पहले ही से थी। अब उनकी मोआनदाना रविश के नतीजे में इख़तेलाफ़ात की खलिज वसीय से वसीय तर हो गयी और उनकी सारी दुश्मनी व अदावत खुल कर सामने आ गयी। कुरैश का अनाद इस हद तक बढ़ा कि उन्होंने बनि हाशिम से कता मरासिम व तअल्लुक़ात का फैसला कर लिया और उन्हें मजबूर कर दिया कि वह शहर का गोशा छोड़ कर पहाड़ों की घाटियों में पनाह लें। इस ज़ेल में कुफ्फारे मक्का ने मुत्तहिद होकर एक मुआहिदा भी मुरत्तब किया जिसमें यह क़रारदार मरकूम हुई कि कोई शख्स , बनि हाशिम की किसी फर्द से न किसी क़राबत का इज़हार करेगा , न उनके साथ तिजारती तअल्लुकात क़ायम करेगा , न उन के लिए सामने खुर्द नोश फराहम करेगा और न उनसे कोई वासता व ताल्लुक रखेगा जब तक अबुतालिब , मुहम्मद (स.अ.व.व.) इब्ने अब्दुल्लाह को हमारे हवाले न कर दें। यह मुआहिदा मुहर्रम सन् 7 नबवी में मनसूर बिन अकरमा ने लिखा।
शोअबे अबुतालिब , जिस में हाशिमी खानवादा महसूर व नजर बन्द किया गया था , पहाड़ का एक दर्रा था लेकिन यह मुक़ाम भी कुरैश की दस्तरस से महफूज़ न था हर वक़्त यह खतरा लाहक़ रहता कि अचानक किसी सिमत से हमला न हो जाये चुनानचे इस खतरे के पेशे नज़र अपनी रातें जाग कर गुज़ारते थे। पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के सोने की जगह तब्दील करते रहते थे और आपके बिस्तर पर अपने बच्चों में से किसी को और बिलउमूम अपने छोटे साहबज़ादे हज़रत अली (अ.स.) को सुला दिया करते थे ताकि रात के अँधेरों में हमला हो तो उनको कोई बेटा काम आ जाये मगर आन हज़रत (स.अ.व.व.) पर आँच न आने पाये।
यह दौर वह था जब ख़ित्तए अरब में चन्द गिने चुने आदमियों के अलावा बनिये इस्लाम का न कोई हामी था न मददगार , अपने बेगाने सभी मुख़ालिफत पर तुले हुए थे। बस सिर्फ एक अबुतालिब थे जो आपकी हिमायत व पुश्त पनाही में पहाड़ की तरह अपने मौकफ़ पर डटे रहे। न किसी मौक़े पर उनका साथ छोड़ा और न उनकी नुसरत व एआनत से हाथ उठाया। यह अबूतालिब ही की हिमायत व पासदारी का नतीजा था कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) उनकी दस्तरत से बाहर और रेशा दावानियों से महफूज़ रहे ग़र्ज़ की जनाबे अबुतालिब ने मआशी मुकातेआ के बाद अपनी औलाद को खतरे में डालकर आन हजरत (स.अ.व.व.) के तहफ्फुज़ का इन्ते़ज़ाम किया। इसमें शक नहीं कि अगर आप अरब के चीरा दोस्तों और कुरैश के फितना परदाज़ों के नारवां मजालिम को रोकने के लिए खड़े न होते तो मजालिमें कुरैश की तारीख़ मौजूदा तारीख से कहीं ज्यादा दर्दनाक और अलम अंगेज़ होती।
मुखतसर यह है कि मुसलसल तीन बरस तक कुफ्फारे कुरैश की तरफ से यह मुआशी मुकातेआ जारी रहा और (शोअबे) की सऊबतों ने खानवादए बनि हाशिम पर जिस्मानी व रूहानी तकालीफ के अलावा रिजक की उसअतों को भी तंग कर दिया। खाने पीने को कुछ मयस्सर न था। दरख़़तों की पत्तियां शिकम परवरी का ज़रिया थीं , अगर अशयाये खुर्दनी में कोई कुछ भेजना चाहता तो कुरैश मज़ाहेमत करेत। जनाबे खदीजा के भतीजे हकीम बिन हज़ाम को जब यह हाल मालूम हुआ तो उन्होंने गेहूँ की एक बोरी फुफी की ख़िदमत में रवाना की। रास्ते में जिहालत का बोरा (अबुजहल) मिल गया , तसादुम हुआ उसने छीन्ना चाहा तो एक शख़्स अबुल बख़तरी ने उसे समझाया कि अगर एक शख़्स अपनी फुफी को कुछ भेज रहा है तो तुझसे क्या सरोकार ? लेकिन वह बोरा जिहालत से इस क़दर लबरेज तथा कि उकी समझ में कुछ न आया बिल आख़िर अबुल बख़तरी ने भी फैसला किया कि उसके मरकज़ को खटखटाने की ज़रुरत है चुनानचे उनके हाथ में कमान थी जिसे उन्होंने इस ज़ोर से अबुजहल के सरपर रसीद कियाकि सतूने जिहालत ज़मीन पर ढ़ेर हो गया और ग़ल्ला की वह बोरी जनाबे खदीजा तक पहुँच गयी। शब व रोज़ इसी तरह गुज़रते रहे। एक दिन हुजूरे अकरम (स.अ.व.व.) ने अबुतालिब से फरमाया कि चचा! कुरैश के मुआहिदे को दीमक ने चाट चाट कर खत्म कर दिया और अब उसमें खुदा के नाम के अलावा कुछ बाकी नहीं है।
इस ख़बर पर जनाबे अबुतालिब ने इसी तरह यकीन किया जिससे कोई वही का यकीन कर ले। एतमाद का यह आलम कि आपने भतीजे से इसके बाद मज़ीद कुछ पूछने की ज़रूरत महसूस ही न की। दूसरे दिन खानए काबा में आये और सरदाराने कुरैश को मुख़ातिब करते हुए फरमाया कि मेरे भतीजे ने मुझ को खबर दी है कि तुम्हारे मुआहिदे को दीमक चाट गयी और उसमें सिर्फ ख़ुदा का नाम बाकी है। मुआहिदा देखा गया कुफर की तहरीर दीमक चाट चुकी थी और सदाक़ते रसूले अरबी (स.अ.व.व.) के ग़ैरफानी नक़ूश उमर चुके थे। इस वाकिये के बाद बनि हाशिम को शोअब से रिहायी नसीब हुयी।
इख़फाये इस्लाम
इब्तेदाये बेअसत में जबकि दावते इस्लाम मग़फी थी , रसूले अकरम (स.अ.व.व.) मुसलमानों को इज़हारे इस्लाम से खुद मना फरमाते थे और यह तहफ्फुज़ इस्लाम का एक इन्तेहाई हकीमाना तरीक़ा था। इस हिदायत के मुताबिक बहुत से मुसलमान अपने इस्लाम को पोशीदा रखे हुए थे और दूसरा शख़्स उनके ईमान व इस्लाम से आगाह न था। वह लोग इसी हद तक इस्लामी अमूर का लिहाज रखते जहाँ तक उनके हालात इजाज़त देते थे। बल्कि जब इस्लाम एक जमाती और गिरोही शक्ल में उभर कर अपने पैरों पर खड़ो होने की सयी कर रहा था तो उस वक़्त भी कुछ मुसलमान ऐसे थे जो अपने इस्लाम को अपने सीनो में छिपाये हुए थे और वह लोगों के दरमियान एक गैर मुस्लिम की हैसियत से जाने और पहचाने जाते थे , वह अपने हालात की कमजोरियों का बाअज खानदानी मसलहतों की बिना पर अपने ईमान को मगफ़ी रखने पर मजबूर थे। अगर चे वह कुफ्फार के साथ उठते और बैठते ते और बज़ाहिर उन्हीं में शुमार होते थे लेकिन ज़हनी तौर पर वह इस्लामी फ़ात्मा जो सईद इब्ने जैद को ब्याही थी अपने शौहर के साथ इस्लाम इख़तियार कर चुकीं थी मगर वह अपने इस्लाम को मग़फी रखती थीं क्योंकि उनके भाई हज़रत उमर और उनके वालदैन सबके सब काफिर थे) नीज़ उनकी तरफ़ से तशद्दुद का ख़तरा था। इसी तरह नईम इब्ने अब्दुल्लाह जो क़बीलये अदी से थे मुसलमान हो चुके थे मगर अपने कबीले के डर से वह अपने इस्लाम को पोशीदा रखते थे। ग़र्ज़ इसी तरह मुख़तलिफ़ कबीलों के मुतअद्दिद अफ़राद इस्लाम ला चुके थे मगर वह लोग कबायली पाबन्दियों और सख़्त गोरियों की वजह से इस्लाम को पोशिदा रखते थे।
हिजरत के बाद जब मदीने में इस्लामी हुकूमत की तशकील अमल में आ चुकी थी उस वक्त भी मक्का में एक ऐसी जमाअत मौजूद थी जो दरपर्दा इस्लाम की पाबन्द थी। अम्मे रसूल (अ.स.) , इब्ने अब्बास भी इसी खुफिया जमाअत की एक फर्द थे। चुनानचे अबु राफे का कहना है कि मैं अब्बास इब्ने अब्दुल मुत्तालिब का गुलाम था और पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के अजीज़ों के घरों में इस्लाम जलवा गर हो चुका था , और उम्मे फज़ल (जौजये अब्बास) इस्लाम से मुशर्रफ हो चुके थे हमारा इस्लाम अयां था लेकिन अब्बास का इस्लाम मग़फी था क्योंकि वह क़ौमस को अपना मुख़तलिफ़ बनाने के हक़ में नहीं थे।
यह लोग इस्लाम को पोशीदा रख कर दीने हक की वह ख़िदमात अन्जाम दे रहे थे जो इज़हारे इस्लाम के बाद मु्म्किन न थी। उन्हीं लोगों के ज़रिये कुफ्फारे कुरैश की रेशा दुनियों और नक़ल व हरकत की खबर रसूले अकरम (स.अ.व.व.) के पास मदीने पुहँची थीं जिनसे इस्लाम का भरपूर मुफाद वाबस्ता था और उन्हीं खबरों की बिना पर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) , आइन्दा दर पेश हालात में फायदा उठाते थे और हमेशा उनसे अपना राबता क़ायम रखते थे। अल्लामा इब्ने अब्दुल बर ने अब्बास इब्ने अब्दुल मुत्तालिब के हालात में लिखा है कि वह मुशरेकीन से मुतालिक तमाम खबरे तहरीरन पैगम़्बर (स.अ.व.व.) के पास भेजते रहते थे जिससे मुसलमानों को बड़ी तक़वियत फराहम होती थी हालांकि अब्बास यह चाहते थे कि वह पैगम्बर (स.अ.व.व.) के पास चले जायें मगर आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने उन्हें लिखा कि मक्का में तुम्हारा क़याम मदीने से ज्यादा बेहतर और फायदेमन्द है।)
मालूम हुआ कि उन लोगों का अख़फ़ाये इस्लाम पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की मर्जी और इजाज़त से था अगर यह अख़फ़ा इस्लाम के मनाफी होता तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) इस अमर की कभी इजाज़डत नहीं देते। बहर हाल अख़फ़ाए इस्लाम इस्लाम के मनाफी कतई नहीं हैं और इस्लाम का मगफ़ी रखा जाना , दीने पैगम्बर (स.अ.व.व.) में इसी तरह मोरिदे इबादत व एतमाद है जिस तरह इस्लाम का एलानिया इकरार। और अगर असबाते ईमान के लिए जबानी इकरार व एलाम को जरुरत करार दिया जाये तो यह शर्त हर हाल में ग़ैर ज़रुरी होगी कि वह मख़सूस लफ्ज़ों में हो तो मोतबर है वरना नहीं। जब यह क़ैद ज़रूरी नहीं तो जनाबे अबुतालिब के इकरारे वहदानियत और रिसालत से इन्कार मुम्किन नहीं क्योंकि उन्होंने मुत्ताइद बार मुख़तलिफ़ अल्फाज़ में आन हज़रत की नबूवत का एतराफ किया है।
ईमाने अबुतालिब
पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) की हिमायत व नफरत में जनाबे अबुतालिब की पामदी , फिदाकारी और जॉनिसारी तारीख़े इस्लामी की वह मुसल्लमा हक़ीक़त है जिससे आज तक किसी को इन्कार की जुराअत न हो सकती। लेकिन अफसोस है कि कुछ लोगों ने इस नफरत और फिदाकारी की अस्ल रूह को मज़मूम करने की कोशिश की है। चुनानचे इस बात पर जोर दिया जाता रहा है कि यह नफरत मज़हबी व एतक़ादी जज़बों के ज़ेरे असर थी बल्कि इस में कराबत दारी और अजीज़दारी के जज़बात कारफरमा थे भला वह क्योंकर उनकी पासदारी व हिमायत न करते ?
यह बात इस हद तक तो दुरुस्त है कि आनहज़रत (स.अ.व.व.) अबुतालिब के करीबी परवर्दा खास और हकीकी भाई की यादगार थे और यह भी मुसल्लम है कि अरबों में कराबत दारी का पास व लिहाज़ ज्यादा किया जाता है जैसा कि पैगम्बर की वफात के बा खुलफ़ा के तर्जे अमल से वाजेह है , मगर कितनी ही अजाजदारी व कराबतदारी क्यों न हो कोई शख़्स अपने दीन व इमान और मज़हब के मुकाबले में कराबतदार , अज़ीज़दारी या रिश्तेदारी का ख़्याल नहीं करता। यह जानके अपने अक़ायद के ख़िलाफ़ अवाज़ उठाने में तआव्वुन करे और अपने माबूदों की तज़लील व तौहीन के सिलसिले में हाथ बटायें , मगर जनाबे अबुतालिब का किरदार यह नज़र आता है कि वह बुतों को बुरा भला कहने पर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की हौसला अफज़ायी फ़रमाते हैं और इस्लामी अमूर की तबलीग़ में उनका हाथ बटाते हैं। इस तर्जे अमल को किसी तरह कराबतदारी का नतीजा क़रार नहीं दिया जा सकता। और अगर यह मान लिया जाये पैग़म्बर से अबुतालिब की वालहाना अकीदत व मुहब्बत बर बनाये कराबत ती तो सवाल यह पैदा होता है कि इन्सान अपने बेटों से ज़्यादा कराबत रखता है या भतीजे से ? ज़ाहिर है कि जो कराबत अपनी औलाद से होती है वह भाई की औलाद से नहीं होती। अगर इस नफरत में नसबी क़राबत का जज़बा कारफ़रमा होता तो जनाबे अबुतालिब अपने बेटों की जि़न्दगी खतरे में डाल कर उन्हें पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के बिस्तर पर सोने का हुक्म न देते बल्कि भतीजे के तहाफुज पर औलाद के तहाफुज को मुक़द्दम रखते। तारीख़े आलम में एक भी मिसाल ऐसी पेश नहीं की जा सकती कि किसी ने एक ऐसे शख़स की खातिर जिसके नजरियात को वह बातिल और दावे को गलत समझता हो , महज कराबत की बिना पर अपनी औलाद को हलाकत की आग में दीदा व दानिस्ता ढ़केला हो। इससे साफ ज़ाहिर है कि इस नफ़रत में जो अपनी नौइयत के एतबार से मुनफर्द थी , कराबत का जज़बा यह हरगिज कार-फ़रमा नहीं था बल्कि एक मज़हबी , दीनी , इमानी और रूहानी राबता था जो जनाबे अबुतालिब को पैगम्बर (स.अ.व.व.) की नफरत हिमायत के मुआमले में सरगर्म अमल रखते हुए था। अबुलहब और पैगम्बर इस्लाम (स.अ.व.व.) के दरमियान भी तो रिश्ता था वह भी आपका चचा था , नसबी कराबत के बिना पर आखिर वह क्यों नफरत व हिमायत के लिये खड़ा नहीं हुआ ? इस करीबी रिश्ते की बिना पर वह दुश्मनी और अनाद के मजाहिरों ही से बाज़ रहता। इसी तरह हजरत इब्राहीम और अज़र में रिश्ता था वह भी खीलले खुदा का चचा था , आखिर वह उनकी ईज़ा रसानी के दर पे क्यों हुआ ?इस रिश्ते से क़वी तर रिश्ता नूह (अ.स.) और उनके फरज़न्द के दरमियान था , उनके दरमियान मुनाफ़ेरत की खलीज क्यों हायल रही ? सिर्फ इस लिये कि उनके दरमियान मज़हबी हम आहंगी न थी। यही हाल जनाबे नूह (अ.स.) और लैत (अ.स.) की बीवियों का भी है। मेरे ख़्याल में हज़रत अबुतालिब की नफरत व हिमायत को कराबत पर महमूल करना एक तरह से उनकी गिरा क़दर काविशों और मेहनतों पर पानी फेरना है।
हज़रत अबुतालिब के इस तर्जे अमल को देखने के बाद कि उन्होंने अपनी ज़िन्दगी का हर लम्हा आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत नफरत और हिमायत कर दिया था , हर मुतावाजिन ज़ेहन आसानी से यह फैसला , कर सकता है कि वह पैग़म्बर की सदाकत व रिसालत के क़ायल और कुफ़्फारे मक्का के मुशरेकाना अक़ायद व आमाल से बेज़ार थे। अगर बेजा़र न होते तो रसूल (स.अ.व.व.) की नुसरत व हिमायत में इस तनदेही से आमादा न होते और न उनकी वजह से दुनिया व जहाँ की दुश्मनी मोल लेते। यह वाज़ेह सुबूत है कि उनका दिल इमान की शुआओं से रौशन और सिद्क़ व सफा की ज़ौपाशियों से मुनव्वर था और उनके कलब पर अल्लाह की वहदानियत और रसूल (स.अ.व.व.) की रिसालत के ताबिन्दा नकूश सब्त थे नीज़ वह दिल की गहराइयों से नबूवत की तसदीक कर चुके थे और इसी तसदीक़े क़लबी और यक़ीनी बातनी का नाम ईमान है , जैसाकि काज़ी अज़दुद-दीन ने तहरीर फ़रमाया है कि (हमारे नज़दीक ईमान यह है कि उन चीज़ों में रसूल (स.अ.व.व.) की तसदीक़ की जाये जिनका शरीयत में वारिद होना सराहतन साबित है और यही अकसर आइम्मा का मसलक है जैसे क़ाज़ी बाक़लानी और उस्ताद इसहाक़ असफरायनी वग़ैरा।
जब अकाबरीन ओलमाये जमहूर और मुहके़ीन के नज़दीक क़लबी तसदीक़ और बातनी एतक़ाद ही नाम ईमान है तो फिर हज़रत अबुतालिब के ईमान से इनकार की क्या वजह है ? जबकि नशरे इस्लाम , तबलीग़े दीन और नुसरते रसूल (स.अ.व.व.) के सिलसिले में आपका तर्जे अमल और किरादारही आपके कलबी तसदीक और बातनी एतक़ाद का ज़िन्दा सुबुत और ईमान की वाज़ेह शहादत है।
इस तरह हज़रत अबुतालिब के वह बेशुमार अशआर जो मुख़तलिफ़ मवाफ़े पर आपने इरशाद फरमाये हैं , जज़बए ईमान , जोशे अक़ीदत , अतराफे सदाक़त और इस्लाम बीनीये इस्लाम से लाज़वाल मुहब्बत के आईनेदार हैं। यह अशआर अरबी ज़बान में हैं , इख़्तेसार के ख्याल से उर्दू तर्जुमा पर मुबनी चन्द नमूने पेश ख़िदमत हैं , मुलाहेज़ा फरमायें।
(1) जब कुफ्फारे मक्का ने हज़रत अबुतालिब से शिकायत की कि आप अपने भतीजे (मुहम्मद (स.अ.व.व.) ) को इस बात से रोकें कि वह हमारे खु़दाओं और हमारे दीन को बुरा भला कहते हैं तो आपने रसूल (स.अ.व.व.) से फरमाया , कि बेटा तुम तबलीग़े हक़ को जारी रखो बाखुदा जब तक मैं जिन्दा हूँ कुफ्फार के हात तुम तक नहीं पहुँच सकते और जब तक मेरे बाजुओं में ताक़त है यह लोग तुम्हें कोई गज़न्द नहीं पहुँचा सकते।
(2) जब कुफ्फारे अहद नामे को दीमक दफ्तर बेमानी की तरह चाट गयीतो हजरत अबुतालिब ने कुरैश को यह कहकर आगाह किया कि बस इसमें अल्लाह का नाम बाकी रह गया है मुनकेरीन को यक़ीन न आया तो आपने उनके जुल्म , ज़िद को अपने अशआर में नज़म किया , जिनमें से बाज़ का मफहूम यह है कि अहद नामा की सरगुज़श्त मुकामे इबरत है जब बे खबरों को उसकी ख़बर दी जाती है तो वह आईना हैरत हो जाता है इस अहद नामें में जो कुफ्र व अनाद की बातें थी उन्हें अल्लाह ने महो कर दिया और मुजस्समए सदाकत (रसूल (स.अ.व.व.) के ख़िलाफ जो जहर उगला गया था वह नक्श बरआब हो कर रह गया है और ख़ुदा का शुक्र है के मुखालेफीन की तमाम बातें साबित हुयीं।
(3) एक शेर में हज़रत रसूल ख़ुदा (स.अ.व.व.) की तरफ से इशारा करके आपने फरमाया , आप अमीन और अल्लाह के अमीन हैं जिसमें झूट की गुंजाइश नहीं , आप बेहूदा बातों से पाक और रास्त गुफतार हैं।
(4) एक शेर में आप फरमाते हैं , आप वही अल्लाह के रसूल (स.अ.व.व.) हैं जिनका हमें इल्म है और आप ही पर रब्बुल इज़्ज़त की तरफ से कुरान नाज़िल हुआ है।
(5) एक शेर में फरमाते हैं , मुझे यक़ीन है कि मुहम्मद (स.अ.व.व.) का दीन दुनिया के तमाम दीनों से बेहतर है।
(6) एक शेर में फरमाया , परवर दिगारे आलम अपनी नुसरत से उनको दस्तगीरी करे और इस दीन को जो सरासर हक़ है गलबा दे।
इस्लाम की सदाकत , दीनकी हक़ानियत और आन हज़रत (स.अ.व.व.) की रिसालत के सुबूत में हज़रत अबुतालिब के अशआर इस कसरत से हैं कि इब्ने शहर आशोब माजन्दानी ने मुत्शाबिहात अल्कुरान में सुरह हज की आयत वल्यन्सुरन नहू अल्लाह मन यनसराहु) के ज़ैल में तहरीर फ़रमाया है कि हज़रत अबूतालिब के वह अशआर जो उनके ईमान व तसदीक़े रिसालत पर रौशनी डालते है तीन हजार से ज़्यादा है। इब्ने अबिल हदीद ने आपको मुख़तलिफ अशआर दर्ज करने के बाद तहरीर किया है किः
(यह अशआर तवातुर से नक़ल होते आए हैं , अगर मुताफर्रिक़ तौर पर उनमें तवातिर न भी हो तो मज़मूयी तौर पर बहर हाल मुतावातिर है क्योंकि वह एक ही अमर की निशानदेही करते हैं जो उन सबमें कदरे मुशतरक है और वह क़दरे मुशतरक मुहम्मद (स.अ.व.व.) की सदाकत का एतराफ है।)
जब यह सारी हक़ीक़तें आपताब की तरह रौशन व मुनव्वर हैं तो फिर क्या वजह है कि हज़रत अबुतालिब के मसलये ईमन से इन्कार किया जाता है ? क्या इस जुर्म की पादाश में कि उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) को पाला पोसा और परवान चढ़ाया ? क्या इस गुनाह के एवज़ कि उन्होंने कुफ़्फ़ारे क़ुरैश से उनका तहफ़्फुज़ किया ? क्या इस कुसूर पर कि उन्होंने मुशरकीन की साजिशों को नाकाम बनाया ? क्या इस ख़ता पर कि उन्होंने जान माल औलाद की कुर्बानी तक से दरेग़ नहीं किया ? क्या इस जुर्म पर कि उन्होंने अपने अशआर के जरिये पैग़ामे नबूवत अरब के गोशे गोशे में पहुँचाया ? अगर इन तमाम बातों का जवाब नफी में है तो फिर ईमाने अबुतालिब के मुआमले में ताअस्सुब और तंग नज़री क्यों ? जबिक आइम्मये अहलेबैत में से किसी एक ने भी जनाबे अबुतालिब के ईमान में शक व शुबहा का इज़हार नहीं किया बल्कि सबके सब उनके ईमान पर मुत्तफिक़ व मुत्ताहिद हैं। इस इत्तेफाक़ व इत्तेहाद को इजतेमा अहलेबैत से ताबीर किया जाता है और यह इजतेमाये ओलमाये इस्लाम के नज़डदीक एक मुस्तनिद माअखिज़ , हुज्जत और सनद का दर्जा रखता है चुनानचे अबुल कराम अब्दुल इस्लाम इब्ने मुहम्मद तहरीर फरमाते हैं किः
(आइम्मये अहलेबैत इस अमर पर मुत्ताफ़िक़ हैं कि अबुतालिब मुसलमान मरे और जो बात अहलेबैत के मसलब के ख़िलाफ़ हो , वह इस्लाम मे ग़ैर मोअतबर है)
अल्लामा तबरी रकम तराज है कि- (अबुतालिब के ईमान पर अहलेबैत (अ.स.) का इजतेमा साबित है जो हुज्जत और सनद है।)
हज़रत अली अ.स. का इरशाद है। (अबुतालिब उस वक्त तक मौत से हम किनार नहीं हुए जब तक उन्होंने अपनी तरफ से हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) को राज़ी व खुशनूद नहीं कर लिया।
(ताज्जुब है कि अल्लाह ने रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) को यह हुक्म दिया कि वह किसी मुसलान औरत को काफिर के निकाह में न रहने दें और फात्मा बिन्ते असद जो इस्लाम में सबक़त करने वाली ख़्वातीन में से हैं वह मरते दम तक अबुतालिब की ज़ौजियत में रही।)
इस मुक़ाम पर यह अमर मलहूज़ रहे कि फात्मा बिन्ते असद अवाइले बेअसते में इस्लाम से मुशतरफ हुयीं और बादे इस्लाम दस बरस तक हज़रत अबुतालिब (अ.स.) - की ज़ौजियत में रहीं। अगर उन दोनों में मज़हबी इख़तेलाफ़ात होता तो इसका लाज़मी नतीजा यह था कि उनके दरमियान आये दिन तकरार और मज़हबी निजाअ रहती मगर कोई तारीख़ यह नहीं बताती कि उनमें कोई बाहमी झगड़ा या नज़रयाती टकराओ हुआ हो।
इमामे जाफ़रे सादिक (अ.स.) से एक शख़्स ने कहा कि कुछ लोग यह कहते हैं कि हज़रत अबुतालिब काफिर थे तो आपने फरमाया कि वह लोग झूटें हैं वह तो पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की नबूवत का एतराफ व इक़रार करते हुए कहते हैं किः क्या तुम्हें नहीं मालूम कि हमने मुहम्मद (स.अ.व.व.) को वैसा ही नबी पाया है जैसे कि मूसा (अ.स.) थे जिनका तज़किरा पहली किताबों में मौजूद है।)
इमामे अली रजा (स.अ.व.व.) अबान इब्ने महमूद को इसके एक मकतूब के जवाब में तहरीर फरमायाः- (अगर तुम अबुतालिब के ईमान का इक़रार नहीं करोगे तो तुम्हारी बाज़गश्त दोज़ख़ की तरफ होगी)
इमामे हसन तारीख़ी शवाहिद व अक़वाले आइम्मा की मौजूदगी में ईमाने अबुतालिब पर कुफ्र के पर्दों का डाला जाना हैरत अंगेज़ व ताज्जुब खेज़ है। मेरा ख़्याल तो यह है कि यह सब कुछ इसलिए किया गया कि आप हज़रत अली (अ.स.) के बाप थे। वरना दुनिया रौशनी और तारीकी का फर्क़ ज़रुर महसूस करती और इस के दीनी ज़ौक़ में में कु्फ्र व ईमान का इम्तेयाज़ी शऊर ज़रुर पैदा होता। अगर रौशनी की शुआयें नज़रों को अपनी तरफ़ मुतावज्जे कर रही हों किसी अँधे इन्सान को चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा नज़र आये तो इसके यह माने हरगिज़ नहीं कि कि नूर या रौशनी का वजूद नहीं है वह तो अपनी जगह एक मुसल्लम हकीक़त है , बस इसी तरह अबुतालिब का ईमान भी एक ताबिन्दा हक़ीक़त है इससे वही शख़्स इन्कार कर सकता है जो सूरज की रौशनी और चाँद की चाँदनी से इन्कार का आदी हो या फिर ताअस्सुब की वजह से अँधा हो)
वफ़ाते अबुतालिब (अ.स.)
हज़रत अबुतालिब , दीन के मुहाफिज़ , इस्लाम के पुश्त पनाह और पैग़म्बरे इस्लाम क(स.अ.व.व.) के लिए एक दिफायी हिसार व मुस्तहकम क़िला थे। उन्होंने सख़्स से सख़्त मुश्किलात का मर्दाना वार मुक़ाबिला किया और किसी मौके- पर न हरफे शिकायत लब पर आया न जबीन पर शिकन आयी। अपनी जवानी व पीरानासाली में एक लम्हे के लिए भी पैग़म्बरे इस्लाम की हिफाज़त से ग़ाफिल और इस्लामी ख़िदमात में कोताही के मुर्तकब नहीं हुए बल्कि बिस्तरे मर्ग पर भी उनका ज़ेहन इस्लाम और पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) के तहफ्फुज़ की फिक्रों से खाली न था , चुनानचे जब शोअबे अबुतालिब की पैहम व मुसलसब और जाँ गुज़ार मुसीबतों के नतीजे में सेहत न जवाब दे दिया और मौत के आसार नज़र आने लगे तो शियुख़ व आमायेदीन कुरैश को तलब किया और उन्होंने अमानते सदक़ ब्यानी , सेला रहमी , फुक़रा की अयानत व दस्तगीरी और खान-ए-काबा के एहतराम की हिदायत के बाद आन हज़रत (स.अ.व.व.) की हिफाज़त व नुसरत की वसीयत करते हुए फरमाया-
मैं तुम्हें मुहम्मद (स.अ.व.व.) के साथ भलायी की वसियत करता हूँ वह कुरैश में अमीन और अरब में सादिक हैं और उनमें वह तमाम सिफते मौजूद हैं जिनकी मैंने तुम्हें वसीयत की है। वह ऐसी चीज़ ले आये हैं , जिसके दिल मोअतरफ और ज़बानें अदावत के ख़ौफ से चुप हैं। खुदा की कसम गोया यह मन्ज़र मैं अपनी आँखों से देख रहा हूँ कि अरब के फुकरा और एतराफ व जवानिब के बाद या नशीन लोग उनकी आवाज़ पर लब्बैक कह करे हैं। मुहम्मद (स.अ.व.व.) उन्हें लेकर सख़्तियों के भँवर में उतर पड़े हैं और अरब के सरबुलन्द और सरदार ज़लील हो रहे हैं और उनके घर उज़ड रहे हैं और कमज़ोर नादार अफराद बरसरे अक़तेदार आगे हैं -------------- और उन्हें अपनी क़यादत सौंप दी है। ऐ गिरोहे कुरैश! तुम भी मुहम्मद (स.अ.व.व.) के दोस्त और उनकी जमाअत के मददगार बन जाओ। ख़ुदा की क़सम जो भी उनके बताये हुये रास्ते पर चलेगा , वह खुस बख़्त होगा। अगर मुझे और ज़िन्दगी मिलती और मेरी मौत में ताख़ीर होती तो मैं उनकी नुसरत से हाथ न उठाता , उनके दुश्मनों के हमलों को रोकता और मसायब व आलाम से उन्हें बचाता)
इस अमूमी वसीयत के बाद औलादे अब्दुल मुत्तालिब से खिताब करते हुये फरमातेः-
(जब तक तुम मुहम्मद (स.अ.व.व.) की बातों पर अमल और उनके एहकाम की पैरवी करते रहोगे , ख़ैर व सआदत से बहरामन्द रहोगे , उनकी पैरवी करो , उनाक हाथ बटाओ और हिदायत याफता बनों)
ज़िन्दगी के आख़िरी लम्हों में पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की सदाक़त की गवाही देना , ख़ैरो रआदत और रोश्दो हिदायत को उनके इत्तेबा से वाबस्ता करना एतराफे रिसालत व तस्दीक़े नबुवत नहीं है तो फिर क्या है ? क्या यह हिदायत आमोज़ व ईमान अफ़रोज़ कलमात उनके इस्लाम के आईनेदार नहीं है ?
जब वसीयत करके अपने फरीज़े से सुबुकदोश हो गये तो मौत के आसार ज़ाहिर हुए , चहरे का रंग बदला , पेशानी पर पसीनाआया और पैग़म्बर का सबसे बड़ा मददगार व नासिर और सरपरस्त व ग़मगुसार छियासी ( 86) बरस की उम्र में दुनिया से रुख़सत हो कर जवारे रहमत में पुहँच गया। आन हज़रत (स.अ.व.व.) पर ग़मों का पहाड़ टूट पड़ा , आँखों में आँसू आ गये और गुलुगीर आवाज़ में आपने अपने इब्ने अम हज़रत अली (अ.स.) से फरमायाः- जाओ उन्हें गुस्ल दो , कफ़न पहनाओ और दफ़न का सामान करो , ख़ुदा उनकी मग़फरत करे और अपनी रहमत उनके शामिले हाल रखे।)
आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने गुस्ल व कफन की अन्जाम देही पर हज़रत अली (अ.स.) को मामूर फरमाया , हालांकि आप अपने भाईयों में सबसे छोटे थे। इसकी वजह यह हो सकती है कि अकील और तालिब उस वक़्त तक दायरे इस्लाम से बाहर थे और अबुतालिब ऐसे मुस्लिम व मोमिन का गुस्ल व कफन किसी ग़ैर मुस्लिम से मुतालिक नहीं किया जा सकता था। हज़रत जाफर इस्लाम ला चुके थे मगर वह उस वक़्त हब्शा में थे। यह चीज़ भी अबुतालिब के इस्लाम व ईमान पर रौशनी डालती है। इसिलिए कि हज़रत अबुतालिब अगर काफिर होते तो उनका गुस्ल व कफन हज़रत अली (अ.स.) के बजाये उनकी हम मज़हगब हम मुस्लिक औलाद के सुपुर्द किया जाता। क्योंकि एक मुसलमान से यह ख़िदमत नहीं ली जा सकती कि वह एक काफिर को गुस्ल व कफन दे। ग़र्ज़ हज़रत अली (अ.स.) ने गुस्ल व कफन दिया। आन हज़रत (स.अ.व.व.) तशरीफ फरमां थे और अपने मोहसीन व मरब्बी चचा को कफन में लपेटा हुआ देखकर बहुत रोये और फरमायाः
(ऐ चचा! आपने बचपन में पाला , यतीमी में मेरी केफालत की , बड़े होने पर आपने मेरी नुसरत व हिमायत की। ख़ुदा वन्दे आलम मेरी तरफ से आपको जज़ाये खैर दे)
जब जनाज़ा उठा तो आप (स.अ.व.व.) कन्धा देते हुए शुरु से आख़िर तक शरीके जनाज़ा रहे और इस कोहे सब्र व सिबात को कोहे हजून के दामन में दफ़न करके वापस आये।
आन हज़रत (स.अ.व.व.) के लिये जनाबे अबुतालिब की मौत एक अज़ीम सानेहा थी उनका सबसे बड़ा हामी व पुश्तपनाह दुनिया से रुखसत हुआ था और आप खूँखार दुश्मनों के नरग़े में बे यारो मददगार रह गये थे , अगर चे मुसलमानों की तादाद बढ़ गयी थी मगर उनमें अबुतालिब ऐसा बाअसर कोई न था जो कुरैश के बढ़ते हुए का अन्सदाद कर सके चुनानचे उनके उठ जाने के बाद कुरैश के मज़ालिम में श शिद्ददत पैदा हो गयी और पर जुल्म व सितम के पहाड़ टूटने लगे। इब्ने हश्शाम का कहना है किः-
जब अबुतालिब वफात पा गये तो कुरैश ने आन हज़रत (स.अ.व.व.) को इतनी तकलीफें दी कि अबुतालिब की ज़िन्दगी में सताने की इतनी हिम्मत व हवस उनके दिलों में पैदा न हो सकती थी)
जनाबे अबुतालिब की वफ़ात का ग़म अभी ताज़ा था कि उनकी रेहलत के एक महीने पांच दिन बाद जनाबे खदीजा ने भी इन्तेक़ाल फरमाया , इस हादसे , का भी रसूल अकरम (स.अ.व.व.) के दिल पर काफी असर हुआ। आपने उन दोनों का यकसां गम मनाया अपने हुज़्नों मलाल की याद बाक़ी रखने के लिये इस साल का नाम (अमुल हुज़न) (ग़म व अन्दोह का साल) रखा और फ़रमायाः-
(इन दिनों में इस उम्मत पर दो अज़ीम हादसे एक साथ वारिद हुए हैं। मैं कुछ नहीं कह सकता कि इन दोनों सदमों से कौन सा सदमा मेरे लिये ज़्यादा करब व इस्तेराब का बाअस है।
आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने हज़रत अबुतालिब और हज़रत खदीजा की वफात को अपनी उम्मत के लिये एक हादसा अज़ीम क़रार दिया है , इसलिए कि इब्तेदाये बेअसत में यही वह दो हँस्तियां थी जिन्होंने इस्लाम की नशरो अशाअत में नुमाया किरादर अदा किया और पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) की नुसरत व हिमायत का बेड़ा उठाया , एक ने अफनी सारी दौलत आन हज़रत (स.अ.व.व.) के क़दमों पर नियोछावर कर दी और दूसरा इस्तेबदादी ताक़तों के मुक़ाबले में सीना सिपर होकर खड़ा हो गया अगर एहसान शनासी का जज़बा और हुस्ने ख़िदमात का एहसास हो तो यह दोनों मौतें जो पैग़म्बर की ज़िन्दगी का अज़ीम हादसा थीं , उम्मत के लिये भी एक नाक़ाबिले फ़रामोश अल्मिया होंगी। हज़रत अबुतालिब की रेहलत के बारे में मोअर्रेख़ीन का कहना है कि आपका इन्तेक़ाल निस्फ माहे शवाल या ज़ीक़ाद सन् 10 को हुआ।
औलादें
इ्ब्ने क़तीबा का कहना है कि हज़रत अबुतालिब के चार बेटे , तालिब , अक़ील , जाफर , हज़रत अली (अ.स.) थे और उन सबमें दस दस बरस की छोटायी बड़ायी थी। दयार बकरी का कहना है कि उन बेटों के अलावा आपकी तीन बेटियाँ , रबता , जमाना और फाख़ता (उम्मे हानी) थीं। जनाबे अबुतालिब के बारे में मोअर्रेखीन का कहना है कि मुशरेकीन मक्का ने जब आपको जंगे बदर के मौक़े पर रसूल अकरम (स.अ.व.व.) के मुक़ाबले में अपने साथ ले जाना चाहा तो उन्होंने अपने अशआर में यह हुआ की थी कि परवर दिगार! अगर चे इन भेडियों के ग़ोल में हूँ लेकिन मेरी दिली मुद्दआ है कि मुशरेकीन मसलूब व मग़लूब हों चुनानचे जब उनकी दुआ कुबूल हुयी तो तालिब का पता न मक़तूलों में चला , न वापस आये और न क़ैद हुये। वाज़ेह रहे कि हाशिमी खानवादे की हिजरत के बाद आप मक्का ही में मुकीम रहे और हालते तक़य्या में रह कर इस्लाम की ख़िदमात अन्जाम देते रहे। आप लावलद थे। अक़ील सन् 560 में पैदा हुए आपकी कुन्नियत अबुयज़ीद थी , यह हुदैबिया के मौक़े पर मुशर्रफ बाइस्लाम हुये और सन् 8 हिजरी में मदीने आ गये। आपने जंगे मौता में शी शिरकत की थी। बहुत बड़े नस्साब थे और क़बायले अरब की नसबी कैफियत से बखुबी वाकिफ थे। 66 साल की उम्र में ही में 50 हिजरी मुताबिक सन् 670 में इन्तेक़ाल किया। जनाबे जाफर सूरत व सीरत में रसूल अल्लाह (स.अ.व.व.) से बहुत मुशाबेह थे। इब्तेदा ही में ईमान व इस्लाम से मुशर्रफ हुए , आपने हिजरते हब्शा और हिजरते मदीना दोनों में शिरकत की। जंगे मौता मे आपके दोनों हाथ क़लम हो गये तो आपने अलम दाँतों से सँभाला बिलआख़िर दर्ज-ए-शहादत पर फ़ायज़ हुये आप के मुतालिक रसूल अल्लाह (स.अ.व.व.) ने फरमाया है कि उनके हाथों के एवज़ जन्नत में दो ज़मुर्रुदें के पर अता फरमाये हैं और आप फरिश्तों के हमराह परवाज़ किया करते हैं। आपके जिस्म पर नब्बे ( 90) ज़ख़्म कारी लगे थे इक्तालिस साल की उम्र में शहादत पाई। आपकी ज़ौजा आसमां और मुहम्मद इब्ने जाफर का नाम ज़्यादा नुमायां है। यही अब्दुल्लाह , हज़रत जैनब (स.अ.व.व.) के और मुहम्मद , हज़रत उम्में कुलसूम के शौहर थे। हज़रत अली (अ.स.) का ज़िक्र आइन्दा किया जायेगा।