तारीखे इस्लाम 2

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तारीखे इस्लाम 2 लेखक:
कैटिगिरी: इतिहासिक कथाऐ

तारीखे इस्लाम 2

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: जनाब फरोग़ काज़मी साहब
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तारीखे इस्लाम 2

तारीखे इस्लाम 2

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हिंदी

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हज़रत फ़ात्मा बिन्ते असद

फ़ात्मा बिन्ते असद , जनाबे अबुतालिब की ज़ौज़ा और हज़रत अली (अ.स.) की मादरे गिरामी थी। आपके वालिद असद , क़बील-ए-बिन्ते आमिर के बतन से हज़रत हाशिम के फरज़न्द थे। इस लिहाज़ से आप हाशिम की पोती , रसूल अल्लाह (स.अ.व.व.) की फूफी और हरमे अबुतालिब होने की बिना पर चची भी थीं। जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) जनाबे अबुतालिब की किफ़ालत में आये तो आप ही की गोदे पैग़म्बर ऐसे हादिये अकबर और रहबरे आज़म की ग़हवारये तरबियत बनी। अगर जनाबे अबुतालिब ने पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की निगेहदाश्त व तरबियत में बाप के फ़रायज़ अन्जाम दिये तो फात्मा बिन्ते असद ने इस तरह मुहब्बत से देख भाल की कि यतीमें अब्दुल्लाह को माँ की कहमा का एहसास न होने दिया। आप अपने बच्चों से ज़्याद उनका ख़्याल रखती थीं और उनके मुकाबले में अपनी औलाद की कोई फिक्र व परवा न करतीं। मुहब्बत , शफक़्कत और इल्तेफात का यह आलम था कि जब खुरमें के दरखतों में फल आता तो रोज़ाना सुबह तड़के उठकर खुरमों के कुछ साफ़ सुथरे दाने चुनकर अपने बच्चों से छिपा कर अलहैदा रख देतीं थी और जब बच्चे इधर होते तो चुपके से आन हज़रत (स.अ.व.व.) की खिदमत में पेश करती थीं। इसी तरह जब दस्तर ख्वान बिछता तो इस पर से कुछ खाना उठाकर अलग रख देतीं ताकि आन हज़रत (स.अ.व.व.) अगर दोबारा खाने की खुवाहिश करें तो वह उन्हें दे सकें।

रसूले अकरम (स.अ.व.व.) भी उन्हें माँ समझते थे , माँ कहकर पुकारते थे और माँ ही की तरह इज़्ज़त व एहतराम करते थे चुनानचे आप (स.अ.व.व.) उनकी शफ़क़्क़ात व मुहब्बत का एतराफ करते हुये फरमाते हैं किः- अबुतालिब के बाद उन से ज़्यादा कोई मुझ पर शफीक़ व मेहरबान न था।

आन हज़रत (स.अ.व.व.) फात्मा बिन्ते असद की मादरना शख़्सियत से इस कदर मुतासिर थे कि मनसबे रिसालत पर फायज़ होने के बाद , अपने फराएज़े मनसबी से वक़्त निकाल कर उनके यहाँ तशरीफ लाते और अकसर दोपहर के औक़ात उन्हीं के साये में गुज़ारते थे। इब्ने साद ने तहरीर किया है कि रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) आपकी ज़ियारत को आते और दोपहर को वहीं इस्तेराहत फरमाते।)

जनाबे अबुतालिब हाशमी थे तो फ़ातिमा बिन्ते असद भी हाशिमिया थीं। मादरी और पिदरी दोनों निसबतों से हाशमी होने का शरफ सबसे पहले अबुतालिब की औलादों को हासिल हुआ जैसा कि इब्ने क़तीबाने तहरीर किया है कि फ़ातिमा बिनते असद पहली ख़ातून हैं जिनके बत्न हाशमी औलादें हुईं।

फ़ात्मा बिन्ते असद इस खानवादे से ताल्लुक रखती थीं जो तहज़ीब व मुआशरत और इख़लाक़ व किरदार के एतबार से दूसरे खानदानों से मुम्ताज़ जाहेलियत के असरात से बेगाना और इन्सानी इक़दार का नुमाइन्दा। आपमें थीं। आप अपने आबा व अजदाद की तरप मसलके इब्राहीमी की पाबन्द , दीन की पैख और कुफ्र व शिरक की अलाइशों से पाक व साफ थीं चुनानचे आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने हज़रत अली से ख़लक़ी व सुल्बी इश्तेराक के सिलसिले में फरमायाः-

(खुदाये बुज़ुर्ग व बरतर नें हमें हज़रत आदम की सुल्ब से पाक़ीज़ा सुलबों और शिकमों की तरह मुन्तक़िल किया जिस सुल्ब से मैं मुन्तक़िल हुआ उसी सुल्ब से मेरे साथ अली (अ.स.) भी मुन्तक़िल हुए यहाँ तक कि ख़ुदा ने मुझे आमना के शिकम से और अली (अ.स.) को फात्मा बिन्ते असद के शिकमे मुबारक से पैदा किया।

फ़ात्मा बिन्ते अशद ख़ानदानी रिफ़अत , नस्बी शराफ़त और पाकीज़ा सीरत के साथ , बैयत और हिजरत में भी सबक़त का शरफ रखती हैं। इब्ने सबाग़ मालकी ने तहरीर फरमाया है कि फ़ात्मा बिन्ते असद इस्लाम लायीं , पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के साथ हिजरत की और साबिकुल इस्लाम ख्वातीन में से थी।

आप रियाज़त , एबादत , जोहद , तक़वा और तहारत के बुलन्द दरजात पर फायज़ थीं। रसूले अकरम (स.अ.व.व.) से जब फिशारे कब्र , हश्रों नश्र और हिसाब व किताब का तज़किरा सुनतीं तो ख़ौफ़ व दहशत से लरज़ जातीं। एक मर्तबा आपने पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की ज़बान से जब ये सुना की लोग क़यामत के दिन बरहैना महशूर होंगे तो फरमाने लगी कि यह तो बड़ी रुसवायी की बात है। पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने फरमाया कि मैं अल्लाह से दुआ करूँगा कि वह आपको बरहैना न महशर करे।

4 हिजरी में जब आपने रेहलत फरमायी तो हज़रत अली (अ.स.) , रोते हुए आन हज़रत (स.अ.व.व.) को इत्तेला देने आये और अर्ज़ की कि मेरी मादरे गिरामी ने इन्तेक़ाल किया। यह ख़बर सुनकर आन हज़रत (स.अ.व.व.) भी बे इख़तियार रोये और फरमाया कि ख़ुदा की कसम वह सिर्फ तुम्हारी ही नहीं बल्कि मेरी भी माँ थी। और उसी वक़्त उठ खड़े हुए। सहाबा भी सर झुकाये साथ हो लिये। घर आये। मरहूमा की पेशानी को बोसा दिया और अपना पैराहन उतार कर दिया कि इसे कफन के तौर पर पहना दिया जाये। और जब गुस्ल व कफन के बाद जनाजा घर से बाहर निकला तो आपने आगे बढ़कर काँधा दिया जन्नतुल बक़ी तक सरो पा बरहैना साथ रहे। चन्द आदमियों को जगह की निशान देही करके कब्र खोदने पर मामूर किया और जब क़ब्र खुद कर तैयार हुयी तो खुद बा नफ़से नफ़ीस उसमें उतरे। उसे किनारों से और खोंद कर कुशादा किया और अपने हाथों से लहद तैयार की फिर आप थोड़ी देर के लिये उस लहद में लेट गये और दायें बायें करवटे लेने के बाद बाहर आये और रोते हुये फरमायाः

(ऐ मादरे गिरामीं , खुदा आपको जज़ाये ख़ैर दे आप बेहतरीन माँ थीं)

इस इम्तेयाज़ी बरताव को देख कर कुछ सहाबा कहने लगे , या रसूल अल्लाह! यह बरताव किसी और के लिये आपसे सरज़द नहीं हुआ। फरमाया कि मेरे चचा अबुतालिब के बाद , मरहूमा के एहसानात मेरे सर पर सबसे ज़्यादा है। ख़ुद भूकी रह कर मेरा पेट भरती थीं और ख़ुद फटे पुराने कपड़े पहन कर मुझे अच्छा लिबास पहनाती थीं , खुत तकलीफ़ें बरदाश्त करके मेरे लिये राहत व आराम का सामान फराहम करती थीं। मैंने अपना पैरहन उन्हें इसलिये दिया कि हश्र में वह परदा पोश महशूर हों और बहद में इस लिये लेटा हूँ कि फिशारे कब्र से महफूज़ रहें। एहले सुनन्त के मुम्ताज आलिम शेख़ अली मरजूकी तहरीर फरमाते हैं किः-

(पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) ने फ़ात्मा बिन्ते असद को ख़ुद दफन किया और उन्हें अपने पैराहन का कफ़न दिया। इस मौक़े पर आन हज़रत (स.अ.व.व.) को)

फ़रमाते सुना गया कि (आपका फरज़न्द , आपका फ़रज़न्द) जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) से इस बारे में पूछा गया तो आपने फरमाया कि अन्बिया के बारे में जब सवाल हुआ तो आपने बा आसानी जवाब दिया लेकिन जब इमाम के बारे में पूछा गया तो आप तरदुद में मुबतिला हुयीं चुनानचे मैंने आप का फरज़न्द , आपका फरज़न्द कह कर अली अ.स. के नाम के मुताबिक तलकीन करदी।)

फात्मा बिन्त असद की तदफीन जन्नतुल बक़ी में हुयी मगर जब इसके चारों तरफ चार दिवारी बनायी गयी तो आपकी क़ब्रे मुताहर इसके हुदूद से बाहर आ गयी और अब एक ख़स्ता व ख़राब रहगुज़र पर वाक़े है जब हजुज्जाज व ज़ायरीन उधर से गुज़रते हैं तो उस कब्र पर भी फातेहा ख्वानी के लिये खड़े हो जाते हैं जो ज़माने के दस्तबुर्द से अभी तक महफूज़ हैं।

हक़ीक़ते अहमदी

(और (वह वक़्त भी याद करो) जब मरियम के बेटे ईसा (अ.स.) ने कहा , ऐ बनि इसराईल! मैं तुम्हारे पास ख़ुदा का भेजा हुआ (पैग़म्बर) आया हूँ जो किताबे (तौरेत) मेरे सामने मौजूद है इसकी तसदीक़ करता हूँ और यचह खुश ख़बरी सुनात हूँ कि मेरे बाद जो पैग़म्बर आने वाला है उसका नाम अहमद होगा। फिर जब वह उनके पास खुली हुयी निशानियां लेकर आये तो उन लोगों ने कहा कि यह तो सरिहन जादू है।) (सूराऐ सफ आयत 6)

क़ुरान मजीद की इस आयत से पता चलता है कि हज़रत ईसा इब्ने मरियम ने अपने बाद आने वाले रसूल के बारे में जो बशारत दी थी उसमें पेग़म्बरे आखेरूल ज़मां का नाम अहदम बताया था। और मुफसेरीन का कहना है कि इन्जील मैं (अहमद) के नाम से आने वाले नबी की बशारत मौजूद थी मगर ईसाइयों के नारवां अमले तहरीफ़ ने उसे ख़त्म कर दिया। लेकिन इश अमर की वज़ाहत किसी मुफ़स्सिर ने नहीं की कि रसूल (स.अ.व.व.) का नाम अहमद कैसे था ? बल्कि सिर्फ उन्ही हदीसों के नक़ल पर हर एक ने इक्तेफा की है जिन को खुद रसूल उल्लह (स.अ.व.व.) ने इरशाद फरमाया है कि मेरा नाम अहमद था।

बेशक हमारा यह अक़ीदा और ईमान है कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) का एक नाम अहमद भी था लेकिन यह नहीं मालूम कि कैसे था ? कब था ? और कहाँ थी ? इसके साथ ही अहादीसे नबवी पर भी हमारा ईमान है लेकिन अहादीस से अगर यह न मालूम हो कि अहमद नाम की हक़ीक़त क्या है तो हम मुशतश्रेक़ीन और ग़ैर मुस्लिमों के सवालात एतराज़ात और इल्ज़ामात का क्या जवाब देंगे ? जैसा कि ईसाइ कहते हैं कि जब हमारी किताबों से मुहम्मद (स.अ.व.व.) को यह मालूम हुआ कि आने वाले नबी का नाम अहमद होगा तो (माअज़ अल्लाह) उन्होंने कुरान की आयत गढ़ ली और ज़बानी भी कहना शुरू कर दिया कि मेरा नाम अहमद है हालांकि उनका नाम मुहम्मद था) इस ज़ेल में एक ईसाइ मुसन्निफ के अअस्सुरात व अल्फ़ाज़ मुलाहेज़ा हों वह लिखता है किः-

(बच्चे का नाम मुहम्मद रखा गया , यह नाम अरबों में बहुत कम मिलता था लेकिन था। इस लफज़ का ----- माद्दा हम्द है जिस से मुहम्मद (स.अ.व.व.) के माने क़ाबिले तारीफ़ के निकलते हैं , और हम्द ही से अहमद बना है। इन्जील के कुछ अरबी तरजुमों में सरयानी लफज़ (पैरा वलेट) का ग़लत तरजुमा अहमद किया गया है और यह महफूम मुसलमानों की ईसाइयों और यहूदियों की गुफ्तगू में ज़्याद मक़बूल हो गया क्योंकि उनके कहने के मुताबिक़ इसी नाम से उनकी किताबों में रसूल के लिये पेशिन गोई थी --------- मूनटास के ब्यान से पता चलता है कि (पैरा क्लेट की आमद का वायदे के बहुते से मफहूम बिगाड़ कर मुत्ताइन किये जा सकते हैं यह मुम्किन है कि उन्हीं में से एक मुन्तख़ मफहूम मुहम्मद के सामने ब्यान किया गया हो और इसी से यह आयत बना ली गयी हो जो सूरये सफ में है---------

हमें तारीख़ के सफहात में मुहम्मद (स.अ.व.व.) का नाम अहमद कहीं नहीं मिलता। ख़ुद आपके बताने के बाद कि मैं ही अहमद हूँ , इस नाम का चलन हो और न आपके दादा हज़रत अबद्दुल मुत्तालिब ने आपका नाम सिर्फ़ मुहम्मद (स.अ.व.व.) रखा था और बचपन मे तमाम अहले मक्का आपको इसी नाम से पुकारते थे। सादिक़ व अमीन के लक़ब से भी याद करते थे लेकिन अहमद का नाम कोई ज़िक्र नहीं था। पहली मर्तबा आप ही के दहने अक़दस से यह इन्केशाफ हुआ कि आप ही अहमद हैं तो क्या अहमद नाम की हक़ीक़त को मालूम करने के लिये तहक़ीक़ ज़रुरी नहीं है जबकि ईसा (स.अ.व.व.) का यह क़ौल भी कुरान में मौजूद है कि मेरे बाद रसूल आने वाला है उसका नाम अहमद होगा ? क्या मुहम्मद (स.अ.व.व.) का परवरदिगार इस अमर से वाक़िफ़ न था कि इससे एतराज़ का दरवाज़ा खुलेगा और ईसाइ फिर्क़ा नबीये करीम (स.अ.व.व.) की सदाक़त व तक़द्दुस पर ज़र्ब लगाने की कोशिश करेगा ? क्या मुहम्मद (स.अ.व.व.) अलग अहमद नाम की हक़ीक़त कुछ और है जिस की तरफ गुज़िशता उम्मतों को मुतावज्जेह किया गया है ?

मुअर्रिख़ की जुस्तजू आमेज़ फिक्र जब तारीख़ की संगालख़ वादियों को ज़ेर ककरे इस हकी़क़त को तलाश करती है तो पता चलता है कि मुहम्मद मुस्तफा (स.अ.व.व.) का नाम अहमद , दर असल आलमे अरवाह में था। क्योंकि जिस्मानी पैकर इख़तियार करने से पहले भी वजूद था। इसकी दलील यह है कि हमारी रुहें पहले ख़लक़ हुयी बाद में हमें जिस्म अता करके इस दुनिया में भेजा गया , क़यामत तक पैदा होने वाले इन्सानों की रूहें अब भी मौजूद हैं और उन्हीं रूहों की दुनिया में खुदा वन्दे आलम ने हम से अपनी रूबूवियत का इक़रार लिया था जैसा कि कुरान कहता है।

(ऐ रसूल (स.अ.व.व.) ! (लोगो को वह वक़्त याद दिलाओ) जब कि तुम्हारे परवर दिगार ने बनी आदम की पुश्तों से उनकी नस्लों को निकाल कर उन्हें एक दूसरे पर गवाह बनाकर उनसे इक़रार लिया था कि क्या मैं तुम्हारा परवरदिगार नहीं हूँ ? सभों ने कहा बेशक तू हमारा परवरदिगार है और हम इसके गवाह हैं। (यह हमे इस लिये कहा कि ऐसा न हो) कहीं तुम क़यामत के दिन बोल उठो कि हम तो इस से बेख़बर थे या यह कह बैठो कि (हम क्या करें) हमारे तो बाप दादाओं ही ने पहले शिरक किया था और हम तो उनकी औलाद थे (कि) उनके बाद (दुनिया में आये) तो क्या हमें उन लोगों के जुर्म की सज़ा में हलाक करेगा जो पहले ही (ग़लत) बातिल कर चुके हैं। (अल आराफ़ आयत 171 ता 173)

इन आयात के ज़ैल में शिया और सुन्नी मुफ़स्सेरीन का इस बात पर इज़्तेमा है कि यह इक़रार , (अहदे अलस्त) का है जब दुनिया में कुछ न था चुनानचे हाफिज़ इब्ने क़य्यिम् अपनी किताब (अलरूह) में रक़म तराज़ है कि ज़ाहिर है कि यह अहद रूहों से लिया गया था क्योंकि उस वक़्त जिस्म कहाँ थे ? फिर लिखते हैं कि काअब क़रज़ी फरमाते हैं कि सब रूहों ने जिस्मों के पैदा किये जाने से पहले अल्लाह की रबूवियत और उसकी माफ़रत का इक़रार किया था।

रूहानी दुनिया में रह कर जब हमने अपने परवरदिगार की रूबूवियत का इक़रार किया था तो उस वक़्त भी रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) मनसबे रिसालत पर फ़ायज़ थे जैसा कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने खुद फरमाते है कि मैं उस वक़्त भी नबी (स.अ.व.व.) था जब आदम (अ.स.) आबो गिल के दरमियान थे। और तफ़सीर से पता चलता है कि उस वक़्त आपका इस्मे मुबारक अहमदे मुजतबा (स.अ.व.व.) था यानि अल्लाह और मलाएका के नज़दीक आपका नाम अहमद था। मालूम हुआ कि मुहम्मद (स.अ.व.व.) और अहमद एक ही शख़्सियत की दो जुदा जुदा हक़ीक़ते हैं। और यही तमाम सुफ़ियाए कराम का मुत्तफिक़ अक़ीदा भी है। मुजादिदे अलिफ़ सानी कहते हैं कि (अहमद हज़रत रसूले खुदा (स.अ.व.व.) का दूसरा नाम है कि आप आसमान वालों में इसी नाम से मारूफ है। फिर फरमाते है कि (इस इस्मे मुबारक को ज़ाते अहद जल्लेशानेह के साथ बहुत तक़र्रुन है और दूसरे इस्म मुहम्मद से यह इस्म एक मंज़िल अल्लाह के नज़दीक ज़्यादा करीब है। सीरते मुहम्मदिया में है कि आपका नाम मलायक़ा के दरमियान अहमद और इन्सानों में मुहम्मद (स.अ.व.व.) मशहूर है।

साबेका किताबों और मुत्ताइद निशानियों से यह बात आशकार है कि मुहम्मद (स.अ.व.व.) ही आख़िरी रसूल थे लेकिन हज़रत ईसा (स.अ.व.व.) दरअस्ल इस हक़ीक़त की तरफ़ लोगों के ज़ेहनों को मुतावज्जे करना चाहते थे कि आखिरी रसूल (स.अ.व.व.) वही होगा जो आसमानी और रूहानी दुनिया का पहला रसूल था और यही उन्होंने बनि इस्राईल को बताया कि वह रसूल जो आसमान पर तुम्हारा और हमारा सबरा रसूल अहमद के नाम से था वह मेरे बाद जिस्मानी हैसियत से आखिरी रसूल बन कर आने वाला है।

इन्जील और तौरैत में अहमद नाम की हक़ीक़त के बहारे में मुफस्सेरीन ने जो अपने ख़्यालात ज़ाहिर किये हैं उन्हें नक़ल न करते हुए हम हिन्दुओं की मज़हबी किताबों और (बौद्ध) मज़हब में अहमद की हक़ीक़त से मुतालिक़ चन्द नमूने पेश करना चाहते हैं जो यक़ीनन क़ारेईन की मालूमात में इज़ाफा का सबब होंगे।

ऋगुवेद में है कि-

(अहमद ने सबसे पहली क़ुरबानी दी और सूरज जैसा हो गया। वाज़ेह रहे कि क़ुरआन में रसूल अल्लाह अलैहे वसल्लम को (सेराजन मुनीर) (चमकता हुआ सूरज) कहा गया है)

अथर वेद में है कि-

(अहमद वह है जो लौटते हैं तो रौशन और ताक़तवर रहबर साबित होते हैं , मख़लूक़ात की हिफाज़त हर पहलू से करते हैं और बेहतरीन नेजात दहिन्दा साबित होते हैं।

बाइबिल के अलावा , वेदों की किताबों में भी हक़ीक़ते अहमदी का पता चलता है चुनानचे यजुरवेद में है किः-

(उर्दू तरजुमा) (वह तमाम उलूम का सरचश्मा अहमद) अज़ीम तरीन शख़सियत है , यह रौशन सूरज के मानिन्द अँधेरेों को दूर भगाने वाला है इस सिराजे मुनीर को जान लेने के बाद ही मौत को जीता जा सकता है। निजात का और कोई रास्ता नही है) (यजुर वेद)

लेकिन अब उनके तरजुमों में इमतेदादे ज़माना चाबुक दस्ती से काम ले रहा हैऔर जान बूझ कर ग़ल्तियाँ की जा रही हैं। मसलन पहले मंत्र में लफज़े अहमद इस्तेमाल हुआ है। इस लफज़ को दो हिस्सों यानि अहम-अत में तक़सीम करके तरजुमा किया जा रहा है। संस्कृत ज़बान में (दाल) की जगह (ते) इस्तेमाल होता है।

बौद्ध मत में (बुद्धा) का लफज़ पैग़म्बर के हम मानी है। गौतम बुद्ध ने अपने चेले नन्दा को मुख़ातिब करके फरमाया , ऐ नन्दा! न तो मैं पहला बद्धा हूँ और न आखिरी।

पहले बुद्ध के बारे में डा 0 राधा किष्ण अपनी किताब (रिकवरी ऑफ फैथ) में तहरीर फरमाते हैं कि जापान में पहले बुद्धा का नाम अमिताभ मिलता है।) और जापान में इस का तलफ़्फुज़ (आमिद) है यानि (अहमद) लफज़े अमिताभ (उम्मत) और (आभा) दो लफज़ों से मुरक्कब है (उम्मत अहमद का बिगड़ा हुआ तलफ़्फुज़ है और (आभा) के माने नूर के हैं इस तरह अमिताभ के माने नूरे अहमद हुए। यानि बोद्ध इज़्म में यह हक़ीक़त पनाह है कि पहला पैग़म्बर (नूरे अहमद) था।

अब देखिये कि हदीसें क्या कहती हैं ?

अबु हुरैरा से मरवी है कि एक दिन सहाबा ने पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) से पूछा कि या रसूल अल्लाह! नबूवत आप पर किस वक़्त वाजिब हुई ? आपने फरमाया कि उस वक़्त , जब आदम रूह और जिस्म के दरमियान थे। तिरमिज़ी का कहना है कि यह हदीसे एहसन है।

अन्सबी से रवायत है कि मैं ने हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) से पूछा या रसूल आप कब नबी थे फरमाया जब आदम आबो गिल के दरमियान थे। इस हदीस को इमाम बुखारी ने अपनी तारीख़ में और अबु नईम ने अपने हुलिया में रवायत किया है और हाकिम ने उसे सही कहा है।

अहादीस से सिर्फ अतना ही मालूम नहीं होता कि पैग़म्बर आख़ेरूल ज़मा की नबूवत तख़लिख़े आदम से पहले थी बल्कि यह भी आशकार होता है कि हज़रत अहमद मुजतबा (स.अ.व.व.) की ख़िलख़त तमाम मलायका , जमीन व आसमान , कायनात , दीगर मख़लूक़ात और अरशे इलाही से भी पहले हुयी थी और बाद में खुदा ने आपकी ज़ात को तमाम मख़लूकात व कायनात अर्ज़ी व समावी की ख़िलख़ल का ज़रिया बनाया। चुनानचे शेख़ अहमद सरहिन्दी कहते हैं किः-

कुदसी में आया है कि मैं एक मग़फ़ी ख़ज़ाना था और जब चाहा कि पहचाना जाऊँ तो मैंने मख़लूक़ को ख़ल्क किया।)

इस हदीस को इमामे ग़जाली और मोहियुद्दीन ने भी बयान किया है हदीसे क़ुदसी में रसूले अऱबी की शान में यह अलफाज़ भी मिलते हैं कि अगर तू न होता तो मैं ज़मीन व आसमान को पैदा न करता और न ही अपनी रूबूवियत का इज़हार करता।

इसी हदीस को देलमी ने मसनदे फिरदौस में इब्ने अब्बास से नक़ल किया है। यह हीदसे मवाहिब में भी मरक़ूम हुई है नीज़ हाकिम ने भी अपनी मुस्तदरक में उसे जगह दी है इसके बाद अल्लामा सुबकी ने शिफउल सक़ाम में उसे बरक़ारर रखा है। अल्लामा बिलक़ीनी ने अपने फ़तावे में बरक़रार रखा है लेहाज़ा इस की सेहत पर कोई शुबहा नहीं किया जा सकता।

मुनदर्जा बाला शवाहिद से पता चलता है कि तमाम मख़लूकात में सबसे पहली तख़लीफ़ नूरे अहमदी की थी जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) का क़ौल है कि सबसे पहले अल्लाह ने मेरा नूर ख़ल्क़ फरमाया।

इश क़ुर्रये अर्ज़ पर इन्सानी वजूद को करोड़ेों साल गुज़र चुके हैं। लातादाद अज़मतों , पस्तियों और रोशनी के मीनारों को समेटता हुआ वक़्त आगे बढ़ता जा रहा है इस आख़िरी घड़ी की तरफ़ जब एक धमाके से उन तमाम अजाएबात का सिलसिला ख़त्म हो जायेगा और एक नबी और अबदी हयात का आगाज़ होगा। वक़्त के साथ साथ अक़ले इन्सानी भी इरतेका की मंज़िले तय कर रही हैं और अपनी तक़र्की के नुक्तये कमाल पर पहुँच कर यह मादी अक़ल भी फना हो जाने वाली है।

अब से चौदह सौ साल क़लब जब अक़ले इन्सानी ताफुलियत की सरहदों से निकल कर बलूग़ियत की तरफ मायल हुयी तो ख़ालिक़े कायनात ने अपने हबीब मुहम्मद (स.अ.व.व.) को दुनिया में इस आख़िरी किताब के साथ भेजा जिस में आखिरी सिरे तक दर पेश आने वाले तमाम मसाएल का हल मौजूद है। कुरान करीम आन हज़रत (स.अ.व.व.) का सबसे बड़ा मोजिज़ा है और इस के अजाएबात रहती दुनिया तक बाक़ी रहेगे। इन्सानी अक़ल इल्मे इलाही का एहाता नहीं कर सकती। जिस मुक़ाम पर पहुँच कर यह मफलूज व लाचार हो जाये वहाँ उसे अलीम व बसीर व ख़बीर की आवाज़ सुनने की कोशिश करनी चाहिये।

रहा साइंस का सवाल- जब वह इंसान की इब्तेदा को दरयाफत नहीं कर सकी तो कायनात की तख़लीफ़ का इल्म उसे क्यों कर हो सकता है ? इस मैदान में वह अभी अँधेरे में ही हाथ पैर चला रही है इसके अलावा और कुछ नहीं है।