चौथा हिस्सा - नमाज़ के तरबीयती पहलू
47-नमाज़ और तबीअत (प्रकृति)
नमाज़ फ़क़त एक क़लबी (दिली) राबते का नाम नही है। बल्कि यह एक ऐसा अमल है जो लोगों के साथ मिल कर तबीअत(प्रकृति) से फ़ायदा हासिल करते हुए अंजाम दिया जाता है। जैसे नमाज़ के वक़्त को जानने के लिए आसमान की तरफ़ देखना चाहिए। क़िबले की सिम्त को जानने के लिए सितारों को देखना चाहिए। पानी की तरफ़ ध्यान देना चाहिए कि पाक साफ़ खालिस और हलाल हो। मिट्टी पर दिक़्क़त करनी चाहिए कि इसमे तयम्मुम और सजदे के सही होने के शरायत हैं या नही। अल्लाह की इबादत तबीअत के बग़ैर नही हो सकती। रसूले अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम सहर मे आसमान की तरफ़ नज़रे उठाते और सितारों को देखते हुए फ़िक्र करते और फ़रमाते कि ऐ पालने वाले तूने इनको बेकार पैदा नही किया। और इसके बाद नमाज़ मे मशग़ूल हो जाते। तबीअत (प्रकृति) मे ग़ौरो फ़िक्र अल्लाह को पहचान ने का एक ज़रिया है।
फ़ारसी का मशहूर शाइर सादी कहता है कि हमारे साँस लेने के अमल मे जब यह साँस अन्दर की तरफ़ जाता है तो ज़िन्दगी के लिए मददगार बनता है और जब यही साँस पलट कर बाहर आता है तो सुकून का सबब बनता है। बस इस तरह हर साँस मे दो नेअमतें मौजूद हैँ। और हर नेअमत पर अल्लाह का शुक्र वाजिब है।
हक़ीक़त भी यही है कि अगर साँस हमारे बदन मे दाखिल न हो तब भी हम ज़िन्दा नही रह सकते। और अगर यही साँस वापस बाहर न आये तब भी हम ज़िन्दा नही रह सकते। हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि
“हर साँस मे हज़ारो नेअमतें हैं क्योँकि दरख्तों के पत्ते भी इंसान के साँस लेने मे मददगार होते हैं। अगर दरख्त कार्बनडाइ आक्साइड को ओक्सीज़न मे न बदलें तो क्या हम साँस ले सकेंगें
?बल्कि समन्द्रो के मगर मच्छ भी इंसान के साँस लेने के अमल मे मददगार होते हैं। क्योँकि समुन्द्रो मे हर दिन रात लाखों छोटे बड़े जानवर मरते हैं। अगर यह मगर मच्छ उनको खाकर पीनी को साफ़ न करें तो पानी बदबूदार हो जायेगा। और पानी के सड़ने की हालत मे इंसान के लिए साँस लेना बहुत मुशकिल हो जायेगा।
”
अब आप ग़ौर फ़रमाये कि हमारे साँस लेने के अमल मे दरख्तों के पत्ते और समुन्द्रो के मगर मच्छ तक मदद करते हैं। मगर अफ़सोस कि हम तबीअत के राज़ों से वाक़िफ़ नही हैं।
इस्लामी नज़रिये के मुताबिक़ तबीअत(प्रकृति) मे ग़ौरो फ़िक्र एक बड़ी इबादत है। जैसे मिट्टी
,पानी
,आसमान और दरख्तों वग़ैरह मे ग़ैरो फ़िक्र करना। लेकिन नमाज़ मे तबीअत से फ़ायदा हासिल करने के ज़राय को महदूद कर दिया गया है। जैसे मर्द नमाज़ मे सोने की चीज़ो और रेशमी लिबास को इस्तेमाल नही कर सकते। अल्लाह की बारगाह मे तकब्बुर आमेज़ लिबास पहन कर जाना इन्केसारी के खिलाफ़ है। नमाज़ के बीच मे खाना पीना इबादत के लिए ज़ेबा नही है। ज़मीन पर सजदा करना इबादत है मगर खाने पीने की चीज़ों पर सजदा करना शिकम परस्ती है इबादत नही है। तबीअत मे ग़ौरो फ़िक्र करना सही है मगर तबीअत मे डूब जाना सही नही है। तबीअत राह को तै करने की निशानी है ठहरने या डूबने की जगह नही है। समुन्द्रों का पानी किश्ती को उस पर तैराने के लिए होता है किश्ती मे भर कर उसे डुबाने के लिए नही। सूरज इस लिए है कि लोग उस से रोशनी हासिल करें इस लिए नही कि लोग उसकी तरफ़ देख कर अपनी आखों की रोशनी खत्म कर लें।
48-नमाज़ और तालीम
अगर नमाज़ी यह चाहता है कि उसकी नमाज़ बिलकुल सह हो तो उसे चाहिए कि कुछ न कुछ इल्म हासिल करे। जैसे क़ुरआन को पढ़ने का इल्म
,नमाज़ के अहकाम का इल्म
,क़िबले की पहचान
,तहारत वज़ू ग़ुस्ल और तयम्मुम के तरीक़ों का इल्म
,नमाज़ के मुक़द्दमात और शर्तों का इल्म
,मस्जिद मे जाने और ठहरने के मसाइल का इल्म
,नमाज़ के वाजिबात मे शक करने की सूरत मे नमाज़ के सही होने या बातिल होने का इल्म
,नमाज़ के किसी जुज़ के छुट जाने की हालत मे नमाज़ के सही होने या दोबारा पढ़ने का इल्म। यह सब तालीमात फ़िक़्ह और इल्म के बाज़ार को पुर रौनक़ बनाती हैं।
49-नमाज़ और अदब
अगर कोई इंसान अज़ान की आवाज़ सुन कर भी नमाज़ की तरफ़ से लापरवाह रहे तो ऐसा है कि उसने एक तरह से नमाज़ की तौहीन की है। हम को इस्लाम ने इस बात की ताकीद की है कि नमाज़ मे अदब के साथ खड़े हों। दोनों हाथ रानों पर हों
,निगाह सजदागाह पर हो
,लिबास साफ़ सुथराऔर खुशबू मे बसा हो। और अगर नमाज़ जमाअत के साथ पढ़ी जाये तो सब लोगों के साथ रहना ज़रूरी है। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी रुक्न को दूसरों से पहले या बाद मे अंजाम नही देना चाहिए। इमामे जमाअत से पहले रुकू या सजदे मे नही जाना चाहिए
,बल्कि किसी ज़िक्र को भी इमाम से पहले शुरू नही करना चाहिए। यह सब हुक्म इंसान के अन्दर अदब को मज़बूत बनाते हैं। मुहब्बत
,माअरिफ़त और इताअत पर मबनी (आधारित) यह अदब उस ज़ात के सामने है जो क़ाबिले इबादत है। जिसमे न दिखावा पाया जाता और न बनावट। जो चापलूसी और खुशामद को पसंद नही करता है। (नमाज़ के इसी अदब को नज़र मे रखते हुए) रसूले अकरम ने फ़रमाया कि
“जो इंसान सजदे को बहुत तेज़ी के साथ अँजाम देता है वह कव्वे के ज़मीन पर ठोंग मारने के बराबर है।
”
50-नमाज़ मानवी अहमियत को ज़िन्दा करते हैं
जहाँ इमामे जमाअत के लिए आदालत और सहीहुल क़राअत(क़ुरआन के सूरोह का सह पढ़ने वाला) होने वग़ैरह की शर्तें हैं वहीँ हदीस मे यह भी है कि अगर लोग किसी इंसान को इमामे जमाअत के ऐतबार से दिल से पसंद ना करते हों मगर वह फिर भी इमामे जमाअत के फ़रीज़े को अंजाम देता रहे तो उसकी नमाज़ क़बूल नही है।
जो लोग नमाज़े जमाअत की पहली सफ़ मे खड़े होते हैं उन के लिए इस्लाम ने कुछ सिफ़ात ब्य़ान किये हैं। यह सिफ़ात मानवी अहमियत को ज़िन्दा करते हैं। इस से इस बात की तरफ़ इशारा किया गया है कि समाज के जो लोग इमामत तक़वे और अदालत से ज़्यादा करीब है उनको ही समाज मे मोहतरम और पेशरो होना चाहिए।
51-नमाज़ की आवाज़ पैदा होने की जगह से कब्र तक
शरीअत ने ताकीद की है कि बच्चे के पैदा होने के बाद उसके कानों मे अज़ान और इक़ामत कही जाये। और मरने के बाद दफ़्न के वक़्त उसकी नमाज़े जनाज़ा को वाजिब किया है। पैदाइश के वक़्त से दफ़्न होने तक किसी भी दूसरी इबादत को नमाज़ की तरह इंसान पर लाज़िम नही किया गया है।
52-नमाज़ मुशकिलों का हल
हदीस मे है कि हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वा आलिहि वसल्लम और अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली इब्ने अबी तालिब अलैहिमस्सलाम के सामने जब कोई मुश्किल आती थी तो फ़ौरन नमाज़ पढ़ते थे।
53-नमाज़ सिखाना माँ बाप की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी
रिवायत मे ब्यान किया गया है कि बच्चों को नमाज़ याद कराना माँ बाप की सबसे अहम जिम्मेदारी है। माँ बाप को चाहिए कि जब बच्चा तीन साल का हो जाये तो इसको ला इलाहा इल्लल्लाह जैसे कलमात याद करायें। और फिर कुछ वक़्त के बाद उसको अपने साथ नमाज़ मे खड़ा करें। इस तरह उसको आहिस्ता आहिस्ता नमाज़ के लिए तैयार करें। क़ुरआन मे है कि उलुल अज़्म रसूल अपने बच्चों की नमाज़ के बारे मे बहुत ज़्यादा फ़िक्रमंद थे। क़ुरआने करीम के सूरए ताहा की 132वी आयत मे अल्लाह ने पैगम्बरे इस्लाम (स.) से फ़रमाया कि अपने घर वालों को नमाज़ का हुक्म दो।
क़ुरआने करीम के सूरए मरियम की 55वी आयत मे जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम की तारीफ़ करते हुए फरमाया कि वह अपने घर वालों को नमाज़ का हुक्म देते थे।
क़ुरआने करीम के सूरए लुक़मान की 17वी आयत मे यह ज़िक्र मिलता है कि जनाबे लुक़मान अलैहिस्सलाम ने अपने बेटे को वसीयत की कि नमाज़ पढ़ो और लोगो को अच्छाईयों की तरफ़ बुलाओ।
क़ुरआने करीम के सूरए इब्राहीम की 40वी आयत मे इरशाद होता है कि जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम अल्लाह से दुआ करते थे कि पालने वाले मुझे और मेरी औलाद को नमाज़ क़ाइम करने वाला बना दे।
54-नमाज़ और अल्लाह के ज़िक्र को छोड़ने के बुरे नतीजे
नमाज़ अल्लाह का ज़िक्र है और जो इंसान अल्लाह के ज़िक्र से भागता है वह बहुत बुरी ज़िन्दगी गुज़ारता है। जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए ताहा की 124वी आयत मे इरशाद हो रहा है कि
“जो मेरे ज़िक्र से भागेगा वह सख्त ज़िन्दगी गुज़ारेगा और हम क़ियामत मे ऐसे इंसान को अँधा महशूर करेंगे।
”
मुमकिन है आप कहें कि बहुत से लोग नमाज़ नही पढ़ते लेकिन फिर भी अच्छी ज़िन्दगी गुज़ारते हैं। मगर आप ज़रा उनकी ज़िन्दगी मे झाँक कर तो देखें कि उनमे आराम
,सुकून
,प्यार
,मुहब्बत और पाकीज़गी पायी जाती है या नही
?जब वह दुनियावी परेशानियों का शिकार होते हैं तो चारो तरफ़ से मायूस होकर किस तरह मजबूरी के साथ बैठ जाते हैं। वह दूसरे लोगों को किस निगाह से देखते हैं
?तक़वे और अदालत को वह क्या समझते हैं
?उन की रूह किस चीज़ से वाबस्ता रहती है
?अपने मुस्तक़बिल (भविषय) से वह कितना मुत्मइन हैं
?आप देखें कि ज़हनी परेशानियाँ
,घरेलू उलझनें
,जल्दबाज़ी के फैसले
,आसाब की कमज़ोरियाँ
,बेचैनियाँ
,बद गुमानिया
,अपने आपको तन्हा समझना
,फ़ितना फ़साद
,जराइम की बढ़ती तादाद
,बच्चों का घरों से भागना
,तलाक़ की बढ़ती हुई तादाद
,खौफ़ व हिरास वग़ैरह बेनमाज़ी समाज मे ज़्यादा है या नमाज़ी समाज मे।
55-नमाज़ और तवक्कुल
नमाज़ मे हम बार बार बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम को पढ़ते हैं। बिस्मिल्लाह का हर्फ़े बा अल्लाह से मदद माँगने और उस पर तवक्कुल करने की तरफ़ इशारा करता है। अल्लाह की याद से शुरू करना इस बात की निशानी है कि हम उस की ताक़त से मदद चाहते हैं। और उसी पर भरोसा करते हैं।
उसकी याद उससे मुहब्बत की निशानी है।
बस अल्लाह को याद करना चाहिए दूसरों कों नही।
अल्लाह से वाबस्ता रहना चाहिए दूसरों से नही।
बस अल्लाह से वाबस्तगी होनी चाहिए बड़ी ताक़तों और बुतों सेनही।
56-नमाज़ एक रूहे अज़ीम
इंसान नमाज़ मे उस अल्लाह की हम्द व सना (तारीफ़ प्रशंसा) करता है जो पूरी दुनिया को चलाता है। जो सब रहमतों व बरकतों का मरकज़ है
,जो रोज़े जज़ा(क़ियामत का दिन) का मालिक है। जो इंसान इन तमाम सिफ़ात वाले अल्लाह की हम्दो सना करता है वह कभी भी किसी ताक़त के सामने नही झुक सकता और न ही किसी दूसरे की हम्दो सना कर सकता। जो ज़बान सच्चे दिल से अल्लाह की हम्दो सना करती है वह कभी भी किसी नालायक़ की तारीफ़ नही कर सकती।
हमे हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का यह क़ौल(कथन) हमेशा याद रखना चाहिए कि आप ने फ़रमाया कि
“जो इंसान हज़रत रसूले इस्लाम से वाबस्ता हो और हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की आग़ोश मे पला हो वह कभी भी यज़ीद की बैअत नही करेगा।
”
सिर्फ़ अल्लाह की हम्दो सना करनी चाहिए क्योँकि वह तमाम दुनिया का पालने वाला है वह रहमान और रहीम है वह क़ियामत के दिन का मालिक है।
दूसरे लोगों की क्या हैसियत है कि मैं उनकी तारीफ़ करूँ। खास तौर पर हर मुसलमान तो जानता ही है कि अगर किसी ज़ालिम की तारीफ़ की जाये तो अर्शे इलाही काँप जाता है।
अल्लाह की हम्दो सना हमारे अन्दर वह ताक़त पैदा करती है कि हम उसके अलावा किसी दूसरे की हम्द करने के लिए तैयार नही होते। यह ताक़त हम नमाज़ और अल्लाह की हम्द से ही हासिल कर सकते हैं।
अफ़सोस कि हमने नमाज़ को तवज्जुह के साथ नही पढ़ा और नमाज़ के हक़ीक़ी मज़े को नही चखा।
57-नमाज़ और विलायत
सिरातल लज़ीनः अनअमतः अलैहिम कह कर हम अल्लाह से यह चाहते हैं कि अल्लाह हमको उन लोगों के रास्ते पर चलाता रह जिन के ऊपर तूने अपनी नेअमतों को नाज़िल किया है। उन के रास्ते को हमारे लिए नमूना-ए-अमल बना जिन्होने तुझ को पहचान कर तुझ से इश्क़ किया। जो तेरी राह पर चले और साबित क़दम रहे। और किसी भी हालत मे तुझ से जुदा नही हुए।
क़ुरआने करीम के सूरए निसा की 69वी आयत मे उन चार गिरोह का ज़िक्र किया गया है जिन पर अल्लाह की नेअमतें नाज़िल हुईं। जो इस तरह हैं---
1-अम्बियाँ 2-शोहदा 3-सिद्दीक़ीन 4- सालेहीन
इंसान नमाज़ मे इन ही चार गिरोह से विलायत
,इश्क़
,मुहब्बत और दोस्ती का ऐलान करता है। हक़ीक़ी नेअमत का मतलब है अल्लाह पर ईमान रखते हुए उस से राबिता करना
,उसकी खुशी की खातिर उसकी राह मे क़दम उठाना और शहीद हो जाना है। वरना माद्दी (भौतिक) नेअमतें तो जानवरों को भी मिल जाती है।
यह मानवी (आध्यात्मिक) मक़ाम ही है जो इंसान को अहम(महत्वपूर्ण) बनाता है। वरना जिस्म के लिहाज़ से तो इंसान बहुतसी मख़लूक़ात से कमज़ोर है। जैसे कि अल्लाह ने क़ुरआन मे भी फ़रमाया है कि ख़िलक़त के लिहाज़ से तुम ज़्यादा क़वी हो या आसमान
?
आज की इस दुनिया मे तमाम इजादात (अविष्कार) इंसान की ज़िन्दगी को आराम दायक बनाने के लिए हो रही हैं। अच्छे इंसान बनाने की किसी को भी फ़िक्र नही है। मगर हम नमाज़ मे अल्लाह से ऐसे लोगों के रास्ते पर चलते रहने की दुआ करते हैं जिनको हक़ीक़ी नेअमतें मिल चुकी हैं।
58-नमाज़ इल्म के साथ
अल्लाह आसमान पर रहने वालों और परिन्दों की नमाज़ और तस्बीह के बारे में फ़रमाता है कि उन की नमाज़ और तस्बीह इल्म के साथ है। एक दूसरी जगह फ़रमाता है कि नशे की हालत मे नमाज़ न पढ़ो ताकि तुम को यह मालूम रहे कि नमाज़ मे क्या कह रहे हो। यह जो कहा जाता है कि आलिम की इबादत जाहिल आबिद की इबादत से बेहतर है। यह इस बिना पर कहा जाता कि आलिम इल्म के साथ इबादत करता है।
इस्लाम मे ताजिरों(व्यापारियों) को इस बात की ताकीद की गयी है कि पहले हराम और हलाल के मसाइल को जानो फिर तिजारत करो।
नमाज़ की तालीम के वक़्त भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि नमाज़ के राज़ों को नई नस्लो के सामने ब्यान किया जाये ताकि वह इल्म और माअरिफ़त के साथ नमाज़ पढ़ सके।
59-नमाज़ और तंबीह (डाँट डपट)
नमाज़ को रिवाज देने(प्रचलित करने) के लिए समाजी दबाव भी डाला जा सकता है। जैसे रसूले अकरम (स.) के ज़माने मे मैदाने जंग से भागने वाले मुनाफ़ेक़ीन पर समाजी दबाव डाला गया जिसका ज़िक्र क़ुरआने करीम के सूरए तौबा की 83वी आयत मे किया गया है
“कि ऐ रसूल जब इन मुनाफ़ेक़ीन मे से कोई मरे तो उसकी नमाज़े जनाज़ा मत पढ़ाना और न ही उसकी कब्र पर खड़े होना।
”
मैं कभी नही भूल सकता कि ईरान इराक़ की जंग के दौरान एक जवान ने वसीयत की थी कि अगर मैं शहीद हो जाऊँ तो मुझे उस वक़्त तक दफ़्न न करना जब तक आपस मे लड़े हुए ये दो गिरोह आपस मे मेल न कर लें। ( अस्ल वाक़िआ यह है कि यह शहीद जिस जगह का रहने वाला था उस जगह पर मोमेनीन को दो गिरोह के दरमियान किसी बात पर इख्तिलाफ़ हो गया था और दोनो ही गिरोह किसी तरह भी आपस मे मेल करने के लिए तैयार नही थे।)
इस जवान ने अपने मुक़द्दस खून के ज़रिये मोमिनीन के दरमियान सुलह कराई। जब कि वह यह भी कह सकता था कि अगर मैं शहीद हो जाऊँ तो फलाँ इंसान या गिरोह को मेरे जनाज़े मे शामिल न करना। और इस तरह वह फ़ितने और फ़साद को और फैला सकता था
,मगर उसने इसके बजाये दो गिरोह के बीच सुलह का रास्ता इख्तियार किया।
60-नमाज़ और हाजत
जहाँ पर बुराईयाँ ज़्यादा हैं वहाँ पर नमाज़ की ज़रूरत भी ज़्यादा है। जैसे इंसान रात मे सोता है और बुराईयोँ वग़ैरह मे मशग़ूल नही रहता इस लिए इशा से सुबह तक रात मे किसी नमाज़ को वाजिब नही किया गया। मगर चूँकि दिन मे इंसान को हवाओ हवस
,मक्कारी
,अय्यारी
,ना महरमों के चेहरों के जलवे और दूसरी तमाम शैतानी ताक़तें चारों तरफ़ से घेरे रहती हैं और इनसे बचने के लिए इंसान को दिन मे मानवियत (अध्यात्म) की ज़्यादा ज़रूरत है। इसी लिए क़ुरआने करीम के सूरए हूद की 114वी आयत मे कहा गया कि दिन के अव्वल और आखरी हिस्से मे नमाज़ पढ़ा करो। और सूरए बक़रा की 238वी आयत मे दो पहर की नमाज़ की ताकीद इन अलफ़ाज़ मे की गई है कि तमाम नमाज़ों खास तौर पर नमाज़े ज़ोहर की हिफ़ाज़त करो। और मुनाफ़ेक़ीन की तरह गर्मी को नमाज़े जमाअत छोड़ने का बहाना न बनाओ। (यानी दूसरी नमाज़ों को भी पढ़ो और नमाज़े ज़ोहर को भी पढ़ो)
चूँकि छुट्टी के दिनों मे इंसान खाली होता है। और खाली वक़्त मे बुराईयोँ का खतरा ज़्यादा रहता है इस लिए जुमे और ईद के दिन नमाज़ की ज़्यादा ताकीद की गई है।
क्योंकि लड़कियों के मिज़ाज मे लताफ़त और नज़ाकत पाई जाती है और लतीफ़ व ज़रीफ़ चीज़ो पर बुराईयोँ की गर्द जल्द असर अन्दाज़ हो जाती है। इस वजह से लड़कियों पर 9 साल की उम्र से ही नमाज़ वाजिब कर दी गई है।
जब इंसान की मुश्किलात बढ़ जायें तो ऐसे वक़्त मे ज़्यादा नमाज़ पढ़ने की ताकीद की गई है। अगर यह कहा जाये तो ग़लत ना होगा कि नमाज़ों के वक़्त को हमारी रूही व नफ़सीयाती नज़ाकतों और ज़रूरतों को ध्यान मे रख कर मुऐयन किया गया।(वल्लाह आलम)
61-नमाज़ गुनाहो के सैलाब के मुक़ाबिले मे एक मज़बूत बाँध
जहाँ नमाज़ क़ाइम होती है वहाँ से शैतान फ़रार कर जाता है। और जहाँ पर नमाज़ का सिलसिला खत्म हो जाता है वहाँ से कमालात(अच्छाईयाँ) भी खत्म हो जाते हैँ।
क़ुरआन फ़रमाता है कि
“यक़ीनन नमाज़ गुनाहों और बुराईयों से रोकती है।
”
फिर यह कैसे मुमकिन है कि एक नमाज़ी सुस्त हो
,उसका लिबास या मकान ग़सबी हो
,उसका बदन और उसकी ग़िज़ा नजिस हो। वह अपनी नमाज़ को सही तौर पर अंजाम देने के लिए मजबूर है कि कुछ चीज़ों से दूरी इख्तियार करे। अल्लाह से राबिते के नतीजे मे इंसान को ऐसी पाकीज़ा रूह हासिल होती है कि वह गुनाह करते हुए शर्माने लगता है।
आपने कहीँ देखा कि कोई मस्जिद से निकल कर जुआ खेलना गया हो।
या कोई मस्जिद से निकल कर किसी फ़साद फैलाने वाली जगह पर गया हो। या कोई मस्जिद से निकल कर किसी के घर मे चोरी करने के इरादे से दाखिल हुआ हो। इसके बर अक्स अगर नमाज़ खत्म हो जाये तो हर तरीक़े की बुराई
,शहवत व फ़साद फैलने का खतरा है।
क़ुरआने करीम के सूरए मरियम की 59वी आयत मे इरशाद होता है कि
“अम्बियां के बाद उनकी जगह पर एक ग़ैरे सालेह नस्ल आई जिसने नमाज़ न पढ़ने
,या देर से पढ़ने
,या कभी पढ़ने और कभी न पढ़ने के सबब नमाज़ को ज़ाय(बर्बाद) कर दिया और अपनी शहवतों मे गिरफ़्तार हो गये।
”
रसूले अकरम (स.) ने फ़रमाया कि
“साठ साल के बाद ऐसे अफ़राद बाग-डोर संभालेंगें जो नमाज़ को जाय कर देंगें।
”
शायद उपर वाली आयत ने जो मफ़हूम ब्यान किया है वह तारीख को नज़र मे रखते हुए ब्यान किया है। (तफ़्सीरे नमूना)
नमाज़ अल्लाह और बन्दों के बीच अल्लाह की रस्सी है।
नमाज़ ईमान को चमकाती है और अल्लाह के साथ बन्दों के राबिते को मज़बूती अता करती है।
नमाज़ अल्लाह से मुहब्बत की निशानी है। क्योंकि जो जिससे मुहब्बत रखता है
,वह उससे ज़्यादा से ज़्यादा बातें करना चाहता है।
हदीस मे है कि
“ताअज्जुब है ऐसे लोगों पर जो अल्लाह से मुहब्बत का दावा तो करते हैं मगर सहर के वक़्त तन्हाई मे उसके साथ राज़ो नियाज़ और मुनाजात नही करते।
”
अगर इंसान का राबिता अल्लाह के वलीयों से खत्म हो जाये तो इंसान ताग़ूत के कब्ज़े मे चला जाता है। और अगर इंसान अल्लाह पर भरोसा नही करता तो ग़ैरो को हाथों बिक जाता है और उनके मज़दूर की सूरत मे उनकी पनाह मे जिन्दगी बसर करता है। और अगर दिल और ईमान का रिश्ता अल्लाह से टूट जाये तो ग़ैरों के साथ रिश्ता जुड़ जाता है।
नमाज़ से अल्लाह और बन्दें का राबिता मज़बूत होता है।
नमाज़ से अल्लाह का रहमो करम बन्दे को हासिल होता है।
नमाज़ से इंसान क़ियामत को याद रखता है।
नमाज़ के ज़रिये इंसान पर यह बात रोशन हो जाती है कि उसको उन लोगों के रास्ते पर चलना है जिन पर अल्लाह ने अपनी नेअमतों को नाज़िल किया। और उन लोगों के रास्ते से बचना है जो गुमराह रहे या अल्लाह के ग़ज़ब का निशाना बने।
62-वक़्त की पाबन्दी नमाज़ की बुनियाद पर
क़ुरआने करीम के सूरए नूर की 58वी आयत मे उन नौ जवानो को जो अभी बालिग़ नही हुए है वालदैन के ज़रिये पैग़ाम दिया जा रहा है कि
“नमाज़े सुबह से पहले
,नमाज़े इशा के बाद
,और ज़ोहर के वक़्त अपने वालदैन के पास(उनके कमरे मे) उनकी इजाज़त के बग़ैर न जाओ।
”
क्योंकि इस वक़्त इंसान आराम की ग़रज़ से अपने कपड़ो को उतार देता है।
यह बात क़ाबिले तवज्जुह है कि बच्चों के लिए इजाज़त की पाबन्दी नमाज़े सुबह
,ज़ोह्र व इशा के वक़्त को ध्यान मे रख कर की गई है।
कितना अच्छा हो कि हम अपने मुलाक़ात के वक़्त को भी इसी तरह मुऐयन करें जैसे नमाज़े ज़ोहर से पहले या नमाज़े इशा के बाद इस तरह हम वक़्त के साथ साथ समाज मे नमाज़ को रिवाज देने मे(प्रचलित करने मे) कामयाब हो जायेंगें।
63-नमाज़ से गुनाह माफ़ होते हैं
क़ुरआने करीम के सूरए हूद की 114वी आयत मे नमाज़ के हुक्म के साथ ही साथ इस बात का ऐलान हो रहा है कि बेशक नेकियाँ बुराईयों (गुनाहो) को खत्म कर देती हैं।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि
“अगर गुनाह के बाद दो रकत नमाज़ पढ़कर अल्लाह से उस गुनाह के लिए माफ़ी माँगी जाये तो उस गुनाह का असर खत्म हो जाता है।
”
(नहजुल बलाग़ा कलमाते हिकमत299)
रसूले अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वा आलिहि वसल्लम फ़रमाते हैं
”
कि दो नमाज़ो के बीच होने वाला गुनाह माफ़ कर दिया जाता है।
”
(शरहे इब्ने अबिल हदीद जिल्द 10 पेज206)
इस तरह वह गुनाह जो अल्लाह की याद से ग़फ़लत की वजह से होते हैं
,नमाज़ और इबादत की वजह से माफ़ हो जाते हैं। क्योंकि नमाज़ अल्लाह के साथ मुहब्बत और राबते का ज़रिया है। इस तरह माअसियत (गुनाह) की जगह मग़फ़िरत (अल्लाह की तरफ़ से मिलने वाली माफ़ी) ले लेती है।
64-नमाज़ और तालीम का तरीक़ा
तदरीजी(पग पग) तालीम का तरीक़ा वह सुन्नत है जिसको इस्लाम ने भी अपनाया है। और खास तौर पर इबादात मे इसका ज़िक्र किया है।
इस्लाम की तरबीयत से मुताल्लिक़ रिवायात मे हुक्म दिया गया है कि बच्चे को तीन साल तक बिल्कुल आज़ाद रखना चाहिए। इसके बाद उसको ला इलाहः इल्लल्लाह सात बार याद कराना चाहिए। और जब बच्चा तीन साल सात महीने और बीस दिन का हो जाये तो उसको मुहम्मदुर रसूलुल्लाह याद कराना चाहिए। और जब वह पूरे चार साल का हो जाये तो उसको मुहम्मद और आलि मुहम्मद पर सलवात भेजना सिखाना चाहिए। और जब वह पाँच साल का हो जाये और दाहिने
,बाँयें हाथ को समझने लगे तो उसको क़िबला रुख बिठाकर सजदा करना सिखाना चाहिए। और जब वह छः साल का हो जाये तो उसको पूरी नमाज़ याद करा देनी चाहिए।
सातवे साल के आखीर मे उसको हाथ और चेहरा धोना(वज़ू करना) सिखाना चाहिए। और नौवे साल के आखिर मे उसकी नमाज़ के बारे मे संजीदगी(गंभीरता) से काम लेना चाहिए और अगर वह नमाज़ पढ़ने से बचना चाहे तो उसके साथ सख्ती का बर्ताव(व्वहार) करना चाहिए।
65-नमाज़ और शहीदों की याद
सजदा करने के लिए सबसे अच्छी चीज़ खाके शिफ़ा (हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की कब्र की मिट्टी) है। और इसकी खास तौर पर ताकीद की गई है। हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम हमेशा खाके कर्बला पर सजदा करते थे। खाके शिफ़ा पर सजदा करने से बंदा अल्लाह से ज़्यादा क़रीब होता है। और बन्दे और माबूद के दरमियान के पर्दे हट जाते हैं। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की कब्र की मिट्टी से बनी तस्बीह को अपने पास रखने के लिए अहादीस मे ताकीद की गई है। और यहाँ तक ज़िक्र किया गया है कि इस तस्बीह को अपने पास रखना सुबहानल्लाह कहने के बराबर है।