हिदायत व रहनुमाई
وَنَصَحْتُ
لَكُمْ
وَلَكِن
لاَّ
تُحِبُّونَ
النَّاصِحِينَ
और मैने तुम्हे नसीहत की मगर तुम नसीहत करने वालों को पसंद नही करते।
सूरः ए आराफ़ आयत 78
समाजी ज़िन्दगी
,दर अस्ल इंसान का बहुत से नज़रियों व अफ़कार से दो चार होना है। उनमें से कुछ अफ़कार मज़बूत व पायदार होते हैं और कुछ कमज़ोर और बेबुनियाद। जिस तरह से हर इंसान की शक्ल व सूरत एक दूसरे से जुदा और अलग है उसी तरह हर इंसान के अफ़कार व नज़रियात भी जुदा जुदा हैं।
अफ़कार के इस इख़्तेलाफ़ से जो नतीजा सामने आता है वह यह है कि इंसान को चाहिये कि वह पहली फ़ुरसत में दूसरों के मोहकम व मज़बूत नज़रियों से फ़ायदा उठाये और दूसरे मरहले में लोगों की राहनुमाई व हिदायत करे।
समाजी ज़िन्दगी आपसी लेन देन का नाम है
,जिसमें कभी इंसान समाज से कुछ लेता है और कभी समाज को कुछ देता है। समाजी ज़िन्दगी की एक ख़ुसूसियत यह है कि इसमें अफ़कार की रद्दो बदल की वजह से कमज़ोर व अधूरी फ़िक्र भी मोहकम व यक़ीनी फ़िक्र में बदल जाती हैं। इस्लाम ने इंसानों को गोशा नशीनी की ज़िन्दगी
से बाहर निकलने और समाजी ज़िन्दगी बिताने का जो पैग़ाम दिया है वह दर हक़ीक़त उनके अफ़कार की परवरिश व रुश्द का इन्तेज़ाम है।
इसी बुनियाद पर जो दूसरा काम अंजाम दिया गया है वह यह है कि इंसानों को लापरवाई से निकाला गया है
,यानी इस्लामी समाज मे तमाम अफ़राद इस बात के ज़िम्मेदार हैं कि वह लोगों की ग़लत फ़िक्रों के मुक़ाबले में उनकी राहनुमाई करते हुए उनके ग़लत नज़रियों की इस्लाह करके उन्हे मोहकम बनायें।
जाहिर है कि एक ग़लत फ़िक्र मुमकिन है कि एक बीमारी के वायरस से ज़्यादा ख़तरनाक और नुक़सान देह साबित हो सकती है। क्योंकि बीमारी का इलाज तो कुछ अर्से तक आराम और दवा खाकर किया जा सकता है
,लेकिन एक कमज़ोर और ग़लत फ़िक्र मुमकिन है कि इंसानों को नाबूदी की दलदल में इस तरह फँसा दे कि इंसान ज़िन्दगी के आख़री लम्हे तक उससे निजात न पा सके। इससे भी बढ़ कर यह कि मुमकिन है कि एक ग़लत व अधूरी फ़िक्र समाज में राएज व मशहूर हो कर एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैल जाये। लिहाज़ा मोमिन व मुतदय्यिन लोगों का फ़रीज़ा है कि लोगों को
نصح
المستشير
و
النصيحة
للمسلمين
के तहत जिसका ज़िक्र क़ुरआन व रिवायात में हुआ है हिदायत व राहनुमाई करे। यानी मशवेरा करने वालों को अच्छा मशवेरा दे और मुसलमानों को नसीहत करे। इसी बुनियाद पर इस्लाम ने मशवरे की रविश को मुसलमानों में नेकी और भलाई का काम क़रार देते हुए तमाम मुसलमानों को उसकी तरफ़ तवज्जो दिलाई है।
ख़ुदावंदे आलम क़ुरआने मजीद में फ़रमाता है:
وَشَاوِرْهُمْ
فِي
الأَمْرِ
यानी ऐ अल्लाह के नबी किसी काम को अंजाम देने के लिए तमाम मुसलमानों से मशवेरा किया करो।
(सूरः ए आले इमरान आयत 159)
और एक दूसरी जगह इरशाद होता है:
وَأَمْرُهُمْ
شُورَى
بَيْنَهُمْ
यानी मुसलमानों का काम हमेशा मशवेरों के साथ होता है।
(सूरह शूरा आयत 38)
लिहाज़ा मोमिनीन ककी ज़िम्मेदारी है कि अगर समाज में कमज़ोरियों और बुराईयों को देखें तो उनका मुक़ाबला करें दूसरे अफ़राद की राहनुमाई करें। इसी तरह समाज के हर फ़र्द की ज़िम्मेदारी है कि जब कोई मुसलमान उसकी हिदायत और रहनुमाई करे तो उसकी नसीहत को दिल व जान से क़बूल करे।
वाज़ेह है कि अगर यह बुराईयाँ हलाल व हराम तक पहुच जायें तो इस्लाम ने तमाम मुसलमानों को इसकी उमूमी नज़ारत (देख रेख) या अम्र बिल माऱूफ़ व नही अनिल मुनकर का हुक्म दिया है।
एक ऐसा ज़रीफ़ नुक्ता जिसको बयान करने में ग़फ़लत नही बरतनी चाहिये वह यह है कि हिदायत व रहनुमाई एक बहुत ही लतीफ़ व ज़रीफ़ काम है। लिहाज़ा नसीहत करने वाले को यह काम निहायत दिक़्क़त से अंजाम देना चाहिये ताकि उसे इस काम की तौफ़ीक़ मिलती रहे
,वरना न सिर्फ़ यह कि दूसरों के कामों को बनाने और सँवारने में कामयाब नही होगें
,बहुत से लोगों को अपना दुश्मन भी बना लेगें। जबकि अगर हम अपना काम होशियारी से अंजाम दें तो दुश्मनों के बजाए नए नए दोस्त बना सकते हैं।
नसीहत व हिदायत इस्लाम की नज़र में
हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम से यह रिवायत नक़्ल हुई है कि
من
رأي
اخاه
علي
امر
يكرهه
فلم
يرده
عنه
و
هو
يقدر
عليه
فقد
خانه
जो भी अपने मोमिन भाई को कोई ऐसा काम करते हुए देखे जो नाज़ेबा और बुरा हो
,तो अगर वह उसे रोकने की क़ुदरत रखता हो तो उसे रोके और अगर वह लापरवाई के साथ उसके पास से गुज़र जाये तो बेशक उसने उसके साथ ख़ियानत की है।
हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम से नक़्ल हुआ है कि:
يجب
للمومن
علي
ا
لمومن
ان
يناصحه
हर मोमिन पर वाजिब है कि वह दूसरे मोमिन की रहनुमाई और हिदायत करे।
दूसरी रिवायतों के मुतालए से मालूम होता है कि यह हिदायत व रहनुमाई सिर्फ़ मुलाक़ात तक महदूद नही है बल्कि अगर इंसान जानता हो कि फ़लाँ मुसलमान ग़लत राह पर चल रहा है तो अब उसकी ज़िम्मेदारी है कि वह उसकी राहनुमाई करे। चाहे वह शख़्स वहाँ मौजूद भी न हो और उसने उससे उसका तक़ाज़ा भी न किया हो।
इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम से नक़्ल हुआ है कि
يجب
للمومن
علي
ا
لمومن
ان
يناصحه
له
في
المشهد
والمغيب
हर मोमिन के लिये ज़रूरी है कि अगर वह किसी को बुराई करते देखे तो उसकी रहनुमाई करे चाहे यह काम उसकी मौजूदगी में हो या उसकी ग़ैर मौजूदगी में। सबसे बेहतरीन मोमिन भाई कौन हैं
?
इस्लाम चाहता है कि लोगों में क़बूल करने का माद्दा पैदा हो इस लिये ऐब और कमियों के सुनने को तोहफ़े देने की तरह कहा गया है। जो लोग अख़लाक़ी सिफ़ात रखते हैं और लोगों को उनके ऐबों की तरफ़ मुजवज्जे करते हैं
,उन्हें बेहतरीन भाईयों से ताबीर किया गया है।
इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं:
خير
اخواني
من
اهدي
الي
عيوبي
मेरे बेहतरीन ईमानी भाई वह हैं जो मुझे मेरी कमियों और बुराईयों का तोहफ़ा दें।
हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से नक़्ल हुआ है कि आपने अपने कुछ दोस्तों से फ़रमाया एक शख़्स को आपने तौबीख़ की और कहा उससे कह दो:
ان
الله
اذا
ارد
بعبد
خيرا
اذا
عوتب
قبل
अल्लाह जब अपने बंदों पर लुत्फ़ व करम करता है तो जब कोई उसे उसकी कमियों की तरफ़ तवज्जो दिलाता है तो वह उसे क़बूल कर लेता है।
इस बहस के आख़िर में इस नुक्ते की तरफ़ भी तवज्जो देनी चाहिये कि इंसानों की हिदायत व रहनुमाई एक ऐसा अमल है जिसकी बराबरी कोई भी अमल नही कर सकता।
سمعت
ابا
عبد
الله
(
ع
)
يقول
عليك
بالنصح
لله
في
خلقه
فلن
تلقاه
بعمل
افضل
منه
मैंने हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम से सुना कि आप फ़रमा रहे थे: जहाँ तक हो सके लोगों की हिदायत व रहनुमाई की कोशिश करते रहो
,क्योंकि अल्लाह के नज़दीक इससे ज़्यादा बेहतर कोई अमल नही है।
इस हदीस में जिस ज़रीफ़ व दक़ीक़ नुक्ते की तरफ़ इशारा किया गया है वह यह है कि लोगों की हिदायत और नसीहत हर तरह की शख़्सी और नफ़सानी ग़रज़ से ख़ाली होनी चाहिये ताकि इसकी अहमियत के अलावा लोगों के दिलों पर भी उसका असर हो और वह उन्हे बदल सके।
एतेमाद व सबाते क़दम
كانهم
بنين
مرصوص
वह लोग सीसा पिलाई हुई दिवार की तरह हैं।
सूरः ए सफ़ आयत न. 5
नहजुल बलाग़ा में हज़रत अली अलैहिस्लाम का यह क़ौल नक़्ल हुआ हैं-
يوم
لک
و
يوم
عليک
एक रोज़ तुम्हारे हक़ में और दूसरा तुम्हारे ख़िलाफ़ है। इस से मालूम होता है कि ज़िन्दगी हमेशा ख़ुशगवार या एक ही हालत पर नही रहती
,बल्कि ज़िन्दगी भी दिन रात की तरह रौशन व तारीक होती रहती है। यह कभी खुश गवार होती है
,तो कभी पुर दर्द बन जाती है ! कुछ लोग ख़ुशो खुर्रम रहते हैं तो कुछ लोग रोते बिलखते जिन्दगी बसर करते हैं। इन बातों से मालूम होता है कि ज़िन्दगी में हमेशा नशेब व फ़राज़ आते रहते हैं।
लिहाज़ा समाजी ज़िन्दगी के लिए रुही ताक़त की ज़रूरत होती है ताकि उसकी मदद से मुश्किलों व दुशवारियों के सामने हमें आँख़े न झुकानी पड़े और मायूस होने व हार मानने के बजाए
,हम साबित क़दम रहकर उनका मुक़ाबेला करें और एक एक करके तमाम मुशकिलों का ख़ात्मा कर सकें।
यक़ीनन साबित क़दम रहने की आदत की बुनियाद घर के माहौल में रखी जाती है और माँ बाप अपने बच्चों में एतेमादे नफ़्स व सबाते क़दम पैदा करने के लिए माहौल बनाते हैं।
हमारा अक़ीदा है कि तमाम अच्छे इंसानों की तरक़्क़ी व बलंदी की इब्तेदा और तमाम बुरे लोगों की पस्ती की शुरुवात उनके घर के माहौल से होती है और वह उन कामों को घर से ही शुरू करते है।
दूसरे लफ़्ज़ों में यह कहा जा सकता है कि किसी भी इंसान की तरक़्क़ी व तनज़्ज़ुली उसकी ज़िन्दगी के माहौल से अलग नही हो सकती।
पेड़ चाहे जितना भी मज़बूत क्यों न हो उसकी यह ताक़त उसकी जड़ से जुदा नही हो सकती। क्योंकि ज़मीन की ताक़त ही इस पेड़ को मज़बूती अता करती हैं। लिहाज़ा घर के तरबियती माहौल की ज़िम्मेदारी है कि वह बच्चों के अन्दर सबाते क़दम का जज़बा पैदा करें। देहाती समाज में रहने वाले बच्चों में एतेमात और सबाते क़दमी ज़्यादा पाई जाती हैं। क्यों कि उस समाज में लड़कियाँ और लड़के बचपन से ही अपने माँ बाप के साथ सख़्त और मेहनत के काम करना सीख जाते हैं। उन्हीं कामों की वजह से उनके अन्दर धीरे - धीरे सबाते क़दमी का जज़बा परवान चढ़ता जाता है। शहरों में रहने वाले मालदार घरों के अक्सर बच्चों में हिम्मत व तख़लीक़ कम पाई जाती है
,क्योंकि वह अमली तौर पर मुश्किलों का सामना कम करते हैं। इस तरह के जवान ख़्वाब व ख़्याल में ज़िन्दगी गुज़ारते हैं और ज़िन्दगी की सच्चाई से बहुत कम वाक़िफ़ होते हैं। माँ बाप को चाहिए कि अपने बच्चों को धीरे धीरे ज़िन्दगी की सच्चाईयों से आगाह करायें और उन्हें ज़िन्दगी की हक़ीक़त यानी ग़रीबी व फ़क़ीरी और दूसरे तमाम मसाइल के बारे में भी बतायें। क्योंकि इस तरह के बच्चे जब समाजी ज़िन्दगी में क़दम रखते हैं तो सबाते क़दम के साथ मुशकिलों का सामना करते हैं और एक एक करके तमाम मुशकिलों से निजात हासिल कर लेते हैं।
जो एतेमाद
,मेहनत और कोशिश के ज़रिये हासिल होता है
,वह किसी दूसरी चीज़ से हासिल नही होता। ख़ुदा वंदे आलम ने इंसान को पैदा करने के बाद उसे उसके कामों में आज़ाद छोड़ कर उसकी पूरी शख़्सीयत को उनकी मेहनत व कोशिश से वाबस्ता कर दिया है।
ليس
للانسان
الا
ما
سعی
इंसान के लिये कुछ नही है
,मगर सिर्फ़ उसकी कोशिश व मेहनत की वजह से। लेकिन एक अहम नुक्ता यह है कि कभी ऐसा भी हो सकता है कि बच्चों की मेहनत व कोशिश के बावजूद उनके काम में कोई ख़ामी रह जाये। ऐसी सूरत में वह वालदैन अक़्लमंद समझे जाते हैं जो अपनी औलाद के मुस्तक़बिल की ख़ातिर इन ख़ामियों को मामूली व छोटा समझते हुए उन्हे नज़र अंदाज़ कर देते हैं और उनकी हिम्मत बढ़ाते हुए उनके अंदर जुरअत और कुछ करने के हौसले को ज़िन्दा रखते हैं।
गुनाहगार वालिदैन
बहुत से घराने ऐसे होते हैं जो अपनी जिहालत व नादानी की वजह से अपने बच्चों की बर्बादी के असबाब ख़ुद फ़राहम करते हैं। कुछ वालिदैन ऐसे भी होते हैं जो अपने बच्चों के शर्माने
,झिझकने
,हिचकिचाने
,कम बोलने
,तन्हा रहने
,बच्चों के साथ न ख़ेलने वगैरा को फ़ख्र की बात समझते हैं और उनको बहुत बाअदब बच्चों की शक्ल पेश करते हैं
,जबकि यह काम उनकी शख़्सियतों की कमज़ोरीयों को और बढ़ा देता हैं। वह इस बात से बेख़बर होते हैं कि शर्माने और झिझकने वाले लोग नार्मल नही होते
,क्योंकि शर्माने व घबराने वाले लोग आम इंसानों वाली आदतों से महरूम होते हैं। वह लोग यह सोचते हैं कि हम लोगों से दूर रह कर ख़ुद को एक अज़ीम इंसान की शक्ल में पहचनवा सकते हैं जबकि हक़ीक़त में उनके इस झूटे चेहरे के पीछे उनका कमज़ोर वुजूद होता है जो उन्हे इस बात पर उकसाता है।
हमें यह बात हमेशा याद रखनी चाहिये कि सही व सालिम बच्चे वह हैं जो अपना दिफ़ाअ करने की सलाहियत रखते हों और अगर उन पर ज़्यादतियाँ की जायें तो वह उनके आगें न झुकें और मन्तक़ी ग़ौरो फ़िक्र के साथ उन ज़्यादतियों का मुक़ाबला करें।
सालिम बच्चे वही हैं जो अपनी गुफ़तगू के ज़रिये अपने एहसास व अफ़कार को बयान कर सकें। यह बात भी याद रखनी चाहिये कि वही लोग समाजी ज़िन्दगी में नाकाम होते हैं जिनकी रूह कमज़ोर और बीमार होती है
,इसलिये कि बहादुर व ताकतवर इंसान हर तरह की मुश्किल से जम कर मुक़ाबला करते हैं और कामयाब होते हैं। जंगे जमल में हज़रत अली (अ) ने अपने फ़रज़न्द मुहम्मदे हनफ़िया से इस तरह फ़रमाया:
تزول
الجبال
و
لا
تزول
पहाड़ अपनी जगह छोड़ दें मगर तुम अपनी जगह से मत हिलना। यह हज़रत अली (अ) की तरफ़ से तरबीयत का एक नमूना है। यानी यह बाप की तरफ़ से अपने बेटे की वह तरबियत है
,जिसे हम तमाम मुसलमानों को नमूना ए अमल बनाना चाहिए ताकि अपने बच्चों की तरबीयत भी इसी तरह कर सकें।
तारीख़ में है कि जब तैमूर लंग ने अपने दुश्मनों से शिकस्त खा कर एक वीराने में पनाह ली तो उसने वहाँ यह मंज़र देखा कि एक चयूँटी गेंहू के एक दाने को अपने बिल तक पहुचाने की कोशिश कर रही है
,मगर जैसे ही वह उस तक पहुचती है
,दाना नीचे जमीन पर गिर जाता है। तैमूर कहता है कि मैने देखा कि 65वी बार वह कीड़ा अपने मक़सद में कामयाब हुआ और उसने उस दाने को घोसलें में पहुचाँया। तैमूर कहता है कि इस चीज़ ने मेरी आँखे खोल दीं और मैं शर्मीदा होकर पुख़्ता इरादे के साथ फिर से उठ खड़ा हुआ और अपने दुश्मनों के ख़िलाफ़ जंग की और आख़िरकार उन्हे हरा कर ही दम लिया।
सब्र व तहम्मुल
رَبَّنَا
أَفْرِغْ
عَلَيْنَا
صَبْرًا
पालने वाले हमें सब्र अता फ़रमा।
सूरः ए बक़रा आयत 250
ख़ुदावंदे आलम ने क़ुरआने मजीद में इस नुक्ते की दो बार तकरार की है कि
ان
مع
العسر
يسری
आराम व सुकून दुशवारी व सख़्ती के साथ है। दक़ीक़ मुतालए से मालूम होता है कि निज़ामे ज़िन्दगी बुनियादी तौर पर इसी वाक़ेईयत पर चल रहा है। लिहाज़ा हर शख़्स चाहे वह मामूली सलाहियत वाला हो या ग़ैर मामूली सलाहियत वाला
,अगर वह अपने लिए कामयाबी के रास्ते खोलना चाहता है और अपने वुजूद से फ़ायदा उठाना चाहता है तो उसे चाहिये कि निज़ामे ख़िलक़त की हक़ीक़त को समझते हुए अपने कामों में सब्र व इस्तेक़ामत से काम ले और हक़ीक़त बीनी व तदबीर से ख़ुद को आरास्ता करे।
बड़े काम
,कभी भी चन्द लम्हों में पूरे नही होते
,बल्कि उनकी प्लानिंग व नक़्क़ाशी में वक़्त और ताक़त सर्फ़ करने के अलावा सब्र व इस्तेक़ामत की भी ज़रूरत होती है। क्योंकि इंसान मुश्किलों व सख़्तियों से गुज़ार कर ही कामयाबी हासिल करता है।
इसमें कोई शक व शुब्हा नही है कि कुछ लोग ज़िन्दगी की राह में कामयाब हो जाते हैं और कुछ नाकाम रह जाते हैं। बुनियादी तौर पर कामयाब व नाकाम लोगों के दरमियान मुमकिन है बहुत से फ़र्क़ पाये जाते हों और उनकी कामयाबी व नाकामी की बहुतसी इल्लतें हो मगर कामयाबियों का एक अहम सबब
,सख़्तियों और परेशानियों का सब्र व इस्तेक़ामत के साथ सामना करना है।
मामूली से ग़ौरो फ़िक्र से यह बात वाज़ेह हो जाती है कि अगर इस दुनिया के निज़ाम में सख़्तियाँ व मुश्किलें न होती तो इंसानों की सलाहियतें हरगिज़ ज़ाहिर न हो पातीं और यह सलाहियतें सिर्फ़ क़ुव्वत की हद तक ही महदूद रह जाती अमली न हो पातीं।
देहाती नौजवानों में ख़ुदकुशी का वुजूद नही है। क्योंकि बचपन से ही उनकी ज़िन्दगी ऐसे माहौल में गुज़रती है कि वह मुश्किलों के आदी हो जाते हैं। लड़कियों को दूर से पानी भर कर लाना पड़ता है
,लड़के जानवरों को चराने के लिए जंगलों ले जाते हैं। वह माँ बाप की ख़िदमत के लिये खेतों और बाग़ों में अपना पसीना बहाते हैं। लेकिन चूँकि शहरी नौजवान ऐशो व आराम की ज़िन्दगी में पलते बढ़ते है
,लिहाज़ा जब किसी मुश्किल में दोचार होते हैं तो ज़िन्दगी से तंग आकर ख़ुदकुशी कर लेते हैं।
इससे मालूम होता है कि इंसान सख़्तियों और दुशवारी का जितना ज़्यादा सामना करता है उसकी रुहानी व जिस्मानी ताक़त उतनी ही ज़्यादा परवरिश पाती है।
हम सभी ने टेलीवीज़न पर रिलीज़ होने वाली फ़िल्मों में देखा हैं कि अस्कीमों (बर्फ़िले इलाक़ो में रहने वाले लोग) में मायूसी व नाउम्मीदी नही पाई जाती। बल्कि उनका ख़ुश व ख़ुर्रम व खिला हुआ चेहरा
,ज़िन्दगी की तमाम मुश्किलों का दन्दान शिकन जवाब हैं। क्या आप जानते हैं कि उनकी इस ख़ुशी की क्या वजह है
?इसकी वजह यह है चूँकि उनकी ज़िन्दगी में दूसरी तमाम जगहों से ज़्यादा मुश्किलें है लिहाज़ा उनमें मुशकिलों से टकराने की ताक़त भी दूसरों से बहुत ज़्यादा होती है। हालाँकि मुश्किलों का मुक़ाबला करने की ताक़त हर इंसान को अता की गयी है और हर इंसान की ज़िम्मेदारी है कि मुश्किलों के मुक़ाबले के लिये ख़ुद को तैयार रखे और मुशकिलों के वक़्त उस क़ुव्वत व ताक़त को इस्तेमाल में लाये जो ख़ुदावंदे आलम ने हर इंसान के वुजूद में वदीयत की है और उसके ज़रिये मुशकिलों का मुक़ाबला करके कामयाबी हासिल करे।