हुस्ने अख़लाक़
فَبِمَا
رَحْمَةٍ
مِّنَ
اللّهِ
لِنتَ
لَهُمْ
وَلَوْ
كُنتَ
فَظًّا
غَلِيظَ
الْقَلْبِ
لاَنفَضُّواْ
مِنْ
حَوْلِكَ
सूरः ए आलि इमरान आयतन. 159 तर्जुमाः -
यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की कामयाबी का राज़ आपके नम्र मिज़ाज को मानती है। इसी वजह से कहा गया है कि अगर आप सख़्त मिज़ाज होते तो लोग आपके पास से भाग जाते। इस बुनियाद पर यह आयत
,समाजी ज़िन्दगी में इंसान की कामयाबी का राज़
,हुस्ने अख़लाक़ को मानती है।
बेशक पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के पास बहुत से मोजज़े व ग़ैबी इमदाद थी
,लोकिन जिस चीज़ ने समाजी ज़िन्दगी में आपकी कामयाबी के रास्ते को हमवार किया वह आपका हुस्ने अख़लाक़ ही था। बस अगर कोई इंसान समाज के दूसरों अफ़राद को अपनी तरफ़ मुतवज्जे करके उनकी नज़रो का मरकज़ बनना चाहता हो तो उसे हुस्ने अख़लाक़ से काम लेना चाहिए। इसी के साथ यह हक़ीक़त भी वाज़ेह करते चलें कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) तमाम ख़ुदा दाद कमालात
,किताब व मोजज़ात के बावजूद
,अगर सख़्त मिज़ाज होते तो लोग उनके पास से भाग जाते। इससे यह बात भी आशकार हो जाती है कि अगर कोई इंसान इल्म व अक़्ल की तमाम फ़ज़ीलतों से आरास्ता हो लेकिन हुस्ने अख़लाक़ से मुज़य्यन न हो तो वह समाजी ज़िन्दगी में कामयाब नही हो सकता
,क्योंकि समाज ऐसे इंसान को क़बूल नही करता। लिहाज़ा मानना पड़ेगा कि समाजी ज़िन्दगी में मक़बूल होने का राज़ हुस्ने अख़लाक़ ही है। एक मक़ाम पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने इस बात की वज़ाहत करते हुए फ़रमाया कि तुम अपने माल व दौलत के ज़रिये हरगिज़ लोगों के दिलों को अपनी तरफ़ मायल नही कर सकते
,लेकिन हुस्ने अख़लाक़ के ज़रिये उनको अपनी तरफ़ मुतवज्जे कर सकते हो।
इस से यह साबित होता है कि लोगों के दिलों को न इल्मी फ़ज़ाइल से जीता जा सकता है और न मालो दौलत के ज़रिये
,बल्कि सिर्फ़ अच्छा अख़लाक़ है जो लोगों को अपनी तरफ़ जज़्ब करता है। तमाम नबियों का आख़िरी हदफ़ और ख़सूसन पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का बुनियादी मक़सद हुस्ने अख़लाक़ था। क्योंकि आपने ख़ुद फ़रमाया है :
بعثت
لاتمم
مكارم
الاخلاق
मैं इस लिए मबऊस किया गया हूँ ताकि अख़लाक़ को कमाल तक पहुँचाऊँ। इससे साबित होता है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का मक़सद सीधे सादे अख़लाक़ी मसाइल नही थे
,बल्कि वह इंसानी अख़लाक़ के सबसे बलन्द दर्जों को पूरा करने के लिए तशरीफ़ लाये थे।
नेपोलियन का दावा था कि जंग के मैदान में जिस्मानी ताक़त के मुक़ाबेले में रूहानी ताक़त असर अन्दाज़ होती है यानी रूहानी व मअनवी ताक़त के अमल का मुवाज़ेना जंगी साज़ व सामान से नही हो सकता।
मुख़तलिफ़ क़ौमों पर तहक़ीक़ करने से यह बात सामने आती है कि किसी भी क़ौम की तहज़ीब व ताक़त
,उस क़ौम के आदाब व अख़लाक़ से वाबस्ता होती है।
समाजी ज़िन्दगी में हर इंसान अपने शख़्सी फ़ायदों की तरफ़ दौड़ता है और हर इंसान का अपने फ़ायदे की तरफ़ दौड़ना एक फ़ितरी चीज़ है। इसी बिना पर यह तबीई रुजहान हर इंसान में पाया जाता है और अपनी ज़ात से मुब्बत की बिना पर हर इंसान अपनी पूरी ताक़त के साथ अपने नफ़े को तलाश करता है।
इंसान के अन्दर बलन्दी
,कमाल व अख़लाक़ का पाया जाना ही इंसानियत है। इस सिफ़त के पैदा होने से इंसान हैवानी तबीअत से बाहर निकलता है और इससे इंसान में बलन्दी पैदा होती है
,जो इंसान को समाज में मुनफ़रिद बना देती है। लिहाज़ा अगर हम लोगों के दिलों में अपना ऊँचा मक़ाम बनाना चाहते हैं तो पहले हमें इंसान बनना पड़ेगा और अपने अन्दर ईसार
,कुर्बानी व इंसानी ख़िदमत का शौक़ व जज़्बा पैदा करना होगा। इस तरह से लोगों ने हैवानी ज़िन्दगी से आगे क़दम बढ़ा कर इंसानी ज़िन्दगी के आख़िरी कमाल को हासिल किया हैं।
इंसाने हक़ीक़ी की बहुत सी निशानियाँ है लेकिन उनमें से सबसे अहम निशानी उसका अपने मातहत लोगों के साथ बरताव है। अगर वह कोई फौजी अफ़सर है तो अपने सिपाहियों से नरमी के साथ
,अगर मोअल्लिम है तो अपने शागिर्दों से मुहब्बत से और अगर अफ़सर है तो अपने साथियों से अद्ल व इन्साफ़ से पेश आता है। हाँ जो दूसरों के साथ प्यार मुहब्बत का बरताव करे
,अद्ल व इन्साफ़ से काम ले
,क़ुरबानियाँ दे और दूसरों की ग़लतियों को माफ़ और नज़र अन्दाज़ करे तो वह इंसान नमूना बन जायेगा और सबको अपनी तरफ़ जज़्ब करेगा।
हाँ! हुस्ने अख़लाक़ यही है कि इंसान अपनी ज़ात में ख़ुद पसन्दी
,जाह तलबी
,कीना और हसद जैसे रज़ाइल को न पनपने दे।
समाज़ उन्हीं अफ़राद से मुहब्बत करता है जिनमें ईसार व क़ुरबानी का जज़्बा पाया जाता है। एक मुल्क में एक नदी में बाढ़ आई जिससे उस पर बना पुल टूट गया। फ़कत उसका एक हिस्सा बाक़ी रह गया जिस पर एक ग़रीब फ़क़ीर घराने का ठिकाना था। सबको मालूम था कि यह हिस्सा भी जल्दी ही डूबने वाला है
,इस लिए एक मालदार आदमी ने कहा कि जो इस गरीब घराने की जान बचायेगा मैं उसे एक बड़ी रक़म दूंगा। रिआया में से एक सादा लोह इंसान इस काम को अंजाम देने के लिए उठा और उसने एक छूटी सी क़िश्ती दरिया की मौजों के दरमियान डाल दी और बहुत ज़्यादा मेहनत व कोशिश से उस ग़रीब घराने की जान बचाई। जब वह मालदार आदमी उसे रक़म देने लगा तो उसने वह रक़म लेने से इन्कार कर दिया और कहा कि मैंने यह काम पैसों के लिए नही किया
,क्योंकि पैसों के लिए अपनी जान को ख़तरों में डालना अक़्लमन्दी नही है
,बल्कि मैंने यह ख़तरनाक काम अपने इंसान दोस्ती और कुरबानी के जज़्बे के तहत अंजाम दिया है।
मैं यह चाहता हूँ कि यह रक़म इसी ग़रीब घराने के हवाले कर दी जाये। उस मालदार इंसान का कहना है कि मैं उस इंसान की रूह की अज़मत के सामने अपने अपको बहुत छोटा महसूस कर रहा था और फ़रावान माल व दौलत के होते हुए अपने आपको हक़ीर समझ रहा था।
कोई भी चीज़ अच्छे अख़लाक़ से ज़्यादा वाजिब नही है
,हुस्ने अख़लाक़ उलूम व फ़नून से से ज़्यादा ज़रूरी है। हुस्ने अख़लाक़ कामयाबी व कामरानी का सबसे मोस्सिर आमिल है। किसी भी इंसान की कोई भी बलन्दी हुस्ने अख़लाक़ की बराबरी नही कर सकती।
कस्बे रोज़ी
हदीस
अन अबी उमर
,क़ाला : क़ाला रसूलुल्लाहि(स.):लैसा शैउन तुबाइदुकुम मिन्नारि इल्ला व क़द ज़करतुहु लकुम व ला शैउन युक़र्रिबुकुम मिनल जन्नति इल्ला व क़द दलल्तुकुम अलैहि इन्ना रूहल क़ुदुस नफ़सा रवई अन्नहु लन यमूता अब्दुन मिन कुम हत्ता यस्तकमिला रिज़्कहु
,फ़अजमिलु फ़ीत्तलबि फ़ला यहमिलन्नाकुम इस्तिबताउ अर्रिज़क़ि अला अन ततलुबु शैयन मिन फ़ज़लिल्लाहि बिमअसियतिहि
,फ़इन्नहु लन युनाला मा इन्दलल्लाहि इल्ला बिताअतिहि अला व इन्ना लिकुल्लि अमरा रिज़्क़न हुवा यातिहि ला महालता फ़मन रज़िया बिहि बुरका लहु फ़ीहि व वस्सिअहु व मन लम यरज़ा बिहि लम युबारका लहु फ़ीहि व लम यसअहु
,इन्नर रिज़्क़ा लयतलुबु अर्रजुला कमा यतलुबुहु अजलुहु।[1]
तर्जमा
इब्ने उमर से रिवायत है कि पैगम्बर (स.) ने फ़रमाया कि जो चीज़ तुमको जहन्नम की आग से दूर रखेगी वह मैंनें बयान कर दी हैं
,और जो चीज़े तुमको जन्नत से नज़दीक करेंगी उनकी भी तशरीह कर दी है और किसी भी चीज़ को फ़रामोश नही किया है। मेरे ऊपर
“वही
”
नाज़िल हुई है कि कोई भी उस वक़्त तक नही मरता जब तक उसकी रोज़ी पूरी न हो जाये। बस तुम तलबे रोज़ी में एतेदाल की रियाअत करो। ख़ुदा न करे कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी रोज़ी की कुन्दी ( कमी और पिछड़ापन) तुमको इस बात पर मजबूर न करदे कि तुम उसको हासिल करने के लिए गुनाह के मुरतकिब हो जाओ। क्योंकि कोई भी अल्लाह की फ़रमा बरदारी के बग़ैर उसके पास मौजूद नेअमतों को हासिल नही सकता। और जानलो कि जिसके किस्मत में जो रोज़ी है वह उसको हर हालत में हासिल होगी। बस जो अपनी रोज़ी पर क़ानेअ होता है उसका रिज़्क पुर बरकत और ज़्यादा हो जाता है। और जो अपनी रोज़ी पर क़ाने और राज़ी नही होता उसके रिज़्क़ मे बरकत और ज़्यादती नही होती। रिज़्क़ उसी तरह इंसान की तलाश में आता है जिस तरह मौत इंसान की तलाश में आती है।
तफ़्सीर
हज़रत रसूले ख़ुदा फ़रमाते हैं कि : मैं तुमको क़ौल और फेअल के ज़रिये हर उस चीज़ से रोकता हूँ जो तुमको जन्नत से दूर करने वाली है। और तुमको हर उस चीज़ का हुक्म देता हूँ जो तुमको जन्नत से करीब और जहन्नम से दूर करने वाली है। इस हदीस का फ़ायदा यह है कि हमको हमेशा इस्लामी अहकाम को जारीयो सारी करने के लिए कोशिश करनी चाहिए । और यह हिसाब हमको अहले सुन्नत से - जो कि मोतक़िद हैं कि जहाँ पर नस नही है वहाँ पर हुक्म भी नही है - जुदा करता है। इसी दलील से अहले सुन्नत फ़कीहों को यह हक़ देते हैं कि वह क़ानून बनायें क़ियास करें और इस्तेहसान व मसालहे मुरसला को जारी करें। ऐसा मज़हब जो आधा अल्लाह और मासूमीन के हाथ में हो और आधा आम लोगों के हाथों में वह उस मज़हब से बहुत ज़्यादा मुताफ़ावित होगा जो कामिल तौर पर अल्लाह और मासूमीन की तरफ़ से हो। अलबत्ता आयते
“अलयौम अकमलतु लकुम दीनाकुम
” (आज हमने तुम्हारे दीन को कामिल कर दिया) से भी यही ज़ाहिर होता है। चूँकि दीन अक़ाइद
,क़वानीन और अखलाक़ियात के मजमुए का नाम है। हदीस हमको यह नज़रिया देती है कि एक मुजतहिद की हैसियत से इसतम्बात करें न यह कि तशरीअ करे।
यहाँ पर चन्द बातों का ज़िक्र ज़रूरी है।
1-कुछ सुस्त और बेहाल लोग
“व मा मिन दाब्बति फ़िल अर्ज़ि इल्ला अला अल्लाहि रिज़्क़ुहा
” (ज़मीन पर कोई हरकत करने वाला ऐसा नही है जिसके रिज़्क़ का ज़िम्मा अल्लाह पर न हो।) जैसी ताबीरात और उन रिवायात पर तकिया करते हुए जिनमें रोज़ी को मुक़द्दर और मुऐयन बताया गया है यह सोचते हैं कि इंसान के लिए ज़रूरी नही है कि वह रोज़ी को तहिय्या करने के लिए बहुत ज़्यादा कोशिश करे। क्योंकि रोज़ी मुक़द्दर है और हर हालत में इंसान को हासिल होगी और कोई भी दहन रोज़ी के बग़ैर नही रहेगा।
इस तरह के नादान लोग दीन को पहचान ने में बहुत ज़्यादा सुस्त और कमज़ोर हैं। ऐसे अफ़राद दुशमन को यह कहने का मौक़ा देते हैं कि मज़हब वह आमिल है जो इक़्तेसादी रकूद
,जिन्दगी की मसबत फ़आलियत की ख़मौशी और बहुत सी चीज़ो से महरूमियत को वजूद में लाता है। इस उज़्र के साथ कि अगर फलाँ चीज़ मुझको हासिल नही हुई तो वह हतमन मेरी रोज़ी नही थी। अगर वह मेरी रोज़ी होती तो किसी चूनों चरा के बग़ैर मुझे मिल जाती। इससे इस्तसमारगरान (वह बरबाद करने वाले अफ़राद जो अपने आपको इस्तेअमार यानी आबाद करने वाले कहते हैं) को यह मोक़ा देते हैं कि वह महरूम लोगों को को और ज़्यादा दूहें और उनको ज़िन्दगी के इब्तेदाई वसाइल से भी महरूम कर दें। जबकि क़ुरआन व इस्लामी अहादीस से थोड़ी सी आशनाई भी इस हक़ीक़त को समझ ने के लिए काफ़ी है कि इस्लाम ने इंसान के माद्दी व माअनवी फ़यदे हासिल करने की बुनियाद कोशिश को माना है। यहाँ तक कि नारे की मानिंद क़ुरआन की यह आयत
“लैसा लिल इंसानि इल्ला मा सआ
”भी इंसान की बहरामन्दी के
,कोशिश में मुनहसिर होने का ऐलान कर रही है।
इस्लाम के रहबर भी दूसरों को तरबीयत देने के लिए बहुत से मौक़ो पर काम करते थे
;थका देने वाले और सख़्त काम।
गुज़िश्ता पैगम्बरान भी इस क़ानून से मुस्तस्ना नही थे
;वह भेड़ें चराने
,कपड़े सीने
,जिरह बुनने और खेती करने से भी नही बचते थे। अगर अल्लाह की तरफ़ से रोज़ी की ज़मानत का मफ़हूम घर में बैठना और रोज़ी के उतरने का इंतेज़ार होता तो अम्बिया व आइम्मा - जो कि दीनी मफ़ाहीम को सबसे ज़्यादा जानते हैं - रोज़ी को हासिल करने के लिए यह सब काम क्यों अंजाम देते।
इसी बिना पर हम कहते हैं कि हर इंसान की रोज़ी मुक़द्दर है मगर इस शर्त के साथ कि उसको हासिल करने के लिए कोशिश की जाये। क्योंकि कोशिश शर्त और रोज़ी मशरूत है लिहाज़ा शर्त के बग़ैर मशरूत हासिल नही होगा। यह बिल्कुल इसी तरह है जैसे हम कहते हैं कि
“सब के लिए मौत है और हर एक के लिए उम्र की मिक़दार मुऐयन है।
”
इस जुम्ले का मफ़हूम यह नही है कि अगर इंसान ख़ुदकुशी करे या ज़रर पहुँचाने वाली चीज़ों को खाये तब भी अपनी मुऐयन उम्र तक ज़िन्दा रहेगा। बल्कि इसका मफ़हूम यह है कि यह बदन मुऐयन मुद्दत तक बाक़ी रहने की सलाहियत रखता है इस शर्त के साथ कि इसके हिफ़ाज़त के उसूलों की रिआयत की जाये
,खतरे के मवारिद से परहेज़ किया जाये और उन असबाब अपने आपको दूर रखे जिन की वजह से मौत जल्द वाक़ेअ हो जाती है।
अहम बात यह है कि वह आयात व रिवायात जो रोज़ी के मुऐयन होने से मरबूत हैं वह हक़ीक़तन लालची और दुनिया परस्त अफ़राद की फ़िक्रों के ऊपर लगाम है। क्योंकि वह अपनी ज़िन्दगी के वसाइल फ़राहम करने के लिए सब कुच्छ कर गुज़रते है और हर तरह के ज़ुल्मो सितम के मुरतकिब हो जाते हैं
,इस गुमान में कि अगर वह ऐसा नही करेंगे तो उनकी ज़िन्दगी के वसाइल फ़रहम नही होंगे।
यह कैसे मुमकिन है कि जब इंसान बड़ा हो जाये और हर तरह के काम करने की ताकत हासिल कर ले तो अल्लाह उसको भूल जाये। क्या अक़्ल और ईमान इस बात की इजाज़त देते हैं कि इंसान ऐसी हालत में यह गुमान करते हुए कि मुमकिन है कि उसकी रोज़ी फ़राहम न हो गुनाह
,जुल्मो सितम
,दूसरों के हक़ूक़ की पामाली के मैदान में क़दम रखे लालच में आकर मुस्तज़अफ़ीन के हक़ूक़ को ग़स्ब करे
?
अलबत्ता इस बात से इंकार नही किया जा सकता कि बाअज़ रोज़ी ऐसी हैं कि चाहे इंसान उनके लिए कोशिश करे या न करे उसको हासिल हो जाती हैं।
क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि सूरज की रौशनी हमारी कोशिश के बग़ैर हमारे घर में फैलती है या हवा और बारिश हमारी कोशिश के बग़ैर हमको हासिल हो जाती है
?क्या इस से इंकार किया जा सकता है कि अक़्ल
,होश और इस्तेदाद जो रोज़े अव्वल से हमारे वजूद में ज़ख़ीरा थी हमारी कोशिश से नही है
?
इसका भी इंकार नही किया जा सकता कि कभी कभी ऐसा होता हैं कि इंसान किसी चीज़ को हासिल करने की कोशिश नही करता
,मगर इत्तेफ़ाक़ी तौर पर वह उसको हासिल हो जाती है। अगरचे ऐसे हादसात हमारी नज़र में इत्तेफ़ाक़ हैं लेकिन वाक़िअत में और ख़ालिक़ की नज़रों में इस में एक हिसाब है। इसमें कोई शक नही है कि इस तरह की रोज़ी का हिसाब उन रोज़ीयों से जुदा है जो कोशिश के नतीजे में हासिल होती हैं।
लेकिन इस तरह की रोज़ी जिसको को इस्तलाह मे हवा में उड़ के आई हुई
,या इस से भी बेहतर ताबीर मे वह रोज़ी जो किसी मेहनत के बग़ैर हमको लुत्फ़े इलाही से हासिल होती हैं
,अगर उसकी सही तरह से हिफ़ाज़त न की जाये तो वह हमारे हाथों से निकल जायेंगी या बेअसर हो जायेंगी।
नहजुल बलाग़ा के खत न.31 में हज़रत अली अलैहिस्सलाम का एक मशहूर क़ौल है जो आपने अपने बेटे इमाम हसन अलैहिस्सलाम को लिखा फरमाते हैं कि
“व एलम या बुनय्या इन्ना अर्रिज़क़ा रिज़क़ानि रिज़क़ुन ततलुबाहु व रिज़क़ु यतलुबुका।
”
“ऐ मेरे बेटे जान लो कि रिज़्क़ की दो क़िस्में हैं एक वह रिज़्क़ जिसको तुम तलाश करते हो और दूसरा वह रिज़्क़ जो तुमको तलाश करता है।
”
यह क़ौल भी इली हक़ीक़त की तरफ़ इशारा करता है।
बहर हाल बुनियादी नुक्ता यह है कि इस्लाम की तमाम तालीमात हमको यह बताती हैं कि अपनी ज़िन्दगी को बोहतर बनाने के लिये चाहे- वह माद्दी जिन्दगी हो या माअनवी जिन्दगी- हमको बहुत ज़्यादा मेहनत करनी चाहिये। और यह ख़याल करते हुए कि रिज़्क़ तो अल्लाह की तरफ़ से तक़सीम होता ही है
,काम न करना ग़लत है। (तफ़सीरे नमूना जिल्द 9/20)
2-हम सब तालिबे इल्मों को यह सबक़ देती है कि इस बात पर ईमान रख़ना चाहिए कि अल्ला अहले इल्म अफ़राद की रोज़ी का बन्दुबस्त करता है। क्योंकि अगर अहले इल्म अफ़राद माल जमा करने में लग जायेंगे तो दो बड़े ख़तरों से रू बरू होना पड़ेगा।
क- क्योंकि अवाम आलिमों के ख़त (राह) पर चलती है
,लिहाज़ा इनको दूसरों के लिए नमूना होना चाहिए । अगर आलिम दुनिया कमाने में लग जायेंगे तो फ़िर यह दूसरों के लिए नमूना नही बन सकते।
ख- वह माल जो आलिमों के अलावा दूसरे लोग जमा करते हैं वह मज़हब को नुक़्सान नही पहुँचाता। लेकिन अगर आलिम हक़ और ना हक़ की तमीज़ किये बिना मुख़तलिफ़ तरीक़ों से माल जमा करेंगे तो यह मज़हब के लिए नुक़्सान देह होगा। वाक़ेयन यह हसरत का सामान है।
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[1]बिहारुल अनवार जिल्द 77/185
हर चीज़ के रीशे (जड़) तक पहुँचना चाहिए
मुक़द्दमा
इमामे हादी वह इमाम हैं जिन्होंने बहुत ज़्यादा सख्ती और महासरे में ज़िन्दगी बसर की। हज़रत को शियों से जुदा करके
“अस्कर
”
नामी एक फ़ौजी इलाक़े में रखा गया था जिसकी वजह से आपकी ज़्यादातर अहादीस हमारी तरफ़ मुन्तक़िल न हो सकी।
बनी उमैय्या और बनी अब्बास का एक बड़ा जुर्म यह है कि उन्होंने अहलेबैत (अ.) और लोगों के दरमियान राब्ते को क़तअ कर दिया था। अगर लोगों का राब्ता अहलैबैत (अ.) से क़तअ न होता तो आज हमारे पास इन अज़ीम शख्सियतों के अक़वाल की बहुत सी किताबें मौजूद होती। हमें देखते हैं कि इमामे बाक़िर (अ.) और इमामे सादिक़ (अ.) के दौर में जो थोड़ासा वक़्त मिला उसमें बहुत ज़्यादा इल्मी काम हुआ। लेकिन बाद में यानी इमाम मूसा काज़िम (अ.) के ज़माने से फिर महदूदियत का सामना शुरू हो गया। बहर हाल इमाम हादी (अ.) के कम ही सही कुछ कलमाते क़िसार हम तक पहुँचे हैं और आज मुनसेबत की वजह से आपका एक कलमाए क़िसार नक़्ल कर रहा हूँ।
मतने हदीस
—
ख़ैरुम मिनल ख़ैरि फ़ाइलुहु व अजमल मिनल जमीले क़ाइलुहु व अरजिह मिनल इल्मि हामिलुहु व शर्रुम मिनश शर्रि जालिबुहु व अहवलु मिनल हौले राकिबुहु।
तर्जमा--- नेक काम से ज़्यादा अच्छा वह शख़्स है जो नेक काम अन्जाम देता है। और अच्छाई से ज़्यादा अच्छा
,अच्छाई का कहने वाला है। और इल्म से बा फ़ज़ीलत आलिम है। और शर्र को अन्जाम देने वाला शर्र से भी बुरा है। और वहशत से ज़्यादा वहशतनाक वहशत फ़ैलाने वाला है।
शरह व तफ़सीर
इमाम (अ.) इन पाचों जुम्लों में बहुत अहम नुकात की तरफ़ इशारा फ़रमा रहे हैं। इन पाँच जुम्लों के क्या मअना हैं जिनमें से तीन जुम्ले नेकी के बारे में और दो जुम्ले शर्र के बारे में हैं। हक़ीक़त यह है कि इमाम (अ.) एक बुनियादी चीज़ की तरफ़ इशारा फ़रमा रहे हैं और वह यह है कि हमेशा हर चीज़ की असली इल्लत तक पहुँचना चाहिए। अगर नेकियों फैलाना
,और अच्छाईयों को आम करना चाहते हो तो पहले नेकियों के सरचश्में तक पहुँचो इसी तरह अगर बुराईयों को रोकना चाहते हो तो पहले बुराईयों की जड़ को तलाश करो। नेकी और बदी से ज़्यादा अहम इन दोने के अंजाम देने वाले हैं। समाज में हमेशा एक अहम मुशकिल रही है और अब भी है और वह यह है कि जब लोग किसी बुराई का मुक़ाबला करना चाहतें हैं तो उन में से बहुतसे अफ़राद सिर्फ़ मालूल को देखते हैं मगर उसकी इल्लत को तलाश करने की कोशिश नही करते जिसकी वजह वह कामयाब नही हो पाते। वह एक को ख़त्म करते है दूसरा उसकी जगह पर आ जाता है वह दूसरे को ख़त्म करते हैं तो तीसरा उसकी जगह ले लेता है आख़िर ऐसा क्यों
?ऐसा इस लिए होता है क्योंकि वह इल्लत को छोड़ कर मालूल को तलाश करते हैं। मैं एक सादीसी मिसाल बयान करता हूँ कुछ अफ़राद ऐसे हैं जिनके चेहरों पर मुहासे निकल आते है। या फिर कुछ अफ़राद के बदन की जिल्द पर फुँसियाँ निकल आती है। इस हालत में कुछ लोग मरहम का इस्तेमाल करते हैं ताकि यह मुहासे या फ़ुँसियाँ ख़्तम हो जायें। मगर कुछ लोग इस हालत में इस बात पर ग़ौर करते हैं कि बदन की जिल्द का ताल्लुक़ बदन के अन्दर के निज़ाम से हैं लिहाज़ा इस इंसान के जिगर में जरूर कोई ख़राबी वाक़ेअ हुई है जिसकी वजह से यह दाने या फ़ुँसिया जिल्द पर ज़ाहिर हुए हैं। बदन की जिल्द एक ऐसा सफह है जो इंसान के जिगर के अमल को ज़ाहिर करता है । मरहम वक़्ती तौर पर आराम करता है लेकिन अगर असली इल्लत ख़त्म न हो तो यह मुहासे या फुँसियाँ दोबारा निकल आते है। इस लिए अगर इंसान वक्ती तौर पर दर्द को ख़त्म करने के लिए किसी मुसक्किन दवा का इस्तेमाल करे तो सही है मगर साथ साथ यह भी चाहिए कि उसकी असली इल्लत को भी जाने।
आज हमारे समाज के सामने दो अहम मनुश्किलें हैं जो हर रोज़ बढ़ती ही जा रही हैं। इनमें से एक मनशियात और दूसरी जिन्सी मुश्किल हैं। मंशियात के इस्तेमाल के सिलसिले में सरहे सिन बहुत नीची हो गई है कम उम्र बच्चे भी मंशियात का इस्तेमाल कर रहे हैं। एक इत्तला के मुताबिक सरहद के एक शहर में 150 ऐसी ख़ावातीन के बारे में पता चला है जो मंशियात का इस्तेमाल करती हैं जबकि यह कहा जाता है कि आम तौर पर ख़वातीन मंशियात की लत में नही पड़ती हैं। लेकिन कुछ असबाब की बिना पर मंशियात की लत बच्चों
,जवानों
,नौजवानो और ज़नान में भी फैल गई है। इस बुराई से मुक़ाबला करने का एक तरीक़ा तो यह है कि हम नशा करने वाले अफ़राद को पकड़े और मंशियात के इसमंगलरों को फासी पर लटकाऐं । यह एक तरीक़ा है और इस पर अमल भी होना चाहिए। मगर यह इस मुश्किल का असासी हल नही है। बल्कि हमें यह देखना चाहिए कि मंशियात के इस्तेमाल की असली वजह क्या है
,क्या यह बेकारी
,बेदीनी या अदबी तालीम के फ़ुक़दान की वजह से है या इसके पीछे उन ग़ैर लोगों का हाथ है जो यह कहते हैं कि अगर यह जवान मंशियात में मुबतला हो जायें तो इस मुल्क में नफ़ूज़ पैदा करने में जो एक अहम चीज़ माने है व ख़त्म हो जायेगी। हमें तारीख़ को नही भूलना चाहिए जब अंग्रेज़ों ने चीन पर तसल्लुत जमाना चाहा तो उन्होंने यह कोशिश की कि चीनियों के दरमियान अफ़ीम को रिवाज दिया जाये। चीनी इस बात को समझ गये और अंग्रेज़ों के खिलाफ़ उठ खड़े हुए। अंग्रेज़ों ने फ़ौजी ताक़त के बल बूते पर अफ़ीम को चीन में वारिद कर दिया और तारीख़ में यह वाकिया जंगे अफ़ीम के नाम से मशहूर हो गया। और उन्होंने चीन में अफ़ीम को दाखिल करके वहाँ के लोगों को अफ़ीम के जाल में फसा दिया और जब किसी मिल्लत के जवान नशे के जाल में फस जाते हैं तो फिर वह मिल्लत दुशमन का सामना नही कर पाती। उसी वक़्त से अंग्रेज़ों ने इस अफ़ीमी जंग की बुनियाद डाली और अब भी दूसरी शक्लों में इससे काम लिया जा रहा है। जब अमरीकियों ने अफ़ग़ानिस्तान पर अपना तसल्लुत जमाया तो यह समझा जा रहा था कि वह अपने नारों के मुताबिक़ मंशियात को जड़ से उख़ाड़ फेकेंगे। जबकि अब यह कहा जा रहा है कि मंशियात की खेती और ज़्यादा बढ़ गयी है। उनके हक़ूक़े बशर और फ़िसाद व मंशियात से मक़ाबले के तमाम नारे झूटे हैं। वह तो फ़क़त अपने नफ़े और नफ़ूज़ के पीछे हैं चाहे पूरी दुनिया ही क्यों न नाबूद हो जाये।
हर चीज़ के रीशे को तलाश करना चाहिए
,इन जवानों को आगाह करना चाहिए
,सबसे अहम आमिल मज़हब है एक मज़हबी बच्चा नशा नही करता जब ला मज़हब हो जायेगा तो नशा करेगा।
दूसरा मसला बेकारी है
,जब बेकारी फैलती है तो लोग देखते हैं कि इस काम में (मंशियात की खरीदो फ़रोश) आमदनी अच्छी है तो इस काम की तलाश में निकलते हैं। और इस तरह बेकार आदमी इस जाल में फस जाते हैं। बस अगर हम इनकी फ़िक्र न करें
,अगर दुशमन के प्रचार की फ़िक्र न करे तो फिर किस तरह मुक़ाबला कर सकते हैं बस हमें चाहिए कि हम इन अल्लतों को तलाश करें। सिर्फ़ मालूल को तलाश करलेना काफ़ी नही है। अल्लत को समझने के लिए जलसे व सैमीनार वग़ैरह मुनअक़िद होने चाहिए ताकि अंदेशा मन्दान बैठ कर कोई राहे हल निकालें। मामूली और सामने के मसाइल के लिए कैसे कैसे सैमीनार मुनअक़िद किये जाते हैं मगर इन अहम मसाइल के हल के लिए किसी सैमीनार का इनेक़ाद नही किया जाता।
दूसरी मुश्किल जो फैलती जा रही है वह जिन्सी रोक थाम का न होना और जवानों का इस जाल में फसना है। क्या मुख्तलिफ़ सड़कों या नज़दीक व दूर के मख़्तलिफ़ मक़ामात पर बसीजी या ग़ैरे बसीजी
,सिपाही या ग़ैरे सिपही किसी गिरोह के लोगों को मामूर करने से और लड़कों और लड़कियों के ना मशरू रवाबित को रोकने से मसला ख़त्म हो जायेगा या किसी दूसरी जगह से सर उठायेगा
?यह देखना चाहिए कि इसके रीशे क्या हैं। इसका एक रीशा शादियों का कम होना है। शादीयों चन्द चीज़ों की वजह से मुश्किल हो गई है।
1-तवक़्क़ोआत ज़्यादा हो गई है।
2-तकल्लुफ़ात बढ गये हैं।
3-मेहर की रक़म बढ़ गई है।
4-खर्च बहुत बढ़ गये हैं।
और इसी के साथ साथ तहरीक करने वाले वसाइल का फैलाव । कुछ जवान कहते हैं कि इन हालात में अपने ऊपर कन्ट्रोल करना मुश्किल है। हम उनसे कहते हैं कि तुम चाहते हो कि ग़ैरे अख़लाक़ी फ़िल्में देखें लड़कियों से आँखें लड़ायें
,बद अखलाकी सिड़ियाँ देखें
,खराब किस्म के रिसाले पढ़े और इसके बावजूद कहते हो कि कन्ट्रोल करना मुश्किल है।तुम पहले तहरीक करने वाले अवामिल को रोको। जब तक तहरीक करने वाले अवामिल सादी शक्ल में मौजूद रहेंगे (जैसे सीडी कि उसमें फ़साद की एक पूरी दुनिया समाई हुई है। या इन्टरनेट कि जिसने फ़साद की तमाम अमवाज को अपने अन्दर जमा कर लिया और दुनिया को अखलाक़ व दूसरी जहतों से ना अमन कर दिया है) एक जवान किस तरह अपने आप पर कन्ट्रोल कर सकता है।
कभी शादी के मौक़ो पर इस तरह के प्रोग्राम किये जाते हैं जो शरियत के खिलाफ़ हैं और नापाक व तहरीक करने वाले है। सैकड़ों जवान शादी के इन्ही प्रोग्रामों में आलूदा हो जाते है। इस लिए कि मर्दो ज़न आते हैं और अपने आपको नुमाया करते है। इस हालत में कि रक़्सो मयुज़िक का ग़लबा होता है। इस तरह ग़ैरे शादी शुदा जवान चाहे वह लड़के हों या लड़किया इन प्रोग्रामों में मुहरिफ़ हो जाते हैं। जवान चाहते हैं इन प्रोग्रामों में शिरकत भी करें और बाद में यह भी कहें कि हमसे अपने आप पर कन्ट्रोल क्यों नही होता
?तहरीक करने वाले अवामिल को ख़त्म करना चाहिए
,शादी के असबाब को आसान करना चाहिए। बस अगर हम यह चाहते हैं कि किसी नतीजे पर पहुँचे
,तो असली रीशों के बारे में फ़िक्र करनी चाहिए।
गोश अगर गोश तू नालेह अगर नालेह।
आनचे अलबत्तेह बे जाई नरसद फ़रयाद अस्त।।
और हाल यह है कि न आपको इन बातों के सुनने वाले अफ़राद मिलेंगे और न ही यह बाते कहने वाले अफ़राद।
मरातिबे कमाले ईमान
हदीस-
अन नाफ़े इब्ने उमर
,क़ाला
“क़ाला रसूलूल्लाहि (स.)
“ला यकमलु अब्दुन अलइमाना बिल्लाहि
,हत्ता यकूना फ़िहि ख़मसु ख़िसालिन- अत्तवक्कुलु अला अल्लाहि
,व अत्तफ़वीज़ो इला अल्लाहि
,व अत्तसलीमु लिअमरिल्लाहि
,व अर्रिज़ा बिकज़ाइ अल्लाहि
,व अस्सबरो अला बलाइ अल्लाहि
,इन्नाहु मन अहब्बा फ़ी अल्लाहि
,व अबग़ज़ा फ़ी अल्लाहि
,व आता लिल्लाहि
,व मनाअ लिल्लाहि
,फ़क़द इस्तकमला इलईमाना।
”
[1]
तर्जमा-
नाफ़े ने इब्ने उमर से नक़्ल किया है कि हज़रत रसूले अकरम (स.) ने फ़रमाया कि अल्लाह पर बन्दें का ईमान उस वक़्त तक कामिल नही होता जब तक उस में पाँच सिफ़ात पैदा न हो जाये- अल्लाह पर तवक्कुल
,तमाम कामों को अल्लाह पर छोड़ना
,अल्लाह के अम्र को तस्लाम करना
,अल्लाह के फ़ैसलों पर राज़ी रहना
,अल्लाह की तरफ़ से होने वाली आज़माइश पर सब्र करना
,और समझलो कि जो दोस्ती व दुश्मनी
,अता व मनाअ
,अल्लाह की वजह से करे उसने अपने ईमान को कामिल कर लिया है।
हदीस की शरह-
इस हदीस में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) कमाले ईमान के मरातिब को बयान फ़रमा रहे हैं और इल्मे अख़लाक़ के कुछ उलमा ने भी सैरो सलूक के मरहले में तक़रीबन यही बातें बयान की हैं।
1- “अत्तवक्कुलु अला अल्लाह
”
पहला मरहला तवक्कुल है। हक़ीक़त में मोमिन यह कहता है कि चूँकि उसके इल्म
,क़ुदरत और रहमानियत का मुझे इल्म है और मैं उस पर ईमान रखता हूँ
,इस लिए अपने कामों में उसको वकील बनाता हूँ।
2- “व अत्तफ़वीज़ु अला अल्लाह
”दूसरा मरहला तफ़वीज़ है। तफ़वीज़ यानी सपुर्द करना या सौंपना। पहले मरहले में मोमिन अपने चलने के लिए अल्लाह की राह को चुनता है। मगर इस दूसरे मरहले में मोमिन हक़ीक़तन अल्लाह से कहता है कि अल्लाह ! तू ख़ुद बेहतर जानता है मैंनें तमाम चीज़े तेरे सपिर्द कर दी हैं।
तवक्कुल और तफ़वीज़ में फ़र्क़
तवक्कुल की मंज़िल में इंसान अपने तमाम फ़ायदों को अहमियत देता है इस लिए अपने नफ़ेअ की तमाम हदों को देखता है। लेकिन तफ़वीज़ की मंज़िल में वह यह तो जानता है कि फ़ायदा है
,मगर फ़ायदे की हदों के बारे में नही जानता इस लिए सब कुछ अल्लाह के सपुर्द कर देता है क्योंकि इस मरहले में उसे अल्लाह पर मुकम्मल ऐतेमाद हासिल हो जाता है।
3- “व अत्तसलीमु लि अम्रि अल्लाह
”
यह मरहला दूसरे मरहले से बलन्द है। क्योंकि इस मरहले में इंसान फ़ायदे को अहमियत नही देता
,तवक्कुल के मरहले में ख़वाहिश (चाहत) मौजूद थी
,लेकिन तस्लीम के मरहले में ख़वाहिश नही पायी जाती।
सवाल- अगर इस मरहले में ख़वाहिश नही पायी जाती तो फ़िर दुआ क्यों की जाती है
?
जवाब- तस्लीम का मतलब यह नही है कि हम अल्लाह से दरख़वास्त न करें
,बल्कि तस्लीम का मतलब यह है कि अगर हम अल्लाह से कोई चीज़ चाहें और वह न मिले तो
,तस्लीम हो जायें।
4- “व अर्रिज़ा बि क़ज़ाइ अल्लाह
”
रिज़ा का मरहला तीसरे मरहले से भी बलन्द है। तस्लीम के मरहले में इंसान के लिए फ़ायदे हैं मगर इंसान उनसे आँखें बन्द कर लेता है।लेकिन रिज़ा का मरहला वह है जिसमें इंसान के नफ़्स में भी अपनी ख़वाहिशात के लिए ज़िद नही पायी जाती है
,और रिज़ा व तस्लीम के बीच यही फ़र्क़ पाया जाता है।
अल्लाह की तरफ़ सैर और उससे क़रीब होने के यह चार मरहले हैं जिनको अलफ़ाज़ में बयान करना आसान है लेकिन इन सब के बीच बहुत लम्बे-लम्बे रास्ते हैं। कभी कभी इन मरहलों को
“फ़ना फ़ी अल्लाह
”
का नाम भी दिया जाता है। फ़ना के दो माअना है जिनमें से एक माक़ूल है और वह फ़ना रिज़ायत के मरहले तक पहुँचना है। और इस मरहले में इंसान अपनी तमाम ख़वाहिशात को अल्लाह की ज़ात के मुक़ाबिल में भूल जाता है
,और फ़ना फ़ी अल्लाह के यही सही माअना हैं जो शरीयत और अक़्ल के मुताबिक़ है।
अलबत्ता यह मरहले दुआ और अल्लाह से हाजत तलब करने की नफ़ी नही करते हैं। क्यों कि अगर कोई कमाले ईमान के आख़री मरहले यानी रिज़ा के मरहले तक भी पहुँच जाये
,तो भी दुआ का मोहताज है।
इन तमाम मक़ामात को सब्र के ज़रिये हासिल किया जा सकता है। सब्र तमाम नेकियों की जड़ है। अमारुल मोमिनीन (अ.) की वसीयत में पाँचवी फ़रमाइश सब्र के बारे में है जो दूसरी चारो फ़रमाइशों के जारी होने का ज़ामिन है। काफ़ी है कि इंसान इन कमालात तक पहुँचने के लिए कुछ दिनों में अपने आप को तैयार करे
,लेकिन इससे अहम मसअला यह है कि इस रास्ते पर बाक़ी रहे। जिन लोगों ने इल्म
,अमल
,तक़वा और दूसरे तमाम मरतबों को हासिल किया हैं उनके बारे कहा गया है कि वह सब्र के नतीजे में इस मंज़िल तक पहुँचे हैं।
हदीस के आखिर में जो जुम्ला है वह पहले जुम्लों का मफ़हूम है यानी दोस्ती
,दुश्मनी
,किसी को कुछ देना या किसी को मना करना सब कुछ अल्लाह के लिए हो
,क्योंकि यह सब कमाले ईमान की निशानियाँ है।
ज़िन्दगी के पाँच दर्स और शुबहात को तर्क करना
हदीस-
क़ाला रसूलुल्लाहि सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम
“अय्युहा अन्नासु! ला तोतूल हिकमता ग़ैरा अहलिहा फ़तज़लिमुहा
,व ला तमनऊहा अहलहा फ़तज़लिमुहुम
,व ला तुआक़िबु ज़ालिमन फ़यबतुला फ़ज़लुकुम
,व ला तुराऊ अन्नासा फ़यहबता अमलुकुम
,व ला तमनऊ अलमौजूदा फ़यक़िल्ला खैरु कुम
,अय्युहन नास! इन्नल अशयाआ सलासतुन- अमरुन इस्तबाना रुशदुहु फ़त्तबिऊहु
,व अमरुन इस्तबाना ग़ैय्युहु फ़जतनिबुहु
,व अमरुन उख़तुलिफ़ा अलैकुम फ़रुद्दुहु इला अल्लाहि........
”[2]
तर्जमा-
हज़रत रसूले अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम ने फरमाया
“ऐ लोगो ! नाअहल अफ़राद को इल्मो हिकमत ना सिख़ाओ क्योंकि यह इल्मो हिकमत पर ज़ुल्म होगा
,और अहल अफ़राद को इल्मो हिकमत अता करने से मना न करो क्योंकि यह उन पर ज़ुल्म होगा। सितम करने वाले से (जिसने आपके हक़ को पामाल किया है) बदला न लो क्योंकि इससे आपकी अहमियत ख़त्म हो जायेगी। अपने अमल को ख़ालिस रख़ो और लोगों को खुश करने के लिए कोई काम अंजाम न दो
,क्योंकि अगर रिया करोगे तो आपके आमाल हब्त (नष्ट) हो जायेंगे।जो तुमेहारे पास मौजूद है उसमें से अल्लाह की राह में ख़र्च करने से न बचो
,क्योंकि अगर उसकी राह में ख़र्च करने से बचोगे तो अल्लाह आपकी ख़ैर को कम कर देगा। ऐ लोगों ! कामों की तीन क़िस्में हैं। कुछ काम ऐसे हैं जिनका रुश्द ज़ाहिर है लिहाज़ा उनको अनजाम दो
,कुछ काम ऐसे हैं जिनका बातिल होना ज़ाहिर लिहाज़ा उनसे परहेज़ करो और कुछ काम ऐसे हैं जो तिम्हारी नज़र में मुशतबेह( जिनमें शुबाह पाया जाता हो) हैं बस उनको समझने के लिए उनको अल्लाह की तरफ़ पलटा दो।
”
हदीस की शरह-
यह हदीस दो हिस्सों पर मुश्तमिल है।
हदीस का पहला हिस्सा-
हदीस के पहले हिस्से में पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम पाँच हुक्म बयान फ़रमा रहे हैं।
1-ना अहल लोगों को इल्म अता न करों कियोंकि यह इल्म पर ज़ुल्म होगा।
2-इल्म के अहल लोग़ों को इल्म अता करने से मना न करो क्योंकि यह अहल अफ़राद पर ज़ुल्म होगा। इस ताबीर से यह मालूम होता है कि तालिबे इल्म के लिए कुछ ज़रूरी शर्तें हैं
,उनमें से एक शर्त उसकी ज़ाती क़ाबलियत है। क्योंकि जिस शख़्स में क़ाबलियत नही पायी जाती उसके पास इल्म हासिल करने का सलीक़ा भी नही होता। और इल्म वह चीज़ है जिसके लिए बहुत ज़्यादा सवाब बयान किया गया है।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम फ़रमाते हैं कि जो इल्म हासिल करने के क़ाबिल नही है उसको कोई चाज़ न सिख़ाओ क्योंकि अगर उसने कुछ सीख़ लिया ते वह उसको ग़लत कामों में इस्तेमाल करेगा और दुनिया को तबाह कर देगा क्योंकि जाहिल आदमी ना किसी जगह को ख़राब करता है न आबाद। मौजूदा ज़माने में इस्तेमारी हुकुमत के वह सरकरदा अफ़राद जो दुनिया में फ़साद फैला रहे हैं ऐसे ही आलिम हैं।
क़ुरआन में मुख़तलिफ़ ताबीरें पायी जाती हैं जो यह समझाती हैं कि तहज़ीब के बग़ैर इल्म का कोई फ़ायदा नही है। कहीँ इरशाद होता
“हुदन लिल मुत्तक़ीन
”[3] यह मुत्तक़ीन के लिए हिदायत है। कहीँ फ़रमाया जाता है
“....इन्ना फ़ी ज़ालिका लआयातिन लिक़ौमिन यसमऊन
”
[4] दिन और रात में उन लोग़ों के लिए निशानियाँ हैं जिनके पास सुनने वाले कान हैं।
इससे मालूम होता है कि हिदायत उन लोगों से मख़सूस है जो इसके लिए पहले से आमादा हों। इसी ताबीर की बिना पर गुज़िश्ता ज़माने में उलमा हर शागिर्द को अपने दर्स में शिरकत की इजाज़त नही देते थे। बल्कि पहले उसको अख़लाक़ी ऐतबार से परखते थे ताकि यह ज़ाहिर हो जाये कि उसमें किस हद तक तक़वा पाया जाता है।
अलबत्ता किसी को भी अपने इल्म को छुपाना नही चाहिए बल्कि उसे अहल अफ़राद को सिखाना चाहिए और अपने इल्म के ज़रिये लोगों के दुख दर्द को दूर करना चाहिए
,चाहे वह दुख दर्द माद्दी हो या मानवी। मानवी दुख दर्द ज़्यादा अहम हैं क्योंकि अल्लाह इस बारे में हिसाब लेगा। रिवायत में मिलता है कि
“मा अख़ज़ा अल्लाहु अला अहलिल जहलि अन यतअल्लमु
,हत्ता अख़ज़ा अला अहलिल इल्मि अन युअल्लिमु।
”
[5] अल्लाह ने जाहिलों से यह वादा लेने से पहले कि वह सीख़े
,आलिमों से वादा लिया कि वह सिखायें।
इस्लाम में पढ़ना और पढ़ाना दोनो वाजिब हैं। और यह दोनों वाजिब एक दूसरे से जुदा नही हैं क्योंकि आपस में लाज़िम व मलज़ूम हैं।
अगर कोई ज़ालिम आप पर ज़ुल्म करे और आप उससे बदला लें तो आपकी अहमियत ख़त्म हो जायेगी और आप भी उसी जैसे हो जायेंगे। अलबत्ता यह उस मक़ाम पर है जब ज़ालिम उस माफ़ी से ग़लत फ़ायदा न उठाये
,या इस माफ़ी से समाज पर बुरा असर न पड़े।
4-अपने अमल को ख़ालिस और बग़ैर रिया के अंजाम दो। यह काम बहुत मुश्किल है
,क्योंकि रिया
,अमल के फसाद के सरचश्मों में से फ़क़त एक सर चश्मा है वरना दूसरे आमिल जैसे उज्ब
,शहवाते नफ़सानी वग़ैरह भी अमल के फ़साद में दख़ील हैं और अमल को तबाह व बर्बाद कर देते हैं। मसलन कभी मैं इस लिए नमाज़ पढ़ूँ कि खुद अपने आप से राज़ी हो जाऊँ
,दूसरे लोगों से कोई मतलब वास्ता नही
,ख़ुद यह काम भी अमल के फ़साद की एक किस्म का सबब बनता है। या नमाज़ को आदतन पढ़ूँ या नमाज़े शब को इस लिए पढ़ूँ ताकि दूसरों से अफ़ज़ल हो जाऊ.....
,यह इल्लतें भी अमल को फ़ासिद करती हैं।
5-अगर कोई तुम से कोई चीज़ माँगे और वह चीज़ आपके पास हो तो देने से मना न करो। क्योँकि अगर देने से मना करोगे तो अल्लाह आपके ख़ैर को कम कर देगा। क्योंकि
“कमालुल जूदि बज़लुल मौजूद
”है यानी जो चीज़ मौजूद हो उसको दे देना ही सख़ावत का कमाल है। मेज़बान के पास जो चीज़ मौजूद है अगर मेहमान के सामने न रख़े तो ज़ुल्म है
,और इसी तरह अगर मेहमान उससे ज़यादा माँगे जो मेजबान के पास मौजूद है तो वह ज़ालिम है।
हदीस का दूसरा हिस्सा
हदीस के दूसरे हिस्से में कामों की सहगाना तकसीम की तरफ़ इशारा किया गया है।
1-वह काम जिनका सही होना ज़ाहिर है।
2-वह काम जिनका ग़लत होना ज़ाहिर है।
3-वह काम जो मुश्तबेह हैं। यह मुश्तबेह काम भी दो हिस्सों में तक़सीम होते हैं।
अ- शुबहाते मोज़ूय्यह
आ- शुबहाते हुक्मिय्यह
यह हदीस शुबहाते हुक्मिय्यह की तरफ़ इशारा कर रही है। कुछ रिवायतों में
“
अल्लाह की तरफ़ पलटा दो
”की जगह
“मुश्तबेह कामों में एहतियात करो क्योँकि मुश्तबिहात मुहर्रेमात का पेश ख़ेमा है।
”
बयान हुआ है। कुछ लोगों को यह कहने की आदत होती है कि
“कुल्लु मकरूहिन जायज़ुन
”
यानी हर मकरूह जायज़ है। ऐसे लोगों से कहना चाहिए कि सही है आप जाहरी हुक्म पर अमल कर सकते हैं लेकिन जहाँ पर शुबहा क़तई है अगर वहाँ पर इंसान अपने आपको शुबहात में आलूदा करे तो आहिस्ता आहिस्ता उसके नज़दीक गुनाह की बुराई कम हो जायेगी और वह हराम में मुबतला हो जायेगा। अल्लाह ने जो यह फ़रमाया है कि
“शैतानी अक़दाम से डरो
”
शैतानी क़दम यही मुश्तबेहात हैं। नमाज़े शब पढ़ने वाले मुक़द्दस इंसान को शैतीन एक ख़ास तरीक़े से फ़रेब देता है । वह उससे यह नही कहता कि जाकर शराब पियो
,बल्कि पहले यह कहता है कि नमाज़े शब को छोड़ो यह जुज़े वाजिबात नही है। अगर इस बात को क़बूल कर लिया तो आहिस्ता आहिस्ता वाजिब नमाज़ को अव्वले वक़्त पढ़ने के सिलसिले में क़दम बढ़येगा और कहेगा कि अव्वले वक़्त पढ़ना तो नमाज़ की शर्त नही है। और फिर इसी तरह धीरे धीरे उसको अल्लाह से दूर कर देगा।
अगर इंसान वाक़ियन यह चाहता हो कि निशाते रूही और मानवी हालत हासिल करे तो उसे चाहिए कि मुश्तबेह ग़िज़ा
,जलसात व बातों से परहेज़ करे और मक़ामे अमल में एहतियात करे।
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