इस्लाम में क़ुरआन

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इस्लाम में क़ुरआन लेखक:
: मौलाना सैय्यद एजाज़ हुसैन मूसावी
कैटिगिरी: मफ़ाहीमे क़ुरआन

इस्लाम में क़ुरआन

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: अल्लामा सैय्यद मुहम्मद हुसैन तबातबाई
: मौलाना सैय्यद एजाज़ हुसैन मूसावी
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इस्लाम में क़ुरआन
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इस्लाम में क़ुरआन

इस्लाम में क़ुरआन

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

6.क़ुरआने मजीद ने क्यों दो तरीक़ों यानी ज़ाहिरी और बातिनी तौर पर बयान फ़रमाया है ?

1.इंसान ने अपनी ज़िन्दगी में जो कि सिर्फ़ दुनियावी और आरेज़ी ज़िन्दगी है ,अपनी हयात का ख़ैमा एक बुलबुले की तरह माद्दे ( material)से उसका हमेशा वास्ता है।

उसके अँदरुनी और बेरुनी हवास भी माद्दे और माद्दियात ( materialism)में मशग़ूल हैं और उसके अफ़कार भी महसूस मालूमात के पाबंद हैं। खाना ,पीना ,चलना ,आराम करना और आख़िर कार उसकी ज़िन्दगी की सारी सरगर्मियाँ माद्दे के इर्द गिर्द घूमती रहती हैं और उसके अलावा कोई और फ़िक्र ही उसके ज़ेहन में नही आती।

और कभी कभी जबकि बाज़ मानवीयात को मसलन दोस्ती ,दुश्मनी ,बुलंद हिम्मती और आला ओहदा और ऐसे ही दूसरी चीज़ों का तसव्वुर करता है तो उन अकसर तसव्वुरात को सिर्फ़ माद्दी मेयार पर परखता और अंजाम देता है मसलन कामयाबी की मिठाई को खान्ड ,शकर और मिठाई के साथ जज़्ब ए दोस्ती को मक़नातीस की कशिश के साथ और बुलंद हिम्मती को मकान और मक़ाम की बुलंदी के साथ या एक सितारे की बुलंदी से और मक़ाम व ओहदे को पहाड़ की बुलंदी के साथ तसव्वुर करता है।

बहरहाल अफ़कार और इफ़हाम ,मानवीयात के मतालिब को हासिल करने की शक्ती में जो माद्दी दुनिया से बहुत बड़ी है ,बहुत ही फ़र्क़ रखते हैं और उन के लिये कई मरहले हैं। फ़िक्र व शऊर ,मानवीयात को तसव्वुर और महसूस करने की ताक़त और शक्ती नही रखते। एक और दूसरी फ़िक्र इससे ऊपर के मरहले की है। इसी तरह यहाँ कि इस फिक्र व फ़हम तक रसाई हो जाये जो वसी तरीन ग़ैर माद्दी मानवीयात को हासिल करने ताक़त रखता हो।

बहरहाल एक फ़हम की ताक़त मानवी मतालिब को समझने के लिये जिस क़दर भी ज़्यादा होगी। उसी निस्बत से उसकी दिलचस्बी माद्दी दुनिया और उसके धोके बाज़ मज़ाहिर की तरफ़ कमतर होगी और उसी तरह जितनी भी माद्दियात की तरफ़ दिलचस्बी कमतर होगी मानवी मतालिब को हासिल करने की ताक़त ज़्यादा हो जायेगी। इसी तरह इंसान अपनी इंसानी फ़ितरत के साथ सब के सब उन मतालिब को समझने की क़ाबेलियत रखते हैं और अगर अपनी क़ाबिलियत को ज़ाया न करें तो तरबीयत के क़ाबिल हैं।

2.ग़ुज़िश्ता बयानात से यह नतीजा हासिल होता है कि फ़हम व शुऊर के मुख़्तलिफ़ मराहिल की मालूमात को ख़ुद उस मरहले से कमतर नही लाया जा सकता वर्ना उसका नतीजा बिल्कुल बर अक्स होगा। ख़ुसूसन ऐसी मानवीयात जो माद्दे और जिस्म की सतह से बहुत बाला तर हैं अगर बे पर्दा और साफ़ साफ़ अवाम को बताई जायें जिन का फ़हम व शुऊर दर हक़ीक़त महसूसात से आगे नही बढ़ता तो इस (कोशिश) का मतलब और मक़सद बिल्कुल फ़ौत हो जायेगा। (यानी इसका कोई फ़ायदा नही होगा।)

हम यहाँ पर मज़हब और सनवीयत का ज़िक्र कर सकते हैं। जो शख़्स गहरे ग़ौर व फ़िक्र के साथ हिन्दी वेदाओं के उपानिशाद के हिस्से पर सोच विचार करे और उस हिस्से के अतराफ़ व जवानिब (इर्द गिर्द) के बयानात पर भी ग़ौर करे और उनको एक दूसरे के साथ मिला कर उसकी तफ़सीर करे तो मालूम होगा कि उसका मतलब और मक़सद भी तौहीद के सिवा और यकता परस्ती के अलावा कुछ नही है लेकिन बद क़िस्मती से चूँकि बे पर्दा और साफ़ साफ़ बयान हुआ है लिहाज़ा जब ख़ुदा ए वाहिद की तौहीद का नक़्शा जो उपानिशादों में पेश किया गया है उस पर आमयाना सतह पर अमल दर आमद होता है तो बुत परस्ती और मुख़्तलिफ़ ख़ुदाओं पर ऐतेराफ़ व ऐतेकाद के सिवा कुछ भी हासिल नही होता।

पस बहरहाल मा फ़ौकुल आदत और माद्दे के असरार को दुनिया वालों के सामने ब पर्दा बयान नही करना चाहिये बल्कि ऐसे बयानात पर्दे के अंदर बयान करने चाहियें।

3.जबकि दूसरे मज़ाहिब में बाज़ लोग दीन के फ़वायद से महरूम है मसलन औरत ,हिन्दू ,यहूदी ,ईसाई मज़ाहिब में आम तौर पर मुक़द्दस किताबों के मआरिफ़ और तालिमात से महरूम है लेकिन इस्लाम किसी शख़्स या सिन्फ़ के भी मज़हबी फ़वायद से महरुमियत का क़ायल नही है बल्कि ख़ास व आम ,मर्द व औरत ,सियाह व सफ़ीद ,सब के सब मज़हबी इम्तियाज़ात को हासिल कर में मुसावी और बराबर हैं ,जैसा कि ख़ुदा वंदे क़ुरआने मजीद में इरशाद फ़रमाता है:

मैं किसी अमल करने के अमल को ज़ाया नही करता। तुम सब मर्द व औरत एक ही क़िस्म के हो।

(सूरह आले इमरान आयत 195)

ऐ इंसानों ,हम ने तुम्हे मर्द व औरत की शक्ल में पैदा किया है और फिर तुम्हे छोटे बड़े गिरोहों और क़बीलों में तक़सीम कर दिया है ताकि एक दूसरे को पहचानों ,पस जो शख़्स तुम में से परहेज़ गार होगा ख़ुदा के नज़दीक सब से अज़ीज़ होगा।

(सूरह हुजरात आयत 13)

इस मुक़द्दमे को बयान करने के बाद हम यह कहते है कि क़ुरआने मजीद ने अपनी तालिमात मे सिर्फ़ इंसानियत को मद्दे नज़र रखा है ,यानी हर इंसान को इस लिहाज़ से कि वह इंसान है क़ाबिले तरबीयत और क़ाबिले तरक़्क़ी समझा है ,लिहाज़ा अपनी तालिमात को इंसानी दुनिया में आम और वसी रखा है।

चूँकि मानवीयात को समझने के लिये ज़हनों में बहुत ज़्यादा इख़्तिलाफ़ है और जैसा कि ज़ाहिर है कि मआरिफ़े आलिया की तफ़सीर ख़तरे से ख़ाली नही है इसी लिये क़ुरआने मजीद ने अपनी तालिमात को सादा तरीन तरीक़े से जो आम फ़हम है और सादा व आम ज़बान में अवाम तक पहुचा है और बहुत सी सादा ज़बान में बात कही है।

अलबत्ता इस तरीक़े का नतीजा यह होगा कि मआरिफ़े आलिया मानवी सादा और आम ज़बान में बयान हो और अल्फ़ाज़ के ज़ाहिरी मअना और फ़रायज़ वाज़ेह तौर पर महसूस हों और मानवीयात ज़वाहिर के पीछे छुपे हुए हों और पर्दे के पीछे आम फ़हम हों और इसी तरह हर शख़्स अपने शुऊर व फ़हम और अक़्ल के मुताबिक़ उन मानवीयात के मअना से मुस्तफ़ीज़ हों। अल्लाह तआला अपने कलाम में फ़रमाता हैं:

बेशक हमने इस क़ुरआन को अरबी ज़बान में नाज़िल किया है ताकि शायद तुम उसमें ग़ौर व फ़िक्र करो और बेशक यह क़ुरआन हमारे पास उम्मुल किताब (लौहे महफ़ूज़) में हैं। इस क़दर बुलंद मरतबे पर है जहाँ अक़्ले इंसानी नही पहुच सकती। इसकी आयात बहुत मोहकम व पुख़्ता है जिन में इंसाना फ़हम को हरगिज़ दख़ल नही है।

(सूरह ज़ुखरुफ़ आयत 3,4)

फिर एक और मिसाल जो हक़ व बातिल और ज़हनों की गुंजाईश के बारे में लाता है उसमें यूँ फ़रमाता है:

ख़ुदा ने आसमान से पानी नाज़िल फ़रमाया पस यह पानी मुख़्तलिफ़ रास्तों में उनकी गुँजाईश के मुताबिक़ जारी हो गया।

(सूरह राद आयत 17)

और पैग़म्बरे अकरम (स) एक मशहूर हदीसे शरीफ़ में यूँ फ़रमाते हैं:

हम पैग़म्बर लोगों के साथ उनकी अक़्ल के मुताबिक़ बात करते हैं।

इस तरीक़े और बहस से जो दूसरा नतीजा अख़्ज़ किया जा सकता है वह यह है कि क़ुरआने मजीद के ऐसे बयानात जिनमें पोशिदा असरार मख़्फ़ी हों मिसाल का पहलू हासिल कर लेते हैं। यानी ख़ुदाई मआरिफ़ की निस्बत जो इँसानों के फ़हम व शऊर से बाला तर हैं उन के बारे में अमसाल मौजूद हैं जो इन मआरिफ़ को अच्छी तरह समझाने के लिये लाई गई हैं। अल्लाह तआला फ़रमाता है:

और बेशक हम लोगों के लिये इस क़ुरआन में हर क़िस्म की मिसाल लाएँ हैं लेकिन अकसर इँसानों ने इन को क़बूल नही किया और क़ुफ़राने नेमत किया।

(सूरह इसरा आयत 89)

और फिर फ़रमाता है:

और अगरचे हम लोगों के लिये बहुत सी मिसालें लाते हैं लेकिन वह उन में ग़ौर नही करते सिवाए उन लोगों के जो आलिम (समझदार) हैं।

(सूरह अनकबूत आयत 43)

लिहाज़ा क़ुरआने मजीद बहुत सी मिसालों को बयान करता है लेकिन मुनदरजा बाला आयात और जो कुछ इस मज़मून में आया है ,काफ़ी है।

नतीजे के तौर पर हमें यूँ कहना चाहिये कि मआरिफ़े आलिया के बारे में जो क़ुरआने के हक़ीक़ी मक़ासिद हैं ,मिसालों के ज़रिये बयान किया गया है।

7.क़ुरआने मजीद में मोहकम व मुतशाबेह मौजूद है

ख़ुदा वंदे तआला अपने कलामे मजीद में फ़रमाता है:

क़ुरआन ऐसी किताब है जिसकी आयात बहुत मोहकम (पुख़्ता ,सिक़ह) हैं।

(सूरह हूद आयत 1)

और फिर फ़रमाता है:

अल्लाह तआला ने बेहतरीन बात (अल्फ़ाज़ ,क़ुरआन) नाज़िल फ़रमाई है जिसकी आयात आपस में मुशाबेह और शबीह और दो दो हैं। इस किताब के बाइस जो लोग खडुदा से डरते हैं (ख़ौफ़ से) उनकी खालें उतर जाती हैं और क़ुरआन को सुन कर उन पर लरज़ा तारी हो जाता है।

सूरह ज़ुमर आयत 23

फिर फ़रमाता है:

ख़ुदा वह है जिसने तुझ पर किताब नाज़िल फ़रमाई जबकि उसकी बाज़ आयात मोहकम हैं जो इस किताब की उम्मुल किताब ,बुनियाद ,माँ और मरजा हैं और बाज़ आयात मुतशाबेह हैं लेकिन जिन लोगों के दिलों में कजरवी है और इस्तेकामत से इंहेराफ़ की तरफ़ मायल हैं वह उस किताब की मुतशाबेह आयात की पैरवी करते हैं ता कि लोगों को फ़रेब और धोखा दे सकें और इस तरह फ़ितना बरपा करें इस लिये उसकी तावील बनाना चाहते हैं हालाकि उसकी तावील भी ख़ुदा के सिवा कोई नही जानता लेकिन जो लोग अपने इल्म में साबित क़दम हैं वह मुतशाबेह आयात के बारे में कहते हैं कि हम उन पर ईमान रखते हैं चूँकि यह सब आयात ख़ुदा की तरफ़ से नाज़िल हुई हैं।

जैसा कि वाज़ेह है कि क़ुरआन की पहली आयत उसके पुख़्ता (मोहकम) होने का सुबूत फ़राहम करती है और अलबत्ता उसका मतलब यह है कि किताब (क़ुरआन) हर क़िस्म के ऐब व नक़्स और ख़लल व बुतलान से मुबर्रा है और दूसरी आयत तमाम क़ुरआन को मुतशाबेह के तौर पर मुतआरिफ़ कराती है और उससे मुराद यह है कि क़ुरआनी आयात ख़ूब सूरती ,उसलूब ,हलावत ,लहजे और ख़ारिक़ुल आदत बयान के लिहाज़ से यकसाँ हैं और पूरे क़ुरआन की यही हालत हैं।

और तीसरी आयत जो इस बाब में हमारे पेशे नज़र है ,क़ुरआने मजीद को दो क़िस्मों यानी मोहकम व मुतशाबेह में तक़सीम करती हैं और कुल्ली तौर पर क़ुरआने मजीद से यूँ नतीजा निकलता है:

पहली बात तो यह कि मोहकम वह आयत है जो अपनी दलील व बुरहान और सुबूत में मोहकम व पुख़्ता हो और उसके मअना व मतलब में किसी किस़्म का शक व शुबहा मौजूद न हो यानी हक़ीक़ी मअना के अलावा कोई और मअना उससे अख़्ज़ न किये जा सकें और मुतशाबेह उसके बर ख़िलाफ़ है।

और तीसरी बात यह है कि हर मोमिन जो अपने ईमान में रासिख़ और साबित क़दम है उसका ईमानी फ़र्ज यह है कि आयात मोहकमात पर ईमान लाये और अमल करे और इसी तरह मुतशाबेह आयात पर भी ईमान लाये लेकिन उन पर अमल करने से परहेज़ करे। सिर्फ़ वह लोग जिसके दिल मुनहरिफ़ और ईमान टेढ़े हैं वह मुतशाबेह आयात की अवाम को फ़रेब और धोखा देने के लिये तावीलें बना बना कर उन प अमल करते हैं और उनकी पैरवी करते हैं।

8.मुफ़स्सेरीन और उलामा की नज़र में मोहकम और मुतशाबेह के मआनी

उलामा ए इस्लाम के दरमियान मोहकम और मुतशाबेह के मआनी में बहुत ज़्यादा इख़्तिलाफ़ मौजूद है और उन मुख़्तलिफ़ अक़वाल में तहक़ीक़ से इस मसले के बारे में तक़रीबन बीस अक़वाल मिल सकते हैं।

अवायले इस्लाम से लेकर आज तक जो मसला मुफ़स्सेरीन के लिये क़ाबिले क़बूल रहा है वह यह है कि मोहकमात वह आयात हैं जिनके मआनी वाज़ेह हैं और असली मआनी के अलावा कोई मअना उन से नही लिये जा सकते और इँसान उन के बारे में किसी शक व शुबहे में नही पड़ता। इस क़िस्म की आयात पर ईमान लाना और अमल करना फ़र्ज़ है और मुतशाबेह वह आयात हैं जिन के ज़ाहिरी मअना मुबहम हैं और ऐसी आयात के हक़ीक़ी मअना उनकी तावील में मुज़मर हैं जो सिर्फ़ ख़ुदा ही जानता है और इंसान की अक़्ल उन तक नही पहुच सकती। इस क़िस्म की आयात पर ईमान तो लाना चाहिये लेकिन उन की पैरवी और उन पर अमल करने से परहेज़ करना चाहिये।

उलामा ए अहले सुन्नत के दरमियान भी यही क़ौल मशहूर है और उलामा ए शिया भी इसी पर मुत्तफ़िक़ हैं लेकिन उलामा ए शिया मोतक़िद हैं कि मुतशाबेह आयात की तावील पैग़म्बरे अकरम (स) और आईम्मा ए अहले बैत (अ) भी जानते हैं और आम मुसलमान और मोमिन जो मुतशाबेह आयात की तावील को समझने से क़ासिर हैं ,उन का इल्म ख़ुदा ,पैग़म्बर और आईम्मा पर छोड़े दें।

यह क़ौल अगरचे अकसर मुफ़स्सेरीन के दरमियान जारी और काबिले क़बूल है लेकिन चंद लिहाज़ से इस सूरह आले इमरान की 7वी आयते करीमा के मत्न और उसी जैसी दूसरी क़ुरआनी आयात के उसलूब पर मुनतबिक़ नही है।

सबसे पहले तो यह कि क़ुरआने मजीद में इस क़िस्म की आयतें जो अपने मदलूल (मअना) को तशख़ीस देने में आजिज़ हूँ ,उन का नाम तक नही है। उसके अलावा जैसा कि क़ुरआने मजीद अपने आप को नूर ,हादी ,बयान जैसी सिफ़ात से याद करता है लिहाज़ा उसकी आयात हक़ीक़ी मअना और मुराद को वाज़ेह करने में ना रसा या मुबहम नही है।

इसके अलावा यह आयते करीमा:

क्या क़ुरआने मजीद में ग़ौर नही करते और अगर यह क़ुरआन ख़ुदा के सिवा किसी और की तरफ़ से नाज़िल हुआ होता तो उसमें बहुत ज़्यादा इख़्तिलाफ़ मौजूद होता। क़ुरआने मजीद में ग़ौर व फ़िक्र करना हर क़िस्म के इख़्तिलाफ़ को ख़त्म करने और मिटाने वाला कहा गया है। हालाकि जैसा कि मसल मशहूर है कि आयते मुतशाबेह में आने वाले इख़्तिलाफ़ात को किसी भी तरह से क़ाबिले हल नही है।

मुमकिन है कि यह कहा जाये कि आयाते मुतशाबेहात से मक़सद और मुराद वही हुरुफ़े मुक़त्तेआ (हुरूफ़े मुख़फ़्फ़फ़) हैं जो कि बाज़ सूरों के शुरु में आते हैं जैसे अलिफ़ लाम मीम ,अलिम लाम रा ,हा मीम ,वग़ैरह। जिन के हक़ीक़ी मअना को तशख़ीस देने का कोई तरीक़ा ही नही है।

लेकिन यह याद रखना चाहिये कि आयते करीमा में आयाते मुतशाबेह को आयाते मोहकम के मुक़ाबले में मुतशाबेह कहा गया है ,इसकी वजहे तसमीया यह है कि मुनदर्जा बाला आयात मदलूलाते लफ़्ज़ी (लफ़्ज़ी मआनी) की तरह मअना रखती हो लेकिन हक़ीक़ी और अस्ल मअना ,ग़ैर हक़ीक़ी मअना के साथ मुशतबह हो जायें और बाज़ सूरों के शुरु में आने वाले मुख़फ़्फ़फ़ अल्फ़ाज़ या हुरुफ़ इस क़िस्म के लफ़्ज़ी मअना नही रखते।

इस के अलावा उस आयत के ज़ाहिरी मअना यह हैं कि मुनहरिफ़ लोग आयाते मुतशाबेहात से अवाम को गुमराह करने और फ़रेब देने के लिये ना जायज़ फ़ायदा उठाते हैं और इस्लाम में यह सुनने में नही आया कि कोई शख़्स सुरों के आग़ाज़ में आने वाले हुरुफ़े मुक़त्तेआ या मुख़फ़्फ़फ़ हुरुफ़ की तावील करते हुए इस क़िस्म का फ़ायदा उठाये और जिन लोगों ने इस क़िस्म की तावील कर के फ़ायदा उठाया है उन्होने न सिर्फ़ उन ही अल्फ़ाज़ से बल्कि तमाम क़ुरआन की तावील कर के इस क़िस्म का फ़ायदा उठाने की कोशिश की है।

बाज़ लोगों ने कहा है कि मज़कूरा आयत में मुतशाबेह की तावील एक मशहूर क़िस्से की तरफ़ इशारा करती है जिसके ब मूजिब यहूदियों ने कोशिश की है कि सुरों के आग़ाज़ में आने वाले हुरुफ़े मुक़त्तेआत या मुख़फ़्फ़फ़ हुरुफ़ से इस्लाम की बक़ा और दवाम की मुद्दत को समझें और पैग़म्बरे अकरम (स) ने यके बाद दीगरे ऐसे मुख़फ़्फ़फ़ या आग़ाज़ी हुरुफ़ पढ़ कर उन के हिसाब को ग़लत बना दिया था। [ 1]

यह बात बिल्क़ुल बेहूदा है क्योकि इस क़िस्से या रिवायत के सही होने के बारे में बाज़ यहदियों ने बहुत कुछ लिखा है और कहा है और उसी महफ़िल में उस का जवाब भी सुन लिया है और यह क़िस्सा इस क़दर क़ाबिले अहमियत नही है कि आयते करीमा में मुतशाबेह की तावील के मसले पर ज़ौर दिया जाता।

इस के अलावा यहूदियों की बात में किसी क़िस्म का फ़ितना व फ़साद भी नही था क्योकि अगर एक दीन हक़ीक़ी हो तो अगरचे वह वक़्ती और क़ाबिले मंसूख़ भी क्यों न हो फिर भी उस की हक़्क़ानियत पर कोई हर्फ़ नही आ सकता। जैसा कि इस्लाम से पहले आसमानी अदयान की यही हालत रही है लेकिन वह सब के सब हक़ीक़ी दीन थे।

तीसरे ,इस बात की वजह यह है कि आयते करीमा में लफ़्ज़े तावील के मअना और मदलूले ज़ाहिरी मअना के बर अक्स आये हों और इसी तरह आयते मुतशाबेह से मख़सूस हों ,यह दोनो मतलब ठीक नही हैं और आईन्दा बहस में जो तावील और तंज़ील के बाब में आयेगी ,हम इस के बारे में वज़ाहत से बयान करेंगें कि क़ुरआने मजीद में लफ़्ज़े तावील मअना और मदलूल के पैराए में नही आया कि कोई दूसरा लफ़्ज़ उसका लुग़वी बदल बन सके और दूसरे यह कि तमाम क़ुरआनी आयात चाहे वह मोहकम हों या मुतशाबेह ,उनकी तावील हो सकती है न कि सिर्फ़ आयाते मुतशाबेह की। और तीसरे यह कि आयते करीमा में लफ़्ज़े आयाते मोहकमाते को जुमल ए हुन्ना उम्मुल किताब के साथ बयान किया गया है और इस के मअना यह है कि आयाते मोहकमात किताब के असली मतालिब पर मुशतमिल है और बक़िया आयात के मतालिब उन की शाख़ें (फ़ुरुआत) हैं। इस मतलब का वाज़ेह मक़सद यह है कि आयाते मुतशाबेह अपने मअना व मुराद के लिहाज़ से आयाते मोहकमात की तरफ़ लौट जायें यानी आयाते मुतशाबेह के मआनी की वज़ाहत के लिये उन को आयातो मोहकमात की तरफ़ रुजू करना चाहिये और आयाते मोहकमात की मदद से उन के हक़ीक़ी मअना व मुराद को समझना चाहिये।

लिहाज़ा क़ुरआने मजीद में कोई ऐसी आयत जिस के हक़ीक़ी मअना को हासिल न किया जा सके मौजूद नही है और क़ुरआनी आयात या बिला वास्ता मोहकमात में शामिल हैं जैसे ख़ुद आयात मोहकमात और या बा वास्ता मोहकम हैं जैसे मुतशाबेहात वग़ैरह की तरह ,लेकिन हुरुफ़े मुक़त्तेआ (मुख़फ़्फ़फ़) जो सूरों के आग़ाज़ में मौजूद हैं उन के लफ़्ज़ी मअना हरगिज़ मालूम नही हैं। इस तरह यह हुरुफ़ आयाते मोहकमात और मुतशाबेहात दोनो क़िस्मों में नही लाए जा सकते।

इस मतलब को समझने के लिये यह आयते करीमा:

तो क्यो लोग क़ुरआन में (ज़रा भी) ग़ौर नही करते या (उन के) दिलों पर ताले (लगे हुए) हैं ।

(सूरह मुहम्मद आयत 24)

और इसी तरह यह आयते करीमा:

तो क्यो यह लोग क़ुरआन में भी ग़ौर नही करते और (यह ख़्याल नही करते कि) अगर ख़ुदा के सिवा और की तरफ़ से (आया) होता तो ज़रुर उसमें बड़ा इख़्तिलाफ़ पाते।

सूरह निसा आयत 82से इस्तेफ़ादा किया जा सकता है।

9.क़ुरआन की मोहकम और मुतशाबेह आयात के बारे में आईम्म ए अहले बैत (अ) के नज़रियात

जैसा कि आईम्म ए अहले बैत (अ) के मुख़्तलिफ़ बयानात से नतीजा हासिल होता है वह यह है कि ऐसी मुतशाबेह आयत जिसके हक़ीक़ी मअना बिल्कुल समझ से बाहर से बाहर हों ,हरगिज़ क़ुरआने मजीद में मौजूद नही है बल्कि अगर हर आयत अपने हक़ीक़ी मआनी में मुस्तक़िल न हो तो दूसरी आयात के ज़रिये उसके हक़ीक़ी मआनी को समझा जा सकता है और यह तरीक़ा मुतशाबेह आयात को आयाते मोहकमात की तरफ़ रुजू कराना है जैसा कि यह आयते करीमा:

ख़ुदा अपने तख़्त पर बैठा है।

(सूरह ताहा आयत 5)

और इस आयते करीमा में: तेरा ख़ुदा आ गया।

(सूरह फ़ज्र आयत 24)

जाहिरी तौर पर (ख़ुदा की) ज़िस्मानियत और माद्दियत का पता देती है लेकिन इन दो आयाते करीमा को इस आयत: कोई चीज़ ख़ुदा के मानिन्द नही है।

सूरह शूरा आयत 11की तरफ़ रुजू करने से मालूम हो जाता है कि ख़ुदा वंदे आलम के बैठने और आने की तरफ़ जो इशारा हुआ है वह ज़ाहिरी मअना यानी एक जगह पप बैठने और एक जगह से दूसरी जगह हरकत करने से बिल्कुल अलग है।

पैग़म्बरे अकरम (स) क़ुरआने मजीद की तारीफ़ में फ़रमाते हैं:

बेशक क़ुरआन इस लिये नाज़िल नही हुआ कि बाज़ आयात के ज़रिये तसदीक़ करे। पस जिस चीज़ को तुम ने समझ लिया है उस पर अमन करो और जिस चीज़ के मुतअल्लिक़ तुम्हे शक व शुबहा हो उस पर ईमान लाओ।

(तफ़सीरे दुर्रुल मंसूर जिल्द 1पेज 8)

और अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ) फ़रमाते हैं:

क़ुरआने मजीद के बाज़ हिस्से बाज़ दूसरे हिस्सों के बारे में शहादत देते हैं और बाज़ हिस्सों के बाइस दूसरे हिस्से मुनतबिक़ हो जाते हैं।

(नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 131)

आठवे इमाम हज़रत अली रेज़ा (अ) फ़रमाते हैं:

क़ुरआने मजीद की आयाते मोहकमात वह हैं जिन पर अमल किया जा सकता है और मुतशाबेह आयात वह हैं कि अगर कोई शख़्स उन को न जानता हो तो उन में मुशतबह होगा।

(तफ़सीरे अयाशी जिल्द 1पेज 162)

एक और रिवायत में है कि मोहकम व मुतशाबेह के दरमियान एक निस्बत मौजूद है और मुमकिन है एक आयत एक मौज़ू के बारे में मोहकम हो और वही आयत दूसरे मौज़ू या मतलब के बारे में मुतशाबेह हो।

और आठवे इमाम (अ) एक दूसरी जगह पर इस तरह फ़रमाते हैं:

जिस शख़्स ने क़ुरआने मजीद की मुतशाबेह आयात को मोहकमात की तरफ़ रुजू कर दिया वह राहे रास्त पर हिदायत हासिल कर गया। फिर फ़रमाया:

बेशक हमारी हदीसें भी मुतशाबेह हैं जैसा कि क़ुरआने मजीद में मुतशाबेह मौजूद है पस उन मुतशाबेहात को मोहकमात की तरफ़ ले जाओ और सिर्फ़ अकेली मुतशाबेह आयत की पैरवी न करो क्योकि गुमराह हो जाओगे।

जैसा कि मालूम है यह रिवायात और ख़ुसूसन आख़िरी रिवायत इस मौज़ू में वाज़ेह है कि मुतशाबेह एक ऐसी आयत है जो अपने हक़ीक़ी मअना को वाज़ेह करने में मुस्तक़िल न हो और दूसरी मोहकमात आयात के ज़रिये वाज़ेह होती है। यह बात सही नही है मुतशाबेह आयात को समझाना या उस के मआनी तक पहुचा ही नही जा सकता।