10.क़ुरआने मजीद तावील व तंज़ील रखता है
तावीले क़ुरआन का लफ़्ज़ क़ुरआने मजीद में तीन बार मुख़्तलिफ़ आयात में आया है:
मोहकम व मुतशाबेह आयात जो पहले नक़्ल की जा चुकी हैं।
लेकिन जिनके दिलों में कजरवी है और इस्तेक़ामत से इंहेराफ़ की तरफ़ मायल हैं वही मुतशाबेह आयात की पैरवी करते हैं ता कि लोगों को फ़रेब और धोखा दे सकें और इस तरह फ़ितना बरपा करें
,इस लिये कि उसकी तावील बनाना चाहते हैं हाला कि उस की तावील ख़ुदा के सिवा कोई नही जानता।
1.मैं क़सम खाता हूँ
,उन लोगों के लिये हम ने ऐसी किताब नाज़िल की है कि उस में हर चीज़ की बुनियाद को इल्म व दानिश के मुताबिक़ तफ़सील से बयान किया गया है
,यह किताब उन लोगों के लिये रहमत और हिदायत है जो ईमान लाये हैं। यह लोग शर्मिदा नही हैं बल्कि काफ़िर और वह लोग जो ख़ुदा की आयतों और क़यामत के दिन पर ईमान नही रखते
,उस दिन के मुनतज़िर हैं
,जब उन आयात की तावील और उन के हाल व अहवाल (मौत और क़यामत के दिन) सामने आयेगें और अंजामें कार को मुलाहिजा करेगें। जो लोग उस दिन को भूले हुए हैं उस दिन शर्मिन्दगी औप हसरत के साथ अफ़सोस करेंगें कि ख़ुदा के रसूल और पैग़म्बर अपने रौशन और वाज़ेह दलायल के साथ आये और हमारे लिये उनकी वज़ाहत की। (काश हम उस वक़्त मुख़ालिफ़त व करते)
2.आयते करीमा व मा काना हाज़ल क़ुरआनो अय युफ़तरा यहाँ तक कि फ़रमाता है।
यह क़ुरआन इफ़रता नही है यहाँ तक कि फ़रमाता है: बल्कि उन लोगों ने उस को झुटलाया है जिस चीज़ का उन को बिल्कुल इल्म नही जबकि अभी तक उस की तावील उन के लिये वाज़ेह नही हुई
,इसी तरह जो लोग उन से पहले थे उन्होने भी ख़ुदा की आयात की झुटलाया था। ऐ रसूल तुम देखते हो कि उन ज़ालिमों का अंजाम क्या होगा और वह किस तरह हलाक होगें।
बहरहाल तावील का लफ़्ज़ औल से निकला है जिसके मअना रुजू के हैं और तावील से मुराद वह चीज़ है जिस की तरफ़ वह आयत फिरती या रूजू करती है और तावील के मुक़ाबले में तंज़ील के मअना वाज़ेह हैं याना तहतुल लफ़्ज़ी मअना है।
11.मुफ़स्सेरीन और उलामा की नज़र में तावील के मअना
मुफ़स्सेरीन और उलामा ए केराम
,तावील के मअना में शदीद इख़्तिलाफ़ रखते हैं और अक़वाल व अहादीस की पैरवी में तावील के बारे में दस से ज़्यादा अक़वाल देखने में आते हैं लेकिन उन सब अक़वाल में से दो ज़्यादा मशहूर हैं:
1.उलामा ए क़दीम तावील को तफ़सीर के मुतरादिफ़ समझते थे लिहाज़ा तमाम क़ुरआनी आयात का तावील मौजूद है लेकिन आयते करीमा के मुताबिक़:
मुतशाबेहात की तावील ख़ुदा के सिवा कोई नही जानता।
इस लिहाज़ से बाज़ उलामा ए क़दीम ने कहा है कि क़ुरआन की मुतशाबेह आयात वही हुरुफ़े मुक़त्तेआ (हुरुफ़े मुखफ़्फ़फ़) हैं जो बाज़ सूरों के शुरु में आयें हैं क्योकि क़ुरआने मजीद में ऐसी ऐसी आयत जिसके मअना अवाम पर वाज़ेह न हों। हुरुफ़े मुक़त्तेआ के अलावा कोई नही है लेकिन हमने पिछले अध्याय में इस अक़ीदे के मंसूख़ होने के बारे में काफ़ी वज़ाहत की है।
बहरहाल इस मौज़ू क पेशे नज़र कि क़ुरआने मजीद की बाज़ आयात की तावील जानने के बारे में ख़ुदा के सिवा किसी और की तरफ़ मंसूब नही करता। और क़ुरआने मजीद में कोई ऐसी आयत जिसके मअना सब पर मजहूल हों
,मौजूद नही है और हुरुफ़े मुक़त्तेआ भी मुतशाबेह आयात में नही आते
,यह वाज़ेह करता है कि उलामा ए जदीद के पेशे नज़र यह क़ौल बातिल और मंसूख व मतरुक है।
2.उलामा ए जदीद के क़ौल के मुताबिक़ तावील के मअना उन ज़ाहिरी मअना के बर अक्स जो ज़ाहिरी तौर पर कलाम से हासिल होते हैं। बेना बर ईन तमाम क़ुरआनी आयात तावील नही रखतीं लिहाज़ा मुतशाबेह आयात ही है जो तावील रखती हैं और उन के मअना
,जाहिरी मअना के बर अक्स हैं जिन का इल्म ख़ुदा के सिवा किसी को नही है। जैसा कि आयात में में ख़ुदा के बैठने
,मर्ज़ी आने
,ग़ज़बनाक होने
,अफ़सोस करने और दूसरी माद्दी तारीफ़ात को ख़ुदा से मंसूब किया गया है। और ऐसे ही दूसरी आयात जिन के बारे में पैग़म्बरों और अंबिया ए मासूम को गुनाहों से मंसूब किया गया है।
यह मज़हब इस क़दर अमली वाक़े हुआ है कि हाले हाज़िर में तावील
,ज़ाहिरी मअना के बर अक्ल एक हक़ीक़ते सानिया बन गई है और क़ुरआनी आयात की तावील कलामी झगड़े यानी इल्मे कलाम में ज़ाहिरी लिहाज़ से और ज़ाहिर के बर अक्स उन के मअना करना एक ऐसा तरीक़ा बन गया है कि ख़ुद यह तरीक़ा तनाकुज़ से ख़ाली और मुबर्रा नही है।[
2]
यह क़ौल अगरचे बहुत मशहूर है लेकिन ठीक और सही नही है और क़ुरआनी आयात के साथ मुनतबिक़ नही है क्योकि:
1.सूरह आराफ़ की यह
53वी आयते करीमा
,सूरह युनुस की
39वी आयते करीमा
,जो पिछले बाब में बयान हो चुकी हैं। उन से ज़ाहिर होता है कि सारा क़ुरआन तावील रखता है न कि सिर्फ़ आयाते मुतशाबेहात जैसा कि इस क़ौल में कहा गया है।
2.इस क़ौल की बुनियाद यह है कि क़ुरआन में ऐसी आयात मौजूद हों जिन के हक़ीक़ी मअना मुशतबेह और अवाम पर मजहूल हों और ख़ुदा के सिवा कोई शख़्स उन से वाक़िफ़ न हो और ऐसा कलाम जो अपने मआनी के वाज़ेह करने के लिये गुँग और मुफ़हम हो उस को बलीग़ कलाम नही कहा जा सकता। फिर यह कैसे हो सकता है कि वह कलाम अपनी फ़साहत व बलाग़त के लिहाज़ से दुनिया के मुक़ाबले के लिये लतब करे और अपनी बरतरी का ऐलान करे।
3.यह है कि इस क़ौल के मुताबिक़ क़ुरआनी हुज्जत (दलील व बुरहान) ख़त्म नही हो जाती क्योकि इस आयते करीमा (सूरह निसा आयत
82)के मुताबिक़
,क़ुरआने मजीद इंसानी कलाम नही है
,दूसरी दलीलों में से एक दलील यह है कि उस की आयात के दरमियान (अगरचे यह आयात बहुत ज़्यादा फ़ासल ए ज़मानी और ख़ास औज़ा व अहवाल और माहौल के मुताबिक़ नाज़िल हुई हैं।) मअना और मदलूल के लिहाज़ से उन में किसी क़िस्म का इख़्तिलाफ़ मौजूद नही जो ज़ाहिरी तौर पर मालूम हो बल्कि अगर हो भी तो आयात में ग़ौर करने से ख़त्म हो जाता है।
4.यह है कि उसूली तौर पर मोहकम व मुतशाबेहात की तावील के मअना ज़ाहिरी मअना के बर ख़िलाफ़ हों कोई दलील ही नज़र नही आती। वह तमाम क़ुरआनी आयात जिन में तावील का लफ़्ज़ आया है उन से मक़सद इस क़िस्म के मआनी नही है। जैसे क़िस्स ए युसुफ़ में तीन जगह तावील का लफ़्ज़ आया है जिस का मतलब ख़्वाब की ताबीर है और ज़ाहिर है कि ख़्वाब की ताबीर उस के ज़ाहिरी मअना के बर ख़िलाफ़ नही है बल्कि एक ऐसी ख़ारेजी ऐनी हक़ीक़त है जो ख़्वाब में देखी गई है जैसा कि हज़रते युसुफ़ ने ख़ुद को और अपने माँ बाप
,बहन भाईयों को सजदा करने को सूरज
,चाँद और सितारों की शक्ल में देखा था। [
3]
और जैसा कि मिस्र के बादशाह ने उस मुल्क में सात साला क़हत और ख़ुश्क साली को लाग़र और कमज़ोर गायों की शक्ल में मुशाहेदा किया था कि सात फ़रबा और मोटी गायों को खा रही है और इसी तरह सात सब्ज़ खोशे और सात ख़ुश्क खोशे देखे थे और जैसा कि क़ैद में हज़रत युसुफ़ के साथियों में से एक ने सूली को दूसरे ने बादशाह की साक़ी गरी को अँगूरों के गुँछों के निचोड़ने और अपने सर पर रोटियों का टोकरा उठाने और फिर परिन्दों का उन रोटियों के नोचने और खाने की हालत में देखा था।
इसी तरह सूरह कहफ़ (आयत
71,72)से हज़रत मूसा और हज़रत ख़िज़्र के क़िस्से हैं
,उसके बाद कि हज़रत ख़िज़्र कश्ती को सूराख़ कर देते हैं
,फिर एक बच्चे को मार देते हैं और एक दीवार को तामीर करते हैं और हर मरहले पर हज़रत मूसा ऐतेराज़ करते हैं। फिर हज़रते ख़िज़्र उन सब कामों का जवाब देते हैं और ख़ुदा वंदे आलम के हुक्म और अम्र के मुताबिक़ उन कामों की हक़ीक़त को बयान करते हैं
,इस अमल को तावील कहा गया है और ज़ाहिर है कि हक़ीक़ते कार और उसका असली मक़सद जो ज़ाहिरी अमल की सूरत में सामने आया है
,उसके मअना काम की रूह और हक़ीक़त हैं। जिनको तावील कहा गया है और उन कामों के मअना
,ज़ाहिरी मअना के बर अक्स नही है
,इसी तरह अल्लाह तआला वज़्न और पैमाने के बारे में फ़रमाता हैं:
और जब तुम किसी चीज़ को पैमाने और वज़्न से नापते हो तो उस को पूरी तरह से नापो और वज़्न करो और पैमाने को अच्छी तरह से पुर करो और सही तराज़ू से वज़्न करो क्योकि यही तरीक़ा बेहतर है और तावील के लिहाज़ से ठीक भी है।
इस से मालूम होता है कि कैल (पैमाने) और वज़्न से मुराद ख़ास इक़्तेसादी हालत है जो ज़रुरियाते ज़िन्दगी में लेन देन और नक़्ल व इंतेक़ाल के ज़रिये बाज़ार में पैदा होती है और इस मअना में तावील वज़्न और पैमाने के ख़िलाफ़ नही बल्कि एक मानवी और ज़ाहिरी हक़ीक़त है जो वज़्न और पैमाने की सूरत में बयान हुई है और उस की ठीक सूरत अमल के अंजाम देने में ज़ाहिर होती है।
इसी तरह एक और जगह फ़रमाता है:
पस अगर एक चीज़ के बारे में तुम झगड़ा या इख़्तिलाफ़ हो जाये तो उस को ख़ुदा की तरफ़ पलटा दो.... और यही बेहतर है और तावील के लिहाज़ से भी सही है।
ज़ाहिर है कि तावील से मुराद झगड़े को हल करने के लिये ख़ुदा और रसूल की तरफ़ रूजू करना है और इस का मक़सद समाज और मुआशरे की वहदत व यगानगत को मज़बूत करना और समाज में मानवी और रुही इत्तेहाद पैदा करना है। यह भी एक ख़ारजी हक़ीक़त है न कि झगड़े को हल करने के बर अक्ल कोई और मअना हों।
इसी तरह चंद एक दूसरी मिसालें और हैं जिन में तावील का लफ़्ज़ क़ुरआने मजीद में आया है और कुल मिला कर
16बार ज़िक्र हुआ है और उन तमाम मिसालों में से किसी में भी तावील के मअना को ज़ाहिरी मअना के बर अक्स नही लिया जा सकता बल्कि एक दूसरे मअना हैं (जिसे अगली फ़स्ल में वज़ाहत से बयान किया जायेगा।) लफ़्ज़े तावील आयाते मोहकमात और मोतशाबेहात में आया है लिहाज़ा तावील का लफ़्ज़ मुनदर्जा बाला आयात में ज़ाहिरी मअना के बर ख़िलाफ़ कोई दूसरे मअना नही देता।
12.क़ुरआने मजीद की इस्तेलाह में तावील के क्या मअना है
?
क़ुरआने मजीद में ऐसी आयाते शरीफ़ा जिन में तावील का लफ़्ज़ आया है और उन में बाज़ आयात को पिछले बाब अबवाब में नक़्ल कर चुके हैं
,उन से जो नतीजा निकलता है वह यह है कि तावील के मअना के लिहाज़ से लफ़्ज़ी मअना में इस्तेमाल नही हुआ है जैसा कि सूर ए युसुफ़ में ख़्वाबों की ताबीर के बारे में नक़्ल हुआ है और उन ख़्वाबों की तावील की गई है कि ऐसा लफ़्ज़ जो ख़्वाब की तशरीह करे हरगिज़ ख़्वाब की तावील में लफ़्ज़ी सुबूत फ़राहम नही करता ख़्वाह वह ज़ाहिरी मअना के बर अक्स ही क्यो न हो।
और ऐसे ही हज़रत मूसा (अ) और हज़रते ख़िज़्र के वाकये में क़िस्से का लफ़्ज़ उस की तावील पर दलालत नही करता जो हज़रत ख़िज़्र (अ) ने हज़रते मूसा (अ) के लिये बयान किये था। इसी तरह यह आयते शरीफ़ा व औफ़ुल कैला इज़ा किलतुम व ज़िनु बिल क़िसतासिल मुस्तक़ीम। (
37,17)यह दो फ़िक़रे किसी मख़सूस इक़्तेसादी हालत का लफ़्ज़ी सुबूत फ़राहम नही करते लिहाज़ा उन की तावील करना ज़रुरी है।
इसी तरह सूरह निसा की
59वी आयते शरीफ़ा अपनी तावील पर लफ़्ज़ी सुबूत
,जो वहदते इस्लामी है
,नही रखता और अगर तमाम आयात पर ग़ौर करें तो मालूम होगा कि हक़ीक़त यही है।
बल्कि ख़्वाबों के बारे में
,ख़्वाब की ताबीर एक ख़ारेजी हक़ीक़त है जो एक ख़ास शक़्ल में ख़्वाब देखने वाले शख़्स के सामने जलवा गर होती है
,इसी तरह हज़रते मूसा (अ) और हज़रते ख़िज़्र के क़िस्से में वह तावील जो हज़रते ख़िज़्र ने बयान की
,एक ऐसी हक़ीक़त है कि अंजाम शुदा काम इस हक़ीक़त से सर चश्मा हासिल करता है और ख़ुद वही काम एक तरह की तावील में मुज़मर है। वह आयत जो वज़्न और पैमाने के सही होने पर हुक्म देती है उसकी तावील एक हक़ीक़त और मसलहत है कि यह फ़रमान उस नुक्ते पर तकिया करता है और एक तरह से इस हक़ीक़त को साबित और मुकम्मल करता है और यह आयते शरीफ़ा जिस में झगड़ों को ख़ुदा और रसूल की तरफ़ ले जाने का हुक्म है उस में भी यही अम्र और हक़ीक़त पोशिदा है।
लिहाज़ा हर चीज़ की तावील एक ऐसी हक़ीक़त है कि वह चीज़ उस से सर चश्मा हासिल करती हो और वह चीज़ हर तरह से उस का मुकम्मल सुबूत और कामिल निशानी है जैसा कि तावील करने वाला हर शख़्स ख़ुद ज़िन्दा और मौजूद तावील है और तावील का ज़हूर भी साहिबे तावील के साथ मुमकिन है।
यह मतलब क़ुरआने मजीद में भी जारी है क्योकि यह मुक़द्दस किताब एक सिलसिल ए हक़ायक़ और मानवीयात से सर चश्मा हासिल करती है जो माद्दे और जिस्मानियत की क़ैद से आज़ाद और हिस व महसूस के मरहले से बहुत बाला तर है और अल्फ़ाज़ व इबारात के क़ालिब में जो हमारी माद्दी ज़िन्दगी का महसूल है
,इससे बहुत बुलंद और वसी है।
यह हक़ायक़ और मानवीयात अपनी हक़ीक़त के ऐतेबार से लफ़्ज़ी क़ालिब में मही समा सकते
,सिर्फ़ वह उमूर जो ग़ैब की तरफ़ से अंजाम पाते हैं वह यह है कि उन अल्फ़ाज़ के साथ दुनिया ए इंसानी को मुतनब्बेह किया गया है कि हक़ पर ज़ाहिरी ऐतेक़ादात और अपने नेक कामों के ज़रिये अपने आप को सआदत और ख़ुश बख़्ती हासिल करने के लिये मुसतईद करें
,क्योकि सिवा ए इस के कि अपनी आँख़ों से मुशाहेदा करके वाक़ेईयत और हक़ीक़त को समझें
,कोई और रास्ता या चारा नही है। क़यामत का दिन ख़ुदा वंदे आलम से मुलाक़ात का दिन है
,जिस दिन यह हक़ायक़ मुकम्मल तौर पर खुल कर सामने आयेगें जैसा कि सूर ए आराफ़ की
2आयात और सूर ए युनुस की आयते शरीफ़ा इस बात का सुबूत फ़राहम करती है।
अल्लाह तआला इस अम्र की तरफ़ इशारा करते हुए इरशाद फ़रमाता है:
इस किताबे मुबीन की क़सम
,हमने इस क़ुरआन को अरबी ज़बान में नाज़िल किया है ताकि तुम इसमें ग़ौर व फ़िक्र करो और यक़ीनन यह किताब हमारे पास उम्मुल किताब (लौहे महफ़ूज़) में मौजूद है। इस का मरतबा बहुत बुलंद है इतना कि आम लोग इस को हरगिज़ नही समझ सकते और इस की आयात बहुत ही पुख़्ता है इतनी कि इंसानों की अक़्लों की रसाई वहाँ तक नही है।
आयते शरीफ़ा के आख़िरी हिस्से की तावील अपने मअना से मुताबेक़त के लिहाज़ से जैसा कि बयान किया गया है
,वाज़ेह है और ख़ुसूसन इस लिहाज़ कि ख़ुदा वंदे आलम ने फ़रमाया है: लअल्लकुम तअक़ेलून यह नही फ़रमाया कि लअल्लकुम तअक़िलूनहू (शायद इस में ग़ौर करो) क्योकि तावील की शिनाख़्त जैसा कि मोहकम व मुतशाबेह आयात (उसकी तावील सिवा ए ख़ुदा वंदे आलम के कोई नही जानता) में फ़रमाया है
,अहले इंहेराफ़ को मुतशाबेह आयात की पैरवी करने पर सरज़निश और मलामत करते हुए अल्लाह तआला फ़रमाता है कि उनकी पैरवी करने से फ़ितना बरपा करना चाहते हैं और उनकी तावील बनाना चाहते हैं लेकिन यह नही फ़रमाया कि तावील पैदा करते हैं।
पस क़ुरआने मजीद की तावील वह हक़ीक़त यह हक़ायक़ हैं कि उम्मुल किताब (लौहे महफ़ूज़) में ख़ुदा के पास मौजूद हैं और इल्मे ग़ैब से इख़्तेसास रखते हैं।
फिर एक और जगह इसी मज़मून के क़रीब करीब इरशाद फ़रमाता है:
पस क़सम हैं सितारों का हालत की और यक़ीनन यह ऐसी क़सम है कि अगर तुम (इस में) ग़ौर करो तो बहुत बड़ी क़सम है कि यह क़ुरआने मजीद बहुत ही मोहतरम है जिस के असरार महफ़ूज़ और पोशिदा हैं। (लौहे महफ़ूज़ या उम्मुल किताब में) यह ऐसी किताब है कि उन लोगों के सिवा जो पाक व मुतह्हर हैं उस को छू नही सकते। यह किताब परवर दिगारे आलम की तरफ़ से नाज़िल हुई है।
जैसा कि ज़ाहिर है यह आयाते करीमा क़ुरआने मजीद के लिये दो तरह के मरतबों या रुतबों को साबित करती है। पहला मरतबा यह है कि इस किताब के पोशिदा मक़ाम को कोई शख़्स छू या मस नही कर सकता और हर क़िस्म के मस से महफ़ूज़ है और मक़ामे तंज़ील यह है कि आम लोगों के लिये क़ाबिले फ़हम है। (यानी एक पोशिदा मअना है कि उस को कोई शख़्स जान नही सकता और दूसरे आम मअना हैं कि हर शख़्स उस को समझ सकता है।)
जो नतीजा मुनदर्जा बाला आयात से या गुज़श्ता आयात से हासिल होता है वह इल्लल मुतह्हरून की इसतिसना है यानी सिवा ए उन लोगों के जो क़ुरआने करीम की हक़ीक़त और तावील से बा ख़बर हैं। (उन के अलावा कोई शख़्स उस को छू नही सकता) और यह सुबूत इस आयते शरीफ़ा से कि अल्लाह के सिवा किसी को तावील का इल्म नही है
,के मज़मून की नफ़ी के मनाफ़ी नही है क्योकि दो आयात के बा हमीं इंज़ेमाम से ताबेईयत और इस्तिक़लाल का नतीजा हासिल होता है यानी इस का मतलब यह है कि ख़ुदा वंदे आलम उन हक़ायक़ के साथ अपने इल्म में मुस्तकिल है और उस के सिवा उन हक़ायक़ को कोई नही समझ सकता मगर ख़ुदा वंदे आलम की इजाज़त और तालीम के साथ।
जैसा कि इल्में ग़ैब है जो बहुत ज़्यादा आयात के मुताबिक़ सिर्फ़ ख़ुदा वंद से मख़सूस है लेकिन एक आयत में बाज़ लोग उस के बरगुज़िदा और पसंदीदा है और इस क़ायदे से मुसतसना है।
इरशाद होता है:
और सिर्फ़ अल्लाह तआला ही इल्में ग़ैब को जानता है और उस के सिवा कोई दूसरा इल्में ग़ैब से वाक़िफ़ नही है मगर वह बरगुज़िदा रसूल जिन पर वह राज़ी है।
इस कलाम से मजमूई तौर पर यह नतीजा निकलता है कि इल्मे ग़ैब सिर्फ़ ख़ुदा वंदे आलम से मख़सूस है और उस के अलावा कोई दूसरा ग़ैब को नही जान सकता मगर उस के इज़्न और इजाज़त से।
हाँ
,क़ुरआने मजीद की इन आयात के मुताबिक़ ख़ुदा वंद के पाक बंदे क़ुरआन की हक़ीक़त और असरार को समझ सकते हैं और इस आयते करीमा:
ख़ुदा वंद चाहता है कि हर क़िस्म की ना पाकी और पलीदी को पैग़म्बरे अकरम (स) और उन के अहले बैत (अ) और ख़ानदाने रिसालत से दूर कर के तुम को हर ऐब से पाक और मुबर्रा कर दे। (सूरह अहज़ाब आयत
33),की रू से जो मुतवातिर अख़बार या अहादीस के मुताबिक़ अहले बैते पैग़म्बर के हक़ में नाज़िल हुई है। पैग़म्बरे अकरम और ख़ानदाने रिसालत ख़ुदा वंदे आलम के पाक बंदों में से हैं और क़ुरआनी तावील का इल्म रखते हैं।
13.क़ुरआने मजीद नासिख़ और मंसूख़ का इल्म रखता है।(
1)
क़ुरआने मजीद में अहकाम पर मबनी आयात के दरमियान बाज़ ऐसी आयात मौजूद है कि जो नाज़िल होने के बाद पहले नाज़िल शुदा अहकामी आयात की जगह ले लेती हैं। जिन पर इस से पहले अमल होता था लिहाज़ा इन आयात के नाज़िल होने के साथ ही पहले मौजूद अहकाम ख़त्म हो जाते हैं
,इस तरह पहली आयात मंसूख़ हो जाती हैं और बाद में आने वाली आयात जो पहली आयात पर हाकिम बन कर आई हैं उन को नासिख़ कहा जाता है। जैसा कि पैग़म्बरे अकरम (स) की बेसत के आग़ाज़ में मुसलमानों के हुक्म मिला था कि दूसरी अहले किताब क़ौमों के साथ बा हमीं मुफ़ाहेमत और मेल जोल से ज़िन्दगी बसर करें। चुँनाचे अल्लाह तआला फ़रमाता हैं: