15.क़ुरआने मजीद के अल्फ़ाज़ की तफ़सीर
,
उस की शुरुवात और तरक़्क़ी
क़ुरआने मजीद के अल्फ़ाज़ व इबारात और बयानात की तफ़सीर उस के नाज़िल होने के ज़माने से ही शुरु गो गई थी और ख़ुद पैग़म्बरे अकरम (स) क़ुरआन की तालीम उस के मअनों के बयानात और आयतों के मक़सद की वज़ाहत किया करते थे जैसा कि ख़ुदा वंदे आलम का इरशाद है:
हम ने तुम पर किताब नाज़िल की है ताकि जो कुछ हम ने नाज़िल किया है उस को लोगों के लिये बयान करो। (सूरह नहल आयत
44)
और फिर फ़रमाया:
ख़ुदा वंद वह है जिस ने उम्मी (अनपढ़) लोगों में से एक नबी भेजा कि उस की आयतों को लोगों के लिये पढ़ कर सुनाता है और उन के नफ़्सों को पाक करता है और उन को किताब और हिकमत की तालीम देता है। (सूरह जुमा आयत
2)
आँ हज़रत (स) के ज़माने में आप के हुक्म से कुछ लोग क़ुरआने मजीद की क़राअत
,ज़बानी याद करना और उस को महफ़ूज़ रखने की कोशिशों में लगे रहते थे जिन को क़ुर्रा (क़ारी) कहा जाता था। आँ हज़रत (स) की वफ़ात के बाद आप के सहाबा और उन के बाद सब मुसलमान क़ुरआने मजीद की तफ़सीर में मशग़ूल और मसरुफ़ रहे और आज तक मसरुफ़ हैं।
16.तफ़सीर का इल्म और मुफ़स्सेरीन के तबक़ात
पैग़म्बरे अकरम (स) की वफ़ात के बाद कुछ सहाबा जैसे ऊबई बिन काब
,अब्दुल्लाह बिन मसऊद
,जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी
,अबू सईद ख़िदरी
,अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर
,अनस बिन मालिक
,अबू हुरैरा
,अबू मूसा
,और सबसे मशहूर अब्दुल्लाह बिन अब्बास क़ुरआन की तफ़सीर में मशग़ूल थे।
तफ़सीर में उन का तरीक़ ए कार यह था कि कभी कभी क़ुरआन की आयतों के मआनी से मुतअल्लिक़ जो कुछ जो कुछ उन्होने पैग़म्बरे इस्लाम (स) से सुना था कि उस को रिवायत और हदीस के पैराए में नक़्ल किया करते थे।[
iii]यह हदीसें क़ुरआन के शुरु से लेकर आख़िर तक लगभग
240से ज़्यादा हैं। जिन में से बहुत सी ग़ैर मुसतनद और ज़ईफ़ हदीसें भी शामिल हैं और बाज़ का मत्न क़ाबिले इंकार है और कभी कभी आयतों की तफ़सीर से मुतअल्लिक़ (इंफ़ेरादी तौर पर) इज़हारे ख़्याल किया गया है बग़ैर इसके कि आँ हज़रत से उस को मंसूब करें। इस तरह अपने ख़्यालात और मतालिब को मुसलमानों पर ठूँसा गया है।
अहले बैत के मुतअख़्ख़िर मुफ़स्सेरीन और उलामा इस क़िस्म की रिवायात और अहादीस को तफ़सीर में अहादीसे नबवी में शुमार करते थे क्योकि (उनके ख़्याल के मुताबिक़) सहाबा ने क़ुरआने मजीद को इल्म ख़ुद रिसालत माँब (स) से सीखा था और बईद है कि ख़ुद उन्होने उस में कमी बेशी की हो।
लेकिन उस से मुतअल्लिक़ कोई कतई दलील नही है इस के अलावा बहुत ज़्यादा ऐसी रिवायतें भी हैं जो आयतों के असबाबे नुज़ूल और तारीख़ों क़िस्सों में दाख़िल गई हैं और इसी तरह उन्ही रिवायाते सहाबा में बहुत से यहूदी उलामा जो मुसलमान हो गये थे जैसे काबुल अहबार वग़ैरह की बहुत सी अदाहीस शामिल हो गई हैं लेकिन किसी सनद के बग़ैर।
इसी तरह इब्ने अब्बास अकसर औक़ात आयतों के मअना को वाज़ेह करने के लिये शेरों से मिसालें लाते थे जैसा कि नाफ़ेअ बिन अरज़क़ के सवालात के जवाबात में इब्ने अब्बास से एक रिवायत में आया है कि उन्होने
200से ज़्यादा सवालात के जवाब में अरबी शेरों से मिसाल देते हैं और सुयूती अपनी किताब अल इतक़ान[
iv]में
190सवालात लाये हैं। इसी तरह ऐसी रिवायात और अहादीस जो मुफ़स्सेरीन सहाबा से हम तक पहुची हैं उन को अहादीसे नबवी में शामिल नही किया जा सकता और उन में सहाबा की नज़री मुदाख़ेलत की नफ़ी भी नही की जा सकती है। लिहाज़ा मुफ़स्सेरीन सहाबा पहले तबक़े में आते हैं।
दूसरा तबक़ा: दूसरा तबक़ा ताबेईन का गिरोह है जो मुफ़स्सेरीन सहाबा के शागिर्दों में से हैं जैसे मुजाहिद[
v],सईद बिन जुबैर
,इकरमा
,ज़हाक और इसी तबक़े के दूसरे मुफ़स्सेरीन जैसे हसन बसरी
,अता बिन अबी रियाह
,अता बिन अबी मुस्लिम
,अबुल आलिया
,मुहम्मद बिन काब क़रज़ी
,क़तादा
,अतिया
,ज़ैद बिन अस्लम और ताऊस यमानी वग़ैरह।
तीसरा तबक़ा: तीसरा तबक़ा दूसरे तबक़े शागिर्दों पर मबनी है जैसे रबी बिन अनस
,अब्दुल रहमान बिन ज़ैद बिन असलम
,अबू सालेह कलबी वग़ैरह
,तफ़सीर में ताबेईन का तरीक़ ए कार यह था कि आयतों की तफ़सीर को भी पैग़म्बरे अकरम (स) से बराहे रास्त या सहाबा से नक़्ल करते हैं और कभी आयतों के मआनी को बग़ैर किसी से मंसूब किये लिख देते थे। वह अपने इज़हारे राय पर ऐतेराज़ करते थे बाद के मुफ़स्सेरीन ने उन अक़वाल को अहादीसे नबवी में दर्ज किया। ऐसी रिवायात व अहादीस को मौक़ूफ़ा कहते हैं। क़दीम मुफ़स्सेरीन उन्ही दो तबक़ो पर मुशतमिल हैं।
चौथा तबक़ा: यह तबक़ा पहले तबक़े के मुफ़्सेरीन की तरह है जैसे सुफ़ायन बिन ओनैया
,वकी बिन जर्राह
,शोअबा बिन हुज्जाज
,अब्द बिन हमीद वग़ैरह और मशहूर मुफ़स्सिर इब्ने जरीर तबरी इसी तबक़े से ताअल्लुक़ रखते हैं।
इस गिरोह का तरीक़ ए कार भी ऐसा था कि सहाबा और ताबेईन के अक़वाल को रिवायात की सूरत में अपनी तालीफ़ात में दाख़िल कर लेते थे लेकिन इंफ़ेरादी नज़र और राय से परहेज़ करते थे। उन में से सिवाए इब्ने जरीरे तबरी के जो अपनी तफ़सीर में कभी कभी अक़वाल में से बाज़ को तरजीह देते थे और उस पर इज़हारे ख़्याल किया करते थे। मुतअख़्ख़िर तबक़ा उन ही में से शुरु होता है।
पाँचवा तबक़ा: इस गिरोह में ऐसे लोग शामिल हैं जो अहादीस व रिवायात को सनद के बग़ैर ही अपनी तालीफ़ात में दर्ज कर लेते थे और सिर्फ़ नक़्ले अकवाल पर ही क़नाअत करते थे।
कुछ उलामा का क़ौल है कि तफ़सीर की तरतीब और तंज़ीम में गड़बड़ यहीं से शुरु हुई है और उन तफ़ासीर में बहुत ज़्यादा अक़वाल किसी सनद और सेहत व ऐतेबार के बग़ैर दाख़िल हो गये हैं और सनद की सही तशख़ीस सहाबा और ताबेईन से मंसूब की गई है। इस हरज मरज के सबब बहुत ज़्यादा अक़वाल तफ़सीरों में दाख़िल हो गये हैं जिन से अक़वाल की सेहत व सनद मुतज़लज़ल हो कर रह गई है।
लेकिन अगर कोई शख़्स रिवायते मुअनअन[
vi] (इंतेसाबी) पर ग़ौर व फ़िक्र करे तो कोई शक व शुबहा नही रखेगा कि उन रिवायात व अदाहीस में बनावटी (जाली हदीसें) बहुत ज़्यादा हैं। मुदाफ़ेअ और मुतनाक़िज़ अक़वाल एक सहाबी या ताबेई से मंसूब किये गये हैं और ऐसे क़िस्से और हिकायतें जो बिल्कुल झूठी हैं
,उन रिवायतों में बहुत ज़्यादा देखी जा सकती हैं। आयतों के असबाबे नुज़ूल और नासिख़ व मंसूख़ के बारे में वह रिवायतें जो क़ुरआनी आयात के सियाक़ व सबाक़ के मुताबिक़ नही हैं। एक दो नही जिन से चश्म पोशी की जा सके। यहाँ तक कि इमाम बिन हंबल (जो ख़ुद इस तबक़े के वुजूद में आने से पहले थे) ने फ़रमाया है कि तीन चीज़ों की बुनियाद नही है।
(1)लड़ाई
(2)ख़ूनरेज़ जंग
(3)तफ़सीरी रिवायतें। और ऐसे ही इमाम शाफ़ेई का बयान है कि इब्ने अब्बास से मरवी हदीसों में से सिर्फ़
100हदीसें साबित शुदा है।
छठा तबक़ा: इस जमाअत में ऐसे मुफ़स्सेरीन शामिल हैं जो मुख़्तलिफ़ उलूम की पैदाईश और तरक़्क़ी के बाद पैदा हुए हैं और हर इल्म के माहेरीन ने अपने मख़सूस अंदाज़े फ़न के ज़रिये क़ुरआन की तफ़सीर शुरु की। इल्मे नहव के माहेरीन ने नहव के ज़रिये जैसे ज़ुजाज़
,वाहिदी और अबी हय्यान[
vii]जिन्होने क़ुरआनी आयात पर ऐराब लगाने के मौज़ू पर बहस की है
,फ़साहत व बलाग़त के मौज़ू पर अल्लामा ज़मख़शरी[
viii]ने अपनी किताब अल कश्शाफ़ में इज़हारे ख़्याल किया है। इल्मे कलाम के माहेरीन ने इल्मे कलाम के ज़रिये अपनी किताब की वज़ाहत की है जैसे इमाम फ़ख़रुद्दीन राज़ी ने तफ़सीरे कबीर में
,आरिफ़ों मे इरफ़ान के ज़रिये जैसे इब्ने अरबी और इब्ने रज़्ज़ाक़े काशी ने अपनी अपनी तफ़सीरों में
,इल्मे अख़बार (हदीस) के आलिमों के अख़बार (अहादीस व रिवायात) नक़्ल कर के जैसे सालबी ने अपनी तफ़सीर में
,फ़क़ीहों ने फ़िक़ह के वसीले से जैसे क़ुरतुबी और बाज़ दूसरे हज़रात ने भी मख़लूत तफ़सीरें
,उलूमे मुतफ़र्रेक़ा के बाब में लिखी हैं जैसे तफ़सीरे रुहुल बयान
,तफ़सीरे रुहुल मआनी और तफ़सीरे नैशा पुरी वग़ैरह।
आलिमे तफ़सीर के लिये उस गिरोह की ख़िदमत यह हुई कि फ़ने तफ़सीर उस इंजेमाद और रुकूद की हालत से बाहर आ गया जो पहले पाँच तबक़ों में मौजूद था और इस तरह एक नये मरहले में दाख़िल हो गया जो बहस व तमहीस का मरहला था। अगर कोई शख़्स निगाहे इंसाफ़ से देखे तो मालूम होगा कि इस तबक़े की तफ़सीरी बहसों में इल्मी नज़रियात क़ुरआन पर ठूँसने की कोशिश की गई है लेकिन ख़ुद क़ुरआनी आयात पर उन मज़ामीन के लिहाज़ से बहस नही हुई है।
17.शिया मुफ़स्सेरीन और उनके मुख़्तलिफ़ तबक़ात का तरीक़ ए कार
जिन गिरोहों के मुतअल्लिक़ पहले ज़िक्र किया गया है कि वह अहले सुन्नत के तबक़ात के मुफ़स्सेरीन से ताअल्लुक़ रखते हैं और उन का तरीक़ ए कार एक ख़ास रविश पर मबनी है जो शुरु से ही तफ़सीर में जारी हो गई थी और वह है अदाहीसे नबवी का सहाबा केराम और ताबेईन के अक़वाल के साथ मामला
,जिन में मुदाख़ेलते नज़रिया ऐसे ही है जैसे नस्से क़ुरआन के मुक़ाबले में इज्तेहाद हो
,यहाँ तक कि उन रिवायात में जालसाज़ी
,तज़ाद
,तनाकुज़ आशकार होने लगा और ऐसे ही बनावट और जाल के ज़रिये उन मुफ़स्सेरीन को मुदाख़ेलते नज़रिया का बहाना हाथ आ गया।
लेकिन वह तरीक़ ए कार जो शियों ने क़ुरआनी तफ़सीर में अपनाया है वह मुनदरजा बाला रविश के बर ख़िलाफ़ है
,लिहाज़ा इख़्तिलाफ़ के नतीजे में मुफ़स्सेरीन की तबक़ा बंदी भी दूसरी तरह की है।
शिया हज़रात क़ुरआने मजीद की नस्से शरीफ़ा के मुताबिक़ पैग़म्बरे अकरम (स) की हदीस को क़ुरआनी आयात की तफ़सीर में हुज्जत समझते हैं और सहाब ए केराम और ताबेईन के अक़वाल के बारे में दूसरे तमाम मुसलमानों की तरह बिल्कुल किसी हुज्जत के क़ायल नही है अलबत्ता सिवाए पैग़म्बरे अकरम (स) से मंसूब अहादीस के बग़ैर
,उस के अलावा शिया हज़रात हदीसे मुतवातिर की तरतीब से अहले बैत (अ) और आईम्म ए अतहार के अक़वाल को पैग़म्बरे अकरम (स) की अहादीस की कड़ियाँ जान कर उन को हुज्जत समझते हैं। इस तरह तफ़सीरी अहादीस व रिवायात को नक़्ल और बयान करने के लिये सिर्फ़ ऐसी रिवायात पर इक्तेफ़ा करते हैं जो फ़क़त पैग़म्बरे अकरम (स) और आईम्म ए अहले बैत (अ) से नक़्ल हुई हों
,लिहाज़ा उन के मुनदर्जा ज़ैल तबक़ात हैं:
पहला तबक़ा: इस गिरोह में वह लोग मौजूद हैं जिन्होने रिवायाते तफ़सीर को पैग़म्बरे अकरम (स) और आईम्म ए अहले बैत (अ) से सीखा है और अपने उसूल में बे तरतीबी साबित कर के उन की रिवायत शुरु कर दी है। जैसे ज़ोरारा
,मुहम्मद बिन मुस्लिम[
ix],मारुफ़ और जरीर वग़ैरह।
दूसरा तबक़ा: यह हज़रात तफ़सीर की किताबों के मुअल्लिफ़ और मुफ़स्सिर हैं। जैसे फ़ुरात बिन इब्राहीम
,अबू हमज़ा सुमाली
,अयाशी
,अली बिन इब्रहीम क़ुम्मी और नोमानी
,साहिबे तफ़सीर हैं। उन हज़रात का शिव ए कार अहले सुन्नत के चौथे तबक़े के मुफ़स्सेरीन की तरह यह था कि लिखी हुई रिवायात को जो पहले तबक़े से हाथ लगी हों
,सनदों के साथ अपने तालीफ़ात में दर्ज करते थे और उन में हर क़िस्म की नज़री दख़ालत से परहेज़ करते थे।
इस अम्र के पेशे नज़र कि आईम्म ए तक दस्तरसी का ज़माना बहुत तूलानी था जो तक़रीबन तीन सौ साल तक जारी रहा
,फ़ितरी तौर पर उन दोनो तबक़ों को ज़माने के लिहाज़ के एक दूसरे से अलग करना मुश्किल है क्योकि यह आप में घुल मिल गये हैं और इसी तरह जो लोग रिवायात व अहादीस को असनाद और दस्तावेज़ात के बग़ैर दर्ज करें बहुत कम थे। इस बारे में नमूने के तौर पर तफ़सीरे अयाशी का नाम लिया जा सकता है कि जिस में से अयाशी के एक शागिर्द ने उन की तालीफ़ में से हदीसों की सनदों और दस्तावेज़ों को इख़्तिसार के सबब निकाल दिया था और उस का तैयार किया हुआ नुस्ख़ा अयाशी के नुस्ख़े की जगह रायज हो गया था।
तीसरा तबक़ा: यह गिरोह अरबाबे उलूमे मुतफ़र्रेक़ा पर मुश्तमिल है जैसे सैयद रज़ी अपनी अदबीयत के लिहाज़ से
,शेख़ तूसी कलामी तफ़सीर के लिहाज़ से
,जो तफ़सीरे तिबयान के नाम से मशहूर है और सदुरल मुतअल्लेहीन शिराज़ी[
x]अपनी फ़लसफ़ी के लिहाज़ से मैबदी गुनाबादी अपनी इरफ़ानी तफ़सीर के लिहाज़ से
,शेख़ अब्दे अली जुवैज़ी
,सैयद हाशिम बैहरानी
,फ़ैज़ काशानी
,तफ़सीर नुरुस सक़लैन में
,बुरहान और साफ़ी वग़ैरह
,जिन्होने बाज़ दूसरी तफ़ासीर में से उलूम जमा किये हैं। शेख़ तबरसी अपनी तफ़सीर मजमउल बयान में
,जिस में उन्होने लुग़त
,नहव
,क़राअत
,कलाम और हदीस वग़ैरह के लिहाज़ से बहस की है।
18.ख़ुद क़ुरआने मजीद कैसी तफ़सीर कबूल करता है
?
इस सवाल का जवाब पिछले बाबों से मालूम हो जाता है क्योकि एत तरफ़ तो क़ुरआने मजीद ऐसी किताब
,जो उमूमी और हमेशगी है और तमामों इँसानों को ख़िताब करते हुए अपने मक़ासिद की तरफ़ रहनुमाई और हिदायत करती है। इस तरह सब इंसानों के चैलेंज करती हैं (कि इस तरह की किताब ला कर दिखाओ) और अपने आप को नूर (नूरानी करने वाली) और हर चीज़ को वाज़ेह बयान करने वाली किताब कह कर तआरुफ़ कराती है अतबत्ता अपने वाज़ेह और रौशन होने में दूसरों की मोहताज नही है।
क़ुरआने मजीद यह भी चैलेंज करता है कि यह किसी इंसान का कलाम नही है और फ़रमाता है[
xi]कि क़ुरआन यकसाँ कलाम है जिस में किसी क़िस्म का फ़र्क़ नही। (इस की आयात में) और जो फ़र्फ़ ज़ाहिरी तौर पर लोगों को लोगों को नज़र आता है वह लोग अगर क़ुरआन में ग़ौर व फ़िक्र और तदब्बुर करें तो हल हो जाता है और अगर यह क़ुरआन खुदा का कलाम न होता तो हरगिज़ इस क़िस्म का न होता और अगर ऐसा कलाम अपने मक़ासिद के रौशन होने में किसी कमी
,चीज़ या आदमी का मोहताज होता तो यह दलील और बुरहान पूरी नही हो सकती थी क्योकि अगर कोई मुख़ालिफ़ या दुश्मन ऐसे इख़्तिलाफ़ी मसायल दरयाफ़्त करे जो ख़ुद की क़ुरआन की लफ़्ज़ी दलालत के ज़रिये हल न हो और किसी दूसरे ग़ैरे लफ़्ज़ी तरीक़े से हल हों जैसे पैग़म्बरे अकरम (स) की तरफ़ रुजू करने से हल हो सकें तो आँ हज़रत क़ुरआनी शवाहिद के बग़ैर ही उन को हल कर दें यानी आयत का मतलब ऐसा और यूँ हैं तो इस सूरत में वह मुख़ालिफ़ शख़्स जो आँ हज़रत की इस्मत और सदाक़त का मोतरिफ़ नही है वह अगर क़ाने और मुतमईन नही हो सकेगा। दूसरे अल्फ़ाज़ में पैग़म्बरे अकरम (स) का बयान और इख़्तिलाफात को हल करना और वह भी क़ुरआनी शहादत और दलील के बग़ैर तो वह सिर्फ़ ऐसे शख़्स के लिये मुफ़ीद और क़ाबिले क़बूल होगा जो नबूवत और आँ हज़रत (स) की इस्मत और पाकी पर ईमान रखता हो। लेकिन इस आयते शरीफ़ा में
,क्या वह लोग क़ुरआन में ग़ौर व फिक्र नही करते अगर यह क़ुरआन खुदा के अलावा किसी और जानिब से आया होता तो इस में बहुत ज़्यादा इख़्तिलाफ़ पाते। (सूरह निसा आयत
82)एक एहितजाज और उन लोगों की तरफ़ इशारा और दावत है जो नवूबत और आँ हज़रत (स) की इस्मत व तहारत पर ईमान नही रखते। लिहाज़ा आँ हज़रत का बयान जो क़ुरआनी सुबूत के बग़ैर हो उन पर सादिक़ नही आया।
दूसरी तरफ़ क़ुरआने मजीद ख़ुद पैग़म्बरे अकरम (स) के बयान और तफ़सीर पर और पैग़म्बरे अकरम (स) अपने अहले बैत की तफ़सीर की ताईद करते हैं।
इन दो दीबाचों का नतीजा यह है कि क़ुरआने मजीद में बाज़ आयात बाज़ दूसरी आयात के साथ मिल कर तफ़सीर होती हैं और पैग़म्बरे अकरम (स) और आप के अहले बैत (अ) की हालत क़ुरआने मजीद के बारे में मासूम उस्तादों जैसी है। जो अपनी तालीम में हरगिज़ ख़ता नही करते हैं। लिहाज़ा जो तफ़सीर वह करते हैं वह क़ुरआने मजीद की आयात को बा हम ज़म कर के तफ़सीर करने से कोई फ़र्क़ नही रखती।
***********************************************************************